Nagrik adhikaron ko Samarpit Ank 16-31 July 2012
आटो क्षेत्र में वर्तमान असंतोष की लहर की वजह
गुड़गांव-मानेसर आॅटो क्षेत्र में वेतन समझौते के संबंध में 6 अप्रैल,2012 के बिजनेस स्टैण्डर्ड में ‘‘मोटाउन ब्रासेस तीन साल बाद वेतन बढ़ोतरी के लिए तैयार’’ शीर्षक से एक लेख छपा। इसी अखबार में दो बड़ी आॅटो पार्ट सप्लायर फैक्टरियों में हड़ताल की रिपोर्टिग करते हुए ‘‘हरिद्वार की फैक्टरियों में मानेसर जैसी श्रम स्थितियां पैदा हुई’’ जैसे चेतावनीपूर्ण शीर्षक के साथ एक और खबर प्रकाशित हुई। भारतीय रिजर्व बैंक ने अपनी हालिया रिपोर्ट ‘‘माॅनेटरी एंड मेक्रोइकानाॅमिक डेवलपमंेटस में’’ वेतन खर्चों मंे नियमित वृद्धि से चैतरफा महंगाई के दबाव’’ की चेतावनी दी है।
औद्योगिक वेतन स्तरों में क्या कुछ हो रहा है? क्या वास्तव में ही समृद्धि जिसकी सरकारी संस्थायें बात कर रही हैं। छन-छन कर (‘ट्रिकल डाउन’ होकर) मजदूरों तक पहुंच रही है? क्या अब मजदूरों का वरदहस्त स्थापित हो चुका है? क्या वे मूल्य निर्माण का ज्यादा बढ़ा हिस्सा हासिल कर पा रहे हैं?
वास्तव में पिछले कुछ वर्षों में श्रमिक असंतोष में खासकर आॅटो व आॅटो पार्ट क्षेत्र में, उभार आया है। इनमें कुछ प्रमुख घटनायें निम्न हैं - महिंद्रा(नासिक), मई 2009 और मार्च 2009, सनबीम आॅटो (गुड़गांव), मई 2009; रिको आॅटो(गुड़गांव), अगस्त 2009, इसमें गुड़गांव में पूरे आॅटो उद्योग में हुई आम हड़ताल भी शामिल है; प्रिकोल(कोयम्बटूर), सितंबर 2009; वाल्वो(होसकोटे, कर्नाटक), अगस्त 2010; एम.आर.एफ.टायर्स(चेन्नई), अक्टूर 2010 और जून 2011; जनरल मोटर्स(हलोल, गुजरात), मार्च 2011; मारुति सुुजुकी(मानेसर), जून-अक्टूबर 2011; बाॅश(बेंगलुरू), सितंबर 2011; डनलप(हुगली), अक्टूबर 2011; कपारो(श्रीपेरेम्बदूर, तमिलनाडु), दिसंबर 2011; डनलप(अम्बतूर, तमिलनाडू), फरवरी 2012; हुंडई(चेन्नई), अप्रैल व दिसम्बर 2011-जनवरी 2012 इत्यादि।
असंतोष केवल आॅटो उद्योग तक सीमित नहीं है, लेकिन वह वहां ज्यादा केन्द्रित है। पिछले कुछ वर्षों में आॅटो उद्योग काफी तेजी से बढ़ा है। 2004-05 में 85 लाख वाहनों (दोपहिया, तिपहिया, सवारी गाडि़यों व व्यवसायिक वाहनों को मिलाकर) के मुकाबले 2011-12 में उत्पादन 2 करोड़ 4 लाख वाहनों तक पहुंच गया। कारों का उत्पादन 2004-05 में 12 लाख से बढ़कर 2010-11 में 30 लाख तक पहुंच गया।(और संभवतः 2011-12 में और बढ़ा हो) आॅटो उद्योग की पिछले एक दशक में तीव्र वृद्धि की सुविज्ञात सफलता गाथा है विशाल राजकीय सब्सिडी के दम पर सरकार भारत को आॅटोमोबाइल क्षेत्र के लिए वैश्विक मैन्यूफैक्चरिंग केंद्र(हब) बनाने हेतु कृतसंकल्प है।
दूसरी ओर, यह एक अच्छे ढंग से छुपा रहस्य है कि आॅटो क्षेत्र में वास्तविक मजदूरी (मुद्रास्फीति की गलत गणना को छोड़ते हुए भी) 2000-01 से 2009-10 की अवधि में निरंतर गिरी है। (उद्योगों के वार्षिक सर्वे, ख्।ददनंस ैनतअमल व िप्दकनेजतपमे, ।ैप् से उपलब्ध सबसे नये आंकडे़ 2009-10 के ही हैं।) यह सच है कि मोटर वाहन उद्योग में वार्षिक वेतन 2000-01 के 79,446 रुपये से 2004-05 में 88,671 रूपये और 2009-10 में 1,09,575 रुपये तक नाममात्र के लिए बढ़ा है। हालांकि औद्योगिक मजदूरों के लिए उपभोक्ता दाम सूचकांक (सीपीआई-आई डब्ल्यू) नियमित रूप से मजदूरी की तुलना में कहीं तेजी से बढ़ा है। (चार्ट-1 देखें)
दूसरी तरफ अर्थव्यवस्था में मंदी के वर्षों की गिरावट को छोड़कर आॅटो उद्योग में प्रति मजदूर द्वारा कुल मूल्य वृद्धि (मशीनों की अवमूल्यन को घटाकर भौतिक आगतों के मूल्य और निर्गतों के मूल्य के बीच का अंतर) में भी बढ़ोत्तरी होती रही है। 2000-01 में प्रत्येक मजदूर ने 2.9 लाख रूपये का मूल्य जोड़ा था। यह आंकड़ा 2009-10 में बढ़कर 7.9 लाख रुपये तक पहुंच गया (चार्ट-2 देखें)।
स्वभावतः, जैसा कि चार्ट-3 में देखा जा सकता है, जोड़े गये मूल्य के अनुपात में मजदूरी भी निरंतर गिर रही है। 2000-01 में मजदूरों का वेतन जोड़े गये मूल्य का 27.4 प्रतिशत था। 2009-10 में यह अनुपात 15.4 प्रतिशत तक गिर गया।
माक्र्सवादी संदर्भों में बात करते हुए आइये काम के दिन के दो हिस्सों में बंटवारे के हिसाब से विचार करते हैं। पहले हिस्से में मजदूर अपनी आजीविका, ताकि भविष्य में मजदूरों की उपलब्धता भी सुनिश्चित हो सके) के लिए काम करता है। उस समय में मजदूर आगत(इनपुट) में जो मूल्य जोड़ता है, वह उसे मिलने वाली मजदूरी के बराबर होता है। (उदाहरण को सरल बनाने के लिए हम खराब हो चुकी मशीनों के स्थानापन्नों की आवश्यकता तथा उत्पादन की अन्य परिस्थितियों को नजरअंदाज कर दे रहे हैं।) लेकिन मजदूर केवल इतने समय बाद काम बंद नहीं कर सकता। पूंजीपति ने उसकी काम करने की सामथ्र्य(श्रम शक्ति) को पूरे दिन के लिए खरीदा है।(उत्पादन के साधनों से विहीन होने के कारण मजदूर के सामने जिंदा रहने के लिए अपनी श्रम शक्ति बेचने के अलावा कोई चारा नहीं है) वह बाकी के पूरे दिन भी श्रम करना जारी रखता है, फिर चाहे काम का दिन 8,10,12, या 16 घंटे का ही क्यों न हो। अतिरिक्त घंटे अतिरिक्त श्रम काल होता है। इसकी भी गणना हम पैसे में कर सकते हैं। निश्चित तौर पर संभव है कि पूंजीपति इस अतिरिक्त मंे से बैंकों को ब्याज, भूस्वामी को किराया, प्रबंधकों को वेतन और इसी तरह अन्य भुगतान करता हो, लेकिन यह सभी दूसरे लोग पूंजीपति द्वारा इसी अतिरिक्त में से हिस्सा बांटते हैं।
इन अर्थों में, हम कह सकते हैं कि 2000-01 में एक आॅटो मजदूर 8 घंटे की पाली में 2 घंटा 12 मिनट अपने और अपने परिवार की आजीविका के लिए खर्च करता था। उसने बाकी बचे, 5 घंटा 48 मिनट का अधिकांश पूंजीपति(और बैंकों, भूस्वामियों, प्रबंधकों और अन्य) के लिए अतिरिक्त पैदा करने में खर्च किया।
2009-10 में यह अनुपात और नीचे गिर गया। एक आॅटो कामगार अब अपने और अपने परिवार की आजीविका के लिए केवल 1 घंटा 12 मिनट खर्च करता है और बचे 6 घंटे 48 मिनट का अधिकांश पूंजीपति के लिए काम करता है। (यह एक मजदूर और एक पूंजीपति के बीच के हिस्से हैं। लेकिन निश्चित तौर पर पूंजीपति अपने व फैक्टरी के सभी मजदूरों द्वारा पैदा अतिरिक्त मूल्य को पाता है। इस प्रकार हजार मजदूरों वाली एक फैक्टरी में पूंजीपति प्रतिदिन 6,800 घंटे अतिरिक्त श्रम के रूप में पाता है।)
यह गिरावट कैसे आई? यह महज श्रम उत्पादकता में वृद्धि, नई तकनीक की मदद से एक घंटे में पहली की तुलना में ज्यादा पैदा करने की कहानी नहीं है। जैसा कि हमने पहले देखा, मजदूरों की मजदूरी वास्तविक अर्थों में लगभग पांचवां हिस्सा तक गिर गयी। मालिकों द्वारा मजदूरों के विरुद्ध सक्रिय वर्ग संघर्ष छेड़ दिया गया था।
इस वर्ग-संघर्ष का अहम मोर्चा आॅटो उद्योग में स्वतंत्र ट्रेड यूनियनों के गठन के खिलाफ अलिखित कानून के रूप में मौजूद है। शायद हाल के आंदोलनों में मजदूरों की एकमात्र अति महत्वपूर्ण मांग उनकी खुद की ट्रेड यूनियन गठन करने का अधिकार पाने की थी। अधिकांश मामलों में मजदूर अभी तक भी ऐसा कर पाने में सफल नहीं हो पाये हैं। नियोक्ताओं द्वारा अपनाये जाने वाले तौर तरीकों में छंटनी करना, आपराधिक मुकदमों में फंसाना, मारपीट करना और यहां तक कि हत्या तक करवाना शामिल है। जर्मन आॅटो पार्ट निर्माता बाॅश ने सफलतापूर्वक यूनियन गठन के तीन प्रयासों का विरोध किया। हुंडई, हीरो होण्डा, वाॅनजिन, मारुति-सुजुकी, ग्रेजियानो, रिको आॅटो सभी जगह कहानी एक जैसी है। जब हीरो होण्डा के धारूहेडा प्लाण्ट के 1800 केजुएल मजदूरों ने अपनी पसंद की यूनियन में शामिल होने का प्रयास किया तो नेताओं के विरुद्ध आम्र्स एक्ट और भारतीय दंड संहिता की धारा-307 (हत्या का प्रयास) के अंतर्गत मुकदमे दर्ज कर दिये गये। रिको आॅटो, गुड़गांव में 2009 मे मजदूरों पर गुण्डों द्वारा हमला करवाया गया। इसमें एक मजदूर की मौत हो गयी। 2011 में मारुति आंदोलन में हरियाणा का श्रम विभाग(वास्तव में पूरी हरियाणा सरकार) ने प्रबंधन की एक शाखा (विंग) की तरह काम किया। आॅटो कंपनियां अपने कामों को गुजरात स्थानांतरित कर रही है। स्पष्ट उद्दंडता से यह घोषित करते हुए कि वे अपने उत्पादन को ‘यूनियन-प्रूफ’ करने के लिए ऐसा कर रहे हैं(अर्थात् वे उम्मीद करते हैं कि श्रीमान मोदी उपद्रवियों से निपट लेंगे।)
ठेके, ‘ट्रेनी’ और ‘अप्रेटिंस के आधार पर मजदूरों को (स्थायी मजदूरों के वेतन के एक हिस्से भर में) रखना वेतन घटाने का एक और समान महत्व का और पूरक तरीका है। समाचार रिपोर्टों के अनुसार दिल्ली के बाहर गुड़गांव-मानेसर-बावल जोन में, जो कि भारत के आॅटो उत्पादन के लगभग 60 प्रतिशत के लिए जिम्मेदार है, 10 लाख मजदूरों में से 80 प्रतिशत ठेके पर रखे जाते हैं। मारुति-सुजुकी के मानेसर प्लाण्ट में 970 स्थायी, 400-500 ‘ट्रेनी’, 1,100 ठेका मजदूर और 200-300 ‘अप्रेंटिस’ मजदूर हैं। भारत के दूसरे किसी हिस्से में स्थिति इससे कोई भिन्न नहीं है। पश्चिम बंगाल और गुजरात के मजदूरों के ऊपर हुए आर्थिक वृद्धि संस्थान (प्देजपजनजम व िम्बवदवउपब ळतवूजी) के एक सर्वे में पाया गया कि विनिर्माण क्षेत्र में 60-70 प्रतिशत मजदूर ठेका मजदूर हैं। यह आंकड़ा इन राज्यों कि औद्योगिक वार्षिक सर्वेक्षण (।ैप्) से तीन-तीन गुना ज्यादा है। (।ैप् के आंकड़े स्वयं कंपनियों द्वारा बतायी जानकारी के आधार पर तैयार किये जाते हैं।)। पिछले दो दशकों में औद्योगिक श्रम शक्ति में ठेका श्रमिकों के हिस्से में बेतहाशा वृद्धि देखी गयी है। इसके बावजूद कि कुल श्रमशक्ति इस दौरान नगण्य दर से बढ़ी है।
महंगाई की मार सबसे ज्यादा ठेका मजदूरों (कान्ट्रेक्ट वर्कर) पर पड़ी है। हालांकि उनके वेतनों को सूचीबद्ध नहीं किया गया है। इनके वास्तविक वेतनों में सीधी गिरावट हुई है। वे अपनी बर्दाश्त की सीमा पर पहुंच गये हैं और अब पलटकर लड़ाई कर रहे हैं। पिछले दशक खासकर पिछले कुछ वर्षों के दौरान यह अपनी वास्तविक मजदूरी के नुकसान के एक हिस्से की क्षतिपूर्ति का प्रयास है या कम से कम और गिरावट को रोकने का प्रयास है। उनकी हालिया बढ़ी हुई उग्रता का यही कारण है।
निश्चित तौर पर आॅटो मजदूर एक आम प्रवृत्ति के केवल शानदार उदाहरण भर है। जैसा कि चार्ट- 4 व 5 में देखा जा सकता है कि 2000-01 के मुकाबले 2009-10 में कारखाना क्षेत्र में समग्रता में वास्तविक मजदूरी कम है। हालांकि गिरावट उतनी तेज नहीं है, जितनी कि आॅटो क्षेत्र में है और इस पूरे काल में मूल्य योग के अनुपात में भी मजदूरी करखाना क्षेत्र में लगातार गिरी है।
उभरती घटनाओं के पीछे की यह पूरी पृष्ठभूमि है जिसे मीडिया हिंसा कहता है- अर्थात प्रबंधकों की नियमित हिंसा नहीं, बल्कि मजदूरों का प्रतिरोध है। दो हालिया उदाहरणों को लीजिये येनम (पुद्दचेरी के अंतर्गत आने वाला काकीनाडा, आंध्रप्रदेश के निकट का एक छोटा सा इलाका) में जनवरी,2012 में स्थायी किये जाने तथा वेतन वृद्धि की मांग के लिए रिजेन्सी सिरेमिक्स के 8 सौ मजदूर हड़ताल पर थे। 27 जनवरी को उनके धरने पर हमलाकर पुलिस ने उनके यूनियन अध्यक्ष को मार दिया और कुछ अन्य लोगों को घायल कर दिया। गुस्साये मजदूरों ने बदला लेने के लिए कंपनी के अध्यक्ष पर हमला कर दिया (जिससे बाद में उसकी मौत हो गयी) और मालिकों की बहुत सी सम्पत्ति को तोड़-फोड़ दिया और आग लगा दी। 19 मार्च 2012 को गुडगांव में ओरिएन्ट क्राफ्ट (टोमी हिलाफिगर, डीकेएनवाई तथा गेप की अंतर्राष्टीय रिटेल श्रृंखलाओं को वस्त्र निर्यातक) के ठेका मजदूरों द्वारा रविवार की छुट्टी करने के एवज में दो दिन का वेतन काट लेने का प्रतिरोध कर रहे थे। बदले में एक ठेकेदार ने कैंची से एक मजदूर पर हमला कर दिया। हजारों मजदूरों ने बदला लेने के लिए कंपनी का एक वाहन और पुलिस कार जला दी। कोर्ट ने ठेकेदार को जमानत पर रिहा कर दिया और गिरफ्तार मजदूरों को जेल भेज दिया।
श्रम ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार वास्तविक मजदूरी मंे गिरावट केवल औद्योगिक श्रमिकों तक सीमित नहीं है। उल्लेखनीय रूप से मनरेगा के बावजूद 2004-05 से 2008-09 के बीच में ग्रामीण क्षेत्रों में भी वास्तविक मजदूरी गिरी है। यह सस्ते जन उपभोक्ता माल पैदा करने वाले उद्योगों के लिए बुरी खबर हो सकती है, लेकिन वे कारपोरेट क्षेत्र के छोटे से भी छोटे हिस्सा बनते हैं। सम्पूर्णता में निम्न ग्रामीण मजदूरी और निम्न ग्रामीण आय दूसरे अर्थ में कारपोरेट क्षेत्र के लिए अच्छी खबर है। यह औद्योगिक मजदूरों की मजदूरी को और गिराने में सहायक है क्योंकि गांव में विकल्प बहुत क्षीण हो जाते हैं।
(साभारः ष्न्दतमेज पद ।नजव ैबमजवतष् आस्पेक्ट्स आफ इण्डियाज इकोनोमी अंक 52, अनुवाद हमारा)