Saturday, 5 January 2019

आगरा व पौड़ी में लड़कियों के खिलाफ घृणित हिंसा




आगरा व पौड़ी में लड़कियों के खिलाफ घृणित हिंसा

       इस साल महिलाओं व बच्चियों पर हिंसक यौन अपराध के मामले काफी बढ़ गए है। साल 2012 में दिसंबर माह में ही दिल्ली में निर्भया कांड हुआ था। तब इस घटना के विरोध में देश उबल पड़ा था। दिल्ली में तब कांग्रेस की सरकार थी। तब निर्भया कांड पर सड़कों पर उमड़ पड़े लोगों पर लाठियां चली थी और मेट्रो बंद कर दी गई थी।
        2012 के बाद तब से अब तक दरिया में बहुत पानी बह चुका है। सरकार बदल गयी। नेता बदल गये ! पार्टी बदल गयी और नारे भी बदल गए। यही नही नारे अब जुमलों (मजाक) में बदल गए हैं। मोदी सरकार ने कहा 'बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ'। लेकिन साल दर साल महिलाओं पर हिंसक हमले बढ़ते गए। इन्होंने नारा दिया 'बहुत हुआ महिलाओं पर अत्याचार-अबकी बार भाजपा सरकार'। यू पी में भी उत्तराखंड में भी इन्हीं की हुकूमत कायम हो गयी। सरकार बनने के बाद हुआ ठीक उलटा !
          महिलाओं पर अत्याचार, हिंसक यौन हमले न रुकने थे न रुके ! न कम होने थे न कम हुए। हुआ तो यह कि इन हिंसक अपराधों व यौन हिंसा के मामले काफी बढ़ गए। 2018 के तीन माह में ही यू पी में तकरीबन 76 हज़ार मामले महिलाओं के ख़िलाफ़ हुए हैं जबकि साल 2016 में साल भर में इनकी संख्या लगभग 49 हज़ार थी। उत्तराखण्ड की शांत पहाड़ियों में भी अब ये घटनाएं बढ़ गई। पूरे देश की बात कहें तो ये अपराध काफी बढ़े हैं।
        कोई कैसे ये उम्मीद करे कि ये अपराध कम हों। जब बिहार के 'संरक्षण गृह' में मासूम बच्चियों से यौन हिंसा करने वाले ही सरकार में शामिल हों। यानी अपराधी ही राजनेता हों ! मंत्री हों। जब सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद इन अपराधियों की गिरफ्तारी न हो रही हो। तब कोई उम्मीद क्यों करे, कैसे करे ?
       कोई कैसे ये कहे कि कुछ गरीब व कमजोर अपराधियों को फांसी पर लटका देने से ये अपराध रुक जाएंगे ? जबकि हमने देखा है कि उन्नाव व कठुआ में सरकार के मंत्री ही अपराधियों के पक्ष में खड़े हो गए , इन्हें बचाने के लिए आंदोलन करने लगे। आलम यह है कि उन्नाव (उत्तर प्रदेश) की लड़की पर उल्टे मुकदमे ठोंक दिए गए हैं।
       साफ है सरकारों का अपराधियों को ये संरक्षण अपराध को रोकने वाला नहीं बल्कि बढ़ाने वाला है। अपराधियों के पक्ष में , बचाव में मंत्रियों व पार्टी का आंदोलन करना कहीं से भी महिलाओं व बच्चियों की सुरक्षा को नही बढ़ाता है बल्कि यह अपराधियों को प्रोत्साहित करता है उनके होंसले बढ़ाता है और फिर ये अपनी बारी में अन्य महिलाओं व बच्चियों को अपना शिकार बनाते हैं।
      जो लोग , जो पार्टी और जो नेता दिन रात महिलाओं के खिलाफ जहर उगलते रहते हैं जो महिलाओं की बराबरी के विरोधी हों ! जिन्हें महिलाओं पर बढ़ती यौन हिंसा की वजह 'महिलाओं के कपड़ो' में नज़र आती हो, देर तक घूमने; ज्यादा बात करने में नज़र आती हो। ये बहुत मक्कारी से भी अपराधियों के अपराध पर पर्दा डाल रहे हैं और अपराध को बढ़ावा दे रहे हैं।
      कोई उत्तराखण्ड आंदोलन को कैसे भुला सकता है ? जब रामपुर तिराहा कांड रचा गया ! जिसमें  महिलाओं के साथ यौन हिंसा करने वाली उत्तर प्रदेश की 'पुलिस' ही थी। इन पुलिस वालों का, पुलिस अधिकारियों का , डी.एम  व डी आई जी का क्या बिगड़ा ? भाजपा व कांग्रेस की सरकार ने 'उत्तराखंड की आन्दोलनकारी महिलाओं' के साथ यौन हिंसा करने वाले लोगो को सजा दिलाना तो दूर मामले को कमजोर करते जाने का काम किया व इन्हें बचाने का काम किया।

काकोरी के शहीद

         काकोरी के शहीद

        आज से लगभग 90 साल पहले दिसंबर 1927 में 4 नौजवांनो को फांसी हुई थी। ये चार नौजवान थे अशफ़ाक़ उल्ला खां, राजेन्द्र लाहिड़ी, रोशन सिंह और रामप्रसाद बिस्मिल
        इनकी चाहत थी और संघर्ष था कि देश अंग्रेजों की गुलामी से आज़ाद हो ! कि देश में हिन्दू मुस्लिम के नाम पर जनता को बांटने की साजिश खत्म हो ! कि धर्म सबका निजी मामला हो ! कि राजनीति और सार्वजनिक जीवन से धर्म को बाहर कर दिया जाय !
       अपने मकसद के लिए ही इन्होंने काकोरी में ट्रेन के खजाने को हासिल करने की कोशिश की। अंग्रेजी हुकूमत की नज़र में यह डकैती थी। इन्हें बाद में गिरफ्तार कर लिया गया। अंग्रेज सरकार ने इन्हें फांसी दे दी। ये चार काकोरी के शहीद आज भी हमें प्रेरित करते हैं।
           इनका संघर्ष, इनका जज्बा, इनका बलिदान और अलग अलग धर्म से होने के बावजूद आज़ादी के लिए इनका एकजुट संघर्ष ! आज भी हमें सही राह दिखाता है। इनके विचार आज 'हिन्दू-मुस्लिम' 'मंदिर-मस्जिद' के हंगामे से निपटने के लिए जरूरी हैं। 
          आज वक़्त ज्यादा संगीन है ज्यादा खतरनाक है। आज हर तरफ़ 'हिन्दू-मुस्लिम' 'मंदिर-मस्जिद' का शोर है हंगामा है। इस शोर में, इस साजिश में नागरिकों के मौलिक अधिकारों को हाशिये पर धकेल दिया गया है। बराबरी के अधिकार पर हमला बोला जा रहा है। आज शासक जनवादी और संविधान
 में मिले अधिकारों को व्यवहार में खत्म करने की ओर बढ़ रहे हैं यह सब कुछ हिन्दू-मुस्लिम, मन्दिर-मस्जिद का हंगामा खड़ा कर किया जा रहा है फर्जी देशभक्ति का हंगामा और उन्माद खड़ा करके किया जा रहा है।
            इस उन्माद में, इस शोर गुल में वो आवाजें कुचल दी जा रही हैं दबा दी जा रही हैं जो पूछती है कि सवा लाख टीचर जिन्हें एक झटके में मोदी- योगी शासन में बाहर कर दिया गया उनका क्या हुआ? जो किसानों की आत्महत्याओं और उनके आंदोलन पर गोली चलाने के लिए सरकार को कठघरे में खड़ा करते हैं ! मेहनतकश दलितों व मुस्लिमों पर बढ़ते हमलों के खिलाफ आवाज उठाते हैं।
          इस हंगामे में ये आवाज गायब कर दी जा रही हैं कि बैंक के 8 लाख करोड़ रुपये जिसे डकारकर पूंजीपति मालामाल हुए हैं इन पूंजीपतियों से क्यों नही वसूले जा रहे है ? क्यों इसे बट्टे खाते में डाला जाता है ? मेहनतकश जनता के बेटे-बेटियों के लिए तो 'ठेके' की नौकरी है जबकि अम्बानी-अडानी जैसों को सारे संसाधन लुटाए जा रहे हैं सारे कानून इनके हिसाब से तोड़े मरोड़े और बनाये जा रहे हैं ऐसा क्यों ? क्यों जनता को कंगाल बनाने और पूंजीपतियों की दौलत बढ़ाने वाले कानून बनाये जा रहे हैं ?
       क्या जनता सरकार इसलिए बनाती है कि सरकार जनता पर अपनी मनमर्जी थोपे ? सक्षम और ताकतवर लोगों के पक्ष में काम करे ? मज़दूरों, किसानों, छात्रों, बेरोजगारों के संघर्ष का मज़ाक उड़ाये, इन पर लाठियां चलाये और फर्जी मुकदमे लगा दे।
        माहौल कितना गंभीर हो चुका है कोई भी बुलन्दशहर में इंस्पेक्टर की हत्या से अंदाजा कर सकता है। संघी फासिस्ट दस्ते बजरंग दल का हाथ इसमें बताया जा रहा है।         
        मोदी-योगी सरकार इस तरह अपना काम कर रही है। इनका अंदाज हिटलर-मुसोलिनी सा ही है। सवाल केवल मोदी-योगी या भा ज पा का नहीं है। कांग्रेस, सपा, बसपा सभी पूंजीवादी पार्टियों का बुरा हाल है। सभी पूंजीपतियों के लिए काम करती हैं या इनकी हैसियत भी पूंजीपतियों सी हो गई है। सभी पार्टियां मेहनतकश जनता के विरोध में हैं। सभी भ्रष्ट हैं और जनता के आंदोलनों का सभी ने दमन किया है।
        आज समाज इसी मुकाम पे खड़ा है। आज पूंजी और देश के टॉप पूंजीवादी घराने समाज को बर्बरता और जंगलराज की ओर धकेल रहे हैं। इनकी मुनाफे की अंध हवस सब कुछ निगल लेने को बेचैन है। ये एक ओर छोटी संपत्ति-छोटी पूंजी के मालिकों की संपत्ति - पूंजी को हड़प ले रहे हैं । दूसरी तरफ ये मज़दूरों की मेहनत को पूरी तरह निचोड़ लेने को बेताब हैं। यही नहीं पेंशन, प्रोविडेंट फंड, सब्सिडी, राशन, बैंक जमा आदि पर भी इनकी गिद्ध नज़र जमी हुई है।
         आज असल सवाल यही है कि हमारा समाज किधर की ओर जाएगा ? क्या बड़ी बड़ी पूंजी के मालिक और इनकी पार्टी जनता को बांटने में सफल हो पाएंगे ? क्या ये हिटलर-मुसोलिनी की तरह समाज को बर्बादी तबाही की दिशा में ले जाने में सफल होंगे ? आतंकी तानाशाही कायम करने में कामयाब होंगे ? जहां बड़ी बड़ी पूंजी के मालिकों के मुनाफे की हवस का नंगा नाच होगा। जहां मेहनतकश जनता के हर हिस्से की आवाज को खामोश कर दिया जायेगा।  या फिर जनता अपने संघर्षों के दम पर समाजवाद की ओर बढ़ेगी। मज़दूर मेहनतकश जनता के राज को बनाएगी। जहां सारे संसाधनों की मालिक जनता होगी। जनता ही सब कुछ तय करेगी।
         भविष्य कैसा होगा ? यह सब कुछ हम पर है। यदि हम एकजुट होते हैं 'मंदिर-मस्जिद' के इनके नारों में नहीं फंसते हैं 'हिन्दू-मुस्लिम' के इनके जाल में नहीं फंसते हैं तो तय है कि जीत हमारी होगी। हमारे एकजुट संघर्ष ही हमें जीत दिला सकते हैं। समाजवाद की ओर ले जा सकते हैं।
    

राजस्थान, मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में हालिया विधानसभा चुनाव

राजस्थान, मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में हालिया विधानसभा चुनाव
 
     हिंदी हार्ट लैंड कहे जाने वाले क्षेत्र में मोदी_शाह की भाजपा हार गई और कांग्रेस जीत गई। यह " नागनाथ का हारना व सांपनाथ का जीतना" है। यह विकल्पहीनता की स्थिति को ही दिखाता है। जहां तक तीसरे मोर्चे की बात है यह भी कोई विकल्प नहीं है। यह भी सांपनाथ से कम नहीं हैं। ये सभी पूंजीपति वर्ग के अलग अलग हिस्सों को ही अभिव्यक्त करने वाले शेड्स है।
       जहां तक भाजपा की पराजय का सवाल है इसके गिरते ग्राफ का सवाल है यह जारी है। भाजपा का मोदी की अगुवाई में मध्य प्रदेश में 2014 में प्राप्त वोट शेयर 54 % से गिरकर 44.3% , राजस्थान में 55 %से गिरकर 38.8 % , छत्तीसगढ़ में 49% से 32.9 % हो गई है। तेलंगाना में 10.7% से 7 % हो गई है। मिज़ोरम में थोड़ी वृद्धि हुई है। औसतन तीन राज्यों में लगभग 12 % की गिरावट हुई है। यह 2019 के लिहाज से मोदी शाह की जोड़ी को पीछे धकेलने वाला साबित हो सकता है।
      जहां तक फासिस्ट आंदोलन का सवाल है। यह अभी भी मजबूत स्थिति में है। 2013 के वोट शेयर के लिहाज से भी इसमें विशेष गिरावट नहीं दिखती। वैसे भी देश की समग्र पूंजीवादी राजनीति अब दक्षिणपंथ की दिशा में झुकी हुई है। कांग्रेस के आने का यह अर्थ नही कि फासीवादी आंदोलन कमजोर होगा  यहां तक कि केंद्र की सत्ता में कायम होने की स्थिति में भी यह असम्भव है।
      जो 2014 से पहले कभी न हो सका उसकी उम्मीद पालना मूर्खता है।  हां ! इनकी आक्रामकता पर बेशक असर पड़ेगा। वस्तुतः यह फासिस्ट आंदोलन एकाधिकारी पूंजीवादी घरानों की जरूरत है। हालांकि फासीवादी राज्य की इसे अभी जरूरत नहीं है। इसलिए इन चुनाव मात्र से फासीवादियों को हराने का ख्वाब देखना बिल्कुल भी सही नहीं है।
      जहां तक विकल्प का सवाल है जनता के लिए विकल्प कोई क्रांतिकारी ही हो सकता है। जो अभी कहीं दिखता नहीं।

चुनाव की आड़ में बिहार में नागरिकता परीक्षण (एन आर सी)

      चुनाव की आड़ में बिहार में नागरिकता परीक्षण (एन आर सी)       बिहार चुनाव में मोदी सरकार अपने फासीवादी एजेंडे को चुनाव आयोग के जरिए आगे...