Friday, 12 July 2013

uttarakhand disaster

UTTARAKHAND    APADAA   RAAHAT   MANCH

A joint forum made by the different organisation namely kraantikari lok adhikar sangathan, parivartnkaamee chhatra sangathan , inqalabi mazdoor sangathan, progressive medicose forum, pragatisheel mahilaa ektaa kendra, thekaa kalyaan samiti and other  organisation. 
      it surveyed the different area of uttarakhand disaster affected area and then went to kedaarnaath on 12 july 2013. At this time in this team there are three doctors with 4 social activists of these organisation. The main purpose of this team to provide medical assist with other kind of assistance . 


 there is the list of drugs required for these affected areas:

                   anti biotics.............
ciplox
metrogyl
cefixime
doxycyclin
azithromycin
septran
lariago
lariago500
levoflox
oflox syrup metrogyl
syrup cefexime
amloipine5mg
metolar25
remipril
permethrin
clotrimazole
fungid
                    tab.....
CPM
citrizine
syrup
tab PCM
diclophenac
ibuprofen
meftal spas
prenisolone
rantac
domestal
digene
digene syrup
deriphyllin
eardrop /eyedrop
ciplox/gentamycin

  the individuals who provide above mentioned drugs and those who want to provide economic  contribution  please contact  at   the   following number :
    kamlesh    ramnagar ( nainital)  7500714375
Bhupal   dehradun:  8126975771
Dr . Asutosh  meeruth :  9319843319
Kailash     ( rudrapura):  9675117739
Pankaj      (kotdwar  pauri)   : 7409467787
Bindu gupata  ( laalkuan  nainital)   : 9536338308

  the economic contribution   may be done in favour of " nagarik  adhikaaron ko  samarpit"to  state bank of india  a/c  no.  30488926725     .

uttarakhand disaster

          राज्य सरकार  की घोर असंवेदनशीलता दावो की हकीकत  को उजागर करते उत्तरकाशी के कुछ  और गाँव
       क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन , परिवर्तन कामी छात्र संगठन , प्रोग्रेसिव मेडकोज फोरम, इंकलाबी मजदूर केंद्र व प्रगतिशील महिला एकता केंद्र तथा अन्य संगठनों के नेतृत्व में उत्तराखंड आपदा राहत मंच का गठन किया गया। इस राहत मंच के नेतृत्व में तीन टीमें बनी।इनमें से एक टीम को रुद्रप्रयाग होते हुए केदारनाथ तक जाना था दूसरी टीम को पिथौरागढ़ तो तीसरी टीम को उत्तरकाशी से आगे जाना था| इस यात्रा का मकसद था सुदूर गांवो में जाकर स्थिति को देखना समझना व सर्वे करना ताकि इसके बाद इन तीनों इलाकों में से किसी एक में जहां सख्त चिकित्सकीय जरूरत व राहत सामग्री की जरूरत हो प्रदान करना।
                 हम क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन , इंकलाबी मजदूर केंद्र व प्रोग्रेसिव मेडकोज फोरम के 3 लोगो की संयुक्त टीम ने 3 जुलाई की रात को देहरादून से उत्तरकाशी को प्रस्थान किया   1 डाक्टर साथी भी इस टीम में थे।  मसूरी, धनोल्टी ,सुआखेत ,भवान, चिन्यालीसौड़ रास्ते से होते हुए हम सुबह  तकरीबन 6  बजे उत्तरकाशी पहुंचे और फिर नाश्ता करने के बाद  यहाँ से तकरीबन 8 बजे हमने यहा से 14 किमी. दूर मनेरी की ओर प्रस्थान किया। लगभग 4 किमी॰ की दूरी को गाड़ी से तय करने के बाद हम लोग गंगोरी पहुंचे। इस बार हम गंगोरी से संगमचट्टी की ओर न जाकर मनेरी की ओर बढ़े। गंगोरी से लगभग 200-300 कदम आगे बढ़े ही थे कि तभी हमने खुद को भागीरथी नदी के पास पाया। भागीरथी नदी का भयानक शोर लोगो को इस वक्त भी डरा रहा था । यहां लगभग 300-400 मीटर सड़क बह गई थी सड़क का कहीं कोई नामोनिशान तक भी नहीं था। जिस ओर सड़क थी वहां अब नदी थी।
 
       गंगोरी के पास भागीरथी नदी में तबाह हुई सड़क व खेत
      
    यहाँ पर फिर केंद्र व राज्य सरकार की संस्थाओ द्वारा सड़क बनाने व दुरुस्त करने के प्रयास हो रहे थे। सड़क फिर उसी परंपरागत तरीके से बनाई जा रही थी बेहद कमजोर पहाड़ को जे. सी. बी. मशीन से काटकर सड़क बनाई जा रही थी। खतरा फिर पैदा हो रहा था एक ओर सड़क व पहाड़ी का नीचे नदी से कटाव व धंसने का तो दूसरी ओर नई बन रही सड़क पर ऊपर पहाड़ से गिरते पत्थर व मलवे का। आने जाने वाले लोगों को इस खतरे से सड़क बनाने वाले आगाह कर रहे थे । सड़क बनाने के दौरान निकले मलवे को फिर नदी में डाला जा रहा था बिना यह सोचे-योजना बनाए कि बाद में यह क्या परिणाम पैदा करेगा  
 यहा से पैदल-पैदल होते हुए हम गरमपानी नाम के स्थान पर पहुंचे । बीच-बीच में एक-दो  जगहो पर कुछ किमी. का सफर  गाड़ी व कुछ पैदल पैदल सफर तय करने के बाद हम नेताला होते हुए मनेरी पहुंचे।
       यह इलाका भी भागीरथी नदी के किनारे पर बसा हुआ था यही पर मनेरी भाली डैम भी बना हुआ है । मनेरी में भी तबाही हुई है यहां के स्थानीय दुकानदार विक्रम सिंह नेगी जी के दुकान पर बैठकर हमने यहा के पूरे इलाके के बारे मे जानकारी जुटाई। इसके अलावा अन्य लोगो से भी बातचीत की । इसके बाद हम डैम से होते हुए मनेरी के सामने भागीरथी नदी के दूसरी ओर पहुंचे । यहां से जामक गाव के बगल से होते हुए हम लोग डिडिसारी गाव पहुंचे।
यह गाव भी भागीरथी नदी के पास है गाव वालो के मुताबिक 20 घर नदी में बह गए है उनके खेत भी नदी में बह गए है । दहशत की वजह से गाव वाले गाव छोड़कर 17 जून से  ऊपर स्कूल में अपने पशुओ के साथ शरण लिए हुए है। इतने दिन गुजर जाने के बाद शासन प्रशासन का कोई भी आदमी उन तक नही पहुचा। यहा से मनेरी कठिन व खतरनाक रास्ते से जाना पड़ता है तकरीबन 5-6 किमी दूर है । गाववालों के अनुसार राहत के नाम पर 2700 रुपया मिला है, जबकि 20 तबाह परिवारों को 35000 रुपये भी सरकार की ओर से मिले है जिसमे घर तो दूर की बात 5-6 महीनो का खर्च चलाना भी मुश्किल है लोगो ने यह भी बताया कि होलिकौप्टर से राहत सामगी के रूप में जो बिस्कुट के पैकेट छोड़े गए थे उन्हे खाकर अधिकाश बच्चों के उल्टी दस्त हो गए । उसके बाद ही यहा डाक्टर आये थे ।
       इस गाव के साथ–साथ सभी गाववासियों के लिए एक यह भी समस्या बन रही है कि खाना कैसे बने क्योकि लकड़िया भी भीगी हुई हैं । राज्य सरकार की ओर से सोलर लालटेन व राशन वितरित करने की बात खूब  कही  जा रही है | हकीकत ये है कि सोलर लालटेन लेने के लिए यहां से लगभग 20 किमी. दूर उत्तरकाशी जाना पड़ रहा है जबकि राशन के लिए यहा से लगभग 6 किमी॰ दूर मनेरी जाना पड़ रहा है | यहा के लोगो को राशन के बारे में नही पता था। जबकि लालटेन के लिए वही लोग जा पाये जिनकी वहा तक लगभग 13-14 किमी ॰ पैदल जाने की कुब्बत हो। 10 किलो॰ चावल यहा एक धार्मिक संस्था के लोगो द्वारा दिया गया। यहां पर कुछ दवाइया कुछ सामान्य बीमारी से ग्रसित मरीजो को दिया। ग्रामीणों ने यह भी बताया कि प्रभावित होने वाले परिवारों की पिछले 2-3 साल से कही अन्य जगह  पुनर्वास की मांग थी लेकिन सरकार ने इसे अनसुना किया। इसके हम यहा से चल दिये  लगभग आधे घंटे तक ऊपर पहाड़ पर चढ़ने के बाद हम लोंथरों गाँव पहुंचे।

        
  डिडिसारी के तबाह परिवार मय अपने पशुवों के इस स्कूल में शरण लिए हुए ....
                   इस गाव में हमने मेडिकल कैंप भी लगाया। लगभग 40-50 मरीजों का चैकअप यहां किया गया । त्वचा ऐलर्जी, बुखार ख़ासी, पेट  बदन व सर दर्द के अधिकतर मरीज थे कुछ बच्चे दस्त से ग्रसित थे रास्तों के बंद हो जाने व पैदल कठिन रास्तों से उत्तरकाशी या मनेरी से जरूरी सामान पैदल- पैदल लाने के चलते अत्यधिक मेहनत करनी पड़ रही थी अत्यधिक शारीरिक मेहनत हो जाने के चलते मासपेशियों मे दर्द व बुखार आम बात थी । इस गाव समेत अन्य भी ऐसे क्षेत्र हें जहा राजमा व आलू की खेती होती है इसे बेचकर व खच्चर के जरिये  सामान भाड़े में धोकर अधिकतर लोग अपना जीवन यापन कराते हैं । लेकिन शासकों की पर्यावरण संरक्षण या वन एवं वन्य जीव संरक्षण की नीति ने इसे भी तबाह कर दिया है । इस इलाके के लोगो की सारी मेहनत के बाद पैदा हुई फसल को जंगली सूअर, भालू, लंगूर या बंदर सफाचट कर बर्बाद कर देते है जबकि टाइगर प्रोजेक्ट के तहत संरक्षित किए जा रहे बाघों का खतरा इस इलाके के सभी गावों में लगातार बना रहता है। और अब ये पूरा ही इलाका भारत सरकार की पारिस्थितिकीय संवेदनशील क्षेत्र ( ईको सेंसिटिव ज़ोन ) की जद में आने वाला है जिसके बाद ग्रामीणों का जीवन यापन खतरे में पड़ेगा साथ साथ ही खतरनाक जंगली जानवरों का खतरा कई गुना बढ़ जाएगा। लोगो का कहना था कि एक बार भूवैज्ञानिकों की टीम यहा आई थी जिसने बताया था कि लोंथरों व इसके ऊपर बसे बायणा गाव को काफी खतरा है इन गावों के ऊपर एक गुप्त ताल जमीन के भीतर मौजूद है जिससे कभी भूकंप या बादल फटने की घटना के चलते ये दोनों गाव कभी भी ज़मींदोज़ हो सकते हैं। इसलिए ग्रामीणों की यहा से विस्थापित कर पुनर्वास किए जाने की मांग सरकार से रही है जो कि वर्षो से  अभी भी अनसुनी है।
       रात हम लोगों ने इसी गांव में बिताई। इसके बाद अगले दिन नास्ता करने के बाद हम यहाँ से बायणा गाँव होते हुए स्याबा गाँव की ओर रवाना हुए। बायणा गाँव की भी लोंथरों जैसी ही स्थिति थी। स्याबा यहाँ से तकरीबन 5-6 किमी दूर था। रास्ता थोड़ा कठिन था व जोंकों से भरा हुआ जिससे दिक्कत ज्यादा बड़ जा रही थी । तीन चार घंटे की इस पैदल यात्रा  के बाद हमने श्याबा गाँव में प्रवेश किया। गाँव मे चक्की चलने की आवाज आ रही थी । लग रहा था जैसे गाँव में सब कुछ सामान्य हो कोई दिक्कत नहीं हो। एक जगह ढ़ोल बजने की आवाज आ रही थी हम उधर की ही ओर हो लिए। यहाँ गाँव के अधिकांश स्त्री पुरुष दिखाई दे रहे थे। ग्रामीणों से बातचीत करने पर पता चला कि इस गाँव में उस जगह पर बादल फटा जहां कुछ ग्रामीणों के पशु रह रहे थे व खेत थे वहाँ रात में बादल फटने के बाद पशुओं का क्या हुआ कुछ पता नहीं लगा। बस यहाँ पर ऊपर पहाड़ी से नीचे गधेरे तक लगभग 20 फ़ुट गहरा व 15 फुट चौड़ा लम्बा नाला बन गया था जिसमें थोड़ा पानी बह रहा था। यही नहीं पूरे गाँव के ऊपर से अर्द्धचन्द्राकार रूप में जमीन एक छोर से दूसरे छोर तक लगभग 1- 3 फिट तक फट चुकी तक थी इस प्रकार गाँव खतरे की जद में है गाँव कब धंस जाये या तबाह हो जाये कुछ नहीं कहा जा सकता।
       ग्रामीणों ने बताया कि यहा पनचक्की भी बह गई है कल ही डीजलचक्की वाला यहाँ से लोंथरों डिडिसारी होते हुए उत्तरकाशी ( लगभग 26 किमी दूर ) से 10 लीटर डीजल लेकर आया तब गेहूँ  पीसने शुरू हुए हैं कि इस बार गेहूँ  भी बारिश से सड़ गया है गाँव वाले आपस में ही बांटकर खा रहे है वरना परेशानी बहुत बढ़ जाती। पहले सड़क पर पहूंचने के लिए यहाँ से 4 किमी॰ दूरी पर पल था लेकिन ये बह जाने के चलते अब मनेरी तक जाने के लिए लगभग 12-13 किमी॰ पैदल चलना पड़ता है । इसी संकट ने इन ग्रामीणों को बाध्य किया वे एकजुट होकर उत्तरकाशी में डी॰ एम॰ पर दबाव बनाएँ । और फिर इस प्रकार 60-65 स्त्री-पुरुषों का झुंड पैदल-पैदल यहाँ से लगभग 26 किमी दूर उत्तरकाशी डी॰ एम॰ के पास पहुंचे । डी॰ एम॰ ने हौलीकौप्टर में राहत सामाग्री भेजने का आश्वासन दिया लेकिन पहली दफा हौलीकौप्टर बगैर राहत सामाग्री दिये ही वापस लौट गया  हौलीकौप्टर के लैंड ना हो पाने का बहाना बनया गया जबकि ग्रामीणों ने बताया कि यहाँ पर तीन स्थान है जहां हौलीकौप्टर लैंड हो सकता था। ग्रामीण ने फिर सामूहिक ताकत दिखाई वे फिर उत्तरकाशी डी॰ एम॰ के पास पहुंचे, इसके अलावा विधायक के पास भी गए इस बार और ज्यादा आक्रोश में। अंतत: संघर्ष रंग लाया हौलीकौप्टर ने अब तीन चक्कर गाँव के लगाए राहत सामाग्री के नाम पर बिस्कुट व नमकीन के पैकेट थे जबकि चावल वगैरह बेहद कम। वापस लौटते वक्त कुल 2-3 मरीजो को भी उत्तरकाशी ले गया।
       यह गाँव 1991-92 के भूकंप के बाद से बेहद संवेदनशील है तब भी जमीन में दरारें आ चुकी थी । गाँव वालो के मुताबिक तीन तीन बार अलग –अलग भूवैज्ञानिकों की टीम ने सरकार को संस्तुति दी कि तत्काल ग्रामीणों को विस्थापित किया जाय लेकिन 2002 तक आते–आते केवल 22 परिवार ही विस्थापित किए गए। ग्रामीणों के मुताबिक 2010 में भी भूवैज्ञानिकों ने अपनी रिपोर्ट में राज्य सरकार को फिर यही संस्तुति दी लेकिन चुकी मामला गरीब ग्रामीणों का था अत:  राज्य सरकार ने इसे ठंडे बस्ते में डालकर खामोशी की चादर ओढ़ ली।
             मानेरी से पहले कुछ -                                                                                                                           
                                                                                                                  दूरी पर ध्वस्त हुई सड़क



       डिडिसारी के अलावा इन तीनों गावों मे कोई डाक्टर सरकार की ओर से तब तक नही पहुंचा था। यहा दोपहर का भोजन करने के बाद हम सालू गाँव की ओर चल दिये जो कि यहा से लगभग तीन किमी॰ दूर था।लगभग 5 बजे शाम के वक्त तक हम इस गाँव में पहुंचे यहा भी भूस्खलन हुआ था कुछ परिवार ड़र के मारे ऊपर अपने छानी( पशुओं के रहे का स्थान) में चले गए थे। इस वक्त गाँव मे एक भी पुरुष नही दिखायी दे रहे थे पूछने पर पता लगा कि सभी पुरुष सौरा गाँव सोलर लानटेंन लेने गए हुए हैं। ग्रामीणों ने यह भी बताया कि कई वर्षों से यहाँ बिजली ही नही है। हालांकि इस दौरान तो सारे ही गांवों मे बिजली नही थी शाम होते ही गांवों में अंधेरा व सन्नाटा पसर जा रहा था साथ ही एक अजीब सी सिहरन व दहशत के साये में लोग जी रहे थे कि जाने कब क्या हो। यहा से उत्तरकाशी-गगोत्री सड़क लगभग 4 किमी की दूरी पर है लेकिन सौरा गाव पहुचने वाला पुल का नामोनिशान सौरा नदी ने मिटा दिया है नदी का जलस्तर कम हो जाने पर लोगों ने लकड़ी का पुल बनाया है जो कि खतरनाक भी है ।  बी॰ पी॰ एल ॰ कोटे का चावल यहा के लोगो को मिला है उन्हे यह पैदल पैदल इस लकड़ी के पुल से होते हुए लाना पड़ा। यहा भी डाक्टर नहीं पहुचा था हालाकि यहा स्वास्थ्य की ऐसी समस्या नही थी।
       हमने जल्दी ही यहा से प्रस्थान करने का निर्णय लिया क्योंकि बारिश होने लगी थी बाढ़ आने की स्थिति में पुल बह जाने की बहुत ज्यादा संभावना थी। जब यहाँ से सौरा गाँव की ओर पैदल पैदल जा रहे थे तब हमें सालू गाव को वापस लौटते हुए पुरुष दिखाई दिये जो कि खाली हाथ थे पूछने पर पता लगा कि सोलर लांटेन आज नहीं मिली कल फिर बुलाया है कल भी मिलेगी या नही, निश्चित नही है। शासन-प्रशासन की आम गरीब ग्रामीण जनता के प्रति उपेक्षा, घोर लापरवाही व असंवेदनहीनता साफ़ दिखाई दे रही थी। चंद रोटी के टुकड़े दूर से ग्रामीण जनता पर फैंककर कुटिल व मक्कार शासक उन्हे अपना होने का एहसास करा रहे है। गावों तक शासन प्रशासन में बैठे अधिकारियों व चुने हुए जनप्रतिनिधियों का पहुचना तो दूर की बात , वहाँ तक राहत सामाग्री देना भी दूर की बात जब ये गरीब लोग कई–कई किमी खतरनाक रास्ते पर पैदल-पैदल चल कर उस केंद्र पर पहुचते है जहां नाममात्र की राहत सामाग्री वितरित हो रही है तो पता चलता है वहाँ जिम्मेदार अधिकारी गायब हैं। और गरीब ग्रामीणो को मायूस हो खाली हाथ अगले दिन के इंतेजार में कुछ मिलने की उम्मीद के इंतेजार में भारी बोझिल वक्त गुजारना पड़ता है। राहत सामाग्री जो नाकाफी है आसान क्षेत्रों में पड़ी हुई है यू ही सड़ भी रही है या फिर जिनकी सख्त जरूरत ना हो उन्हे मिल रही है क्योंकि गाँव –गाँव तक व दुर्गम इलाकों तक इसे पहुचाने की शासकों की कोई मंशा नही है वरना डाक्टर व राशन तो कबके पहुचाया जा सकता था जिन लोगो के घर तबाह हुए उनके लिए शेल्टर व बर्तन इत्यादि की व्यवस्था की जा सकती थी। इस बात का एहसास लोगो को भी था  शासको के प्रति एक नफरत व आक्रोश तथा कुछ ना कर पाने की पीड़ा का मिला जुला भाव उनके चेहरे पर पढ़ा जा सकता था।
       तकरीबन 6 बजे शाम तक हम सौरा गाव पहुचे । बारिश इस वक्त तक अब अपने पूरे आवेग के साथ होने लगी थी। जिस घर की दहलीज में हमने यहाँ अपने कदम रखे तो पता लगा कि वहाँ पहले से ही 1-2 डाक्टर के समेत कुल तीन सरकारी कर्मचारी बैठे हुए थे। पूछने पर डाक्टरों ने बताया कि वे भी उन गावों से होकर आ रहे है जहा आप ( हम ) होकर आये थे । हमने जब उन्हे बताया कि गाव वाले डाक्टर के ना आने की बात कह रहे थे तो ये कर्मचारी कहने लगे कि ग्रामीण झूठ बोल रहे है। ये खुद भी बता रहे थे कि एक बेहद दुर्गम इलाके पिलंग गाँव में वे गये ही नहीं जबकि वहाँ उन्हें जाना था। तो ये आलम था राज्य सरकार की मशीनरी का आपदा से निपटने का; आपदा के नाम जो कुछ नाकाफी भी हो रहा था उसमें बस ऊपर से लेकर नीचे तक हर कोई अपने मातहत को आदेश देने मात्र का काम रहा था और अपनी ज़िम्मेदारी इस प्रकार अपने मातहत को ट्रांसफर कर रहा था। वह अंतिम व्यक्ति जो अपनी ज़िम्मेदारी को ट्रांसफर नही कर सकता था वह आसान इलाकों में जाकर दुबक जा रहा था या थोड़ा सवेदनशील हो तो खुद फंस जा रहा था। यही तो राज्य के मुखिया ( मुख्य मंत्री ) ने किया था जो आपदा आते ही आपदाग्रस्त क्षेत्रों का दौरा करने के बजाय , इससे निपटने में नेतृत्व देने व सबको प्रेरित करने के बजाय आदेश देकर सीधे दिल्ली कूच कर गया।
       यह गाँव सड़क से ज्यादा दूर नहीं था स्थिति ज्यादा बुरी नही थी हमने जानकारी जुटाने के बाद हमारी टीम ने यहा से चले जाना ही मुनासिब समझा। बारिश में हम लोग यहा से निकले। लगभग 2-3 किमी दूर स्थित लाटा गाँव की ओर हम बढ़े। भागीरथी नदी के ऊपर बने झूला पुल से होते हुए तकरीबन पौने घंटे के बाद अंधेरे में लाटा गाँव पहुचे।यहा भारत जी के घर पर हम लोग रात में रुके । यहा से पिलंग तक जाने के रास्ते की जानकारी जुटाई। पता लगा कि  तकरीबन 15-20 किमी की दूरी पर दुर्गम इलाके में  दूर ऊपर पहाड़ी पर बसा हुआ है जहां तकरीबन 100-150 परिवार बसे हुए हैं। रास्ता जोंको से भरा हुआ है। मौसम कुछ साफ होने बारिश ना होने की स्थिति में हमने वहाँ जाने का निर्णय किया लेकिन बारिश रात भर होते रही अगले दिन भी बारिश बंद नही हुई । अब हमने भागीरथी नदी के दूसरे किनारे पर पहाड़ों में बसे गावों से होकर उत्तरकाशी की ओर सुबह प्रस्थान किया। यहाँ सड़क से उत्तरकाशी तकरीबन 23-24 किमी॰ की दूरी पर है।
            सड़क कहीं–कहीं पर पूरी बह गई है और ऊपर से भूस्खलन भी हुआ है इसलिए खतरनाक पहाड़ी पैदल मार्गो से होकर जाना पड़ा। रात से और आज दिन भर बारिश होने से व कहीं कहीं पर भूसखलन के चलते यह 1-2 फुट की पगडंडी भी  काफी  फिसलन भरी व बेहद खतरनाक हो गयी थी हल्की सी चूक का मतलब था सीधे नीचे गहरी खाई में गिरना या भागीरथी नदी में समा जाना  लेकिन ग्रामीण स्त्री-पुरुष अपने परिवार के वजूद को बचाए रखने के लिए बेहद जरूरी सामानों को उत्तरकाशी तक से लाने का भारी जोखिम उठा रहे थे । खतरनाक रास्ते मे ओंगी गाँव था जिसके पास लगातार भूस्खलन हो रहा है ऊपर से पत्थर भी गिर रहे थे। इस गाव को भी तत्काल विस्थापित कर पुनर्वास किये जाने की जरूरत है। इसके अलावा मनेरी में भी कुछ मकान व खेत बहे है। शाम 8 बजे तक हम उत्तरकाशी से 5 किमी दूर मातली गाँव में पहुंचे। यही हिमालयी पर्यावरणी संस्था में हमने रात बिताई। यह भागीरथी नदी के बिलकुल किनारे बसा हुआ है जबकि इसके सामने नदी के दूसरे किनारे पर पर चामकोट गाँव पड़ता है। यह गाँव बुरी तरह से भूस्खलन की जद में है रात भर इस पहाड़ी से भूस्खलन की आवाज गड़गड़ाहट के साथ अंधेरे को चीरती हुई हम तक पहुँच रही थी। अगली सुबह तक काफी हिस्सा पहाड़ का दरककर नदी में समा चुका था। और अब हमारे वापस लौटने का भी वक्त हो चुका था। उत्तरकाशी से लगभग 40- 50 किमी ॰ दूर तक सड़कें बेहद खतरनाक हो गई है। एक तरफ नीचे से सड़क लगातार धंस रही है कहीं नदी में समा जा रही है तो दूसरी ओर ऊपर पहाड़ से भी मालवा पत्थर गिरने का डर ।   
             

  ओंगी गाँव के बिलकुल पास में ध्वस्त सड़क व पहाड़


      

        
        
      




Tuesday, 9 July 2013

disaster


            इस आपदा का दोषी कौन? प्रकृति अथवा मनुष्य



    जून माह में उत्तराखण्ड में आयी आपदा को सरकारी तंत्र और मीडिया प्राकृतिक तो कुछ लोग मानवीय आपदा की संज्ञा दे रहे हैं। उत्तराखण्ड में हजारों लोगों की मौत और करोड़ों-करोड़ रुपये के सम्पत्ति के नुकसान के साथ यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि इसके लिए जिम्मेवार कौन है? प्रकृति अथवा मनुष्य!

    प्रकृति को जिम्मेवार ठहराकर वे सभी लोग एकबारगी में ही बरी हो जाते हैं जिनके द्वारा शासन-प्रशासन चलाया जाता है। वे लोग भी एकदम ही भुलाये दिये जाते हैं जिनके द्वारा अपने हित व मुनाफे की हवस के कारण प्रकृति के साथ रोज खिलवाड़ किया जा रहा है। प्रकृति को दोषी ठहराकर गुनाहगार मासूम बन जाते हैं। भोले बन जाते हैं। क्या यह सच है कि प्रकृति ने ही यह आपदा रची है? क्या महज पहले आ गये मानसून के कारण यह सब घटा है?

    उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री व केन्द्र सरकार और मीडिया के एक बड़े हिस्से की बातों का तो यही अर्थ है कि यह भयानक प्राकृतिक आपदा थी। विजय बहुगुणा ने एक अंग्रेजी अखबार को दिये गये अपने इंटरव्यू में तो यही कहा। वे इस बात का जवाब दे रहे थे कि यह मानव निर्मित आपदा है कि नहीं। वे कहते हैं,‘‘ये उन लोगों द्वारा दिया जाने वाला बचकाना तर्क है जो प्रकृति को नहीं समझते हैं लेकिन सरकार को लज्जित महसूस करवाना चाहते हैं।’’

    प्राकृतिक आपदा के मुकाबले मानव निर्मित आपदा का तर्क भी लचर और भ्रम में डालने वाला है। इसमें प्रकृति तो आपदा के लिए जिम्मेवार नहीं है परन्तु सभी मनुष्य इसके लिए जिम्मेवार हैं। मनुष्यों के दायरे में सभी आ जाते हैं। उत्पीडि़त और उत्पीड़क भी, शोषित और शोषक भी। जो मर चुके हैं वे भी जो अभी मुसीबत में हैं वे भी। पहाड़ों में ऐश करने वाले भी और उनकी सेवा करने वाले भी। बहुर्राष्ट्रीय कम्पनियां भी और पहाड़ में किसी तरह जीवनयापन करने वाले छोटे किसान व खेतिहर मजदूर भी। हेलीकाप्टर से केदारनाथ, बद्रीनाथ जाने वाले अभिजात भी और पहाड़ में किसी तरह गुजर बसर करने वाले भी।

    इस आपदा को प्राकृतिक या मानवीय कहना सफेद झूठ बोलना है। आम लोगों की आंख में धूल झोंकना है। मूर्ख बनाना है।

    यह आपदा हमारे देश के शासक वर्ग के द्वारा निर्मित, प्रतिक्षित आपदा थी। यह आपदा शासकों की नीतियों की उपज है। यह आपदा ऐसे लोगों द्वारा थोपी गयी आपदा है जो भारत में एक दिन भी शासन करने के योग्य नहीं हैं। यह आपदा अभी उत्तराखण्ड में पैदा की गयी है कल ऐसी ही पूरे देश में कभी भी, कहीं भी घट सकती है। फिर वहां भी यही प्राकृतिक या मानवीकृत आपदा का शोर खड़ा हो जायेगा। सरकार, शासक वर्ग कहेगा प्राकृतिक। मानवतावादी, पर्यावरणवादी, गांधीवादी कहेंगे मानवीकृत।

    उत्तराखण्ड सरकार कह रही है कि इस आपदा में उसे कई हजार करोड़ का नुकसान हुआ है। उत्तराखण्ड तीन साल पीछे चला गया है। पर्यटन उद्योग, चारधाम यात्रा जो उत्तराखण्ड की अर्थव्यवस्था का प्रमुख हिस्सा है खतरे में पड़ चुकी है। बिजली परियोजना संकट में है। इसका क्या अर्थ लगाया जाए। बेताल उसी डाल में फिर बैठ चुका है जहां से आपदा ने उसे उतारा था।

    उत्तराखण्ड सहित पूरे देश में पूंजीवादी विकास जिस ढंग व गति से हो रहा है वह भारतीय समाज व प्रकृति को गम्भीर संकट में डाल रहा है। प्राकृतिक संसाधनों का पूंजीवादी समाज जिस ढंग से इस्तेमाल करता है वह प्रकृति को गम्भीर व कई बार तो स्थायी नुकसान पहुंचाता है। जिस ढंग से प्रकृति से खनिज, तेल, गैस आदि का दोहन किया जाता है। वह एक तरह से उस स्थान तक पहुंच जाता है जहां ऐसी आपदाओं की नींव डाल देना है। किसी भी प्राकृतिक घटना के प्रभाव को कई हजार गुणा बढ़ा देना है। पूंजीवाद का अराजक व असमान विकास का यह परिणाम है।

    इसके साथ जो और अधिक महत्वपूर्ण है वह है शासकों का शासितों से बढ़ता जाता अलगाव। मजदूरों, किसानों और अन्य मेहनतकशों से अलगाव और उनके प्रति असंवेदनशीलता अपने चरम पर इस व्यवस्था में पहुंचती जाती है। उत्तराखण्ड में अन्यथा ऐसे कैसे होता है कि वही कहानी बार-बार दुहरायी जाती है जो पिछली हर प्राकृतिक आपदा के आने के बाद घटी। पिछले दो दशकों में ही उत्तराखण्ड कभी भूकम्प, कभी भू-स्खलन, कभी बादल फटने, कभी बाढ़ आ जाने से लहूलुहान होता रहा है। क्यों पिछली आपदा से कोई सबक नहीं सीखा गया। क्यों पूर्व तैयारी नहीं की गयी। खबरें यहां तक आ रही हैं कि आपदा प्रबंधन के लिए बनाये गये निकाय की बैठकें समय-समय पर आयोजित ही नहीं की गयी। मंत्री, अफसर किन कामों में व्यस्त और किन दायित्वों का निर्वाह करते हैं, खुदा जाने! निकम्मे, निर्लज्ज, शासकों से यह उम्मीद करना कि वे भारत के मजदूरों, किसानों, निम्न मध्मयवर्गीय के जीवन, उनकी परेशानियों, कठिनाइयों का ख्याल रखेंगे, व्यर्थ है। झूठी आशाएं पालना है।

    भारत के शासकों का जो व्यवहार इस समय है क्या भोपाल गैस काण्ड से वह कुछ खास भिन्न है। कुछ वर्ष पूर्व आयी सुनामी या बिहार में आई कोसी नदी की बाढ़ या उड़ीसा व पश्चिम बंगाल में आये चक्रवाती तूफानों के समय कमोवेश ऐसा ही नहीं होता है जैसा आज उत्तराखण्ड में हो रहा है।

    अधिक से अधिक ऐसे मौकों पर राज्य केन्द्र सरकार या फिर विभिन्न पूंजीवादी कम्पनियां या दाता संस्थाओं की भूमिका खैरात बांटने की होती है। खैरात का काम करने वालों को भी ऐसे मौकों पर फलने-फूलने का बढि़या मौका मिल जाता है। यह सब क्या है? यह सब कुछ ऐसा है जैसे जख्म देने वाले ही मरहम लेकर हाजिर हो जायें। युद्ध छेड़ने-थोपने वाले ही शांति मिशन की बातें करें।

    भारत के मेहनतकश मजदूर, किसान भारत के शासकों की खैरात की मोहताज नहीं हैं। वे हर कष्ट, दुःख, आपदा में सदियों से खुद ही लड़ते रहे हैं। खुद ही खड़े होते रहे हैं। उनकी रीढ़ की हड्डी मजबूत व सीधी है उनकी दुर्दशा का कारण वे स्वयं नहीं हैं। इसका कारण तो आज का शासक वर्ग और उसकी व्यवस्था है। आपदा या फिर और गैर आपदा का समय हो भारत की मेहनतकश जनता अपना जीवन भारी मेहनत व कठिनाइयों के बीच जीती है। उसके जीवन में अच्छे या बुरे शासकों से कुछ ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ने वाला है। उसके जीवन में प्रभाव या बदलाव अब तो उसके स्वयं के ही शासक बनने से पड़ेगा। उसके संगठित होने और वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था को बदलने से ही पड़ेगा। पूरे भारतीय समाज को नये आधार पर संगठित व पुर्ननिर्मित करने से ही पड़ेगा। इंकलाब ही उसकी जीवन की समस्याओं को हल कर सकता है।  

    मजदूर-किसानों का राज ही वह समाज निर्मित कर सकता है जहां प्रकृति व मनुष्य के उस संबंध की स्थापना की जा सकती है जिसमें मनुष्य प्रकृति के नियमों को सही ढंग से समझकर उसमें अपने हित वैज्ञानिक ढंग से साधेगा। उससे लेगा भी परन्तु उसे संरक्षित भी करेगा। अपने आने वाली पीढ़ी को हर गुजरने वाली पीढ़ी ऐसा समाज और प्रकृति भेंट करेगी जो पहले से और अधिक उन्नत और बेहतर होगी। पूंजीवादी समाज में यह संबंध एकदम उल्टा है

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