Thursday, 15 April 2021

उत्तर प्रदेश पंचायती चुनाव का शोर

  

         पंचायती चुनाव फिर आ गए हैं।  प्रत्याशी फिर से, रंग बिरंगे दावों व वादों के साथ, हमारे बीच में हैं। ये वोटों को हासिल करने की घृणित जुगत में लगे हुए हैं। शराब, पैसा, ताकत, जाति-धर्म, भाई भतीजावाद का ही यहां शोरगुल है ।

         प्रत्याशी हमारे बीच आते हैं। हमारे वोटों से जीतकर, अपने मालामाल होने के रास्ते बनाते हैं। रोजगार, सस्ती बेहतर शिक्षा, सस्ता बेहतर इलाज, महिला सुरक्षा और छिनते अधिकार आदि-आदि मुद्दों से तो, इनका कोई सरोकार ही नहीं।

         सच यही है कि पंचायती निकाय की कोई हैसियत नहीं कि वह इन सभी मुद्दों पर काम कर सके, योजना बना सके और फिर उसे लागू कर सके। जिला पंचायत, नगर पंचायत और ग्राम पंचायतें सभी की यही स्थिति है। ऐसे में इन पंचायतों को अधिकारयुक्त संस्थाएं बनाने का संघर्ष होना चाहिए था। जो योजनाएं बनाती, केंद्र के लिए इसे भेजती फिर इसे लागू करती। मगर इस संघर्ष से इन प्रत्याशियों कुछ भी लेना देना नहीं ।

 .      इस दौर में नोटबंदी हुई, लॉकडाउन हुआ जिसमें एक ओर करोड़ों लोग बेरोजगार हुए, काम-धन्धा बर्बाद हुआ, दूसरी ओर अंबानी-अदानी जैसे लोग मालामाल हुए। करोड़ों मजदूर सैकड़ों किमी पैदल भूखे-प्यासे घरों को जाने को मजबूर कर दिए गए। कॉरपोरेट पूंजीपतियों की लूट और ज्यादा बढ़ गई। इनकी सरकार ने घोर किसान विरोधी बिल पास किये, घोर मजदूर विरोधी श्रम कानून बना दिये। किसान 'तीन कृषि कानूनों' के खिलाफ पिछले 5 माह से सड़कों पर है। इस सबमें, पंचायती निकायों की कोई हैसियत नहीं कि वह कुछ कर सकती हों। प्रत्याशियों के लिए तो ये कोई मुद्दे ही नहीं बनते।

        ये पंचायतें हर तरह से अधिकारविहीन संस्थाएं हैं। ये  सरकार की योजनाओं को लागू करने वाली संस्थाएं मात्र हैं। इन्हें आर्थिक मदद के लिए सरकार का मुंह ताकते रहना पड़ता है।               

        पंचायत क्षेत्रों में कुछ सुविधाओं हेतु केंद्र सरकार कुछ पैसा भेजती है। इस पैसे को ही हड़पने की होड़ प्रत्याशियों में होती है। इसे हड़पने के लिए, ये हर हथकंडे अपनाते हैं। यह सीख भी इन्हें, अपने बड़े पूंजीवादी नेताओं से ही मिलती है। चंद ईमानदार प्रत्याशी ही इसे देख निराश -हताश होते हैं और समझौता कर लेते हैं।

        हकीकत यही है कि हमारे शासक इन पंचायत निकायों के जरिये अपनी शासन सत्ता को मज़बूत करते हैं।

        देश के भीतर सारे ही फैसले लेने व नीतियां बनाने का अधिकार संसद के पास है। संसद पूंजीपतियों का औजार ही है। आम जनता को यही लगता रहता है कि वही सब कुछ करती है सभी को चुनती है दिखता यही है मगर हकीकत इसके ठीक उलट होती है। इसलिए जनता के 'अच्छे दिन' कभी नहीं आते मगर पूंजीपति मालामाल होते जाते हैं। वे अरबपति से खरबपति बन जाते हैं।  

      भा.ज.पा., स.पा., ब.स.पा., कांग्रेस समेत सभी पूंजीवादी पार्टियां चुनाव के समय जनता के बीच वोट मांगते हैं। इसके बदले अच्छे दिन लाने का वादा करते हैं। लेकिन हर चुनाव के बाद 'अच्छे दिन',‘बुरे दिन' में बदल जाते हैं। इन पार्टियों के नेता और देश के पूंजीपति ज्यादा मालामाल होते जाते हैं।

        दरअसल ये सभी पूंजीवादी पार्टियां, इसी पूंजीवादी व्यवस्था को चलाने का काम करती हैं जो कि मजदूर मेहनतकश जनता की  मेहनत को हड़पने का तंत्र है पूंजीपतियों को और खुद को भी मालामाल बनाने का यंत्र है। संसद में ये पार्टियां, इन्हीं के लिए नीतियां बनाती हैं व फैसले लेती हैं।  

        ये जनता की सामूहिक ताकत को नकारते हैं जनता को ठेंगा दिखाते हैं जनता को मूर्ख बनाते हैं धर्म-जाति की नफरत भरी राजनीति से जनता को बांट देते हैं जनता को आपस में लड़ाते हैं, दंगे करवाते हैं जनता का दमन करने को काले दमनकारी कानून बनाकर पुलिस का आतंक कायम करते हैं।

         ये एक व्यक्ति को हीरो के रूप में स्थापित करते हैं जो कि अपने दम पर जनता के दुख-दर्द हर लेगा। ऐसा, मगर कभी होता नहीं। इसके उलट तानाशाही की स्थिति बन जाती है। पिछले 6 साल इस बात के गवाह है।

         इसलिए आज असल सवाल, सामूहिक तौर पर संघर्ष करने का है। अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने का है।

         हमें इन प्रत्याशियों पर दबाव बनाने की जरूरत है कि जनता के पक्ष में नीतियां बनाये जायं; हमारे अधिकारों को केवल वोट तक सीमित ना किया जाए बल्कि देश के स्तर पर सभी महत्वपूर्ण फैसले व नीतियां बनाने का अधिकार भी हमें मिले; बड़े महत्वपूर्ण फैसलों पर जनमत संग्रह करवायें जायें; तथा प्रतिनिधियों का वापस बुलाने का अधिकार भी हमें मिले ।

         अंतत: यह सब हासिल हो जाने के बाद भी, लूट-शोषण उत्पीड़न वाली पूंजीवादी व्यवस्था चलती रहेगी क्योंकि फैक्ट्रियों, कल-कारखानों, फार्म्स ( बड़े खेतों), खानों सभी जगह पर इन पूंजीपतियों का ही नियंत्रण है। इसलिए समाजवादी व्यवस्था के लिए संघर्ष करने की जरूरत हैं। जहां सभी संसाधनों पर जनता का नियंत्रण हो।

         यही वह व्यवस्था है  जहां सारे ही अधिकार मजदूर मेहनतकश अवाम को होंगे। लूट शोषण पर  पाबंदी होगी। रोजगार की गारंटी होगी। नि:शुल्क शिक्षा, चिकित्सा व परिवहन के अधिकार होंगे ।

     इसलिए आइये ! पंचायती चुनाव में इन सवालों को उठाने एवं इनके लिए संघर्ष करने की जरूरत है :-

1-:   जिला पंचायत, नगर पंचायत व ग्राम पंचायत सभी स्तर पर इन संस्थाओं को अपने क्षेत्र के शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, स्वच्छता, प्रशासन आदि क्षेत्रों में योजनाएं बनाने का, इसे प्रस्तावित करने, केंद्र के साथ समन्वय करने का व इन्हें लागू करने तथा इस हेतु फण्ड सृजित करने का अधिकार हो।

2-: जाति, धर्म आदि की साम्प्रदायिक राजनीति करने वाले तथा आपराधिक पृष्ठभूमि वाले प्रत्याशियों को चुनाव में प्रतिबंधित किया जाय।

3-:   चुने गये पंचायत प्रतिनिधि को, 5 साल के अंदर किसी भी वक़्त वापस बुलाने का अधिकार जनता के पास हो।


                                     


Monday, 12 April 2021

जलियावाला बाग हत्याकांड के शहीदों की स्मृति में

 








   लगभग 100 साल पहले, 13 अप्रैल की तारीख, हमारे इतिहास में एक अलग ही मुकाम रखती है। 13 अप्रैल 1919 का जलियांवाला बाग हत्याकांड, जनता के कुर्बानी भरे संघर्षों की याद दिलाता है।                                                                                                                      

     भारत की जनता उस दौर में ब्रिटिश शासकों के शोषण, उत्पीड़न और जुल्म से त्रस्त थी। जनता का संघर्ष, इस गुलामी के विरोध में शुरू से ही था इसीलिए अंग्रेज शासकों ने जनता के क्रांतिकारी संघर्षों को कुचलने के लिए 'रॉलेट एक्ट' लागू कर दिया था ।

     आजाद भारत में जनता के संघर्षों को कुचलने के लिए यू.ए.पी.ए और राजद्रोह जैसे कई खतरनाक काले कानून हैं। इसी तरह अंग्रेजों के जमाने में 'रॉलेट एक्ट' था। इसके जरिये,  जो कोई भी अंग्रेजी गुलामी का विरोध करता था, उसे केवल शक के आधार पर 'आतंकवादी ठहरा' दिया जाता था और फिर जेल में 2 साल तक के लिए बंद करके सड़ाया जाता था।

     इस एक्ट के विरोध में ही जनता सड़कों पर उमड़ पड़ी थी। जलियांवाला बाग में, 13 अप्रैल 1919 के दिन, रॉलेट एक्ट के विरोध में 'हिन्दू-मुस्लिम-सिख' जनता सभा कर रही थी। बच्चे, बूढ़े, महिलाएं व पुरुष, सभी सभा में थे। तकरीबन 20 हज़ार लोग सभा में थे। शांतिपूर्ण ढंग से सभा कर रहे इन लोगों को चारों तरफ से घेरकर, अंग्रेज सरकार ने, गोलियां चलवा दी थी। इस बर्बर हत्याकांड में सैकड़ों लोग मार दिए गए और घायल कर दिए गए।

      जलियांवाला बाग के शहीदों ने लुटेरे अंग्रेजी साम्राज्यवादी शासकों की गुलामी के विरोध में संघर्ष किया था। इन शहीदों का संघर्ष 'धर्म के नाम पर' जनता के बीच नफरत फैलाने और राजनीति करने वाली ताकतों के खिलाफ भी था। धर्म का भेदभाव भुलाकर, ये सभी एकजुट होकर, संघर्ष में शहीद हो गए।

      आज ऐसे वक्त में, जब देश में 'देशी-विदेशी पूंजी' को रोजगार से लेकर हर मर्ज का इलाज का बताया जा रहा हो ; देशी-विदेशी पूंजी के मालिक ही देश के नियंता बन बैठे हों;  जब धर्म के नाम पर हर ओर नफरत फैलायी जा रही हो; तब ऐसे घोर जन विरोधी और अंधेरे दौर में, जलियांवाला बाग हत्याकांड के शहीद हमें रास्ता दिखाते हैं हमें प्रेणा देते हैं। यही हमारा रास्ता है।

      जलियांवाला बाग जैसे कई-कई संघर्षों व कुर्बानियों के दम पर आखिरकार देश आजाद हो गया था।  1947 में, देश अंग्रेजी गुलामी से आज़ाद तो हुआ मगर जनता को शोषण उत्पीड़न, जुल्म से मुक्ति नहीं मिली। शासक अब बदल गए। देश के पूँजीपति, राजा-रजवाड़े, जमींदार और इनकी पार्टियां, अब शासक हो गये। तब से अब तक की, यही कहानी है। आज, सब कुछ कॉरपोरेट पूंजीपतियों के कब्जे में है। सरकारें और सभी पूंजीवादी राजनीतिक पार्टियां इनकी जेब में हैं। आज अडानी-अंबानी, टाटा-बिड़ला जैसों की ही धूम मची है। यही आज के आदर्श हैं। अब मोदी, मोदी सरकार औऱ अदानी-अंबानी का गठजोड़ आज सबके सामने है। कभी यही काम कांग्रेस करती थी।

      आज आम जनता के सामने चौतरफा संकट है कोरोना वायरस पर नियंत्रण के नाम पर लॉकडाउन लगा मगर इसकी कीमत भी आम जनता ने ही चुकाई; करोड़ों लोगों की नौकरियां खत्म हो गयी। छोटे-मझौले कारोबारियों का काम-धंधा चौपट हो गया। दूसरी ओर इस तबाही-बर्बादी के दौर में भी कॉरपोरेट पूँजीपतियों का मुनाफा 35 % बढ़ गया। अब तो इन्हें लूट का लाइसेंस मिल गया है।

     मोदी और मोदी सरकार ने कहा 'आपदा को अवसर में बदलो'। पूंजीपतियों के हित में, घोर मजदूर विरोधी 'श्रम कानून' बना दिए गए। अब, काम के घण्टे बढ़ गए हैं, न्यूनतम मजदूरी कम हो गई है, ट्रेड यूनियन बनाना व हड़ताल करना बेहद कठिन बना दिया गया है, जब चाहो काम से कामगारों को निकाला जा सकता है। नौकरी की तैयारी करते नौजवानों के दिन भी अब बेहद कठिन हो चुके हैं क्योंकि नई भर्तियों पर भी अब लगभग रोक लग चुकी है।

      कर्मचारियों का महंगाई भत्ता ही स्थिर कर दिया गया । पहले बैंकों का विलय किया गया फिर इनके निजीकरण की ओर सरकार बढ़ गई है। ऑर्डिनेंस (आयुध) फैक्ट्रीयां, एल.आई.सी., बी.पी.सी.एल. जैसी कंपनियों को कौड़ी के मोल पूंजीपतियों को सौंपा जा रहा है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें काफी कम रही हैं इसके बावजूद बहुत ज्यादा सरकारी टैक्स के चलते पेट्रोल, डीजल व गैस की कीमतें बढ़ती जा रही हैं। इलाज, पढाई, यात्रा और भोजन सब कुछ खूब महंगा हो चुका है।

    यही नहीं, मोदी सरकार ने तीन कृषि  कानून  तुरत-फुरत में बना दिये। इसके चलते, एक तरफ देशी-विदेशी कंपनियां अनाज,दाल आदि की असीमित जमाखोरी करेंगी दूसरी तरफ  बाजार में अनाज, तेल, दाल आदि की कीमतों काफी बढ़ जाएंगी। कुल मिलाकर , इसके चलते एक ओर छोटे-मझोले किसान कहीं ज्यादा तेजी से बर्बाद होंगे तो दूसरी ओर आम जनता को मिलने वाला सस्ता अनाज लगभग बंद हो जाएगा, भुखमरी से हालात बन जाएंगे।

      इन कानूनों के खिलाफ किसान सड़कों पर हैं। लगभग 300 किसान इस आंदोलन में शहीद हो चुके हैं मगर मोदी सरकार को किसानों की नहीं बल्कि अदानी-अंबानी जैसों के  मुनाफे की ही बेहद फिक्र है।

      'बहुत हुआ महिलाओं पर अत्याचार अबकी बार मोदी सरकार', ये नारा मोदी व भाजपा का था। मगर मोदी और योगी राज में, महिलाओं के खिलाफ हिंसा और बलात्कार जैसी घटनाएं कम नहीं हुई बल्कि काफी बढ़ गई हैं। चिन्मयानंद, नित्यानंद, कुलदीप सेंगर जैसे अपराधी मोदी-योगी सरकार की शान बन गए। हाथरस कांड, कटुवा कांड को कौन भूला सकता है ?

       जो कोई भी, मोदी और मोदी सरकार को बेनकाब करता है, इनकी  तमाम जनविरोधी चीजों के खिलाफ बोलता है, लिखता है व आवाज उठाता है, कॉरपोरेट मीडिया और संघी आई. टी. सेल उनको 'देशविरोधी' कहती है  बदनाम करती है, फर्जी खबरें चलाकर इन्हें अलग-थलग कर दिया जाता है। फर्जी मुकदमा दर्ज कर दिया जाता है।

       जे एन यू, दिल्ली विश्वविद्यालय, हैदराबाद, बी.एच.यू. आदि के कॉलेज के छात्रों के संघर्ष को इसी तरह बदनाम किया गया। किसी आंदोलन को पाकिस्तानी, खालिस्तानी तो किसी को कांग्रेसी या नक्सली या हिन्दू विरोधी कहा जाता है। यही नहीं, आंदोलनों को 'विदेशी मुल्कों' की साजिश बताया जाता है। यही सी.ए.ए. विरोधी आंदोलन के साथ किया गया। यही कर्मचारियों, रोजगार की मांग करते छात्र-नौजवानों के साथ किया गया। यही हाथरस और कटुवा में बलात्कारियों व हत्यारों को सजा दिलवाने की मांग पर उमड़ी जनता के साथ किया गया। यही अब किसानों के साथ हो रहा है।    

         इसीलिए कई लोग कह रहे हैं कि भारत में अब 'चुनावी लोकतंत्र' नहीं बल्कि 'चुनावी तानाशाही' कायम हो गई है। दुनिया में सबसे ज्यादा बार इंटरनेट पर रोक भी भारत में ही लगाई गई है।

        यही कहना सही होगा कि आज 'अघोषित तानाशाही' सी स्थिति बन चुकी है। यह हिंदुत्व के नाम पर है। जनता के हर संघर्ष को 'हिन्दू विरोधी' या 'देश विरोधी' बता दो और फर्जी संगीन मुकदमे दर्ज कर गिरफ्तार कर लो। यही हिन्दू फासीवादी तौर तरीके हैं।

        जलियांवाला बाग कांड के शहीदों का संघर्ष, आज भी हमें रास्ता दिखाता है। इन शहीदों के लिए धर्म निजी मामला था, राजनीति व संघर्ष में धर्म के लिए कोई जगह नहीं थी, इन्हें गुलामी से नफरत थी इसीलिए एकजुट होकर, आज़ादी के संघर्ष में कुर्बान हो गए।

        इन शहीदों ने हिंदू-मुस्लिम-सिख का भेद भुलाकर एकजुटता की मिसाल कायम की थी और ऐसे भारत का सपना देखा था जहां देश और जनता आत्मनिर्भर हो, देश के संसाधनों व हर चीज पर जनता का नियंत्रण हो, जहां जनता को असली आज़ादी व समानता हासिल हो, जहां पर शोषण-उत्पीड़न की गुंजाइश ना हो, धर्म लोगों का निजी मामला हो, सार्वजनिक जीवन- शिक्षा, कला व राजनीति में धर्म का कोई दखल ना हो।

       आज के दौर में जलियांवाला बाग के शहीदों को याद करते हुए अपने अधिकारों के लिए, धर्मनिरपेक्ष भारत के लिए संघर्ष करने की जरूरत है। हिंदू फासीवाद द्वारा किये जा रहे हर हमले का प्रतिवाद जरूरी है।


          

चुनाव की आड़ में बिहार में नागरिकता परीक्षण (एन आर सी)

      चुनाव की आड़ में बिहार में नागरिकता परीक्षण (एन आर सी)       बिहार चुनाव में मोदी सरकार अपने फासीवादी एजेंडे को चुनाव आयोग के जरिए आगे...