Saturday, 20 October 2018

यह हादसा नहीं व्यवस्थाजनित हत्या है !

       यह हादसा नहीं व्यवस्थाजनित हत्या है !
 
     अमृतसर में जोड़ा रेल फाटक के पास दशहरा का पर्व मनाने के दौरान ट्रेक पर दौड़ती ट्रेन की चपेट में आने से 62 से ज्यादा लोग मारे गए और 150 से ज्यादा लोग घायल हो गए। यह आम मेहनतकश नागरिकों के लिए दुखद ख़बर है। यह हम सभी को क्षोभ से भर देने वाली व आक्रोशित कर देने वाली खबर भी है। बताया जा रहा है कि यहां पर भीड़ मैदान की क्षमता से काफी ज्यादा थी और लोग ट्रेक पर भी खड़े थे। एक तरफ वी वी आई पी लोगों के लिए मैदान में मंच सजा था यो वहीं दूसरी ओर आम जन ट्रेक के इर्द गिर्द खड़े ही जाने को मजबूर हुए। साथ ही रेलवे प्रशासन से किसी प्रकार की अनुमति न लेने की बात भी उजागर हुई है। इस प्रकार भयानक लापरवाही व अयोजनाबद्धता के चलते आम नागरिक मारे गये। लेकिन मुख्य अतिथि के बतौर यहां शामिल कांग्रेस नेत्री नवजोत कौर सिंह ट्रेन की चपेट में आये लोगो की मदद के लिए प्रबन्ध करने के बजाय वहां से गायब हो गईं।
      इसे हादसा घोषित कर सरकार व राजनीतिक पार्टियां अपने अपराध पर पर्दा डाल रही हैं। इस ढंग के "घोषित हादसे" साल दर साल अलग अलग मौक़ों पर धार्मिक आयोजनों के वक़्त होते रहे हैं। उत्तराखंड में 2014 में केदारनाथ से लेकर बिहार या फिर कहीं और लोग यूं ही मारे गए और घायल हुए।
       दरअसल धर्म, अंधविश्वास आदि की जकड़ में आम जन के होने के चलते ऐसी जगहों पर भारी तादाद पर लोग इकट्ठे हो जाते हैं और फ़िर भयानक अराजकता, अव्यवस्था, अयोजनाबद्धता व लापरवाही के चलते भगदड़ मचने या फिर मौजूदा घटना की तरह आम लोग मारे जाते हैं। शासक अपना ढोंग करके थोड़ा मुआवजा फैंककर अपने गुनाहों पर पर्दा डाल देते हैं वास्तव में ये इनके द्वारा की जाने वाली परोक्ष हत्याएं हैं। ये आम जन को धार्मिक व अंधविश्वास की जकड़बंदी में जकड़े रखने के तमाम जतन करते हैं। आम जन इस जकड़बंदी में फंस कर तमाम तरीकों से इसका शिकार होता है। यदि शासक जनता के प्रति बेहद संवेदनशील होते और धर्मनिरपेक्ष राज्य को व्यवहार में भी कायम किया गया होता साथ ही इन जकड़बन्दियों से मुक्ति के लिए वैज्ञानिक चेतना का व्यापक प्रचार प्रसार कर जनता की चेतना को उन्नत किया गया होता तो ये निर्दोष नागरिक जो यहां मारे गए वह ज़िंदा होते।

Monday, 15 October 2018

‘‘मी टू’’ अभियान व भा ज पा

              ‘‘मी टू’’ अभियान   व  भा ज पा
 
      पिछले कुछ वक़्त से देश में #मी टू अभियान ने उन चेहरों को बेनकाब करना शुरू कर दिया है जो अपने उजले चेहरे के पीछे पाखण्ड एवं स्त्री विरोधी कृत्य किये बैठे हैं। यह आंदोलन अमेरिका से अन्य मुल्कों होते हुए भारत पहुंच गया है। फ़िल्म इंडस्ट्री से लेकर पत्रकारिता, खेल जगत में फिलहाल वो महिलाएं जिन्होंने कभी अपने अतीत में यौन शोषण या उत्पीड़न को झेला है अब उन   घटनाओं व व्यक्तियों को सामने ला रही है जिन्होंने तब अपने पद , ताकत, शोहरत का इस्तेमाल अपनी मातहत पर किया। इस अभियान में नाना पाटेकर , आलोक नाथ से लेकर भाजपा के केंद्रीय मंत्री और एक दौर के प्रख्यात पत्रकार संपादक एम जे अकबर पर ऐसे गम्भीर यौन उत्पीड़न के आरोप लगे है।
       केंद्रीय मंत्री एम जे अकबर के खिलाफ तो अब तक 4-6 महिला पत्रकार ने ऐसे आरोप लगाए है। यह राजनीतिक पार्टियों के लिए ऐसा मुद्दा बन गया है जो न उगलते बन रहा है न निगलते। इस पर सामान्य वक्तव्य देने के अलावा विशिष्ट रूप में कोई  बात या कार्यवाही की बात नही की गई है।
      जहां तक मोदी सरकार का रुख है इस मुद्दे पर मोदी का 'चिरपरिचित मौन' बरकरार है। वैसे भी 'स्नूपगेट' के आरोपियों से ऐसे असुविधाजनक 'मुद्दों' पर वक्तव्य देने की उम्मीद नही की जा सकती। एक ऐसी पार्टी से तो वैसे भी कतई नही जो पितृसत्तात्मक मूल्यों में सनी हुई हो जिसे 'वैवाहिक बलात्कार' पर कार्यवाही का मसला भारतीय संस्कृति या हिदू विवाह संस्कार पर हमला दिखाई देता हो। इसीलिए एम जे अकबर ने  अपने पीछे मोदी सरकार का वरदहस्त के साथ '97' वकील की टीम के दम पर उस महिला पत्रकार पर कानूनी कार्यवाही के रूप में हमला बोल दिया है जिसने एक वक़्त के बाद कुछ कहने का साहस जुटाया था।
      खैर! जहां तक इस अभियान की बात है # मी टू’’ की यही बात खास है कि यह सत्ताधारी वर्ग की शासक वर्ग की ढंकी-छिपी सच्चाई को बाहर लाता है। यहां उत्पीड़क और उत्पीड़ित दोनों ही पूंजीपति वर्ग के सदस्य हैं। उत्पीड़क अपनी कुत्सित यौन इच्छाओं को पूरा करने के लिए किसी भी हद तक गिर सकता है। वह राष्ट्रपति होकर या किसी प्रभावशाली पद पर होकर एक स्त्री के मान, गरिमा, इच्छा किसी से भी खेल सकता है। और जिससे खेला जा रहा हो वह अपने को इसके लिए चाहे-अनचाहे पेश करती है चुप रहती है क्योंकि चुप रहने से उस वक्त लाभ है। उसके कैरियर को सहारा मिल सकता है। उसे सफलता मिल सकती है। दौलत, शौहरत, ग्लैमर के साथ सेलीब्रेटी बनने का मौका मिल सकता है। यह उस समय कैरियर के लिए किया जाने वाला अति आवश्यक समझौता (कम्प्रोमाइज) बन जाता है।हर कोई जानता है कि ऐसा होता है। जो कर रहा है वह तो मजे ले रहा है। जिसके साथ हो रहा है वह मानता है यह एक कम्प्रोमाइज है। एक वक्ती चीज है।
       दरअसल सड़ते-गलते पूंजीवादी समाज की यह एक ऐसी सच्चाई है जिसे हर सामान्य, हर मजदूर-मेहनतकश स्त्री अपने रोज के अनुभव से जानती है, वह है उसके साथ होने वाला यौन दुर्व्यवहार। यह यौन दुर्व्यवहार सामान्य छेड़छाड़, फब्तियां कसने से लेकर वीभत्स गैंग रेप से आगे हत्या तक जाता है।
     '#मी टू ' अभियान से इस बात का अंदाजा लगाया सकता है कि जब शासक वर्ग के स्तर पर महिलाओं की यह स्थिति हो तब आम मज़दूर मेहनतकश महिलाओं की स्थिति कैसी होगी।
      यहीं से इस आन्दोलन की सीमाएं भी उजागर हो जाती है यह व्यापकता में इस समस्या को नही देखता। यह लैंगिक अधिकारों की बराबरी की बात करते हुए सामाजिक बराबरी की दिशा में नही जा पाता। हालांकि इसमें सकारात्मक कहने को यह है कि ऐसे मामले उछलने से, महिलाओं का खुल कर अपनी बात कहने से एक हद तक ऐसी मानसिकता वाले लोगो पर कुछ लगाम तो लगती ही है।
      लेकिन दूसरी तरफ यह मसले को व्यक्तिवादी बना देता है यह पुरुष बनाम स्त्री के रूप में समस्या को देखता है। यह स्त्री विरोधी मानसिकता, पुरूष प्रधान मानसिकता को पैदा करती सामाजिक आर्थिक व्यवस्था को चिन्हित नही करता। इस रूप में यह आंदोलन संकीर्ण भी है। यह मात्र सुधार की चाहत रखने वाला सहुलियत वाला आंदोलन है। यह इस पूंजीवादी व्यवस्था को अपने निशाने पर कतई भी नही लेता जिसने अपनी गति में महिलाओं को यौन वस्तु में तब्दील कर दिया है। यह केवल कुछ कानूनी नुक्तों के दम पर इस प्रकार के उत्पीड़न पर लगाम लगाने की चाहत रखता है।




  
  

  

प्रवासियों के खिलाफ गुजरात में हिंसा


प्रवासियों के खिलाफ गुजरात में हिंसा
 
महाराष्ट्र की तर्ज पर  गुजरात में भी उत्तर भारतीयों पर विशेषकर बिहार व उत्तर प्रदेश के लोगो पर बड़ी तादाद में हमले किये गए हैं। हिंसा व नफरत के चलते गुजरात छोड़कर गृह प्रदेश में वापस आना पड़ रहा है। ये सिलसिला अभी रुका नही है।
इस हिंसा के पीछे ठाकोर सेना का हाथ बताया जा रहा है। यह भी कहा जा रहा है कि गुजरात के कांग्रेस विधायक अल्पेश ठाकोर इसके पीछे है। कांग्रेस का आरोप है कि इसके पीछे भा ज पा है उनके संगठन है। आरोप प्रत्यारोप का यह सिलसिला जारी है।
 मामले के केवल तात्कालिकता तक जोड़ कर  असल वजह को छुपा लिया जाता है। हमने देखा है कि उत्तर भारतीयों के प्रति खासकर यहां के कामगारों मज़दूरों के प्रति जो रोजगार की तलाश में अपने प्रांत से महाराष्ट्र में गए हैं उनके प्रति एक गहरी नफरत भरी राजनीति का प्रचार शिव सेना व बाद में महाराष्ट्र नव निर्माण सेना ने निरन्तर किया है। इनके द्वारा अलग अलग वक़्त पर इन उत्तर भारतीयों लोगों पर हमले किये जाते रहे हैं। इस हमले में इन्होंने स्थानीय आबादी को अपने संकीर्ण पूंजीवादी राजनीति के इर्द गिर्द लामबद्ध किया और हिंसा में उसे भागीदार बनाया है।यही स्थिति गुजरात के मामले में भी है। यही असम में हिंदी भाषी मज़दूरों के साथ हुई हिंसा में भी देखा जा सकता है।

संघ परिवार व भाजपा लंबे समय से अपनी साम्प्रदायिक राजनीति में अल्पसंख्यक विशेषकर मुस्लिमों के प्रति नफरत का जमकर प्रचार व आंदोलन किया है। इस काम में कांग्रेस भी बहुत पीछे नही रही है। शिव सेना को खड़ा करने में कांग्रेस की भूमिका रही है।
 दरअसल रोज़गार का संकट पूरे देश के पैमाने पर मौजूद है गुजरात भी इससे अछूता नहीं है। आरक्षण के लिए अभी कुछ साल पहले हार्दिक पटेल की अगुवाई में जो आन्दोलन हुआ वहां से भी इस संकट को समझा जा सकता है। 
हकीकत यही है कि पूंजीवाद अपनी गति में आम तौर पर बेरोजगार आबादी को बढ़ाता है इसमें एक छोर पर पूंजी तो दूसरे छोर पर कंगाली , बेरोजगारी का संचय होता जाता है। इस बेरोज़गारी का समाधान पूंजीवाद के रहते आम तौर पर सम्भव नहीं है। ऐसी स्थितियों में पूंजीवादी राजनीति एक समय में इस संकट का आभासी समाधान ही प्रस्तुत करती है। इसमें से एक आभासी समाधान यह भी है कि एक क्षेत्र , प्रांत या देश में बेरोजगारी के लिए दूसरे क्षेत्र, प्रांत के लोगों या या धर्म , नस्ल आदि के लोगों को बताया जाय। इस संकीर्ण, साम्प्रदायिक, विभाजनकारी राजनीति का परिणाम अपनी निरंतरता में नफरत व हिंसा को बढ़ाने वाला होता है। गुजरात में भी जो हिंसा हुई है उसके मूल में यही है। जहां तक सभी नागरिकों को सम्मानजनक रोज़गार उपलब्ध कराने का सवाल है यह केवल नियोजित व योजनाबद्ध समाजवादी अर्थव्यवस्था में ही सम्भव है। जहां पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के बुनियादी अंतर्विरोध को हल कर लिया जाता है।

चुनाव की आड़ में बिहार में नागरिकता परीक्षण (एन आर सी)

      चुनाव की आड़ में बिहार में नागरिकता परीक्षण (एन आर सी)       बिहार चुनाव में मोदी सरकार अपने फासीवादी एजेंडे को चुनाव आयोग के जरिए आगे...