घोषणा पत्र
भूमिका
स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व के उदात्त आदर्शों के लिए जनता के
संघर्षों की विश्वव्यापी अभियान गाथा है।17वीं शताब्दी की
इंग्लिश क्रांतियां, 18वीं सदी की अमेरिकी स्वतंत्रता,
फ्रांसीसी क्रांतियों सहित तीन सदियों के अनेकों देशों की जनता के
जुझारू संघषो और बलिदानों ने जनवाद और स्वतंत्रता के सवालों को ठोस रूप दिया।
पूंजीवादी विकास के साथ पैदा हुए पूंजीपति वर्ग ने उदारवाद व जनवाद के
संघर्षों की अगुवाई की। पूंजीवादी जनवाद
की अपूर्णता शीघ्र ही उभर कर आ गयी। समाज में दो विशिष्ट वर्गों का अस्तित्व अमीर
व गरीब, उत्पीड़त और उत्पीड़क, दूसरों के
श्रम पर जीने वाले और अपनी उजरत पर जीने वाले, एक अभिजात
वर्गीय दूसरा जनवाद का हामी। सम्पत्ति, उद्योग, वित्तीय संसाधनों पर थोड़े से शोषकों का कब्जा, ऐसी
स्थितियां थीं जो सम्पत्तिहीनों को न स्वतंत्रता दे सकती थीं और न जनवाद। यहीं से
स्वतंत्रताएं, संविधान की शोभा मात्र रह गईं। संसदीय जनवाद
सीमा में कैद चुनावी प्रपंच बन गया। शोषितों, उत्पीड़ितों के
संगठन, उनके उत्थान के प्रयास विद्रोह भड़काने के रूप में
प्रचारित होने लगे। समाज कल्याण को विघटनकारी घोषित किया जाने लगा। स्वतंत्रताओं
की संवैधानिक अनुलंघनीयता पुलिस-फौज की कृपा के हवाले हो गई। यह मानव इतिहास की
चीखती सच्चाई है कि जनवादी अधिकारों की चर्चा उनके लागू होने में कम उल्लंघन- हरण
में जायदा होती है। साम्राज्यवादी प्रतिक्रियावाद और निरंकुश फासीवाद के दौर ने
स्वतंत्रता-जनवाद को कुचलने, औपनिवेशिक गुलामी थोपने,
जनवादी मूल्यों को ध्वस्त करने का मानवद्रोही अध्याय रचा। 20वीं सदी के विश्वव्यापी मेहनतकश जनता के संघर्षों नें जनवाद की रक्षा की।
उसका सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक
क्षेत्रों तक विस्तार किया। जनवाद की अधिकतम प्राप्ति की मंजिल समाजवादी राज्यों
की स्थापना थी। यह दौर विश्वव्यापी जनवादी, साम्राज्यवाद
विरोधी, फासीवाद विरोधी आंदोलनों और संगठनों के फैलाव का दौर
रहा। मजदूरों, मेहनतकशों ने इन आंदोलनों में जनवाद के लिए
अग्रणी रहने वाले वर्ग की भूमिका अदा की। जनपक्षधर बुध्दिजीवियों, देशभक्तों ने इसमें अपूर्व योगदान किया।
20वीं सदी में ही दुनिया ने एक ऐसे मुकाम पर प्रवेश किया जब
यूरोपीय जमीन से आरंभ जनवाद-वैश्विक पटल पर विस्तारित हुआ। 1980 के दशक से साम्राज्यवाद के हावी होने और देशी पूंजीवादी शासकों की
नवउदारवादी नीतियों के लागू करने के साथ ही स्वतंत्रताओं और जवनादी अधिकारों पर
हमले तीव्रतर हुए हैं। स्वतंत्रताएं और जनवादी अधिकार सशक्त जनआंदलोन के बिना
विलीन हो जाते हैं। इसलिए स्वतंत्रताओं और जनवादी अधिकारों की रक्षा के लिए हमेशा
संगठन संख्या और चौकस नेतृत्व तथा मुक्तिकामी परम्पराओं की जरूरत बनती है।
1947 में भारतीय पूंजीपति वर्ग ने सत्ता में आने के बाद
क्रमिक विकास के रास्ते से भारतीय समाज को मूलत: पूंजीवादी समाज में तब्दील कर
दिया है। विश्व पूंजीवादी व्यवस्था के अभिन्न अंग के तौर पर फलाफुला भारतीय
पूंजीवादी शासकों ने सामंती भू-स्वामियों को पूंजीवादी भू-स्वामियों के
बतौर विकसित होने के लिए क्रमश: नीतियां बनाई और संसाधन व सुविधा जुटायीं।
1950 में
पूंजीपति वर्ग की प्रतिनिधि कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में संविधान तैयार कर लागू
किया गया। इसने सार्विक मताधिकार के आधार पर संसदीय प्रणाली को स्वीकार किया ।
इसमें नागरिकों को बुनियादी अधिकारों का प्रावधान रखा गया। ब्रिटिश उपनिवेशवादियों
के शासन काल के दौरान नागरिकों के बुनियादी अधिकारों के लिए दीर्घकाल तक संघर्ष
हुए थे। इन संघर्षों में मजदूर-मेहनतकश आवाम ने बेमिसाल व अकूत कुर्बानियां दी थीं।
1947 में
सत्ता हस्तांतरण के पहले और उसके बाद जन-संघर्षों का सैलाब उमड़ पड़ा था। मजदूरों और
किसानों के संघर्ष देश के अलग-अलग हिस्सों में चल रहे थे। रायल इण्डियन नेवी के
नौसैनिकों ने विद्रोह किया था और उनके समर्थन में बम्बई में मजदूर सड़कों पर उतर
पड़े थे। आज़ाद हिंद फौज के सैनिकों की रिहाई के लिए आंदोलन तेज़ हो गया था। चीन,
वियतनाम, कोरिया और अन्य देशों में राष्ट्रीय
मुक्ति संघर्ष विजय अभियान के अंतिम मुकाम तक पहुंच रहे थे। इसी पृष्ठभूमि में
भारतीय पूंजीपति वर्ग संविधान का निर्माण कर रहा था।
संविधान
में नागरिकों के मूलभूत अधिकारों के तहत जनवादी अधिकारों को देने के लिए शासक वर्ग
मजबूर था लेकिन इन अधिकारों को छीनने और उनको निष्प्रभावी बनाने की भी इस संविधान
में व्यवस्था थी। उसी समय पी.डी. एक्ट, डी.आई.आर जैसे काले
कानून लागू किए थे। राजसत्ता का दमनकारी तानाबाना ब्रिटिश उपनिवेशवादियों से
भारतीय शासक वर्ग ने ज्यों का त्यों ले लिया था। वह समय के साथ इसमें बढ़ोत्तरी
करता रहा है।
पूंजीवादी शोषण के और घनीभूत हो जाने के परिणामस्वरूप जन-संघर्षों के बढ़ते
जाने के कारण पूंजीवादी राज्य और ज्यादा दमनकारी होता गया है। इसने नागरिकों के
जनवादी अधिकारों पर हमले और ज्यादा तेज कर दिए हैं। हालांकि जन-संघर्षों के कारण इसे कई जनवादी कदमों को उठाने के लिए एक
हद तक मजबूर होना पड़ा है। आज़ादी के बाद भाषावार राज्यों के लिए आंदोलनों के कारण
भारतीय राज्य को इस जनवादी मांग को एक हद तक मानने के लिए मजबूर होना पड़ा था। इसी
प्रकार, जातीय उत्पीड़न के विरोधी कानून,
दहेज विरोधी कानून, कन्या भ्रूण हत्या के
विरोध में कानून, सूचना के अधिकार संबंधी कानून इसे औपचारिक
तौर पर बनाने पड़े। हालांकि इनको लागू करने में वह हमेशा उदासीन रहता है।
नागरिकों के जनवादी अधिकारों के हमले थोक
रूप में 1975 में आपातकाल के दौरान हुए थे।
उस समय पूंजीवादी संसद और मंत्रिमंडल तक का कोई प्रभाव नहीं रह गया था। विरोधी
राजनीतिक पार्टियों की कोई भूमिका नहीं रह गई थी। नगारिकों की नगरिक
स्वतंत्रताओं-अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, इक्ट्ठा होने व
संगठित होने की स्वतंत्रता, बंदी-प्रत्यक्षीकरण की
स्वतंत्रता यानी कि मनमानी गिरफ्तारी के विरुध्द न्यायालयों में अपील करने की
स्वतंत्रता को निरस्त कर दिया गया था। अखबारों का मुंह सेंसरशिप ने बंद कर दिया
था। एक लाख से ज्यादा लोगों को बिना मुकदमा चलाए जेलों में ठूंस दिया गाया था।
आपातकाल की घोषणा के तहत ये सारे कदम भारतीय संविधान के अनुसार उठाए गए थे।
इसके बाद बगैर अपातकाल घोषित किए भारतीय राज्य और ज्यादा दमनकारी तथा
नागरिकों के जनवादी अधिकारों पर हमला करने वाला होता गया है। खासकर 1991 के बाद जारी नई आर्थिक नीतियों के दुष्परिणामों से
जनता की हालत और खराब हुई है। अपनी खराब होती हालत के खिलाफ जनता का असंतोष बढ़ता
गया है। इस असंतोष के कारण जैसे- जैसे जनता के संघर्ष बढ़ते गए हैं वैसे-वैसे
शासकों का जनता पर दमन-उत्पीड़न बढ़ता गया है। आज शासक पूरी तरह से धन्नासेठों के पक्ष
में व आम जनता के खिलाफ खड़े हैं। केंद्र सरकार ने 15 से
ज्यादा सशस्त्र बल गठित कर रखे हैं। राज्यों की पुलिस और सशस्त्र बल इसके अतिरिक्त
हैं। इन सबका इस्तेमाल दमन और कश्मीर घाटी में सशस्त्र बलों का विशेष अधिकार
अधिनियम लागू है, जहां इसके तहत नागरिकों के जनवादी अधिकारों
यहां तक कि जीने के अधिकार को भी छीन लिया गया है।
फर्जी मुठभेड़ों, पुलिस थानों में यातना,
लोगों को विशेषतौर पर मजदूरों-मेहनतकशों को फर्जी मुकदमों में
फंसाना, संघर्षरत लोगों के घरों को जलाना, उन्हें उजाड़कर बाड़ेबंदी के भीतर रखना आदि दमनकारी कदम लगातार बढ़ते जा रहे
हैं। राज्य द्वारा संगठित हथियारबंद गुण्डावाहिनियां तैयार करके संघर्षरत लोगों को,
दबे-कुचले लोगों को दमन का शिकार
बनाया जा रहा है।
इसके अतिरिक्त भारतीय राज्य नागरिकों पर निगरानी रखने के नए-नए तरीके अपना
रहा है। यह नागरिकों के व्यक्तिगत अधिकारों का खुला उल्लंघन है। वह विचारधारा
मानने के आधार पर किसी को गैर-कानूनी गतिविधियों के तहत मनमानी गिरफ्तारी करने की
मुहिम चला रहा है। आतंकवादी गतिविधियों से निपटने के नाम पर वह
मजदूरों-किसानों-आदिवासी लोगों के न्यायप्रिय संघर्षों को कुचलने के लिए व्यापक
हिंसात्मक दमन का सहारा ले रहा है।
संविधान में संसद, विधान सभाएं, स्वशासन का त्रि-स्तरीय प्रावधान इत्यादि का चुनाव सार्विक मताधिकार के
आधार पर होता है। लेकिन इसके बाद नागरिकों की भूमिका समाप्त हो जाती है। वे इन
संस्थाओं के नीति-निर्धारण्ा और लागू करने में कोई भूमिका नहीं निभाते।
न्यायपालिका और कार्यपालिका के सदस्यों की जनता के प्रति कोई न तो जवाबदेही होती
है और न ही उन्हें जनता द्वारा चुना जाता है। जनता को अपने चुने हुए प्रतिनिधियों
को वापस बुलाने का कोई अधिकार नहीं है। यह उनेक जनवादी अधिकार को अत्यंत सीमित कर
देता है।
हमारे देश में मंत्री, सासंद, विधानसभा सदस्य, नौकरशाही और न्यायपालिका के सदस्य
भ्रष्टाचार में लिप्त है। चुनावों में पैसे का, बाहुबलियों
का और जाति, धर्म व इलाकावाद का जमकर इस्तेमाल होता है। ये
सब नागरिकों के जनवादी अधिकारों पर प्रहार है।
हमारे देश की समाज व्यवस्था गैर-जनवादी है। यहां पर जाति, समुदाय, नस्ल, धर्म और लिंग आधारित उत्पीड़न व दमन ज्यादा सघन और संस्थाबध्द है। समाज के प्रभुत्वशाली वर्गों और तबकों
द्वारा यह उत्पीड़न और दमन जारी है। भारतीय राज्य द्वारा इसे किसी न किसी रूप में
समर्थन व सहयोग प्राप्त है।
हमारे समाज में जाति व्यवस्था का कोढ़ अभी भी मौजूद है। दलित जातियों का
उत्पीड़न व दमन जारी है। भारतीय राज्य के तमाम कानूनों के बावजूद जातीय भेदभाव व
अपमान जारी है।
नारी सशक्तीकरण के तमाम गर्दोगुबार के बावजूद महिलाओं के विरुध्द यौन हिंसा, बलात्कार, दहेज हत्या, भ्रूण हत्या,
जीवन साथी चुनने पर परिवार व खानदान की प्रतिष्ठा के नाम पर हत्या,
परिवार के भीतर और कार्यस्थल पर यौन शोषण जारी है। पूंजीवादी उपभोक्तावाद
और दकियानूसी दक्षिणपंथी सोच के कारण ये घटनाएं बढ़ रही है।
जन-जातियों को भारतीय राज्य पूंजीवादी लूट के लिए उजाड़ रहा है। खनिज
सम्पदा से सम्पन्न क्षेत्र को देशी-विदेशी पूंजीपतियों के हवाले करने के लिए
उन्हें जबरन बेदखल किया जा रहा है। उन्हें उनके परम्परागत जीवन साधनों से वंचित
किया जा रहा है और बदले में लाठी-गोली, जेल
की सजायें देरहा है।
भारतीय शासक वर्ग सांप्रदायकिता की समस्या का इस्तेमाल मजदूर-मेहनतकश आवाम
के बीच आपस में फूट डालने के लिए करता है। बहुमत की सांप्रदायिकता का चरित्र
फासिस्ट है। यह आक्रामक है और इसे देशहित के साथ जोड़कर प्रचारित किया जाता है।
अल्पसंख्यक साम्प्रादयिकता इससे खुराक पाती है। दोनों सांप्रदायिकता एक-दूसरे की
मदद करती हैं। ये दोनों दकियानूसी और पोंगापंथी हैं तथा जनवाद-विरोधी है।
हमारा देश बहुराष्ट्रीय है। कई राष्ट्रीयताएं अपने उत्पीड़न के विरुध्द
संघर्ष कर रही हैं। पूंजीवादी केंद्रीय सत्ता उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं को दमन का
शिकार बनाए हुए हैं। कश्मीर, नागा, मिजो और उत्तर-पूर्व के अन्य राज्यों में यह सवाल तीखे रूप में मौजूद हैं।
साम्राज्यवादी-पूंजीवादी वर्चस्व ने सांस्कृतिक संकट को और बढ़ा दिया है।
समूची दुनिया में शासक वर्ग दक्षिणपंथी प्रतिगामी सोच को पालपोस रहा है।
दक्षिणपंथी प्रतिगामी सोच व्यक्तियों, समूहों
के जनवादी अधिकारों, सांस्कृतिक खानपान, रहन-सहन, इबादत आदि की स्वतंत्रताओं पर हमलावर होती
जा रही है।
कला-साहित्य पूंजी के चाकर बन गए हैं। खेल, संगीत, गीत पूंजीपतियों के विज्ञापन के सेल्समैन
बनाने के माध्यम बन गए हैं। संचार, मीडिया खुद कॉरपोरेट हाउस
हैं। इससे घृणित व्यक्तिवाद, संवेदनशून्यता और बंजर सोच पैदा
होती है।
यह इतिहास जन्य सच्चाई है कि स्वंत्रता/समानता और बंधुत्व के पूंजीपति
वर्ग द्वारा दिए गए नारे और घोषणाएं हमेशा पाखण्डपूर्ण रहे हैं। उसके लिए
स्वतंत्रता का अर्थ व्यापक मजदूर-मेहनतकश को लूटे जाने तथा भूखे मरने की
स्वतंत्रता है। उसके लिए समानता का अर्थ महज कानून की निगाह में समानता है। उसके
बंधुत्व का मतलब मजदूरों-मेहनतकशों के लिए दमन, उत्पीड़न और अत्याचार के सिवाय और कुछ नहीं है। निजी सम्पत्ति की व्यवस्था
में इसके अलावा और कुछ हो भी नहीं सकता। पूंजीपति वर्ग ने सत्ता में आने के बाद
राजनीतिक तौर पर यही भूमिका निभायी है।
साम्राज्यवाद के युग में तो यह पूंजीपति वर्ग और भी प्रतिक्रियावादी हो
गया है। मजदूर वर्ग और अन्य मेहनतकश अवाम के संगठित होने से ही यह कांप उठता हैं।
उसे मजदूर वर्ग के नेतृत्व में क्रांति होने की आशंका से कंपकंपी आ जाती है। ऐसे
में इस वर्ग ने अपनी राजसत्ताा को अधिाकाधिाक दमनकारी व जनवाद विरोधाी बनाते हुए
मजदूरों-मेहनतकशों पर चौतरफा हमला बोल दिया है।
आज देश दुनिया के शासक जहां एक ओर जनवाद विरोधाी तेवर अपनाये हुए हैं, वहीं दूसरी ओर इनके द्वारा खड़े किये गये गैर सरकारी संगठन
(एन. जी. ओ.) जनवाद और सामाजिक उत्पीड़न के मुद्दों को उठाकर मेहनतकश जनता के
पूंजीवादी व्यवस्था के प्रति आक्रोश को ठंड़ा करने का प्रयास करते हैं। शासक वर्ग
इनको पाल-पोस कर जनता के संघर्षों को व्यवस्था को विरोधाी बनने से रोक पूंजीवाद की
चौहद्दी में कैद करना चाहता है। साम्राज्यवादी व विस्तारवादी शासक इन संगठनों के
जरिये अपनी विरोधाी सत्तााओं पर लगाम कसने के साथ इनको सुरक्षा पंक्ति के बतौर भी
तैयार रखते है।
जनवादी अधिाकारों पर हो रहे हमलों के विरुध्द संघर्ष करने के साथ-साथ
इन्हें विस्तारित करने के लिए संघर्ष की चुनौती हमारे सामने है। मेहनतकशों के
जनवादी अधिाकारों का दैनांदिन हनन ही पूंजीवाद के पाखण्डपूर्ण चरित्र को उजागर
करता रहता है। ऐसे में जनवादी अधिाकारों की रक्षा और इनका विस्तार भी
मजदूरों-मेहनतकशों के वास्तविक जनवाद अर्थात समाजवाद के संघर्ष को तेज करके ही
किया जा सकता है।
क्रांतिकारी लोक अधिाकार संगठन देश भर में जनवादी अधिाकारों और सामाजिक
उत्पीड़न के मुद्दे पर चल रहे संघर्ष का एक हिस्सा मात्र है और इस संघर्ष में अपनी
क्षमताभर भूमिका निभाने को संकल्पबध्द है।
हमारे कार्यभार
जनवाद के लिए संघर्ष आज हमारे सामने कई चुनौतियां प्रस्तुत करते हैं।
हमारे सामने देश में बढ़ रहे साम्राज्यवाद के साथ भारतीय शासकों की बढ़ती सांठ-गांठ
के विरुध्द संघर्ष की चुनौती है। हमारे सामने भारतीय राजसत्ताा द्वारा जनता के
विभिन्न हिस्सों/संघर्षों पर होने वाले दमन के विरुध्द संघर्ष खड़ा करने की चुनौती
है। हमारे सामने जाति-धार्म-क्षेत्र-लिंग आधाारित गैर बराबरी व सामाजिक उत्पीड़न के
खिलाफ खड़े होने की चुनौती है। हमारे सामने जनता के बीच जनवादी चेतना के प्रसार के
साथ मौजूद जनवादी अधिाकारों की हिफाजत और विस्तार के लिए संघर्ष की चुनौती मौजूद
है ओर अंतत: सर्वाधिाक महत्पवूर्ण पूंजीवादी जनवाद के पाखण्ड पूर्ण चरित्र का
पर्दाफाश ओर मजदूरों-मेहनतकशों के वास्तविक जनवाद की स्थापना यानि समाजवाद के
संघर्ष को मजबूत बनाने की चुनौती मौजूद है।
क्रांतिकारी
लोक अधिाकार संगठन उपरोक्त चुनौतियों को स्वीकारते हुए अपने सम्मुख संघर्ष के
निम्न कार्यभार रखता है:-
1-
हम इस देश में साम्राज्यवादी लूट के खात्मे के लिए संघर्ष करेंगे। इसी के
साथ ही साम्राज्यवादियों द्वारा भारत में सामरिक, सांस्कृतिक और अन्य क्षेत्रों में
दखलंदाजी के विरुध्द संघर्ष करेंगे।
2-
हम मजदूरों को ट्रेड यूनियनें बनाने के बुनियादी अधिकार सहित समाज के
दबे-कुचले हिस्सों द्वारा संगठित प्रतिरोध के लिए संघर्ष करेंगे।
3-
हम राज्य द्वारा नागरिक स्वतंत्रताओं पर हो रहे हमलों के विरुध्द संघर्ष
करेंगे। हम तमाम काले कानूनों के खात्में के लिए बिना वारण्ट गिरफ्तारियां करने, पुलिस हिरासत में बंदियों को यातना
व प्रताड़ना देने के विरुध्द संघर्ष करेंगे।
4-
राजनीतिक कारणों से बंद कैदियों के साथ राजनीतिक कैदियों जैसे व्यवहार
करने तथा जेल की व्यवस्था में सुधार करने के लिए संघर्ष करेंगे।
5-
उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं के आत्मनिर्णय के अधिकार के लिए तथा उन पर होने
वाले पाश्विक दमन के विरुध्द संघर्ष करेंगे। हम भारतीय राज्य को वास्तविक अर्थों
मे संघात्मक बनाने के लिए संघर्ष करेंगे।
6-
हम खनिज संपदा और प्राकृतिक संसाधनों को देशी-विदेशी मगरमच्छों को माटी के
मोल हवाले करने तथा इन संसाधनों से मजदूर-मेहनतकश आबादी को बेदखल करने के विरुध्द
संघर्ष करेंगे।
7-
हम विस्थापित आबादी के पुनर्वास और उनको रोजगार दिलवाने के लिए संघर्ष
करेंगे।
8-
हम जाति के आधार पर उत्पीड़न के विरुध्द संघर्ष करेंगे। विशेषतौर से दलित
उत्पीड़न के विरुध्द संघर्ष करेंगे।
9-
हम हर तरह की साम्प्रदायिकता के विरुध्द संघर्ष करेंगे। विशेषतौर पर
हिंदुवादी आक्रामक साम्प्रदायिकता का
विरोध करेंगे।
10-
हम जीवन के हर क्षेत्र में महिलाओं के समान अधिकार के लिए संघर्ष करेंगे।
महिलाओं के ऊपर हो रहे अत्याचार, दमन, उत्पीड़न के हर रूप के विरुध्द
संघर्ष करेंगे।
11- इसी के साथ नारी शरीर
को माल बनाकर इस्तेमाल करने तथा वेश्यावृत्ति के विरुध्द संघर्ष करेंगे। प्रचार
माध्यमों से फैलती कुसंस्कृति,
साम्राज्यवादी-पूंजीवादी पतनशील संस्कृति और इससे घुलीमिली सामंती
संस्कृति के विरुध्द व्यापक विचारधारात्मक अभियान चलाएंगे। इसके विरूद्य माहौल
बनाने के साथ ही हम श्रम की गरिमा को स्थापित करने से सामूहिकता पर आधारित मानविय
सारतत्व को प्रतिविंवित करनेवाली जनसंस्कृति को हम स्थापित करेंगे।
12- हम समाज में कैंसर की
तरह व्याप्त भ्रष्टाचार के विरुध्द संघर्ष करेंगे। हम सरकारी गोपनीयता कानून को
रध्द करने के लिए,
सरकारी आय-व्यय में पूर्ण पारदर्शिता के लिए तथा राजनीतिज्ञों,
नौकरशाहों की आय-व्यय को सार्वजनिक करने के लिए संघर्ष करेंगे।
13- हम राज्य के
जनवादीकरण के तथा राजनीति में बढ़ती गंदगी और अपराधीकरण के विरुध्द संघर्ष करेंगे।
राज्य में व्यापक अपराधीकरण पर लगाम लगाने के लिए आवश्यक है कि व्यापक जनसमुदाय को
अपने चुने हुए प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार हो। इसी के साथ ही, जन समुदाय को महज मतदान देने के
अधिकार तक सीमित करने के बजाय विधायिका के कानून बनाने के कामों सहित कानून लागू
करने तथा न्याय दिलाने में जन समुदाय का सक्रिय व दैनन्दिन हस्तक्षेप हो।
14- कार्यपालिका और न्यायपालिका
के क्षेत्र में जन समुदाय का सक्रिय हस्तक्षेप हो। इसके लिए आवश्यक है कि इनके
पदाधिकारियों का चुनाव जनता द्वारा हो और ये जन समुदाय के प्रति जवाबदेह हों।
राज्य के तमाम अंगों-उपांगों के दैनन्दिन कार्यकलापों में जन हस्तक्षेप जनवाद की
लड़ाई का आवश्यक व अहम हिस्सा है।
हम मजदूर-मेहनतकश आवाम के हर न्यायपूर्ण संघर्ष के साथ अपनी एकजुटता
प्रदर्शित करने के लिए संकल्पबध्द हैं। हम विश्वव्यापी पैमाने पर चल रहे
साम्राज्यवाद-विरोधी, पूंजीवादी शोषण के विरुध्द
तथा तरह तरह के उत्पीड़न के विरुध्द चलने वाले तमाम मुक्तिकामी, न्यायप्रिय एवं जनवादी आंदोलनों का समर्थन करते हैं और उनके साथ अपनी
फौलादी एकजुटता प्रदर्शित करते हैं।
हम उपरोक्त
कार्यभारों और उनको आगे बढ़ाने वाली अन्य बातों/मांगों के आधार पर एक लहर खड़ी करने
का संकल्प लेते हैं। आज चुनौतीभरे समय की यह मांग है। हमारा रास्ता टेढ़ा-मेढ़ा हो
सकता है, लेकिन हम अपनी मंजिल की ओर निश्चित
ही बढ़ेंगे।
क्रांतिकारी अभिवादन सहित
क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन (क्रालोस)
संविधान
नाम झण्डा एवं प्रतीक चिन्ह
नाम: संगठन का नाम क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन
।
कार्यक्षेत्र : सम्पूर्ण भारतवर्ष
झंडा: 3:2 के अनुपात में होगा। झंडे का रंग सफेद होगा। इसके मध्य में लाल रंग की एक तनी हुई मुट्ठी होगी। सफेद रंग हमारे देश की जनता की उदात्तता और सहनशीलता तथा लाल रंग की मुट्ठी उसकी संघर्षशीलता की प्रतीक होगी।
झंडा: 3:2 के अनुपात में होगा। झंडे का रंग सफेद होगा। इसके मध्य में लाल रंग की एक तनी हुई मुट्ठी होगी। सफेद रंग हमारे देश की जनता की उदात्तता और सहनशीलता तथा लाल रंग की मुट्ठी उसकी संघर्षशीलता की प्रतीक होगी।
प्रतीक चिन्ह: संगठन का प्रतीक
चिन्ह दो जुड़े हुए हाथ होंगे जो एकता, संगठन
व संघर्ष के प्रतीक होंगे।
उद्देश्य
हमारे देश में
व्यापक मजदूर-मेहनतकश नागरिक आबादी काफी यंत्रणादायक स्थिति में जी रही है। जबकि
हमारे शासक अपनी शासन प्रणाली को दुनिया के सबसे बड़े 'लोकतंत्र' के रूप में
प्रचारित-प्रसारित करके देश-दुनिया में चले व्यापक मजदूर-मेहनतकश नागरिक आबादी के
जनवादी संघर्षों के प्रत्यक्ष व परोक्ष दबाव के चलते मिले बेहद सीमित अधिकारों को
छीनने की ओर अग्रसर हैं। देशी-विदेशी पूंजी के गठजोड़ व उसके हितों के विरोध में
उठने वाली हर आवाज व संघर्ष को निर्ममतापूर्वक कुचला जा रहा है। मौजूदा स्थिति में
क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन का उद्देश्य आम मजदूर-मेहनतकश नागरिक आबादी के
मौजूदा जनवादी अधिाकारों की रक्षा, जनवादी संघर्षों व जनवाद
के विस्तार के लिए समर्थन, गोलबंदी व संघर्ष के साथ सामाजिक
उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष होगा इसके साथ ही पूंजीवादी जनवाद की सीमायें उजागर करते
हुए अधिाकतम जनवाद प्राप्ति की मंजिल समाजवाद की विचारधाारा को प्रचारित करना भी
इसका प्रमुख उद्देश्य है।
सांगठनिक सिध्दांत
1
व्यक्ति समूह के मातहत है।
2
अल्पमत बहुमत के मातहत है।
3
निचली
समितियां, उपरी समितियों के मातहत
हैं।
4
पूरा संगठन
सर्वोच्च परिषद के मातहत है।
सदस्यता
1
कोई भी नागरिक
जो संगठन के घोषणा पत्र एवं संविधान से सहमत हो और सांगठनिक कार्यक्रमों में शिरकत
करता हो संगठन का सदस्य हो सकता है।
2
कोई अन्य
नागरिक संगठन जो क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन के घोषणा पत्र व संविधान से सहमत हो
इसका संघीय सदस्य हो सकता है। उस संगठन का प्रतिनिधि क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन
के केंद्रीय निकाय का सदस्य हो सकता है। यह सम्बध्दता सर्वोच्च परिषद से अनुमोदित
होगी।
3
संगठन का
सदस्यता शुल्क 10 रुपए वार्षिक होगा।
4
संगठन के
प्रत्येक सदस्य से अपेक्षा है कि वह आम नागरिकों की समस्याओं के प्रति सजग रहे, संगठन के साहित्य का गहराइ से अध्ययन करे, संगठन के उद्देश्यों व नीतियों को आम नागरिकों में प्रचारित करे, जनवादी संघर्षों में शिरकत करे।
5
प्रत्येक
सदस्य को उससे संबंधित सांगठनिक चुनावों में चुनने व चुने जाने का अधिकार होगा।
6
प्रत्येक
सदस्य संगठन की नीतियों एवं कार्यशैली के बारे में अपनी राय या आलोचना उससे
संबंधित समिति या उससे ऊपर के किसी भी निकाय में लिखित भेज सकता है।
7
यदि कोई सदस्य
संगठन विरोधी, समाज विरोधी कृत्य करता है
तो उसके विरुध्द अनुशासनात्मक कार्यवाही की जाएगी। ऐसी स्थिति में संबंधित समिति
उसे अपनी सफाई देने का अवसर प्रदान करेगी। यदि समिति उसकी सफाई से असंतुष्ट रही तो
उसे दंडित करेगी। सदस्य के निष्कासन
की स्थिति में संबंधित समिति को इस फैसले का अनुमोदन ठीक
ऊपरी समिति द्वारा करवा लेना अनिवार्य
होगा।
8 सदस्यता शर्तों
को पूरा न करने की हालत में संबंधित समिति सदस्यता समाप्त कर सकती है।
प्राथमिक इकाई
1
संगठन की
प्राथमिक इकाईयां मोहल्ला व ग्राम स्तर पर कार्य करेंगी।
2
प्राथमिक इकाई
गठित करने के लिए सदस्यों की न्यूनतम संख्या 3 एवं अधिकतम संख्या 50 होगी।
प्राथमिक इकाई को केंद्रीय कार्यकारिणी का प्रतिनिधि गठित करेगा।
3
इकाई स्तर पर
सर्वोच्च निकाय सदस्यों की आम सभा होगी। कम से कम 6 महीने में इस आम सभा की बैठक बुलाना अनिवार्य होगा। आम
सभा की बैठक हेतु कम से कम एक तिहाई सदस्यों की उपस्थिति अनिवार्य होगी।
4
प्रत्येक
प्राथमिक इकाई की आम सभा 3 से 7
सदस्यीय 'इकाई संचालन समिति' चुनेगी, जिसमें एक पद 'इकाई
सचिव' और एक पद 'कोष सचिव' का होगा। इकाई समिति का चुनाव केंद्रीय कार्यकारिणी के प्रतिनिधि की
उपस्थिति में होगा। बराबर मत विभाजन की स्थिति में इकाई सचिव को एक अतिरिक्त मत
देने का अधिकार होगा।
5
स्थानीय स्तर
पर संगठन की नीतियों और कार्यक्रम को लागू कराने की जिम्मेदारी इकाई संचालन समिति
की होगी।
6
प्राथमिक स्तर
से ऊपर के स्तर की समिति गठित करने के लिए केंद्रीय कार्यकारिणी की सहमति आवश्यक
होगी।
7
संगठन की
आवश्यकतानुसार केंद्रीय कार्यकारिणी , कई
प्राथमिक इकाईयों को मिलाकर शहर, तहसील, जिला व मंडल स्तर पर समितियां गठित कर सकती हैं। समितियों का गठन चुनाव
द्वारा होगा। केंद्रीय कार्यकारिणी का प्रतिनिधि इस चुनाव का संचालन करेगा।
सम्मेलन
1
संगठन का
सर्वोच्च निकाय सम्मेलन होगा।
2
सम्मेलन तीन
वर्षों के अंतराल पर बुलाया जाएगा।
3
सम्मेलन
बुलाने की जिम्मेदारी सर्वोच्च परिषद की होगी। विशेष परिस्थितियों में सर्वोच्च
परिषद सम्मेलन को पहले या बाद में बुला सकती है।
4
सम्मेलन में
भागीदारी हेतु प्रत्येक इकाई अपने प्रतिनिधि भेजेगी। प्रतिनिधियों की संख्या इकाई
सदस्यों की संख्या के अनुपात में होगी जिसे सर्वोच्च परिषद निर्धारित करेगी।
5
महासचिव पिछले
सम्मेलन से लेकर अब तक के कार्यों की राजनीतिक, सांगठनिक रिपोर्ट सर्वोच्च परिषद की ओर से सम्मेलन में
प्रस्तुत करेगा।देश-दुनिया की परिस्थितियों को मद्देनजर रखते हुए सम्मेलन संगठन की
नीतियां निर्धारित करेगा। तथा प्रस्तुत राजनीतिक सांगठनिक रिपोर्ट के आधार पर अगले
सम्मेलन तक संगठन के कार्यभार तय करेगा।
6
सम्मेलन संगठन
की सर्वोच्च परिषद का चुनाव करेगा। संगठन के अध्यक्ष का चुनाव करेगा। संगठन के
अध्यक्ष का चुनाव भी सम्मेलन में प्रत्यक्ष रूप से होगा। अध्यक्ष सर्वोच्च परिषद
का पदेन सदस्य होगा।
7
सम्मेलन को
संविधान और घोषणा पत्र में परिवर्तन करने का अधिकार होगा।
सर्वोच्च परिषद
1
सर्वोच्च परिषद दो सम्मेलनों के बीच में संगठन का सर्वोच्च निकाय होगी।
संगठन की इकाईयां,
समितियां, उपसमितियां इसके मातहत होंगी।
2
सर्वोच्च परिषद के सदस्यों की संख्या 11 से 51 होगी।
3
स्थान रिक्त होने की स्थिति में सर्वोच्च परिषद इस निकाय के लिए दो तिहाई
बहुमत से सदस्य मनोनीत कर सकती है।
4
सर्वोच्च परिषद अपने भीतर से उपाध्यक्ष, महासचिव, व
कोष सचिव का चुनाव करेगी।
5
सर्वोच्च परिषद की बैठक हेतु एक तिहाई सदस्यों की उपस्थिति अनिवार्य होगी।
6
सर्वोच्च परिषद अपने भीतर से 5 से 11
सदस्यों की केंद्रीय कार्यकारिणी चुनेगी। अध्यक्ष, महासचिव,
उपाध्यक्ष व कोष सचिव केंद्रीय कार्यकारिणी के पदेन सदस्य होंगे।
7
सर्वोच्च परिषद की बैठक सामान्यत: 6 महीने में एक बार बुलाई जाएगी। बैठकें अध्यक्ष द्वारा
बुलाई जाएंगी और अध्यक्ष ही बैठकों का संचालन करेगा। अध्यक्ष की अनुपस्थिति में इन
जिम्मेदारियों का निर्वाह उपाध्यक्ष करेगा।
8
सर्वोच्च परिषद दो-तिहाई बहुमत से अपने किसी भी सदस्य को सर्वोच्च परिषद से
बाहर निकाल सकती है।
9
महासचिव सांगठनिक कार्यों का लेखा-जोखा रखेगा तथा सांगठनिक ढांचे को चलाने
के लिए प्रमुख प्रभारी होगा।
10
महासिचव का पद रिक्त होने की स्थिति में सर्वोच्च परिषद अपने भीतर से नए
महासचिव का चुनाव करेगी।
11
सर्वोच्च परिषद दो तिहाई बहुमत के आधार पर महाभियोग लगाकर अध्यक्ष, महासचिव, उपाध्यक्ष,
कोष सचिव या किसी भी अन्य अधिकारी को उनके पदों से हटा सकती है या
उनके बदले नए पदाधिकारी चुन सकती है।
केंद्रीय कार्यकारिणी
1
केंद्रीय
कार्यकारिणी का कोरम अपने एक तिहाई सदस्यों की उपस्थिति में पूरा होगा।
2
केंद्रीय कार्यकारिणी
संगठन की आवश्यकतानुसार अन्य पद तय करेगी व प्रभारी नियुक्त करेगी।
3
केंद्रीय
कार्यकारिणी संगठन के विशेष कार्यों को देखने के लिए उपसमितियां गठित कर सकती हैं।
उपसमितियां केंद्रीय कार्यकारिणी के मातहत होंगी।
4
संगठन के
कार्यक्रम को व्यवहार में उतारने की जिम्मेदारी केंद्रीय कार्यकारिणी की होगी।
5
केंद्रीय
कार्यकारिणी किसी भी समितियां, इकाई
को भंग कर सकती है तथा उनके द्वारा लिए गए फैसले रद्द कर सकती है।
6
अध्यक्ष संगठन
का प्रतिनिधित्व करेगा। अध्यक्ष पद रिक्त होने पर उपाध्यक्ष सर्वोच्च परिषद द्वारा
नए अध्यक्ष चुने जाने तक कार्यकारिणी अध्यक्ष के रूप में कार्य करेगा।
7
अध्यक्ष अपना
त्यागपत्र उपाध्यक्ष को सौंपेगा और अन्य सभी प्रभारी व सर्वोच्च परिषद के सदस्य
अपना त्याग पत्र अध्यक्ष को सौपेंगे।
8
महासचिव के
अनुपस्थित होने या इस्तीफा देने की स्थिति में केंद्रीय कार्यकारिणी सर्वोच्च
परिषद की बैठक होने तक अपने में से किसी सदस्य को महासचिव का कार्यभार सौंप सकती
है।
9
केंद्रीय
कार्यकारिणी के प्रत्येक महत्वपूर्ण फैसले को सर्वोच्च परिषद से अनुमोदित करवाना
अनिवार्य होगा।
कोष
1
केंद्रीय
कार्यकारिणी द्वारा जारी रसीदों पर ही कोष एकत्र किया जाएगा।
2
कोष का
विस्तृत ब्यौरा संबंधित निकाय का कोष प्रभारी
हमेशा तैयार करेगा ।
3
सदस्यता शुल्क
का एक चौथाई भाग संबंधित स्थानीय इकाई के कोष व तीन-चौथाई भाग केंद्रीय कोष में
जमा होगा।
4
सम्बध्द संगठन
एकत्रित कोष का एक हिस्सा क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन के केंद्रीय कोष को देगा
एहसास! संगठन!! संघर्ष!!!