Thursday, 18 April 2019

जलियावाला बाग शहादत के 100 वें साल पर

     जलियावाला बाग शहादत के 100 वें साल पर

       जलियावाला बाग हत्याकांड के शहीदों को याद  करो ! समाजवाद की राह चलो !

 

       जलियावाला बाग हत्याकांड का यह 100 वां साल है। अंग्रेज सरकार ने क्रांतिकारी संघर्षो को कुचलने के लिए काला दमनकारी कानून' रौलेट एक्ट बनाया था। इसके विरोध में 13 अप्रेल 1919 को' जलियावाला बाग में सभा हो रही थी। सभा करते हज़ारों लोगों पर अंग्रेज सरकार ने गोलियां चलवा दी जिसमें हज़ार से ज्यादा लोग शहीद हो गए। हज़ारों घायल हो गए।
        इस शहीदी दिवस को हम ऐसे मौके पर याद कर रहे हैं जब कि देश में 'आम चुनाव' हो रहे हैं ! इन चुनावों में हम जनता को बताया जाता है कि यहां सबसे बड़ा 'लोकतंत्र' है, कि चुनाव 'महापर्व' है, कि जनता जिसे चाहे- जिस पार्टी को चाहे जिताये, कि वोट डालना नागरिकों की जिम्मेदारी व अधिकार है। 'वोट के अधिकार' पर इतनी "चिंता", इतने विज्ञापन और इतना प्रचार !! मगर  बात जब 'रोज़गार के अधिकार' की हो, 'शिक्षा के अधिकार' की हो, 'इलाज के अधिकार' की हो या फिर 'धरना-प्रदर्शन-विरोध' कर सकने व 'असहमति जताने' 'सवाल करने' के अधिकार की बात हो ! तब जवाब 'लाठीयां-मुकदमे और जेल' होती है।
     चुनाव पर एक दिन वोट डलवाकर फिर रात दिन इन्हीं नागरिकों के अधिकारों पर, सुविधाओं पर डाका डाला जाता है। दिन रात की हाड़ तोड़ मेहनत की जो कमाई होती है उसे हड़पने की स्कीम बनती हैं। फिर अधिकारों के लिए संघर्ष की बात हो या सरकार की नीतियों पर सवाल उठाने की बात या फिर सरकार और चुने हुए नेताओं की आलोचना बात हो सब कुछ 'देशद्रोह' हो जाता है
       इन स्थितियों में  हम नागरिक जो कि मज़दूर है मेहनतकश है जिनकी तादाद करोड़ों में है यह सवाल हमारे सामने है कि हम इस कथित 'लोकतंत्र' को, इस 'चुनाव' को अपना कैसे और क्यों माने ? इस 'लोकतंत्र' में उनके लिए क्या है ? 70 सालों में इस 'लोकतंत्र' ने हमें क्या दिया ? हम देखते हैं कि जब भी हम अपनी मांगों के लिए आंदोलन करते हैं तो हम पर लाठियां बरसती हैं फर्जी मुकदमे लगते हैं जेलों में सड़ाया जाता है। कानून हमारी मेहनत की लूट के लिए बनाए व बदले जा रहे हैं। सरकार किसी भी पार्टी की हो ! यह बढ़ता ही चला जाता है । ऐसा क्यों ?
      यही सवाल बदले रूप में जैसे तैसे पढाई लिखाई करके नौकरी की तलाश में इधर उधर भटकते करोड़ों नौजवान का है। जैसे तैसे पढाई करते छात्रों का है। मेहनतकश किसानों का है जिन पर तब लाठी गोली चलती है जब वे उपज के वाजिब दाम  के लिए सड़कों पर आते हैं । यही सवाल अपनी जमीन से उजाड़े जा रहे करोड़ों आदिवासियों के सामने है जिनकी जमीन टाटा-एस्सार-मित्तल-जिंदल-अम्बानी जैसे बड़े बड़े पूंजीपतियों को सौपीं जा रही है।
      सचमुच बात यही है कि टाटा बिड़ला एस्सार अम्बानी अडानी जैसे बड़े बड़े पूंजी के मालिक ही देश के मालिक हैं ये 'लोकतंत्र', ये 'चुनाव' इन्हीं का तंत्र है प्रपंच  है । सरकार इन्हीं की, राजनीतिक पार्टियां इन्हीं की! सब कुछ इन्हीं का है। वो संसाधन जो नाम के लिए तो जनता के हैं मगर इसके मालिक भी यही हैं। यही संसाधनों की लूट खसोट मचाते हैं। मेहनतकश जनता की लूट व शोषण के दम पर ये मालामाल होते जाते है। इनकी राजनीतिक पार्टियां और  नेता भी मालामाल होते जाते हैं।
      मेहनतकश जनता को तो यहां इतना ही अधिकार है कि वह पूंजीपतियों की इन पार्टियों में से किसी एक को चुन ले। यह चुन लें अगले 5 सालों में इन पूंजीपतियों की कौन सी पार्टी हम पर डंडा चलाएगी। इस पूँजीवादी व्यवस्था में चुनाव का केवल यही अर्थ है।
       जब देश अंग्रेजों का गुलाम था । शासक अंग्रेज थे तब जलियावाला बाग हत्याकांड रचे गए। इससे आज़ादी की लड़ाई रुकी नहीं। नए जोश से आज़ादी का संघर्ष आगे बढ़ता गया। भगत सिंह, अशफ़ाक़ उल्ला, राजगुरु जैसे नायक पैदा हुए। ये वो दौर था जब मज़दूर मेहनतकशों की दुनिया समाजवादी सोवियत रूस में जगमगा रही थी। यह मज़दूर मेहनतकशों का समाजवादी देश ही था। जो दुनिया की अवाम को गुलामी के खिलाफ उठ खड़े होने व समाजवाद की राह दिखा रहा था । देश दुनिया में चले ऐसे संघर्षो से देश आज़ाद तो हुआ। मगर सत्ता पर  जनता  के प्रतिनिधियों के बजाय   देशी लूटेरे  पूंजीपति व जमींदार काबिज हो गए। हमारी गुलामी बदले रूप में बरकरार रही।
        जैसा कि शहीद भगत सिंह ने कहा था- "गोरे अंग्रेजों की जगह काले अंग्रेजों के सत्ता पर आने से जनता के जीवन में विशेष फर्क नहीं पड़ने वाला" .... " जब तक एक इंसान द्वारा दूसरे इंसान का और एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र का शोषण समाप्त नहीं कर दिया जाता तब तक ..शान्ति .. की सारी बातें महज ढोंग के सिवाय और कुछ भी नहीं हैं।" .... " जब तक सारा सामाजिक ढाँचा बदला नहीं जाता और उसके स्थान पर समाजवादी समाज स्थापित नहीं होता, हम महसूस करते हैं कि सारी दुनिया एक तबाह कर देने वाले प्रलय-संकट में है"। गुजरे 70 साल बताते हैं कि शहीद भगत सिंह की ये बातें हर तरह से सही हैं।
       इन गुजरे 70 सालों में कई जलियावाला बाग हत्याकांड रचे गए हैं। तेलंगाना किसान आंदोलन से लेकर उत्तराखण्ड आंदोलन तक और कश्मीर से लेकर मणिपुर मिजोरम तक। दिल्ली, देहरादून, लखनऊ, पटना से कलकत्ता तक राजधानियों में जब भी छात्र, बेरोजगार, संविदा कर्मचारी आदि आंदोलन प्रदर्शन करते हैं तो उन पर लाठियां बरसती हैं। कांग्रेस की सरकार हो चाहे भाजपा की या फिर किसी अन्य की 'लाठी-गोली' चलाने में सभी आगे हैं। लाठी गोली से हमारा मुंह बंद कराने के लिए कई 'रौलेट एक्ट' जैसे कई दमनकारी कानून ये बना चुके हैं। अफस्फा, यू के पी ए, टाडा, मीसा आदि तो चंद नाम हैं । दमन का तंत्र हर बीतते दिन के साथ और मज़बूत होता जा रहा है । आधार के जरिए हर नागरिक की निगरानी की जा रही है। अंग्रेजों की तरह हमारे लुटेरे शासक सोचते हैं कि दमन के कानून से जनता के संघर्ष को रोक देंगे। वे भूल जाते हैं अंग्रेज जलियावाला बाग हत्याकांड कर जनसंघर्ष को नहीं रोक सके तो इनकी क्या बिसात है।
        इन स्थितियों में जलियावाला बाग शहादत हमें प्रेरित करती है राह दिखाती है। जलियावाला बाग शहादत 'आज़ादी' के लिए, अपने अधिकारों के लिए संघर्ष का प्रतीक है गुलामी को न बर्दाश्त करने व इससे नफरत करने का प्रतीक है। यह साम्राज्यवाद के खिलाफ जुझारू संघर्ष का प्रतीक है।
       मगर आज देखिए ! आज 'आज़ादी' की बात करना गुनाह है "देशद्रोह" है। 'गुलामी' 'जी हुजूरी'   आज 'आदर्श' बताए जा रहे हैं।  'सरकार से सवाल करना', 'सरकार की नीतियों को गलत बताना' अपराध है देशद्रोह है ! साम्राज्यवादी अमेरिका के आगे पीछे दूम हिलाना 'राष्ट्रवाद' है ! कमजोर व गरीब देशों को डराना धमकाना जबकि ताकतवर व साम्राज्यवादी देशों के पैरों में लोट पोट हो जाना 'राष्ट्रवाद' है ! यही आज के 'राष्ट्रवादियों' का चरित्र है।
        मोदी सरकार ने अपने आका 'अम्बानी-अडानी' को खुश कर दिया है। आज़ादी से पहले ये "राष्ट्रवादी" अंग्रेजों के सेवा में दंगे करवाते थे आज 'अडानी-अम्बानी व अमेरिका' के सेवक हैं। इनके राज में जनता ज्यादा तबाह-बर्बाद हुई है। मेहनतकश दलितों-मुस्लिमों पर हमले बढ़े हैं। महिलाओं पर यौन हिंसा बढ़ी है। इनके राज में साम्प्रदायिक वैमनस्य बढ़ा है मज़दूर मेहनतकशों के हकों पर हमला बढ़ा है।       
      आज 'हिन्दू फासीवाद' यानी आतंकी तानाशाही का खतरा हमारे बिल्कुल करीब है।  देश को जालिम हिटलर के दौर में पंहुचाने की कोशिश हो रही है।
    ऐसे हालात में जरूरी है कि जलियावाला बाग हत्याकांड के शहीदों को याद किया जाय, उनसे सीखा जाय। इन शहीदों ने हिन्दू-मुस्लिम-सिख का भेद भुलाकर मेहनत-मज़दूरी करने वालों की एकजुटता की मिसाल कायम की।आज़ादी के आंदोलन को आगे बढ़ाया।  इसलिए आज यह जरूरी है कि शहीद भगत सिंह के बताए रास्ते पर हम आगे बढ़ें। केवल और केवल समाजवाद में गई जलियावाला बाग सरीखे हत्याकांड न घटने की गारंटी दी जा सकती है। मेहनतकश जनता को सारे अधिकार मिल सकते हैं। इसलिए आइये ! पूंजीवाद के नाश और समाजवाद की स्थापना के लिए संघर्ष तेज करें ।

Tuesday, 16 April 2019

भगत सिंह शहादत दिवस पर

                

     भगत सिंह को याद करो !
पूंजीवाद की कब्र खोदो! समाजवाद का झंडा बुलंद करो!


      23 मार्च शहीदे आजम भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू का शहादत दिवस है। भारत की आजादी के लिए शहीद हुए भगत सिंह और उनके साथियों की शहादत को हम ऐसे समय में मना रहे हैं, जब हमारे शासक 'लोकतंत्र का महापर्व मना रहे है। वे इसे दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहते नहीं थक रहे हैं। उनका सारा तंत्र और पूंजीदादी मीडिया 24 घंटे और दिन-रात महान लोकतंत्र के बखान में लगा हुआ है। लेकिन ये सारे लोग ये नहीं बता रहे हैं कि यह 'महापर्व' दुनिया का सबसे खर्चिला पर्व है। अखबारों में बताया जा रहा है कि इस बार का चुनाव दुनिया में सबसे खर्चीला चुनाव होगा। वे यह भी नहीं बता रहे हैं कि इस लोकतंत्र में जन तो कहीं हैं ही नहीं। जब से चुनाव हो रहे हैं तब से इस जन की चुनाव के समय ही झूठे नारों के साथ जय होती है और शेष दिन वह पुलिस, प्रशासन, न्यायालय, पूंजीपतियों के शोषण-उत्पीड़न से कराह रहा होता है। मजदूर, गरीब किसान, महिलाएं, छात्र-युवा, आदिवासी, छोटे कारोबारी अपने जीवन की हकीकत से इस शोषण-उत्पीड़न के बखूबी जानते हैं। ये वही जन हैं जिनकी जिंदगी में चुनाव होने या न होने से कोई बदलाव नहीं होता।
     भारत के महान लोकतंत्र' ने भारत के मजदूरों, किसान, शोषितों-उत्पीड़ितों को वर्षों से ठगने-छलने के अलावा कुछ नहीं किया है। एक तरफ
     भारत के पूंजीपतियों की दौलत रात-दिन बढ़ रही है और दूसरी तरफ मजदूर-किसान गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी, गैरबराबरी के दलदल में गले तक फंसे हुये हैं।
    भारत के छात्र-नौजवान महंगी शिक्षा, असुरक्षित भविष्य और बेरोजगारी के कारण हैरान-परेशान हैं।
     भारत की आम मेहनतकश औरतें आये-दिन अपमान, उत्पीड़न और यौन हमलों की शिकार हो रही हैं।
    दलित, आदिवासी, गरीब मुसलमान इनके दिये जख्मों को सहला रहे हैं।
     भगत सिंह ने अपनी फांसी के फंदे पर झूलने से पहले ही देख लिया था कि यदि भारत में गोरे अंग्रेजों के जाने के बाद काले अंग्रेजों का राज आयेगा तो ऐसा ही होगा। भारत के मजदूर, किसान, नौजवान नई तरह की गुलामी में फंस जायेंगे। और यह नई गुलामी पूंजीपतियों की गुलाम है। अम्बानी, अडाणी, टाटा-बिडला की गुलामी है। भगत सिंह ने यह भी देख लिया था कि भारत तभी गोरे-काले अंग्रेजों की गुलामी से निजात पायेगा जब मजदूरों-किसानों का राज आयेगा। समाजवाद आयेगा।
  जब शासक अंग्रेज साम्राज्यवादियों ने पाया कि ये क्रांतिकारी और इनके विचार उनके राज के लिए खतरा हैं, तो 1931 को इसी दिन अंग्रेज साम्राज्यवादियों ने इनको फांसी पर चढ़ा दिया। साम्राज्यवादियों के इस डर का एक मजबूत आधार था। भगत सिंह के विचार ही वह ताकत थे जिससे आज भी शोषक, शासक और साम्राज्यवादी बहुत डरते हैं। भगत सिंह ने कहा था -"इवा में रहेगी मेरे पास की बिजली, ये मुश्ते-खाक है फ़ानी रहे रहे न रहे"।
      भगत सिंह और उनके साथी साम्राज्यवाद के खिलाफ समझौताविहीन संघर्ष के प्रतीक हैं। दुनिया को गुलाम बनाने वाले साम्राज्यवादियों के खिलाफ दुनिया के मजदूर मेहनतकशों ने अपनी एकता को मजबूत करते हुए संघर्ष का ऐलान किया था। रूस में हुई समाजवादी क्रांति ने इसमें अहम भूमिका निभाई और गुलाम देशों को मुक्ति का मार्ग दिखाया। पूरी ही दुनिया में समाजवाद में शोषणमुक्त व वास्तविक बराबरी पर आधारित समाज का विकल्प
जाहिर है कि साम्राज्यवाद व सामंतवाद के खिलाफ संघर्षरत जनता इससे प्रभावित होती और अपने देश को ऐसा ही बनाने का सपना देखते।
      ऐसा सपना देखने वालों के  प्रतिनिधि भगत    सिंह थे। वे मजदूर-मेहनतकशों की सत्ता समाजवादी सोवियत संघ से प्रभावित होकर भारत में भी
     मजदूरों-मेहनतकों की ऐसी सत्ता के प्रबल  समर्थक थे। भगत सिंह वह शख्सियत थे जो हर गुलाम देश में साम्राज्यवाद के विरूद्ध संघर्ष करने वाले मेहनतकशों को उर्जा और प्रेरणा देते थे।
       आज के समय पर नजर दौड़ायें तो हम क्या पाते है। राष्ट्रवाद का इकलौता ठेका लेने वाली भारतीय जनता पार्टी और आरएसएस पाकिस्तान के खिलाफ तो जहर उगलता है परंतु अमेरिकी साम्राज्यवाद के सामने दुम हिलाने लग जाते है। फुलवामा के आतंकी घटना के बाद जो हुआ उसमें साम्राज्यवाद की भूमिका गौर करने लायक है। फुलवामा में आतंकी हमला होने के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति ने ट्वीट किया कि भारत कुछ बड़ा करने के मूड में है।' और भारत ने पाकिस्तान में जाकर हवाई हमला कर दिया। इस दौरान एक भारतीय पायलट के पाकिस्तान द्वारा पकड़ लिये जाने के बाद फिर ट्रंप ने ट्वीट किया कि 'अब कुछ अच्छी खबर आने वाली है तो भारतीय पायलट को छोड़ दिया गया। ये ट्वीट जाहिर कर देते हैं कि भारत और पाकिस्तान दोनों देशों को साम्राज्यवाद ने किस हद तक अपने प्रभाव में ले रखा है। दोनों ही देश इन्हीं साम्राज्यवादी देशों से खरीदे हथियारों से आपस में लड़ते हैं और कभी सीमा पार गोलीबारी में निर्दोष शांतिप्रिय नागरिक का तो कभी मजदूरों, किसानों के बेटी के सैनिक के रूप में हत्या करते हैं।
   पूरी दुनिया आज भी साम्राज्यवाद नामक दानव से मुक्त नहीं है। कभी अफगानिस्तान, कभी इराक तो कभी अन्य देश साम्राज्यवादी तूट शोषण व दमन का शिकार होता है। साम्राज्यवाद जब-तब गरीब मुल्कों को अपने मनमाफिक चलाने, आर्थिक मंच के जरिये उन पर प्रतिबंध थोपते रहते हैं। साम्राज्यवाद आज भी खुले-छिपे युद्धों व प्रतिबंधों के जरिये इन गरीब देशों की मेहनतकश जनता को मौत के घाट उतार रहा है। और साम्राज्यवाद के कुकर्मों में देशी शासक पूंजीपति वर्ग उनका साथ देते हैं। भारत में अमेरिकी साम्राज्याचाद की जी हजूरी करने में मोदी सरकार ने तो मनमोहन की सरकार को भी पीछे छोड़ दिया है।
      आज जब मजदूरो-किसानों-छात्र-दलितों के संघर्ष हो रहे हैं तो वह इस बात के संकेत हैं कि वे इस पूँजीवादी लूट-शोषण से ना सिर्फ नाखुश हैं। बल्कि इसके खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। देश में उत्पीड़ित दलितों, मजदूरों, पूँजीवादी लूट और शासकों की बेरूखी से त्रस्त किसानों, कालेज-विश्वविद्यालय के छात्रों के संघर्ष एक अच्छा संकेत है। इन सभी का यह सैलाब एक दिन भगत सिंह की विरासत के आगे बढ़ायेगा और अपनी मुक्ति की ओर बढ़ेगा। जब देश की मेहनतकश जनता एकजुट हो इस पूँजीवादी लूट और दमन का अंत कर देगी। वह अपना वास्तविक लोकतंत्र-समाजवादी लोकतंत्र स्थापित करेगा।
       पांच साल पहले चुनाव के समय मोदी ने कई-कई वायदे किये थे । 'अच्छे दिन' का नारा तो मजाक बनकर रह गया है। जैसे-जैसे मोदी की पोल खुलने लगी और अलोकप्रियता बढ़ने लगी तो नये-नये दांव खेले गये।
        2019 का चुनाव जीतने के लिए देश में युद्ध  का माहौल खड़ा कर दिया। युद्धोन्माद, अंधराष्ट्रवाद की हवा फैलाकर चुनाव जीतने की हर चंद कोशिश की जा रही हैं। राष्ट्रवाद को चुनावी हथकंडा बनाया जा रहा है। भारत के मजदूर, किसान, शोषित-उत्पीड़ित कुछ समय में समझ गये कि यह सब चुनावी हथकंडा है। वे फिर से अपनी रोजी-रोटी, बेरोजगारी, बदहाली की बातों को उठा रहे हैं। वे जल्द ही समझ जायेंगे कि पूंजीवाद में उनकी समस्याओं का कभी भी समाधान नहीं हो सकता है। सिर्फ और सिर्फ समाजवाद ही मजदूरों, किसानों, नौजवानों, शोषितों-उत्पीड़ितों का रास्ता है। और यह रास्ता इंकलाब से होकर जाता है।
      भगत सिंह को आज याद करने का सीधा मतलब है पूँजीवाद-साम्राज्यवाद की कब्र खोदना और समाजवाद का रास्ता बुलंद करना।

2019 आम चुनाव: भंडाफोड़ अभियान हेतु

 2019 आम चुनाव: भंडाफोड़ अभियान हेतु

चुनाव का तमाशा तो चंद रोज का है!
असल सवाल तो हमारी मुक्ति का है।

     याद होगा कि पिछले आम चुनावों में बड़े-बड़े वायदे किये गये वथे। कई-कई तरह की योजनाएं पेश की गई थीं। और होना तो यह था कि देश में खुशहाली आ जानी थी। भ्रष्टाचार खत्म हो जाना था। बेरोजगारी मिट जानी थी। मंहगाई खत्म हो जानी थी।मजदूरों की आय बढ़ जानी थी। किसान की तो बस मौज ही होने वाली थी। औरतों को तो कहीं भी डरने की जरूरत नहीं थी।
सबको पन्द्रह लाख मिलने वाले थे। 'अच्छे दिन' आने वाले थे। फिर पांच सालों में क्या हुआ!
मजदूरों-किसानों ने लाठी-गोली खाई। कठुआ, मुजफ्फरपुर, देवरिया में सत्ताधारियों ने मासूम बच्चियों को अपनी हवस काशिकार बनाया। मोहम्मद अखलाक, पहलू खान, जुनैद जैसे बेकसूर लोगों को सरेआम भीड़ ने पीट-पीट कर मार डाला। देश केजाने-माने बुद्धिजीवियों गोविन्द पानसरे, नरेन्द्र दाभोलकर, कलबुर्गी, गौरी लंकेश की नृशंस हत्याएं कर दी गयी। कई दलितों की इसलिए हत्या कर दी गयी कि वे मरे हुए पशुओं की खाल उतार कर दो जून की रोटी जुटाने की कोशिश कर रहे थे।
अब हर तरफ आतंक, हर तरफ धमकी का बोलबाला कायम है। जिन्हें भी दुनिया में फासीवाद के इतिहास, कायम करने के| तरीके, नारों व अभियानों का ज्ञान है उन्होंने भारत में हिंदू फासीवाद' की दस्तक समाज में महसूस की है। इस ‘हिंदू फासीवाद' को भारत के सबसे बड़े पूंजीपति संरक्षण दे रहे हैं।कभी मजदूरों को, कभी किसानों को तो कभी विद्यार्थियों को, कभी बुद्धिजीवियों को तो| कभी गरीब मुस्लिमों को, कभी उत्पीड़ित दलितों को इनके द्वारा धमकियां दी जाती हैं। कभी धर्म के नाम पर आतंक फैलाया जाता है। तो कभी राष्ट्रवाद के नाम पर किसी को धमकाया जाता है।
अब जब फिर चुनाव हैं तो वही खेल फिर खेला जायेगा।नये-नये वायदे, नये-नये आश्वासन और फिर जनता को आतंकित करना और धमकाना। उसके पसीने की कमाई के एक-एक रुपये को हड़प लेना। उसके शरीर के खून की एक-एक बूंद को चूस लेना।
मजदूरों-किसानों के बेटे-बेटियों को कभी देश के भीतर इसलिए कत्ल करना कि वे अपने हक की मांग करते हैं। गुलामी बर्दाश्त नहीं करते हैं। और कभी सीमा पर उनका देश की सुरक्षा के नाम पर कत्ल करवाया जाता है। जम्मू-कश्मीर में सरकारी आतंक और उसके जबाव में पैदा होता आतंक रोज ही नौजवानों, सैनिकों की जान ले रहा है। और पड़ोसी देश पाकिस्तान से रिश्ता ऐसा कि एक तरफ व्यापार बढ़ता जाता है तो दूसरी तरफ सीमा पर लाशों के ढेर लगाये जाते हैं। कभी नवाज शरीफ की मां के पैर भी छुए जाते हैं और कभी 'सर्जिकल स्ट्राइक' भी की जाती है। धूर्तता, पाखण्ड, नाटकबाजी की इससे ज्यादा क्या मिसालें हो सकती हैं?
' राष्ट्रवाद', 'देश भक्ति का पाठ वे शासक जनता को पढ़ाते हैं जो संयुक्त राज्य अमेरिका के सामने 'मेरे आका क्या हुक्म है के अंदाज में खड़े रहते हैं। देश के सैन्य अड्डों में अमेरिकी फौजी घूमते हैं। देश के बन्दरगाह, सैन्य अड्डे उनके लिए खुले हैं। और अमेरिकी आये दिन फरमान सुनाते रहते हैं, ईरान से तेल मत लो!', वेनेजुएला से तेल मत लो!' ....इनका सब कुछ झूठा है। देश की जनता के नाम पर कसमें खाना। गरीबी दूर करने की बातें करना। भ्रष्टाचार खत्म करने की बात करना। मंहगाई पर लगाम लगाना। राष्ट्र और देश के हितों की बातें करना। *ये जो बोलते हैं उसका ठीक उल्टा अर्थ निकलता है। जो ये कहेंगे उसका ठीक उल्टा होगा।उसका ठीक उल्टा करेंगे।
चुनाव के पहले और बाद में इन्होंने मजदूरों की भलाई की बात कही और किया ठीक उल्टा। *मजदूरों ने जो हक और श्रम कानून एक लम्बे संघर्ष और अकूत कुर्बानियां देकर हासिल किये थे, उन्हें आज ये एक-एक कर छीनते जा रहे हैं। इन्होंने कहा- 'हर वर्ष दो करोड़ बेरोजगारों को रोजगार देंगे'! और हुआ यह कि आज बेरोजगारी पिछले तीस-चालीस सालों में सबसे ज्यादा है।
इन्होंने कहा-'किसानों की आय दोगुनी करेंगे! मगर हुआ यह कि किसान अपनी लागत उपज बेच कर भी नहीं निकाल पा रहा है। इन्होंने कहा- 'औरतों को सुरक्षा देंगे! मगर हुआ यह कि भाजपा-संघ के विधायक, राज्यपाल, मंत्री, नेता ही औरतों की इज्जत से खेलने लगे। त्रिपुरा में तो सरेआम एक मंत्री एक महिला मंत्री की कमर में हाथ, प्रधानमंत्री की उपस्थिति में ही डालने लगा।
छात्र-युवा की बातें चुनाव के पहले भी बहुत हुयी। पर हुआ यह कि जे.एन.यू., पुणे, रायपुर, बनारस, इलाहाबाद, अलीगढ़ सब जगह केन्द्र सरकार ने छात्रों के दमन की नयी मिसालें कायम की। छात्र ‘राष्ट्र विरोधी', 'देशद्रोही' करार दिये गये। 'आजादी' के नारे लगाना अपराध घोषित कर दिया गया।....ऐसा नहीं है कि देश के मजदूरों, किसानों आदि ने इन्हें चुनौती नहीं दी। भूमि अधिग्रहण, जीएसटी जैसे कानून, पीएफ पर डकैती जैसे कदमों का खुल कर विरोध किया गया। सरकार को पीछे हटना पड़ा। फिर भी सालों से ये तमाशा चल रहा है। कभी कांग्रेस, कभी भाजपा। कभी ये गठबन्धन और कभी वो गठबंधन। सरकार किसी की बने हमारे हालात बद से बदतर होते जाते हैं।
 ऐसे में कोई कहेगा कि हम ही तो इन नेताओं को चुनते हैं। विधायक, सांसद बनाते हैं। हम ही दोषी हैं। हम ही गलत हैं। क्या यह सच है? थोड़ा-बहुत सच है, ज्यादा गलत है।
2014 के आम चुनाव में लगभग 85 करोड़ मतदाता थे। करीब 55 करोड़ लोगों ने मतदान किया। यानी करीब 30 करोड़ लोगों ने इस बात की जरूरत नहीं समझी कि मतदान करें। नागनाथ, सांपनाथ में किसी को चुनें। 55 करोड़ मतों में से नरेन्द्र मोदी की पार्टी को 17 करोड़ से कुछ ज्यादा मत मिले। यानी अगर विरोध में पड़े मतों और नहीं पड़े मतों को जोड़ दिया जाये तो क्या अर्थ निकलेगा? कहा जा सकता है कि हम ने इन्हें नहीं चुना। इस मायने में ही नहीं बल्कि हर मामले में हमारे लोकतंत्र में अल्पमत बहुमत पर शासन करता है। यदि और गहराई से देखेंगे तो पायेंगे चुनाव के समय हो या सरकार बनाने का समय हो । असली खिलाड़ी अम्बानी, अडानी, टाटा, बिड़ला, मित्तल आदि-आदि देशी-विदेशी पूंजीपति हैं।
ये ही चुनाव लड़वाते हैं। चुनाव लड़ने के लिए ये ही पैसा देते हैं। ये ही प्रधानमंत्री, मंत्री आदि तय करते हैं। अरबों रुपया पिछले चुनाव में खर्च हुआ,कहां से आया? मोदी को चुनाव जितवाने के लिए खर्च तीस हजार करोड़ रुपया, कहां से आया? बाकियों के चुनाव में इससे कम खर्च हुआ, पर उनके पास भी कहां से आया। इन्हीं पूंजीपतियों, इन्हीं  भूस्वामियों से, इन्हीं धन्नासेठों से!
 इसलिए किसी की भी सरकार बने भला अम्बानी जैसों का ही होता है। उसकी और उन जैसों की दौलत बढ़ती जाती है।हम कंगाल, गरीब, भूखे, बेरोजगार रह जाते हैं।कांग्रेस की सरकार हो तो ये फूले–फलें  और भाजपा की हो तो भी ये ही मौज करें।
हमारे हाथ आते हैं झूठे वायदे, झूठे आश्वासन या फिर कुछ खैरात, कुछ कर्जमाफी, कुछ मदद के नाम पर चंद रुपयों की भीख। हर बार हमें ठगा जाता है। हर बार हमें छला जाता है। और यह सिलसिला चलता जा रहा है। .....बात यह है कि क्या यह आगे भी चलता रहेगा। ठगने, छलने के लिए क्या-क्या नहीं किया जाता है। चुनाव का समय आया नहीं कि वायदे , घोषणायें चालू हो जाती हैं। चुनाव का समय आया नहीं कि वोटों की गिनती शुरू। कितने हिंदू, कितने मुस्लिम। कितने सवर्ण, कितने दलित। कितने अमुक  जाति, कितने अमुक जाति के । अखबार, टीवी में झूठे विज्ञापन। फर्जी सर्वेक्षण, फर्जी नतीजे। और बड़ी-बड़ी सभाओं के लिए किराये की भीड़ का जुगाड़ । मतदान के ठीक पहले रुपये पैसे, शराब की सप्लाई। वोटों के बड़े-बड़े ठेकेदार से लेकर गली-मुहल्ले में छुटभैय्यों से गणना। कितने वोट दिलवाओगे, कितने रुपये लोगे।
 चुनाव और कुछ नहीं एक प्रपंच है। एक धोखा है। आम मजदूर-मेहनतकशों के साथ। उत्पीड़ितों-शोषितों के साथ।
देश की आजादी की लड़ाई, लोकतंत्र के लिए संघर्ष से हम आज तक यही हासिल कर पाये कि पूंजीपतियों-भूस्वामियों की कौन सी पार्टी, कौन सा नेता हम पर शासन करेगा। इन चुनाव में हम पूंजी के गुलामों का यही रोल है। बाकी हमारे पास कोई वास्तविक अधिकार नहीं हैं। न हम चुने हुए विधायकों-सांसदों को वापस बुला सकते हैं। न हम किसी योजना को बना सकते हैं। न। ही देश की कोई नीति तय कर सकते हैं।
हम सिर्फ कुछ प्रतिनिधि चुनते हैं। न हम अफसर चुनते हैं, न पुलिस अधिकारी, न जज । यानी देश में वास्तविक रूप से शासन चलाने वालों को न हम चुनते हैं और न ही हम उन पर लगाम लगा सकते हैं। न ही उनके कामों की जांच-पड़ताल कर सकते हैं।.......सही में हमारे हाथ में कोई अधिकार ही नहीं है। हम मुगालते में रहते हैं कि हम। जन-गण अपने भाग्य-विधाता को चुनते हैं। हम सिर्फ गुलाम हैं। सिर्फ और सिर्फ गुलाम। पूंजीपतियों-भूस्वामियों के गुलाम।
उनकी पूंजीवादी व्यवस्था के गुलाम और मालिकों के लिए इससे बेहतर बात क्या हो सकती है कि गुलाम अपने को गुलाम न समझें। गुलाम अपनी बेड़ियों को न देखें। अपने हकीकत से कभी वाकिफ न हों। जब हम गुलामों की ऐसी हालत हो तो क्या करें! किसे वोट दें। वोट दें तो क्या फर्क पड़ेगा। न दें तो क्या फर्क पड़ेगा।
गुलाम–गुलाम ही रहेगा। मालिक-मालिक ही रहेगा। तो जरूरत फिर किस बात की हैं?.......जरूरत सबसे पहले इस बात की है हम स्वीकारें कि हम गुलाम हैं। फिर इस बात को देखें कि हम कैसे गुलाम हैं। फिर इस पर सोचें कि हम क्यों गुलाम हैं। और उससे आगे का रास्ता गुलामी के खिलाफ गुलाम को एकजुट करने और गुलामी से मुक्ति की लड़ाई लड़ने की है।
 हम शोषित मजदूरों-किसानों, औरतों और परेशान नौजवानों, उत्पीड़ित दलित-गरीब मुसलमानों, दस्तकारों, छोटे दुकानदारों, बुद्धिजीवियों आदि सभी–सभी को एकजुट होना होगा।क्रांति करनी होगी। पैसे की, पूंजी की इस व्यवस्था को खत्म करना होगा।और मजदूरों, किसानों और अन्य मेहनतकशों का राज लाना होगा। समाजवाद लाना होगा।
हमारे देश के महान क्रांतिकारी भगत सिंह जो महज 23 साल की उम्र में फांसी चढ़ गये थे, ने 1931 में ही कह दिया था कि गोरे अंग्रेजों के स्थान पर काले अंग्रेजों के सत्ता में आ जाने से कुछ फर्क नहीं पड़ेगा। उनका कहना था कि भारत में मजदूरों किसानों की असली मुक्ति समाजवाद में ही संभव हो सकती है। समाजवाद में सभी देशी-विदेशी पूंजीपतियों की सम्पत्ति जब्त कर ली जायेगी। जो मेहनत करेगा वह खायेगा।  समाजवाद सबको योग्तानुसार काम और काम के अनुसार वेतन देगा। धर्म व्यक्ति का निजी मामला होगा।किसी का भी शोषण, उत्पीड़न नहीं होगा।
 जाति व्यवस्था का पूर्ण विनाश कर दिया जायेगा।स्त्रियां आत्मनिर्भर होकर आजाद होंगी। भारत सच्चे अर्थों में समाजवादी संघ होगा। शिक्षा, राजनीति व शासन में धर्म की भूमिका नहीं होगी। सभी को निःशुल्क शिक्षा व स्वास्थ्य की पूरी व्यवस्था समाजवादी राज्य द्वारा दी जायेगी। सबको एक समान, जीवन में उपयोगी व उल्लास पैदा करने वाली शिक्षा निःशुल्क दी जायेगी। हमारी लड़ाई कोई और नहीं लड़ेगा। हमें अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी होगी। हम एकजुट होंगे। पूंजीवाद को खत्म करेंगे।
समाजवाद लायेंगे! यकीनन हम ऐसा करेंगे! यकीनन एक दिन ऐसा ही होगा! पूंजीवाद मुर्दाबाद! समाजवाद जिंदाबाद !!





मेरठ के भुसामंडी में लगी आग: तथ्यान्वेषी रिपोर्ट

 मेरठ के भुसामंडी में लगी आग:
       तथ्यान्वेषी रिपोर्ट

  क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन के कार्यकर्ताओं की टीम मेरठ के उस क्षेत्र में 13 मार्च को गई जहां 6 मार्च को लगभग 200 घर जलकर खाक हो गए थे। यहां मजदूर मेहनतकश अल्पसंख्यक परिवारों की सालों की मेहनत से जुटाया गया हर सामान उन्हीं के सामने जलकर खाक हो गया।  
       मेरठ में दिल्ली बस अड्डे से तकरीबन 1 किमी की दूरी पर भूसामंडी जगह पड़ती है। इसी इलाके में तकरीबन 1-2 एकड़ की जगह है, जो तीन तरफ से बंद है, बाहर निकलने का रास्ता सिर्फ एक ओर से है। अंदर शुरूवात में एक छोटा कारखाना था फिर तीन-चार लाइन में अल्पसंख्यक परिवार बसे हुए थे जबकि अन्त में हिंदू समुदाय के परिवार हैं। तकरीबन 200 मेहनतकश मुस्लिम परिवार पिछले अलग-अलग वक्त से यहां रहते हैं। कोई 20 साल से कोई 10 से तो कोई 3-4 साल से। ये सभी यहीं आस-पास के हैं न कि बांग्लादेशी। जैसा कि मीडिया प्रचार कर रहा है। इनमें से अधिकांश लोग झुग्गी-झोंपड़ी बनाकर रहते थे। जबकि कुछ लोगों ने कुछ पक्का मकान बनाया था। यहीं तकरीबन 10-15 परिवार हिन्दू समुदाय के भी रहते हैं जिनके घर पक्के व सही सलामत हैं। एक घर जो कि मुस्लिम परिवार के घर से लगा हुआ था उसके दरवाजे व टंकी जलने के अलावा कोई नुकसान नहीं हुआ। तथ्यान्वेषी टीम ने दोनों ही समुदाय के लोगों से बातचीत की।
       यहां अधिकांश मुस्लिम परिवार मेहनत मजदूरी कर परिवार का गुजारा करते हैं। झुग्गी झोंपड़ी बनाकर, प्लास्टिक की पन्नियां डालकर अपनी गुजर-बसर कर रहे थे। लोगों से बातचीत करने पर पता चला कि इस 1-2 एकड़ जमीन को मनोज शर्मा नाम के शख्स ने 3-4 लोगों को बेचा था जो कि मुस्लिम थे। फिर इन 3-4 लोगों ने जमीन गरीब मजदूर मेहनतकश मुस्लिमों को बेच दी। इन सभी के पास कोई दस्तावेज नहीं था जिससे साबित होता हो कि मालिकाना इन्हीं का है। छावनी बोर्ड इस जमीन को अपनी बताता रहा है। ये साफ है कि जमीन के मालिकाना सम्बन्धी दस्तावेज किसी के पास भी नहीं हैं। कुछ का कहना था कि अंग्रेजों के जमाने से ही ये जमीन लीज पर थी।
       इसी का फायदा उठाकर छावनी बोर्ड व पुलिस अवैध जमीन तथा अतिक्रमण का डर दिखाकर आये दिन वसूली करती रहती थी। लोगों ने बताया कि जब कभी भी कोई पक्के निर्माण की कोशिश करता था, पुलिस आ धमकती थी और अवैध वसूली करती थी। ऐसा नहीं कि केवल एक बार वसूली हो बल्कि यह बार-बार होता था। पुलिस ने इस आरोप से इंकार किया है।
      जैसा कि आम तौर पर गरीब बस्तियों में होता है, यहां भी कोई मुस्लिम परिवार अवैध शराब का छोटा कारोबार करता था। लोगों ने बताया कि 6 मार्च यानी आग लगाए जाने वाले दिन से कई दिन पहले पुलिस रात के 1-2 बजे उस अवैध कारोबारी समेत कुछ घरों में गैरकानूनी तरीके से घुस गई। कुछ लोगों से मारपीट की। दहशत में एक महिला बेहोश हो गई व एक नौजवान की दहशत के चलते हार्ट अटैक से मौत हो गई। पुलिस के इस अत्याचार के विरोध में इन लोगों ने पुलिस थाने पहुंचकर एक तहरीर दर्ज की थी। हमें यह बताया गया कि पुलिस इस तहरीर के चलते बहुत चिढ़ गई थी।
        6 मार्च को शाम 4 बजे के लगभग छावनी बोर्ड के लोग व पुलिस के लोग यहां पहुंच गए। लोगों ने बताया कि एक मजदूर जो पक्का निर्माण करवा रहा था, उससे वसूली करने आये थे। चूंकि इसने कुछ हजार रुपये कुछ दिन पहले ही पुलिस वालों को दिए थे इसलिए इस मजदूर परिवार ने इसका विरोध करते हुए पैसे देने से मना कर दिया। इसी पर झड़प शुरू हुई। इस वक्त अधिकांश पुरुष काम से बाहर थे। लड़के, महिलाएं व अन्य सदस्य ही घर पर थे। इसी झड़प में मामला आगे बढ़ा। पथराव हुआ। लाठीचार्ज हुआ। मौजूद लोगों में भगदड़ मची। इसी वक्त एक जगह से आग लगी व फैल गई। यह आग फैलती चली गई। प्लास्टिक ने आग पकड़ी, घर में रखा सामान आग की चपेट में आया फिर गैस सिलेंडर ने आग पकड़ ली, विस्फोट होने लगे। इस दौरान सभी लोग अपनी-अपनी जान बचाने के लिए बच्चों को लेकर बाहर सड़क पर निकल गए। जान बचाने के लिए एक ओर की दीवार भी तोड़ी गई।
       लोगों का कहना है कि यह आग पुलिस ने लगाई। न केवल आग लगाई गई बल्कि पेट्रोल बोतलों में भर कर छत पर फेंके गए। रबड़ के टायर भी छतों पर फेंके गए। इस दौरान जब फायर बिग्रेड की गाड़ी आग बुझाने आई तो पुलिस ने उसे आगे बढ़ने नहीं दिया फिर इसे दूसरे रास्ते से ले जाकर आग बुझाई गई लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। पुलिस की इन हरकतों से लोगों ने आक्रोश में विरोध व जाम किया। कुछ तोड़-फोड़ भी हुई। अब आग लगाने के लिए भी पुलिस-प्रशासन ने अवैध शराब बेचने वाले मुस्लिम परिवार को जिम्मेदार ठहराया है साथ ही विरोध-सड़क जाम व तोड़-फोड़ करने के लिए भी मुस्लिम युवकों को निशाने पर लेकर जेल में डाला जा रहा है। इन परिवारों को मजबूर किया जा रहा है कि ये सभी को गिरफ्तार करवाएं।
      एक तरफ पुलिस का यह दबाव और दूसरी तरफ तन के कपड़ों के अलावा सब कुछ राख बन जाने, बहुत मेहनत व जतन से सालों की मेहनत स्वाहा हो जाने का सदमा। इस स्थिति में जिस सहारे की जरूरत थी वह है नहीं। शासन-प्रशासन का रुख सबक सिखाने का है। कांग्रेस, सपा जैसी पार्टियां इस वक्त नदारद हैं। बसपा के एक मुस्लिम सांसद हाजी याकूब व पूर्व मेयर हाजी शाहिद अशफाक ने आर्थिक मदद की है और खाने-रहने की वहीं पर व्यवस्था की है।
       हिन्दू समुदाय से जुड़े परिवारों के पास भी टीम गई। इनका कहना था कि वे खुद (हिन्दू समुदाय) यहां सालों से रह रहे हैं। तब यहां खेत थे। मुस्लिम समुदाय के लोग यहां बाद में आये। मुस्लिमों के प्रति नफरत की झलक इनकी आखों में साफ देखी जा सकती थी। इनका कहना था कि पुलिस व छावनी बोर्ड ने इनका (हिन्दू परिवारों) साथ दिया है व पुलिस ने आग नहीं लगाई। सरकार तो बहुत अच्छा काम कर रही है। हमें इन मुस्लिमों के बीच से गुजरने वाले एकमात्र रास्ते से जाना पड़ता है। हमें बाहर निकलने का अलग रास्ता चाहिए। ये लोग (मुस्लिम) पता नहीं कहां से आ गए। जिस दिन आग लगी उस दिन हम सभी को जान बचाने के लिए भागना पड़ा।
        कुल मिलाकर कुछ बातें साफ देखी समझी जा सकती हैं। मूल बात यही लगती है कि इस जमीन की कीमत आज करोड़ों में है जिस पर ये मुस्लिम परिवार सालों से रह रहे हैं। अब तक यह जमीन पुलिस व छावनी बोर्ड के लोगों के लिए अवैध कमाई का जरिया बनी हुयी थी। लेकिन इस बात की संभावना बनती है कि इस जमीन पर किसी की गिद्ध दृष्टि लगी हुई हो। इसमें छावनी बोर्ड के लोगों व पुलिस के लोगों को मोटी रकम मिल गयी हो। फिर आग लगाकर, खौफ पैदा कर इस जगह को छोड़ देने की परिस्थितियां निर्मित कर देने की सोच से साजिश रची गई हो। इसमें साम्प्रदायिकता से ग्रसित होने के चलते साथ ही गरीब मेहनतकशों के प्रति हिकारत का भाव होने के चलते पुलिस व छावनी बोर्ड द्वारा इस काम को बेझिझक, घोर संवेदनहीनता व अमानवीयता से अंजाम दिया गया हो। साथ ही यह संघ परिवार के लिए मुस्लिमों को सबक सिखा ध्रुवीकरण को आगे बढ़ाने का जरिया भी हो सकता है। यह सुनने को मिला कि यहीं बाहर शांति फार्म हाउस में एक बैठक उसी दिन हुई थी जिसमें कुछ भाजपाई भी शामिल रहे थे। जिस ढंग से हिदू समुदाय के परिवारों ने पुलिस को क्लीन चिट दी, सरकार को बहुत अच्छा काम करने वाला बताया तथा पुलिस से संरक्षण मिलने की बात कही, उससे भी यह संदेह गहराता है।

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