2019 आम चुनाव: भंडाफोड़ अभियान हेतु
चुनाव का तमाशा तो चंद रोज का है!
असल सवाल तो हमारी मुक्ति का है।
याद होगा कि पिछले आम चुनावों में बड़े-बड़े वायदे किये गये वथे। कई-कई तरह की योजनाएं पेश की गई थीं। और होना तो यह था कि देश में खुशहाली आ जानी थी। भ्रष्टाचार खत्म हो जाना था। बेरोजगारी मिट जानी थी। मंहगाई खत्म हो जानी थी।मजदूरों की आय बढ़ जानी थी। किसान की तो बस मौज ही होने वाली थी। औरतों को तो कहीं भी डरने की जरूरत नहीं थी।
सबको पन्द्रह लाख मिलने वाले थे। 'अच्छे दिन' आने वाले थे। फिर पांच सालों में क्या हुआ!
मजदूरों-किसानों ने लाठी-गोली खाई। कठुआ, मुजफ्फरपुर, देवरिया में सत्ताधारियों ने मासूम बच्चियों को अपनी हवस काशिकार बनाया। मोहम्मद अखलाक, पहलू खान, जुनैद जैसे बेकसूर लोगों को सरेआम भीड़ ने पीट-पीट कर मार डाला। देश केजाने-माने बुद्धिजीवियों गोविन्द पानसरे, नरेन्द्र दाभोलकर, कलबुर्गी, गौरी लंकेश की नृशंस हत्याएं कर दी गयी। कई दलितों की इसलिए हत्या कर दी गयी कि वे मरे हुए पशुओं की खाल उतार कर दो जून की रोटी जुटाने की कोशिश कर रहे थे।
अब हर तरफ आतंक, हर तरफ धमकी का बोलबाला कायम है। जिन्हें भी दुनिया में फासीवाद के इतिहास, कायम करने के| तरीके, नारों व अभियानों का ज्ञान है उन्होंने भारत में हिंदू फासीवाद' की दस्तक समाज में महसूस की है। इस ‘हिंदू फासीवाद' को भारत के सबसे बड़े पूंजीपति संरक्षण दे रहे हैं।कभी मजदूरों को, कभी किसानों को तो कभी विद्यार्थियों को, कभी बुद्धिजीवियों को तो| कभी गरीब मुस्लिमों को, कभी उत्पीड़ित दलितों को इनके द्वारा धमकियां दी जाती हैं। कभी धर्म के नाम पर आतंक फैलाया जाता है। तो कभी राष्ट्रवाद के नाम पर किसी को धमकाया जाता है।
अब जब फिर चुनाव हैं तो वही खेल फिर खेला जायेगा।नये-नये वायदे, नये-नये आश्वासन और फिर जनता को आतंकित करना और धमकाना। उसके पसीने की कमाई के एक-एक रुपये को हड़प लेना। उसके शरीर के खून की एक-एक बूंद को चूस लेना।
मजदूरों-किसानों के बेटे-बेटियों को कभी देश के भीतर इसलिए कत्ल करना कि वे अपने हक की मांग करते हैं। गुलामी बर्दाश्त नहीं करते हैं। और कभी सीमा पर उनका देश की सुरक्षा के नाम पर कत्ल करवाया जाता है। जम्मू-कश्मीर में सरकारी आतंक और उसके जबाव में पैदा होता आतंक रोज ही नौजवानों, सैनिकों की जान ले रहा है। और पड़ोसी देश पाकिस्तान से रिश्ता ऐसा कि एक तरफ व्यापार बढ़ता जाता है तो दूसरी तरफ सीमा पर लाशों के ढेर लगाये जाते हैं। कभी नवाज शरीफ की मां के पैर भी छुए जाते हैं और कभी 'सर्जिकल स्ट्राइक' भी की जाती है। धूर्तता, पाखण्ड, नाटकबाजी की इससे ज्यादा क्या मिसालें हो सकती हैं?
' राष्ट्रवाद', 'देश भक्ति का पाठ वे शासक जनता को पढ़ाते हैं जो संयुक्त राज्य अमेरिका के सामने 'मेरे आका क्या हुक्म है के अंदाज में खड़े रहते हैं। देश के सैन्य अड्डों में अमेरिकी फौजी घूमते हैं। देश के बन्दरगाह, सैन्य अड्डे उनके लिए खुले हैं। और अमेरिकी आये दिन फरमान सुनाते रहते हैं, ईरान से तेल मत लो!', वेनेजुएला से तेल मत लो!' ....इनका सब कुछ झूठा है। देश की जनता के नाम पर कसमें खाना। गरीबी दूर करने की बातें करना। भ्रष्टाचार खत्म करने की बात करना। मंहगाई पर लगाम लगाना। राष्ट्र और देश के हितों की बातें करना। *ये जो बोलते हैं उसका ठीक उल्टा अर्थ निकलता है। जो ये कहेंगे उसका ठीक उल्टा होगा।उसका ठीक उल्टा करेंगे।
चुनाव के पहले और बाद में इन्होंने मजदूरों की भलाई की बात कही और किया ठीक उल्टा। *मजदूरों ने जो हक और श्रम कानून एक लम्बे संघर्ष और अकूत कुर्बानियां देकर हासिल किये थे, उन्हें आज ये एक-एक कर छीनते जा रहे हैं। इन्होंने कहा- 'हर वर्ष दो करोड़ बेरोजगारों को रोजगार देंगे'! और हुआ यह कि आज बेरोजगारी पिछले तीस-चालीस सालों में सबसे ज्यादा है।
इन्होंने कहा-'किसानों की आय दोगुनी करेंगे! मगर हुआ यह कि किसान अपनी लागत उपज बेच कर भी नहीं निकाल पा रहा है। इन्होंने कहा- 'औरतों को सुरक्षा देंगे! मगर हुआ यह कि भाजपा-संघ के विधायक, राज्यपाल, मंत्री, नेता ही औरतों की इज्जत से खेलने लगे। त्रिपुरा में तो सरेआम एक मंत्री एक महिला मंत्री की कमर में हाथ, प्रधानमंत्री की उपस्थिति में ही डालने लगा।
छात्र-युवा की बातें चुनाव के पहले भी बहुत हुयी। पर हुआ यह कि जे.एन.यू., पुणे, रायपुर, बनारस, इलाहाबाद, अलीगढ़ सब जगह केन्द्र सरकार ने छात्रों के दमन की नयी मिसालें कायम की। छात्र ‘राष्ट्र विरोधी', 'देशद्रोही' करार दिये गये। 'आजादी' के नारे लगाना अपराध घोषित कर दिया गया।....ऐसा नहीं है कि देश के मजदूरों, किसानों आदि ने इन्हें चुनौती नहीं दी। भूमि अधिग्रहण, जीएसटी जैसे कानून, पीएफ पर डकैती जैसे कदमों का खुल कर विरोध किया गया। सरकार को पीछे हटना पड़ा। फिर भी सालों से ये तमाशा चल रहा है। कभी कांग्रेस, कभी भाजपा। कभी ये गठबन्धन और कभी वो गठबंधन। सरकार किसी की बने हमारे हालात बद से बदतर होते जाते हैं।
ऐसे में कोई कहेगा कि हम ही तो इन नेताओं को चुनते हैं। विधायक, सांसद बनाते हैं। हम ही दोषी हैं। हम ही गलत हैं। क्या यह सच है? थोड़ा-बहुत सच है, ज्यादा गलत है।
2014 के आम चुनाव में लगभग 85 करोड़ मतदाता थे। करीब 55 करोड़ लोगों ने मतदान किया। यानी करीब 30 करोड़ लोगों ने इस बात की जरूरत नहीं समझी कि मतदान करें। नागनाथ, सांपनाथ में किसी को चुनें। 55 करोड़ मतों में से नरेन्द्र मोदी की पार्टी को 17 करोड़ से कुछ ज्यादा मत मिले। यानी अगर विरोध में पड़े मतों और नहीं पड़े मतों को जोड़ दिया जाये तो क्या अर्थ निकलेगा? कहा जा सकता है कि हम ने इन्हें नहीं चुना। इस मायने में ही नहीं बल्कि हर मामले में हमारे लोकतंत्र में अल्पमत बहुमत पर शासन करता है। यदि और गहराई से देखेंगे तो पायेंगे चुनाव के समय हो या सरकार बनाने का समय हो । असली खिलाड़ी अम्बानी, अडानी, टाटा, बिड़ला, मित्तल आदि-आदि देशी-विदेशी पूंजीपति हैं।
ये ही चुनाव लड़वाते हैं। चुनाव लड़ने के लिए ये ही पैसा देते हैं। ये ही प्रधानमंत्री, मंत्री आदि तय करते हैं। अरबों रुपया पिछले चुनाव में खर्च हुआ,कहां से आया? मोदी को चुनाव जितवाने के लिए खर्च तीस हजार करोड़ रुपया, कहां से आया? बाकियों के चुनाव में इससे कम खर्च हुआ, पर उनके पास भी कहां से आया। इन्हीं पूंजीपतियों, इन्हीं भूस्वामियों से, इन्हीं धन्नासेठों से!
इसलिए किसी की भी सरकार बने भला अम्बानी जैसों का ही होता है। उसकी और उन जैसों की दौलत बढ़ती जाती है।हम कंगाल, गरीब, भूखे, बेरोजगार रह जाते हैं।कांग्रेस की सरकार हो तो ये फूले–फलें और भाजपा की हो तो भी ये ही मौज करें।
हमारे हाथ आते हैं झूठे वायदे, झूठे आश्वासन या फिर कुछ खैरात, कुछ कर्जमाफी, कुछ मदद के नाम पर चंद रुपयों की भीख। हर बार हमें ठगा जाता है। हर बार हमें छला जाता है। और यह सिलसिला चलता जा रहा है। .....बात यह है कि क्या यह आगे भी चलता रहेगा। ठगने, छलने के लिए क्या-क्या नहीं किया जाता है। चुनाव का समय आया नहीं कि वायदे , घोषणायें चालू हो जाती हैं। चुनाव का समय आया नहीं कि वोटों की गिनती शुरू। कितने हिंदू, कितने मुस्लिम। कितने सवर्ण, कितने दलित। कितने अमुक जाति, कितने अमुक जाति के । अखबार, टीवी में झूठे विज्ञापन। फर्जी सर्वेक्षण, फर्जी नतीजे। और बड़ी-बड़ी सभाओं के लिए किराये की भीड़ का जुगाड़ । मतदान के ठीक पहले रुपये पैसे, शराब की सप्लाई। वोटों के बड़े-बड़े ठेकेदार से लेकर गली-मुहल्ले में छुटभैय्यों से गणना। कितने वोट दिलवाओगे, कितने रुपये लोगे।
चुनाव और कुछ नहीं एक प्रपंच है। एक धोखा है। आम मजदूर-मेहनतकशों के साथ। उत्पीड़ितों-शोषितों के साथ।
देश की आजादी की लड़ाई, लोकतंत्र के लिए संघर्ष से हम आज तक यही हासिल कर पाये कि पूंजीपतियों-भूस्वामियों की कौन सी पार्टी, कौन सा नेता हम पर शासन करेगा। इन चुनाव में हम पूंजी के गुलामों का यही रोल है। बाकी हमारे पास कोई वास्तविक अधिकार नहीं हैं। न हम चुने हुए विधायकों-सांसदों को वापस बुला सकते हैं। न हम किसी योजना को बना सकते हैं। न। ही देश की कोई नीति तय कर सकते हैं।
हम सिर्फ कुछ प्रतिनिधि चुनते हैं। न हम अफसर चुनते हैं, न पुलिस अधिकारी, न जज । यानी देश में वास्तविक रूप से शासन चलाने वालों को न हम चुनते हैं और न ही हम उन पर लगाम लगा सकते हैं। न ही उनके कामों की जांच-पड़ताल कर सकते हैं।.......सही में हमारे हाथ में कोई अधिकार ही नहीं है। हम मुगालते में रहते हैं कि हम। जन-गण अपने भाग्य-विधाता को चुनते हैं। हम सिर्फ गुलाम हैं। सिर्फ और सिर्फ गुलाम। पूंजीपतियों-भूस्वामियों के गुलाम।
उनकी पूंजीवादी व्यवस्था के गुलाम और मालिकों के लिए इससे बेहतर बात क्या हो सकती है कि गुलाम अपने को गुलाम न समझें। गुलाम अपनी बेड़ियों को न देखें। अपने हकीकत से कभी वाकिफ न हों। जब हम गुलामों की ऐसी हालत हो तो क्या करें! किसे वोट दें। वोट दें तो क्या फर्क पड़ेगा। न दें तो क्या फर्क पड़ेगा।
गुलाम–गुलाम ही रहेगा। मालिक-मालिक ही रहेगा। तो जरूरत फिर किस बात की हैं?.......जरूरत सबसे पहले इस बात की है हम स्वीकारें कि हम गुलाम हैं। फिर इस बात को देखें कि हम कैसे गुलाम हैं। फिर इस पर सोचें कि हम क्यों गुलाम हैं। और उससे आगे का रास्ता गुलामी के खिलाफ गुलाम को एकजुट करने और गुलामी से मुक्ति की लड़ाई लड़ने की है।
हम शोषित मजदूरों-किसानों, औरतों और परेशान नौजवानों, उत्पीड़ित दलित-गरीब मुसलमानों, दस्तकारों, छोटे दुकानदारों, बुद्धिजीवियों आदि सभी–सभी को एकजुट होना होगा।क्रांति करनी होगी। पैसे की, पूंजी की इस व्यवस्था को खत्म करना होगा।और मजदूरों, किसानों और अन्य मेहनतकशों का राज लाना होगा। समाजवाद लाना होगा।
हमारे देश के महान क्रांतिकारी भगत सिंह जो महज 23 साल की उम्र में फांसी चढ़ गये थे, ने 1931 में ही कह दिया था कि गोरे अंग्रेजों के स्थान पर काले अंग्रेजों के सत्ता में आ जाने से कुछ फर्क नहीं पड़ेगा। उनका कहना था कि भारत में मजदूरों किसानों की असली मुक्ति समाजवाद में ही संभव हो सकती है। समाजवाद में सभी देशी-विदेशी पूंजीपतियों की सम्पत्ति जब्त कर ली जायेगी। जो मेहनत करेगा वह खायेगा। समाजवाद सबको योग्तानुसार काम और काम के अनुसार वेतन देगा। धर्म व्यक्ति का निजी मामला होगा।किसी का भी शोषण, उत्पीड़न नहीं होगा।
जाति व्यवस्था का पूर्ण विनाश कर दिया जायेगा।स्त्रियां आत्मनिर्भर होकर आजाद होंगी। भारत सच्चे अर्थों में समाजवादी संघ होगा। शिक्षा, राजनीति व शासन में धर्म की भूमिका नहीं होगी। सभी को निःशुल्क शिक्षा व स्वास्थ्य की पूरी व्यवस्था समाजवादी राज्य द्वारा दी जायेगी। सबको एक समान, जीवन में उपयोगी व उल्लास पैदा करने वाली शिक्षा निःशुल्क दी जायेगी। हमारी लड़ाई कोई और नहीं लड़ेगा। हमें अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी होगी। हम एकजुट होंगे। पूंजीवाद को खत्म करेंगे।
समाजवाद लायेंगे! यकीनन हम ऐसा करेंगे! यकीनन एक दिन ऐसा ही होगा! पूंजीवाद मुर्दाबाद! समाजवाद जिंदाबाद !!
चुनाव का तमाशा तो चंद रोज का है!
असल सवाल तो हमारी मुक्ति का है।
याद होगा कि पिछले आम चुनावों में बड़े-बड़े वायदे किये गये वथे। कई-कई तरह की योजनाएं पेश की गई थीं। और होना तो यह था कि देश में खुशहाली आ जानी थी। भ्रष्टाचार खत्म हो जाना था। बेरोजगारी मिट जानी थी। मंहगाई खत्म हो जानी थी।मजदूरों की आय बढ़ जानी थी। किसान की तो बस मौज ही होने वाली थी। औरतों को तो कहीं भी डरने की जरूरत नहीं थी।
सबको पन्द्रह लाख मिलने वाले थे। 'अच्छे दिन' आने वाले थे। फिर पांच सालों में क्या हुआ!
मजदूरों-किसानों ने लाठी-गोली खाई। कठुआ, मुजफ्फरपुर, देवरिया में सत्ताधारियों ने मासूम बच्चियों को अपनी हवस काशिकार बनाया। मोहम्मद अखलाक, पहलू खान, जुनैद जैसे बेकसूर लोगों को सरेआम भीड़ ने पीट-पीट कर मार डाला। देश केजाने-माने बुद्धिजीवियों गोविन्द पानसरे, नरेन्द्र दाभोलकर, कलबुर्गी, गौरी लंकेश की नृशंस हत्याएं कर दी गयी। कई दलितों की इसलिए हत्या कर दी गयी कि वे मरे हुए पशुओं की खाल उतार कर दो जून की रोटी जुटाने की कोशिश कर रहे थे।
अब हर तरफ आतंक, हर तरफ धमकी का बोलबाला कायम है। जिन्हें भी दुनिया में फासीवाद के इतिहास, कायम करने के| तरीके, नारों व अभियानों का ज्ञान है उन्होंने भारत में हिंदू फासीवाद' की दस्तक समाज में महसूस की है। इस ‘हिंदू फासीवाद' को भारत के सबसे बड़े पूंजीपति संरक्षण दे रहे हैं।कभी मजदूरों को, कभी किसानों को तो कभी विद्यार्थियों को, कभी बुद्धिजीवियों को तो| कभी गरीब मुस्लिमों को, कभी उत्पीड़ित दलितों को इनके द्वारा धमकियां दी जाती हैं। कभी धर्म के नाम पर आतंक फैलाया जाता है। तो कभी राष्ट्रवाद के नाम पर किसी को धमकाया जाता है।
अब जब फिर चुनाव हैं तो वही खेल फिर खेला जायेगा।नये-नये वायदे, नये-नये आश्वासन और फिर जनता को आतंकित करना और धमकाना। उसके पसीने की कमाई के एक-एक रुपये को हड़प लेना। उसके शरीर के खून की एक-एक बूंद को चूस लेना।
मजदूरों-किसानों के बेटे-बेटियों को कभी देश के भीतर इसलिए कत्ल करना कि वे अपने हक की मांग करते हैं। गुलामी बर्दाश्त नहीं करते हैं। और कभी सीमा पर उनका देश की सुरक्षा के नाम पर कत्ल करवाया जाता है। जम्मू-कश्मीर में सरकारी आतंक और उसके जबाव में पैदा होता आतंक रोज ही नौजवानों, सैनिकों की जान ले रहा है। और पड़ोसी देश पाकिस्तान से रिश्ता ऐसा कि एक तरफ व्यापार बढ़ता जाता है तो दूसरी तरफ सीमा पर लाशों के ढेर लगाये जाते हैं। कभी नवाज शरीफ की मां के पैर भी छुए जाते हैं और कभी 'सर्जिकल स्ट्राइक' भी की जाती है। धूर्तता, पाखण्ड, नाटकबाजी की इससे ज्यादा क्या मिसालें हो सकती हैं?
' राष्ट्रवाद', 'देश भक्ति का पाठ वे शासक जनता को पढ़ाते हैं जो संयुक्त राज्य अमेरिका के सामने 'मेरे आका क्या हुक्म है के अंदाज में खड़े रहते हैं। देश के सैन्य अड्डों में अमेरिकी फौजी घूमते हैं। देश के बन्दरगाह, सैन्य अड्डे उनके लिए खुले हैं। और अमेरिकी आये दिन फरमान सुनाते रहते हैं, ईरान से तेल मत लो!', वेनेजुएला से तेल मत लो!' ....इनका सब कुछ झूठा है। देश की जनता के नाम पर कसमें खाना। गरीबी दूर करने की बातें करना। भ्रष्टाचार खत्म करने की बात करना। मंहगाई पर लगाम लगाना। राष्ट्र और देश के हितों की बातें करना। *ये जो बोलते हैं उसका ठीक उल्टा अर्थ निकलता है। जो ये कहेंगे उसका ठीक उल्टा होगा।उसका ठीक उल्टा करेंगे।
चुनाव के पहले और बाद में इन्होंने मजदूरों की भलाई की बात कही और किया ठीक उल्टा। *मजदूरों ने जो हक और श्रम कानून एक लम्बे संघर्ष और अकूत कुर्बानियां देकर हासिल किये थे, उन्हें आज ये एक-एक कर छीनते जा रहे हैं। इन्होंने कहा- 'हर वर्ष दो करोड़ बेरोजगारों को रोजगार देंगे'! और हुआ यह कि आज बेरोजगारी पिछले तीस-चालीस सालों में सबसे ज्यादा है।
इन्होंने कहा-'किसानों की आय दोगुनी करेंगे! मगर हुआ यह कि किसान अपनी लागत उपज बेच कर भी नहीं निकाल पा रहा है। इन्होंने कहा- 'औरतों को सुरक्षा देंगे! मगर हुआ यह कि भाजपा-संघ के विधायक, राज्यपाल, मंत्री, नेता ही औरतों की इज्जत से खेलने लगे। त्रिपुरा में तो सरेआम एक मंत्री एक महिला मंत्री की कमर में हाथ, प्रधानमंत्री की उपस्थिति में ही डालने लगा।
छात्र-युवा की बातें चुनाव के पहले भी बहुत हुयी। पर हुआ यह कि जे.एन.यू., पुणे, रायपुर, बनारस, इलाहाबाद, अलीगढ़ सब जगह केन्द्र सरकार ने छात्रों के दमन की नयी मिसालें कायम की। छात्र ‘राष्ट्र विरोधी', 'देशद्रोही' करार दिये गये। 'आजादी' के नारे लगाना अपराध घोषित कर दिया गया।....ऐसा नहीं है कि देश के मजदूरों, किसानों आदि ने इन्हें चुनौती नहीं दी। भूमि अधिग्रहण, जीएसटी जैसे कानून, पीएफ पर डकैती जैसे कदमों का खुल कर विरोध किया गया। सरकार को पीछे हटना पड़ा। फिर भी सालों से ये तमाशा चल रहा है। कभी कांग्रेस, कभी भाजपा। कभी ये गठबन्धन और कभी वो गठबंधन। सरकार किसी की बने हमारे हालात बद से बदतर होते जाते हैं।
ऐसे में कोई कहेगा कि हम ही तो इन नेताओं को चुनते हैं। विधायक, सांसद बनाते हैं। हम ही दोषी हैं। हम ही गलत हैं। क्या यह सच है? थोड़ा-बहुत सच है, ज्यादा गलत है।
2014 के आम चुनाव में लगभग 85 करोड़ मतदाता थे। करीब 55 करोड़ लोगों ने मतदान किया। यानी करीब 30 करोड़ लोगों ने इस बात की जरूरत नहीं समझी कि मतदान करें। नागनाथ, सांपनाथ में किसी को चुनें। 55 करोड़ मतों में से नरेन्द्र मोदी की पार्टी को 17 करोड़ से कुछ ज्यादा मत मिले। यानी अगर विरोध में पड़े मतों और नहीं पड़े मतों को जोड़ दिया जाये तो क्या अर्थ निकलेगा? कहा जा सकता है कि हम ने इन्हें नहीं चुना। इस मायने में ही नहीं बल्कि हर मामले में हमारे लोकतंत्र में अल्पमत बहुमत पर शासन करता है। यदि और गहराई से देखेंगे तो पायेंगे चुनाव के समय हो या सरकार बनाने का समय हो । असली खिलाड़ी अम्बानी, अडानी, टाटा, बिड़ला, मित्तल आदि-आदि देशी-विदेशी पूंजीपति हैं।
ये ही चुनाव लड़वाते हैं। चुनाव लड़ने के लिए ये ही पैसा देते हैं। ये ही प्रधानमंत्री, मंत्री आदि तय करते हैं। अरबों रुपया पिछले चुनाव में खर्च हुआ,कहां से आया? मोदी को चुनाव जितवाने के लिए खर्च तीस हजार करोड़ रुपया, कहां से आया? बाकियों के चुनाव में इससे कम खर्च हुआ, पर उनके पास भी कहां से आया। इन्हीं पूंजीपतियों, इन्हीं भूस्वामियों से, इन्हीं धन्नासेठों से!
इसलिए किसी की भी सरकार बने भला अम्बानी जैसों का ही होता है। उसकी और उन जैसों की दौलत बढ़ती जाती है।हम कंगाल, गरीब, भूखे, बेरोजगार रह जाते हैं।कांग्रेस की सरकार हो तो ये फूले–फलें और भाजपा की हो तो भी ये ही मौज करें।
हमारे हाथ आते हैं झूठे वायदे, झूठे आश्वासन या फिर कुछ खैरात, कुछ कर्जमाफी, कुछ मदद के नाम पर चंद रुपयों की भीख। हर बार हमें ठगा जाता है। हर बार हमें छला जाता है। और यह सिलसिला चलता जा रहा है। .....बात यह है कि क्या यह आगे भी चलता रहेगा। ठगने, छलने के लिए क्या-क्या नहीं किया जाता है। चुनाव का समय आया नहीं कि वायदे , घोषणायें चालू हो जाती हैं। चुनाव का समय आया नहीं कि वोटों की गिनती शुरू। कितने हिंदू, कितने मुस्लिम। कितने सवर्ण, कितने दलित। कितने अमुक जाति, कितने अमुक जाति के । अखबार, टीवी में झूठे विज्ञापन। फर्जी सर्वेक्षण, फर्जी नतीजे। और बड़ी-बड़ी सभाओं के लिए किराये की भीड़ का जुगाड़ । मतदान के ठीक पहले रुपये पैसे, शराब की सप्लाई। वोटों के बड़े-बड़े ठेकेदार से लेकर गली-मुहल्ले में छुटभैय्यों से गणना। कितने वोट दिलवाओगे, कितने रुपये लोगे।
चुनाव और कुछ नहीं एक प्रपंच है। एक धोखा है। आम मजदूर-मेहनतकशों के साथ। उत्पीड़ितों-शोषितों के साथ।
देश की आजादी की लड़ाई, लोकतंत्र के लिए संघर्ष से हम आज तक यही हासिल कर पाये कि पूंजीपतियों-भूस्वामियों की कौन सी पार्टी, कौन सा नेता हम पर शासन करेगा। इन चुनाव में हम पूंजी के गुलामों का यही रोल है। बाकी हमारे पास कोई वास्तविक अधिकार नहीं हैं। न हम चुने हुए विधायकों-सांसदों को वापस बुला सकते हैं। न हम किसी योजना को बना सकते हैं। न। ही देश की कोई नीति तय कर सकते हैं।
हम सिर्फ कुछ प्रतिनिधि चुनते हैं। न हम अफसर चुनते हैं, न पुलिस अधिकारी, न जज । यानी देश में वास्तविक रूप से शासन चलाने वालों को न हम चुनते हैं और न ही हम उन पर लगाम लगा सकते हैं। न ही उनके कामों की जांच-पड़ताल कर सकते हैं।.......सही में हमारे हाथ में कोई अधिकार ही नहीं है। हम मुगालते में रहते हैं कि हम। जन-गण अपने भाग्य-विधाता को चुनते हैं। हम सिर्फ गुलाम हैं। सिर्फ और सिर्फ गुलाम। पूंजीपतियों-भूस्वामियों के गुलाम।
उनकी पूंजीवादी व्यवस्था के गुलाम और मालिकों के लिए इससे बेहतर बात क्या हो सकती है कि गुलाम अपने को गुलाम न समझें। गुलाम अपनी बेड़ियों को न देखें। अपने हकीकत से कभी वाकिफ न हों। जब हम गुलामों की ऐसी हालत हो तो क्या करें! किसे वोट दें। वोट दें तो क्या फर्क पड़ेगा। न दें तो क्या फर्क पड़ेगा।
गुलाम–गुलाम ही रहेगा। मालिक-मालिक ही रहेगा। तो जरूरत फिर किस बात की हैं?.......जरूरत सबसे पहले इस बात की है हम स्वीकारें कि हम गुलाम हैं। फिर इस बात को देखें कि हम कैसे गुलाम हैं। फिर इस पर सोचें कि हम क्यों गुलाम हैं। और उससे आगे का रास्ता गुलामी के खिलाफ गुलाम को एकजुट करने और गुलामी से मुक्ति की लड़ाई लड़ने की है।
हम शोषित मजदूरों-किसानों, औरतों और परेशान नौजवानों, उत्पीड़ित दलित-गरीब मुसलमानों, दस्तकारों, छोटे दुकानदारों, बुद्धिजीवियों आदि सभी–सभी को एकजुट होना होगा।क्रांति करनी होगी। पैसे की, पूंजी की इस व्यवस्था को खत्म करना होगा।और मजदूरों, किसानों और अन्य मेहनतकशों का राज लाना होगा। समाजवाद लाना होगा।
हमारे देश के महान क्रांतिकारी भगत सिंह जो महज 23 साल की उम्र में फांसी चढ़ गये थे, ने 1931 में ही कह दिया था कि गोरे अंग्रेजों के स्थान पर काले अंग्रेजों के सत्ता में आ जाने से कुछ फर्क नहीं पड़ेगा। उनका कहना था कि भारत में मजदूरों किसानों की असली मुक्ति समाजवाद में ही संभव हो सकती है। समाजवाद में सभी देशी-विदेशी पूंजीपतियों की सम्पत्ति जब्त कर ली जायेगी। जो मेहनत करेगा वह खायेगा। समाजवाद सबको योग्तानुसार काम और काम के अनुसार वेतन देगा। धर्म व्यक्ति का निजी मामला होगा।किसी का भी शोषण, उत्पीड़न नहीं होगा।
जाति व्यवस्था का पूर्ण विनाश कर दिया जायेगा।स्त्रियां आत्मनिर्भर होकर आजाद होंगी। भारत सच्चे अर्थों में समाजवादी संघ होगा। शिक्षा, राजनीति व शासन में धर्म की भूमिका नहीं होगी। सभी को निःशुल्क शिक्षा व स्वास्थ्य की पूरी व्यवस्था समाजवादी राज्य द्वारा दी जायेगी। सबको एक समान, जीवन में उपयोगी व उल्लास पैदा करने वाली शिक्षा निःशुल्क दी जायेगी। हमारी लड़ाई कोई और नहीं लड़ेगा। हमें अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी होगी। हम एकजुट होंगे। पूंजीवाद को खत्म करेंगे।
समाजवाद लायेंगे! यकीनन हम ऐसा करेंगे! यकीनन एक दिन ऐसा ही होगा! पूंजीवाद मुर्दाबाद! समाजवाद जिंदाबाद !!
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