महान अक्टूबर समाजवादी क्रांति शताब्दी वर्ष पर
यह वक्त संकल्प लेने, काम में जुट जाने का है
‘महान अक्टूबर समाजवादी क्रांति’ के सौ वर्ष पूरे हो गये। पिछले एक वर्ष से भारत सहित पूरी दुनिया में इस क्रांति के शताब्दी वर्ष को न केवल मजदूर वर्ग द्वारा याद किया गया बल्कि पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने ही ढंग से याद किया गया। यहां तक कि रूस के आज के साम्राज्यवादी शासकों ने भी क्रांति को रूसी समाज की एक उपलब्धि के रूप में याद किया। इसे याद करने में कुछ ऐसा है जैसे कोई मौत के मुंह से बच गया हो।
‘महान अक्टूबर समाजवादी क्रांति’ बीसवीं सदी की सबसे निर्णायक घटनाओं में ही एक नहीं थी बल्कि यह मानव इतिहास की सबसे निर्णायक घटनाओं में से भी एक साबित हुई है। इस क्रांति ने साबित कर दिया था कि शोषित मजदूर, किसान अपनी सत्ता कायम कर सकते हैं और शोषण-उत्पीड़न का समाज से नामोनिशान मिटा सकते हैं। इस क्रांति ने न केवल कई क्रांतियों को जन्म दिया बल्कि गुलाम देशों को अपनी आजादी हासिल करने में पे्ररणा से लेकर सीधी मदद की।
‘महान अक्टूबर क्रांति’ ने रूस के जनगण को वह सब कुछ दिया जो कि फ्रांसीसी या इंग्लिश या अमेरिकी क्रांति ने अपने नागरिकों से वायदा किया था। यह इतिहास की सच्चाई है आजादी, बराबरी, भाईचारे आदि की बातें करने वाली ये क्रांतियां महज पूंजीपति वर्ग की सत्ता प्राप्ति का जरिया बन गयीं। क्रांति में प्राण-प्रण से लगने वाले मजदूर, किसान, बुद्धिजीवी ठगे और छले गये। इसके उलट अक्टूबर क्रांति ने पहले ही क्षण आजादी, बराबरी, भाईचारे के नारे को पूर्णता प्रदान कर दी। फिनलैंड को जारशाही साम्राज्य से आजाद किया, सदियों से उत्पीड़ित स्त्रियों को पूर्ण बराबरी प्रदान की और समाजवादी रूस में सभी शोषित-उत्पीड़ित भाईचारे के अभिनव सूत्र में बंध गये।
‘महान अक्टूबर समाजवादी क्रांति’ का विजय रथ आगे न बढ़ सके इसके लिए उस वक्त के जालिम शोषकों ने हर कोशिश की। फ्रांस, अमेरिका, ब्रिटेन, जापान और जर्मनी जैसे देशों ने रूस में कायम हो चुकी मजदूर-किसान सत्ता को नष्ट करने के लिए ऐड़ी-चोटी का जोर लगा दिया। वर्षों समाजवादी राज्य को देशी-विदेशी शत्रुओं से भीषण लड़ाई लड़नी पड़ी। शोषक किसी भी कीमत पर नहीं चाहते थे कि रूस में समाजवाद कायम हो। साम्राज्यवादी भयभीत थे कि कहीं उनके घर भी क्रांति की आग से न जल जायें।
हकीकत में 1918 में यूरोप के कई देशों में ऐसा हुआ भी था। जर्मनी, हंगरी, इटली और आस्ट्रिया उन देशों में प्रमुख थे जहां मजदूर क्रांतियां दस्तक दे रही थीं। ‘सारी सत्ता सोवियतों को दो’, ‘समाजवाद जिंदाबाद’ जैसे नारे गली-गली में लगाये जा रहे थे। क्रांतियों की इस श्रृंखला का दमन पूंजीपति वर्ग भारी दमन व षड्यंत्रों के दम पर ही कर पाया। सौ वर्ष पहले मजदूरों ने शोषक पूंजीपतियों को दिन में ही तारे दिखा दिये थे। इसलिए क्रांतियों की काट करने के लिए उसने फासीवाद, नाजीवाद का सहारा लिया। इसीलिए वह अब जैसे ही संगठित क्रांतिकारी मजदूर आंदोलन का थोड़ा भी दर्शन करता है तो पूरी ताकत से बर्बरता पर उतर आता है। वह अपने संविधान को ताक पर रखकर तुरंत आपातकाल की घोषणा करने लगता है। लोकतंत्र, मानवाधिकार, प्रेस सभी निलंबित कर दिये जाते हैं।
‘महान अक्टूबर क्रांति’ से पैदा हुई ऊर्जा का विश्वव्यापी प्रसार पूंजीवाद के सारे हथकंडों के बावजूद उस जमाने में तेजी से हुआ। दूसरे विश्व युद्ध के बाद तो समाजवाद शब्द हर आजाद देश की जुबान पर चढ़ गया। चीन, कोरिया, वियतनाम की क्रांतियों ने समाजवाद को एक नई जमीन प्रदान की। यह ‘महान अक्टूबर क्रांति’ की प्रेरणा और मदद से ही संभव हो सका था।
इतिहास की गति देखिये सौ वर्ष पूर्व दुनिया में कहीं समाजवाद नहीं था और आज सौ वर्ष बाद भी दुनिया में कहीं भी समाजवाद नहीं है। सौ वर्ष पूर्व पूंजीपति वर्ग अपनी सत्ता को लेकर पूर्ण आश्वस्त था आज वह अक्सर समाजवाद, मार्क्सवाद की चर्चा उपहास उड़ाने के लिए करता है। फिर क्या क्रांतियां अतीत की बात हो गयी हैं? क्या क्रांतियों का युग बीत चुका है?
सच्चाई एकदम उलट है। क्रांतियां प्रकृति से लेकर मानव जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं। वे लीक से हट कर होती हैं। और अपने चरित्र में वे सर्वदा अनुपम होती हैं। वे जब जन्म ले और विकसित हो रही होती हैं तब शोषक उनसे अंजान और लापरवाह बने रहते हैं। जब वे प्रकट होती हैं तो शोषक हक्के-बक्के और बदहवास हो जाते हैं। सौ वर्ष पूर्व जार, पूंजीपति जमींदारों ने कभी नहीं सोचा था कि उनके दिन पूरे हो चुके हैं। आगे बढ़े हुए, क्रांति कर्म में लगे मजदूरों ने नहीं सोचा था कि क्रांति के जरिये मुक्ति हासिल की जा सकती है। क्रांति उतनी ही सच साबित होती गयी जितना उसको लाने के लिए सारी मजदूर, किसान बहुसंख्यक आबादी काम करने लगी।
‘महान अक्टूबर क्रांति’ का सौवां वर्ष इस क्रांति को याद करने, सबक निकालने, संकल्प लेने का वर्ष है। पूंजी की गुलामी से मुक्ति की राह आसान नहीं है। पिछले सौ वर्षों में पूंजीपति वर्ग ने अपनी व्यवस्था की दीर्घजीविता के लिए बहुत सबक निकाले हैं। बहुत युक्तियां खोजी हैं। दुश्मन पहले से ज्यादा बलवान हुआ है पर महान अक्टूबर क्रांति हमें सिखलाती है कि इतिहास में सबसे बड़ी ताकत मजदूर, किसान है, जनता है। क्रांतिकारी जनता के सामने हर ताकत बौनी है। शासकों की सारी तिकड़में, युक्तियां उसके सामने फेल हैं।। साभार -enagrik.com