पेट्रोल डीजल की बढ़ती कीमतें और निरन्तर कमजोर होता रुपया
पेट्रोल डीजल की कीमतें मोदी सरकार के जमाने में तुलनात्मक तौर पर बहुत तेजी से बढ़ती चले गई है और मौजूदा वक्त में यह पेट्रोल 90 तक डीजल 80 तक पहुंच चुका है।
अब चुकीं एक ओर तीन राज्यों में जल्द ही चुनाव होने है और फर छः माह बाद लोक सभा के चुनाव होने हैं। दूसरी ओर शेयर मार्केट इस बीच लगातार संकट में है इस दबाव में 2.5 रुपये की कटौति की घोषणा तेल की कीमतों में के गई है। कुछ राज्यों के स्तर पर वैट कम करने के बाद तेल की कीमतों में 2.5 से लेकर 5 रुपये की कटौती की बातें की जा रही है।
कोई कह सकता है कि मोदी सरकार ने जनता को राहत दी है लेकिन हकीकत क्या है ? हकीकत यह है कि मोदी सरकार ने 4 साल में अपनी सत्ता के दौरान औसतन 2.5 लाख करोड़ रुपये जनता से उगाहे हैं जबकि कुल 10 लाख करोड़ रुपए जनता से वसूले गए हैं। 2013-14 में यू पी ए के जमाने में 88,600 करोड़ रुपये वसूले गए थे जबकि इस बीच अंतराष्ट्रीय स्तर पर तेल की कीमतें 137 डालर प्रति बैरल हो गए थे। 2014-15 के मोदी काल के दौर में अंतर्राष्ट्रीय सिर पर तेल की कीमतों के 45 डालर प्रति बैरल हो जाने के बावजूद तेल की कीमतें बढ़ाई गई और 1.05 लाख करोड़ रुपये जनता से वसूले गए। और आज भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तेल ( क्रूड ओइल ) की कीमतें 70-80 के बीच बनी हुई हैं। सरकार की वसूली के इतर बात की जाए तो यही स्थिति तेल की मार्केटिंग व रिफाइनिंग कम्पनियों की भी बनती है। ये भी जमकर मुनाफा कूत रही हैं।
एक आर टी आई के माध्यम से भी यह बात उजागर हुई है कि भारत कई देशों को तेल के निर्यात करता है और इस तेल को 40 रुपये से भी कम कीमत पर कई देशों को बेचा जा रहा है। यह हास्यास्पद ही है कि तेल आयातक देश के शासक अपने देश में उत्पादित तेल का निर्यात करते हैं या करने की अनुमति देते हैं।
तेल की निरन्तर बढ़ती कीमतों के लिए मात्र अंतराष्ट्रीय बाजार को जिम्मेदार ठहराया जाता है । यू पी ए सरकार के बाद मोदी सरकार का भी यही तर्क था। टेक्स में नाममात्र की कटौती करके तेल की कीमतों में कटौति करने से यह बात साबित हो गई की सरकार का तर्क झूठा था। असल में तेल पर 80-90 % टैक्स लगने के बाद तेल की कीमतें दुगुनी से भी ज्यादा हो जाती हैं।
दरअसल 90 के दशक में देश के हुक्मरानों ने कल्याणकारी राज्य के मॉडल से पिंड छुड़ाकर खुली बाजार वाली अर्थव्यवस्था की ओर कदम बढ़ाए थे। 90 के दशक से पहले का कल्याणकारी राज्य जहां पूंजीपति वर्ग के हितों के अनुरूप था वहीं 'निजिकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण' के रूप में 90 के दशक में लागू होने वाली नीतियां भी इसी के हितों व तत्कालीन जरूरतों के अनुरूप था। इन्ही नीतियों के तहत कांग्रेस के जमाने में पेट्रोल डीजल की कीमतों को विनियंत्रित किये जाने व इसे बाजार से लिंक करने की ओर कदम बढ़ाए गये। कुछ सीमाएं रखी गई जैसे 50 पैसे से ज्यादा एक माह न बढ़ा पाने का। लेकिन मोदी सरकार ने आते ही इन सीमाओं को भी हटाकर इसे पूरी तरह बाजार से लिंक कर दिया। नतीजा आज सामने है।
यही स्थिति रुपये की कीमत में डालर के सापेक्ष गिरावट के मसले पर है। 1965 में साम्रज्यवादी संस्था अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष से कर्ज लिया गया। इस कर्ज के एवज में रुपये का अवमूल्यन करना पड़ा । जो लगभग 4 रुपये का एक डालर था तब रुपये की कीमत गिराकर 7 रुपये से ज्यादा एक डालर के बराबर कर दिया गया। और फिर 90 के दशक में नई आर्थिक नीतियों को लागू करने के बाद भारतीय शासकों का साम्रज्यवादी मुल्कों से सीमित दूरी बरते जाने की नीति में भी बदलाव आया और साम्राज्यवादी मुल्कों से निकटता बढ़ते गई। इसी के साथ साथ डालर के सापेक्ष रुपये का की कीमत भी गिरते गई। साम्राज्यवादी सस्थाओं द्वारा इस तरह से मुद्रा की कीमत गिराकर किसी मुल्क को लूटा जाता है। इसके चलते आयात किसी देश के लिए महंगा व उस देश से होने वाला निर्यात सस्ता होता जाता है।
मोदी सरकार ने सत्ता संभालते ही यू पी ए के दौर की ही नीतियों को तेजी से आगे बढ़ाना शुरू कर दिया था। आज स्थिति ज्यादा स्पष्ट है कि एकाधिकारी पूंजी के हितों में मोदी सरकार ने आम जनता की आर्थिक व सामाजिक स्थिति को पीछे धकेल दिया है ।
अब चुकीं एक ओर तीन राज्यों में जल्द ही चुनाव होने है और फर छः माह बाद लोक सभा के चुनाव होने हैं। दूसरी ओर शेयर मार्केट इस बीच लगातार संकट में है इस दबाव में 2.5 रुपये की कटौति की घोषणा तेल की कीमतों में के गई है। कुछ राज्यों के स्तर पर वैट कम करने के बाद तेल की कीमतों में 2.5 से लेकर 5 रुपये की कटौती की बातें की जा रही है।
कोई कह सकता है कि मोदी सरकार ने जनता को राहत दी है लेकिन हकीकत क्या है ? हकीकत यह है कि मोदी सरकार ने 4 साल में अपनी सत्ता के दौरान औसतन 2.5 लाख करोड़ रुपये जनता से उगाहे हैं जबकि कुल 10 लाख करोड़ रुपए जनता से वसूले गए हैं। 2013-14 में यू पी ए के जमाने में 88,600 करोड़ रुपये वसूले गए थे जबकि इस बीच अंतराष्ट्रीय स्तर पर तेल की कीमतें 137 डालर प्रति बैरल हो गए थे। 2014-15 के मोदी काल के दौर में अंतर्राष्ट्रीय सिर पर तेल की कीमतों के 45 डालर प्रति बैरल हो जाने के बावजूद तेल की कीमतें बढ़ाई गई और 1.05 लाख करोड़ रुपये जनता से वसूले गए। और आज भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तेल ( क्रूड ओइल ) की कीमतें 70-80 के बीच बनी हुई हैं। सरकार की वसूली के इतर बात की जाए तो यही स्थिति तेल की मार्केटिंग व रिफाइनिंग कम्पनियों की भी बनती है। ये भी जमकर मुनाफा कूत रही हैं।
एक आर टी आई के माध्यम से भी यह बात उजागर हुई है कि भारत कई देशों को तेल के निर्यात करता है और इस तेल को 40 रुपये से भी कम कीमत पर कई देशों को बेचा जा रहा है। यह हास्यास्पद ही है कि तेल आयातक देश के शासक अपने देश में उत्पादित तेल का निर्यात करते हैं या करने की अनुमति देते हैं।
तेल की निरन्तर बढ़ती कीमतों के लिए मात्र अंतराष्ट्रीय बाजार को जिम्मेदार ठहराया जाता है । यू पी ए सरकार के बाद मोदी सरकार का भी यही तर्क था। टेक्स में नाममात्र की कटौती करके तेल की कीमतों में कटौति करने से यह बात साबित हो गई की सरकार का तर्क झूठा था। असल में तेल पर 80-90 % टैक्स लगने के बाद तेल की कीमतें दुगुनी से भी ज्यादा हो जाती हैं।
दरअसल 90 के दशक में देश के हुक्मरानों ने कल्याणकारी राज्य के मॉडल से पिंड छुड़ाकर खुली बाजार वाली अर्थव्यवस्था की ओर कदम बढ़ाए थे। 90 के दशक से पहले का कल्याणकारी राज्य जहां पूंजीपति वर्ग के हितों के अनुरूप था वहीं 'निजिकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण' के रूप में 90 के दशक में लागू होने वाली नीतियां भी इसी के हितों व तत्कालीन जरूरतों के अनुरूप था। इन्ही नीतियों के तहत कांग्रेस के जमाने में पेट्रोल डीजल की कीमतों को विनियंत्रित किये जाने व इसे बाजार से लिंक करने की ओर कदम बढ़ाए गये। कुछ सीमाएं रखी गई जैसे 50 पैसे से ज्यादा एक माह न बढ़ा पाने का। लेकिन मोदी सरकार ने आते ही इन सीमाओं को भी हटाकर इसे पूरी तरह बाजार से लिंक कर दिया। नतीजा आज सामने है।
यही स्थिति रुपये की कीमत में डालर के सापेक्ष गिरावट के मसले पर है। 1965 में साम्रज्यवादी संस्था अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष से कर्ज लिया गया। इस कर्ज के एवज में रुपये का अवमूल्यन करना पड़ा । जो लगभग 4 रुपये का एक डालर था तब रुपये की कीमत गिराकर 7 रुपये से ज्यादा एक डालर के बराबर कर दिया गया। और फिर 90 के दशक में नई आर्थिक नीतियों को लागू करने के बाद भारतीय शासकों का साम्रज्यवादी मुल्कों से सीमित दूरी बरते जाने की नीति में भी बदलाव आया और साम्राज्यवादी मुल्कों से निकटता बढ़ते गई। इसी के साथ साथ डालर के सापेक्ष रुपये का की कीमत भी गिरते गई। साम्राज्यवादी सस्थाओं द्वारा इस तरह से मुद्रा की कीमत गिराकर किसी मुल्क को लूटा जाता है। इसके चलते आयात किसी देश के लिए महंगा व उस देश से होने वाला निर्यात सस्ता होता जाता है।
मोदी सरकार ने सत्ता संभालते ही यू पी ए के दौर की ही नीतियों को तेजी से आगे बढ़ाना शुरू कर दिया था। आज स्थिति ज्यादा स्पष्ट है कि एकाधिकारी पूंजी के हितों में मोदी सरकार ने आम जनता की आर्थिक व सामाजिक स्थिति को पीछे धकेल दिया है ।