भगत सिंह शहादत दिवस पर
इतिहास, आज कुछ बदले रूप में, फिर उसी मोड़ पर पंहुच रहा है, जहां 100 साल पहले था; जब 'आज़ादी' के नारे 'अपराध' थे, जब 'अधिकारों' की बातें करना 'जुर्म' था, ऐसे नारे लगाने वाले 'आतंकी' कहलाते थे; तब गुलामी के ख़िलाफ़ और आजादी के लिए लड़ते हुए आम जनता ने गोलियां खायीं थी, मुकदमे झेले थे, फांसी और कालापानी की सजा पाई थी। तब देश आजाद हुआ।
आज स्थितियां गुजर चुके जमाने की याद दिला रही है। आज फिर से 'आज़ादी' के नारे 'देश विरोधी' हो चुके हैं, 'अधिकारों' के लिए लड़ते छात्र, नौजवान, बेरोजगार, आदिवासी, मज़दूर, आम दलित और मुस्लिम 'टुकड़े-टुकड़े' गैंग कहे जा रहे हैं।'आज़ादी' 'अधिकार' 'समानता' व 'धर्मनिरपेक्षता' जैसे शब्दों के खिलाफ 'नफरत' पैदा कर दी गयी है ताकि आम जनता को 'फासीवादी गुलामी' की ओर आसानी से धकेला जा सके।
भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव तीनों ने उस दौर को देखा था, जब जलियावालाबाग हत्याकांड रचा गया था, जब रौलेट एक्ट जैसे काले कानून बने थे। जिसका मकसद जनता के संघर्ष को कुचल देना था। 'न वकील, न दलील, न अपील,' यही रौलेट एक्ट का मतलब था। इसमें किसी को भी केवल शक के आधार पर जेल में ठूंस दिया जाता था।
अंग्रेज शासकों को भगत सिंह और राजगुरु, सुखदेव जैसे क्रांतिकारियों से बहुत खतरा था, इसलिए इन्हें 23 मार्च 1931 को फांसी दे दी गई।
कोई कह सकता है, आज तो देश आजाद है, आज कोई विदेशी शासक नहीं है जो हम पर शासन करे। फिर आज इस सबकी क्या जरूरत? भगत सिंह के शब्दों में इसका जवाब यही है कि आज 'गोरे अंग्रेजों की जगह काले अंग्रेजों का राज है'। आज आम जनता के कंधों पर भारत के शासक पूंजीपतियों का जुआ है। आज भी भारत की यह आम जनता अमेरिका, रूस जैसे ताकतवर साम्राज्यवादी मुल्कों की लूट-खसोट की शिकार है। यह लूट-खसोट सीधे-सीधे नहीं होती बल्कि यह लूट-खसोट हमारे शासकों के दम पर ही होती है। दोनों अपनी औकात के हिसाब से लूट-खसोट करते हैं व हिस्सा-बांट करते हैं।
आज आज़ादी के 70 साल बाद आम जनता को क्या हासिल है? कहने को हम 'आजाद' हैं, मगर इतने आजाद हैं कि 'आजादी' के नारे लगते ही 'ठोक कर देंगे-आज़ादी' 'पेल के देंगे- आज़ादी' की धमकियां मिलने लगती हैं। कहने को तो हमें 'सरकार की गलत नीतियों' की आलोचना करने का भी अधिकार है ! सरकार से 'असहमत' होने का भी अधिकार है! हमें 'धरना', 'विरोध प्रदर्शन' करने व संगठन बनाने का भी अधिकार है मगर हकीकत क्या है?
हकीकत यह है कि आज जो कोई भी 'मोदी सरकार' की आलोचना करे, उसे 'देशविरोधी' कहा जाता है, 'टुकड़े-टुकड़े गैंग' 'अरबन नक्सल', और भी ना जाने, क्या-क्या कहा जाता है। स्थिति यह है कि कर्नाटक में 9-10 साल के कुछ बच्चों पर भी राजद्रोह (देशद्रोह) का मुकदमा दर्ज कर दिया जाता है, उन्हें पुलिस द्वारा टॉर्चर किया जाता है। इनका कसूर क्या था? बच्चों ने सी.ए.ए. की आलोचना वाला एक नाटक भर किया था।
क्या यह सच नहीं है कि जब भी, बेरोजगार नौजवान सड़कों पर रोजगार के लिए आंदोलन करते हैं तो उन पर लाठियां बरसती हैं? कॉलेजों की भारी फीस बढ़ने के खिलाफ जब छात्र आंदोलन करते हैं तो उन पर रात के अंधेरे में संघी नकाबपोश गुंडे हमले करते हैं? क्या कर्मचारी, क्या मज़दूर, क्या किसान और क्या आम महिलाएं, सभी तो सड़कों पर आंदोलन करते वक़्त कूटे-पीटे और मारे जाते हैं।
कोई कानून 'जनता' को तबाह-बर्बाद करने वाला है तो जनता क्या करे? क्या चुप बैठी रहे? क्या उस काले कानून का विरोध करना 'गुनाह' है? क्या इससे पहले, जनता ने काले कानूनों का विरोध नहीं किया था? क्या खुद भाजपा व संघ ने कांग्रेस सरकार में कानूनों का विरोध नहीं किया था? कांग्रेस सरकार का विरोध नहीं किया था? जो तब सही था, वह आज कैसे गलत है?
आज समाज में चौतरफा संकट है। अर्थव्यवस्था गहरे संकट में है। बेरोजगारी की हालत बहुत बुरी है। बेरोजगार नौजवान सड़कों पर हैं। उधर फैक्ट्रियों-कारखानों से लाखों मज़दूरों से नौकरी छिन चुकी है। नई नौकरियों का अकाल पड़ा हुआ है। दुकानदारों से पूछिये तो पता लगेगा कि बिक्री बहुत कम हो गई है।
6 साल पहले के दिन याद कीजिये! भाजपा और मोदी का क्या वायदा था? कहां तो 'अच्छे दिन आने वाले' थे, '15 लाख सबके खाते में' आने वाले थे, '2 करोड़ रोज़गार' हर साल मिलने वाले थे, 'महिलाओं पर अत्याचार' खत्म हो जाना था, मगर हुआ क्या? 1 लाख से ज्यादा सरकारी शिक्षक योगी राज में नौकरी से हटा दिए गए, इन्हें शिक्षा मित्र बना दिया गया। बी.एस.एन.एल के लाखों कर्मचारियों को जबरन रिटायर किया का रहा है। महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा जैसे अपराध और ज्यादा बढ़ ही नहीं गए बल्कि, भाजपा के चिन्मयानन्द, कुलदीप सेंगर, नित्यानंद जैसे अपराधियों को बचाने की हर कोशिश इन्होंने की।
आज हालात क्या हैं? एक तरफ आम जनता की जीवन भर की जमा पूंजी जो बैंकों में है, उस पर 'बड़े-बड़े पूंजीपति' हाथ साफ कर रहे हैं। सरकार इसे बट्टा खाते में डाल रही है। बैंकों का लगभग 7 लाख करोड़ रुपये का कर्ज जो पूंजीपतियों ने बैंकों से लिया था, वह फंस चुका है। इसके चलते बैंक डूब रहे हैं। यस बैंक का 13 हज़ार करोड़ रुपये तो अनिल अंबानी पर ही फंसा हुआ है, ऐसे ही और भी बड़े खिलाड़ी है।
संकट इतना गहरा है कि कर्ज, गरीबी व भुखमरी के चलते अब आये दिन आत्महत्या की खबर आने लगी है। आयात-निर्यात, मानव विकास सूचकांक, पूंजी निवेश, खपत हर चीज में लगातार गिरावट है।
शासक पूंजीपति जानता है कि जब वह आम जनता की खुली लूट-खसोट करेगा, तो आम जनता का आंदोलन सड़कों पर उमड़ना तय है। जनता का संघर्ष शासकों के 'स्वर्ग' को भी खत्म कर सकता है। इस स्थिति में शासक पूंजीपति क्या करे? ऐसे में वह 'हिन्दू-मुस्लिम' की राजनीति करने वाले को खुलकर आगे न लाते, तो और क्या करते ? पहले ये 'कांग्रेस' के जरिये खेलते थे मगर अब मोदी-शाह, भाजपा व संघ के जरिये यही चीज कर रहे हैं। 'हिंदू फासीवाद' यानी 'हिंन्दू राष्ट्र' शासक पूंजीपति की 'आतंकी तानाशाही' का ही दूसरा नाम है। इस 'हिन्दू फासीवादी' हमले के केंद्र में मुस्लिम है मगर इसके निशाने पर सभी धर्मों की मेहनतकश जनता है यही असल 'शिकार' है।
यह 'हिन्दू राष्ट्र' एक हद तक कायम हो चुका है। इस 'हिन्दू राष्ट्र' में आम जनता के क्या हाल है? आम महिलाओं की क्या स्थिति हैं? आम दलितों, आम मुस्लिमों, मजदूरों, आम किसानों आदिवासियों, कर्मचारियों, बेरोजगारों व दुकानदारों की क्या स्थिति हैं? सभी की हालत और ज्यादा खराब हुई है। सभी इसमें हैरान हैं, परेशान हैं।
अब यही चीज सी.ए.ए., एन.आर.सी. तथा एन.पी.आर. के जरिये होनी है। सी.ए.ए अपने मनपसंद मुल्कों से, मनपसंद धर्म के लोगो को ही नागरिकता देने की बात करता है। यह धार्मिक आधार पर बना हुआ है। यह आम मेहनतकश जनता को 'बांटता' है, 'लड़ाता' है और उनकी 'एकता' को खत्म कर देता है शासकों की लूट-बर्बरता को आगे बढ़ाता है। जबकि एन.पी.आर के जरिये ही एन.आर.सी. भी होनी है इसमें आम नागरिक को 'संदेह' के आधार पर 'संदिग्थ नागरिक' बना देने का प्रावधान है तथा फिर उससे 'नागरिकता' का सबूत मांगने का कानूनी प्रावधान है। देर-सबेर आम नागरिक की व्यक्तिगत जानकारी जुटाकर एक ओर निगरानी का जाल बुना जाएगा तो दूसरी ओर उसे 'संदिग्ध नागरिक' बना देने की ओर बढ़ा जाएगा। यहां से फिर नागरिकता साबित न होने पर वह 'घुसपैठिया' या 'शरणार्थी' हो जाएगा।
इसके विरोध में केवल मुस्लिम समुदाय के लोग ही नहीं बल्कि हिन्दू, सिक्ख, ईसाई सभी धर्म के मेहनतकश व जनपक्षधर लोग भी अलग-अलग जगहों पर सड़कों पर हैं। सरकार और उसका मीडिया इसे जानबूझकर मुस्लिमों का आंदोलन कहकर प्रचारित कर रहा है ताकि फासीवादी तानाशाही को आसानी से थोपा जा सके। यह संघर्ष असम, मेघालय, पंजाब दिल्ली से लेकर देश के अधिकांश राज्यों में है।
यही नहीं, इस आंदोलन को कुचलने के लिए 'दंगे' तक करवा दिए गए। आंदोलनकारियों के पोस्टर 'अपराधियों' की तरह होर्डिंग पर लगवा दिए गए। कुलमिलाकर 70-80 लोग इस दौरान मारे गए हैं सैकड़ों घायल हुए है, हज़ारों पर मुकदमे दर्ज हुए हैं। दिल्ली में प्रायोजित दंगों के चलते भी आम जनता ने भयावह पीड़ा व विस्थापन झेला है। मगर जो दंगे के प्रायोजक है उन पर कोर्ट के आदेश के बावजूद 'मुकदमे' दर्ज नहीं होते बल्कि 'सुरक्षा' दी जाती है।
कोई ऐसे दौर को 'अंधेरा दौर' न कहे तो क्या कहे? इसे भयावह 'अघोषित आपात काल' न कहे तो क्या कहे? जहां 'नंगे राजा' को 'नंगा कहना' ही जुर्म हो।
आइये, इस अंधेरे दौर में अंधेरों के ही गीत गाएं। अंधेरो के गीत गाते हुए ही मुक्ति के रास्ते की ओर बढ़ें। भविष्य जनता का है। भविष्य रोशनी का है। बहते पानी की धारा को थामकर, जो सोचते हैं कि वह हमेशा के लिए पानी के बहाव को थाम लेंगे, वे विज्ञान और समाज विकास के नियम के खिलाफ खड़े हैं। याद रखना होगा! जबरन रोक दिए गए इस पानी का बहाव, वक्त गुजरते ही फासीवादी शासकों समेत इनके जुल्म-सितम, शोषण-उत्पीड़न को भी सैलाब की तरह बहा ले जाएगा। आम जनता के संघर्ष 'पानी के बहाव' की ही तरह हैं।
आज के ये घोर जनविरोधी फासीवादी शासक जनता पर हर तरीके से हमलावर हैं। हमें याद रखना होगा, यह आम जनता ही थी जिसने भारी कुर्बानियां देकर देश आजाद कराया था, जिसने अपने खून-पसीने से देश को सींचा है, देश का निर्माण किया हैं; यह आम जनता ही है जिसने हर अधिकार, हर चीज को संघर्षो से हासिल किया है। अब एक बार फिर आम जनता ही इतिहास का निर्माण करेगी। यह भगत सिंह के विचारों के दम पर संभव है।
शहीद भगत सिंह के विचार व उनका कुर्बानी भरा जज्बा हमें इस शोषण-उत्पीड़न से मुक्ति की राह दिखाता हैं। 'समाजवादी भारत' ही जनता को पूंजी की फासीवादी गुलामी और जकड़न से मुक्ति दिला सकता है। 'समाजवादी भारत' ही भगत सिंह का मकसद था, सपना था।
आज स्थितियां गुजर चुके जमाने की याद दिला रही है। आज फिर से 'आज़ादी' के नारे 'देश विरोधी' हो चुके हैं, 'अधिकारों' के लिए लड़ते छात्र, नौजवान, बेरोजगार, आदिवासी, मज़दूर, आम दलित और मुस्लिम 'टुकड़े-टुकड़े' गैंग कहे जा रहे हैं।'आज़ादी' 'अधिकार' 'समानता' व 'धर्मनिरपेक्षता' जैसे शब्दों के खिलाफ 'नफरत' पैदा कर दी गयी है ताकि आम जनता को 'फासीवादी गुलामी' की ओर आसानी से धकेला जा सके।
भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव तीनों ने उस दौर को देखा था, जब जलियावालाबाग हत्याकांड रचा गया था, जब रौलेट एक्ट जैसे काले कानून बने थे। जिसका मकसद जनता के संघर्ष को कुचल देना था। 'न वकील, न दलील, न अपील,' यही रौलेट एक्ट का मतलब था। इसमें किसी को भी केवल शक के आधार पर जेल में ठूंस दिया जाता था।
अंग्रेज शासकों को भगत सिंह और राजगुरु, सुखदेव जैसे क्रांतिकारियों से बहुत खतरा था, इसलिए इन्हें 23 मार्च 1931 को फांसी दे दी गई।
कोई कह सकता है, आज तो देश आजाद है, आज कोई विदेशी शासक नहीं है जो हम पर शासन करे। फिर आज इस सबकी क्या जरूरत? भगत सिंह के शब्दों में इसका जवाब यही है कि आज 'गोरे अंग्रेजों की जगह काले अंग्रेजों का राज है'। आज आम जनता के कंधों पर भारत के शासक पूंजीपतियों का जुआ है। आज भी भारत की यह आम जनता अमेरिका, रूस जैसे ताकतवर साम्राज्यवादी मुल्कों की लूट-खसोट की शिकार है। यह लूट-खसोट सीधे-सीधे नहीं होती बल्कि यह लूट-खसोट हमारे शासकों के दम पर ही होती है। दोनों अपनी औकात के हिसाब से लूट-खसोट करते हैं व हिस्सा-बांट करते हैं।
आज आज़ादी के 70 साल बाद आम जनता को क्या हासिल है? कहने को हम 'आजाद' हैं, मगर इतने आजाद हैं कि 'आजादी' के नारे लगते ही 'ठोक कर देंगे-आज़ादी' 'पेल के देंगे- आज़ादी' की धमकियां मिलने लगती हैं। कहने को तो हमें 'सरकार की गलत नीतियों' की आलोचना करने का भी अधिकार है ! सरकार से 'असहमत' होने का भी अधिकार है! हमें 'धरना', 'विरोध प्रदर्शन' करने व संगठन बनाने का भी अधिकार है मगर हकीकत क्या है?
हकीकत यह है कि आज जो कोई भी 'मोदी सरकार' की आलोचना करे, उसे 'देशविरोधी' कहा जाता है, 'टुकड़े-टुकड़े गैंग' 'अरबन नक्सल', और भी ना जाने, क्या-क्या कहा जाता है। स्थिति यह है कि कर्नाटक में 9-10 साल के कुछ बच्चों पर भी राजद्रोह (देशद्रोह) का मुकदमा दर्ज कर दिया जाता है, उन्हें पुलिस द्वारा टॉर्चर किया जाता है। इनका कसूर क्या था? बच्चों ने सी.ए.ए. की आलोचना वाला एक नाटक भर किया था।
क्या यह सच नहीं है कि जब भी, बेरोजगार नौजवान सड़कों पर रोजगार के लिए आंदोलन करते हैं तो उन पर लाठियां बरसती हैं? कॉलेजों की भारी फीस बढ़ने के खिलाफ जब छात्र आंदोलन करते हैं तो उन पर रात के अंधेरे में संघी नकाबपोश गुंडे हमले करते हैं? क्या कर्मचारी, क्या मज़दूर, क्या किसान और क्या आम महिलाएं, सभी तो सड़कों पर आंदोलन करते वक़्त कूटे-पीटे और मारे जाते हैं।
कोई कानून 'जनता' को तबाह-बर्बाद करने वाला है तो जनता क्या करे? क्या चुप बैठी रहे? क्या उस काले कानून का विरोध करना 'गुनाह' है? क्या इससे पहले, जनता ने काले कानूनों का विरोध नहीं किया था? क्या खुद भाजपा व संघ ने कांग्रेस सरकार में कानूनों का विरोध नहीं किया था? कांग्रेस सरकार का विरोध नहीं किया था? जो तब सही था, वह आज कैसे गलत है?
आज समाज में चौतरफा संकट है। अर्थव्यवस्था गहरे संकट में है। बेरोजगारी की हालत बहुत बुरी है। बेरोजगार नौजवान सड़कों पर हैं। उधर फैक्ट्रियों-कारखानों से लाखों मज़दूरों से नौकरी छिन चुकी है। नई नौकरियों का अकाल पड़ा हुआ है। दुकानदारों से पूछिये तो पता लगेगा कि बिक्री बहुत कम हो गई है।
6 साल पहले के दिन याद कीजिये! भाजपा और मोदी का क्या वायदा था? कहां तो 'अच्छे दिन आने वाले' थे, '15 लाख सबके खाते में' आने वाले थे, '2 करोड़ रोज़गार' हर साल मिलने वाले थे, 'महिलाओं पर अत्याचार' खत्म हो जाना था, मगर हुआ क्या? 1 लाख से ज्यादा सरकारी शिक्षक योगी राज में नौकरी से हटा दिए गए, इन्हें शिक्षा मित्र बना दिया गया। बी.एस.एन.एल के लाखों कर्मचारियों को जबरन रिटायर किया का रहा है। महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा जैसे अपराध और ज्यादा बढ़ ही नहीं गए बल्कि, भाजपा के चिन्मयानन्द, कुलदीप सेंगर, नित्यानंद जैसे अपराधियों को बचाने की हर कोशिश इन्होंने की।
आज हालात क्या हैं? एक तरफ आम जनता की जीवन भर की जमा पूंजी जो बैंकों में है, उस पर 'बड़े-बड़े पूंजीपति' हाथ साफ कर रहे हैं। सरकार इसे बट्टा खाते में डाल रही है। बैंकों का लगभग 7 लाख करोड़ रुपये का कर्ज जो पूंजीपतियों ने बैंकों से लिया था, वह फंस चुका है। इसके चलते बैंक डूब रहे हैं। यस बैंक का 13 हज़ार करोड़ रुपये तो अनिल अंबानी पर ही फंसा हुआ है, ऐसे ही और भी बड़े खिलाड़ी है।
संकट इतना गहरा है कि कर्ज, गरीबी व भुखमरी के चलते अब आये दिन आत्महत्या की खबर आने लगी है। आयात-निर्यात, मानव विकास सूचकांक, पूंजी निवेश, खपत हर चीज में लगातार गिरावट है।
शासक पूंजीपति जानता है कि जब वह आम जनता की खुली लूट-खसोट करेगा, तो आम जनता का आंदोलन सड़कों पर उमड़ना तय है। जनता का संघर्ष शासकों के 'स्वर्ग' को भी खत्म कर सकता है। इस स्थिति में शासक पूंजीपति क्या करे? ऐसे में वह 'हिन्दू-मुस्लिम' की राजनीति करने वाले को खुलकर आगे न लाते, तो और क्या करते ? पहले ये 'कांग्रेस' के जरिये खेलते थे मगर अब मोदी-शाह, भाजपा व संघ के जरिये यही चीज कर रहे हैं। 'हिंदू फासीवाद' यानी 'हिंन्दू राष्ट्र' शासक पूंजीपति की 'आतंकी तानाशाही' का ही दूसरा नाम है। इस 'हिन्दू फासीवादी' हमले के केंद्र में मुस्लिम है मगर इसके निशाने पर सभी धर्मों की मेहनतकश जनता है यही असल 'शिकार' है।
यह 'हिन्दू राष्ट्र' एक हद तक कायम हो चुका है। इस 'हिन्दू राष्ट्र' में आम जनता के क्या हाल है? आम महिलाओं की क्या स्थिति हैं? आम दलितों, आम मुस्लिमों, मजदूरों, आम किसानों आदिवासियों, कर्मचारियों, बेरोजगारों व दुकानदारों की क्या स्थिति हैं? सभी की हालत और ज्यादा खराब हुई है। सभी इसमें हैरान हैं, परेशान हैं।
अब यही चीज सी.ए.ए., एन.आर.सी. तथा एन.पी.आर. के जरिये होनी है। सी.ए.ए अपने मनपसंद मुल्कों से, मनपसंद धर्म के लोगो को ही नागरिकता देने की बात करता है। यह धार्मिक आधार पर बना हुआ है। यह आम मेहनतकश जनता को 'बांटता' है, 'लड़ाता' है और उनकी 'एकता' को खत्म कर देता है शासकों की लूट-बर्बरता को आगे बढ़ाता है। जबकि एन.पी.आर के जरिये ही एन.आर.सी. भी होनी है इसमें आम नागरिक को 'संदेह' के आधार पर 'संदिग्थ नागरिक' बना देने का प्रावधान है तथा फिर उससे 'नागरिकता' का सबूत मांगने का कानूनी प्रावधान है। देर-सबेर आम नागरिक की व्यक्तिगत जानकारी जुटाकर एक ओर निगरानी का जाल बुना जाएगा तो दूसरी ओर उसे 'संदिग्ध नागरिक' बना देने की ओर बढ़ा जाएगा। यहां से फिर नागरिकता साबित न होने पर वह 'घुसपैठिया' या 'शरणार्थी' हो जाएगा।
इसके विरोध में केवल मुस्लिम समुदाय के लोग ही नहीं बल्कि हिन्दू, सिक्ख, ईसाई सभी धर्म के मेहनतकश व जनपक्षधर लोग भी अलग-अलग जगहों पर सड़कों पर हैं। सरकार और उसका मीडिया इसे जानबूझकर मुस्लिमों का आंदोलन कहकर प्रचारित कर रहा है ताकि फासीवादी तानाशाही को आसानी से थोपा जा सके। यह संघर्ष असम, मेघालय, पंजाब दिल्ली से लेकर देश के अधिकांश राज्यों में है।
यही नहीं, इस आंदोलन को कुचलने के लिए 'दंगे' तक करवा दिए गए। आंदोलनकारियों के पोस्टर 'अपराधियों' की तरह होर्डिंग पर लगवा दिए गए। कुलमिलाकर 70-80 लोग इस दौरान मारे गए हैं सैकड़ों घायल हुए है, हज़ारों पर मुकदमे दर्ज हुए हैं। दिल्ली में प्रायोजित दंगों के चलते भी आम जनता ने भयावह पीड़ा व विस्थापन झेला है। मगर जो दंगे के प्रायोजक है उन पर कोर्ट के आदेश के बावजूद 'मुकदमे' दर्ज नहीं होते बल्कि 'सुरक्षा' दी जाती है।
कोई ऐसे दौर को 'अंधेरा दौर' न कहे तो क्या कहे? इसे भयावह 'अघोषित आपात काल' न कहे तो क्या कहे? जहां 'नंगे राजा' को 'नंगा कहना' ही जुर्म हो।
आइये, इस अंधेरे दौर में अंधेरों के ही गीत गाएं। अंधेरो के गीत गाते हुए ही मुक्ति के रास्ते की ओर बढ़ें। भविष्य जनता का है। भविष्य रोशनी का है। बहते पानी की धारा को थामकर, जो सोचते हैं कि वह हमेशा के लिए पानी के बहाव को थाम लेंगे, वे विज्ञान और समाज विकास के नियम के खिलाफ खड़े हैं। याद रखना होगा! जबरन रोक दिए गए इस पानी का बहाव, वक्त गुजरते ही फासीवादी शासकों समेत इनके जुल्म-सितम, शोषण-उत्पीड़न को भी सैलाब की तरह बहा ले जाएगा। आम जनता के संघर्ष 'पानी के बहाव' की ही तरह हैं।
आज के ये घोर जनविरोधी फासीवादी शासक जनता पर हर तरीके से हमलावर हैं। हमें याद रखना होगा, यह आम जनता ही थी जिसने भारी कुर्बानियां देकर देश आजाद कराया था, जिसने अपने खून-पसीने से देश को सींचा है, देश का निर्माण किया हैं; यह आम जनता ही है जिसने हर अधिकार, हर चीज को संघर्षो से हासिल किया है। अब एक बार फिर आम जनता ही इतिहास का निर्माण करेगी। यह भगत सिंह के विचारों के दम पर संभव है।
शहीद भगत सिंह के विचार व उनका कुर्बानी भरा जज्बा हमें इस शोषण-उत्पीड़न से मुक्ति की राह दिखाता हैं। 'समाजवादी भारत' ही जनता को पूंजी की फासीवादी गुलामी और जकड़न से मुक्ति दिला सकता है। 'समाजवादी भारत' ही भगत सिंह का मकसद था, सपना था।