Monday, 22 February 2021

किसानों का प्रतिरोध

               किसानों का प्रतिरोध




 

     किसानों का दिल्ली में चल रहा संघर्ष मोदी सरकार को चुनौती पेश कर रहा है। तीन कृषि कानूनों की वापसी की मांग के साथ जारी इस संघर्ष में किसानों ने अब तक जुझारू तेवर प्रदर्शित किये हैं। पंजाब-हरियाणा के किसानों को दिल्ली पहुंचने से रोकने की सरकारी कोशिशें विफल हुईं और किसान आंसू गैस-पानी की बौछारों-लाठियों का बहादुरी से मुकाबला करते हुए दिल्ली पहुंचने में सफल हो चुके हैं। उन्होंने दिल्ली की सीमाओं पर डेरा डाल दिया है और वे निर्णायक संघर्ष के मूड में दिखलायी पड़ रहे हैं।
    मोदी सरकार द्वारा पारित तीनों कृषि कानून बड़े पूंजीपतियों की लूट के लिए कृषि क्षेत्र को खोलने का काम करते हैं। ये कानून उदारीकरण-वैश्वीकरण-निजीकरण की प्रक्रिया का ही कृषि क्षेत्र में परिणाम हैं। कृषि उत्पादों की जमाखोरी की छूट, किसानों के ठेका खेती करने सम्बन्धी प्रावधान व मंडी-न्यूनतम समर्थन मूल्य खत्म करने की कवायद ये सभी कदम किसानों को मिले नाम मात्र के सरकारी संरक्षण से भी सरकार द्वारा कदम पीछे खींचना है। यह किसानों को अम्बानी-अदाणी से प्रतियोगिता-कारोबार के लिए खुले बाजार में उतार देना है। जाहिर है इस सबका परिणाम छोटे-मझोले किसानों की बड़े पैमाने पर तबाही-बर्बादी के रूप में ही सामने आना है। यहां तक कि पंजाब-हरियाणा के बड़े किसान भी इन कानूनों से आशंकित हैं इसलिए भी वे संघर्ष के मैदान में उतरे हैं। हालांकि इनकी मुख्य मांग न्यूनतम समर्थन मूल्य के रूप में ही ध्वनित हो रही है, वे किसी भी तरह इसकी गारण्टी चाहते हैं। 
   जहां तक न्यूनतम समर्थन मूल्य का प्रश्न है तो भारत सरकार की नीति चोर दरवाजे से इससे पल्ला झाड़ने की रही है। यही स्थिति सरकारी मंडियों को खत्म करने व सरकारी खरीद कम करने के बारे में भी रही है। इसी का परिणाम यह हुआ है कि पंजाब-हरियाणा को छोड़ ज्यादातर जगहों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित होने के बावजूद उस पर खरीद काफी हद तक पहले ही ध्वस्त हो चुकी है। ढेरों दफा तो भुगतान में काफी वक्त लगने के चलते भी किसान बाजार में उपज बेचने को मजबूर होते रहे हैं। मंडियों की संख्या इतनी कम रही है कि ज्यादातर धनी किसान ही वहां तक पहुंचते रहे हैं। इस तरह न्यूनतम समर्थन मूल्य व सरकारी मंडियों-खरीद केन्द्रों का ज्यादातर लाभ धनी किसानों के हिस्से ही आता रहा है। छोटे-मझोले किसान अक्सर अपनी उपज औने-पौने दामों में बेचने को मजबूर होते रहे हैं। फिर भी न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ने व सरकारी खरीद होने से जिस हद तक बाजार भाव प्रभावित होता है उस हद तक इसका प्रकारान्तर से लाभ छोटे-मझोले किसानों को भी होता है।
    उदारीकरण-वैश्वीकरण के बीते 3-4 दशकों में सरकार द्वारा कृषि क्षेत्र की आगतों में सब्सिडी खत्म करने के साथ बिक्री को भी बाजार के हवाले करने की नीति की ओर क्रमशः बढ़ा जाता रहा है। अब इसे एक झटके से अंतिम मुकाम तक पहुंचा दिया गया है। ऐसे में किसानों को अपनी तबाही की गति तेज होती दिख रही है और वे संघर्ष के मैदान में उतर आये हैं।
    वैसे जब ये 3 कानून नहीं थे, जब सरकारी खरीद कुछ हद तक ठीक-ठाक स्थिति में थी तब भी छोटे-मझोले किसान तबाह ही हो रहे थे। पूंजीवादी व्यवस्था में इससे अलग और कुछ सम्भव भी नहीं है यहां छोटी पूंजी-छोटे कारोबार के मालिक बड़ी पूंजी के आगे तबाह होने को अभिशप्त हैं। उनकी तबाही को कुछ संरक्षणवादी कदमों से मद्धिम तो किया जा सकता है पर पूर्णतया रोका नहीं जा सकता। 
      ऐसे वक्त में मौजूदा संघर्ष में सक्रिय छोटे-मझोले किसानों की बड़ी संख्या को यह समझना होगा कि उसका भला महज न्यूनतम समर्थन मूल्य हासिल हो जाने से कुछ खास नहीं होने वाला। कि उसकी गिरती स्थिति में कुछ राहत उदारीकरण-वैश्वीकरण-निजीकरण की नीतियों को पलटकर ही हासिल हो सकती है। कि उनको बड़ी पूंजी से मुकम्मल सुरक्षा तो पूंजीवाद खत्म कर कायम होने वाली समाजवादी व्यवस्था में ही हासिल हो सकती है। पूंजीवादी व्यवस्था में उनकी तबाही को रोका नहीं जा सकता है।  
      ऐसे में मौजूदा वक्त में  किसानों के इस संघर्ष के साथ खड़े होते हुए उसमें छोटे-मझोले किसानों की मांगों को उठाया जाना चाहिए। कहा जाना चाहिए कि तीनों कृषि कानून किसान विरोधी हैं अतः वापस होने चाहिए। पर साथ ही सरकार को छोटे-मझोले किसान हेतु सब्सिडी, उचित मूल्य पर खरीद का इंतजाम करना चाहिए। किसानों के साथ कंधे से कंधा मिला संघर्ष करते हुए उन्हें समझाया जाना चाहिए कि उन्हें अपने संघर्ष के निशाने पर उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों के साथ मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था को लेना चाहिए। एक बेहतर जीवन उन्हें समाजवाद ही दे सकता है। पूंजीवाद तो उन्हें बढ़ती आत्महत्यायें ही दे सकता है।

मौकापरस्त गठबन्धन अर्थात महागठबंधन बनाम हिन्दू फासीवादी गठबंधन




 

मौकापरस्त गठबन्धन अर्थात महागठबंधन बनाम हिन्दू फासीवादी गठबंधन





       बिहार में विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया चल रही है। तीन चरणों के चुनाव निपटते ही 10 नवंबर को चुनावी नतीजे भी घोषित हो जाएंगे। जीत के लिए असल चुनावी संघर्ष महागठबंधन और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के बीच है। महागठबंधन में तीनों संसदीय वाम दल यानी सी पी आई, सी पी आई (एम एल) लिबरेशन व सी पी एम भी शामिल हैं व इसके मुख्य घटक हैं लालू यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल तथा कांग्रेस। पिछले विधानसभा चुनाव में साम्प्रदायिक ताकतों को हराने के नाम पर नीतीश की पार्टी जनता दल यूनाटेड भी महागठबंधन की हिस्सेदार थी।
 .    नीतीश व उनकी जदयू इस बार हिन्दू फासीवादी पार्टी के द्वारा बने गठबंधन एन डी ए में शामिल है। एन डी ए में  इस बार भाजपा, जद यू के अलावा हिन्दुस्तानी अवामी मोर्चा शामिल है। इस बार लोक जनशक्ति पार्टी इससे बाहर है। यह मोदी के साथ होने मगर नीतीश को बाहर करने के नारे के साथ मैदान में है।
    इस बार आर एल एस पी (कुशवाहा) बसपा के साथ तीसरे मोर्चे (ग्रांड डेमोक्रेटिक सेक्युलर फ्रंट) के नाम से चुनावी मैदान में है। इसके अलावा और भी छोटी-छोटी पार्टियां हैं जिन्हें कहीं भी सीटों के बंटवारे में अपने हिसाब से भाव नहीं मिला या पार्टी को तवज्जो नहीं मिली। ये पूंजीवादी पार्टियां अकेले या फिर कोई अन्य मोर्चा बनाकर चुनाव के मैदान में हैं।
     असल सवाल यह है कि जनता के लिए इस चुनाव में क्या है? कुछ भी नहीं। क्या हिन्दू फासीवादियों को यह चुनाव कमजोर करेगा? कतई नहीं। 
     संसदीय वाम दलों का अवसरवाद आज स्प्ष्ट है। ये साम्प्रदायिक दंगों, साम्प्रदायिक पार्टी भाजपा को रोकने के नाम पर कभी किसी के साथ तो कभी किसी के साथ गठबंधन बनाते रहे हैं। जिस महागठबंधन में ये शामिल हैं उसके नीतीश कुमार व उनकी जदयू 2015 में कुछ वक्त गुजरने के बाद भाजपा के साथ गठबंधन करके मुख्यमंत्री बन गए।
    अवसरवादी नीतीश कुमार व उनकी जे डी यू जो इस बार सत्ता में हैं। उनसे बहुत सी उम्मीद खुद को ‘सेक्युलर’ व खुद को ‘वाम’ मानने वाले लोगों के बीच पिछली बार भी थी। ठीक वैसी ही जैसी कभी इन लोगों ने आम आदमी पार्टी व अन्ना हज़ारे के फासीवादी आंदोलन से उम्मीद की थी, मगर इसके फासीवादी चरित्र को कभी इनके द्वारा स्वीकार नहीं किया गया। 
      खैर! अब ये एक बार फिर महागठबंधन से भारी उम्मीद लगाए हुए हैं। जैसे महागठबंधन की जीत हिन्दू फासीवादी ताकतों को रोक देगी। महागठबंधन में ‘संसदीय वाम’ भी हैं इसलिए इनकी उम्मीद बहुत ज्यादा है। संसदीय वाम की ऐसी दुर्गति हो चुकी है कि इन्हें तेजस्वी यादव के कंधे पर सवार होना पड़ रहा है। संसदीय वाम वैसे भी एक दौर में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार बनाने में हिन्दू फासीवादी पार्टी के साथ सहयोग की अद्भुत भूमिका निभा चुके हैं।
     आज के दौर में हिन्दू फासीवादियों का सत्ता में आने का निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों से गहरा नाता है। आज के पूंजीवादी संकट से गहरा नाता है। एकाधिकारी कारपोरेट पूंजी के मालिक खुल कर हिन्दू फासीवादी ताकतों के साथ खड़े हैं। ये इन नई आर्थिक नीतियों को धड़ल्ले से आगे बढ़ा चुके हैं। महागठबंधन भी इन्हीं नीतियों को आगे बढ़ाने वाला है बस गति और तरीके का अंतर है। लेकिन इसके बावजूद कई लोग ऐसे हैं जो इससे बेहतरी की उम्मीद लगाये हुए हैं।
      आज स्पष्ट है कि ‘फेंकने’ या ‘झूठे वायदों’ की कला में सब माहिर हो चुके हैं या मोदी-शाह की जोड़ी ने यह कला यानी ‘जुमलेबाजी’ अन्य सभी को भी कायदे से सिखा दी है। 
      मौजूदा वक्त में जब भयानक बेरोजगारी है, निराशा है, तब ऐसे में रोजगार का वायदा लुभाने वाला ही है इसीलिये महागठबंधन के प्रमुख तेजस्वी के जीतने के तत्काल बाद 10 लाख नौकरी देने के वायदे पर विरोधियों का भड़कना स्वाभाविक है हालांकि एन डी ए या मोदी-शाह ही यह बेशर्मी कर सकते थे कि सत्ता में होने के दौरान रोजगार खा जाने के बावजूद 19 लाख रोजगार देने का वायदा करें। यही नहीं मोदी सरकार ने बिहार में हर किसी के लिए उस कोरोना वैक्सीन के निःशुल्क उपलब्ध कराने का फर्जी वायदा कर दिया जिसका अभी दूर-दूर तक अता-पता भी नहीं हैं। 
     सुरक्षित रोजगार उपलब्ध कराने का तथा सस्ता इलाज देने का जहां तक सवाल है इस ओर बिना निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों को रद्द किए कुछ भी करना सम्भव नहीं है। क्या महागठबंधन इन नीतियों के खिलाफ है? नहीं। क्या महागठबंधन में शामिल पार्टियां इन नीतियों की मुखर विरोधी हैं? नहीं। महागठबंधन ‘भानुमति का पिटारा’ है, अवसरवादी गठबंधन है। यह न तो हिन्दू फासीवाद का धुर विरोधी है ना ही निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों का। इसका भविष्य चुनाव जीतने पर भी क्या होगा? इन तथ्यों से आसानी से समझ में आ सकता है।
     जहां तक जनता का सवाल है उसे फिर से छल-कपट के सिवा कुछ हासिल नहीं होना है। अंततः यही कहना सही होगा कि जीते चाहे कोई भी जनता की तो फिलहाल हार ही होनी है।

चुनाव की आड़ में बिहार में नागरिकता परीक्षण (एन आर सी)

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