Friday, 6 March 2020

"घुसपैठिया" व "शरणार्थी" बनाये जाने की साजिश

   "घुसपैठिया" व "शरणार्थी" बनाये जाने की साजिश

     जब से मोदी सरकार ने नागरिकता कानून में संशोधन किया तथा एन आर सी व एन पी आर की ओर कदम बढ़ाए तब से देश भर में इसके खिलाफ संघर्ष हो रहे हैं। इन संघर्षों को खत्म करने के लिए भाजपा सरकार ने हर तरह के घृणित काम किये हैं। दिल्ली की मौजूदा हालत मोदी सरकार की घृणित साजिश का ही नतीजा है।  जहां 45 से ज्यादा हिन्दू-मुस्लिम मार दिए गए हैं, कई घायल हैं।  जबकि इससे पहले सीएए, एनआरसी व एनपीआर विरोधी संघर्ष में असम व फिर यू पी में 25-30 लोग मारे गए हैं। सैकड़ों लोग घायल हुए हैं, हज़ारों लोगों पर संगीन मुकदमे दर्ज कर दिए हैं, हज़ारों लोग गिरफ्तार किए गये हैं।
      क्या सरकार द्वारा बनाये गए किसी कानून का विरोध करना 'देश का विरोध' करना होता है? जैसा कि मोदी सरकार व भाजपा के नेता कह व कर रहे हैं। क्या इन 70 सालों में इससे पहले सरकार के विरोध में सड़कों पर प्रदर्शन नहीं हुए थे ? हुए थे। क्या खुद भाजपा, मोदी-शाह ने कांग्रेस सरकार के खिलाफ प्रदर्शन नहीं किये थे? किये थे। क्या भाजपा, मोदी-शाह के कांग्रेस सरकार के खिलाफ किये गए प्रदर्शन से 'देश का विरोध' होता था? नहीं होता था। तब फिर आज मोदी सरकार के बनाये गए कानून का विरोध करना 'देश का विरोध' करना कैसे हो गया? क्या 'भाजपा, मोदी-शाह व संघ' ही 'देश' हैं?
        कोई कह सकता है कि नागरिकता संशोधन कानून से क्या दिक्कत है? यह तो नागरिकता देने का कानून है दरअसल यही सरकार व उसके मंत्री भी कह रहे हैं। बात यह है कि इसमें आधा सच है आधा झूठ। हकीकत यह है कि यह कानून अपनी 'मनमर्जी के धर्म' के कथित "अवैध प्रवासियों" को नागरिकता के लिए चुनता है, 'मनमर्जी के देश' चुनता है, तीन देशों के छः धर्म के "अवैध प्रवासियों" को नागरिकता के लिए चुनता है। अन्य धर्म के लोगों व अन्य देशों को छोड़ देता है यानी यहां नागरिकता नहीं देता है।  यह कानून कहता है कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान व बांग्लादेश से वे हिंदू, सिख , जैन, पारसी, इसाई व बौद्ध धर्म के लोग (अवैध प्रवासी) जो 31 दिसंबर 2014 से पहले भारत आ चुके हैं उन्हें भारत में नागरिकता दी जाएगी।
       कोई भी देख सकता है कि यह कानून कथित 'अवैध प्रवासियों' को धार्मिक आधार पर नागरिकता देने का प्रावधान करता है। यह देश के पूंजीवादी संविधान की धर्मनिरपेक्षता पर हमला है। यह 'बांटो, ध्यान भटकाओ और राज करो' की नीति के सिवाय और कुछ भी नहीं है। यह विदेशों में नौकरी कर रहे लाखों भारतीयों के जीवन को भी खतरे में डालता है।
      कोई कह सकता है कि इससे हमें क्या फर्क पड़ता है? इस कानून का, देश के भीतर रह रहे नागरिकों, चाहे वे हिन्दू हों या मुस्लिम, या फिर कोई और, उनसे कोई लेना-देना नहीं है। यही तर्क मोदी सरकार के हैं।
      हकीकत इसके उल्टा है। देश में कथित "घुसपैठिये" या "अवैध प्रवासी" है या नहीं, या हैं तो कितने हैं? इसकी पड़ताल कैसे होती है? दरअसल एन आर सी  के जरिये ही यह काम करने का दावा सरकार करती है। एन आर सी क्या है? यह देश के नागरिकों का रजिस्टर है। देश में एन आर सी 1951 में बनी थी। 1951 की जनगणना के जरिये ही एन आर सी बन गयी। तब संविधान के लागू होने के साथ ही आम तौर पर भारत में रह रहे हर व्यक्ति को नागरिक माना गया था।
        पहला नागरिकता कानून 1955 में बना। इसमें 'अवैध प्रवासियों' को नागरिकता देने का प्रावधान नहीं था। 'अवैध प्रवासी' सरकार के हिसाब से वे 'विदेशी' थे जो भारत में बिना दस्तावेज के या फर्जी दस्तावेज या दस्तावेज (वीजा) की अवधि समाप्त होने के बावजूद रह रहे हों। इन 'अवैध प्रवासियों' को 'विदेशी कानून-1948' तथा 'पासपोर्ट कानून-1920' के हिसाब से चिन्हित कर निर्वासित किये जाने का प्रावधान था।
        पड़ोसी मुल्क के वे लोग जो आपदा, युद्ध, हिंसा या उत्पीड़न के शिकार थे, चाहे वह किसी भी धर्म के हों, भारत में उन्हें शरण दी गई, इन्हें 'शरणार्थी' कहा जाता है। यूगांडा, श्रीलंका, पाकिस्तान, तिब्बत, वर्मा व बांग्लादेश आदि के उत्पीड़ित लोगों को भारत में शरण दी गई। इनमें से कुछ को नागरिकता भी दी गई। मगर इसमें धार्मिक आधार पर भेदभाव नहीं था।
       कोई कह सकता है कि एन पी आर का विरोध क्यों, ये तो 'जनसंख्या रजिस्टर' है ? या यह कि जब 2010 में कांग्रेस ने लागू किया, तब विरोध क्यों नहीं किया, आज भाजपा लागू कर रही हैं तो इसका विरोध क्यों?
       यहां भी कुतर्क कर असल बात पर पर्दा डाला जा रहा है। हकीकत यह है कि 2003 में बाजपेयी की अगुवाई वाली भाजपा सरकार ने भी 'नागरिकता कानून' में संशोधन किया था। इसमें राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर( एनपीआर) का प्रावधान किया। इसमें दर्ज है कि एन पी आर, एन आर सी की दिशा में पहला कदम है। एनपीआर के जरिये लगभग 21  निजी जानकारियां लोगों से पूछी जाएंगी, इस आधार पर एनआर सी तैयार होगी , राष्ट्रीय पहचान पत्र जारी किया जाएगा तथा किसी भी व्यक्ति द्वारा दी गई जानकारी पर संदेह होने पर उससे नागरिकता के दस्तावेज मांगे जाएंगे।
     साफ है कि एनपीआर ही एनआरसी भी है। एनपीआर के जरिये व्यक्ति को 'संदिग्ध नागरिकता' की श्रेणी में डाला जायेगा। फिर उससे नागरिकता के सबूत मांगे जाएंगे।  मामला फिर 'विदेशी ट्रिब्यूनल' में जायेगा। यहां भी नागरिकता साबित नहीं होने पर व्यक्ति "घुसपैठिया" या "शरणार्थी" कहलायेगा। यदि मुस्लिम है तो "घुसपैठिया",  हिन्दू या अन्य धर्म के हैं तो " शरणार्थी" । इस प्रकार अपने ही देश में करोड़ों लोग 'घुसपैठिया' व 'शरणार्थी' बना दिये जायेंगे। कथित 'घुसपैठिये' डिटेंशन केंद्र (एक प्रकार की जेल) में बंद कर दिए जाएंगे। जबकि कथित "शरणार्थी" इस सरकार के रहमों करम पर होंगे।
       याद रखिये! इस कथित "घुसपैठिया" या "शरणार्थी" की सूची में कोई अम्बानी, अडाणी, टाटा, बिड़ला जैसा पूंजीपति नहीं होगा; मोदी, शाह, भागवत, मनमोहन,अखिलेश, केजरीवाल, सोनिया आदि आदि जैसे लोग नहीं होंगे। ये हुक्मरां हैं, शासक हैं। 
     इस कथित "घुसपैठिया" या "शरणार्थी" की सूची में देश के मजदूर-मेहनतकश इंसान होंगे, इस देश के आम नागरिक होंगे। जो हर धर्म के होंगे, हर जाति के होंगे। तब एक नागरिक के रूप में हासिल अधिकार मसलन संपत्ति अर्जित करने, शिक्षा-स्वास्थ्य-रोज़गार के अधिकार, वोट देने, विरोध प्रदर्शन करने, असहमति जताने जैसे सभी अधिकार छिन जाएंगे।
      आज एनपीआर-एनआरसी व सीएए का विरोध इसलिए है कि असम के दुखदायी, यंत्रणादायी व भयानक डरावने अनुभव सामने हैं। तब ये मामले सामने नहीं थे। असम में 'दस्तावेज' होने के बावजूद लोग मामूली गलतियों से नागरिकता सूची से बाहर हो गए। जबकि गरीब मज़दूरों, अनपढ़ लोगों, महिलाओं के पास दस्तावेज ही नहीं थे। कई लोगों ने नाम, जाति, धर्म बदल लिए थे उनके लिए भी नागरिकता का सबूत जुटाना नामुमकिन था। कइयों के पास दस्तावेज जुटाने के लिए पैसे ही नहीं थे। अन्तत: 19 लाख लोग नागरिकता सूची से बाहर हो गए। कई लोगों की सदमे में मौत हो गई जबकि 29 लोग (हिन्दू-मुस्लिम) डिटेंशन केंद्र में मर चुके हैं।
     नागरिकता का मापदंड क्या होगा? आधार, पेन कार्ड, वोटर कार्ड, पासपोर्ट, राशनकार्ड से क्या नागरिकता साबित होती हैं? नहीं। अभी भी यह अस्पष्ट है। असम में एक व्यक्ति द्वारा 16 दस्तावेज नागरिकता साबित करने हेतु जमा किये गए जिसमें 1966 के भी दस्तावेज थे मगर 'विदेशी ट्रिब्यूनल' व असम हाईकोर्ट ने इनको मानने से इंकार कर दिया। सरकार ने इस विषय पर जानबूझकर चुप्पी साधी हुई है।
       एन पी आर का जनगणना से कोई लेना-देना नहीं है। जनगणना 'जनगणना कानून-1948' के तहत हर 10 साल में होती है इसमें आर्थिक-सामाजिक स्थिति से संबंधित सवाल पूछे जाते हैं।
      ऐसे वक्त में जब जनता को भारी राहत की जरूरत थी। बढ़ती महंगाई, लाखों मज़दूरों की छंटनी, कर्मचारियों पर छंटनी की लटकती तलवार, भारी बेरोजगारी, छोटे कारोबारियों-दुकानदारों की खस्ता हालत, महिलाओं के खिलाफ बढ़ती यौन हिंसा! इन सबसे जनता त्रस्त थी। छात्र, किसान,कर्मचारी, मज़दूर, महिलाएं-आदिवासी सभी संघर्ष के मैदान में थे। सब राहत चाह रहे थे। तब यह कानून लाया गया। एनपीआर व एनआरसी के विरोध के बावजूद सरकार पीछे हटने को तैयार नहीं है।
      तब फिर सवाल है कि मोदी सरकार इस "काले कानून व प्रावधान" यानी 'सीएए एनपीआर एनआरसी" को लागू कराने को दृढ़ क्यों है? दरअसल आज बड़ी-बड़ी पूंजी के मालिक जनता पर अपनी मनमर्जी थोप देना चाहते हैं। अपने मुनाफे को किसी भी कीमत बढ़ाते जाना चाहते हैं। इसलिये जनता को पूरी तरह निचोड़ देने को ये बेचैन हैं। मगर ये डरते हैं। जानते हैं कि यह भयानक लूट-खसोट जनता के गुस्से को देशव्यापी संघर्षों में बदल सकता है।  इसलिए एक वक्त बाद इन्होंने कांग्रेस को पीछे कर दिया। मोदी-शाह व भाजपा संघ को आगे कर दिया। अपनी मीडिया व पैसे के चमत्कार से इन्हें सत्ता तक पहुंचा दिया। अब इनकी तैयारी खुल कर खेलने की है। यहां यही "देश" हैं यही "राष्ट्र" है 'राष्ट्रवाद',  'देशभक्ति' भी इन्हीं से है। मोदी-शाह के हिन्दू फासीवादी एजेन्डा इन्हीं के लिए है। इनके जरिये शासक खौफ व दहशत कायम कर देना चाहते हैं। विरोध को कुचल देना चाहते हैं। आतंकी तानाशाही कायम कर देना चाहते हैं। इसके निशाने पर  मज़दूर मेहनतश जनता है आम नागरिक हैं। इस काले कानून के जरिये यह इसी साजिश को आगे बढ़ा रहे हैं।
      इसीलिए जरूरत है कि  मज़दूर मेहनतकश जनता को 'घुसपैठिया' 'शरणार्थी' बनाये जाने की साजिश का विरोध किया जाय। यही नहीं पूंजी के मालिकों व इनकी सरकार के हर फासीवादी एजेन्डे का पुरजोर विरोध किया जाय।

8 मार्च: अंतराष्ट्रीय महिला दिवस ज़िंदाबाद

       8 मार्च: अंतराष्ट्रीय महिला दिवस ज़िंदाबाद
 आज से लगभग 110 साल पहले, 1910 से 8 मार्च 'कामगार महिलाओं' के लिए बराबरी के अधिकार व संघर्ष का प्रतीक बन गया। 1917 में रूस में समाजवादी क्रांति हुई तो महिलाओं को वोट देने का अधिकार मिला। समाजवादी रूस में महिलाओं को शिक्षा, नौकरी  से लेकर हर जगह बराबरी के अधिकार हासिल हुए।
 
    आज हालात क्या हैं? हमारे समाज में आम महिलाओं की क्या स्थिति है? कामकाजी महिलाओं की क्या स्थिति है? आम महिलाओं के खिलाफ अपराधों की क्या स्थिति है?
    कोई भी आसानी से कह सकता है कि आम महिलाओं की, कामकाजी महिलाओं की स्थिति कुछ मायने में पहले से बेहतर हुई है तो कई मायनों में स्थिति खराब भी हुई है। यह आज पूरी दुनिया के लिए सच है।
      आज के दौर में आम महिलाओं के लिए सबसे बड़ा मुद्दा 'असुरक्षा' का है। रातें तो पहले ही महिलाओं के लिए खतरनाक मानी जाती थी, एक अघोषित 'कर्फ्यू' रात में महिलाओं पर लागू हो जाता था। मगर अब दिन भी खतरनाक हो गए हैं। महिलाएं घर की चारदीवारी के भीतर भी असुरक्षित हैं तथा बाहर भी। बात इतनी ही नहीं है, स्त्री चाहे वह बच्ची हो या 70-80 साल की, कोई भी सुरक्षित नहीं है।
यही नहीं, आज समाज में बढ़ती बेरोजगारी की एक वजह 'कामकाजी महिलाओं' को भी बताया जाता है। जबकि महिलाओं की बराबरी, समानता के अधिकार के लिए बेहद जरूरी है कि महिलाओं की 'सामाजिक उत्पादन' में भागीदारी अवश्य बने यानी वह नौकरी करें या रोज़गार करें आत्मनिर्भर बनें ।
      महिलाओं को दोयम दर्जे का मानने वाली सोच, आज भी बनी हुई है। एक तरफ सदियों पुरानी पुरुषप्रधान सोच कि महिला पैर की जूती है, महिलाएं पुरुषों के लिए हैं आज भी बनी हुई है। तो दूसरी तरफ आज इंटरनेट व फ़िल्म इंडस्ट्री ने महिलाओं को 'खाने-पीने व मौज की वस्तु' यानी 'यौन वस्तु' में बदल दिया है। ये दोनों सोच  मिलकर एक ऐसे 'खतरनाक पुरुष' को तैयार कर रही है जो उन्नाव, कठुवा, हैदराबाद, आगरा व पौड़ी जैसी घटनाओं को अंजाम देते हैं।
      लेकिन यही स्थिति शासक वर्ग की महिलाओं की नहीं है यानी सोनिया गांधी, निर्मला सीतारमण, मेनका गांधी, मायावती, ममता बनर्जी आदि की नहीं है। क्योंकि ये शासक हैं। आम महिलाएं, कामकाजी महिलाएं जो मेहनतकश जनता का हिस्सा हैं उन्हीं की यह स्थिति बनती हैं।
      आज देश में जब से नागरिकता संशोधन कानून आया है तथा देश में हर जगह एन पी आर होनी है तब ऐसे में भी सबसे ज्यादा खतरे की तलवार भी महिलाओं पर ही लटकी हुई है। आम तौर पर अधिकांश महिलाओं के पास ही दस्तावेज नहीं मिलेंगे जिससे साबित होता हो कि वह देश की नागरिक हैं। असम में यही स्थिति बनी थी।
      अभी दिल्ली में 'दंगे' प्रायोजित किये गए। इस प्रायोजित दंगे में सबसे ज्यादा किसे झेलना पड़ा? महिलाओं को ही। महिलाओं के साथ यौन हिंसा की गई। ऐसा हर दंगों में होता है, ऐसा हर संघर्षों में होता है कि निशाने पर महिलाएं ही होती हैं। अलग उत्तराखंड के लिए जब संघर्ष हुआ था तब 'रामपुर तिराह कांड' हुआ था जहां दिल्ली प्रदर्शन के लिए जा रही बसों को रोककर उत्तराखंड की महिलाओं के साथ यू.पी. पुलिस ने जमकर यौन हिंसा की थी, बलात्कार किये थे। सब जानते हैं कि यह सब सरकार के इशारे पर ही होता है। चाहे सरकार किसी की पार्टी हो।
      समाज में होने वाला हर अन्याय, हर उत्पीड़न आम तौर पर महिलाओं की स्थिति को कमजोर करता है उन्हें पीछे धकेलता है। इसी की उल्टी बात भी सच है कि महिलाओं के खिलाफ होने वाला हर अन्याय, हर हिंसा पूरे समाज को भी पीछे धकेल देती है।
     इसीलिये जरूरी है कि बराबरी, भाईचारे तथा अन्याय-उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष में मेहनतकश महिलाएं व मेहनतकश पुरुष मिलजुलकर, एकजुट होकर संघर्ष करें।
      आज देश में स्थिति बेहद गंभीर है। अर्थव्यवस्था भीषण संकट में है, बेरोजगारी 45 सालों में सबसे ज्यादा है। बैंक डूब रहे हैं इसी के साथ इनमें जनता की मेहनत की कमाई भी डूब रही हैं। कारोबारियों-दूकानदारों की स्थिति बहुत खराब है। लाखों की संख्या में मज़दूरों की नौकरियों से छंटनी हो चुकी है। अन्ततः इस सबका बुरा असर भी आम महिलाओं पर ही पड़ना है। दूसरी ओर इस संकट में भी देश के शीर्ष पूंजीपति अम्बानी,अडाणी, टाटा जैसे लोग मालामाल हो रहे हैं वहीं भाजपा सबसे अमीर पार्टी बन चुकी है।
ये शीर्ष पूंजीपति मोदी-शाह की अगुवाई में हिन्दू फासीवादी राजनीति के जरिये जनता के हर संघर्ष को कुचल रहे है। यही नहीं, इनके राज में महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा व बलात्कार करने वाले चिन्मयानन्द, कुलदीप सेंगर, नित्यानंद जैसे लोगों को खुलकर बचाने का काम भी हो रहा है।
      सही मायने में इनका 'हिन्दू राष्ट्र' महिलाओं को गुलामी की स्थिति में धकेलने वाला है। आज यह खतरा काफी बढ़ चुका है इसलिए आज आम  जरूरी है कि एकजुट होकर अपने अधिकारों के लिए संघर्ष किया जाय। यह भी जरूरी है कि जिस पूंजी ने, पूंजीवाद ने पूरे समाज को अपनी जकड़न में ले लिया है और समाज को अब भाजपा की फासीवादी राजनीति के जरिये बर्बरता की तरफ धकेल दिया है उस पूंजी पर काबू पाने के संघर्ष को तेज़ किया जाय, पूंजीवाद को खत्म कर समाजवादी समाज कायम करने की ओर बढ़ा जया।

चुनाव की आड़ में बिहार में नागरिकता परीक्षण (एन आर सी)

      चुनाव की आड़ में बिहार में नागरिकता परीक्षण (एन आर सी)       बिहार चुनाव में मोदी सरकार अपने फासीवादी एजेंडे को चुनाव आयोग के जरिए आगे...