"घुसपैठिया" व "शरणार्थी" बनाये जाने की साजिश
जब से मोदी सरकार ने नागरिकता कानून में संशोधन किया तथा एन आर सी व एन पी आर की ओर कदम बढ़ाए तब से देश भर में इसके खिलाफ संघर्ष हो रहे हैं। इन संघर्षों को खत्म करने के लिए भाजपा सरकार ने हर तरह के घृणित काम किये हैं। दिल्ली की मौजूदा हालत मोदी सरकार की घृणित साजिश का ही नतीजा है। जहां 45 से ज्यादा हिन्दू-मुस्लिम मार दिए गए हैं, कई घायल हैं। जबकि इससे पहले सीएए, एनआरसी व एनपीआर विरोधी संघर्ष में असम व फिर यू पी में 25-30 लोग मारे गए हैं। सैकड़ों लोग घायल हुए हैं, हज़ारों लोगों पर संगीन मुकदमे दर्ज कर दिए हैं, हज़ारों लोग गिरफ्तार किए गये हैं।
क्या सरकार द्वारा बनाये गए किसी कानून का विरोध करना 'देश का विरोध' करना होता है? जैसा कि मोदी सरकार व भाजपा के नेता कह व कर रहे हैं। क्या इन 70 सालों में इससे पहले सरकार के विरोध में सड़कों पर प्रदर्शन नहीं हुए थे ? हुए थे। क्या खुद भाजपा, मोदी-शाह ने कांग्रेस सरकार के खिलाफ प्रदर्शन नहीं किये थे? किये थे। क्या भाजपा, मोदी-शाह के कांग्रेस सरकार के खिलाफ किये गए प्रदर्शन से 'देश का विरोध' होता था? नहीं होता था। तब फिर आज मोदी सरकार के बनाये गए कानून का विरोध करना 'देश का विरोध' करना कैसे हो गया? क्या 'भाजपा, मोदी-शाह व संघ' ही 'देश' हैं?
कोई कह सकता है कि नागरिकता संशोधन कानून से क्या दिक्कत है? यह तो नागरिकता देने का कानून है दरअसल यही सरकार व उसके मंत्री भी कह रहे हैं। बात यह है कि इसमें आधा सच है आधा झूठ। हकीकत यह है कि यह कानून अपनी 'मनमर्जी के धर्म' के कथित "अवैध प्रवासियों" को नागरिकता के लिए चुनता है, 'मनमर्जी के देश' चुनता है, तीन देशों के छः धर्म के "अवैध प्रवासियों" को नागरिकता के लिए चुनता है। अन्य धर्म के लोगों व अन्य देशों को छोड़ देता है यानी यहां नागरिकता नहीं देता है। यह कानून कहता है कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान व बांग्लादेश से वे हिंदू, सिख , जैन, पारसी, इसाई व बौद्ध धर्म के लोग (अवैध प्रवासी) जो 31 दिसंबर 2014 से पहले भारत आ चुके हैं उन्हें भारत में नागरिकता दी जाएगी।
कोई भी देख सकता है कि यह कानून कथित 'अवैध प्रवासियों' को धार्मिक आधार पर नागरिकता देने का प्रावधान करता है। यह देश के पूंजीवादी संविधान की धर्मनिरपेक्षता पर हमला है। यह 'बांटो, ध्यान भटकाओ और राज करो' की नीति के सिवाय और कुछ भी नहीं है। यह विदेशों में नौकरी कर रहे लाखों भारतीयों के जीवन को भी खतरे में डालता है।
कोई कह सकता है कि इससे हमें क्या फर्क पड़ता है? इस कानून का, देश के भीतर रह रहे नागरिकों, चाहे वे हिन्दू हों या मुस्लिम, या फिर कोई और, उनसे कोई लेना-देना नहीं है। यही तर्क मोदी सरकार के हैं।
हकीकत इसके उल्टा है। देश में कथित "घुसपैठिये" या "अवैध प्रवासी" है या नहीं, या हैं तो कितने हैं? इसकी पड़ताल कैसे होती है? दरअसल एन आर सी के जरिये ही यह काम करने का दावा सरकार करती है। एन आर सी क्या है? यह देश के नागरिकों का रजिस्टर है। देश में एन आर सी 1951 में बनी थी। 1951 की जनगणना के जरिये ही एन आर सी बन गयी। तब संविधान के लागू होने के साथ ही आम तौर पर भारत में रह रहे हर व्यक्ति को नागरिक माना गया था।
पहला नागरिकता कानून 1955 में बना। इसमें 'अवैध प्रवासियों' को नागरिकता देने का प्रावधान नहीं था। 'अवैध प्रवासी' सरकार के हिसाब से वे 'विदेशी' थे जो भारत में बिना दस्तावेज के या फर्जी दस्तावेज या दस्तावेज (वीजा) की अवधि समाप्त होने के बावजूद रह रहे हों। इन 'अवैध प्रवासियों' को 'विदेशी कानून-1948' तथा 'पासपोर्ट कानून-1920' के हिसाब से चिन्हित कर निर्वासित किये जाने का प्रावधान था।
पड़ोसी मुल्क के वे लोग जो आपदा, युद्ध, हिंसा या उत्पीड़न के शिकार थे, चाहे वह किसी भी धर्म के हों, भारत में उन्हें शरण दी गई, इन्हें 'शरणार्थी' कहा जाता है। यूगांडा, श्रीलंका, पाकिस्तान, तिब्बत, वर्मा व बांग्लादेश आदि के उत्पीड़ित लोगों को भारत में शरण दी गई। इनमें से कुछ को नागरिकता भी दी गई। मगर इसमें धार्मिक आधार पर भेदभाव नहीं था।
कोई कह सकता है कि एन पी आर का विरोध क्यों, ये तो 'जनसंख्या रजिस्टर' है ? या यह कि जब 2010 में कांग्रेस ने लागू किया, तब विरोध क्यों नहीं किया, आज भाजपा लागू कर रही हैं तो इसका विरोध क्यों?
यहां भी कुतर्क कर असल बात पर पर्दा डाला जा रहा है। हकीकत यह है कि 2003 में बाजपेयी की अगुवाई वाली भाजपा सरकार ने भी 'नागरिकता कानून' में संशोधन किया था। इसमें राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर( एनपीआर) का प्रावधान किया। इसमें दर्ज है कि एन पी आर, एन आर सी की दिशा में पहला कदम है। एनपीआर के जरिये लगभग 21 निजी जानकारियां लोगों से पूछी जाएंगी, इस आधार पर एनआर सी तैयार होगी , राष्ट्रीय पहचान पत्र जारी किया जाएगा तथा किसी भी व्यक्ति द्वारा दी गई जानकारी पर संदेह होने पर उससे नागरिकता के दस्तावेज मांगे जाएंगे।
साफ है कि एनपीआर ही एनआरसी भी है। एनपीआर के जरिये व्यक्ति को 'संदिग्ध नागरिकता' की श्रेणी में डाला जायेगा। फिर उससे नागरिकता के सबूत मांगे जाएंगे। मामला फिर 'विदेशी ट्रिब्यूनल' में जायेगा। यहां भी नागरिकता साबित नहीं होने पर व्यक्ति "घुसपैठिया" या "शरणार्थी" कहलायेगा। यदि मुस्लिम है तो "घुसपैठिया", हिन्दू या अन्य धर्म के हैं तो " शरणार्थी" । इस प्रकार अपने ही देश में करोड़ों लोग 'घुसपैठिया' व 'शरणार्थी' बना दिये जायेंगे। कथित 'घुसपैठिये' डिटेंशन केंद्र (एक प्रकार की जेल) में बंद कर दिए जाएंगे। जबकि कथित "शरणार्थी" इस सरकार के रहमों करम पर होंगे।
याद रखिये! इस कथित "घुसपैठिया" या "शरणार्थी" की सूची में कोई अम्बानी, अडाणी, टाटा, बिड़ला जैसा पूंजीपति नहीं होगा; मोदी, शाह, भागवत, मनमोहन,अखिलेश, केजरीवाल, सोनिया आदि आदि जैसे लोग नहीं होंगे। ये हुक्मरां हैं, शासक हैं।
इस कथित "घुसपैठिया" या "शरणार्थी" की सूची में देश के मजदूर-मेहनतकश इंसान होंगे, इस देश के आम नागरिक होंगे। जो हर धर्म के होंगे, हर जाति के होंगे। तब एक नागरिक के रूप में हासिल अधिकार मसलन संपत्ति अर्जित करने, शिक्षा-स्वास्थ्य-रोज़गार के अधिकार, वोट देने, विरोध प्रदर्शन करने, असहमति जताने जैसे सभी अधिकार छिन जाएंगे।
आज एनपीआर-एनआरसी व सीएए का विरोध इसलिए है कि असम के दुखदायी, यंत्रणादायी व भयानक डरावने अनुभव सामने हैं। तब ये मामले सामने नहीं थे। असम में 'दस्तावेज' होने के बावजूद लोग मामूली गलतियों से नागरिकता सूची से बाहर हो गए। जबकि गरीब मज़दूरों, अनपढ़ लोगों, महिलाओं के पास दस्तावेज ही नहीं थे। कई लोगों ने नाम, जाति, धर्म बदल लिए थे उनके लिए भी नागरिकता का सबूत जुटाना नामुमकिन था। कइयों के पास दस्तावेज जुटाने के लिए पैसे ही नहीं थे। अन्तत: 19 लाख लोग नागरिकता सूची से बाहर हो गए। कई लोगों की सदमे में मौत हो गई जबकि 29 लोग (हिन्दू-मुस्लिम) डिटेंशन केंद्र में मर चुके हैं।
नागरिकता का मापदंड क्या होगा? आधार, पेन कार्ड, वोटर कार्ड, पासपोर्ट, राशनकार्ड से क्या नागरिकता साबित होती हैं? नहीं। अभी भी यह अस्पष्ट है। असम में एक व्यक्ति द्वारा 16 दस्तावेज नागरिकता साबित करने हेतु जमा किये गए जिसमें 1966 के भी दस्तावेज थे मगर 'विदेशी ट्रिब्यूनल' व असम हाईकोर्ट ने इनको मानने से इंकार कर दिया। सरकार ने इस विषय पर जानबूझकर चुप्पी साधी हुई है।
एन पी आर का जनगणना से कोई लेना-देना नहीं है। जनगणना 'जनगणना कानून-1948' के तहत हर 10 साल में होती है इसमें आर्थिक-सामाजिक स्थिति से संबंधित सवाल पूछे जाते हैं।
ऐसे वक्त में जब जनता को भारी राहत की जरूरत थी। बढ़ती महंगाई, लाखों मज़दूरों की छंटनी, कर्मचारियों पर छंटनी की लटकती तलवार, भारी बेरोजगारी, छोटे कारोबारियों-दुकानदारों की खस्ता हालत, महिलाओं के खिलाफ बढ़ती यौन हिंसा! इन सबसे जनता त्रस्त थी। छात्र, किसान,कर्मचारी, मज़दूर, महिलाएं-आदिवासी सभी संघर्ष के मैदान में थे। सब राहत चाह रहे थे। तब यह कानून लाया गया। एनपीआर व एनआरसी के विरोध के बावजूद सरकार पीछे हटने को तैयार नहीं है।
तब फिर सवाल है कि मोदी सरकार इस "काले कानून व प्रावधान" यानी 'सीएए एनपीआर एनआरसी" को लागू कराने को दृढ़ क्यों है? दरअसल आज बड़ी-बड़ी पूंजी के मालिक जनता पर अपनी मनमर्जी थोप देना चाहते हैं। अपने मुनाफे को किसी भी कीमत बढ़ाते जाना चाहते हैं। इसलिये जनता को पूरी तरह निचोड़ देने को ये बेचैन हैं। मगर ये डरते हैं। जानते हैं कि यह भयानक लूट-खसोट जनता के गुस्से को देशव्यापी संघर्षों में बदल सकता है। इसलिए एक वक्त बाद इन्होंने कांग्रेस को पीछे कर दिया। मोदी-शाह व भाजपा संघ को आगे कर दिया। अपनी मीडिया व पैसे के चमत्कार से इन्हें सत्ता तक पहुंचा दिया। अब इनकी तैयारी खुल कर खेलने की है। यहां यही "देश" हैं यही "राष्ट्र" है 'राष्ट्रवाद', 'देशभक्ति' भी इन्हीं से है। मोदी-शाह के हिन्दू फासीवादी एजेन्डा इन्हीं के लिए है। इनके जरिये शासक खौफ व दहशत कायम कर देना चाहते हैं। विरोध को कुचल देना चाहते हैं। आतंकी तानाशाही कायम कर देना चाहते हैं। इसके निशाने पर मज़दूर मेहनतश जनता है आम नागरिक हैं। इस काले कानून के जरिये यह इसी साजिश को आगे बढ़ा रहे हैं।
इसीलिए जरूरत है कि मज़दूर मेहनतकश जनता को 'घुसपैठिया' 'शरणार्थी' बनाये जाने की साजिश का विरोध किया जाय। यही नहीं पूंजी के मालिकों व इनकी सरकार के हर फासीवादी एजेन्डे का पुरजोर विरोध किया जाय।
जब से मोदी सरकार ने नागरिकता कानून में संशोधन किया तथा एन आर सी व एन पी आर की ओर कदम बढ़ाए तब से देश भर में इसके खिलाफ संघर्ष हो रहे हैं। इन संघर्षों को खत्म करने के लिए भाजपा सरकार ने हर तरह के घृणित काम किये हैं। दिल्ली की मौजूदा हालत मोदी सरकार की घृणित साजिश का ही नतीजा है। जहां 45 से ज्यादा हिन्दू-मुस्लिम मार दिए गए हैं, कई घायल हैं। जबकि इससे पहले सीएए, एनआरसी व एनपीआर विरोधी संघर्ष में असम व फिर यू पी में 25-30 लोग मारे गए हैं। सैकड़ों लोग घायल हुए हैं, हज़ारों लोगों पर संगीन मुकदमे दर्ज कर दिए हैं, हज़ारों लोग गिरफ्तार किए गये हैं।
क्या सरकार द्वारा बनाये गए किसी कानून का विरोध करना 'देश का विरोध' करना होता है? जैसा कि मोदी सरकार व भाजपा के नेता कह व कर रहे हैं। क्या इन 70 सालों में इससे पहले सरकार के विरोध में सड़कों पर प्रदर्शन नहीं हुए थे ? हुए थे। क्या खुद भाजपा, मोदी-शाह ने कांग्रेस सरकार के खिलाफ प्रदर्शन नहीं किये थे? किये थे। क्या भाजपा, मोदी-शाह के कांग्रेस सरकार के खिलाफ किये गए प्रदर्शन से 'देश का विरोध' होता था? नहीं होता था। तब फिर आज मोदी सरकार के बनाये गए कानून का विरोध करना 'देश का विरोध' करना कैसे हो गया? क्या 'भाजपा, मोदी-शाह व संघ' ही 'देश' हैं?
कोई कह सकता है कि नागरिकता संशोधन कानून से क्या दिक्कत है? यह तो नागरिकता देने का कानून है दरअसल यही सरकार व उसके मंत्री भी कह रहे हैं। बात यह है कि इसमें आधा सच है आधा झूठ। हकीकत यह है कि यह कानून अपनी 'मनमर्जी के धर्म' के कथित "अवैध प्रवासियों" को नागरिकता के लिए चुनता है, 'मनमर्जी के देश' चुनता है, तीन देशों के छः धर्म के "अवैध प्रवासियों" को नागरिकता के लिए चुनता है। अन्य धर्म के लोगों व अन्य देशों को छोड़ देता है यानी यहां नागरिकता नहीं देता है। यह कानून कहता है कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान व बांग्लादेश से वे हिंदू, सिख , जैन, पारसी, इसाई व बौद्ध धर्म के लोग (अवैध प्रवासी) जो 31 दिसंबर 2014 से पहले भारत आ चुके हैं उन्हें भारत में नागरिकता दी जाएगी।
कोई भी देख सकता है कि यह कानून कथित 'अवैध प्रवासियों' को धार्मिक आधार पर नागरिकता देने का प्रावधान करता है। यह देश के पूंजीवादी संविधान की धर्मनिरपेक्षता पर हमला है। यह 'बांटो, ध्यान भटकाओ और राज करो' की नीति के सिवाय और कुछ भी नहीं है। यह विदेशों में नौकरी कर रहे लाखों भारतीयों के जीवन को भी खतरे में डालता है।
कोई कह सकता है कि इससे हमें क्या फर्क पड़ता है? इस कानून का, देश के भीतर रह रहे नागरिकों, चाहे वे हिन्दू हों या मुस्लिम, या फिर कोई और, उनसे कोई लेना-देना नहीं है। यही तर्क मोदी सरकार के हैं।
हकीकत इसके उल्टा है। देश में कथित "घुसपैठिये" या "अवैध प्रवासी" है या नहीं, या हैं तो कितने हैं? इसकी पड़ताल कैसे होती है? दरअसल एन आर सी के जरिये ही यह काम करने का दावा सरकार करती है। एन आर सी क्या है? यह देश के नागरिकों का रजिस्टर है। देश में एन आर सी 1951 में बनी थी। 1951 की जनगणना के जरिये ही एन आर सी बन गयी। तब संविधान के लागू होने के साथ ही आम तौर पर भारत में रह रहे हर व्यक्ति को नागरिक माना गया था।
पहला नागरिकता कानून 1955 में बना। इसमें 'अवैध प्रवासियों' को नागरिकता देने का प्रावधान नहीं था। 'अवैध प्रवासी' सरकार के हिसाब से वे 'विदेशी' थे जो भारत में बिना दस्तावेज के या फर्जी दस्तावेज या दस्तावेज (वीजा) की अवधि समाप्त होने के बावजूद रह रहे हों। इन 'अवैध प्रवासियों' को 'विदेशी कानून-1948' तथा 'पासपोर्ट कानून-1920' के हिसाब से चिन्हित कर निर्वासित किये जाने का प्रावधान था।
पड़ोसी मुल्क के वे लोग जो आपदा, युद्ध, हिंसा या उत्पीड़न के शिकार थे, चाहे वह किसी भी धर्म के हों, भारत में उन्हें शरण दी गई, इन्हें 'शरणार्थी' कहा जाता है। यूगांडा, श्रीलंका, पाकिस्तान, तिब्बत, वर्मा व बांग्लादेश आदि के उत्पीड़ित लोगों को भारत में शरण दी गई। इनमें से कुछ को नागरिकता भी दी गई। मगर इसमें धार्मिक आधार पर भेदभाव नहीं था।
कोई कह सकता है कि एन पी आर का विरोध क्यों, ये तो 'जनसंख्या रजिस्टर' है ? या यह कि जब 2010 में कांग्रेस ने लागू किया, तब विरोध क्यों नहीं किया, आज भाजपा लागू कर रही हैं तो इसका विरोध क्यों?
यहां भी कुतर्क कर असल बात पर पर्दा डाला जा रहा है। हकीकत यह है कि 2003 में बाजपेयी की अगुवाई वाली भाजपा सरकार ने भी 'नागरिकता कानून' में संशोधन किया था। इसमें राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर( एनपीआर) का प्रावधान किया। इसमें दर्ज है कि एन पी आर, एन आर सी की दिशा में पहला कदम है। एनपीआर के जरिये लगभग 21 निजी जानकारियां लोगों से पूछी जाएंगी, इस आधार पर एनआर सी तैयार होगी , राष्ट्रीय पहचान पत्र जारी किया जाएगा तथा किसी भी व्यक्ति द्वारा दी गई जानकारी पर संदेह होने पर उससे नागरिकता के दस्तावेज मांगे जाएंगे।
साफ है कि एनपीआर ही एनआरसी भी है। एनपीआर के जरिये व्यक्ति को 'संदिग्ध नागरिकता' की श्रेणी में डाला जायेगा। फिर उससे नागरिकता के सबूत मांगे जाएंगे। मामला फिर 'विदेशी ट्रिब्यूनल' में जायेगा। यहां भी नागरिकता साबित नहीं होने पर व्यक्ति "घुसपैठिया" या "शरणार्थी" कहलायेगा। यदि मुस्लिम है तो "घुसपैठिया", हिन्दू या अन्य धर्म के हैं तो " शरणार्थी" । इस प्रकार अपने ही देश में करोड़ों लोग 'घुसपैठिया' व 'शरणार्थी' बना दिये जायेंगे। कथित 'घुसपैठिये' डिटेंशन केंद्र (एक प्रकार की जेल) में बंद कर दिए जाएंगे। जबकि कथित "शरणार्थी" इस सरकार के रहमों करम पर होंगे।
याद रखिये! इस कथित "घुसपैठिया" या "शरणार्थी" की सूची में कोई अम्बानी, अडाणी, टाटा, बिड़ला जैसा पूंजीपति नहीं होगा; मोदी, शाह, भागवत, मनमोहन,अखिलेश, केजरीवाल, सोनिया आदि आदि जैसे लोग नहीं होंगे। ये हुक्मरां हैं, शासक हैं।
इस कथित "घुसपैठिया" या "शरणार्थी" की सूची में देश के मजदूर-मेहनतकश इंसान होंगे, इस देश के आम नागरिक होंगे। जो हर धर्म के होंगे, हर जाति के होंगे। तब एक नागरिक के रूप में हासिल अधिकार मसलन संपत्ति अर्जित करने, शिक्षा-स्वास्थ्य-रोज़गार के अधिकार, वोट देने, विरोध प्रदर्शन करने, असहमति जताने जैसे सभी अधिकार छिन जाएंगे।
आज एनपीआर-एनआरसी व सीएए का विरोध इसलिए है कि असम के दुखदायी, यंत्रणादायी व भयानक डरावने अनुभव सामने हैं। तब ये मामले सामने नहीं थे। असम में 'दस्तावेज' होने के बावजूद लोग मामूली गलतियों से नागरिकता सूची से बाहर हो गए। जबकि गरीब मज़दूरों, अनपढ़ लोगों, महिलाओं के पास दस्तावेज ही नहीं थे। कई लोगों ने नाम, जाति, धर्म बदल लिए थे उनके लिए भी नागरिकता का सबूत जुटाना नामुमकिन था। कइयों के पास दस्तावेज जुटाने के लिए पैसे ही नहीं थे। अन्तत: 19 लाख लोग नागरिकता सूची से बाहर हो गए। कई लोगों की सदमे में मौत हो गई जबकि 29 लोग (हिन्दू-मुस्लिम) डिटेंशन केंद्र में मर चुके हैं।
नागरिकता का मापदंड क्या होगा? आधार, पेन कार्ड, वोटर कार्ड, पासपोर्ट, राशनकार्ड से क्या नागरिकता साबित होती हैं? नहीं। अभी भी यह अस्पष्ट है। असम में एक व्यक्ति द्वारा 16 दस्तावेज नागरिकता साबित करने हेतु जमा किये गए जिसमें 1966 के भी दस्तावेज थे मगर 'विदेशी ट्रिब्यूनल' व असम हाईकोर्ट ने इनको मानने से इंकार कर दिया। सरकार ने इस विषय पर जानबूझकर चुप्पी साधी हुई है।
एन पी आर का जनगणना से कोई लेना-देना नहीं है। जनगणना 'जनगणना कानून-1948' के तहत हर 10 साल में होती है इसमें आर्थिक-सामाजिक स्थिति से संबंधित सवाल पूछे जाते हैं।
ऐसे वक्त में जब जनता को भारी राहत की जरूरत थी। बढ़ती महंगाई, लाखों मज़दूरों की छंटनी, कर्मचारियों पर छंटनी की लटकती तलवार, भारी बेरोजगारी, छोटे कारोबारियों-दुकानदारों की खस्ता हालत, महिलाओं के खिलाफ बढ़ती यौन हिंसा! इन सबसे जनता त्रस्त थी। छात्र, किसान,कर्मचारी, मज़दूर, महिलाएं-आदिवासी सभी संघर्ष के मैदान में थे। सब राहत चाह रहे थे। तब यह कानून लाया गया। एनपीआर व एनआरसी के विरोध के बावजूद सरकार पीछे हटने को तैयार नहीं है।
तब फिर सवाल है कि मोदी सरकार इस "काले कानून व प्रावधान" यानी 'सीएए एनपीआर एनआरसी" को लागू कराने को दृढ़ क्यों है? दरअसल आज बड़ी-बड़ी पूंजी के मालिक जनता पर अपनी मनमर्जी थोप देना चाहते हैं। अपने मुनाफे को किसी भी कीमत बढ़ाते जाना चाहते हैं। इसलिये जनता को पूरी तरह निचोड़ देने को ये बेचैन हैं। मगर ये डरते हैं। जानते हैं कि यह भयानक लूट-खसोट जनता के गुस्से को देशव्यापी संघर्षों में बदल सकता है। इसलिए एक वक्त बाद इन्होंने कांग्रेस को पीछे कर दिया। मोदी-शाह व भाजपा संघ को आगे कर दिया। अपनी मीडिया व पैसे के चमत्कार से इन्हें सत्ता तक पहुंचा दिया। अब इनकी तैयारी खुल कर खेलने की है। यहां यही "देश" हैं यही "राष्ट्र" है 'राष्ट्रवाद', 'देशभक्ति' भी इन्हीं से है। मोदी-शाह के हिन्दू फासीवादी एजेन्डा इन्हीं के लिए है। इनके जरिये शासक खौफ व दहशत कायम कर देना चाहते हैं। विरोध को कुचल देना चाहते हैं। आतंकी तानाशाही कायम कर देना चाहते हैं। इसके निशाने पर मज़दूर मेहनतश जनता है आम नागरिक हैं। इस काले कानून के जरिये यह इसी साजिश को आगे बढ़ा रहे हैं।
इसीलिए जरूरत है कि मज़दूर मेहनतकश जनता को 'घुसपैठिया' 'शरणार्थी' बनाये जाने की साजिश का विरोध किया जाय। यही नहीं पूंजी के मालिकों व इनकी सरकार के हर फासीवादी एजेन्डे का पुरजोर विरोध किया जाय।
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