बिहार चुनाव में मोदी सरकार अपने फासीवादी एजेंडे को चुनाव आयोग के जरिए आगे बढ़ा रही है। नागरिकता संशोधन कानून के जरिए गैर मुस्लिमों की जो तीन पड़ोसी देशों के होंगे उन्हें भारत की नागरिकता देने का प्रावधान 2019 में किया गया था और फिर नागरिकता परीक्षण हेतु राष्ट्रीय नागरिकता पंजीकरण (एनआरसी) कराने की बात मोदी सरकार ने कही और इसके बाद बड़े स्तर पर देश भर में आंदोलन हुआ तो सरकार पीछे हट गई। मगर अब साम्प्रदायिक नागरिकता कानून के बाद चुनाव के बहाने बिहार में परोक्ष तरीके से नागरिक परीक्षण कराया जा रहा है।
यह चुनाव आयोग विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) के नाम पर कर रहा है । इस प्रक्रिया में मतदाताओं को अपनी नागरिकता साबित करने के लिए जन्म प्रमाण पत्र सहित 11 दस्तावेजों में से कोई एक जमा करना जिसमें जन्म और जगह का पता लगे, अनिवार्य किया गया है, इसमें आधार कार्ड, वोटर कार्ड, राशन कार्ड, डी एल, पेन कार्ड जैसे आम पहचान दस्तावेज़ अब नागरिकता के प्रमाण नहीं माने जा रहे हैं। अब बड़ी संख्या में इन 11 दस्तावेजों के नहीं होने के चलते भी बिहार के गरीब, पिछड़े और अल्पसंख्यक वर्गों पर गहरा असर पड़ेगा। हिंदू फासीवादियों के हिसाब से जिनके पास ये 11 दस्तावेज में से कोई नहीं होगा, यदि वे मुस्लिम होंगे तो घुसपैठिए और बाकी धर्मों के होंगे तो शरणार्थी होंगे।
हिन्दू फासीवादी सरकार इसे मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने और चुनावी ध्रुवीकरण का हथियार बना रहे हैं। बिहार चुनाव से पहले इसे लागू कर वे अपने वोट बैंक को भी मजबूत करना चाहते हैं। जाहिर है सवर्णों का दायरा सापेक्षिक तौर पर अनुपात में बढ़ जाएंगे।
चुनाव आयोग ने स्पष्ट किया है कि आधार कार्ड, वोटर कार्ड, पैन कार्ड जैसे दस्तावेज नागरिकता साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। इसके बजाय जन्म प्रमाण पत्र, पासपोर्ट, जाति प्रमाण पत्र जैसे 11 दस्तावेजों की मांग की गई है, जो आम जनता के लिए जुटाना मुश्किल होगा।
बिहार में अधिकांश ग्रामीण परिवारों के पास जमीन नहीं है, पासपोर्ट रखने वालों की संख्या बहुत कम है, और सरकारी सेवाओं में काम करने वालों की संख्या भी सीमित है। ऐसे में दस्तावेज जुटाना उनके लिए चुनौतीपूर्ण होगा। हाईस्कूल की शिक्षा किया हुए लोगों का प्रतिशत भी 10- 12 से ज्यादा नहीं है।
नागरिकता साबित करने की जिम्मेदारी जिम्मेदारी सरकार या जांच एजेंसियों की बजाय आम नागरिकों पर डाली गई है कि वे अपनी नागरिकता साबित करें। यदि कोई दस्तावेज़ नहीं जमा कर पाता, तो उसे विदेशी या घुसपैठिया घोषित करने का खतरा रहेगा।
विपक्ष ने इस प्रक्रिया को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी, लेकिन कोर्ट ने फिलहाल चुनाव आयोग के पक्ष में फैसला दिया है। कोर्ट ने कहा है कि नागरिकता की पहचान गृह मंत्रालय का काम है, चुनाव आयोग का नहीं। हालांकि यह सुझाव भी दिया कि आधार, वोटर कार्ड और राशन कार्ड पर भी चुनाव आयोग विचार करे। मगर चुनाव आयोग अब बिहार में भारी संख्या में नेपाली, बांग्लादेशी आदि आदि के होने का हवाले देकर एन आर सी के पक्ष में माहौल बना रहा रहा है।
वास्तव में, यह प्रक्रिया न्याय की मूल अवधारणा के खिलाफ है क्योंकि नागरिक नहीं होने का आरोप का बोझ निर्दोष जनता पर डाला गया है, जिसे खुद आरोप से मुक्ति पाने के लिए खुद को निर्दोष साबित करना होगा। न्याय की बुनियादी अवधारणा यह है कि आरोप लगाने वाले को अपने आरोप साबित करने होंगे, अन्यथा किसी पर भी आरोप लगाना बेहद आसान होगा और यह उत्पीड़न का औजार बन जाएगा। वास्तव में हिंदू फासीवादी ने इसी सिद्धांत को अधिकांश मामलों में अपना न्याय का सिद्धांत बना डाला है। जिसमें वे किसी पर भी आरोप लगाते हैं मीडिया ट्रायल शुरू होता है बिना न्यायिक प्रक्रिया के ही जिस पर आरोप लगाया जाता है उसे अपराधी बना दिया जाता है सालों बाद उसे बिना सबूत के न्यायालय निर्दोष के रूप में रिहा करती है।
इस एजेंडे के देशव्यापी विस्तार की संभावना है। बिहार में इस प्रक्रिया को लागू कर इसे अन्य राज्यों में भी लागू करने की तैयारी है, जिससे पूरे देश में सामाजिक और राजनीतिक तनाव बढ़ सकता है।
इस प्रकार, बिहार में चल रहा विशेष गहन पुनरीक्षण के जरिए एन आर सी एक ऐसा कदम है जो लोकतांत्रिक अधिकारों और सामाजिक न्याय के लिए गंभीर खतरा बन सकता है इसकी ही ज्यादा संभावना है। इसके ज़रिए भी हिंदू फासीवादी एकाधिकारी पूंजी के हित में हिंदू फासीवादी राज्य कायम करने की ओर बढ़ रहे हैं।
समान नागरिक संहिता और इसका विरोध
उत्तराखंड में भाजपा सरकार ने 27 जनवरी 2025 से समान नागरिक संहिता को लागू कर दिया है। इस संहिता को हिंदू फासीवादी सरकार अपनी उपलब्धि के रूप में प्रचारित कर रही है। संहिता के मामले में बिल्कुल झूठा प्रचार किया जा रहा है। यह झूठा प्रचार इस रूप में है कि इस कानून ने संपत्ति में बेटियों को भी बराबर का अधिकार दिया है और लिव इन संबंधों में महिलाओं को सुरक्षा दी है महिलाओं को सशक्त बनाया है। संपति में बेटियों का बराबर का अधिकार 2005 के कानून से बना था और इसी तरह लिव इन को सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही मान्यता दी है और इसमें पैदा होने वालों बच्चों को उत्तराधिकार में संपत्ति पर अधिकार हासिल है साथ ही महिला को भरण पोषण का अधिकार। इस संबंध में कई मामलों में सुप्रीम कोर्ट यह फैसले दे चुका है।
उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता के लागू होने के दौरान और बाद में भी इसका विरोध अलग अलग वजहों से हो रहा है। एक तरफ दक्षिणपंथी समूह या लोग हैं जिनका विरोध इसलिए है कि यह कानून लिव संबंधों को पंजीकरण के जरिए वैध बनाता है और ऐसा करना उत्तराखंड की संस्कृति के खिलाफ है। खुद कांग्रेस जो प्रगतिशील होने का दिखावा करती है उसने विधान सभा सत्र के दौरान इसी तर्क के आधार पर इस संहिता के विरोध में रैली निकाली थी।
इसके अलावा विरोध की आवाज राज्य के कई संगठनों की ओर से भी है। इसमें कुछ इसे संविधानिक आधार पर गलत मानते हैं इसे नागरिक अधिकारों का अतिक्रमण करने वाला और नागरिकों की निजी जिन्दगी में दखल देने वाला मानते हैं। इनमें से कुछ ऐसे हैं जो सीधे इस संहिता का विरोध करने के बजाय अनुच्छेद 44 का तर्क देकर, इस संहिता को असंवैधानिक करार देते हैं। इनके हिसाब से अनुच्छेद 44 के तहत केवल केंद्र सरकार नागरिको के लिए एक समान नगारिक संहिता बना सकता है। इस तर्क मात्र के हिसाब से देखें तो यदि अनु. 44 के तहत मोदी सरकार इसी तरह का यू.सी.सी लाती तो फिर विरोध स्वयं खारिज हो जाता। दरअसल राज्य सरकार को भी समवर्ती सूची ( सातवीं अनुसूची) के तहत विवाह तलाक उत्तराधिकार के मामले में कानून बनाने का अधिकार है।
विरोध का स्वर, जमीयत जैसे धार्मिक कट्टपंथी संगठनों की ओर से भी है जाहिर है इनका जोर धर्म पर ही होना है। ये इसे केवल, शरीयत पर हमले के रूप में ही देखते हैं शरीयत पर हमले को, नहीं सहने का तर्क देते हैं। अलग अलग तर्कों के दम पर इसे संगठनों और व्यक्तियों ने हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है। न्यायपालिका ने हिंदू फासीवादी ताकतों के आगे जिस हद तक समर्पण कर दिया है उससे गुंजाइश कम ही है कि जनपक्षधर फैसला आए।
इस कथित समान नागरिक संहिता को उत्तराखंड में प्रयोग के बतौर थोपा गया है। हिंदू फासीवादियों ने आम चुनाव से कुछ माह पहले समान नागरिक संहिता बनाने को मुदा बनाया था। मगर तब आदिवासी जनजाति संगठनों के बड़े विरोध को देखते हुए, इन्होंने अपने कदम पीछे खींच लिए थे। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ कथित समान नागरिक संहिता को काफी लंबे समय से ही मुद्दा बनाता रहा है। पिछली सदी के साठ के दशक में संघियों ने ' विवाह, तलाक, उत्तराधिकार और गोद ' लेने के मामले में बहुसंख्यक हिंदुओं के लिए लिए बने' हिंदू कोड बिल' का जबर्दस्त विरोध किया था। इस कोड को कांग्रेस सरकार ने अपने नरम हिंदुत्व की नीति के तहत ही सिख, बौद्ध, जैन और आदिवासियों पर थोप दिया था।
उस वक्त का, यह ' हिंदू विवाह कानून' और ' हिंदू उत्तराधिकार कानून' , काफी हद तक, हिंदू धार्मिक कानून और परम्परा के हिसाब से ही बना था। बाद में संघर्षों और कानूनी चुनौती मिलने पर समाज के आगे बढ़ने से इसमें बदलाव भी हुए। लिव इन संबंधों, संपत्ति में लड़कियों को भी बराबर का अधिकार देने आदि मामलों में इसमें कुछ सुधार करने पड़े।
हिंदू फासीवादियों की यह कथित समान नागरिक संहिता इनके फासीवादी हमलों की ही अगली कड़ी है। इस संहिता के जरिए भी, ये फासीवादी ध्रुवीकरण के अपने एजेंडे को ही आगे बढ़ा रहे हैं। उत्तराखंड के बाद फिर अन्य राज्यों में लागू करते हुए फिर केंद्र की ओर बढ़ने की इनकी योजना है। इसकी संभावना है अगले आम चुनाव में इसे मुद्दा बनाएं और ध्रुवीकरण को आगे बढ़ाएं।
शुरुवात में ही जनजाति और आदिवासी संगठनों के विरोध को देखते हुए संघी सरकार ने उत्तराखंड में इन्हें, इस कथित नागरिक संहिता से बाहर रखा है। यानी इन पर यह कानून लागू नहीं होगा। इस तरह से, देश के तमाम आदिवासी समूहों के लिए संदेश दिया है कि उनकी विवाह और तलाक की परम्पराओं में कोई हस्तक्षेप नहीं होगा।
उत्तराखंड में भाजपा सरकार का यह फासीवादी प्रयोग फिलहाल सफल रहा है। इसके जनवाद विरोधी, संवैधानिक अधिकारों के विरोधी होने के तर्क के आधार पर कोई बड़ा विरोध नहीं हुआ है। पिछले 60- 70 सालों से संघी संगठन और भाजपा बड़े पैमाने पर मुसलमानों के खिलाफ भयानक दुष्प्रचार कि मुसलमान पुरुष 4-5 शादियां करते हैं और 20- 25 बच्चे पैदा करते हैं, का यह असर है। इस तरह नफरत को, एक ओर जनसंख्या बढ़ाने का तरकर देकर और दूसरी ओर पितृसत्तात्मक वर्चस्ववादी सोच के हिसाब से हिंदू पुरुषों में ' सुख से वंचित रहने ' की कुंठा को बढ़ाकर या तर्क देकर आगे बढ़ाया गया। इसलिए एक देश में दो कानून नहीं होने का कुतर्क गढ़कर कथित समान नागरिक संहिता के लिए माहौल बनाया गया।
हिंदू फासीवादियों की यह समान नागरिक संहिता किसी भी रूप में समान नागरिक संहिता नहीं हो सकती थी। इसे इनके अपने फासीवादी सोच के अनुरूप ही होना था। हिन्दू फासीवादी घोर मजदूर विरोधी हैं घोर महिला विरोधी हैं, घोर दलित और मुसलमान विरोधी है। ये हर तरह के जनवाद, बराबरी और स्वतंत्रता को खत्म कर देने पर यकीन रखते हैं। हर नागरिक को निगरानी तंत्र, पुलिस और लंपट संघी संगठनों के हवाले कर देना चाहते हैं।
उत्तराखंड की इस कथित समान नागरिक संहिता इनकी इसी घृणित फासीवादी मानसिकता का पुलिंदा है। सही अर्थों एक समान नागरिक संहिता तभी सही मायने में बन सकती है जब कोई राज्य या देश धर्म निरपेक्ष हो। धर्म नागरिकों का निजी मामला हो। उग्र हिंदुत्व की नीति पर चलने वाली सत्ता और समान नागरिक संहिता बिल्कुल विरोधी बातें हैं।
उत्तराखंड की इस नागरिक संहिता को देखा जाय। इसमें एक 193 पेज का समान नागरिक संहिता अधिनियम है। इसके अलावा 200 से ज्यादा पेज की यूसीसी नियमवाली और 3-4 पेज का पंजीकरण आदि के मामले में लगने वाली फीस का दस्तावेज है।
यह संहिता खुद हिंदू फासीवादियों के ' एक देश में दो कानून ' नहीं चलेंगे, के दावे के बिल्कुल उलट है। यह उत्तराखंड की 3 प्रतिशत की जनजाति आबादी पर लागू नहीं होता है। यानी उत्तराखंड की 97 प्रतिशत आबादी इस कानून के हिसाब से चलने को बाध्य होगी जबकि आदिवासी जनजाति अपनी परम्परा के हिसाब से चलेगी। जौनसार जहां के हिंदुओं में एक वक्त बहुपति विवाह प्रचलित था, अभी भी आपवादिक मामले आते हैं, वहां यह कानून लागू नहीं होगा। इस तरह ' एक राज्य में दो कानून ' चलेंगे।
यह कानून उत्तराखंड के भीतर रहने वाले और उत्तराखंड के वे निवासी जो यहां से बाहर रहते हैं उन सभी पर लागू होगा। बाहरी राज्यों के उन लोगों पर भी लागू होगा जो यहां एक साल से रह रहे हैं। केंद्र सरकार की उत्तराखंड के भीतर संस्थाओं में काम करने वाले नागरिकों पर भी यह कानून लागू होगा। इस रूप में यह दूसरे राज्यों के निवासियों पर लागू होने के चलते भी यह एक कानूनी विवाद का विषय इस रूप में बनेगा कि केंद्र और एक राज्य के कानून में किसको वरीयता दी जाय।
यह कानून भी निगरानी या जासूसी का औजार है जो नागरिक की हर जानकारी की मांग करता है। इस तरह निजता में पूरी तरह दखल देता है। इसमें प्रमाण इकट्ठा करने का बोझ भी पंजीकरण करवाने वाले के ऊपर ही डाला गया है। 26 मार्च 2010 के बाद से संहिता लागू होने के बीच हुए सभी विवाह/तलाक़ का, कोड लागू होने के तारीख से छः माह के भीतर पंजीकरण को अनिवार्य बनाता है जबकि संहिता लागू होने के बाद सम्पन्न विवाह को 60 दिन में। 26 मार्च 2010 से पहले के विवाह वाले अपना पंजीकरण करा सकते हैं यह अनिवार्य नहीं है। जो पंजीकरण केवल एक शपथ पत्र के दम पर भी संभव था उसे बेहद जटिल बनाया गया है। पंजीकरण के लिए आधार कार्ड, फोन न से लेकर 25 - 30 प्रकार की जानकारी (प्रमाण) जुटाकर सरकार को देनी होगी। आधार कार्ड पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उल्लंघन करके यह कानून इसे पंजीकरण के लिए अनिवार्य बनाता है।अपने पहले के विवाह या तलाक और इससे जुड़ी जानकारी (प्रमाण) सरकार को देने होगी। हर बार पता बदलने, नंबर बदलने, धर्म बदलने आदि की जानकारी सरकार को तत्काल देनी होगी। अपना व्हाट्स एप नंबर सरकार को देना होगा। यदि एक से ज्यादा विवाह और तलाक हुए हैं तो पुरुषों को हर पूर्व पत्नी की फोटो और अन्य जानकारियां ऑनलाइन या ऑफलाइन फॉर्म पर लगानी या देनी होगी। इस तरह नागरिकों को प्रमाण जुटाने की पेचीदा, उलझाऊ, अनावश्यक काम की ओर धकेल दिया गया है। इसके साथ ही यह राज्य के हर नागरिक की गतिविधि, उसके राजनीतिक झुकाव आदि को निगरानी के दायरे में ले आती है।
यह प्रक्रिया कई महिलाओं के लिए कई मुश्किलें भी खड़ा करेगा। विशेषकर बिना औपचारिक तलाक के पति को उसकी हरकतों से तंग आकर छोड़ देने वाली महिलाओं को।
यह कानून पंजीकरण से लेकर वसीयतनामे और दंड, हर स्तर पर वसूली (फीस के नाम पर) का भी तंत्र है। लिव इन संबंधों में तो एक माह के भीतर ही पंजीकरण कराना होगा। यह कानून नागरिकों का उत्पीड़न और दमन करने वाला है । विवाह/तलाक का पंजीकरण तय समय के भीतर कराना होगा। इसमें अधूरी सूचना देने, झूठी सूचना देने, तथ्य छुपाने और रजिस्ट्रार ( पंजीकरण करने वाला अधिकारी) द्वारा दिए गए नोटिस का कोई जवाब ना देने के नाम पर अलग अलग दंड की व्यस्था है। विवाह पंजीकरण के लिए 250 तो लिव इन के लिए 500 और लिव इन में संबंध तोड़ने की फीस 1000 रुपए है। विवाह तलाक आदि के पंजीकरण के मामले में देरी होने पर 200 रुपए से लेकर 10000 रुपए तक का जुर्माना देना होगा। इसके अलावा पंजीकरण ना कराने पर सरकारी योजनाओं के लाभ से वंचित करने किए जाने की भी संभावना है। लिव इन संबंधों के मामले में 10000 से लेकर 25000 रुपए जुर्माने के साथ ही 3 से लेकर 6 माह तक की जेल है। इस प्रकार देखें तो यह विवाह संबंधों में बंधने की तैयारी ( लिव इन संबंध) को एक तरह से अपराध की श्रेणी में डाल देता है।
यह कानून सरकार ही नहीं किसी तीसरे व्यक्ति को भी, निजी जिंदगी में ताक झांक करने और हस्तक्षेप का मौका देता है पुलिस के पास शिकायत करने का अधिकार देता है। लिव इन संबंधों की शंका होने पर, पंजीकरण के संबंध में शंका होने पर कोई भी तीसरा व्यक्ति शिकायत दर्ज करा सकता है। शिकायत कर्ता द्वारा दूसरी और तीसरी झूठी शिकायत पर जुर्माना जरूर है। लिव इन संबंधों में रहने वालों की जानकारी उनके माता पिता, मकान मालिक को दी जाएगी और पुलिस से सारी जानकारी साझा की जाएगी। लिव इन में कोई भी पक्ष एकतरफा तौर पर रजिस्ट्रार को सूचित करके संबंध खत्म कर सकता है।
लिव इन के संबंध में बना यह कानून औद्योगिक इलाकों और सेवा क्षेत्रों में न्यूनतम वेतनमान पर या इससे भी वंचित मजदूर वर्ग को हर तरह से हैरान परेशान करने वाला साबित होगा।
निषिद्ध संबंध (सपिंड और सगोत्र विवाह निषिद्ध) के आधार पर हिंदुओं में ऐसे लिव इन संबंधों का पंजीकरण नहीं होगा और यह अवैध होगा जो निषिद्ध संबंधों के दायरे में हैं। जिस समाज या धर्म आदि में निषिद्ध संबंध की इस तरह की रोक नहीं है वो अपने धर्म गुरु का प्रमाण देकर लिव इन पंजीकरण करा सकते है।
यह कानून घोर महिला विरोधी है उनकी अपनी मर्जी से विवाह करने को व्यवहार में असंभव बना देता है। आज समाज में दलितों ,मुस्लिमों और ईसाइयों के खिलाफ क्या स्थिति है यह किसी से छुपी हुई नहीं है। लिव इन संबंधों में बंधने वाले जैसे ही अपनी पंजीकरण की ओर बढ़ेंगे। अपने आधार कार्ड, जाति, धर्म, माता पिता, फोन न की जानकारी पंजीकरण के दौरान देंगे। कुछ ही वक्त में यह जानकारी लड़की के माता पिता से लेकर कथित लंपट धर्म रक्षक संगठनों तक पहुंच जाएगी। यदि लड़का मुस्लिम होगा, तो लंपट संघी संगठन इसे लव जिहाद का मुद्दा बताकर नफरत की विष बेल बढ़ाएंगे, उन्माद पैदा करेंगे। जबकि माता पिता अपनी जाति या धर्म से बाहर लड़की की शादी को रोकने की भरसक कोशिश करेंगे। लड़का दलित या ईसाई हो तो भी सहजीवन (लिव इन ) मुश्किल हो जाएगा। जब इज्जत के नाम पर निचली जाति से विवाह करने पर जब तब ऑनर किलिंग कर दी जाती हो, स्थिति कितनी खतरनाक होगी समझ में आ सकती है।
इस तरह व्यवहार में, यह कानून महिलाओं को सशक्त नहीं बनाता बल्कि उनकी अपनी पसंद के हिसाब से शादी करने को असम्भव बना देता है। उनकी यौनिकता को नियंत्रित करने का औजार बन जाता है।
यह कानून दलितों, ईसाइयों और मुस्लिमों के खिलाफ है। जातिवाद खत्म होने के लिए भी जरूरी है कि अंतर्जातीय विवाह समाज में तेजी से आगे बढ़ें। आम तौर पर समाज में लोग जाति धर्म के हिसाब से अलग थलग बाड़बंदी जैसी स्थिति में रहते हैं सवर्णों की बस्ती अलग, दलितों की अलग, मुस्लिमों की अलग। यह स्थिति अपने आप में ही स्वस्थ समाज बनने के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा है। हिंदू फासीवादियों के लिए यह स्थिति काफी मददगार है। लिव इन संबंधों और विवाह के पंजीकरण पर बना कानून इस स्थिति को और आगे बढ़ाता है अंतर्जातीय विवाह तथा अंतरधार्मिक विवाह को यह व्यवहार में बेहद मुश्किल बना देता है। एक ओर ऐसा दलित और स्वर्ण के विवाह या लिव इन के मामले में होगा तो दूसरी ओर दलित और मुस्लिम के बीच भी यही होगा।
यह कानून उत्तराधिकार के मामले में हिंदुओं की मिताक्षरा पद्धति को सभी पर थोप देता है। 2005 में हिंदू महिलाओं को पैतृक संपत्ति पर बराबर का अधिकार का कानून बनाकर इसे कमजोर किया गया। इस पद्धति के हिसाब से पिता अपनी अर्जित संपत्ति से अपनी पत्नी बच्चों को बेदखल कर सकते है और वे केवल भरण पोषण के अधिकारी है यह प्रावधान इस संहिता में बना हुआ है। जबकि मुस्लिमों में पिता या पुरुष 2/3 से पत्नी या बच्चों को बेदखल या वंचित नहीं कर सकता। इस तरह से भी यह कानून मुस्लिम विरोधी है। फ्रांस समेत यूरोप के कई देशों में दो शताब्दी पहले हुई फ्रांसीसी क्रांति के बाद नेपोलियन कोड ( समान नागरिक संहिता) की बात करें तो यहां जबरन उत्तराधिकार का कानून है इसमें पुरुष (पिता) अपनी अर्जित संपत्ति से पत्नी और बच्चों को बेदखल नहीं कर सकता।
यदि तलाक़ के मामले को देख जाय। तलाक का हिंदू विवाह में विच्छेद कानून महिलाओं के लिए तलाक़ को बेहद मश्किल बनाता है। यही समान नागरिक संहिता में भी बना हुआ है। मुस्लिम महिलाओं को धार्मिक कानून के हिसाब से खुला, मुबारत या लियान के जरिए तलाक का अधिकार हासिल था। मगर अब इस कानून के चलते यह स्थिति खत्म कर दी गई है।
जहां तक एल जी बी टी समुदाय की बात है इस संबंध में यह संहिता इस तरह खामोश ही जैसे इस समुदाय का कोई वजूद ही नहीं हो।
इस तरह यह साफ है कि यह नागरिक संहिता, संघर्षों से हासिल संविधान में दर्ज जनवादी और मौलिक अधिकारों को इस तरह पूरी तरह रौंदने वाला है। स्वतंत्रता और जनवाद को; निगरानी तंत्र, जानकारी का भरमार इकट्ठा करके, पुलिस और तीसरे व्यक्ति के दखल से पूरी तरह खत्म कर देता है। अपनी इच्छा, पसंदगी के हिसाब से विवाह करने और इसमें किसी के भी दखल ना होने के जनवादी अधिकार को व्यवहार में खत्म कर देता है। विवाह या लिव इन संबंधों में पंजीकरण ना कराने या देर से करने या ना करा पाने या फिर झूठी सूचना या तथ्य छुपाने का आरोप लगाकर, इन्हें आपराधिक बनाकर करके जुर्माना या जेल का प्रावधान करता है।
इसलिए इसका हर स्तर पर विरोध करने और साथ ही समग्र तौर पर हिंदू फासीवादियों का इस कानून और हर तरह से बेनकाब करने के साथ ही विरोध करना जरूरी है।
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काकोरी के शहीदों की स्मृति में
अशफ़ाक़-बिस्मिल की राह चलो !
राम प्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़ उल्ला खाँ, दोनों ही काकोरी के शहीद हैं। काकोरी के ये शहीद, हिंदुस्तान प्रजातांत्रिक संघ (एच.आर.ए) के सदस्य थे। इस संगठन का मकसद था- अंग्रेजी गुलामी से पूर्ण आज़ादी तथा देश को 'धर्मनिरपेक्ष गणतांत्रिक संघ' बनाना, जहां हर तरह के शोषण का खात्मा हो।
इन शहीदों ने, काकोरी में ट्रेन में जनता की लूट खसोट से इकट्ठे ब्रिटिश खजाने पर कब्जा किया। मगर बाद में सभी पकड़े गए। अंग्रेज़ सरकार ने राजेंद्र लाहिड़ी, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़ उल्ला और रोशन सिंह को 17 और 19 दिसम्बर 1927 को फांसी दे दी।
इस शहादत ने आज़ादी के आंदोलन को लहरों की तरह आगे बढ़ाया और भगत सिंह जैसे नायक पैदा हुए। देखते ही देखते अकूत शहादतों के 20 सालों बाद देश आज़ाद हो गया।
यह साल, काकोरी के शहीदों की शहादत का 96 वां साल है। सवाल है कि क्या जो सपना अशफ़ाक़-बिस्मिल जैसे काकोरी के शहीदों का था; वह हासिल हुआ ? क्या भारत को धर्मनिरपेक्ष और गणतांत्रिक संघ बनाने का उनका लक्ष्य हासिल हुआ; जहां मजदूर, किसान हर आम नागरिक को बराबरी का अधिकार हो, जहां किसी भी प्रकार शोषण ना हो? नहीं। गोरे अंग्रेजों की गुलामी से आज़ादी जरूर हासिल हुई।
बिस्मिल कट्टर आर्य समाजी हिंदू थे और अशफ़ाक़ मुस्लिम। दोनों ने कभी भी धर्म को राजनीतिक जीवन में नहीं घुसने दिया। दोनों के लिए धर्म और धार्मिक मामले बिल्कुल निजी थे, केवल घर तक सीमित थे जबकि राजनीति और सामाजिक मामलों में धर्म के लिए कोई जगह नहीं थी। दोनों का मकसद एक समान था। दोनों साथ-साथ जिये, साथ-साथ ही शहीद हुए। दोनों के लिए जलियांवाला बाग के शहीद मिसाल थे। यहां भी हिन्दू-मुस्लिम-सिख जनता ने एक साथ अंग्रेज सरकार गोलियां खाई और शहीद हो गए थे।
शहीदों के संघर्ष से अंग्रेजी गुलामी से आज़ादी मिली, कुछ अधिकार भी जनता को जरूर मिले मगर धर्मनिरपेक्ष व गणतांत्रिक संघ का सपना पूरा नहीं हुआ। गोरे अंग्रेजों की जगह अब काले अंग्रेजों ने ले ली। पूंजीपति और बड़े बड़े जमींदार देश के नियंता बन गए। यही काले अंग्रेज देश के नए शासक थे। यहां जनता को अपने अधिकारों के लिए बार-बार सड़कों पर उतरना पड़ा। मजदूरों, किसानों, कर्मचारियों, बेरोजगार नौजवानों व अन्य मेहनतकश हिस्सों को, अपनी जिंदगी की बेहतरी के लिए बार बार संघर्ष करना पड़ा।
हिंदू-मुस्लिम एकता की जो मिसाल राम प्रसाद बिस्मिल और अशफ़ाक़ उल्ला ने पेश की थी, इस मामले में आज हालात क्या हैं? आज राजनीति पूरी तरह धर्म की चाशनी में डूबी हुई है। धर्म निजी मामला नहीं रह गया है यह सड़कों, संसदों और राजनीति में प्रदर्शन करने की चीज बन गयी है। यह डराने, धमकाने और शासकों के आतंक के राज को कायम करने का जरिया है। धर्म आज के शासकों का सबसे खतरनाक हथियार है। जनता की एकता और ताकत को खत्म करने में यह सबसे कारगर चीज है। एक ओर मोदी सरकार और भाजपा है जो खुलकर यह काम कर रही है तो दूसरी तरफ कांग्रेस या अन्य राजनीतिक पार्टियां है जो कम या ज्यादा मात्रा में धार्मिक प्रतीकों और धर्म का इस्तेमाल कर रही हैं।
मोदी सरकार और भाजपा हिंदू राष्ट्र के रथ पर सवार है। एक ओर इस हिंदू राष्ट्र के झंडे के नीचे करोड़ों बेरोजगार नौजवान, न्यूनतम मजदूरी को तरसते करोड़ों मजदूर और महंगाई से त्रस्त करोड़ों लोग हैं रोज ब रोज यौन हिंसा की शिकार महिलाएं हैं जो हताश-निराश हैं, बेचैन हैं और घुट-घुट कर जीने को मजबूर हैं तो वहीं दूसरी तरफ हिंदू राष्ट्र के नाम पर दिन-रात तेजी से दौलत बटोरते, मुट्ठी भर अरबपति हैं जिनकी दौलत की हवस बढ़ती ही जा रही है ये हर तरह से सुरक्षित हैं सरकार इनकी सेवा में दिन-रात मुस्तैद है। इसी को कुछ लोग 'ब्रिटिश राज से अरबपतियों का राज' भी कह रहे हैं।
हकीकत यही है। यह पूंजीपतियों का राज है। यही देश के मालिक हैं। शासन-प्रशासन और सरकार इन्हीं की है। इन्हीं के मुनाफे के हिसाब से सारी योजनाएं बनती हैं नीतियां बनती हैं। यह पूंजीवाद है।
इसीलिए 4-5 सालों में, एक तरफ अरबपतियों की संख्या के मामले में, भारत दुनिया में तीसरे न. पर पहुंच गया है तो दूसरी तरफ भुखमरी में, भारत विश्व गुरु बनने की कगार पर है। हालत यह है कि एक ओर देश के 10 टॉप पूंजीपतियों की रोज की औसत कमाई करीब 300 करोड़ रुपये है तो दूसरी ओर देश के करोड़ों लोग हैं जिनकी रोज की कमाई ही इतनी कम है कि वे जैसे-तैसे गुजर-बसर करते हुए सरकारी राशन पर जिंदा भर हैं।
बात इतनी ही नहीं है यह भी है कि कर (टेक्स) का बहुत बड़ा बोझ आम जनता के कंधों पर डाला जा रहा है यह बढ़ता ही जा रहा है। साल 2022 में सरकार ने जी.एस.टी से ही 14.83 लाख करोड़ रुपये टेक्स वसूल कर लिए। इसमें देश के ऊपर के 10 प्रतिशत अमीर लोगों का हिस्सा केवल 3 प्रतिशत था जबकि नीचे की 50 प्रतिशत जनता से 64 प्रतिशत हिस्सा वसूला गया है।
यह भयंकर लूट-खसोट, शोषण और असमानता समाज को बड़े विस्फोट की ओर धकेल रही है। कुछ-कुछ वैसा ही विस्फोट, जैसा श्रीलंका, बांग्लादेश और कई देशों में हुआ या जैसा अंग्रेजी राज में हुआ था।
अंग्रेजों के राज में लूट-खसोट, जुल्म-सितम से जनता त्रस्त थी। इस गुलामी और लूट खसोट से मुक्ति के लिए जनता ने बार-बार संघर्ष किये, बगावतें की। तब 'हिंदू-मुस्लिम-सिख' जनता ने एकजुट होकर संघर्ष किये। यह एकता अंग्रेज शासकों के लिए खतरा थी।
अंग्रेज सरकार ने धर्म का भयंकर इस्तेमाल किया। धार्मिक कट्टरपंथी संगठनों को पाला पोसा। ये मुस्लिम लीग, हिंदू महासभा, संघ, अकाली दल जैसे संगठन थे। इस तरह अंग्रेज शासकों ने जनता को धर्मों में उलझाया, बांटा और लड़ाया। इसके खिलाफ अशफ़ाक़-बिस्मिल जैसे हज़ारों हज़ार नौजवानों ने आवाज उठाई। आज़ादी के आंदोलन को आगे बढ़ाया। एक ओर कुर्बानियां हुई तो दूसरी ओर संघर्ष आगे बढ़ता गया। आजादी तो हासिल हो गयी मगर काले अंग्रेजों, देशी पूंजीपतियों का राज आ गया। अब तो यह बात शायद ही किसी से छुपी हुई हो। यह इतना साफ है कि कोई मोदी सरकार को 'कॉरपोरेट सरकार' कहता है तो कोई 'अडानी-अंबानी' की सरकार।
हमें पाठ पढ़ाया जा रहा है कि ये पूंजीपति ही हैं ये पूंजी (पेंसा) लगाते हैं दौलत पैदा करते हैं फैक्ट्रियां खोलते हैं लोगों को रोजगार देते हैं और देश का विकास करते हैं। क्या यह सच है ? नहीं। वास्तव में यह बिल्कुल फर्जी बात है।
हकीकत इसके ठीक उलटी है। प्रकृति के बाद यह इंसान का श्रम ही है जो हर चीज का निर्माण करता है। देश के करोड़ो करोड़ मजदूरों मेहनतकशों का श्रम ही है जो दौलत पैदा कर रहा है हर चीज का निर्माण कर रहा है। मगर सारे संसाधनों के मालिक पूंजीपति हैं ये इसे हथियाकर मालामाल हो रहे हैं। इन्हें तरह-तरह से टेक्स में छूट है बिजली में छूट है; जमीनों कौड़ी के मोल दी जाती है और मजदूरों के श्रम की लूट की छूट है। ये बैंकों का कई लाख करोड़ रुपये कर्ज डकार जाते हैं। इसके अलावा सरकारी खजाना इन पर तरह-तरह से लुटाया जाता है इस तरह पूंजीपति करोड़पति से अरबपति फिर खरबपति बनते हैं।
इसका क्या नतीजा होता है? वही जो देश मे हो रहा है। एक ओर भयानक असमानता, भयानक बेरोजगारी तो दूसरी ओर ऊंची महंगाई। एक ओर जनता के सामने भयानक आर्थिक-सामाजिक असुरक्षा, बढ़ती आत्महत्याएं और मानसिक बीमारियां तो दूसरी तरफ नशाखोरी, हिंसा और अपराध। यह स्थिति असन्तोष और गुस्से को बढ़ाती है जनता को बगावत (विद्रोह) की ओर धकेल देती है। जैसा कि कई देशों में हो रहा है। जैसा कि आज़ाद भारत में इंदिरा गांधी की सरकार के दौरान हुआ और इससे पहले अंग्रेज शासकों के खिलाफ हुआ था।
जनता के इस असन्तोष और गुस्से को ठंडा करने का एक ही उपाय शासकों के पास है। वही उपाय जो अंग्रेजों ने किया था, जो हिटलर ने किया था। यह उपाय है - धर्म के नाम पर नफरत और उन्माद पैदा करो; जनता को बांटो और लड़ा दो। 'हिंदू राष्ट्र' बनाने के नाम पर यही हो रहा है। 'हिंदू-मुस्लिम' 'मंदिर-मस्जिद' की राजनीति इसीलिए है। 'हिंदू राष्ट्र' का नारा अडानी-अम्बानी जैसे कॉरपोरेट पूंजीपतियों की सेवा करता है इनका मुनाफा बढ़ाता है जबकि मजदूरों, किसानों, बेरोजगार नौजवानों और छोटे मझौले कारोबारियों को कंगाल बनाता है और कुचलता है। इस तरह ये हिंदू फासीवाद यानी आतंक का तानाशाही वाला राज कायम करना चाहते हैं।
इसलिए, ऐसे दौर में जरूरी है कि काकोरी के शहीदों को याद किया जाय। इनकी विरासत को आगे बढ़ाया जाय। धर्म के नाम पर उन्माद और नफरत की राजनीति के खिलाफ आवाज उठाई जाय।
विधान सभा चुनाव : 2023
हिंदू फासीवादियों की जीत के मायने
जैसा कि तय था मोदी और शाह की जोड़ी की अगुवाई में हिंदूत फासीवादी उत्तर
भारत के तीन राज्यों के चुनाव में जीत के लिए सब कुछ दांव पर झोंक देंगे।
इस जीत के जरिए 2024 की लोक सभा चुनाव के लिए पूरा माहौल तैयार कर देना था।
इन प्रांतों में चुनाव में भाजपा को जीत हासिल हुई। बहुमत के लिए जरूरी
सीटों से ज्यादा सीट हासिल करने में मोदी सरकार कामयाब रही। इसी के साथ ही
यह भी सच है कि तेलंगाना में भाजपा तमाम तिकड़मों के बावजूद सत्ता के निकट
भी नहीं पहुंच सकी। इसी तरह मिजोरम में जेड पी एम पार्टी जीत गई।
उत्तर भारत में भाजपा के चुनाव जीतते ही शेयर बाजार ने जश्न मनाया। इसका
सूचकांक तुरंत ही ऊपर उठ गया साथ ही अदानी के शेयर में भारी उछाल देखने को
मिला।
तीन राज्यों में भाजपा की जीत पर कार्पोरेट मीडिया मोदी की
जयजयकार में डूबा हुआ है। एक तरह से 2024 के आम चुनाव में मोदी की भाजपा को
जीता हुआ घोषित कर दिया है।
निश्चित तौर पर मोदी और भाजपा की
जीत हुई है। छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस की वापसी की बातें की जा
रही थी, वह नहीं हुई।
यदि मत प्रतिशत के लिहाज से देखा जाय तो
कांग्रेस ने इन राज्यों में अपने मत वोट शेयर को बरकरार रखा है। बीजेपी
छतीसगढ़ में 46.3 फीसदी वोट शेयर के साथ 54 सीटें ; मध्य प्रदेश में 48.6
प्रतिशत मत के साथ 163 सीटें; तथा, राजस्थान में 41.7 प्रतिशत के साथ 115
सीट हासिल कर बाज़ी पलट दी। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को 42.2 वोटों के साथ 35
सीटें मिलीं; मध्य प्रदेश में 42.1 प्रतिशत वोटों के साथ 66 सीटें; और
राजस्थान में 39.5 वोट शेयर के साथ 69 सीटें मिली।
इन तीनों ही
राज्यों में भाजपा का आधार पहले से ही मौजूद रहा है विशेषकर मध्य प्रदेश
में। यहां 2003 के चुनाव में भाजपा को 173, बाद में 143 और फिर 165 सीटें
मिलती रही हैं। इसी तरह छत्तीसगढ़ में भी अलग राज्य बनने के बाद ही भाजपा
50 सीटें हासिल करती रही हैं। और मत प्रतिशत 40 के आसपास रहा है। राजस्थान
में 2003 में भाजपा को 120 तो 2013 में 45 प्रतिशत मतों के साथ 163 सीटें
मिली हैं।
ये तथ्य खुद में, यह बता देते हैं कि जो मीडिया
मोदी को सर्वाधिक लोकप्रिय और मतदाताओं को अपनी ओर खींचने वाला बताते हैं
उसकी हकीकत में क्या स्थिति है। इस तरह भाजपा यानी हिंदू फासीवादियों की
मौजूदा चुनाव में जीत कहीं से भी 2024 के आम चुनाव में जीत की गारंटी नहीं
हैं। यदि इस लिहाज से नहीं तो इस तर्क से भी की 2018 के चुनाव में भाजपा की
इन राज्यों में हार हुई थी जबकि फिर 2019 के आम चुनाव में भाजपा जीत गई
थी।
मोदी शाह और भाजपा की जीत की सबसे बड़ी ताकत है कॉरपोरेट
पूंजी का खुला साथ। कॉरपोरेट पूंजी अपने फंड और मीडिया के दम पर मोदी को
देश की तस्वीर बदल देने वाला और सर्वश्रेष्ठ नेता बताता है। इसके साथ ही
इनकी सबसे बड़ी ताकत इनका संगठन और सांगठनिक नेटवर्क, अफवाह मशीनरी है
जिसके दम पर ये जमीनी स्तर पर फीड बैक लेते हैं और माहौल को रातों रात
बदलने की कोशिश करते हैं। इसके अलावा केंद्र की सत्ता में होने के अतिरिक्त
फायदे इन्हें मिल जाते हैं। इनकी उग्र हिंदुत्व की राजनीति इसके साथ साथ
चलती है जिसे कभी भी इस सबसे अलग नहीं किया जा सकता। इसके अलावा इनके पास
तमाम तिकड़में हैं विरोधी मतदाताओं के नाम मतदाताओं की सूची से गायब कर
देना तथा फर्जी वोटिंग; यह सब सूक्ष्म स्तर पर होता है। जिसका नतीजा यही
होता है कि यदि जनता के स्तर पर बड़े स्तर पर इनके खिलाफ़ वोटिंग ना हो या
इन्हें वोट ना मिले तो इनका हारना तय है।
ये कॉरपोरेट मीडिया और ई डी जैसी सस्थाओं के दम पर विपक्ष की साख को मिट्टी में मिलाने का अभियान चलाते हैं।
मौजूदा विधान सभा चुनावों में विशेषकर उत्तर भारत में यही काम
इन्होंने किया। चुनाव को हर बार की ही तरह मोदी बनाम स्थानीय विपक्ष नेता
किया गया। केंद्रीय नेताओं को झोंक दिया गया। जब कभी इस रणनीति में ये
चुनाव में हारते हैं तब फिर ठीकरा दूसरों पर मढ देते हैं जबकि जीतने पर वह
सिर्फ मोदी की जीत होती हैं।
विपक्ष की पूंजीवादी पार्टियां
विशेषकर कांग्रेस जो कि हिंदू फासीवादियों को चुनाव में हरा देने का दावा
कर रही थी खुद हार गई। 2024 के लिए जो गठबंधन सितंबर में जोर शोर से आगे
बढ़ रहा था वह विधान सभा चुनाव आते आते बिखर गया। भानुमति का कुनबा अपने ही
अंतर्विरोधों से पार नहीं पा सका है। कांग्रेस इसमें अपने वर्चस्व को, इस
चुनाव में जीत लेने के बाद बनाने की मंशा रखती थी मगर बेचारों के लिए वह
स्थिति बन ही नहीं पाई।
विपक्ष की अन्य छोटी और राज्य के स्तर की
पार्टियां के पास सिवाय कांग्रेस के इर्द गिर्द सिमटने के अलावा और कोई
रास्ता नहीं बचा है। इसे कांग्रेस भी जानती है। इसी लिए आम चुनाव के लिए
किस पार्टी को कितनी सीट मिलेंगी, इसका झगड़ा अभी जारी है।
विपक्ष की इस स्थिति से वे लोग बहुत हैरान परेशान हैं जिन्हें राहुल गांधी
और राहुल की कांग्रेस हिंदू फासीवादियों को टक्कर देते हुए नजर आते
हैं।जिन्हें लगता है यही हिंदू फासीवादियों से मुक्ति दिला सकती है। इनका
भरोसा जनता पर नहीं है। ये भूल गए हैं कि इतिहास का निर्माण जनता ही करती
हैं।
सही बात यही है कि विपक्ष की जीत से जनता को कोई मुक्ति
नहीं मिलने वाली। ना तो दुख तकलीफों से ना ही हिंदू फासीवादियों से।
छत्तीसगढ़, राजस्थान में भाजपा की सरकार के हार के बाद कांग्रेस का जीतना
फिर से भाजपा का यहां सत्ता पर आ जाना, इस चीज को स्पष्ट कर देती है। यही
स्थिति देश में आम चुनावों में भी विपक्ष के जीतने की स्थिति में भी बनेगी।
क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन का आठवां सम्मेलन
क्रालोस का आठवां सम्मेलन 24- 25 जून 2023 को उत्तर प्रदेश के बरेली शहर
में आएशा पैलेस में आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में उत्तर प्रदेश,
उत्तराखंड, दिल्ली के प्रतिनिधियों ने भागीदारी की।
सम्मेलन की शुरुआत 24 जून को प्रातः 8 बजे झंडारोहण के साथ शुरू हुई।
संगठन के अध्यक्ष पी पी आर्या ने झंडारोहण किया। झंडारोहण की कार्यवाही के
बाद प्रगतिशील सांस्कृतिक मंच ने ( मेरा रंग दे बसंती चोला ) गीत प्रस्तुत
किया। इसके बाद अलग अलग संघर्षों में दुनिया और देश के भीतर शहीद हुए
शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित की गई और 2 मिनट का मौन रखा गया।
अध्यक्षीय संबोधन में पी.पी.आर्या ने कहा कि संगठन अपने पच्चीस साल की
यात्रा में तमाम उतार चढ़ावों से गुजरते हुए आगे बड़ा है। संगठन जन
सरोकारों से जुड़े मुद्दों तथा जनवादी , संवैधानिक अधिकारों के लिए
क्षमताभार संघर्ष करता रहा है। संगठन ने मेहनतकश जनता और शोषित उत्पीड़ित
समूहों के न्याय प्रिय आंदोलनों का समर्थन किया हैं तो कई मौकों पर
आंदोलनों को नेतृत्व देने का प्रयास किया है।
इसके बाद अध्यक्ष ने सम्मेलन के संचालन के लिए एक तीन सदस्यीय संचालक मंडल का नाम प्रस्तावित किया जिसे सदन में उपस्थित प्रतिनिधियों ने अनुमोदित किया। इसके बाद सम्मेलन के बंद सत्र की शुरुआत हुई।
सम्मेलन में राजनीतिक रिपोर्ट तथा सांगठनिक रिपोर्ट पर चर्चा की गयी।
राजनीतिक रिपोर्ट के अंतरराष्ट्रीय परिस्थिति वाले हिस्से पर बात रखते हुए
वक्ताओं ने कहा कि 2007 से शुरू हुआ विश्व अर्थव्यवस्था का संकट कोरोना
महामारी के बाद और भी घनीभूत हुआ है। इस संकट ने दुनिया में राजनीतिक,
सामाजिक, और सांस्कृतिक संकट को घनीभूत किया है। दक्षिणपंथी, फासीवादी
राजनीति का उभार बढ़ा है। कई देशों में राजनीतिक अस्थिरता भी बढ़ी है। इस
चौतरफा संकट ने समाज में एकाकीपन, भरोसे की कमी, आत्मकेंद्रीयता को बढ़ाया
है।
वक्ताओं ने यह भी रेखांकित किया कि चीन के एक नई
साम्राज्यवादी ताकत के रूप में सामने आने और रूस के फिर से उभार ने
साम्राज्यवादियों के बीच टकराहट को बढ़ाया है। जिससे एक और रूस यूक्रेन
युद्ध में रूसी साम्राज्यवादी और अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी
साम्राज्यवादी शासकों की सनक का शिकार जनता को होना पड़ रहा है। दुनिया में
शरणार्थी और प्रवासी संकट भी गहरा गया है। दुनिया में बढ़ते फासीवादी उभार
ने मजदूर मेहनतकश जनता सहित शोषित उत्पीड़ित समूहों पर हमलों को तीखा किया
है। जनवादी अधिकारों पर भी हमले तेज हुए हैं।
इस उत्पीड़न , शोषण के खिलाफ पैदा हो रहे संघर्षों के दौरान जनता एक बेहतर
समाज की ओर भी आगे बढ़ेगी ऐसी आशा सम्मेलन ने जाहिर की।
इसी तरह राष्ट्रीय परिस्थिति वाले हिस्से पर चर्चा करते हुए कहा गया कि
विश्व परिस्थियों से भारत भी अछूता नहीं है। हमारे यहां भी आर्थिक ,
सामाजिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक स्थितियां विकराल स्थिति ग्रहण कर रही
हैं। देश में गरीबी , बेरोजगारी, महंगाई, भुखमरी, असमानता लगातार बढ़ रही
है। मजदूरों मेहनतकशों पर हमले तेज हुए हैं। अल्पसंख्यक समुदाय को हाशिये
पर धकेलने के हिंदू फासीवादी शासकों द्वारा प्रयास किए जा रहे हैं। मेहनतकश
जनता के संवैधानिक, जनवादी व नागरिक अधिकारों का गला घोंटा जा रहा है।
वहीं दूसरी तरफ फासीवादी एजेंडों को आगे बढ़ाने के लिए देश में अराजकता और
हिंसा का माहौल पैदा किया जा रहा है। उत्तराखंड , उत्तर प्रदेश , मध्य
प्रदेश में 'लव जिहाद', 'लैंड जिहाद' आदि फासीवादी एजेन्डे फासीवादियों के
मंसूबों को दिखाती है। वही मणिपुर जैसी स्थितियां दिखाती हैं वर्तमान शासक
पूरे देश को नफरत की आग में झोंक देना चाहते हैं।
इस दौरान
देश ने नागरिकता कानून विरोधी आंदोलन, ऐतिहासिक किसान आंदोलन, महिला
पहलवानों के आंदोलन और जगह जगह काफी लंबे चल रहे मजदूर आंदोलन इसके अलावा
देश भर जारी जनवादी आंदोलन एक उम्मीद की किरण भी दिखाते हैं। इन सब
परिस्थितियों पर बात करने के बाद सदन ने राजनीतिक रिपोर्ट को पास किया।
सदन में सांगठनिक रिपोर्ट पर भी विस्तार से चर्चा हुई जिसमे पिछले सम्मेलन
से अब तक की कार्यवाहियों का ब्यौरा पेश किया गया। तथा संगठन ने अपनी
उपलब्धियों एवं कमियों खामियों को चिन्हित करते हुए अगले सम्मेलन तक के लिए
अपनी लिए कार्य योजना पेश की।
अगले दिन सम्मेलन ने
विभिन्न सामायिक विषयों पर प्रस्ताव पास किए। ये प्रस्ताव दलितों
अल्पसंख्यकों पर बढ़ते हमलों के विरोध में, समान नागरिक संहिता के संबंध
में, चारों श्रम संहिताओं के विरोध में, बढ़ते फासीवादी हमलों के विरोध
में, एन पी एस के विरोध में , मणिपुर में जारी हिंसा के संबंध में आदि
मामलों पर थे। जिसे सम्मेलन में पास किया।
इसके बाद चुनाव
हुए। अध्यक्ष के रूप में पी पी आर्या और महासचिव के रूप में भूपाल का
चुनाव किया गया। संगठन के नवनिर्वाचित अध्यक्ष ने बिरादर संगठनों से आए
पर्यवेक्षक साथियों और तकनीकी सहयोग के लिए आए साथियों का धन्यवाद किया
जिनकी वजह से सम्मेलन ठीक से आयोजित हो पाया।
इसके बाद
दोपहर दो बजे से खुले सत्र का आरम्भ किया गया। जिसमे शहर से तमाम ट्रेड
यूनियन, सामाजिक संगठनों और सहयोगी संगठनों के साथी उपस्थित रहे। सभी
साथियों ने संगठन की सम्मेलन के लिए बधाई दी। तथा नई कमेटी व पदाधिकारियों
को बधाई दी। सभी ने संगठन से जनवादी आंदोलन को आगे बढ़ाने की आशा व्यक्त
की। खुले सत्र में वक्ताओं ने आज की पतिस्थियों और देश दुनियां में मेहनतकश
जनता के हालत, उस पर किए जा रहे हमलों, सरकार की जन विरोधी नीतियों,
संघर्षों के दमन , दलितों अल्पसंख्यकों पर बढ़ते हमलों, जनवादी व संवैधानिक
अधिकारों के हनन आदि मसलों पर चिंता जाहिर करते हुए बातें की।
खुले सत्र को बरेली ट्रेड यूनियंस के महामंत्री संजीव मेहरोत्रा, बरेली
कॉलेज के कर्मचारी नेता जितेंद्र मिश्र, ट्रेड यूनियन नेता महेश गंगवार, पी
यू सी एल के साथी एड यशपाल सिंह, मजदूर सहयोग केंद्र के साथी दीपक
सांगवाल, इंकलाबी मजदूर केंद्र के साथी रामजी सिंह, परिवर्तनकामी छात्र
संगठन के महासचिव साथी महेश, प्रगतिशील महिला एकता केंद की साथी हेमलता,
सामाजिक न्याय फ्रंट के साथी सुरेंद्र सोनकर, टेंपो यूनियन के साथी कृष्ण
पाल, सामाजिक कार्यकर्ता साथी ताहिर बेग, प्रगतिशील सांस्कृतिक मंच के साथी
ओम प्रकाश, ट्रेड यूनियन नेता सलीम अहमद ने संबोधित किया।
अंत में संगठन के नवनिर्वाचित अध्यक्ष साथी पी पी आर्या ने वर्तमान
परिस्थितियों और संघर्ष की जरूरत पर विस्तार से बात रखी और सभी साथियों का
क्रांतिकारी अभिवादन किया। प्रगतिशील सांस्कृतिक मंच के साथियों ने बंद
सत्र और खुले सत्र में जोशीले क्रांतिकारी गीतों के माध्यम से सम्मेलन में
क्रांतिकारी उत्साह बनाए रखा इसके लिए उन्हें धन्यवाद।
खुले सत्र के बाद एक सांकेतिक जुलूस निकाला गया। इस बीच में पुलिस प्रशासन
ने जुलूस में हस्तक्षेप किया व अकारण ही टकराव पैदा करने की कोशिश की।
जुलूस झंडे , बैनर, तख्तियों पर लिखे नारों से लोगों को आकर्षित कर रहा
था। जुलूस में जोशीले नारे लगाते हुए साथी आगे बढ़ रहे थे। जुलूस सम्मेलन
आएशा पैलेस से शुरू होकर जगत पुर पुलिस चौकी होते हुए बीसलपुर चौराहे तक
गया उसके बाद उसी रास्ते वापस आ गया। सम्मेलन स्थल पर साथियों ने उत्साह से
गीत गाए। तत्पश्चात सम्मेलन की पूरी कार्यवाही सफलता पूर्वक संपन्न हुई।
खामोश प्रतिरोध व भयानक यंत्रणा के बीच 5 अगस्त का शिलान्यास
बीते साल जब अभी अर्थव्यवस्था के भीषण संकट को लेकर देश की मीडिया में हाहाकार मचा ही था कि तभी यकायक मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर की पुरानी स्थिति खत्म कर दी। अनुच्छेद 370 को खत्म कर दिया गया। पुनर्गठन बिल के जरिये राज्य को दो हिस्सों में बांट दिया गया। जम्मू-कश्मीर की आम जनता इस फैसले के खिलाफ अपना प्रतिरोध, अपनी पीड़ा न व्यक्त कर सके इसके सारे घृणित प्रबंध किए गए। कश्मीर को संगीनों के साये में कैद कर दिया गया। देश से इस हिस्से का अलगाव कर कश्मीरी अवाम को हर संपर्क से काट दिया गया। इंटरनेट भी पूरी तरह बंद कर दिया गया।
जनता के उग्रप्रतिरोध का वह सिलसिला जो छल-कपट व घोर दमन के बावजूद उतार चढ़ाव के साथ निरन्तर बना हुआ था वह इस बार खामोश प्रतिरोध में बदल गया। यह खामोशी व अलगाव अब और ज्यादा गहन हो गया है। कश्मीरी अवाम की दुख, तकलीफें और भयावह यंत्रणा इस गुजरे एक साल में बढ़ती गई है। ऐसा नहीं कि प्रदर्शन सड़कों पर नहीं हुए। मगर बुनियादी तौर पर प्रतिरोध में गहन खामोशी थी और आज भी है।
जो दावे मोदी सरकार द्वारा किये गए थे कि यह कश्मीरी अवाम की बेहतरी के लिए है कि 370 व 35 ए ने कश्मीर के विकास को रोका हुआ है कश्मीर पिछड़ा हुआ है 370 के खत्म हो जाने से कश्मीर व कश्मीरी अवाम का विकास होगा कि आतंकवाद का सफाया हो जाएगा, ये दावे खोखले थे और गुजरे एक साल ने साबित किया कि सब कुछ इसके विपरीत ही हुआ है
कश्मीर से बाहर भी इन्हें निशाना बनाया गया। सी.ए.ए. विरोधी प्रदर्शनकारियों में भी विशेष तौर पर इन्हीं को निशाना बनाया गया, इन्हें 'गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम' यू ए पी ए के तहत जेलों में ठूंस दिया गया। केंद्र सरकार से असंतोष जताने वाले व कश्मीरी अवाम के दुख तकलीफों को अपनी रिपोर्ट के जरिये दुनिया को बताने वाले ककश्मीरी पत्रकारों को ही यू ए पी ए के तहत जेलों में डाल दिया गया। कश्मीर की जनसांख्यिकी ( डेमोग्राफी ) बदलने की दिशा में कई कदम इस लौकडाऊन के काल में किये गए है।
अब ठीक एक साल बाद 5 अगस्त को ही राम मंदिर का शिलान्यास की तिथि तय की गई है। पिछले साल 5 अगस्त को जम्मू-कश्मीर से 370 को खत्म करके अब इस साल 5 अगस्त को ही मंदिर शिलान्यास की तिथि घोषित करने का क्या मकसद है ? इसके जरिये क्या संदेश दिया जाना है ? इसका मकसद साफ है हिन्दू फासीवादी आंदोलन को समाज में निरंतर बरकरार रखना तथा इसे ज्यादा ऊंचाई की ओर ले जाना, नग्न आतंकी तानाशाही की दिशा में कदम और आगे बढ़ाना। इसका मूल मकसद है लौकडाऊन के चलते तबाह बर्बाद हो चुके आम अवाम को असन्तोष को डाइवर्ट करना तथा सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था के तबाह कर दिए जाने के चलते कोरोना संक्रमण के चलते असमय मारे जा रहे आम लोगों के असन्तोष, आक्रोश को ध्वस्त करना।
इस 5 अगस्त के शिलान्यास को के जरिये अघोषित तौर पर हिन्दू राष्ट्र के गठन के प्रतीक के तौर पर हिन्दू बहुसंख्यक आबादी में संदेश देना भी है। इसका मतलब है अघोषित तौर पर देश को हिन्दू राष्ट्र बताना। धर्मनिरपेक्षता का जो औपचारिक आवरण है उसे उतार फैंकने के बहुत करीब हिन्दू फासीवादी पहुंच चुके हैं। व्यवहार में अघोषित तौर पर दोयम दर्जे की स्थिति में धकेल दिए गए अल्पसंख्यक मुस्लिम आबादी और ज्यादा अलगाव की ओर बढ़ेगी दूसरी ओर देश के बहुसंख्यक मज़दूर मेहनत कशों की बदहाली और ज्यादा तेज़ी से आगे बढ़ेगी।
मगर इतिहास या समाज, शासकों के चाहने या उनके अपने मन मुताबिक करतूतों से ढल जाने वाला होता तो फिर समाज या इतिहास वैसा नहीं होता जैसा आज है। वहीं ठहरा रहता। यही मोदी सरकार के तमाम फासीवादी प्रयासों के बावजूद होगा। इतिहास और समाज निश्चित तौर पर आगे बढ़ेगा। तब इतिहास अपने दोहराव के बावजूद ठीक वैसा ही नहीं होगा जैसा 100 साल पहले हुआ था। जब हिटलर व मुसोलिनी तथा इनके संगठनों को ध्वस्त कर दिया गया था मगर फिर भी फासीवाद को पालने पोसने जमीन मौजूद रही थी। अब समाज व इतिहास वहां खड़ा होगा जहां फासीवाद का समूल नाश कर दिया जाएगा
उत्तर प्रदेश विकास दुबे एनकाउंटर के निहितार्थ
एक बार फिर उत्तर प्रदेश फर्जी मुठभेड़ के चकते चर्चा में आ गया। यह फर्जी।मुठभेड़ भी प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी की ‘ठोक दो’ यानी ‘एनकाउंटर’ की नीति का नतीजा थी। विकास दुबे के एनकाउंटर के मामले की प्रशंसा व विरोध में मीडिया में बहस केंद्रित थी।
विकास दुबे पर 60 से ज्यादा संगीन अपराध के मुकदमे दर्ज थे, इसकी ‘हिरासत में हत्या' किये जाने की संभावना है। विकास दुबे ने मध्य प्रदेश के उज्जैन के मंदिर से आत्मसमर्पण करने की बात मीडिया में गूंजी है। कहा जा रहा है इसके बाद उत्तर प्रदेश पुलिस, एस टी एफ उसे गाड़ी में लेकर आ रही थी। उत्तर प्रदेश में ही पहुंचकर रास्ते में ही कथित मुठभेड़ हुई। मगर इस एस टी एफ की कहानी पर कोई विश्वास करने को तैयार नहीं। वास्तव में यह मुठभेड़ नही हत्या है।
पूंजीवादी समाज में इस तरह के कथित अपराध या अपराधियों का पैदा होना कोई अचरज की बात नहीं है गैर कानूनी करार दिए गए काम या अपराध जैसे स्मगलिंग, शराब व जमीन का अवैध कारोबार, अवैध वसूली आदि-आदि इस समाज में लगातार चलते रहते हैं जिन्हें अंजाम देने वाले अपराधी ही होते हैं।
उत्तर प्रदेश में 2017 से दिसम्बर 2019 तक 5178 ‘एनकाउंटर’ पुलिस द्वारा किये गए जिसमें 103 की हत्या कर दी गई जबकि 1859 घायल हुए। देश में 2019 में 1731 नागरिकों की मौत हिरासत में हुई है। इसमें से 1606 न्यायिक हिरासत (मजिस्ट्रेट के आदेश पर जेल में भेजा जाना) में मारे गए जबकि 125 पुलिस हिरासत में। न्यायिक हिरासत में होने वाली मौतों की वजह प्राकृतिक या अप्राकृतिक बताई जाती है। यदि इसकी गहन जांच हो तो पता लगेगा कि इसमें से अधिकांश परोक्ष या प्रत्यक्ष हत्याएं ही थीं।
उत्तर प्रदेश में बढ़ते एनकाउंटर की वजह से ही विपक्षी पार्टियों के कई नेता उत्तर प्रदेश को ‘एनकाउंटर प्रदेश’ भी कहते हैं। यह बात कुछ हद तक सही है। मगर ये अपने दौर को भूल जाते हैं।
पी चिदंबरम के गृहमंत्रित्व काल को थोड़ा याद कीजिये। तब कांग्रेस की सरकार थी। उस जमाने में माओवादी नेताओं का एनकाउंटर आम बात हो चुकी थी। ये फर्जी एनकाउंटर ही होते थे। नागपुर में हुए हेम पांडे व माओवादी नेता आजाद के एनकाउंटर पर तो उस समय खूब हंगामा भी मचा था। तमिलनाडु, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र आदि में माओवाद के नाम पर फर्जी एनकाउंटर कर कई आदिवासियों की हत्या की जा चुकी हैं। इस संबंध में कई रिपोर्ट भी हैं।
जहां तक हिन्दू फासीवादी ताकतों के राज में होने वाले एनकाउंटर का सवाल है इसकी अन्य वजह भी हैं। जैसा कि फासीवादियों के बारे में कहा जाता है कि फासीवादी सबसे ज्यादा पतित, सबसे ज्यादा भ्रष्ट तत्व होते हैं। एक मायने में ये पूंजीवादी राज्य से इतर सबसे ज्यादा संगठित आपराधिक तत्व भी हैं। यही वजह है कि गुजरात से लेकर उत्तर प्रदेश तक ‘फर्जी एनकाउंटर’ को न केवल अंजाम दिया जाता है बल्कि इसे ग्लैमराइज या महिमामंडित भी किया जाता है। इसे इनकी नजर में या आम तौर पर परिभाषित अपराध को खत्म करने में सबसे बड़े ‘हथियार’ के रूप में प्रस्तुत व प्रचारित किया जाता है। चूंकि इनके द्वारा समाज में निरंतर यह प्रचारित किया गया है कि मुस्लिम अपराधी ही होते हैं। इस तरह आसानी से ये एनकाउंटर के जरिये भी अपनी फासीवादी ध्रुवीकरण की राजनीति को आगे बढ़ाते हैं
हकीकत क्या है? यही कि पुलिस संस्था इस पूंजीवादी शासन-प्रशासन का एक महत्वपूर्ण अंग है कि पूंजीवाद में पूंजीपति वर्ग की ही सत्ता होती है, यही शासक है जो कि अल्पसंख्यक हैं जबकि बाकी बहुसंख्यक मजदूर-मेहनतकश जनता है जो इसमें शोषित उत्पीड़ित है।
पुलिस तंत्र पूंजीपति वर्ग की सत्ता का ही एक दमनकारी औजार है जो कि आम जनता के न्यायपूर्ण व जनवादी प्रतिरोध को नियंत्रित करता है। ऐसा केवल पुलिस द्वारा होने वाले सामान्य दमन से लेकर बर्बर दमन के जरिये ही संभव होता है। इसी को कथित सभ्य जगत के लोग ‘लाॅ एंड आर्डर’ (कानून व्यवस्था) का मसला कहते हैं जिसे कथित शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए अनिवार्य माना जाता है।
इसीलिए पुलिस तंत्र में होने वाले सुधारों का सीधा संबंध शासक पूंजीपति वर्ग से है। यही वजह थी कि आजाद भारत के उस दौर के शासकों ने नेहरू की अगुवाई में ब्रिटिश शासकों द्वारा खड़े किये गए दमनकारी औजार, पुलिस तंत्र को भी लगभग वैसे ही बने रहने दिया। इसमें जातिवादी, स्त्री विरोधी, सामंती मूल्य तथा साम्प्रदायिक मूल्य व चेतना को बने रहने दिया गया।
आज के दौर में जबकि फासीवादी ताकतों को शासक पूंजीपति वर्ग द्वारा सीधे सत्ता पर बिठाया जा चुका हो तब ऐसे अंधेरे दौर में कोई भी सुधार नहीं होने वाला है बल्कि उलटा ही होना है। उत्तर प्रदेश, दिल्ली में सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों के निर्मम दमन तथा भीमाकोरेगांव मसले ने स्पष्ट कर दिया है कि पुलिस किस हद तक फासीवादियों के औजार की तरह काम कर रही है वस्तुतः यह आज की पूंजीपति वर्ग की जरूरत के अनुरूप ही हो रहा है।
भारत की सीमा पर गलवान घाटी में चीनी व भारतीय सैनिकों के बीच संघर्ष में तकरीबन 20 भारतीय सैनिकों के मारे गए हैं। इस घटना के बाद देश में अन्धराष्ट्रवादी उन्माद का शोर फिर चरम पर है। पिछले कई दिनों से चीनी व भारतीय शासकों के बीच लगातार अंतर्विरोध बढ़े है जिसकी परिणति के बतौर एक ओर सीमा पर तो दूसरी ओर देश के भीतर कॉरपोरेट मीडिया व संघी आई टी सेल द्वारा युद्धोन्माद व अन्धराष्ट्रवाद का माहौल बनाया गया।
इस युद्धोन्माद व अन्धराष्ट्रवाद की कीमत मज़दूरों किसानों के बेटों को अपनी जान के रूप में सरहद पर चुकानी पड़ी है। यह बेहद दुःखद है। यह सीमा के इस व उस पार दोनों जगहों पर है।
यह बेहद संगीन व दुखदायी स्थिति है कि एक तरफ देश के भीतर मजदूर मेहनतकश लोग, शासकों के घोर पूंजीपरस्त व घोर जनविरोधी होने के चलते मारे जा रहे हैं तो दूसरी तरफ उनके बेटे अन्धराष्ट्रवादी युद्धोन्माद में सरहदों पर मारे जाते हैं।
अन्धराष्ट्रवादी युद्धोन्माद शासकों के लिए ऐसा मुद्दा है जहां पूँजीवादी शासक, चाहे वे उदारवादी हों या फिर फासीवादी, एक हो जाते हैं। मगर फासीवादी ताकतों के लिए तो यह कोर मुद्दा है। आज अन्धराष्ट्रवाद अमेरिका से लेकर दुनिया के अधिकांश मुल्कों में छाया हुआ है। इसके जरिये फासीवादी ताकतों को एकाधिकारी पूंजी आगे बढ़ा रही है।
भारत जैसे मुल्कों के लिए अन्धराष्ट्रवाद व युद्धोन्माद के दो पहलू हैं एक तरफ कमजोर मुल्कों को सर्जीकल स्ट्राइक व घर में घुसकर मारने की धमकी देना तो दूसरी ओर अपने से ताकतवर पूँजीवादी मुल्कों के सामने दुम हिलाना, मालों के बाहिष्कार की खोखली धमकी देना।
पड़ोसी मुल्कों के खिलाफ नफरत फैलाना, युद्ध के उकसावे की राजनीति, सैन्य महिमामंडन, छद्म युद्ध ! पूँजीवादी फासीवादी शासकों की यह अन्धराष्ट्रवादी राजनीति बहुसंख्यक नागरिकों के लिए बेहद खतरनाक है। आम नागरिकों, मजदूर मेहनतकशों, निम्न मध्यम वर्ग व मध्यम वर्गीय लोगों, सभी के असन्तोष, संकट से ध्यान हटाने तथा इमके तमाम संघर्षों को ध्वस्त कर देने व डाइवर्ट कर देने में अन्धराष्ट्रवाद शासकों का बेहद मारक हथियार है।
कोरोना महामारी ने संकट ग्रस्त पूंजीवाद के संकट को गहनतम कर दिया है जो विश्वअर्थव्यवस्था पहले ही संकट में थी व भारत की भी। वह धराशायी होने की ओर बढ़ी है। इस महामारी ने पूंजीवाद की सीमाओं को तीखे ढंग से उजागर किया है। इसने पूँजीवादी फासीवादी शासकों के नकाब लगे घृणित चेहरों को नंगा कर दिया है।
इसलिये ऐसे दौर में अन्धराष्ट्रवाद व युद्धोन्माद जैसा माहौल बनाये रखना बेहद जरूरी हो जाता है।
कोरोना जैसी महामारी या अन्य भीषण आपदा, ऐसे समाज में जिसकी बुनियाद शोषण पर टिकी हुई हो, जहां मुनाफा ही जीवन दर्शन हो, जहां पूंजी ही सब कुछ हो, जहां व्यक्ति व समाज के बीच दुश्मनाना द्वंद हो, जहां पूंजीपति-मजदूर, डॉक्टर-मरीज,वकील-क्लाइन्ट व अन्य रूप में दो परस्पर निरंतर विरोधी हितों में भयानक टकराहट हो ! पूंजीपति वर्ग ही समाज में हावी होता है। यहां समाज , सामाजिक हित नेपथ्य में चला जाता है व्यक्तिगत हित सर्वोपरी हो जाते हैं। यहां पूंजीपति वर्ग कहता है हर व्यक्ति अपने अपने लिए मेहनत करेगा तो समाज भी ऊपर उठ जाएगा, मगर ऐसा होता नहीं, पूंजीपतिवर्ग शेष समाज की तबाही बर्बादी की कीमत पर आगे बढ़ता जाता है ऐसे समाज में त्याग-समर्पण व बलिदान का भाव कहां से आये। जबकि भीषण आपदा व महामारी से निपटने में इन मूल्यों की भी सख्त दरकार होती है। यह पूँजीवाद की सीमा है। यह केवल समाजवाद में ही सम्भव है।
पूंजीवाद बहुसंख्यक आम नागरिकों को आज के दौर में केवल और केवल तबाही बर्बादी दे सकता है। यह लूट खसोट के जरिये भी होता है यह सामाजिक व्यय में भारी कटौति व टेक्स की बढ़ोत्तरी के जरिये भी होता है तो यह अन्धराष्ट्रवाद व युद्धोन्माद के जरिये भी होता है। इसलिए बेहद जरूरी है कि इसका हर संभव विरोध किया जाय।
ज्यार्ज फ्लॉयड की हत्या व अमेरिकी जनता का प्रतिरोध
'अश्वेतों की जान मायने रखती है' ! तथा ' मैं सांस नहीं के पा रहा हूँ'' ! इन्हीं नारों के साथ अमेरिका के कई शहरों में न्याय, अधिकार, समानता की आकांक्षा लिए हजारों लोग सड़कों पर 26 मई से प्रर्दशन को निकल पड़े हैं। यह सैलाब आगे बढ़ता जा रहा है। इसके दमन के लिए राष्ट्रीय गार्ड लगा दी गई है मगर संघर्ष फैल रहा है। अब धूर्त अमेरिकी शासक मिलिट्री की बातें भी करने लगे हैं।
10 जून तक 200 शहरों में फैल चुका यह प्रदर्शन 46 वर्षीय अश्वेत (काले) जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या के विरोध में है। फ्लॉयड की हत्या श्वेत (गोरे) पुलिस कर्मी ने की। अमेरिका के मिनेसोटा राज्य में मिनियापोलिस शहर में यह घटना हुई थी। इसमें 4 पुलिसकर्मी शामिल थे। एक पुलिसकर्मी ने अपने घुटने से फ्लॉयड का गला दबाया और तब तक दबाता रहा जब तक कि उसकी मौत नहीं हो गई। इस दौरान ज्यार्ज कहता रहा 'मैं सांस नहीं ले पा रहा हूँ'। मगर इस आवाज को अनसुना कर दिया गया। बाकी पुलिसकर्मी इस दौरान सहयोगी की भूमिका में थे।
इन्हीं 4 पुलिसकर्मियों की गिरफ्तारी के लिए आक्रोश सड़कों पर फुट पड़ा। इस आक्रोश में लंबे वक्त से नस्लवादी हिंसा व उत्पीड़न के खिलाफ गूंज है। इस उमड़ते प्रदर्शन में लॉकडाउन में लम्पट ट्रम्प की अगुवाई में अमेरिकी लम्पट शासकों के घृणित तौर तरीकों से उपजी हताशा निराशा की गूंज भी है साथ ही साथ बेरोजगारी, असुरक्षित भविष्य और भुखमरी सी स्थिति के खिलाफ भी यह आवाज है।
भारत में जो अल्पसंख्यक विरोधी घोर फासीवादी रुख, राजनीति तथा घृणित जातिवादी रुख के चलते आये दिन हिंसा की घटनाएं होती हैं भारतीय पुलिस विशेषकर उत्तर भारत तथा गुजरात में, जो घोर मुस्लिम विरोधी तथा जातिवादी है । वही चीज अमेरिका में घृणित नस्लवादी फासीवादी राजनीति के रूप में दिखाई देता हैं। आज के दौर में इन घोर फासीवादी प्रवृत्तियों का हावी होना अपने अंतिम मूल्यांकन में यह मरणासन्न पूंजीवाद के भीषण संकट की निशानी है।
फासीवादी नेता ट्रम्प ने अमेरिका में जन प्रतिरोध को कुचलने के लिए मिलिट्री लगाने की धमकी दी थी। तथा फासीवाद विरोधी मोर्चा 'एंटीफा' को आतंकवादी संगठन की श्रेणी में डालने की धमकी दी गई। एक शहर में मिलिट्री लगाई गई जबकि कई शहरों में 'पुलिस' के साथ राष्ट्रीय गार्ड लगाई गई। मगर दमन जितना बड़ा प्रतिरोध उससे ज्यादा गति से आगे बढ़ा।
इस व्यापक दमन में लगभग 10000 लोग गिरफ्तार किए जा चुके हैं। 13 लोगों की मौत हुई है। मगर संघर्ष और ज्यादा व्यापक अनुशासित हो चुका है।
यह प्रतिरोध अमेरिका के 27 राज्यों के 200 शहरों में फैल चुका है। इसमें अब मजदूर, नर्स भी शामिल हो चुके हैं। न केवल अमेरिका बल्कि यूरोप के कई मुल्कों में भी इस संघर्ष के समर्थन में बड़ी रैलियां निकली हैं।
अमेरिकी साम्राज्यवादी शासक वर्ग का दूसरा धड़ा संघर्ष का दिखावे के लिए तथा इसे अपने पक्ष में ढालने के लिए समर्थन व प्रयास कर रहा है।
इस संघर्ष की काफी सीमाएं भी है आंदोलन संगठित नहीं है तथा यह किसी क्रांतिकारी संगठनों के नियंत्रण में नहीं है। एंटीफा भांति भांति के विचारों वाले संघटनों का एक व्यापक प्लेटफार्म है जो फासीवादी रुझानों, कार्रवाइयों के खिलाफ कड़ा प्रतिरोध करता है।
जहां तक अमेरिकी समाज में नस्लीय भेद, नस्लवादी सोच का मसला है यह बेहद पुराना है। 16 वीं -17 वीं सदी में अमेरिकी महाद्वीप से सोने चांदी की तलाश ब्रिटेन, स्पेन, फ्रांस, पुर्तगाली शासकों में यहां इन्हें उपनिवेश बनाना शुरू कर दिया। अमेरिका के मूल निवासियों का एक ओर सफाया किया गया दूसरी ओर इन व्यापारिक साम्राज्यवादी देशों के बीच आपसी संघर्ष हुआ। उत्त्तरी अमेरिका के मुख्य हिस्सों पर ब्रिटेन का प्रभुत्व कायम हुआ। इसी दौर में अमेरिका में काम करवाने के लिए अफ्रीकी महाद्वीप से लाखों की तादाद में जहाजों में भर-भर कर काले (नीग्रो) लोगों को बंधक बनाकर, जबरन बेगारी हेतु अमेरिका ले जाया गया। यह आधुनिक 'दासता' का जमाना था। बड़ी तादाद में इन 'ग़ुलामों' 'दासों' का जो भोले-भाले इंसान थे, इनकी खरीद-फरोख्त का कारोबार विकसित हो गया था। इनसे खानों, खेतों व अन्य जगहों पर जबरन बेहद उत्पीड़नकारी ढंग से काम करवाया जाता था। काम के दौरान, भूख से, बीमारी से तथा जहाजों में भी लाखों की तादाद में, ये अश्वेत मारे गए।
वास्तविकता में यह परोक्ष हत्याएं थी। 'यूरोपीय सभ्य समाज' के चेहरे के भीतर 'यह घृणित व अमानवीय' चेहरा था। यह भारत में 'भारतीय व कुत्तों' को प्रवेश नहीं के 'नस्लीय श्रेष्ठता' के रूप में दिखता था। इसी भयानक लूट-खसोट ने ब्रिटेन, फ़्रांस में पूंजीवाद के विकास को तेज़ी से आगे बढ़ाया था।
इसी दौरान यानी 1776 में अमेरिकी क्रांति हुई। जिसका नारा 'स्वतंत्रता व समानता' का था। यह क्रांति ब्रिटिश शासकों तथा अमेरिका में बस चुके ब्रिटेन से ही प्रवासी हो चुके पूंजीपतियों, कारोबारियों तथा अन्य लोगों के बीच था।
यह पूँजीवादी क्रांति भी लाखों गुलाम अश्वेतों के जीवन में कोई बदलाव नहीं लाई। इसके उलट दासता को संस्थागत के दिया गया।
अमेरिका ( ब्रिटिश उपनिवेश वाली) के उत्तर व दक्षिण हिस्से में फर्क था। उत्त्तरी हिस्से में तेज पूँजीवादी विकास था, उद्योग का तेज विस्तार हो रहा था, यहां ग़ुलामों की जरूरत नहीं थी, दासता यहां विकास के आगे रोड़ा थी। इसीलिए इस हिस्से में दास प्रथा ख़तम होते चली गयी जबकि दक्षिण हिस्सा,पिछड़ा व कृषि वाला था यहां दासों की खूब जरूरत थी। दक्षिणी हिस्से अपने ढंग से चलना चाहते थे। सत्ता के केन्द्रीकरण (संघ) उत्त्तरी हिस्से की चाहत थी। 19 वीं सदी के 60 के दशक में उत्त्तरी व दक्षिणी हिस्से के संघर्ष ने गृह युद्ध का रूप धारण किया। अब्राहम लिंकन की अगुवाई में अन्ततः दक्षिणी हिस्से के प्रतिरोध को दमन कर गृहयुद्ध को जीत लिया गया। इस प्रकार वो संयुक्त राज्य अमेरिका वज़ूद में आया जिसमें लगभग 40 से ज्यादा राज्य (प्रांत) थे। यह गृह युद्ध दासों की मुक्ति के मकसद से नहीं था। अब दास प्रथा को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया।
ईसा नहीं कि इसके खिलाफ कोई प्रतिरोध न हुआ हो। 1811 में ही अश्वेत दासों द्वारा विद्रोह किया गया। तब 500 अश्वेत हथियारों से लैस होकर अंग्रेज शासकों के खिलाफ विद्रोह कोया मगर यह कुचल दिया गया।
अब इस विद्रोह के लगभग 50 साल बाद 'दास प्रथा' को गैरकानूनी घोषित किये जाने के बावजूद नस्लवादी भेदभाव, उत्पीड़न का खात्मा नहीं हुआ। 'शेयर क्रॉपर' व 'कन्विक्ट लिजिंग' के नाम से यह दूसरे रूप में जारी रही। हालांकि पहले की तुलना में यह कमजोर हो गयी। दासों का 90 फीसदी हिस्सा दक्षिणी हिस्से में था।
1916 में 200 शेयर क्रॉपर (अश्वेत) की हत्या हो कर दी गई। यह श्वेत पुलिसकर्मियों द्वारा की गई थी। इसे इलेन नरसंहार कहा जाता है। इस वक़्त लाखों की तादाद में दक्षिणी हिस्से से उत्तर की ओर अश्वेतों का पलायन या विस्थापन हुआ था।
सामाजिक राजनीतिक व आर्थिक हर स्तर पर यह नस्लीय भेदभाव, उत्पीड़न व हिंसा अलग अलग वक़्त पर फिर बाद में भी चलती रही। फासीवादी संगठन कु कलक्स क्लान (kkk) व पुलिस इसमें सबसे आगे-आगे थी।
1940 के दशक से सिविल राइट आंदोलनों ने जोर पकड़ा। जबकि इसी दौर में यानी पुनर्निर्माण व दूसरे युद्ध के बीच लगभग 5500 अश्वेतों (अफ्रीकी अमेरिकन) 'भीड़ हिंसा' में मारे गए थे।
ब्लैक पैंथर तथा मार्टिन लूथर किंग जूनियर की अगुवाई में 'मांगें व आकांक्षाएं' के रूप में मागें सूत्रीत की गई व व्यापक संघर्ष हुआ। यह 1960 के दशक में चला। 1968 तक आते आते यह आज के 'में सांस नहीं ले पा रहा हूं' 'अश्वेत जिंदगी मायने रखती है' व्यापक आंदोलन की तरह देशव्यापी हो गया। लाखों लोगों ने इसमें शिरकत की। मार्टिन लूथर की हत्या कर दी गई। आंदोलन का दमन भी किया गया। 40 से ज्यादा लोग मारे गए। तीन-चार हज़ार लोग घायल हो गए। लगभग 27000 से ज्यादा लोग गिरफ्तार कर लिए गए।
इस आंदोलन के दबाव में अश्वेतों के लिए आरक्षण की व्यवस्था अमेरिकी हुक्मरानों को करनी पड़ी। इसके बाद फ़िल्म इंडस्ट्री से लेकर, पुलिस, मिलिट्री व सभी जगहों पर अश्वेत लोग पहूंचे। इनका आत्मासातीकरण व्यवस्था में हुआ। यह वह दौर भी था जब पूँजीवादी अर्थव्यवस्था तेज़ी से आगे बढ़ रही थी। बाद में 70 के दशक में यह ठहराव की शिकार हुई।
बीते 50-60 सालों में अश्वेतों के बीच भी ध्रुवीकरण बढ़ा। यह लगभग भारत में जातिवाद के खात्मे के लिए शासकों द्वारा की गई आरक्षण व अश्पृश्यता उन्मूलन कानून जैसी ही थी तथा खुद जातिवाद का शिकार रहे समूह के भीतर इसने ध्रुवीकरण को अंजाम दिया। आज दलितों की पार्टियां है मगर वह दलित उत्पीड़न हिंसा पर खामोश है। क्योंकि मसला अब जाति नहीं वर्ग का है। यही पूंजीवाद का असल विभाजन है। यही स्थिति मुस्लिमों के मसले पर भी है।
यही चीज थोड़ा भिन्न रूप में अमेरिका में अश्वेतों के खिलाफ होती हिंसा व उत्पीड़न की है। इसीलिए अश्वेतों के बीच से वो लोग जो शासकों की जमात में पहुंच चुके हैं वो खामोश हैं।
पिछले 3 दशकों से जब से विश्व अर्थव्यवस्था संकट की ओर बढ़ी है व खुद अमेरिकी अर्थव्यवस्था भी। तब से अमेरिका के 7-8 प्रांतों में अश्वेतों व महिलाओं के लिए किये गए विशेष प्रावधानों को खत्म कोया जा रहा है।
अब 2007-08 से गहन संकट की ओर बढ़ चुकी विश्व अर्थव्यवस्था को 12 साल हो चुके हैं और अब कोरोना महामारी ने संकट को अप्रत्याशित रूप से कई गुना बढ़ा दिया है। अमेरिका में बेरोजगारी, महंगाई, इलाज के अभाव ने स्थिति को विस्फोटक बनाया है। अश्वेत लोग इसके सबसे ज्यादा शिकार है। दूसरी ओर फासीवादी राजनीति के अमेरिकी समाज में तेज़ी से बढ़ने के चलते अश्वेत, एशियाई व अप्रवासी लोगो पर हमले बढ़े हैं। गरीब अश्वेतों की स्थिति सबसे बदतर है। जेलों में सबसे ज्यादा यही हैं गरीब बस्तियों में अधिकांश यही हैं कोरोना का शिकार भी अधिकतर यही हैं। पुलिस की हिंसा का शिकार तो लंबे वक्त से होते रहे हैं।
कोरोना महामारी का शिकार भी अधिकांश इन्हीं के बीच से गरीब हैं। महामारी से निपटने की स्थिति ने अधिकांश को भयानक असुरक्षा में डाल दिया है। ट्रम्प के रवैये ने स्वास्थ्यकर्मियों से लेकर मजदूरों को भी आक्रोशित किया है साथ ही शासक वर्ग के दूसरे धड़े भी बेचैन हैं।
इन भयानक संकटग्रस्त स्थितियों में ही ज्यार्ज फ्लॉयड की हत्या ने चिंगारी का काम किया। इसने जंगल में आग की तरह फैलने का काम किया। इसमें अलग-अलग तरह के लोग शामिल हुए। यह संघर्ष फिलहाल उत्पीड़न, भेदभाव, असमानता के खिलाफ है। इसकी दिशा समाजवाद की ओर फिलहाल कतई नहीं है। इस दिशा में इसके बढ़ने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।
लॉकडाउन की घोषणा के बाद ऐसा लगा जैसा मोदी सरकार को अपनी मन की मुराद मिल गयी हो। एक-एक करके सीएए एनपीआर विरोधी प्रदर्शन में शामिल लोगों को मोदी सरकार निशाने पर लेने लगी। विशेषकर यह खेल दिल्ली में सीधे सीधे गृह मंत्रालय के अधीन पुलिस के माध्यम से किया गया।
दिल्ली में जिस दंगे के जरिये सीएए विरोधी प्रदर्शन को खत्म कर देने की साजिश रची गई थी, अब उसी की साजिश रचने का आरोप सीएए प्रदर्शनकारियों पर लगाये गए। कुछ लोगों पर गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम यानी यूएपीए के तहत मुकदमा दर्ज कर दिया गया। यह इत्तेफाक नहीं कि इसमें सभी मुस्लिम हैं। अधिकांश नौजवान है। कॉलेज में पढ़ने वाले हैं।
इन्हीं में एक है सफूरा जगर, जिनकी उम्र है 27 साल। वह अभी गर्भवती है इसके बाबजूद उन्हें तिहाड़ जेल में डाल दिया गया। इसके अलावा और भी है जिन्हें यूएपीए के तहत गिरफ्तार कर लिया गया।
सफूरा के खिलाफ हिन्दू फासीवादी तथा लम्पट मीडिया चरित्र हनन से लेकर भयानक दुष्प्रचार में लगा हुआ है।
इसके अलावा आपदा प्रबंधन एक्ट तथा महामारी रोग अधिनियम के तहत लोगों के, जनपक्षधर लोगों के तथा पत्रकारों की आवाज को भी खामोश किया जा रहा है। उन पर राजद्रोह से लेकर संगीन मुकदमे दर्ज किए गए हैं। आम लोगो के दुख तकलीफों का पता पूरे समाज को पता लगे, सरकार का घोर जनविरोधी रुख तथा संवेदनहीनता समाज को पता लगे, यह सरकार नहीं चाहती।
यहीं से फिर वह जो कोई भी सरकार को बेनकाब कर रहा है उसकी आवाज को बंद कर दिया जा रहा है। द वायर के संपादक, ठेका मजदूर कल्याण एसोसिएशन के अध्यक्ष, पछास के एक कार्यकर्त्ता तथा कई पत्रकार इसी दमन के शिकार हुए। बाकि आम अवाम तो लॉकडाउन के उल्लंघन में पिट रहीं है अपमानित हो रही है तथा मुकदमे झेल रही है।
साफ तौर पर यह स्थिति दिखाती है कि मोदी सरकार व इनकी राज्य सरकारें लॉकडाउन का इस्तेमाल अपने विरोधियों से निपटने तथा निरंकुशता की ओर बढ़ने के रूप में कर रही है।
कोरोना महामारी के दौर में काम के घंटो को 8 से 12 घंटे करने की ओर बढ़ते शासक
कोरोना संक्रमण, फासीवादी एजेंडा तथा तथा मज़दूर वर्ग
महाराष्ट्र के मामले को इसीलिए ध्यान में रखने की जरूरत है, महाराष्ट्र के पुणे शहर में 9 मार्च को कोरोना संक्रमण का पहला मामला सामने आया था। यह पहला मामला दुबई से लौटे युगल थे। और फिरइनके संपर्क में आये तीन अन्य लोग भी कोरोना संक्रमित हो गए। 11 मार्च को मुंबई में भी पहले दो मामले कोरोना संक्रमण के सामने आये। ये मामले भी पुणे के कोरोना संक्रमित युगल से संपर्क के थे। इसी दिन 11 मार्च को पुणे व नागपुर में कोरोना संक्रमण के तीन मामले सामने आए। ये तीनों अमेरिका की यात्रा से अभी लौटे थे। 14 मार्च को नागपुर में अमेरिका से लौटे कोरोना संक्रमित व्यक्ति की पत्नी व दोस्त भी इसके संपर्क में आने से कोरोना संक्रमित हो गए।
इस बीच 13 मार्च को ही महाराष्ट्र सरकार ने कोरोना वायरस संक्रमण के प्रसार को महामारी घोषित कर दिया तथा मुंबई, पुणे सहित 6 शहरों में 'महामारी रोग एक्ट 1897' लागू कर दिया।
भारत में कोरोना संक्रमण का पहला केस 30 जनवरी को पता लगा। यह केरल में था। इसके बाद केरल में ही 3 फरवरी को तीन मामले कोरोना वायरस संक्रमण के और पता लगे। इन सभी का संबंध चीन के वुहान से था। सभी छात्र थे।
फरवरी माह में सरकार के हिसाब से कोरोना संक्रमण के मामलों में कोई खास बढ़ोत्तरी नहीं हुई । फिर 4 मार्च को 22 मामले कोरोना संक्रमण के पता लगे। इनमें 14 इटली से आये पर्यटक भी थे।
पंजाब में सिक्ख धर्म के उपदेशक जो कि जर्मनी व इटली से होकर आए थे, मार्च के माह में पंजाब पहुंचे और इसके बाद, वे होला मोहल्ला कार्यक्रम में भी पहुंचे, जिसमें 20 लाख लोगों के शामिल होने की बात की जा रही है। 17 मार्च को स्वास्थ्य खराब होने पर डॉक्टर को दिखाया गया, तो डॉक्टर ने भी इसे गंभीरता से नही लिया, 18 मार्च को इनकी मौत हो गई। 8 मार्च से 18 मार्च तक इनके संपर्क में अनगिनत लोग आए। नतीजा यह हुआ कि उक्त धर्म उपदेशक के परिवार के ही 21 लोग कोरोना वायरस से संक्रमित हो गए। इसके अलावा अन्य लोग भी संक्रमित हुए होंगे। इसके बाद इस इलाके में लगभग 2 माह के लिए पंजाब सरकार ने धारा 144 लागू कर दी। मगर स्वर्ण मंदिर तथा अन्य जगहों पर गुरुद्वारों के खुले रहने तथा लोगों के इकट्ठा होने पर कोई विशेष रोक नहीं लगी।
ये तथ्य साफ साफ इस ओर इशारा करते हैं कि जर्मनी, इटली, अमेरिका, दुबई, फ्रांस, नीदरलैंड, वुहान आदि से जो विदेशी या भारतीय भारत में आये थे, वे खुद भी कोरोना वायरस से संक्रमित थे तथा भारत में कोरोना वायरस के वाहक बने। कैबिनेट सचिव द्वारा बताया गया कि 18 जनवरी से 23 मार्च तक भारत के भीतर विदेश से 15 लाख लोगों का प्रवेश हुआ जबकि जांच इसकी तुलना में कम है। जबकि देश में 12 अप्रैल तक कुल जांच का आंकड़ा डेढ़ लाख के लगभग है। इस बीच केंद्र की मोदी सरकार के लिए यह कोई गंभीर मामला नहीं था। जब यकायक कोरोना संक्रमण के मामलों ने गति पकड़ी तथा केरल, पंजाब, महाराष्ट्र , छत्तीसगढ़ व राजस्थान की सरकार इस मामले पर पहले सक्रिय हो गई तब केंद्र की मोदी सरकार को होश आया। वह तो नागरिकता संशोधन कानून, एन पी आर विरोधी संघर्ष को कुचलने में मशगूल थी या फिर मध्यप्रदेश में सरकार बनाने में।
जब मोदी सरकार को होश आया तो आनन फानन में लॉकडाउन की घोषणा कर दी गई जबकि 25 मार्च को हवाई यात्राओं पर प्रतिबंध लगाया गया। इस अयोजनाबद्ध खामियाजा गरीब, मजदूर मेहनतकश आबादी को ही झेलना था। 25-26-27 मार्च के बीच लाखों मज़दूरों के सड़को पर अपने घरों की ओर भूखे प्यासे पैदल जाने की खबरें मीडिया की सुर्खियां बन गयी। भूखे प्यासे पैदल जाते मज़दूर पुरुष, महिलाएं छोटे-छोटे बच्चे सड़कों पर वायरल होते वीडियो में दिखाई देते थे। मजबूरन टीवी चैनलों में भी यह कवरेज बन गयी।
इस स्थिति ने मोदी सरकार के घोर मज़दूर व गरीब विरोधी रुख को सामने ला दिया। मोदी सरकार ने तुरंत इन्हें फर्जी बताते हुए कोर्ट का रुख किया। कोर्ट से मांग की कि इस ढंग की "फर्जी खबरों" पर रोक लगाने का आदेश दे। मगर कोर्ट ने इससे इंकार कर दिया। यहीं से हिन्दू फासीवादी सरकार अपने घृणित एजेंडे पर आ गयी। अचानक ही 28 मार्च के आस-पास से टी वी चैनलों के जरिये निज़ाममुद्दीन मरकज के तकबिली जमात को निशाने पर ले लिया गया। इसे लगातर बहस व प्रचार का मुद्दा बनाया गया। अब तब्लीगी जमात को इस तरह प्रस्तुत किया जाने लगा मानो, ये कोरोना वायरस को किसी साजिश के तहत भारत में इधर उधर फैला रहे हों।
हकीकत क्या थी ? तकरीबन सात-आठ सौ तब्लीकि जमात से जुड़े विदेशी भी मरकज में पहुंचे थे। अन्य विदेश से भारत आ चुके अन्य विदेशियों या भारतीयों की तरह इनकी भी संभावना थी कि ये भी कोरोना संक्रमित होते। ये भी ठीक भारत सरकार, इसके गृह मंत्रालय व विदेश मंत्रालय की अनुमति से ही भारत आये थे। ये उन 15 लाख विदेश से भारत में प्रवेश कर चुके लोगो में से , बाकी की ही तरह थे।
दिल्ली में 12 से 15 मार्च के बीच इनका कार्यक्रम था। यह कार्यक्रम दिल्ली पुलिस व गृहमंत्रालय की निगरानी में था। इनकी जानकारी में था। मगर हुआ क्या ? 27-28 मार्च तक जब मोदी सरकार की आम अवाम के बीच किरकिरी होने लागी तो सचेत तौर पर 'तकबिली जमात' वाले मामले को टी वी चैनलों के जरिये साजिशन आगे बढ़ाया गया। फिर तो संघी अफवाह मशीनरी ने अपने नेटवर्क के जरिये मुसलमानों के खिलाफ घटिया दुष्प्रचार शुरू कर दिया। 'सब्जियों में थूकने' 'मोहल्लों में थूक कर कोरोना फैला कर भाग जाने' की, यह अफवाह खूब उछाली गई। यह दुष्प्रचार जारी है।
इस प्रकार मोदी सरकार ने भरपूर कोशिश की है और कोरोना संक्रमण के प्रसार को भी अपने लिये 'धुव्रीकरण के हथियार' के रूप में बदल दिया है। इसने यह घृणित तर्क आम लोगों के दिमाग में बिठाने का काम किया है कि लॉकडाउन करने तथा लॉकडाउन के चलते आम हिन्दू लोगों को होने वाले दुख तकलीफों के तकबिली जमात यानी मुसलमान दोषी हैं। देश की एकाधिकारी पूंजी मोदी सरकार के साथ खड़ी है।
सवाल यह है कि क्या वास्तव में मोदी सरकार या देश के शासक अपने इस घृणित मकसद में कामयाब हो पाएंगे ? क्या मजदूर वर्ग मोदी सरकार, गोदी मीडिया के दुष्प्रचार का शिकार हो जाएगा जैसा कि मध्यमवर्गीग हिन्दू है? क्या मजदूर वर्ग लॉकडाउन में उसके अपने साथ हुए घृणित व्यवहार को भूल सकता है ? हकीकत यही है कि कोरोना महामारी के दौर में देश में जिस ढंग से लॉकडाउन किया गया उसने मजदूर वर्ग को बहुत सीखा दिया है एक ही झटके में उसके सामने मालिक-मजदूर का तीखा अंतर्विरोध सामने आ गया, बहुत तेज़ गति से हालात ने उसे यह भी दिखाया व महसूस कराया है कि यहां सबसे पीड़ित, उत्पीड़ित तथा निचले पायदान पर वही है, परिस्थितियों ने तेज़ी से मज़दूर वर्ग के सामने उस भेदभावपूर्ण व अपमानजनक व्यवहार को बखूबी महसूस किया जो विदेश में फंसे सम्पन्न भारतीयों को लेने तो ऐरोप्लेन भेजने के रूप में दिखा जबकि मज़दूरों को सड़क पर दर दर भटकने, सैकड़ो किमी पैदल भूखे प्यासे चलने के लिए छोड़ दिया गया। मज़दूरों का गुजरात के सूरत में हुआ प्रदर्शन उसके इसी अचेत गुस्से की बानगी है। भविष्य जल्द ही दिखाएगा कि इस दौर ने मज़दूर वर्ग के अचेत तौर पर संगठित होने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है।
मोदी सरकार द्वारा 25 मार्च से 14 अप्रैल तक देश में लॉकडाउन घोषित कर दिया। जैसा कि पहले से ही स्पष्ट था कि यह लॉकडाउन का फैसला कुछ राज्य सरकार अपने-अपने स्तर पर ले चुकी थी। इसी के बाद मोदी सरकार द्वारा केंद्रीय स्तर पर लॉकडाउन का फैसला लिया गया।
सभी ने देखा, 22 मार्च के एक दिन के 'जनता कर्फ्यू' का मोदी, भाजपा व मोदी भक्तों ने किस तरह जश्न के माहौल में बदल दिया था। तब, एक तरफ 'जनता कर्फ्यू' के जरिये लोगों को घरों में रहने व फिर शाम को 'थाली, ताली या घन्टी' बजाकर, उन लोगों को 'सम्मान' देने की बात की गई, जो डॉक्टर व नर्स मास्क, ग्लव्स व अन्य निजी सुरक्षा उपकरणों की घोर कमी की स्थिति में इस वक़्त इलाज कर रहे हैं जबकि दूसरी तरफ मोदी सरकार मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार गिरा चुकी थी तथा शपथ ग्रहण के जरिये संघी जश्न मना रहे थे।
इस तथ्य को भी साफ तौर पर महसूस किया गया व देखा गया कि जब शासक जनता को घोर अवैज्ञानिकता, अतार्किकता तथा अंधविश्वास की ओर ले जाते हैं तो इसकी कीमत खुद शासकों को भी चुकानी होती है, जनता तो इसकी भारी कीमत चुकाती ही है।
पहला तो यह, कि खुद लंबे वक्त तक हिंदू फासीवादी सरकार तमाम चेतावनियों के बावजूद भी 'कोरोना वायरस' के प्रसार तथा इसके प्रभाव से बेखबर थे व भयानक तौर पर लापरवाह थे। ये, बेखबर व लापरवाह ही नहीं रहे बल्कि इस दौरान ये अपने 'हिन्दू फासीवादी' एजेंडे को निरन्तर आगे बढ़ाने में लगे रहे। ये सीएए व एनपीआर के अपने घृणित एजेंडे को इस बीच लगातार आगे बढ़ाते रहे। दूसरा यह, कि 22 तारीख के 'जनता
कर्फ्यू' को "भक्तजनों" ने मोदी सरकार की चाल मात्र समझी जिसके जरिये 'शहीनबाग' जैसे सीएए एनपीआर विरोधी प्रदर्शनों को कुचला जा सके, नतीजा यह रहा कि शाम 5 'थाली, ताली, घंटी' बजाने की मांग, जश्न में बदल गयी, लोग कई जगह पर लोग अपने घरों से बाहर निकल कर व एकजुट होकर जश्न मनाने लगे। स्थिति यह रही की पीलीभीत में तो अधिकारी ही जुलूस को नेतृत्व देते हुए दिखाई दे रहे थे। जबकि लखनऊ में भाजपाई नेता अपनी अय्याशियों के चलते पार्टियों के आयोजन में भी लगे। कोरोना संक्रमित गायिका की पार्टी इसका एक उदाहरण है।
भारत में कोरोना का पहला मामला 30 जनवरी को पता लगा। इसके बाद 26 मार्च तक यह संख्या 700 पहुंच चुकी थी जबकि 16 की मौत हो चुकी थी। इस बीच विश्व स्वास्थ्य संगठन इसे वैश्विक महामारी घोषित कर चुका था। विपक्षी भी, इस बीच, सरकार को इस दिशा में ध्यान देने व इससे निपटने के लिए आगाह कर रहे थे। मगर मोदी सरकार तो अपनी फासीवादी धुन में थी। इस बीच मोदी सरकार क्या कर रही थी?
मोदी सरकार इस बीच, अपने हिन्दू फासीवादी एजेंडे को परवान चढ़ाने में व्यस्त थे। दिल्ली चुनाव में इन्होंने 'शहीन बाग' के जरिये अपनी नफरत भरे साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के प्रचार को आगे बढ़ाने को सारे कृत्य किये। इसके बाद दिल्ली के दंगों का प्रायोजन किया गया। जिसमें सैकड़ों मुस्लिमों को विस्थापित होकर इधर उधर शरण लेनी पड़ी। लखनऊ में सीएए विरोधियों से निपटने के लिए 'प्रदर्शनकारियों' के नाम, पते व फ़ोटो दीवारों पर चस्पा कर दी गई। जबकि मोदी इस बीच 'किम छो ट्रम्प' के आयोजन में लगे रहे जिसमें हज़ारों लोग, अहमदाबाद में इकट्ठा हुए।
यह स्पष्ट था, कि 'सार्स-कॉव-2' यानी कोरोना वायरस का केंद्र चीन था, यहीं से उसका प्रसार 'यातायात' के चलते संक्रमित व्यक्तियों से दुनिया भर में हो रहा था। इस स्थिति में जरूरी था, कि विदेशों से जो भी लोग भारत आ रहे थे, उनकी आवाजाही को सीमित कर देने तथा उनकी पर्याप्त जांच, निगरानी करने व पृथक कर देने की नीति पर अमल किया जाना चाहिये था साथ ही टेस्टिंग बड़े स्तर और होनी चाहिए थी।
हुआ क्या? इस स्तर पर भयानक लापरवाही बरती गई। थर्मल स्क्रीनिंग की गई , मगर यह भी नाम की थी। नतीजा यह रहा कि बहुत बड़ी तादाद में लोग भारत के भीतर प्रवेश कर गए, अपने इलाके व घर तक पहुंच गए। कनिका कपूर से लेकर ऐसे कई मामले हैं जो सामने आये हैं। यहीं नहीं, कोरोना टेस्टिंग को बहुत सीमित स्तर पर किया गया। जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन व वैज्ञानिकों का रुख साफ था कि टेस्टिंग बड़े स्तर पर की जानी चाहिए। मगर सरकार व उसका स्वास्थ्य मंत्रालय अपनी 'सीमित टेस्टिंग' की नीति पर चलता रहा। इसका नतीजा यही होना था कि संक्रमित लोगो की संख्या बहुत कम दिखाई देती।
अब, जब मार्च के तीसरे सप्ताह से इसका प्रसार साफ दिखने लगा, तब मोदी सरकार जागी, आत्ममुग्ध मोदी अपनी धुन से बाहर निकले। फिर पहले 'जनता कर्फ्यू' लागू हुआ। इसके तत्काल बाद, बिना किसी पूर्वतैयारी व योजना के लॉकडाउन की घोषणा कर दी गई।
लॉकडाउन की स्थिति ये है कि आम जनता की, जो अपने जरूरत का सामान लाने बाजार जा रही है तो सड़कों पर उनकी ठुकाई हो जा रही है उस पर मुकदमे दर्ज हो रहे हैं मगर दूसरी तरफ योगी आदित्यनाथ 70-80 लोगो के समूह में अयोध्या में मंदिर में पहुंच जाते हैं। यहां कुछ भी नहीं होता।
इस अयोजनाबद्ध व यकायक हुए लॉकडाउन की घोषणा में साफ था कि मजदूर मेहनतकश जनता को ही ही इसकी भारी कीमत चुकानी होगी। भारत में कुल कामगार आबादी की 20 प्रतिशत आबादी प्रवासी श्रमिकों की हैं। विशेषकर बिहार, उत्तरप्रदेश आदि से अन्य राज्यों में दिहाड़ी कर ये मजदूर, इस लॉकडाउन की स्थिति में सैकड़ों किलोमीटर दूर अपने घरों को पैदल जाते देखे जा सकते हैं। इनके सामने भुखमरी का संकट पैदा हो चुका है। इसीलिए कई, यह कहते हुए देखे जा सकते हैं कि इससे पहले उन्हें कोरोना मारे, भूख उन्हें पहले खत्म कर देगी। वहीं दूसरी ओर शहरों में स्लम बस्तियों
में रहने वाले लोग, रोज़ कमाने व खाने वाले लोगों के लिए भी यह लॉकडाउन भयानक विपदा साबित हो रहा है।
देश में स्वास्थ्य सुविधाओं की दुर्गति को कौन है जो नहीं जानता, समझता। यहां डॉक्टरों, व नर्सों तक के लिए निजी सुरक्षा उपकरणों का भारी अभाव होने के चलते, खुद उनके सामने भी संक्रमित होने का खतरा मंडरा रहा है। वहीं जो लाखों लोग, इस बीच इधर-उधर हुए हैं इनमें संक्रमित कितने होंगे, कितने नहीं तथा गर संक्रमित हैं तो फिर कहां तक इसका प्रसार होता है यह कुछ वक्त बीतने पर ही साफ हो जायेगा। मोदी सरकार व उसके स्वास्थ्य मंत्रालय ने फिलहाल कुछ नमूनों के आधार पर ही ये कहा है कि कम्युनिटी प्रसार की संभावना नहीं लग रही है। मगर तस्वीर वक़्त के साथ साफ हो जाएगी। निश्चित तौर पर जो स्थितियां पैदा हो चुकी हैं उस सबके लिए हमारे शासक जिम्मेदार हैं, मौजूदा हिन्दू फासीवादी सरकार जिम्मेदार है।
फासीवादी हिदू राष्ट्र की ओर बढ़ते कदम
फासीवादी हिदू राष्ट्र की ओर बढ़ते कदम
अंततः बाबरी मस्जिद वाली कथित विवादित
जमीन का मालिकाना न्यायालय ने हिन्दू पक्ष को देने के सम्बन्ध में अपना फैसला सार्वजनिक किया। 9 नवम्बर का दिन इस प्रकार फ़ासीवादियों के आगे न्यायिक संस्था के समर्पण का ऐतिहासिक दिन भी बन गया। यह फैसला अप्रत्याशित नहीं था पिछले साल भर से न्यायिक संस्था के रुख से यह साफ होने लगा था कि फैसला तथ्यों, तर्कों व संवैधानिक प्रावधानों के आधार पर नहीं बल्कि यह आस्था के आधार पर होगा।
न्यायालय द्वारा यह माना गया कि बाबरी मस्जिद ध्वंस होना ग़ैरकानूनी था गलत था इसी प्रकार यह भी कि 1949 में मस्जिद परिसर में मूर्तियां रखना गलत था, यह भी कहा गया कि मस्जिद के नीचे कुछ तो था मगर वहां मंदिर नहीं था और मस्जिद 16 वी सदी से बनी हुई थी। यह कहा गया कि अयोध्या में राम के जन्म को सभी हिन्दू मानते हैं यहां उनकी आस्था है हालांकि कोर्ट आस्था से नहीं चलता। मगर फिर फैसला आस्था के आधार पर दे दिया गया जिसमें 2.77 एकड़ जमीन हिन्दू पक्ष को दे दी गई। कहा गया कि सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड जमीन पर अपना मालिकाना हक को साबित नहीं कर सका इसे साबित करने के लिए दो- तीन सदी पुराने सबूत मांगे गये। सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड द्वारा प्रस्तुत राजस्व अभिलेख व गेजेट को खारिज कर दिया गया। हिन्दू पक्ष पर जमीन स्वामित्व से सम्बंधित कोई भी सबूत की मांग नहीं की गई।
न्यायालय ने सरकार को मंदिर बनाने के सम्बन्ध में एक ट्रस्ट के गठन व इसमें निर्मोही अखाड़े को उचित प्रतिनिधित्व निर्देश दिया गया। मुस्लिम पक्ष के लिए 5 एकड़ जमीन अयोध्या में ही कहीं भी राज्य सरकार या केंद्र सरकार किसी भी द्वारा देने का निर्देश दिया गया। इस प्रकार सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड के पास एक दौर में जो 67 एकड़ जमीन थी उसके अधिकांश का अधिग्रहण सरकार द्वारा 1993 में कर लिया गया था इसके बाद 2.77 एकड़ जमीन में से मात्र एक तिहाई हिस्सा मुस्लिम पक्ष को देने का फैसला हुआ था अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने यह जमीन भी जो वक़्फ़ बोर्ड के पास थी जिसमें बाबरी मस्जिद थी पूरी तरह से छीन ली।
इस फैसले से पहले संघियों ने कोर्ट के फैसला जो कुछ भी हो उसे स्वीकार किये जाने की खोखली बातें की थी। यह उन्हें पहले से ही भान था कि फैसला लगभग इसी ढंग का होगा। इसीलिए संघपरिवार के लोग मुस्लिम समुदाय से संबंधित संगठनों, बुद्धिजीवियों के बीच जाकर इस पक्ष में सहमत कराने व अपने पक्ष में सहमत कराने में जुटे थे। अब फैसला आ जाने के बाद 'एकजुट होने' 'मिलजुलकर रहने', 'न किसी की जीत न किसी की हार होने' की पाखंडी, लफ़्फ़ाजीपूर्ण बातें कर रहे हैं। जबकि स्पष्टत: यह फ़ासीवादी ताकतों की जीत है। मौजूदा आर्थिक संकट के लिए तात्कालिक तौर पर जिम्मेदार व आम अवाम के जीवन को ज्यादा गहन संकट की ओर धकेलने वाली फ़ासीवादी ताकतें बाबरी मस्जिद जमीन के सम्बन्ध में मौजूदा फैसले से और ज्यादा ध्रुवीकरण करने की दिशा में कामयाब हुए हैं।
जहां तक विपक्षियों का सवाल है सभी खुद को बहुसंख्यक आबादी यानी हिन्दू आबादी के पक्षधर दिखाने के खेल में व्यस्त हैं कॉंग्रेस तो खुद ही वर्तमान स्थिति के लिए जिम्मेदार है। सपा, बसपा, आप आदि सभी फैसले का स्वागत कर रहे है। इममें से कुछ तो यह भी कह रहे है कि कोर्ट के फैसले ने संघ परिवार से उनका मुद्दा छीन लिया है। ऐसा होने की एक वजह यह भी है कि ये भी जनवादी नही बल्कि भाजपा की ही तरह भ्रष्ट है। इन सभी को नरम हिंदुत्व को साथ लेकर चलने से कोई परहेज नही रहा है। सुधारवादी वामपंथी पार्टियां भी इस मसले पर 'धर्मनिरपेक्ष' व सही स्थिति लेने से कतरा रही हैं।
कोर्ट का यह फैसला भले ही यह कहता है कि मस्जिद मंदिर तोड़ कर नहीं बनाई गई है। लेकिन इससे कोई विशेष फर्क नही पड़ता। क्योंकि फैसला संघियों के पक्ष में है इसे वह अपनी जीत के रूप में व हिंदुओं की जीत के रूप में दिखाने में कामयाब हैं। इनका यह घृणित मन्तव्य पूरा हुआ। हिंदुओं विशेषकर सवर्ण लोगों के दिमाग में लंबे वक्त से जो जहर संघ परिवार व इससे ग्रस्त मीडिया ने भरा है वह यह कि देश में कांग्रेस के दौर में सब कुछ मुस्लिमों के हिसाब से तय होता रहा है हिन्दू लोग सदियों से व कांग्रेस के दौर में उपेक्षित रहे है उत्पीड़ित रहे हैं।हिंदुओं के साथ भारी अन्याय हुआ है। इसे संघी शब्दावली में 'मुस्लिमों का तुष्टिकरण' कहा जाता है। इसलिए एक ऐसी घृणित व फासीवादी मनोदशा निर्मित कर दी गई है जिसका मकसद मुस्लिमों को उत्पीड़ित, अधिकारहीनता की स्थिति में धकेल देना है। हज सब्सिडी, तीन तलाक, एक देश में दो कानून, कश्मीर, बांलादेशी घुसपैठिये आदि आदि के जरिये यह बात जेहन में बिठाई गई है।
कुलमिलाकर ये फैसला अल्पसंख्यक आबादी को असुरक्षा व अलगाव की ओर धकेलने वाला है इस फैसले ने पूरे तंत्र पर इनके भरोसे को बेहद कमजोर कर दिया है। अभी तक एक उम्मीद की किरण कोर्ट से थी मगर यह भी अब खत्म हो गई है। इसीलिए कइयों को यही कहकर खुद को तसल्ली देनी पड़ी "तुम्हारा शहर, तुम्हीं कातिल, तुम्ही मुंसिफ, हमें यकीन था, कसूर हमारा ही होगा" !
यह फैसला केवल मुस्लिमों को दोयम दर्जे में धकेकने वाला नहीं है बल्कि देश की समग्र मज़दूर मेहनतकश आबादी के खिलाफ है यह इनके जनवादी व संवैधानिक अधिकारों को व्यवहार में खत्म करने की ओर जाता है। उन्हें भी दोयम दर्जे की ओर धकेलने वाला है।
जम्मू कश्मीर का भारत में विलय तथ्यों के आईने में
डोमिनियन देश के रूप में भारत व पाकिस्तान को आज़ादी हासिल होते वक़्त भारत स्वतंत्रता अधिनयम में यह प्रावधान तय था कि जो रियासतें अलग रहना चाहती हैं वह अलग रह सकती हैं और जो अपना विलय भारत या पाकिस्तान जिस डोमिनियन स्टेट में करना चाहती है वह विलय कर सकती है। आज़ादी से पहले जम्मू कश्मीर कई रियासतों की तरह एक अलग रियासत थी। जम्मू कश्मीर के राजा तब हरी सिंह थे। अंग्रेजी हुकूमत के दौर में यहां भी प्रजा सभा ( विधान सभा) का गठन किया गया था तब केवल 10 % सम्पति वाले लोगों को ही वोट देने का अधिकार था जैसे कि बाकि भारत में था। जिसमें 33 चुने हुए प्रतिनिधि तथा 42 प्रतिनिधि नॉमिनेट होने थे।
जम्मू कश्मीर के राजा हरी सिंह व प्रधानमंत्री राम चन्द्र काक आज़ाद जम्मू - कश्मीर के पक्षधर थे वे भारत में विलय के पक्ष में नहीं थे। जबकि शेख अब्दुल्ला पाकिस्तान से विलय के धुर विरोधी थे वह राजशाही के भी खिलाफ थे एक लोकतांत्रिक तरीके से चुनकर बनाई जाने वाली सरकार के पक्षधर थे। भारत के साथ स्वायत्तता के साथ रहने के पक्षधर थे। 1930-32 में शेख अब्दुल्ला की अगुवाई में ऑल जम्मू कश्मीर मुस्लिम कान्फ्रेंस बनी जो 1939 में नेशनल कॉन्फ्रेंस हो गई। यह एक अलग धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के लिए आन्दोलन कर रही थी। इस आंदोलन में सभी धर्म व जाति के लोग थे। यह एक सशक्त आंदोलन था। पंडित सुदामा सिद्धा , प्रेम नाथ बजाज, सरदार बुध सिंह आदि ने नेशनल कॉन्फ्रेंस का राष्ट्रीय मांग पत्र का ड्राफ्ट तैयार किया। यह आंदोलन राजशाही के खिलाफ भी था । मई 1946 में शेख अब्दुल्ला की अगुवाई में नेशनल कांफ्रेंस ने 'कश्मीर छोड़ो ' का आंदोलन शुरू हो गया । यह आंदोलन राजशाही के खिलाफ भी था। राजशाही ने शेख अब्दुला समेत कइयों को गिरफ्तार कर लिया। फिर 29 सितम्बर 1947 को छोड़ा गया। इस रिहाई में भारत सरकार की भूमिका रही थी।
जब भारत व पाकिस्तान आज़ाद हो गये थे। जम्मू कश्मीर की स्थिति स्वतंत्र रियासत ( मुल्क ) की तरह थी। हरि सिंह ( जम्मू कश्मीर ) की पाकिस्तान के साथ स्टैंडस्टिल ( कुछ वक्त तक रुके रहने ) समझौता हुआ था। । मगर पाकिस्तान की कबायली सेना ने 22 अक्टूबर 1947 में जम्मू कश्मीर पर हमला कर दिया तब राजा हरी सिंह ने गवर्नर लॉर्ड माउंटबेटेन के लिए पत्र लिखकर आर्मी की मदद मांगी व विलय के दस्तावेज दिए। गवर्नर जनरल माउंटबेटेन ने विलय के दस्तावेज को स्वीकार कर लिया इस प्रकार 26 अक्टूबर 1947 को समझौता हुआ। आर्मी भेजने का तय हुआ। चूंकि शेख अब्दुल्ला धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक भारत के साथ रहने के पक्षधर थे । अब इस स्थिति में जबकि हरी सिंह ने भारत में विलय के लिए बात शुरू कर दी तब गवर्नर माउंटबेटेन ने राजा हरी सिंह को अंतरिम सरकार का गठन करने तथा शेख अब्दुल्ला को प्रधानमंत्री बनाने को कहा । माउंटबेटेन द्वारा कहा गया कि विलय की प्रक्रिया में रियासतों में किसी प्रकार के विवाद होने पर वहां की जनता द्वारा ही इस पर (विलय) फ़ैसला लिया जाएगा।
पाकिस्तानी हमले से निपटने के लिए शेख अब्दुल्ला की अगुवाई में आपातकालीन प्रशासन का गठन किया गया। शेख अबदुल्ला द्वारा एक मिलिशिया ( स्वयं सेवक सेना ) का गठन किया गया जिसने पाकिस्तानी की कबायली सेना से निपटना शुरू कर दिया। बाद में भारत की सेना भी यहां पहुंच गई।
17 मार्च 1948 को शेख अब्दुल्ला प्रधानमंत्री बने जबकि हरी सिंह के बेटे कर्ण सिंह को 'सदर -ए -रियासत ' बने। भारत व जम्मू कश्मीर के बीच समझौते में तय हुआ कि रक्षा, मुद्रा , संचार, विदेश नीति के मामले केंद्र की सरकार यानी भारत के पास रहेंगे, बाकी शेष मामले जम्मू कश्मीर की सरकार तय करेगी इसकी अपनी संविधान सभा होगी, इसका अलग झंडा व अलग प्रधानमंत्री होगा। संविधान सभा को ही बाकी सारे अधिकार होंगे। यह भी समझौता था कि जम्मू कश्मीर का वह हिस्सा जो पाकिस्तान ने कब्जा लिया था उसे भारत सरकार कश्मीर की सरकार को वापस दिलाएगी।
1951 में जम्मूकश्मीर में सार्विक मताधिकार के आधार पर संविधान सभा के लिए चुनाव हुए।
जम्मू कश्मीर के विलय की इस विशेष स्थिति के चलते अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जा दिया गया। अनु 370 उसी समझौते का परिणाम था जो कि जम्मू कश्मीर व भारत के बीच हुआ था। अनु. 370 में साफ दर्ज था कि राष्ट्रपति कोई भी आदेश संविधान सभा की सहमति के बाद कर सकते हैं। समझौते के हिसाब से शेख अब्दुल्ला को जम्मू कश्मीर का प्रधानमंत्री बनाया गया। आर एस एस धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के लिए शेख अब्दुल्ला द्वारा चलाये जा रहे आंदोलन का धुर विरोधी था तथा राजशाही के समर्थन में था इसलिए शुरुवात में यह जम्मू कश्मीर के स्वतंत्र देश के बतौर रहने के राजा हरी सिंह के फैसले का पक्षधर था भारत से विलय के पक्ष में नहीं था। मगर बाद में जब परिस्थितियां बदल गयी तब यह भारत में इसके पूर्ण विलय की बात करने लगा। इसने यहां नवम्बर 1947 में चुनाव में प्रजा परिषद नाम की पार्टी खड़ी करके चुनाव में भागीदारी करनी शुरू कर दी । प्रजा परिषद का 1963 में जनसंघ में विलय हो गया। इस दौर में यानी 1948 भारत सरकार इस मामले को संयुक्त राष्ट्र संघ में भी ले गई खुद नेहरू की ओर से इस मामले पर जनमत संग्रह का प्रस्ताव भी रखा गया क्योंकि उस समय उन्हें यह भारत के फेवर में पक्ष में जाता लग रहा था शेख अब्दुला ने संयुक्त राष्ट्र संघ में इस पक्ष में जोरदार दलील भी दी। पाकिस्तान ने तब इसका विरोध किया। बाद में भारत जनमत संग्रह से पीछे हट गया। 1951 के संविधान सभा के कश्मीर में हुए चुनावों को ही भारत सरकार जनमत संग्रह के रूप में प्रस्तुत कर रही थी।
1952 में जम्मू कश्मीर की अर्थव्यवस्था भारत के साथ पूरी तरह शेख अब्दुल्ला ने एकीकृत कर दी थी अब व्यापार व लोगो की आवाजाही पर जो पाबंदी थी भारत व कश्मीर के बीच वह हट गई। इस दौर में राजशाही खत्म कर दी गई । इस दौर में भारत सरकार पर आरोप लगे कि उसकी मंशा कुछ और ही थी कि वह इस समझौते को बेहद कमजोर या खत्म कर देना चाहती थी।
इन आरोपों के बीच ही अचानक 'कश्मीर षड्यंत्र' के फर्जी आरोप में 1953 में प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला सहित 22 लोगो को गिरफ्तार कर लिया गया व जेल में डाल दिया गया। आरोप यह लगाया गया कि शेख अब्दुल्ला आजाद कश्मीर के लिए पाकिस्तान के साथ मिलकर साजिश रच रहे है। 11 सालों तक शेख अब्दुल्ला को जेल में रखा गया। मिर्जा अफ़ज़ल बेग को 1954 के नवम्बर माह में रिहा कर दिया गया। जी एम हमदानी के साथ मिर्जा बेग ने 'जनमत संग्रह मंच' बनाया इसकी मांग सँयुक्त राष्ट्र संघ की निगरानी में जनमत संग्रह के जरिये जम्मू कश्मीर की जनता के आत्मनिर्णय के अधिकार ( जनता को अपने राज्य या देश की राजनीति आदि को तय करने का अधिकार ) की थी। इसका समर्थन 'कश्मीर राजनीतिक कान्फ्रेंस' 'कश्मीर जनतांत्रिक यूनियन ' तथा प्रजा सोशलिस्ट पार्टी' (जय प्रकाश नारायण व आचार्य नरेंद्र देव आदि की) ने भी किया।
दूसरी ओर शेख अब्दुल्ला आदि को तब जेल से छोड़ा गया जब वह और उनकी पार्टी ने एक प्रकार से समर्पण कर दिया। 1964 में इनकी रिहाई हुई और जिन फर्जी मुकदमों पर 1953 में इनकी गिरफ्तारी हुई थी उन्हीं को अप्रेल 1964 में रहस्यमय तरीके से भारत सरकार ने वापस ले लिया। इस बीच 1954 में राष्ट्रपति के आदेश से 35 A जोड़ा गया था कहा जाता है कि यह पहले से ही कश्मीर में भिन्न रूप में था। 1956 में संविधान सभा भंग कर दी गई इसने 1956 में संविधान (जम्मू कश्मीर का) बनाया तथा इसमें अब जम्मू कश्मीर को भारत का हिस्सा बताया गया। संयुक्त राष्ट्र संघ ने संविधान सभा के 1951 के चुनाव को जनमतसंग्रह का विकल्प मानने से इंकार कर दिया। 1957 में इसकी जगह विधान सभा बना दी गई। बाद के समय में सदर-ए-रियासत तथा प्रधानमंत्री का पद खत्म कर दिया गया। इसकी जगह राज्यपाल व मुख्यमंत्री हो गया। दूसरी ओर जम्मू कश्मीर की सरकार को वायदे के मुताबिक वह हिस्सा जिसे पाकिस्तान ने कब्जा लिया था कभी वापस नही दिलाया गया यह पाकिस्तान के पास है इसे पाक अधिकृत कश्मीर कहा जाता है।
यह आरोप है कि इसके बाद फिर भारत सरकार लगातार ही समझौते को और ज्यादा कमजोर करते गई। 1956-57 में जम्मू कश्मीर को भारत का हिस्सा घोषित कर दिया गया। बाद में राष्ट्रपति के आदेश से तथा विधान सभा को अपने हिसाब से ढालकर कई आदेशों के जरिये देश के तमाम कानून वहां लागू करा दिए गए ।1956 से 1994 के बीच राष्ट्रपति के 47 निर्देश जम्मू कश्मीर के संबंध में जारी हुए लगभग 97 में से 94 संघीय विषय केंद्र सरकार के जरिये वहां लागू हो गए जो कि संविधान के 395 अनुच्छेदों में से 260 अनुच्छेद समेट लेती थी । 1965-66 में अनु 356 व 357 को लागू कर दिया गया। ये तथ्य साफ दिखाते है कि भारत सरकार पर जम्मूकश्मीर को छल बल से अपने में मिला लेने के आरोप हवाई नहीं थे। दूसरी ओर नेशनल कॉन्फ्रेंस की अवसरवादी व कमजोर भूमिका के चलते तथा भारत सरकार के विलय के प्रति रुख के चलते अलग आज़ाद धर्मनिरपेक्ष जम्मू कश्मीरी राष्ट्र के लिए जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट की अगुवाई में एक संघर्ष खड़ा हो गया था। यह समूचे जम्मू कश्मीर यानी पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर को अपने दायरे में समेट लेता था । यह आंदोलन व्यापक होता गया। इसकी शुरुवात तो 65 से ही हो गई थी मगर यह संगठन 1977 में बना। यहीं से फिर इस आंदोलन को कमजोर करने के लिए आतंकवाद को पैदा करने पालने पोसने के आरोप भी सरकार पर लगे । भारत व पाकिस्तान दोनो की इसमें भूमिका होने के आरोप लगे। दोनो के अपने अपने निहित स्वार्थ थे। फिर आतंकवाद को खत्म करने के नाम पर भारी मात्रा में फौज की तैनाती वहां कर दी गई । चप्पे चप्पे पर फौजी जवान खड़े हो गए। इसे टाडा तथा पब्लिक सेफ्टी बिल व सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून के तहत दमन के लिए जो कुछ भी सम्भव हो वह करने की छूट दी गई । पिछले 45 सालों से जम्मू कश्मीर की अवाम संगीनों के साये में जी रही है । इनके जरिए सीधे सीधे केंद्र सरकार ही यहां शासन कर रही थी। 'विधान सभा भंग कर देना' 'राष्ट्रपति शासन लगा देना' यह सामान्य बन गया। दूसरी ओर जे के एल एफ तो कुछ सालों बाद बहुत कमजोर हो गया। मगर आतंकवाद व अलगाववाद बढ़ता गया। एक प्रतिक्रियावादी आंदोलन भी इस दौर में पैदा हो गया या पैदा कर दिया गया जो इस्लामिक कट्टरपंथी आंदोलन था यह जम्मू कश्मीर को पाकिस्तान में मिलाये जाने की वकालत करता था ।
साफ है कि कोई भी जम्मुकश्मीर के आत्मनिर्णय के अधिकार का पक्षधर नही था। जम्मू कश्मीर की अवाम क्या चाहती है उसकी इच्छा आकांक्षा क्या है इससे किसी को कोई सरोकार न था। दोनो ही देशों के शासक इसे निगलने को तैयार थे। दोनों के लिए मात्र यह जमीन का टुकड़ा था मात्र एक बाजार था, प्राकृतिक संसाधन था व इसका इनके लिए एक भूरणनीतिक महत्व था। इनके बीच इसी को लेकर तीखे अंतर्विरोध भी थे। इसी को "राष्टवाद" की चाशनी में लपेट कर परोसा जाता है। साम्प्रदायिक उन्माद का खेल खेला जाता है।
इस प्रकार देखा जाय तो जो समझौते जम्मू कश्मीर व भारत के बीच हुए थे। उन समझौते को बेहद कमजोर कर दिया गया। 370 के तहत जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दिया गया मगर संविधान में इसे अस्थायी उपबन्ध के बतौर रखा गया था। हालाकि अनु 370 को हटाने के लिए राष्ट्रपति का आदेश तथा कश्मीर की संविधान सभा की सहमति जरूरी थी। लेकिन संविधान सभा तो 1956 में ही भंग हो गई । अब मौजूदा दौर में मोदी शाह की सरकार ने राष्ट्रपति के जरिये एक गैजेट नोटिफिकेशन जारी करवाया और 370 को खत्म करने का आदेश कर दिया। फिर इस पर तीन बिल लाकर भाजपा ने राज्य सभा व लोक सभा में इसे पास करवा लिया। 370 का खत्म किया जाना खुलेआम प्रक्रिया का उल्लंघन था। जम्मू कश्मीर की संविधान सभा की सहमति के बिना यह फैसला नहीं लिया जा सकता था जो कि अब वज़ूद में है नहीं। यदि संविधान सभा को विधान सभा माना जाय तो भी इस वक़्त कश्मीर में राष्ट्रपति शासन था विधान सभा भंग थी। राज्यपाल तो चुना हुआ प्रतिनिधि होता नही वह केंद्र सरकार का प्रतिनिधि होता है उसकी सहमति के कोई मायने नही। इस प्रकार मोदी-शाह की सरकार ने जम्मू कश्मीर की अवाम को बिना विश्वास में लिए अपने फासीवादी अंदाज में संविधान सभा या विधान सभा के माध्यम से नहीं बल्कि भारी मात्रा में वहां फौज भेजकर सारे जनवादी अधिकार छीनकर, कर्फ़्यू जैसी स्थिति पैदा करके, एक प्रकार से जम्मू कश्मीर के नागरिकों व चुने हुए कई नेताओं को बंधक बनाकर राष्ट्रपति के आदेश को सीधे संसद में अपने बहुमत के जरिये पास करवाकर लागू करने की ओर बढ़ चुकी है यही नहीं इसके दो टुकड़े करके केंद्र शासित क्षेत्र में बदल देने का प्रावधान भी किया गया है। इस प्रकार शासक वर्ग ने जम्मू कश्मीर का भारत में पूरी तरह विलय करने की अपनी कुत्सित मंशा को 1948-52 से धीरे धीरे 70 सालों में मुकम्मल कर लिया। यह कहना ज्यादा सही होगा कि कांग्रेस ने 60 सालों में विशेष राज्य के दर्जे को इतना कमजोर कर दिया था कि मोदी शाह की भाजपा के लिए 370 को खत्म करना बेहद आसान हो गया। हालांकि कोर्ट में मामला गया है वह इसी आधार या तर्क पर है कि मोदी शाह सरकार की पूरी प्रक्रिया असंवैधानिक है क्योंकि इसमें विधान सभा से भी कोई सहमति नही हुई है। कोर्ट का रुख क्या होगा यह आने वाला वक़्त ही बताएगा। जो भी हो। यह ध्रुवीकरण के लिए खतरनाक हथियार का काम और ज्यादा करेगा। साथ ही कश्मीरी अवाम के कष्ट दुख दर्द कई गुना और बढ़ जाएंगे।
भाजपा व संघ परिवार के द्वारा ऐसे समय में जबकि अर्थव्यवस्था की मंदी की ओर बढ़ने, 45 साल में सबसे ज्यादा बेरोजगारी होने, उद्योगों की सेल में भारी गिरावट तथा बड़े पैमाने पर मज़दूरों की छटनी तथा विनिवेशीकरण व कर्मचारियों की छंटनी की खबर के बीच यह फासीवादी एजेंडा सचेतन चला गया कदम है। यह यहीं पर रुकने वाला नहीं है। यह अर्थव्यवस्था के संकट व जनसंघर्षों से निपटने का खतरनाक रास्ता है इस बात की संभावना है कि अमेरिकी साम्राज्यवादी तथा इजरायल के साथ और ज्यादा सटने व उनके समर्थन से यह दांव चला गया हो। इसमें चीन व पाकिस्तानी शासक भी इसे यूं नहीं जाने देंगे। अमेरिकी शासक इसके जरिये भारतीय शासकों को दबाव में लेने का काम करेंगे भले ही अभी वह समर्थक हों । इसी ढंग से रूसी साम्राज्यवादी भी। इसीलिए यह मुद्दा लंबे वक्त के लिए जनता को अंधराष्ट्रवादी उन्माद में धकेकने का जरिया बनेगा। शासक वर्ग के लिए यह बहुत फायदे की चीज है विशेषकर जब अर्थब्यवस्था मंदी की ओर बढ़ रही हो। यह तात्कालिक तौर पर जनता के संघर्षों को कमजोर करने का जरिया भी है। संघ परिवार इसके जरिये अपने 'एक देश- एक झंडा- एक विधान' को पूरा करके खुद को "राष्ट्रवादी' के बतौर प्रचारित करने में कामयाब है जो कि अन्धराष्ट्रवाद के सिवाय कुछ नहीं है। अब यह अपने चरम आतंकी तानाशाही (फासीवाद) कायम करने की ओर बढ़ेगा। फिर जो कश्मीर में हो रहा है वह देशव्यापी हो जाएगा जिसके निशाने पर मज़दूर मेहनतकश अवाम होगी।
आम चुनाव 2019 , भाजपा की जीत और इसके मायने
2019 के चुनाव ने अन्ततः मोदी शाह की भाजपा को फिर बहुमत से सत्ता पर पहुंचा दिया है। इस जीत से मोदी भक्त मीडिया पूरी तरह उन्मादग्रस्त है अब इन्होंने खुलेआम घोषित कर दिया है कि उन्हें मोदी मीडिया होने पर गर्व है। इस जीत को भी इन्होंने प्रचण्ड बहुमत करार दिया है। हकीकत क्या है ?
हकीकत यह है कि इस बार कुल वोट प्रतिशत 67 .11 % रहा। पिछली दफा भाजपा को कुल वोटों का 31 प्रतिशत वोट हासिल हुए थे इस बार यह आंकड़ा 37.4 प्रतिशत पहुंचा है । दोनों ही बार मतो के हिसाब से यह अल्पमत की सरकार है । यह भारतीय पूंजीवादी संसदीय प्रणाली के एफ टी टी पी प्रणाली का कमाल है कि इतने कम प्रतिशत (37 %) के वावजूद यह पार्टी कुल सीटों का 56 प्रतिशत सीट हासिल कर ले गई । जबकि कांग्रेस का वोट प्रतिशत अभी भी लगभग 20 है सीटों के लिहाज से इसे केवल 10 प्रतिशत सीट हासिल हुई । बहुजन समाज पार्टी को भी वोट प्रतिशत लगभग 20 % हासिल हुआ लेकिन सीट मिली 10 यानी कि कुल सीटों का मात्र 1.8 प्रतिशत।
इस जीत को मीडिया द्वारा मोदी के व्यक्तितव का करिश्मा बताया जा रहा है कहा जा रहा है कि मोदी है तो कुछ भी मुमकिन है । लेकिन हकीकत ठीक इनके उलट है । अगर मीडिया सभी पूंजीवादी पार्टियों व इनके नेताओं के प्रति निष्पक्ष रहकर काम करता और मोदी के भाषणों व अन्य बातों को उसी तरह रखता जैसे कि राहुल से लेकर अन्य के मसले पर किया गया तो वास्तव में होता यह कि मोदी कभी भी यहां नही पहुंचते जिस मुकाम पर आज वह हैं। लेकिन ऐसा होना मुमकिन नही है यह पूंजीवाद की अपनी गति, दौर व संकटो पर निर्भर करता है । आज के दौर में साफ है एकाधिकारी पूंजी की पहली व मुख्य पसदं मोदी हैं फासीवादी ताकतें है धुर दक्षिणपंथी लोग है। यह दुनिया भर के लिए भी सच है। इसीलिए इनके द्वारा संचालित मीडिया मोदी मोदी धुन में नाच रहा है। यह अपने मत को जनमत में बदल रहा है।
इस चीज को केजरीवाल के उदाहरण से ढंग से समझा जा सकता है जब इस पूंजी द्वारा केजरीवाल को आगे करना था तो केजरीवाल हीरो थे नायक थे लेकिन जब मोदी को इस पूंजी द्वारा प्रमोट व प्रोजेक्ट किया गया तो देखते ही देखते केजरीवाल को नायक से जोकर ( उपहास का पात्र) बना दिया गया।
इसलिए मोदी की अगुवाई में फासीवादी ताकतों की यह जीत एकाधिकारी पूंजी के सामज पर पूरे वर्चस्व को दिखाता है । यह कहना ज्यादा सही होगा कि एकाधिकारी पूंजी के मालिकों ने अपनी इच्छा व आकांछा को अंततः जनादेश में बदलवा ही दिया है ! उनकी इच्छा थी मोदी की अगुवाई में फासीवादी गिरोह सत्ता पर बैठे ! इसके लिए तमाम प्रपंच रचे गए ! अरबों खरबो रुपया पानी की तरह बहाया गया ! 'मोदी नही तो कौन' की धारणा बनाई गई । पुलवामा के जरिये, अंधराष्ट्रवाद का उन्माद खड़ा किया गया । आतंकवाद व देश की सुरक्षा के लिए मोदी मात्र के ही सक्षम होने के बतौर प्रचार किया गया। साध्वी प्रज्ञा के जरिये उग्र हिंदुत्व व भगवा आतंक के रूप में ध्रुवीकरण किया गया। किसानों , बेरोजगारों को जाल में फांसने के लिए 6000 रुपये देने , धड़ाधड़ पोस्ट निकालने का काम ऐसे ही अन्य कृत्य किये गए। चुनाव के बीच इंटरव्यू देना ऐसे ढेरों प्रपंच नाटक किये गए।बहुत सी चीजें साफ दीखी थी जो इनके द्वारा अपनी जीत को हासिल करने को की गई। चुनाव आचार संहिता की जमकर धज्जियां उड़ाई गई।
इनकी इस जीत में षडयंत्र से इंकार नहीं किया जा सकता ! ऐसा इसलिए की ऐसा माहौल जमीन पर नहीं दिखा। यही अधिकांश का मानना भी था। कुछ चीज़ें साफ दिखी थी कुछ चीजें अंदरूनी स्तर पर की गई है जिनकी कभी कभार चर्चा भी हुई है जैसे फरीदाबाद में भाजपा पोलिंग एजेंट द्वारा महिलाओं के भी वोट खुद ही कमल पर डाल देना, चुनाव के पहले दिन पैंसे बटवाकर व अंगुलियों पर निशान लगवा देना ताकि इनके नाम पर अगले दिन खुद ही अपनी पसंद का बटन दबा दिया जाय, ई वी एम की उन इलाकों में खराबी जहां विरोधी वोटर हों ! फर्जी वोटिंग! आदि आदि ! इनमें से कुछ अन्य पार्टियां भी कर सकती हैं व करती है मगर उनके लिए स्कोप बहुत ही कम है। चूंकि इसका कोई सटीक आंकड़ा नहीं होता लेकिन ये नतीजों को उलट पलट सकता है।
चुनाव आयोग का जहां तक सवाल है वह तो पूरी तरह से मोदी के पक्ष में काम करता रहा। मीडिया का 90 प्रतिशत हिस्सा मोदी का प्रचार चेनल बन गया। चुनावों में इस मीडिया हर जगह मोदी ही मोदी था बाकि तो यहां से गायब थे। इस तथ्य को भी नही भुलाया जा सकता कि इनकी अगुवाई में समाज एक फासीवादी आंदोलन मौजूद है यह ताकतवर स्थिति में मौजूद है ! आर एस एस का अपना पूरा सांगठनिक नेटवर्क मोदी के पीछे खड़ा था।
यह बात बिल्कुल साफ थी कि धुर प्रतिक्रियावादी एकाधिकारी पूंजी की टॉप प्राथमिकता मोदी व इनका फासीवादी गिरोह था व है ! तब यह कैसे मुमकिन होता कि जब यह पूंजी 2014 रच चुकी हो तब 2019 न रच पाती ।
जहां तक कांग्रेस का सवाल है वह वैसे भी देश के एकाधिकारी पूंजी की ही सबसे पुरानी पार्टी है। फिलहाल इसकी जरूरत इस पूंजी के मालिकों को नहीं है। इसीलिये एकाधिकारी पूंजी द्वारा बहुत कम फण्ड ही इसे दिया गया।
यह चुनाव अपने आप में अभूतपूर्व था यह इंदिरा के गरीबी हटाओ नारे से भी अलग था। यह चुनाव फासीवादी ताकतों द्वारा आने विशुद्ध रूप में अपने फासीवादी एजेंडे पर लड़ा गया था जो अब चुनाव जीत कर अपनी वैधता व वैधानिकता भी ग्रहण कर चुका है इस मायने में यह 2014 के के चुनाव से भी भिन्न है। यह स्थिति निश्चित तौर पर अभूतपूर्व ढंग से देश के मज़दूर वर्ग, जनवाद पसन्द लोग जनपक्षधर लोगो , मेहनतकशजन, आम दलितों मुस्लिमों व महिलाओं के लिए खतरनाक है।
इस चुनाव में विपक्ष कमजोर था अपने अंतर्विरोधों से ग्रस्त था। यह खुद भ्रष्टाचार में सना हुआ है जनविरोधी व दमनकारी है। जनता को देने के लिए इनके पास कुछ नही है ये उन्हीं नई आर्थिक नीतियों की पैरोकार है व इन्हें लागू कर रही है जिन्हें कांग्रेस व भाजपा लागू कर रही है जिनसे अवाम तबाह बर्बाद हो रही है। तब स्वाभाविक सवाल है कि जनता इनको अपने विकल्प के रूप में कैसे देखती। एक तरफ विकल्पहीनता और दूसरी तरफ कमजोर व बिखरा विपक्ष के चलते भी मोदी की सत्ता में वापसी होने की संभावना थी।
वैसे भी कॉरपोरेट घरानों तथा कांग्रेस व भाजपा की लम्बे समय से यह ख्वाहिश रही है कि देश में सिर्फ दो पार्टिया हो एक भाजपा दूसरी कांग्रेस। राजनीतिक तौर पर स्थिति ऐसी बनाने की कोशिश भी चल रही है।
वामपंथी तथा ढेर सारे संगठन व लोग चुनाव के जरिये फासीवादी ताकतों को सत्ता से बाहर करना चाहते थे ! जहां तक सी पी आई व सी पी एम का सवाल है इनकी स्थिति और ज्यादा खराब हुई है अब इनकी कुल 5 सीटें रह गयी है। अन्य पार्टियों की तरह ये भी जनता के लिए विकल्प नहीं बनते। जहां तक जनता के लिए विकल्प का सवाल है इसमें कोई भी पार्टी जनता के लिए विकल्प नही बनती। इसीलिए कभी सांपनाथ तो कभी नागनाथ वाली बनी हुई है। साथ ही यह भी सच है कि फासीवादी ताकतों के सत्ता में रहने से हालात ज्यादा भयावह होंगे।
यदि फासीवादी ताकतें सत्ता से बाहर होती या कमजोर हो जाती ! यह केवल उसी सूरत होता में जब एकाधिकारी पूंजी के मालिक ऐसा चाहते तथा अपनी पुरानी वफादार पार्टी कांग्रेस को लाना चाहते! अन्यथा तो केवल और केवल फासीवाद विरोधी सशक्त क्रांतिकारी आंदोलन ही इसे अब जमींदोज कर सकता है।
आतंकी हमले और अंधराष्ट्रवाद
पुलवामा में मेहनतकशों के 42 बेटे कथित आतंकी हमले में मारे गये हैं यह बेहद दुःखद व निन्दनीय है। यह हमला आत्मघाती दस्ते के द्वारा अंजाम दिया गया। अब तस्वीर साफ होती जा रही है कि संभावित हमले की खुफिया जानकारी के बावजूद सुरक्षा में भारी लापरवाही बरती गई या फिर हमले को हो जाने दिया गया।
अब इस हमले के बाद मोदी और शाह की जोड़ी इसके जरिये चुनावों में अंधराष्ट्रवाद व युद्ध का उन्माद पैदा कर रहे है । कुछ समय से इनके बुझे हुए चेहरों में घृणित मुस्कान तैरती साफ देखी जा सकती है ये अपना चुनाव प्रचार अंधाधुंध तरीके से न केवल जारी रखे हुए हैं बल्कि सर्वदलीय बैठक जो इस आतंकी हमले के बाद रखी गई थी देश के पी एम ने इसमें उपस्थित रहना भी जरूरी न समझा वो चुनाव प्रचार में निकल गए गृह मंत्री को बिठाकर। दूसरी ओर गोदी मीडिया अपने चैनल व अखबार पर तो संघ परिवार के लम्पट संगठन सड़कों पर युद्धोन्माद व अंधराष्ट्रवादी उन्माद पैदा कर रहे हैं। ये एक ओर पाकिस्तान को ललकार रहे हैं तो दूसरी तरफ संघी लम्पट कश्मीरी लोगों देहरादून से लेकर अन्य शहरों में हमलावर है उन्हें खदेड़ रहे हैं। अब यह इनके लिए 'वोटों की फसल' तैयार करने का जरिया बन गया है साथ ही बेरोजगारी, भ्रष्टाचार जैसे तमाम सवालों को पीछे धकेलने का औजार भी।
ये सवाल करने को तैयार नहीं कि नोटबंदी के जरिये कथित आतंकवाद की कमर तोड़ देने वाल दावों का क्या हुआ। ये यह बताने को तैयार नहीं कि जब एक तरफ उन्हें इतनी नफरत पाकिस्तान से है तो फिर क्यों मोदी के दौर में भारत पाक के बीच व्यापार साल दर साल बढ़ता रहा। निर्यात 1920 मिलियन डॉलर तो आयात 488 मिलियन डॉलर हो गया। क्यों फिर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार का बेटा पाकिस्तान के नागरिक के साथ मिलकर कम्पनी चला रहे है ? आदि आदि।
एक तरफ युद्द की ललकार दूसरी तरफ खरबो का व्यापार ! यही स्थिति पाकिस्तानी शासकों की है।
आज़ादी के बाद दोनों ही देशों के पूँजीवादी शासकों ने कश्मीर को लेकर जो नीति बनाई और फिर बाद में एक दूसरे देशों को अस्थिर करने अपने घृणित हितों के अनुरूप एक दूसरे के मुल्कों में हस्तक्षेप करते रहे है। साथ ही अपने अपने देशों में दोनों देशों के शासक अपनी अपनी मेहनतकश जनता के दिलों में एक दूसरे के खिलाफ नफरत का बीजारोपण कर इसे आगे बढ़ाते गए हैं। यह अंधराष्ट्रवादी उन्माद शासकों के लिए बड़े काम की चीज बन जाती है। सत्ताधारी पार्टी फिर सत्ता पर अपनी गिरफ़्त बनाये रखने के लिए भी इसका इस्तेमाल करती हैं।
इन बातों के साथ साथ यह भी बात है कि मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद 'कश्मीर समस्या' पर कश्मीरी अवाम को अलगाव में डालने, क्रूर दमन तथा साम्प्रदायिक उन्माद का जो घृणित खेल खेला गया उसने समस्या को विकराल बना दिया है। इन सब चीजों या कारणों से स्थिति बेहद जटिल बन गयी है। पिछले एक साल में आतंकी हमले बढ़ते गए हैं। पुलवामा की ही तरह का हमला लम्बे समय के बाद होने की बात कही जा रही है।
इसलिए भारत व पाकिस्तानी पूँजीवादी शासकों की घृणित मंसूबों व नीतियों, अंतर्विरोधों के चलते हस्तक्षेप व इसके लिए पालित पोषित या फिर प्रतिक्रिया में उपजे कथित आतंकी संगठनों के हमलों में या फिर छद्म युद्धों में मेहनतकशों के बेटे ही मारे जाते हैं। ऐसा दोनों ही जगहों में होता है। इसलिए जरूरी है युद्धों व कथित आतंकी संगठनों को पैदा करने वाले पूँजीवादी निजाम को ध्वस्त किया जाय ।
जहरीली शराब से हुई मौतों के जिम्मेदार शासक ही हैं !
उत्तराखण्ड के रुड़की, यू पी के सहारनपुर व कुशीनगर में अब तक जहरीली शराब के चलते 100 से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं। हर बार की तरह फिर असल अपराधियों, शराब के अवैध कारोबारियों को बचाने का खेल खेला जा रहा है।
जहरीली शराब से होने वाली मौतों का मामला पहली दफा नहीं है। 2015 में मुंबई में गरीब बस्ती में 100 से ज्यादा लोग की मौत हुई थी। गुजरात में 2009 में 136 लोगों की जबकि 1987 में 200 लोगों की मौत हुई थी। पश्चिम बंगाल में 2011 में 170 लोग जहरीली शराब के चलते मर गए। कर्नाटक में 1981 में 308 लोग लोगों की मौत जहरीली शराब के चलते हो गई।
हर बार मरने वाले गरीब व मेहनतकश लोग ही होते हैं। सहारनपुर व रुड़की में हुई मौतों में भी सभी गरीब मज़दूर मेहनतकश लोग ही हैं।
शराब के अवैध कारोबारी बेहद सस्ती मिथाइल अल्कोहल(जहरीली शराब) का इस्तेमाल करते हैं या फिर गुड़ व शीरा को शराब बनाने के लिए इसे जल्द सड़ाने के लिए इसमें रसायन का इस्तेमाल करते हैं। इसका नतीजा यह होता है कि इसमें एथिल एल्कोहॉल(शराब) के साथ साथ मिथाइल एल्कोहॉल ज्यादा मात्रा में बन जाता है। यह बहुत सस्ती बनती है। गरीब बस्तियों में इसी की सप्लाई कर दी जाती है। इसके अलावा भी कई बार जानकारी न होने के चलते गलत प्रक्रिया से किण्वन (सड़ाने) के चलते शराब में मिथाइल एल्कोहॉल भी बन जाता है।
मिथाइल एल्कोहल की थोड़ी मात्रा भी शरीर के घातक होती है इसे पीने के कुछ घंटों बाद आँखों की रोशनी चले जाती है और अंततः मौत हो जाती है। हालांकि जल्द उपचार मिलने पर एंटीडोट से बचाया भी जा सकता है।
शराब के अवैध कारोबार का पूरा का पूरा एक नेटवर्क बनता है इसमें आबकारी विभाग से लेकर पुलिस अधिकारी, शराब के अवैध कारोबारी व विधायक तक संलिप्त मिलेंगे। यह सस्ती व घटिया मिलावटी शराब गरीब मेहनतकशों तक पहुँचती है और इनके लिए जानलेवा साबित होती है।
इन मौतों के लिए यह मौजूदा व्यवस्था जिम्मेदार हैं शासक वर्ग जिम्मेदार है। मज़दूर मेहनतकश जन को शासकों व इनकी व्यवस्था ने कंगाल दरिद्र बना दिया है कि ये हर बेहतर चीज से महरूम हैं। सबसे ज्यादा घटिया निकृष्ट कोटि की चीज ही इन्हें मयस्सर है। खान पान से लेकर रहन सहन तक या फिर इलाज, यातायात व मनोरंजन के साधन ! किसी भी चीज को उठा कर देख लीजिए ! सबसे खराब गुणवत्ता वाली चीज का उपभोग करते ये गरीब मज़दूर मेहनकश जन मिलेंगे। यही स्थिति शराब के सम्बन्ध में भी सच है। सस्ती घटिया जानलेवा शराब ही इन्हें मिलती है।
जिंदगी की हताशा, निराशा, कुंठा व क्षोभ जो इस सिस्टम से पैदा होता है यह इन्हें नशाखोरी की ओर धकेलता है।
शासक वर्ग के पास शराब को महंगा करने या फिर शराबबंदी करने के अलावा 'नशाखोरी' का कोई इलाज नहीं है। इन दोनों कदमों का ही नतीजा भी होता है कि अवैध शराब का कारोबार का मार्केट छलांग लगाने लगता है। साथ ही बड़े स्तर पर कच्ची शराब भी बनने लगती है। यहीं फिर जहरीली शराब की संभावना बन जाती है। यह घटिया व सस्ती शराब गरीब बस्तियों तक पहुंचती है इसका नतीजा सहारनपुर रुड़की जैसी घटना में होता है। पूँजीवाद के रहते मज़दूर मेहनतकशों की ज़िंदगी इसी तरह रहनी है।
भीड़ द्वारा हत्याएं और उसके समर्थक
अब तक त्रिपुरा से लेकर महाराष्ट्र तक भीड़ 27 लोगों की हत्याएं कर चुकी हैं। अब ये सिलसिला आगे बढ़ता ही जा रहा है। भाजपा के बहुमत से सत्तासीन होने के बाद ये घटनाएं बहुत तेजी से बढ़ती ही जा रही हैं। स्थिति यह पैदा कर दी गई है कि कोई कभी भी इनका शिकार हो सकता है।
दादरी में कुछ साल पहले अखलाक के घर से तलाशी लेने व गौमांस के आरोप में हत्या कर दी गई थी। उसके बाद यह संख्या अलग अलग मुद्दों के नाम से बढ़ती जा रही है। दादरी में हत्यारी भीड़ के कुछ लोगो का भाजपाइयों से सीधे सम्बन्ध था। गौरक्षा के नाम पर हो रही हत्याओं व मारपीट के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर संघ परिवार व उसकी फ़ासीवादी राजनीति ही जिम्मेदार है।
भाजपा के मंत्री जयंत सिंह द्वारा हत्यारी भीड़ का फूल मालाओं से स्वागत करना व मिठाई खिलाना दिखलाता है कि असल में इनको भाजपा का खुला समर्थन हासिल है।झारखंड के रामगढ़ में गौरक्षक दल की हत्यारी भीड़ ने एक 55 साल के मुस्लिम की हत्या कर दी थी। इन्ही में से 11 को कोर्ट ने सजा सुनाई थी अभी ये जमानत पर आए ही थे कि केंद्रीय मंत्री जयंत सिंह इनका स्वागत करने वहां हाज़िर हो गए। इन 11 में बीजेपी के स्थानीय नेता नित्यानंद महतो, गौ-रक्षक समिति और बजरंग दल के कार्यकर्ता शामिल थे।भाजपाइयों के अन्य नेता भी कुछ अलग ढंग से इन्हें अपना समर्थन जाता चुके हैं।यह फ़ासीवादी ताकतों का इन्हें समर्थन ही है जो ऐसे फासिस्ट मनोवृत्ति वाली भीड़ को अगली हत्या या मारपीट की घटना को अंजाम देने के लिए प्रेरित करना है। और ये अपने कदम उस ओर बढ़ा लेते हैं।
विशिष्ट मामलों में भीड़ द्वारा नियम कानून से परे जो अपने नफरत व आक्रोश के हिसाब से अपराधी को दंडित करती है मार डालती है कि वजह यह भी होती है कि लंबे समय से अपराध अन्याय को झेलने हो और लंबे समय तक अपराधियों को कोई सजा न मिलने के चलते पुलिस व न्याय तंत्र से विश्वास खत्म हो जाने के चलते और फिर प्रतिक्रिया में अपराधी को सबक सिखाने की मानसिकता बन जाने से ये हमले होते हैं। लेकिन ऐसा बहुत कम ही होता है।
भीड़ द्वारा हत्याएं दुनिया में पहले भी हुई है। अमेरिका में 20 वीं सदी में भीड़ द्वारा हत्याओं को अन्जाम देने, फांसी पर लटका दिया जाता था। भीड़ द्वारा जो हत्याएं की जाती थी उनमें बड़ी संख्या में अफ्रीकी व अमेरिकी अश्वेत लोग होते थे। हमारे देश में भी कमजोर गरीब मेहनतकश ही इनका शिकार हो रहे हैं विशेषकर मुस्लिम और दलित।
मौजूदा वक्त में इंटरनेट के जरिये अफवाह फैलाकर फासिस्ट मनोवृत्ति वाले लॉगों को हत्या या किसी को सजा देने के लिए उकसाना व एक जगह पे एकजुट करना भी आसान हो गया है।
मोबलिंचिंग की घटनाएं, फासिस्ट संगठनों का फैलाव व इनका सम्बन्ध भी पूंजीवाद के संकट के साथ बढ़ता है नौकरी का संकट, तबाह बर्बाद होना अपनी जड़ों से उखड़ कर अन्यत्र पहुंचने को विवश होना, पुराने सामाजिक मूल्य मान्याताओं व पारिवारिक सम्बन्धों का तेजी से तबाही अन्य सामाजिक संकट आदि का गहराना।
शासक पूंजीपति वर्ग अपनी हितों के मद्देनज़र फासीवादियों को आगे बढ़ाता है। चूंकि ये फ़ासीवादी मनोवृत्ति वाली भीड़ यदि फासिस्टों से जुड़ी हुई नहीं हो तब भी ये फासिस्ट दस्तों की भूमिका आसानी से ग्रहण कर सकते हैं। यह फासीवादी जानते हैं। इसीलिए किसी भी प्रकार उनसे सम्बन्ध बनाये रखते हैं। इसीलिए जयंत सिंह से लेकर मोदी शाह तक सभी इन्हें ना नुकुर, आलोचना करते हुए समर्थन भी कर रहे हैं। हालांकि इनका एक बड़ा हिस्सा तो संघ परिवार की फ़ासीवादी राजनीति के तहत ही यह सब कर रहा है।
इसलिए आज जरूरी है कि मोबलिंचिंग की हर घटना का सख्ती से विरोध किया जाए। साथ ही पूंजीवाद की फ़ासीवादी राजनीति को बेनकाब किया जाए। फ़ासीवादी कदमों का दृढ़ता से विरोध किया जाए।
सेमिनार पेपर
मेहनतकशों ,दलितों, अल्पसंख्यकों व जनवादी ताकतों पर बढ़ते फासीवादी हमले
आज देश का वह हर नागरिक जो भी न्याय, अमन व जनवाद की बात करता है; संवैधानिक अधिकारों की बात करता है ; वंचित ,शोषित व दमित नागरिकों , समूहों व वर्गों के पक्ष में आवाज उठाता है संघर्ष करता है ; सत्ता व सरकारों की नीतियों व नीयत पर सवाल दर सवाल खड़े करता है वह साफ साफ महसूस कर सकता है देख सकता है कि बीते 4 सालों में देश का राजनीतिक परिदृश्य काफी बदल गया है कि देश जिस राजनीतिक दिशा की ओर बढ़ रहा है वह देश के मज़दूर मेहनतकश नागरिकों, वंचित व दबे कुचले समूहों के लिये आसन्न गंभीर खतरे की आहट है। यह गंभीर खतरा देश के पूंजीवादी लोकतंत्र से फासीवाद की ओर बढ़ने का है एक खूनी आतंकी तानाशाही की ओर बढ़ने का है। यह वही खतरा है जिसे बीसवीं सदी के तीसरे-चौथे दशक में विशेषकर यूरोप के मुल्कों ने झेला था जिसे आज हम नाज़ीवाद व फासीवाद से जानते हैं। देश में मौजूद इन फासीवादी ताकतों का मुख्य औजार 'कट्टर व उग्र हिंदुत्व' 'मुस्लिम विरोध', 'अंधराष्ट्रवाद' व 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' है।
जहां तक दमन का सवाल है ! ऐसा नहीं कि दमन पिछली सरकार या कांग्रेस के दौर में न हुआ हो! कोई ऑपरेशन ग्रीन हंट को कैसे भूल सकता है ? 18 माह के इंदिरा गांधी के दौर के आपात काल को कैसे भुला सकता है ? आज़ाद भारत में एक ही दिन में 55 हज़ार लोगों पर मुकदमा दर्ज कर 8000 लोगों पर राजद्रोह का मुकदमा यू पी ए-2 के ही काल में लगा था। दमन के ऐसे ही अनगिनत उदाहरण भरे पड़े है लेकिन फ़िर भी कहना ही होगा कि 16 मई 2014 के बाद राजनीतिक दिशा व देश में माहौल बहुत तेजी से बदला है। पिछले समय विशेषकर 4 सालों की बात करें तो देश में मज़दूर वर्ग, मेहनतकशों, दलितों, अल्पसंख्यकों विशेषकर मुस्लिमों पर हमले बहुत तेजी से बढ़े हैं। एक ओर 90 के दशक की नवउदारवादी नीति (निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण) का हमला बहुत तेज गति से आगे बढ़ा है नोटबंदी व जी एस टी की मार से जनता का बहुत बड़ा हिस्सा अभी भी कसमसा रहा है तो दूसरी ओर अंधराष्ट्रवाद के उन्माद में "देशभक्ति" का पैमाना बदलकर विरोधियों को "देशद्रोही" घोषित कर हमले किये जा रहे हैं।
यदि घटनाओं की बात की जाय तो तस्वीर ज्यादा साफ हो जाएगी। गुजरात जो कि फासीवादी शक्तियों का गढ़ रहा है वहां 2016 में गौरक्षा के नाम पर हमले बढ़ गए। गाय को शुद्ध व पवित्र घोषित कर इसकी रक्षा का नारा भाजपा व संघ परिवार के साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का औजार है जिसके निशाने पर मुस्लिम हैं। चुनावी राजनीति में वोट के लिए 'हिन्दू राष्ट्र' के पैरोकारों, जातिव्यवस्था को आदर्श मानने वालों को अम्बेडकर प्रेम या दलित प्रेम का दिखावा करना पड़ता है लेकिन इनके हमले का निशाना दलित भी बनने ही थे। यह गुजरात के ऊना में जानवरों का चमड़ा निकालने वाले 4-5 दलितों के साथ बहुत बुरी तरह मारपीट करने व उनके बीच दहशत फैलाने के लिए मारपीट की वीडियो को प्रचारित करने के रूप में प्रकट हुआ। इस दौरान भाजपा सरकार बेशर्मी के साथ मार पीट करने वाले गौरक्षक दलों के साथ खड़ी रही।
ज्यादा दूर व अन्य घटनाओं की चर्चा ना भी करें और सहारनपुर के शबीरपुर में मेहनतकश दलितों पर हुए बर्बर व कातिलाना हमले को ही लें। मई 2017 में महाराणा प्रताप जयन्ती मनाने वाली राजपुताना सेना ने सुनियोजित तरीके से शबीरपुर गांव में तकरीबन 50 घरों में हथियारों के साथ हमला कर दिया जिसमें 8-9 दलितों को गंभीर चोटें आई। तकरीबन 50 घरों में आग लगा दी गई। इसके बाद मेहनतकश दलित नौजवानों ने प्रतिरोध दर्ज करते हुए न्याय के लिए उग्र संघर्ष किया तो इस संघर्ष का बर्बर दमन किया गया। कोई आंदोलन खड़ा न हो सके इसके लिए पुलिसिया व भगवा आतंक के दम पर फर्जी मुकदमे व गिरफ्तारियां कर खौफ व दहशत का माहौल कायम किया गया। इस संघर्ष की अगुवाई करने वाले भीम आर्मी के युवाओं में से एक चन्द्रशेखर को आज भी फर्जी मुकदमे लगाकर जेल में रखा गया है। योगी -मोदी की संघी सरकार का फासीवादी रुख इन्हें सबक सिखाने का है। यही हो भी रहा है। एस सी-एस टी एक्ट में कोर्ट द्वारा बदलाव कर इसे कमजोर करना भी परोक्ष तौर पर फ़ासीवादी आंदोलन के आगे बढ़ने का ही सूचक है इसके विरोध में 2 अप्रैल के भारत बंद व इसके बाद ख़ासकर भाजपा शासित राज्यों का रुख योगी की तर्ज पर प्रदर्शनकारियों को सबक सिखाने व इनमें दहशत कायम करने का ही है।
एक ओर दलित तो दूसरी ओर मुस्लिम समुदाय के खिलाफ भी गौरक्षक दस्तों का आतंक इस दौरान बढ़ा। वैसे भी संघ के 'हिन्दू राष्ट्र' की फ़ासीवादी संकल्पना में अल्पसंख्यक दोयम दर्जे के हैं जिन्हें अधिकारहीनता की स्थिति में जीना होगा। इनके इस फ़ासीवादी मंसूबों के निशाने पर विशेषकर मुस्लिम शुरू से ही रहे हैं। केंद्र की सत्ता में बहुमत से पहुंचने के बाद स्पष्ट था कि मुस्लिमों पर हमले बढ़ते। अब उत्तर प्रदेश के दादरी में सुनियोजित तरीके से अखलाक की हत्या कर इनके बीच दहशत कायम की गयी। यहां भाजपा नेता की अगुवाई में लोगों को एकजुट किया गया। फ़िर अखलाक़ के घर में गौमांस होने की अफवाह फैलाकर अखलाक़ की हत्या कर दी गई। अब संविधान को व्यवहार में खत्म कर फासीवादी यहां अपनी जीत का जश्न मनाने के लिए फिर अगले घृणित कारनामों की ओर बढ़ गये।
यूं तो संविधान में हर नागरिक को अपने संस्कृति व धर्म को मानने की आज़ादी है इसके हिसाब से खान पान व रहन सहन की आज़ादी है मगर संघ परिवार इसके खिलाफ बहुत सुनियोजित तरीके से अफवाह एवं फर्जी तथ्यों से बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय में मुस्लिमों के खिलाफ नफरत का बीजारोपण करता रहा है इसीलिए यह संभव हो सका कि एक तरफ गौमांस के नाम पर अख़लाक़ की हत्या होती है तो दूसरी ओर लम्पट फ़ासीवादी तत्व पहनावे के चलते भी मुस्लिमों को अपना निशाना बना देते हैं । एक तरफ़ राजस्थान में गौपालन कर दूध बेचने वाले मुस्लिम पहलू खान की हत्या कर दी जाती है तो दूसरी ओर राजस्थान में ही अवैध संबंधों में रुकावट बन जाने पर शम्भू लाल रेंगर द्वारा एक मज़दूर मुस्लिम अफराजुल की हत्या कर दी जाती है । इसी शम्भू लाल रेंगर को फासीवादियों ने रामनवमी में अपना स्थानीय हीरो बना दिया। यू पी की योगी सरकार ने इसी फासीवादी रुख के चलते अवैध स्लॉटर हाउस को बंद करने के नाम पर मेहनतकश मुस्लिमों पर परोक्ष तौर से हमला बोल दिया। यही स्थिति फर्जी एनकाउंटर के मसले पर भी है। साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को या सही कहा जाय तो फ़ासीवादी आंदोलन को नई ऊंचाई तक पहुंचाने के लिए 'तीन तलाक', 'राम मंदिर', धारा 370 जैसे मुद्दे भी लगातार ही फ़ज़ाओं में उछाले जाते रहे हैं। आलम यह है कि केरल के हादिया प्रकरण को "लव जिहाद" का मुद्दा बनाकर इसमें केंद्र की संघी सरकार ने एजेंसी एन आई ए को ही लगा दिया।
शिक्षा व संस्कृति को अपने फ़ासीवादी एजेंडे के हिसाब से ढालने के लिए संघ परिवार के हर जतन हो रहे हैं। इसलिए कॉलेज भी फासीवादियों से इस टकराहट का अखाड़ा बन रहे हैं। विश्विद्यालयों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों व शोधार्थियों पर मोदी सरकार का हमला बढ़चढ़कर हो रहा है। यह हमला मोदी, मोदी सरकार की नीतियों व संघ परिवार की आलोचना करने वालों को फ़ासीवादी ताकतों का जवाब है। हमले का यह सिलसिला चेन्नई के आई आई टी कॉलेज में 'अम्बेडकर-पेरियार' स्टडी सर्किल(ए पी एस सी) ग्रुप पर हमले के रूप में हुआ। इस ग्रुप को संघ के विद्यार्थी संगठन की शिकायत पर मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा जारी पत्र के आधार पर कॉलेज प्रशासन ने प्रतिबंधित कर दिया। इनका कसूर सिर्फ इतना था कि इन्होंने एक पर्चा जारी किया था जिसमें साम्प्रदायिकता व कॉरपोरेट घरानों के गठजोड़ पर हमला करते हुए मोदी सरकार को आम जनता के लिए खतरनाक बताया था। संघ परिवार व मोदी सरकार का दूसरा निशाना बना हैदराबाद यूनिवर्सिटी का अंबेडकर स्टूडेंट एसोसिएशन। इनके घृणित हथकण्डे ने इस एसोसिएशन से जुड़े छात्र रोहित वेमुला को आत्महत्या के लिए मजबूर कर दिया ।
जवाहर लाल नेहरू विश्विद्यालय के मामले में तो संघ परिवार ने लगातार ही अपने घृणित हमले जारी रखे। मीडिया, पुलिस व सरकारी मशीनरी का इनमें जमकर इस्तेमाल किया गया। फ़र्ज़ी वीडियो बनाकर अपने लोगों के जरिये फ़ासीवादियों ने जे एन यू को देश द्रोहियों का अड्डा घोषित कर दिया। कोर्ट में भी संघी वकीलों द्वारा पेशी पर ले जाये जा रहे जे एन यू छात्रों पर हमला किया गया। एफ़ टी टी आई के छात्रों पर किये गए हमले से हम रूबरू ही हैं। फासीवादियों के ये कारनामे इनके जनवादी व संवैधानिक अधिकारों पर खुले आम हमले थे। इस दौर में हरियाणा, इलाहाबाद कॉलेज में भी फासीवादी ताकतों ने हमला किया। मामला यही नहीं रुका। बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में छात्र-छात्राओं पर रात के अंधेरे में मोदी-योगी की संघी सरकार ने लाठी चार्ज करवा दिया। यहां छात्राओं ने छेड़खानी के विरोध में यूनिवर्सिटी के संघी वाइस चांसलर से मुलाकात कर अपनी मांगें उनके सम्मुख रखनी चाही थी लेकिन संघी मानसिकता के वाइस चांसलर ने मुलाकात से मना कर दिया व मांगो को कोई तवज्जो नहीं दी। इसके बजाय इन्हें सबक सिखाने के लिए दमन का रास्ता चुना गया। लाठीचार्ज के बाद 1200 छात्र-छात्राओं पर फर्जी मुकदमे दर्ज कर दिये गए। यह घटना मोदी-योगी की संघी सरकार के स्त्री विरोधी चरित्र को भी दिखलाता है। स्त्री-पुरुष की सामाजिक असमानता को भी धूर्त संघी प्राकृतिक ही बताते हैं।
संघ परिवार अपनी जहनियत में तार्किक व वैज्ञानिक चिंतन का भी विरोधी है। खुद प्रधानमंत्री ने वैदिक जमाने में गणेश का हवाला देकर प्लास्टिक सर्जरी होने का दावा किया था। आम तौर पर आम अवाम को अतार्किक व मूढ़ बनाये रखना शासक वर्ग के हित में होता है। इसी बात को समझते हुए फ़ासीवादी इतिहास परिवर्तन की परियोजना पर तेजी से काम कर रहे हैं जिसका मकसद अपने इसी हिन्दू फ़ासीवादी एजेंडे को दीर्घकालिक तौर पर आगे बढ़ाना है। इसलिए प्रगतिशील व तर्कपरक चिन्तन पर जोर देने तथा अन्धविश्वास निर्मूलन के लिये काम करने वाले वाले डॉक्टर कलबुर्गी की हत्या कर दी गई। वहीं गोविंद पंसारे जो कि ट्रेड यूनियन संघर्ष के मोर्चे पर लगातार सक्रिय थे। गोविन्द पंसारे ने संघी फासीवादियों को शिवाजी के मसले पर बेनकाब करने के लिए किताब भी लिखी थी। इनकी हत्या भी एक रोज़ कर दी गयी। गौरी लंकेश जो कि संघी फासीवाद के खिलाफ लगातार अपने लेखन के जरिये हमले कर रही थी उन्हें भी यू पी के मुख्यमंत्री योगी की भाषा में "ठोक" दिया गया। खौफ का माहौल यूं बन गया कि तमिलनाडु के लेखक पेरुमाल मुरुगन को लेखक के रूप अपनी मौत की ही घोषणा करनी पड़ी। हिटलर के फासीवादी दस्ते इस ढंग से हत्या करते थे कि फिर लोगों के बीच खौफ व दहशत कायम हो जाये। यही तरीका फासिस्टों के भारतीय संस्करण का भी है।
देश में बढ़ती असहिष्णुता के खिलाफ पुरस्कार वापसी आंदोलन को "मज़ाक़" में तब्दील कर इन पर अपना फ़ासीवादी हमला फ़ासीवादियों ने निरंतर जारी रखा। किसानों के आंदोलनों का निर्मम दमन राजस्थान व मध्य प्रदेश में किया गया। पुलिस की गोली से कुछ किसान मारे भी गए। मज़दूर वर्ग के ट्रेड यूनियन आंदोलनों पर इनके हमले बदस्तूर जारी हैं। श्रम कानूनों व ट्रेड यूनियन एक्ट में बदलाव कर मज़दूर वर्ग पर बढ़ा हमला बोलने की तैयारी चल ही रही है।
कुलमिलाकर आज़ादी के बाद एक लंबे वक्त तक हाशिये पर पड़ा यह फ़ासीवादी आंदोलन आपात काल के दौर में इसके विरोध की आड़ में अपना विस्तार करता है फिर 80 के दशक के बाद नवउदारवादी नीतियों(निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण) के समानांतर इसका फैलाव होने लगता है। इन नीतियों को लागू करवाने के दौर में 'राम मंदिर' का आंदोलन खड़ा कर ये अपना विस्तार करते हैं। इसी के बाद पहले ये कुछ राज्यों में अपनी सरकार बनाने में सफल होते हैं फिर बाद में बाजपेयी की अगुवाई में एन डी ए की सरकार बनाने में कामयाब हो जाते हैं। फिर स्थितियां ऐसी बनती हैं कि 2014 आते आते ये बहुमत से सत्ता पर पहुंच जाते हैं। तब से चार साल गुजर चुके हैं। अब ये गुजरे चार साल देश में फ़ासीवादी आंदोलन के ज्यादा तेजी से निरंतर आगे बढ़ने के साल हैं इन चार सालों में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के जरिये आगे बढ़ रहा यह फ़ासीवादी आंदोलन आज उत्तराखण्ड के शांत माने जाने वाले पहाड़ी इलाकों से लेकर बंगाल,केरल तक फैल चुका है।
ये चार साल देश के पूंजीवादी संविधान के और ज्यादा कमजोर होते जाने के साल भी हैं साथ ही सीमित जनवादी व संवैधानिक अधिकारों की खुले आम धज्जियां उड़ाये जाने व इन्हें रौंदने के साल भी हैं। ये चार साल देश की सत्ता के बढ़ते केन्द्रीकरण, संसद में मंत्रीमंडल की भूमिका को बेहद कमजोर कर देने व जन मतों से नहीं चुनी जाने वाले प्रधानमंत्री कार्यालय के सर्वोच्च निकाय के बतौर सामने आने के साल हैं। न्यायालय, चुनाव आयोग व रिजर्व बैंक की स्थिति किसी से छुपी हुई नही है। न्यायालय के 4 जजों की प्रेस कॉन्फ्रेंस इनके न्यायपालिका में बढ़ते शिकंजे के विरोध की ही एक अभिव्यक्ति थी। अब देश की हर तरह की संवैधानिक संस्थाओं में फ़ासीवादी तत्त्वों की घुसपैठ हो चुकी है। पूंजीवादी लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहलाने वाला मीडिया इनके स्तुतिगान में लगा हुआ है साथ ही यह साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को आगे बढ़ाने का साधन बन चुका है जबकि इनका विरोध करने वाले पत्रकारों की आवाज़ खामोश कर दी जा रही है।
इस फ़ासीवादी आंदोलन के निशाने पर देश का मज़दूर वर्ग व देश के मेहनतकश दलित, मेहनतकश अल्पसंख्यक विशेषकर मुस्लिम हैं। इनके निशाने पर वह हर नागरिक है जो सरकार की नीतियों पर व नियत पर सवाल करता रहा है इनकी आलोचना करता है।
स्पष्ट है कि फ़ासीवादी ताकतों के सत्ता में बने रहने पर ये घृणित हथकंडे व हमले इनके बेनक़ाब होने के साथ साथ बहुत तेजी आगे बढ़ते जाएंगे। उत्तर प्रदेश में योगी की ताजपोशी के साथ साथ राम मंदिर रथ यात्रा इसी फ़ासीवादी आंदोलन को 2019 के लिए नई ऊंचाई पर पहुंचाने की ही चाहत है। जहां तक इन्हें परास्त करने का सवाल है यह ध्यान रखना ही होगा कि फ़ासीवादी ताकतों के सत्ता पर बने रहने को केवल मोदी-शाह, भाजपा या फिर संघ परिवार तक सीमित कर देने से कोई फासीवाद विरोधी आंदोलन विशेष सफलता हासिल नही कर सकता। यदि हम गौर करें तो तस्वीर ज्यादा साफ हो जाएगी। 2007-08 से ही वैश्विक अर्थव्यव्यथा आर्थिक संकट की चपेट में है। तब अमेरिका से शुरू हुए सब प्राइम संकट ने धीरे धीरे पूरी दुनिया को अपनी जद में ले लिया था। हज़ारों अरब डॉलर का बेल आउट पैकेज तब संकट के लिए जिम्मेदार वित्तीय संस्थाओं को किया गया। यही तरीका अन्य देशों के पूंजीवादी हुक्मरानों के लिए भी नज़ीर बन गया। भारत इस संकट से कुछ हद बचा रहा तो इसकी बड़ी वजह बैंकिंग व बीमा कंपनियों का सरकार के नियंत्रण में होना था। इस आर्थिक संकट के दौर में ही हमने ट्यूनीशिया से लेकर मिश्र में जन संघर्षों की लहरें देखी। यही वो दौर भी है जब अमेरिका से लेकर यूरोप में भी भांति भांति के आंदोलन खड़े हो गए। ऑक्युपाई वाल स्ट्रीट, अमेरिका के विस्कोसिन प्रांत में मज़दूर वर्ग का जुझारू संघर्ष, ब्रिटेन के छात्रों का जबरदस्त प्रदर्शन, चीली, ब्राज़ील, चीन, स्पेन,ग्रीस ,फ्रांस में जन संघर्ष । मिश्र के जन सैलाब में मज़दूर वर्ग अग्रिम कतारों में खड़ा था। दक्षिण अफ्रीका के प्लेटिनम खदानों के मज़दूरों का संघर्ष, चीन के मज़दूर वर्ग का जुझारू संघर्ष जिससे चीन के मज़दूर वर्ग ने कुछ वेतन वृद्धि करने में सफलता हासिल की। खुद भारत में मारुति सुज़ुकी के मज़दूरों का आंदोलन ऐतिहासिक बन गया। इसके अलावा भी मज़दूर वर्ग समेत देश में अन्य तबकों के भी संघर्ष हुए। भूमि अधिग्रहण के खिलाफ जुझारू संघर्ष देश में हुए। ये सभी संघर्ष अपनी बारी में पूंजी के आक्रामक होते जाने का जवाब थे।
यह संकट व संघर्ष तात्कालिक रूप में पिछली सदी के सत्तर के दशक से वैश्विक स्तर पर लागू की गयी नवउदारवादी नीतियों की ही अभिव्यक्ति थे। इन नीतियों ने मज़दूर मेहनतकशों की तबाही बढ़ाई है असमानता को बढ़ाया है। इन नीतियों को तब के दौर के वैश्विक आर्थिक ठहराव से निपटने के नाम पर पूंजी के मुनाफे को बढ़ाने के लिए लाया गया था। यह तब पूंजी के फिर से आक्रामक होने का दौर था। अब 2007-08 में वैश्विक पूंजीवादी आर्थिक संकट उपस्थित होने पर पूंजी का हमला ज्यादा तीव्र हो गया। अब एक दौर में समाजवादी दुनिया के दबाव में कल्याणकारी राज्यों के चलते जनता को व मज़दूर वर्ग को जो कुछ भी हासिल हुआ था अब उन पर तीखे हमले का दौर था। अब एक ओर पूंजीवादी शासकों ने "कटौती कार्यक्रम" के जरिये जनता पर आर्थिक रूप में हमला बोला तो दूसरी तरफ अपनी राजनीति में उसने दक्षिणपंथी फासीवादी ताकतों को आगे कर दिया। आज समूची दुनिया की यही स्थिति है। भारत भी इसी पूंजीवादी दुनिया का ही हिस्सा है यही स्थिति यहां भी है। देश के भीतर इस दौर में भारतीय एकाधिकारी पूंजी का कांग्रेस पर लगातार नई आर्थिक नीतियों को तेजी से लागू करने का दबाव था। कांग्रेस चाहते हुए ऐसा नहीं कर पा रही थी। यही वजह थी कि एकाधिकारी पूंजी के एक मालिक टाटा को कहना पड़ा कि कांग्रेस सरकार 'पालिसी पैरालीसिस' की शिकार है। अब कांग्रेस के 'राजनीतिक व नैतिक प्राधिकार' को ध्वस्त करने के लिए फ़ासीवादी 'अन्ना व केजरीवाल' कम्पनी का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन खड़ा कर दिया गया था। भ्रष्टाचार की इसी गंगोत्री में अब भाजपा व मोदी गोते लगा रहे हैं फिर भ्रष्ट विपक्षियों के भी कुछ पतित लोग इसमें नहाकर 'ईमानदार व पवित्र' हो जा रहे है।
खैर! अब एक ओर नई आर्थिक नीतियों को तेजी से आगे बढ़ाने तो दूसरी तरफ जनांदोलनों से बेदर्दी से निपटने की चाहत पूंजीपति वर्ग की थी । एकाधिकारी पूंजी के हिसाब से अब वह वक़्त क़रीब आ पहुंचा था जब कि एक वक्त तक पाले पोसे गये फासीवादी ताकतों की केंद्रीय सत्ता पर ताजपोशी हो। गुजरात मॉडल को व उसके नायक को खड़ा कर उसे भली भांति देख लेने के बाद 2014 में यह ताजपोशी भी सम्पन्न हो गई। इसलिए कहना होगा कि फासीवादी ताकतों को सत्ता पर बिठाने का असली दारोमदार एकाधिकारी पूंजी के हाथ में है। 16 मई 2014 के बाद की स्थिति अब स्पष्ट है। अब एक ओर आर्थिक क्षेत्र में मज़दूर वर्ग के शोषण को अत्यधिक बढ़ाने के लिए श्रम कानूनों व ट्रेड यूनियन कानूनों पर हमले हो रहे हैं आम जन को मिलने वाली चंद सुविधाएं व सब्सिडी हर क्षेत्र में खत्म हो रही हैं। बैंकों के 8-10 लाख करोड़ रुपये के गैर निष्पादित परिसंपत्तियों (एन पी ए) को बट्टे खाते में डालने व 2 लाख करोड़ रुपये का बेल आउट करने के साथ ही अब 'बेल इन' की योजना भी बन रही है जिसमें बैंक के दिवालिया होने की स्थिति में इनमें जमा जमाकर्ताओं की पैसे को रोक लिया जाएगा। दूसरी ओर राजनीतिक हमले के रूप में अब तक का सबसे मजबूत फ़ासीवादी आंदोलन हमारे सामने है। यह एक ओर 'आधार' के जरिये निगरानी तंत्र खड़ा कर चुका है तो वहीं दूसरी ओर विरोधी वर्ग व तबकों के आंदोलन का धूर्तता से दमन कर रहा है ।
जहां तक फ़ासीवाद के सम्बन्ध में अतीत की बात है। बीसवीं सदी के तीसरे व चौथे दशक में जर्मनी, इटली, स्पेन, पुर्तगाल व हंगरी आदि में फ़ासीवादी सत्ताओं के उभार को हम जानते हैं। यह वह दौर है जब इस सदी के पहले दशक में मंदी व फिर पहला विश्व युद्ध हुआ था। इस विश्व युद्ध के दौर में ही साम्राज्यवादी रूस में क्रांतिकारी बदलाव हो गया था। तब समाजवादी रूस वज़ूद में आ गया था जो मज़दूर मेहनतकशों का अपना राज्य था। इस क्रांति की लहर यूरोप के अन्य मुल्कों को अपनी चपेट में लेने की ओर बढ़ गई थी। तब इटली में क्रांतिकारी लहर से निपटने के लिए प्रतिक्रियावादी वित्त पूंजीपतियों ने फ़ासीवादी मुसोलिनी व उसके फ़ासिस्ट दस्ते को सत्ता सौंप दी। यही स्थिति दूसरे विश्व युद्ध से पहले के 'महामंदी' के दौर में बन गयी जब जर्मनी के थाइसेन व क्रुप्स जैसे एकधिकारी वित्तपतियों ने नाजीवादी हिटलर व उसकी पार्टी को सत्ता पर पहुंचा दिया। इसके बाद फासीवाद ने हिंसा, उन्माद, खूनी आतंक की घृणित व बर्बर मिसालें क़ायम की थी। यह सोवियत रूस की मज़दूर सत्ता ही थी जिसने फ़ासीवाद को तब परास्त किया था जिसे तब परास्त किया जा चुका था आज उसका खतरा फिर से हमारे सामने है।
आज वैश्विक मंदी के जमाने में एक ओर दुनिया में दक्षिण पंथी व फ़ासीवादी तत्वों के उभार दिख रहे हैं तो दूसरी ओर खुद हमारे देश में अब तक का सबसे मजबूत फासीवादी आंदोलन हमारे सामने है। अम्बानी,अडानी,टाटा आदि जैसी बड़ी एकाधिकारी पूंजी का हाथ अब मोदी-शाह, भाजपा व संघ परिवार की पीठ पर है। लंबे वक्त तक कांग्रेस ने इस पूंजी के हितों को आगे बढ़ाया है लेकिन आर्थिक संकट के दौर में एकाधिकारी पूंजी की बेचैनी व अधैर्य ने फ़ासीवादी ताकतों को सत्ता पर बिठा दिया। आज देश व दुनिया में कोई शक्तिशाली क्रांतिकारी आंदोलन व क्रांति का खतरा न होने के बावजूद यदि पूंजीपति वर्ग ने फ़ासीवादी ताकतों को सत्ता पर बिठा दिया है तो यह उनकी अपने लिए मज़बूत व सुरक्षित क़िलेबंदी इस बार पहले ही कर लेने की घृणित मंसूबों की ही अभिव्यक्ति है। फिलहाल नग्न फ़ासीवादी सत्ता न कायम करने के बावजूद शासकों की मंशा यही है कि फ़ासीवादी आंदोलन की मौजूदगी लगातार देश के भीतर बनी रहे। यह फ़ासीवादी आंदोलन अलग अलग मुद्दों के जरिये देश व्यापी होता जा रहा है।
फासीवाद कोई एक अलग राजनीतिक सामाजिक अर्थव्यवस्था नहीं है बल्कि यह पूंजीवादी शासन व्यवस्था का ही एक भिन्न रूप है पूंजीवादी लोकतंत्र के बरक्स यह प्रतिक्रियावादी एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग की खुली आतंकी तानाशाही है। यह आम पूंजीवादी तानाशाही की तुलना में मज़दूर मेहनतकशों व जनवादी ताकतों के लिए कई गुना ज्यादा घातक व खतरनाक है। यह फासीवादी आंदोलन जनवादी चेतना, जनवादी मूल्यों व परम्पराओं को कमजोर करता हुआ व इसका निषेध करता हुआ आगे बढ़ रहा है। निरंकुशता, आतंक व दमन को आगे बढ़ाता हुआ यह फासीवाद की दिशा में बढ़ रहा है। इसके कई मुंह है एक ओर यह एक व्यक्ति मोदी को "महामानव" के रूप में प्रस्तुत कर रहा है तो दूसरी ओर उग्र व अंधराष्ट्रवादी उन्माद खड़ा कर रहा है। यह 'लव जेहाद', 'तीन तलाक' 'गौ माता' ' इस्लामिक आतंकवाद' के नाम पर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को तेजी से आगे बढ़ा रहा है । फ़ासीवादी समाज के सबसे ज्यादा भ्रष्ट, निकृष्ट तत्व होते हैं जो लम्पट व पतित तत्वों को भी अपने साथ शामिल कर लेते हैं। चुनाव जीतने के लिए हर घृणित हथकंडे, फर्जी एनकाउंटर, झूठ-अफवाह व फर्जी आंकड़ों का गुब्बार, भ्रष्ट पतित तत्वों को अपने में शामिल कर इनके 'नैतिक' 'ईमानदार' होने के दावे ये वो चीजें हैं जो फासिस्टों के चरित्र को खोल कर रख देती हैं। गुजरात के चर्चित शोहराबबुद्दीन फेक एनकाउंटर व इस केस को देख रहे जज लोया की हत्या का मामला तो अब हमारे सामने ही है। इसलिये जो यह सोचते हैं कि चुनाव में जातिवादी या भांति भांति के समीकरण बनाकर या फिर कोई गठबंधन बनाकर फ़ासीवादी ताकतों को हराया जा सकता है तो वास्तव में यह फासीवाद को केवल पार्टी विशेष या व्यक्ति विशेष तक सीमित करना है इसलिये यह फ़ासीवादी ताकतों को परास्त नहीं कर सकता।
फ़ासीवादी आंदोलन का जवाब चुनावी जोड़-तोड़ नहीं हो सकता। हो सकता है कि चुनाव में फ़ासीवादी ताकतें हार जाएं लेकिन चूंकि एक फ़ासीवादी आंदोलन तब भी मौजूद रहेगा जैसे ही संकट की घड़ी आएगी एकाधिकारी पूंजी के मालिक फ़ासीवादी ताकतों को सत्ता पर बिठा ही देंगे। ऐसे करने के तमाम विकल्प उनके पास होते हैं। तब व्यक्ति दूसरा भी हो सकता है पार्टी भी दूसरी हो सकती है। कांग्रेस इसी एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग की प्रतिनिधि है जिसकी अगुवाई इस वक़्त भाजपा कर रही है। इन हिन्दू फ़ासीवादी ताकतों को पालने पोसने में जहां पूंजीपति वर्ग की ही मुख्य भूमिका रही है वहीं पार्टी के रूप में कांग्रेस ने भी यही काम किया है। भाजपा के कट्टर व उग्र हिंदुत्व का जवाब कांग्रेस के पास क्या है? 'नरम हिंदुत्व'। यह 'नरम हिंदुत्व' अपनी बारी में 'उग्र हिदुत्व' में तब्दील होकर फ़ासीवादी भाजपा व संघ परिवार को ही ताक़त देगा। क्षेत्रीय पार्टियों का सवाल जहां तक है जो कि फ़ासीवादी ताकतों से कुछ टकराहट में दिखते लगते हैं तो ये खुद भी उन्हीं नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को परवान चढ़ा रही हैं जिन्हें कि कांग्रेस या भाजपा। इन नीतियों को लागू करने में ये भी घोर दमनकारी हैं साथ ही इसी वज़ह से ये घोर अवसरवादी भी हैं। ये इन नीतियों में क्षेत्रीय पूंजीपतियों के हितों के हिसाब से सौदेबाजी करती हैं। मोदी विरोधी नीतीश व उनकी पार्टी महागठबंधन के नाव पर सवार होने के बाद अब मोदी व भाजपा की गोद में बैठे हुए हैं । इस जमीन से कैसे फासीवादी आंदोलन का विरोध हो सकता है। सरकारी वामपंथियों के फसीवाद विरोध का जहां तक सवाल है इन्होंने फासीवाद को केवल मोदी, भाजपा व संघ तक सीमित कर दिया है। ये भी ख़ुद इन्ही नवउदारवादी नीतियों को आगे बढ़ा रही हैं। नंदीग्राम व सिंगुर इन्ही नीतियों की उपज थी। इस सोच व समझ के साथ फासीवादियों का मुकाबला नहीं किया जा सकता।
फासीवादियों का विरोध उसी जमीन से हो सकता है जिस वजह या डर से इसे पाला पोसा जाता है व सत्ता पर बिठाया जाता है यानी मज़दूर मेहनतकशों का सशक्त क्रांतिकारी आंदोलन। इसलिए इस फासीवादी आंदोलन का जवाब भी केवल मज़दूर मेहनतकशों का क्रांतिकारी आंदोलन व इसके साथ साथ अलग अलग वर्गों व तबक़ों का व्यापक जुझारू फासीवाद विरोधी संयुक्त मोर्चा ही हो सकता है। इस दिशा की ओर बढ़ते हुए जनवाद, जनवादी व संवैधानिक अधिकारों पर होने वाले हर फासीवादी हमले का पुरजोर विरोध करते हुए फासीवाद विरोधी आंदोलन खड़ा करने की ओर बढ़ना होगा। हमें याद रखना होगा कि इतिहास का निर्माण जनता करती है। मज़दूर वर्ग व मेहनतकश अवाम उसकी पार्टियों की अगुवाई में बने मोर्चों ने अतीत में फासीवाद को ध्वस्त किया था। ये फ़ासीवाद विरोधी संघर्ष हमारी प्रेणा है व विरासत है। यह ध्यान रखना होगा कि फ़ासीवादी जैसे जैसे आगे बढ़ते हैं आम अवाम के हर हिस्से को अपने विरोध में भी करते जाते हैं साथ ही इनकी दिशा समाज व इतिहास की गति को पीछे धकेलने की है जो निरथर्क है। यही इनकी असल कमजोरी है और हमारी ताकत। हमें मज़दूरों,छात्रों,दलितों,अल्पसंख्यकों,आदिवासियों, किसानों व महिलाओं हर तबके व वर्ग पर होने वाले फासीवादी हमले का पुरजोर विरोध करते हुए आगे बढ़ना होगा।
क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन
कर्नाटक चुनाव, भाजपा, कांग्रेस और लोकतंत्र
कर्नाटक चुनाव में पिछले चुनावों की ही तरह मोदी व शाह की जोड़ी ने बहुत कुछ दांव पे लगाया। सही कहा जाए तो इस चुनाव में मोदी-शाह की जोड़ी ने भ्रष्ट रेड्डी बंधु से हाथ मिलाया, भ्रष्ट येद्दयुरप्पा को मुख्य मंत्री का उम्मीदवार बनाया यही नहीं प्रधानमंत्री ने फिर ऐतिहासिक तथ्यों से मनमाना खिलवाड़ किया साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की हर कोशिश की और चुनाव प्रचार बन्द होने के बावजूद अंतिम दिन नेपाल से प्रचार करने का दांव भी चला। शाह ने 130 सीट जीतने का दावा भी किया। लेकिन इस सबके बावजूद भी बहुमत भाजपा को हासिल नहीं हुआ। वोट प्रतिशत के लिहाज से 36.2% के साथ पार्टी दूसरी नंबर पर थी तो सीट के हिसाब से 104 सीटों के साथ पहले नम्बर पर।
जहां तक कॉंग्रेस का सवाल है उसने भी बहुमत हासिल करने का दावा किया था हालांकि वोट प्रतिशत के लिहाज (38%) पहले नंबर पे रही तो सीटों के लिहाज से 78 सीटों के साथ दूसरे नंबर पर। कांग्रेस पार्टी कभी भी धर्मनिरपेक्ष नहीं रही नरम हिदुत्व की नीति पर वह चलती रही है। इस चुनाव में भारतीय फासीवादियों के उग्र हिंदुत्व के जवाब में गुजरात से आगे बढ़ते हए कांग्रेस नरम हिंदुत्व पर खुल कर खेलने लगी। वह मठों व मन्दिरों के चक्कर जमकर लगाने लगी। फ़ासीवादी ताकतों का जवाब कांग्रेस ऐसे ही दे सकती है इस नरम हिन्दुत्व की परिणति देर सबेर उग्र हिंदुत्व में ही होनी है।
आज के जमाने में जब पूंजीवाद का वैश्विक संकट गहन हो रहा हो शासक वर्ग दुनिया भर में प्रतिक्रियावादी ताकतों व दक्षिणपंथी ताकतों का आगे कर रहा हो खुद मध्यमार्गी पार्टी इस दिशा में ढुलक रही हो तो फिर अपने देश में इस पर अचरज कैसा। कांग्रेस की दिशा भी अब यही है। इतना तो स्पष्ट है कि एकाधिकारी पूंजी अब अपनी इस पार्टी के पतन पर ब्रेक लगाने को उत्सुक है। उसकी यह उत्सुकता एक वक़्त के "पप्पू" की गंभीरता व खुद को प्रधानमंत्री के बतौर प्रोजेक्ट करने में दिखती है। यह चुनाव के बाद घटे घटनाक्रम में और भी ज्यादा साफ है कॉंग्रेस की भाजपा के मुंह से जीत छीन लेना यूं ही नही है।
कर्नाटक चुनाव को 2019 के मोदी के लिटमस टेस्ट की तरह भी प्रस्तुत किया जा रहा था। इतना तो स्पष्ट है कि चुनाव दर चुनाव के आंकड़े दिखाते है कि मोदी की लोकप्रियता का ग्राफ या मोदी पर भरोसे का ग्राफ गिर रहा है लगभग 6%--10% की गिरावट है। कर्नाटक चुनाव में लोक सभा चुनाव की तुलना में लगभग 7%, की गिरावट है। अब कर्नाटक में सत्ता हाथ से जाने के बाद तय है कि साम्प्रदायिक उन्माद को अब और ज्यादा उग्र होकर आगे बढ़ाया जाएगा। सम्भावना इसकी ज्यादा है कि यह गुजरात की तर्ज पर हो राम मंदिर, अंधराष्ट्रवाद आदि के अलावा यह प्रधानमंत्री यानी मोदी के आतंकवादियों द्वारा मारे जाने की फर्जी खबरों की बाढ़ व गिरफ्तारियों के रूप में हो सकता है।
खैर कर्नाटक में चुनाव के बाद जो स्थिति बनी जिसमें भाजपा किसी भी कीमत पर सरकार बनाने के लिए बेचैन थी और राज्यपाल ने 15 दिन का समय बहुमत सिद्ध करने के लिए दिया था। यह गुजरे जमाने के कांग्रेस की याद दिलाने वाला था। तब कांग्रेस अपने विरोधियों की प्रांतीय सरकारों को गिराया करती थी । "नैतिकता व शुचिता" की बातें करने वाली भाजपा अब कहने लगी कि "राजनीति भी संभावनाओं की कला है"।इसके लिए विधायकों की खरीद के लिए जमकर कोशिश की गई। दूसरी ओर कांग्रेस ने जे डी एस से अवसरवादी गठजोड़ कर उसके नेता को मुख्यमंत्री घोषित कर सत्ता से भाजपा को बाहर करने के लिए जमकर मोर्चा लिया। अंततः येद्दयुरप्पा को इस्तीफा देना पड़ा। वे विधायको को ख़रीदने में असफल रहे।
कांग्रेस इस जीत को अब लोकतंत्र की जीत कह रही है उनका लोकतंत्र सही मायने में है भी यही यानी पूंजीवादी लोकतंत्र। इस लोकतंत्र में पूंजीपति वर्ग की पार्टियां बारी बारी से जनता के बीच से चुनकर आकर उन पर शासन करती है। आम अवाम के ऊपर कुछ बेहद सीमित अधिकारों के रूप में यह पूंजीवादी तानाशाही के अलावा और कुछ नही है। अब कर्नाटक में सरकार चाहे किसी भी पार्टी की बने जनता के जीवन में कोई बदलाव तो आने से रहा। जहां तक फ़ासीवादी ताकतों से लड़ने का सवाल है यह कांग्रेस की न तो मंशा है न ही वह ऐसा कर सकती है।
23 मार्च' भगत सिंह शहादत दिवस के 87 वें साल पर
23 मार्च 1931 का दिन भगत सिंह , राजगुरु व सुखदेव को अंग्रेजी हुक्मरानों द्वारा फांसी दी गई थी तब से अब 87 साल गुजर चुके हैं । इन 87 सालों में देश के शासक बदल गए। भगत सिंह की बातों में कहा जाय तो गोरे अंग्रेज तो चले गए काले अंग्रेज सत्ता पर काबिज़ हो गए। एक खतरनाक दमन, अंग्रेजी हुकूमत के आतंक साथ ही दंगों का दौर आज़ादी से पहले गुजरा था। और आज़ादी के बाद आज जब 'सवाल' उठाने पर पहरे लग रहे हों ; अधिकारों की -रोजगार की-महंगाई की बात करना गुनाह हो। जब मेहनतकश दलितों-मुस्लिमों के पक्ष में आवाज उठाना देशद्रोह हो ; हर चीज को जब 'धर्म-संस्कृति-देशभक्ति' की चाशनी में परोसा जा रहा हो; जब चौतरफा नफरत और दंगो की ही साजिश रची जा रही हो तब कहना ही होगा कि यह वक़्त बेहद खतरनाक है !
अवश्य ही ! जिस समाज का ख्वाब भगत सिंह ने बुना था यह वैसा समाज नहीं है। भगत सिंह व उनके साथियों का ख्वाब था देश आज़ाद हो ; कि आज़ाद भारत समाजवादी देश बने। जिसमें अन्याय उत्पीड़न शोषण के लिए कोई जगह न हो ; जिसमें धर्म लोगों का निजी मामला हो, कोई गैरबराबरी ना हो; जिसमें पूंजी की जकड़न से समाज मुक्त हो; मेहनतकश जनता में भाईचारा हो ।
ऐसे समाज के लिए भगत सिंह व उनके साथियों ने कुर्बानी दी। वह न केवल अंग्रेजो से लड़े बल्कि देश के काले अंग्रेजों के भी वह विरोधी थे। भगत सिंह कहते थे कुछ फर्क नही पड़ेगा यदि अंग्रेज पूंजीपति चले भी जाएं उनकी जगह देश के पूंजीपति जमीदार शासक बन जाएं तो। यही वजह थी कि 23 मार्च 1931 को भगत सिंह को फांसी दे दी गई और साथ ही राजगुरु व सुखदेव को भी।
ये नौजवान शहीद हो गए मगर इनके विचार को अंग्रेज सरकार न मार सकी । इनके कुर्बानी व विचारों की चर्चा घर घर होने लगी। बस स्थितियां ऐसी बनी कि देश आजाद तो हुआ लेकिन सत्ता काले अंग्रेजो को मिल गयी।
इन काले अंग्रजों की बदौलत आज संसाधनों व जनता की लूट खसोट निर्मम हो चुकी है। नोटबंदी व जी.एस.टी की हकीकत हमारे सामने है। बढ़ती महंगाई, बढ़ती बेरोजगारी को हर कोई महसूस करता है। फैक्ट्रियों में मज़दूर का भयानक शोषण है तो उधर किसान आत्महत्याएं कर रहे है। लेकिन चैनलों में "चमकता भारत" है "खुशहाल जनता" है । टी वी चैनलों की-अखबारों की क्या कहें ? वंहा से जनता के दुख दर्द गायब हैं जनता के मुद्दे गायब हैं । वंहा चीख-शोरगुल,गाली-गलौज के सिवाय क्या है ? यंहा बस "धर्म-राष्ट्र-संस्कृति-युद्ध" का उन्माद है। "धर्म-राष्ट्र-संस्कृति" के ठेकेदारों का ही अब चौतरफा आतंक है। ये हिटलर-मुसोलिनी के भक्त अपने आतंक से जनता को रौंद रहे है। इनके आतंक से मेहनतकश इंसान कसमसा रहा है। दूसरी ओर शासक पूंजीपतिवर्ग है उसके मुनाफे का कारोबार इन सबसे बढ़ती पर है, शेयर बाजार आसमान छू रहा है। हाल ये है कि देश की कुल संपदा का 73 % हिस्सा देश के 1 % पूंजीपतियों के कब्जे में जा चुका है जो कि पहले 58 % था। यही वो "विकास" है जिसके जश्न मनाये जा रहे है। यही जनता की "खुशहाली" है।
जनता की इस बर्बादी के लिए शासक पूंजीपति जिम्मेदार है । लंबे वक्त तक पूंजीपतियों ने कांग्रेस को सत्ता पर बिठाये रखा। अपने मुनाफे के कारोबार को बहुत बढ़ाया। मंदी का दौर आया तो पूंजीपतियों ने फासीवादी ताकतों को सत्ता पर बिठा दिया । 'अम्बानी-अडानी का हाथ अब मोदी-शाह के साथ' है इनके सर पर है। अब 'जनता को कंगाल बनाने -पूंजीपतियों को मालामाल करने' की स्कीम जोर शोर से चल रही है। इसीलिए 'पकोड़े बेचना' 'कबाड़ बेचना' 'गुब्बारे बेचना' इनकी नज़र में रोजगार है। जनता इस लूट को न समझ पाए इसलिये 'फूट डालो-राज करो' का मंत्र हर ओर है। इसीलिए दंगे अब कभी इधर तो कभी उधर बहुत जरूरी है। जनता 'हिन्दू -मुस्लिम' में बंट जाएं ऐसे मुद्दे बेहद जरूरी हैं । सीमाओं पर युद्ध जरूरी है। हथियारों के अरबों-खरबों के धंधे का सवाल जो है। फिर पड़ोसियों के खिलाफ घोर नफरत भी तो बहुत जरूरी है ताकि 'राष्ट्रवाद' का कारोबार चलता रहे और 'युद्ध' को जायज ठहराया जा सके । दोनों तरफ सीमाओं पर रहने वाले घरों में जो खौफ-दहशत व मौत पसरी रहती है उनको कोई क्यों सुने। इन दंगो में कौन मरता है ? सीमाओं पर कौन मरता है ? नोटबंदी से जो मरे वो कौन लोग थे ? क्या कोई पूंजीपति या नेता या बड़ा अधिकारी था ? नहीं । निश्चित तौर पर --मरने वाले मेहनतकश लोग थे। चाहे वह किसी भी धर्म के हों , जाति के हों या फिर क्षेत्र के हों । मेहनतकश जनता या उनके बच्चे ही सब जगह मारे जाते है।
मेहनतकश जनता मेहनत करती है संघर्ष में कुर्बानी देती है यही चीज है जो एकजुट करती है संगठित करती है। आज़ादी का संघर्ष हम मेहनतकशों की कुर्बानी को बताता है दुनिया हम मेहनतकशों की खून पसीने से ही रोशन है। इस खून-पसीने में कोई हिन्दू-मुस्लिम या ऊंची-नीची जाति नहीं बता सकता। यही वह चीज है बुनियाद है जो हमें ताकतवर बनाती है और जिससे शासक खौफ खाते है डरते हैं। अन्याय, शोषण और जुल्म से लड़ने में यही एकता मेहनतकश जनता का हथियार है । शहीद भगत सिंह इसी एकता की बात करते हुए अंग्रेजों से लड़ गए थे। यही आज की राह है।
इसलिए आज अंधेरे दौर में फिर से जरूरत है शहीद भगत को याद करने की। अपने दौर में भगत सिंह ने इन "धर्म-संस्कृति" के ठेकेदारों को खूब खरी खोटी सुनाई थी। भगत सिंह ने लिखा --“....जहाँ तक देखा गया है, इन दंगों के पीछे साम्प्रदायिक नेताओं और अख़बारों का हाथ है।.. यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर ....सिर-फुटौव्वल करवाते हैं...।....फायदा...इन दंगों से अत्याचारियों(अंग्रेजों को) को मिला है वही नौकरशाही-जिसके अस्तित्व को ख़तरा पैदा हो गया था....आज अपनी जड़ें ... मज़बूत कर चुकी है।.... .....संसार के सभी ग़रीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं। .....तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताक़त अपने हाथ में लेने का यत्न करो।..1914-15 के शहीदों ने धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था। वे समझते थे कि धर्म व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है, इसमें दूसरे का कोई दख़ल नहीं।...इसलिए गदर पार्टी-जैसे आन्दोलन एकजुट व एकजान रहे, जिसमें सिख बढ़-चढ़कर फाँसियों पर चढ़े और हिन्दू-मुसलमान भी पीछे नहीं रहे।"’( साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज " नामक लेख से)
भगत सिंह की शहादत के 87 वें साल पर जरूरी है कि विशेषकर युवा भगत सिंह की इस आवाज को सुनें जो भगत सिंह ने अपने दौर में युवाओं के लिए लिखी थी । भगत सिंह के शब्दों में ---
" चाहे तो त्यागी हो सकता है युवक, चाहे तो विलासी बन सकता है युवक।... वह इच्छा करे तो समाज और जाति को उद्बुद्ध(जगाना) कर दे..बड़े बड़े साम्राज्य उलट डाले।...अमेरिका के युवक विश्वास करते है कि अधिकारों को रौंदने वाली सत्ता का विनाश करना मनुष्य का कर्तव्य है। हे भारतीय युवक!... उठ, आँखें खोल,देख....गरज उठ !...( साप्ताहिक मतवाला में छपे लेख : "युवक" से )
आज वक़्त की जरूरत है कि शहीद भगत सिंह के विचारों की राह पर बढ़ा जाए ! संगठित हुआ जाय ! भगत सिंह के समाजवाद के ख्वाब को हकीकत में बदलने की दिशा में बढ़ा जाय।
काकोरी के शहीदों की स्मृति में
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अशफाक-बिस्मिल की विरासत को आगे बढ़ाओ!
हर साल का दिसम्बर महिना काकोरी के शहीदों की याद हमें दिलाता है। काकोरी के शहीदों का एक संगठन था - ' हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन'( एच आर ए ) । जिसका मकसद था -संगठित व हथियार बंद होकर अंग्रेजी हुकूमत से देश को आज़ाद कराना ; आज़ाद भारत को 'संघीय व धर्मनिरपेक्ष गणतन्त्र ' बनाना जिसमें सभी प्रकार के लूट-शोषण पर पाबंदी हो, कोई गैरबराबरी ना हो , भेदभाव ना हो।
इस संगठन को आगे बढ़ाने के लिए, हथियार खरीदने के लिए पैसे की भी बहुत जरूरत थी । इसलिए संगठन ने तय किया कि सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर ट्रेन में जाने वाले सरकारी खजाने को लूट लिया जाय। और फिर 9 अगस्त 1925 को लखनऊ से पहले काकोरी स्टेशन के पास ट्रेन लूट ली गई। फिर अंग्रेज सरकार लूट में शामिल लोगों को पकड़ने के लिए दिन रात एक करने लगी। 40 लोग गिरफ्तार किए गए फिर 17 लोगों को सजा सुनाई गई । इनमें से 4 लोगों को फांसी की सजा सुनाई गई। 17 दिसम्बर 1927 को राजिंदर लाहिड़ी को फांसी दे दी गई । 19 दिसम्बर 1927 को अशफाक उल्ला खां, रोशन सिंह ,रामप्रसाद बिस्मिल को फांसी दे दी गई।
यह वह दौर था जब कॉंग्रेस भी 'आज़ादी'का नारा लगा रही थी। कांग्रेस भारतीय पूंजीपतियो व जमींदारों की पार्टी थी । ये चाहते थे अंग्रेज चले जाएं और सत्ता इनके हाथ में आये। इन्ही को शहीद भगत सिंह ने "काले अंग्रेज" कहा था।
दूसरी ओर अंग्रेजों की 'फुट डालो-राज करो' तेजी से आगे बढ़ रही थी। अंग्रेजों को याद था -1857 का पहला स्वतन्त्रता संग्राम । जिसमें हिन्दू-मुस्लिम के एकजुट संघर्ष ने अंग्रेजी हुकूमत की चूलें हिला दी थी। हिन्दू-मुस्लिम जनता की एकता को तोड़ने के लिए अंग्रेजो ने हर चाल चली। हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिक संगठन इनके हथियार बन गए। मुस्लिम लीग, आर-एस-एस व हिन्दू महासभा जैसे साम्प्रदायिक संगठन उसी समय के हैं ।
अशफाक-बिस्मिल जैसे नौजवान हिन्दू-मुस्लिम एकता की भी मिसाल थे। अशफ़ाक़ मुस्लिम थे तो बिस्मिल हिन्दू। अशफ़ाक़-बिस्मिल-रोशन-लाहिड़ी को अंग्रेजी हुकूमत ने षडयंत्र रचने के आरोप में फांसी दे दी । लेकिन इनके बलिदान ने देश में संघर्ष को क्रांति को और आगे बढ़ा दिया । भारी तादाद में खासकर नौजवान आज़ादी के संघर्ष में कूद पड़े। अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ पूरे देश में नफरत व गुस्सा बहुत बढ़ गया। मज़दूरों-किसानों-नौजवानों के क्रांतिकारी संघर्षों की लहरें बढ़ते गई। औऱ फिर हुआ यह कि अंग्रेज देश के पूंजीपतियों-जमींदारों (काले अंग्रेजों) को सत्ता सौंप कर चल दिए। इनकी पार्टी 'कांग्रेस पार्टी' की सरकार बन गयी।
तब से बीते 60-70 सालों में कांग्रेस के अलावा अन्य पार्टियों की सरकारें भी बनी है या वे सरकार बनाने में शामिल रही है अब तो तीन साल से मोदीमय भाजपा बहुमत से सरकार चला रही है।
इन सभी पार्टियों ने देश के बड़े बड़े पूंजीपतियों के हितों को ही आगे बढ़ाया है। चंद करोड़ रुपये की पूंजी के मालिक 70 सालों में कई लाख करोड़ की पूंजी के मालिक बन चुके है। अब इनमें अम्बानी-अडानी-पतंजलि-अज़ीमप्रेम ज़ी आदि भी शामिल हैं।
उद्योगपतियों (पूंजीपतियों)व उनकी पार्टियों के बीच पहले एक पर्दा जो लगा रहता था मोदी जी व उनकी सरकार ने इसे भी फैंक दिया है। आज हर कोई कह सकता है देश को अम्बानी-अडानी चला रहे है कि मोदी सरकार अम्बानी -अडानी की सरकार है। बैंकों का 8-12 लाख करोड़ रुपए कर्ज फंसा हुआ है इसका बड़ा हिस्सा देश के 8-10 पूंजीपतियो के पास है ये इसे वापस नहीं लौटा रहे है। मोदी जी व उनकी सरकार की योजना है कि इस कर्ज की रकम को बट्टा खाते में डाल दिया जाए। वसूली या संपत्ति को जब्त करने के बजाय सरकार 2 लाख करोड़ रुपए बैंकों में डालेगी। साफ है आम जनता की मेहनत की लूट से इसे वसूला जाएगा। यही नही ! बैंकों में जनता की जमा रकम पर डकैती डालने के लिए नया कानून एफ.आर.डी.आई. बनाया जा रहा है।
मोदी व मनमोहन की नीतियों में कोई फर्क नहीं है। मोदी सरकार मनमोहन सरकार की नीतियों को धड़ल्ले से आगे बढ़ा रही है। आधार कार्ड , जी एस टी ये कांग्रेस के जमाने की ही चीजें थी। मोदी जी व भाजपा पहले इनका खूब विरोध करते थे। लेकिन सत्ता हासिल होते ही जी.एस.टी लागू कर दिया जबकि आधार कार्ड हर नागरिक के लिए अघोषित तौर पर अनिवार्य कर दिया गया है।
नोटबंदी के लिए मोदी सरकार ने कहा था कि 4-5 लाख करोड़ रुपये वापस नहीं आएगा । क्योकि इनके हिसाब से 4-5 लाख करोड़ रुपये काला धन था। लेकिन 1 करोड़ लोगों के बेरोजगार होने, 100 से ज्यादा लोगों की मौत व चौतरफा नुकसान के अलावा क्या हासिल हुआ ? कुछ भी नहीं। 16000 करोड़ रुपए हासिल हुए लेकिन इससे काफी ज्यादा पैसा तो नोट छापने व लोगो को व्याज देने में चला गया। इस नोटबंदी के दौरान दौलत किसकी बढ़ी ? अम्बानी से लेकर पतंजलि तक की । देश के 10 शीर्ष पूंजीपतियों की पूंजी में 50% से लेकर 170% तक की वृद्धि हो गई।
सचमुच हालात और खराब होते जा रहे हैं। 'फुट डालो-राज करो' अंग्रेजी हुकूमत के नारे को आज जमकर इस्तेमाल किया जा रहा है। आज 'महंगाई' 'रोज़गार' 'महंगी शिक्षा' 'महंगे इलाज' और अधिकारों के सवाल गायब कर दिए गए है। आज मेहनतकश जनता के एक हिस्से को मेहनतकश जनता के दूसरे हिस्से के खिलाफ खड़ा किया जा रहा है। एक दूसरे के खिलाफ नफरत की दीवार खड़ी की जा रही है। आज हर तरफ 'गाय' 'हिन्दू' 'मुस्लिम' 'बीफ' 'राम मन्दिर' का शोर है। कोई क्या पहनेगा , क्या खायेगा , क्या पसंद करेगा, किसकी व कितनी आलोचना करेगा ? यह सब भी सरकार उसकी पार्टी व संगठन तय कर रहे हैं। कुल मिलाकर फ़ासिस्ट हिटलर की चाल आज देश में दोहराई जा रही है। जर्मनी के थाइसेन व क्रूप्स जैसे बड़े बड़े पूंजीपतियो ने हिटलर व नाज़ी पार्टी को पाला पोसा था । फिर 1933 में सत्ता पर बिठा दिया । हिटलर ने प्राचीन जर्मन देश के महान होने के बात की ; जर्मन नस्ल के महान होने की बात जनता में की। यहूदी लोगों के खिलाफ नफरत पैदा की व दंगे आयोजित किये। जर्मन जनता का एक हिस्सा इन बातों को सच मानने लगा । वह हिटलर व नाज़ी पार्टी के साथ हो लिया। फिर हिटलर के राज में लाखों यहुदियों का क़त्लेआम किया गया; ट्रेड यूनियनों, संगठनों, मज़दूरो,किसानों व छात्रों पर जानलेवा हमले किये गए । जनता के अधिकारों को रौंद दिया गया। यही नही हिटलर की पार्टी व दस्ते के बहुत सारे लोगों का भी सफाया कर दिया । चुनाव खत्म हो गए। इस प्रकार हिटलर ने आतंकी तानाशाही कायम कर दी ।
आज यही खतरा एकदम हमारे निकट भी है । देश के बड़े बड़े पूँजीवादी घराने उसी दिशा की ओर बढ़ रहे है। जिस दिशा की ओर कभी जर्मनी गया था।
इसलिए आज जरूरत है काकोरी के उन शहीदों से प्रेरणा लेने की ; एकजुट होकर संघर्ष करने की जिन्होंने महान उद्देश्य के लिए अपना जीवन बलिदान कर दिया। जरूरत है मेहनतकश जनता को बांटने वाली ताकतों के खिलाफ एकजुट हुआ जाए। मेहनतकश जनता के राज समाजवाद की ओर बढ़ा जाए।
महान अक्टूबर समाजवादी क्रांति शताब्दी वर्ष पर
यह वक्त संकल्प लेने, काम में जुट जाने का है
‘महान अक्टूबर समाजवादी क्रांति’ के सौ वर्ष पूरे हो गये। पिछले एक वर्ष से भारत सहित पूरी दुनिया में इस क्रांति के शताब्दी वर्ष को न केवल मजदूर वर्ग द्वारा याद किया गया बल्कि पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने ही ढंग से याद किया गया। यहां तक कि रूस के आज के साम्राज्यवादी शासकों ने भी क्रांति को रूसी समाज की एक उपलब्धि के रूप में याद किया। इसे याद करने में कुछ ऐसा है जैसे कोई मौत के मुंह से बच गया हो।
‘महान अक्टूबर समाजवादी क्रांति’ बीसवीं सदी की सबसे निर्णायक घटनाओं में ही एक नहीं थी बल्कि यह मानव इतिहास की सबसे निर्णायक घटनाओं में से भी एक साबित हुई है। इस क्रांति ने साबित कर दिया था कि शोषित मजदूर, किसान अपनी सत्ता कायम कर सकते हैं और शोषण-उत्पीड़न का समाज से नामोनिशान मिटा सकते हैं। इस क्रांति ने न केवल कई क्रांतियों को जन्म दिया बल्कि गुलाम देशों को अपनी आजादी हासिल करने में पे्ररणा से लेकर सीधी मदद की।
‘महान अक्टूबर क्रांति’ ने रूस के जनगण को वह सब कुछ दिया जो कि फ्रांसीसी या इंग्लिश या अमेरिकी क्रांति ने अपने नागरिकों से वायदा किया था। यह इतिहास की सच्चाई है आजादी, बराबरी, भाईचारे आदि की बातें करने वाली ये क्रांतियां महज पूंजीपति वर्ग की सत्ता प्राप्ति का जरिया बन गयीं। क्रांति में प्राण-प्रण से लगने वाले मजदूर, किसान, बुद्धिजीवी ठगे और छले गये। इसके उलट अक्टूबर क्रांति ने पहले ही क्षण आजादी, बराबरी, भाईचारे के नारे को पूर्णता प्रदान कर दी। फिनलैंड को जारशाही साम्राज्य से आजाद किया, सदियों से उत्पीड़ित स्त्रियों को पूर्ण बराबरी प्रदान की और समाजवादी रूस में सभी शोषित-उत्पीड़ित भाईचारे के अभिनव सूत्र में बंध गये।
‘महान अक्टूबर समाजवादी क्रांति’ का विजय रथ आगे न बढ़ सके इसके लिए उस वक्त के जालिम शोषकों ने हर कोशिश की। फ्रांस, अमेरिका, ब्रिटेन, जापान और जर्मनी जैसे देशों ने रूस में कायम हो चुकी मजदूर-किसान सत्ता को नष्ट करने के लिए ऐड़ी-चोटी का जोर लगा दिया। वर्षों समाजवादी राज्य को देशी-विदेशी शत्रुओं से भीषण लड़ाई लड़नी पड़ी। शोषक किसी भी कीमत पर नहीं चाहते थे कि रूस में समाजवाद कायम हो। साम्राज्यवादी भयभीत थे कि कहीं उनके घर भी क्रांति की आग से न जल जायें।
हकीकत में 1918 में यूरोप के कई देशों में ऐसा हुआ भी था। जर्मनी, हंगरी, इटली और आस्ट्रिया उन देशों में प्रमुख थे जहां मजदूर क्रांतियां दस्तक दे रही थीं। ‘सारी सत्ता सोवियतों को दो’, ‘समाजवाद जिंदाबाद’ जैसे नारे गली-गली में लगाये जा रहे थे। क्रांतियों की इस श्रृंखला का दमन पूंजीपति वर्ग भारी दमन व षड्यंत्रों के दम पर ही कर पाया। सौ वर्ष पहले मजदूरों ने शोषक पूंजीपतियों को दिन में ही तारे दिखा दिये थे। इसलिए क्रांतियों की काट करने के लिए उसने फासीवाद, नाजीवाद का सहारा लिया। इसीलिए वह अब जैसे ही संगठित क्रांतिकारी मजदूर आंदोलन का थोड़ा भी दर्शन करता है तो पूरी ताकत से बर्बरता पर उतर आता है। वह अपने संविधान को ताक पर रखकर तुरंत आपातकाल की घोषणा करने लगता है। लोकतंत्र, मानवाधिकार, प्रेस सभी निलंबित कर दिये जाते हैं।
‘महान अक्टूबर क्रांति’ से पैदा हुई ऊर्जा का विश्वव्यापी प्रसार पूंजीवाद के सारे हथकंडों के बावजूद उस जमाने में तेजी से हुआ। दूसरे विश्व युद्ध के बाद तो समाजवाद शब्द हर आजाद देश की जुबान पर चढ़ गया। चीन, कोरिया, वियतनाम की क्रांतियों ने समाजवाद को एक नई जमीन प्रदान की। यह ‘महान अक्टूबर क्रांति’ की प्रेरणा और मदद से ही संभव हो सका था।
इतिहास की गति देखिये सौ वर्ष पूर्व दुनिया में कहीं समाजवाद नहीं था और आज सौ वर्ष बाद भी दुनिया में कहीं भी समाजवाद नहीं है। सौ वर्ष पूर्व पूंजीपति वर्ग अपनी सत्ता को लेकर पूर्ण आश्वस्त था आज वह अक्सर समाजवाद, मार्क्सवाद की चर्चा उपहास उड़ाने के लिए करता है। फिर क्या क्रांतियां अतीत की बात हो गयी हैं? क्या क्रांतियों का युग बीत चुका है?
सच्चाई एकदम उलट है। क्रांतियां प्रकृति से लेकर मानव जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं। वे लीक से हट कर होती हैं। और अपने चरित्र में वे सर्वदा अनुपम होती हैं। वे जब जन्म ले और विकसित हो रही होती हैं तब शोषक उनसे अंजान और लापरवाह बने रहते हैं। जब वे प्रकट होती हैं तो शोषक हक्के-बक्के और बदहवास हो जाते हैं। सौ वर्ष पूर्व जार, पूंजीपति जमींदारों ने कभी नहीं सोचा था कि उनके दिन पूरे हो चुके हैं। आगे बढ़े हुए, क्रांति कर्म में लगे मजदूरों ने नहीं सोचा था कि क्रांति के जरिये मुक्ति हासिल की जा सकती है। क्रांति उतनी ही सच साबित होती गयी जितना उसको लाने के लिए सारी मजदूर, किसान बहुसंख्यक आबादी काम करने लगी।
‘महान अक्टूबर क्रांति’ का सौवां वर्ष इस क्रांति को याद करने, सबक निकालने, संकल्प लेने का वर्ष है। पूंजी की गुलामी से मुक्ति की राह आसान नहीं है। पिछले सौ वर्षों में पूंजीपति वर्ग ने अपनी व्यवस्था की दीर्घजीविता के लिए बहुत सबक निकाले हैं। बहुत युक्तियां खोजी हैं। दुश्मन पहले से ज्यादा बलवान हुआ है पर महान अक्टूबर क्रांति हमें सिखलाती है कि इतिहास में सबसे बड़ी ताकत मजदूर, किसान है, जनता है। क्रांतिकारी जनता के सामने हर ताकत बौनी है। शासकों की सारी तिकड़में, युक्तियां उसके सामने फेल हैं। साभार enagrik.com
बी एच यू की छात्राओं का संघर्ष व इसके निहितार्थ
बनारस हिंदू विश्व विद्यालय की छात्राओं ने सितंबर माह के तीसरे हफ्ते में अपना संघर्ष शुरू किया था। यह संघर्ष सामान्य से असामान्य हो गया।
एक छात्रा के साथ यौन उत्पीड़न की घटना हुई। इसके विरोध में तत्काल ही छात्राएं एकजुट हुई। प्रॉक्टर से शिकायत हुई, कुलपति से शिकायत हुई। दोनों का ही जवाब तिलमिलाने वाला था पुरुष प्रधान मानसिकता से ग्रसित था। कुलपति तो संघ परिवार से जो था उसके नस नस में स्त्री विरोधी रुख था। छात्राओं से कहा गया कि होस्टल से 6 बजे के बाद बाहर मत निकलें।
छात्राओं की मांग थी सुरक्षा की, होस्टल परिसर में सी सी टी वी लगाने की। लेकिन इन्हें कुलपति व विश्वविद्यालय प्रशासन ने कान ही नही दिए।
अन्ततः छात्राओं को धरने पर बैठना पड़ा। एक मुद्दा जिसे तत्काल ही सुल्टाया जा सकता था उसे फासिस्ट मानसिकता ने दूसरे धरातल पर पहुंचा दिया।प्रोक्टरीयल बोर्ड के अपने लठैतों भी छात्राओं को डराने धमकाने का काम किया। छात्राओं के परिजनों को फोन के जरिये दबाव बनाने के प्रयास हुए। होस्टल छात्रावास में पानी, बिजली को भी बाधित किया गया। लेकिन संघर्ष में बाकी छात्र-छात्राएं भी शामिल होती गए।
इस दौरान प्रधानमंत्री भी वंहा से होकर गुजरे। आंदोलनकारियों को उम्मीद थी कि प्रधानमंत्री महोदय जो कि बनारस के सांसद है कम से कम सांसद होने के नाते तो उनके बीच आएंगे, बात सुनेंगें। लेकिन उम्मीद ! वह भी फासिस्टों से !! इस उम्मीद को पूरा तो होना न था। इस सबने संघर्ष को आगे बढ़ाने का काम ही किया।
कुलपति, विश्वविद्यालय प्रशासन कुछ भी सुनने को तैयार न था। न ही योगी सरकार कोई हस्तक्षेप कर रही थी। वह भी सब कुछ होने दे रही थी। अंततः सबने मिलकर इस आवाज को खामोश करने के लिए अपने हाथ बढ़ाये।
तुरंत ही भारी तादाद में पुलिस फोर्स व अर्धसैनिक बल तैनात कर दी गई। महिला पुलिस की तैनाती नही की गई। यह सब मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने के लिए भी था लेकिन आंदोलन को इसने आगे बढ़ाने का ही काम किया।
साफ साफ तौर पर अब एक तरफ जनवाद, न्याय व प्रगतिशीलता के लिए बुलन्द आवाज थी दूसरी तरफ दमनकारी, जनवाद विरोधी, स्त्रीविरोधी प्रतिक्रियावादी ताकते थी। अन्ततः दमन चक्र चलाया गया। आंदोलन तात्कालिक तौर पर बिखरने के साथ-साथ कुछ हासिल कर गया साथ ही भविष्य के संदर्भो में नई उम्मीदों को भी जगा गया। प्रॉक्टर को इस्तीफा देना पड़ा। कुलपति को प्रकारांतर से हटना पड़ा नए कुलपति को लाना पड़ा। इस संघर्ष के साथ साथ अब यह भी तय हो गया कि आने वाले समय में ऐसी टकराहटें और भी बढेंगी। व्यक्तिगत मसलों पर जनवाद के भाव के चलते ही सही फासिस्ट ताकतों का नौजवान छात्र छात्राएं जबरदस्त प्रतिरोध करेंगी ।
4-5 लाख करोड़ रुपये काले धन का मोदी का दावा हवाई साबित हुआ
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बेशर्मी-झूठ-धूर्तता में फ़ासीवादी अव्वल होते हैं। यह बात फिर फिर पुष्ट हुई। नोटबंदी के सम्बन्ध में मोदी-जेटली के तर्क व दावे सुपरफ्लॉप हो गए। लेकिन फिर भी इनकी "बेशर्मी जिंदाबाद,झूठ मक्कारी जिंदाबाद" का स्लोगन जारी है। इनका नोटबंदी के लिए सबसे मजबूत तर्क व दावा था कि आर बी आई द्वारा जारी 500-1000 के नोटो का एक मुख्य हिस्सा वापस नही आएगा यानी 4-5 लाख करोड़ रुपये वापस नहीं आएगा, और ये 4-5 लाख करोड़ रुपये इसलिए वापस नही आएगा क्योकि यह काला धन होगा; और फिर इस पर सरकार का दावा होगा ये सरकार का मुनाफा होगा !!! इसके अलावा कहा गया था जाली नोट की रोकथाम, आतंकवाद पर लगाम लगेगी!! रिजर्व बैंक ने अब कहा है कि 98.96% नोट वापस आ गए है। अब इन गुजरे 10 माह में साबित हुआ कि नोटबंदी सुपरफ्लॉप रही शायद 1.04% भी वापस आ जाते यदि सरकार ने बाद के दौर में रोक नही लगाई होती ।
आम जनता के लिए तो यह एक त्रासदी से कम नहीं थी। 100 से ज्यादा लोगों की नोटबंदी की सर्जीकल स्ट्राइक ने हत्या कर दी । छोटे उद्योग धंधे के मालिक , कारोबारी का धंधा चौपट हो गया। किसान बर्बाद हुए। मज़दूर बेरोजगार हो गए। बी स्टैंडर्ड के मुताबिक 70 लाख लोग इस दौरान बेकार हो गए।इस तरह आर्थिक गतिविधियों के अत्यधिक संकुचित हो जाने से जी डी पी की दर भी लगभग 2 % तक गिर गई।
आरबीआई ने अपनी सालाना रिपोर्ट में यह कहा है कि नोटबंदी के दौरान महज 41 करोड़ रुपये के जाली नोट पकड़ में आए। कि नोटबंदी के बाद लोगों ने बंद हुए 15.44 लाख करोड़ रुपये में से 15.28 लाख करोड़ रुपये बैंकिंग प्रणाली में जमा करा दिए। । लगभग 16 हज़ार करोड़ रुपये के नोट वापस नही आये जबकि नए नोटों की छपाई की लागत 7,965 करोड़ रुपये रही। जबकि बैंको में जमा हो चुके कई लाख करोड़ रुपये की रकम पर सोचिए कितना व्याज बैंक को चुकाना होगा !!! यानी चौतरफा बर्बादी !!!
इस कवायद का असर वित्त वर्ष 2016-17 में सरकार को आरबीआई से मिलने वाले लाभांश पर पड़ा है, जो करीब आधा घटकर 30,659 करोड़ रुपये रहा।
भा ज पा का सहयोगी बी एम एस ने भी नोटबंदी पर कहा है- "असंगठित क्षेत्र की ढाई लाख यूनिटें बंद हो गईं और रियल एस्टेट सेक्टर पर बहुत बुरा असर पड़ा है. बड़ी तादाद में लोगों ने नौकरियां गंवाई हैं."
लेकिन बेशर्मी व धूर्तता से वित्त मंत्री अरुण जेटली प्रधान मंत्री ने फिर दोहराया है कि नोटबंदी का असर अनुमान के अनुरूप ही रहा है कि जो पैसा बैंकों में जमा हो गया है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि यह पूरा धन वैध है। नरेंद्र मोदी ने लाल किले से बताया कि नोटबंदी के बाद 3 लाख करोड़ रुपये बैंकिंग सिस्टम में आ गए। इसमें से जमा 1.75 लाख करोड़ रुपये का लेनदेन शक के दायरे में है। इसके अलावा 2 लाख करोड़ रुपये का काला धन बैंक पहुंचा है। इन फर्जी व गोल मोल बातों को करके अवाम को बार बार धोखा नही दिया जा सकता।
अब "अर्थशास्त्री" भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कहा है कि अर्थव्यस्था नोटबंदी की वजह से नही गिरी बल्कि 'तकनीकी' कारणों से हुआ है।
कहां तो 4-5 लाख करोड़ के काले धन का दावा !! जिसे कि वापस ही नही लौटना था। और कंहा अब जो पैसे वापस आ गए है उसमें से 3 लाख करोड़ पर काला धन होने का दावा !! बेशर्मी, धूर्तता व कुतर्क की कोई इंतहा नही !!
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भारतीय राज्य और बाबा राम रहीम
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पिछले कुछ समय से डेरा सच्चा सौदा के बाबा गुरुमीत उर्फ राम रहीम का मामला सुर्खियों में है। कुछ समय पहले रामरहीम ने मैसेंजर ऑफ गॉड फ़िल्म भी बनाई थी जिसमें खुद को ईश्वरीय शक्ति के रूप में इसने प्रचारित किया था। फिलहाल यह सुर्खिया यौन शोषण के मसले पर चल रहे मुकदमे व इसके बाद हुई हिंसा के चलते है। आज से तकरीबन 15 वर्ष पहले दो साध्वीयों ने यौन शोषण का आरोप राम रहीम पर लगाया था । इन लड़कियों ने अटल बिहारी बाजपेई की सरकार तथा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को भेजे गुमनाम पत्र में यह आरोप लगाये थे जिसमें यह भी कहा गया था कि ऐसा कई लड़कियों के साथ राम रहीम ने किया है।
पत्र में यह भी लिखा गया था कि सभी राम रहीम की ताकत व पहुंच के साथ ही घर वालों के अंधविश्वास के चलते कुछ न कर पाने को मजबूर हुए व चुप चाप सब कुछ सहते रहे रामरहीम अपनी पहुंच, हथियारों व गुंडों का खौफ इन सभी विरोध करने वालों को दिखाता था ।कुछ ऐसे भी थे जो घर वापस आ गए। इनके इस पत्र को तब अखबार में छापने वाले पत्रकार की हत्या रामरहीम ने करवा दी। यौन शोषण के इस आरोप के बाद ही हाईकोर्ट के इसे स्वत:संज्ञान लेने से राम रहीम के खिलाफ मुकदमा दर्ज हुआ था।जिस पर सी बी आई जांच चल रही थी सी बी आई की कोर्ट में ही मामला चल रहा था। इन 15 सालों में राम रहीम ने अपनी दौलत, हैसियत एवं ताकत कई गुना इजाफा कर लिया था।
धार्मिक गतिविधियों के जरिये ,लोगों के अंधविश्वास व धार्मिक पूर्वाग्रहों का इस्तेमाल करके व लोगों के बीच कुछ राहत के काम करते हुए इसने अपने नेटवर्क को मजबूत किया । एक साम्राज्य खड़ा कर लिया। जिसके चलते लाखों की तादाद में लोग इसके अनुयायी बने थे। राजनीतिक पार्टियों से इसके गहरे संबंध रहे हैं विशेषकर भाजपा से । 7 अक्टूबर 2014 को विधायक के लिए खड़े भाजपा के 44 उम्मीदवारों की बैठक रामरहीम के साथ सिरसा में होती है जिसमें कैलाश विजयवर्गीय भी शामिल थे। एक बैठक अमित शाह के साथ भी हुई थी तभी पिछ्ले विधान सभा चुनाव में रामरहीम ने खुलकर भाजपा का समर्थन दिया था।
25 अगस्त पंचकुला की सी बी आई कोर्ट में राम रहीम की पेशी थी। हरियाणा की खट्टर सरकार ने 700 एकड़ के भब्य क्षेत्र में रह रहे यौन शोषण के आरोपी राम रहीम से गुजारिश की कि वह पेशी पर जाए। राम रहीम ने अपने हवाई जहाज से कोर्ट जाने की बात की । लेकिन फिर फ़ासीवादी खट्टर सरकार ने जैसे तैसे गाड़ी से कोर्ट जाने के लिए बाबा को मनाया।अंततः 400-800 गाड़ियों का काफिला कोर्ट की ओर रवाना हुआ था भाजपा सरकार ने ऐसा करने की प्रशासनिक अनुमति भी दी ।
इस बात की संभावना दिखने लगी थी की कोर्ट में फैसला पक्ष में न आने पर बाबा के लम्पट समर्थक विरोध या हिंसा कर सकते है। लेकिन भाजपा सरकार ने इन लाखों समर्थकों को रोकने के लिए व उनको एकजुट न होने देने के कोई विशेष प्रयास नहीं किये। धारा 144 लागू की तो वह भी केवल नाम के लिए। अंततः:कोर्ट के आदेश के बाद ही हरियाणा की भाजपा सरकार ने अर्धसैनिक बलों को बुलाया। लेकिन तब भी कोई सख्ती नही की गई। परिणाम फिर वही हुआ जैसा होने की संभावना जताई गई थी। जैसे ही कोर्ट ने धूर्त ,लम्पट व अपराधी राम रहिंम को यौन शोषण के दोषी होने का फ़ैसला सुनाया वैसे ही बाबा के लम्पट समर्थकों का तांडव शुरू हो गया। लगभग 32 लोगों की 26 अगस्त तक मौत हो गई। जबकि 250 से ज्यादा लोग घायल हो गए ।
इसके अलावा बसों, गाड़ियों, व रेलों में आगजनी व तोड़ फोड़ की गई। अब एक ओर 5 राज्यों में अलर्ट जारी किया गया है जबकि कई शहरों में कर्फ्यू लगा दिया गया है इंटरनेट पर रोक लगा दी गई है।
एक ओर हिंसा व इसमें मारे जाते लोग तो दूसरी ओर खट्टर सरकार से लेकर केंद्र की मोदी सरकार का सुर अपराधी रामरहीम के प्रति बहुत नरम है। "भारत का नक्शा मिटा देंगे" नारे लगाने वालों के खिलाफ आज फासिस्ट संघी राष्ट्रवादियों की जुबान को आज लकवा मार गया है। मोदी "शांति" संदेश के लिए ट्वीट कर रहे है। साक्षी महाराज कोर्ट को डरा रहे है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पुरोधाओं के हिसाब से जो कोई भी अपराधी रामरहीम व उसके लम्पट दस्ते की आलोचना कर रहे है वह भारतीय संस्कृति को बदनाम कर रहे है। कुल मिलाकर फासिस्टों ने ख़ुद को बेनकाब करने के साथ साथ अपनी पक्षधरता भी साफ कर दी है। वह यह कि वह महिलाओं के खिलाफ अपराध को अंजाम देने वाले लम्पट व धूर्त संतो के साथ है जैसा कि अतीत में वे बलात्कार के आरोपी स्वामी नित्यानंद के साथ खड़े थे ।
दरअसल रामरहीम , आशाराम, नित्यानाद, स्वामी ओम, रजनीश, निर्मल बाबा आदि आदि इसकी फेहरिश्त लंबी है इन सभी को राजनीतिक पार्टियों का भी संरक्षण प्राप्त रहता है। कोंग्रेस के साथ चंद्रास्वामी का नाम भी चिपका हुआ था। प्रधानमंत्री से चंद्रास्वामी के सीधे संबध थे। दूसरे रूप में कहा जाय तो यह कि भारतीय राज्य अपनी जहनियत में कभी भी धर्मनिरपेक्ष नहीं रहा है। शासकों ने शुरू से ही अपने फ़ायदे में धर्म को अपनी गोद में पाला पोसा है इसे संरक्षण प्रदान किया है।
इसने धर्म, धार्मिक संस्थाओं को नियंत्रित करने , सार्वजनिक जीवन में इसके दखल को खत्म करने तथा इसे निजी जीवन तक सीमित करने के कोई भी कदम कभी नहीं उठाए। धर्म को राज्य के मामले में राजनीति में लाने पर रोक नहीं लगाई । इसके उलट इन दोनों का साथ शुरू से ही बना रहा। पूंजीवादी राजनीतिज्ञ धर्म, धार्मिक त्योहारों कार्यक्रमों व संस्थाओं में आते जाते रहे व इसका इस्तेमाल करते रहे। इसी का नतीजा आज एक ओर रामरहीम के रूप में दिखाई देता है जो अपने लम्पट दस्तों के जरिये राज्य के कानूनों को चुनौति देने लगता है व खुद को राज्य आए ऊपर समझने का भरम पाल बैठता है । तो दूसरी तरफ फासिस्ट संघ परिवार है भाजपा जैसे है जिन्होंने साम्प्रदायिक ध्रूवीकरण के जरिए अपना प्रसार किया है और मौजूदा वक्त में इसे एकाधिकारी पूंजी ने सत्ता पर बिठाया है। इनकी ताकत राम रहीम जैसे जिनके लाखों अनुयायी हो से काफी बढ़ जाती है। इन दोनों की पैदा होने की जमीन एक ही है।
बच्चों की मौत की जिम्मेदार भाजपा सरकार शर्म करो !
मुख्य मंत्री इस्तीफा दो !
ये वक्त बहुत त्रासदी पूर्ण है दुखदायी है। एक तरफ धूर्त शासक आज़ादी का जश्न मनाने में मशगूल है और दूसरी तरफ गम शोक में डूबे हुए लोग हैं परिवार हैं जिनके देखते सुनते 63 मासूम बच्चों की अस्पताल में मौत हो चुकी है। इन बच्चों की मौत पर योगी व योगी सरकार को कोई अफसोस नही, दुख नहीं। प्रधानमंत्री जी के लिए यह कोई ऐसा मुद्दा नहीं जिस पर ट्वीट करते। अडानी को 6000 करोड़ रुपये दिलवाने वाले , व अम्बानी के 'जिओ' के लिए सरकार की साख बेचने वाले इस मुद्दे पर खामोश है।
सत्ता पर बैठी योगी-मोदी सरकार की संवेदनहीनता व बेशर्मी शीर्ष पर है। लेकिन ये तथ्य इन्हें कठघरे में खड़ा करने को पर्याप्त है कि प्राइवेट फर्म को ऑक्सिजन के लिए 70 लाख रुपये के भुगतान में देरी की असल वजह मुख्यमंत्री की बैठक थी। इसलिए इन मौतों के लिए साफ तौर पर योगी सरकार जिम्मेदार है। ये हत्याएं है जिसके जिम्मेदार योगी व उनकी सरकार है।
मुख्य मंत्री योगी इस क्षेत्र से 5 बार सांसद रह चुके हैं। खुद संसद में इस मुद्दे पर उन्होंने पहले हंगामे किये है। "माँ गंगा ने बुलाया है" कहने वाले मोदी जी भी इस मर्ज को जानते रहे होंगे। इसलिए भी कि जापानी इन्सिफैलाइटिस कोई आज की बीमारी नही है। पिछले 20-30 सालों से पूर्वी उत्तर प्रदेश में गरीब मेहनतकश परिवारों से उनके बच्चे छीनती रही है।
तब सवाल बनता है कि पिछले तीन सालों में मोदी सरकार ने इस 'बीमारी' को जड़ से खत्म करने को क्या विशेष योजना बनायी ? कितने करोड़ का बजट इस बीमारी पर शोध व इलाज के लिए रखा गया ? कितने डॉक्टर, नर्स , दवाओं आदि की व्यवस्था इस बीमारी के लिए की गई ? आदि आदि। जवाब मिलेगा कुछ नहीं। और फिर पिछले 4-5 माह में योगी सरकार ने क्या क्या किया ? यदि कुछ हुआ भी है तो बेहद मामूली है।
यही सवाल सपा, कांग्रेस, बसपा से भी है कि जब इनकी सरकार थी तब इन्होंने क्या क्या किया? इन सभी का काम है बस जब विपक्ष में रहो ; हंगामा खड़ा करो; वोट की फसल तैयार करो। और फिर जब जीत जाओ तो पूंजीपतियों को मालामाल करने वाली नीतियों को लागू करो , खुद भी मालामाल होओ। जैसा कि योगी जी व मोदी जी की अगुवाई में बी जे पी कर रही है।
देश भर में 'सार्वजनिक स्वास्थ्य' के हालात बेहद बदहाल हैं । कुल बजट का मात्र लगभग 1 % हिस्सा ही स्वास्थ्य पर खर्च होता है जबकि दुनिया का औसत लगभग 6 % है।'शिशु मृत्यु दर' 'मातृत्व मृत्यु दर' व 'बाल कुपोषण' देश में अभी भी बहुत ज्यादा है। इन मामलों में देश दुनिया के कई गरीब व कमजोर देशों से भी पीछे है। लेकिन हमारे शासकों का मुख्य एजेंडा सार्वजनिक जन स्वास्थ्य नही बल्कि "रक्षा" है, 'रक्षा' के नाम हथियारों को खरीदना है। स्वास्थ्य इनके लिए मुद्दा हो भी क्यों? इनके लिए तो अत्याधुनिक अस्पताल है ही, ये कम पड़े तो अमेरिका या यूरोप चले जाओ। बाजपेयी गए थे न घुटना बनवाने विदेश, सोनिया भी गयी थी। इसीलिए 'देशभक्ति का लाइसेंस बांटने' वाली मोदी-योगी सरकार का भी रक्षा बजट तो ढाई लाख करोड़ रुपये है लेकिन स्वास्थ्य बजट मात्र 48 हज़ार करोड़ रुपये का। यही शासकों की जरूरत है। पूंजीवादी दुनिया में यही होता है। पूंजीवादी समाज में पूंजीवादी शासकों के हित, इच्छा आकांक्षा ही सर्वोपरी होती है मेहनतकश नागरिक तो इसके मातहत ही होते है। पूंजी बढ़ते रहे, मुनाफा बढ़ते रहे किसी भी कीमत पर ! यही इस सिस्टम का मंत्र है। मासूम बच्चे मरें चाहे दंगो में हजारों मारे जाएं या लाखों मरवा दिए जाएं हुक्मरानों को क्या फर्क पड़ता है ।
इसीलिए अब सरकारी स्वास्थ्य प्रणाली जो थोड़ा बहुत है भी उसे भी सरकार खत्म करने पर तुली हुई है इनका नारा है स्वास्थ्य पी पी पी मोड के हवाले कर दो, प्राइवेट कर दो , स्वास्थ्य बीमा(इन्सुरेंस) करवाओ। और सब प्राइवेट खुले नर्सिंग होम के हवाले छोड़ दो।
इसलिए आज जरूरत है एकजुट होने की, एकजुट होकर संघर्ष करने की, सरकार-शासकों को इस बात के लिए मजबूर कर देने के लिए कि देश के हर नागरिक को निःशुल्क व बेहतरीन चिकित्सा दी जाय। साथ ही साथ इस पूंजीवादी सिस्टम के खिलाफ भी खड़े होने की जरूरत है और एक नए समाज 'समाजवाद' लाने की जिसके लिये शहीद भगत सिंह ने खुद को बलिदान कर दिया था।
आपदा, आपदा पीड़ित व संघी सरकार
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साल 2013 में उत्तराखंड में 16-17जून को भारी तबाही आई थी। उस वक्त विजय बहुगुणा की अगुवाई में कोंग्रेस की सरकार थी। तब गुजरात के मुख्य मंत्री जो कि अब भारत के प्रधानमंत्री है यंहा उड़न खटोले से चक्कर लगा रहे थे वे बड़े बड़े दावे कर रहे थे "शिकार' को फंसाने के लिए वायदे भी कर रहे थे।
साल 2017 तक आते आते अब जबकि उत्तराखंड में बिग बहुमत वाली संघी सरकार सत्ता में है संघी छत्र छाया में पला बढ़ा "सुसंस्कृत -सभ्य-संवेदनशील" शख्स मुख्य मंत्री है। तब राजधानी से मात्र 150 किमी की दूर कोटद्वार में भारी बारिश हुई बादल फटे और नाले (रौखड़) में आई बाढ़ से जो तबाही हुई उससे निपटने के तौर तरीकों ने संघी सरकार की "संवेदनशीलता" "सुसंस्कृति" की पोल खोल दी । इस क्षेत्र के वर्तमान विधायक जो कि 2013 में कॉंग्रेस मंत्री के बतौर 'आपदा टूरिज़्म' मना रहे थे अब "शुद्धिकृत" होकर संघी सरकार के मंत्री के रूप में अपनी 'दबंग' स्टाइल में आपदा पीड़ितों को राहत देकर आहत कर रहे थे।
यही वजह है कि कोटद्वार में 4-5 अगस्त को जो तबाही हुई थी तब से अब तक हालात सामान्य नहीं हुए हैं। मुख्य सड़को व 4-5 क्षेत्रों में लोगों के गलियों, दुकानों में गाद अभी भी है। सीवेज लीकेज के चलते मोहलले में सांस लेना मुश्किल हो रहा है। लोगों के घरों में रखा हज़ारो का सामान बर्बाद हो गया । खाने पीने का सामान भी खराब हुआ है। बिमारियों के होने व फैलने की काफी संभावना है। कुलमिलाकर लगभग 100-120 परिवार को ज्यादा नुकसान हुआ है और इनमें से तकरीबन 50 परिवार गुरुद्वारा राहत कैम्प में है। इसके अलावा लगभग 100 से ज्यादा परिवार एसे हैं जिन्हें कम नुकसान हुआ है। लगभग 6 लोगों के मरने की खबर हैं लेकिन मुआवजा केवल 2 परिवारों को 4-4 लाख का मिला। कुछ लोगों के मिसिंग होने की भी खबर है । 2 लोगों का शव अभी फिर मलवे में बरामद हुए हैं।
वैसे भी शासकों के लिए आपदा या तो "मानव जनित" होती या फिर "प्राकृतिक या दैवीय आपदा" । इन शब्दावलियों का जाल बुनकर ये अपने कुकर्मों को ढक लेते है। यह नही बताते कि उनके अनियोजित व अनियंत्रित विकास के मॉडल के चलते एक छोटी सी प्राकृतिक घटना मेहनतकश व गरीब लोगो के लिए बड़ी 'आपदा' में बदल जाती है। जिसमें सैकड़ो घर तबाह बर्बाद हो जाते हैं।
संघी सरकार को "दैवीय" शब्द से बहुत प्यार है। तब संघी सरकार व उसके "सुसंस्कृत -सभ्य-संवेदनशील" मुख्य मंत्री ने ऐसे मौके पर क्या किया ? आपदा पीड़ितों से मिलने व सभी क्षेत्रों में जाने की जगह एक जगह गए और 3800 रुपये का चेक पकड़ाकर फ़ोटो खिंचवाकर चलते बने। 185 परिवारों को चेक देने की बात की जा रही है। लेकिन हकीकत कुछ और ही है। एक जगह 12-15 परिवारों को 3800 रुपये चेक देने की बात लोगों ने बताई। साथ ही संयुक्त परिवार को चेक दिया गया।
हज़ारो व लाख रुपये के नुकसान झेल रहे कुछ लोगों ने चेक गुस्से में वापस भी लौटाए। आपदा पीड़ित सवाल उठा रहे हैं कि हम इस चेक को भुनाने जाए या फिर अपने घरों की सफाई करें और उन्हें रहने लायक बनाएं। लेकिन जवाब कौन दे ? संघीयों को व उसकी सरकार को वैसे भी सवाल करने व तर्क करने वालों से घोर नफरत जो है। इसका असर नीचे तक है।
इनके चमचों व दलाल छुटभैयों का हाल भी कम घृणा भरा नहीं है। आपदा पीड़ितों के दर्द को साझा करने उन्हें राहत देने की जगह ये थप्पड़ जड़ देते हैं या गिरहबान पकड़ लेते हैं। दो जगह ऐसे मामले हुए जिसमें आपदा पीड़ित ने सरकार के रुख पर शंका की व सवाल खड़े किए तो एक महाशय ने आपदा पीड़ित को सबके सामने थप्पड़ मार दिया तो दूसरे ने 'दबंग' जनप्रतिनिधि के सामने ही चमचागिरी दिखाते हुए एक आपदा पीड़ित का गिरहबान पकड़ लिया।
यही नहीं यह भी बातें सामने आ रही हैं कि बाजार के केंद्र में स्थित रिफ्यूजी कॉलोनी पर इनकी गिद्ध नज़र लगी हुई है यह आपदा में सबसे ज्यादा बर्बाद है। यंहा लगभग 50 परिवार रहते है अब ये राहत शिविरों में है। ये आज़ादी के वक्त में सरकार द्वारा विस्थापन के चलते यंहा बसाए गए थे। अब सुरक्षा के नाम पर इन्हें इस जगह को छोड़ने के लिए "प्रेरित" किया जा रहा है 5000 रुपये मासिक किराए के रूप में दिए जाने के वायदे हो रहे है। जब लोगों ने इससे इंकार कर दिया तो उनसे राहत कैम्प से चले जाने के लिए के कह दिया। अब ये अपने समुदाय के गुरुद्वारा में रह रहे हैं।
इन्ही स्थितियों में एक क्षेत्र काशीरामपुर मल्ला के लोगों ने क्रालोस की अगुवाई में तहसील में प्रदर्शन किया एक ज्ञापन मुख्य मंत्री के लिए प्रेषित किया गया जबकि दूसरा ज्ञापन एस डी एम को दिया गया। जिसका असर भी देखने को मिला तुरंत ही शाम तक जे सी बी पहुंच गई व फिर धीरे धीरे सफाई व ब्लीचिंग पावडर का छिड़काव भी हुआ। इसी के साथ अब अन्य लोगों ने भी प्रदर्शन किए है। दबाव में वे किरकिरी होने पर सरकार के एक दो मंत्रियों के भी चक्कर यंहा लगे है। जिसमें उन्होंने 3800 रुपये के चेक पर सफाई देते हुए कहा है कि यह तो प्राथमिक तौर पर राहत दी गई थी बाद में फिर राहत राशि दी जाएगी। लेकिन कुल मिलाकर संघी सरकार को आपदा ने आपदा पीड़ित ही नहीं अन्य लोगों के बीच भी नंगा कर दिया।
हत्याओंं के दौर में "राष्ट्रवादियों" का जश्न
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पिछले तीन सालों में मेहनतकश अल्पसंख्यकों व दलितों पर हमले काफी बढ़ चुके है। आम तौर पर ये हमले गौरक्षक दस्तों द्वारा किये गए है। इनमें हत्याएं भी की गई है। दूसरी ओर गुजरात ऊना के बाद जुनैद व झा-खण्ड में अल्पसंख्यकों की हत्या के मौके पर "ह-त्यारी चुप्पी" को तोड़ते हुए प्रधानमंत्री महोदय फिर उपदेशात्मक मुद्रा में आये । फासिस्ट हत्यारो को फिर से एक बार उपदेश उन्होंने दिया। इन्हें "भीड़ द्वारा हत्याओं" के रूप में प्रचारित कर फास्सिट अपनी ताकत में इजाफा करते जा रहे है। जब दौर ऐसा हो तब ऐसे शोक संतप्त दहशत भरे माहौल में "जी एस टी" लागू करने की रात को ऐतिहासिक पल बताकर "जश्न" मनाया जाता है।
"एक देश-एक कर- एक बाजार" के नारे के साथ एक केंद्रीकृत कर प्रणाली को यूं इस तरह पेश किया जाता है कि मानो मज़दूर मेहनतकश अवाम की जिंदगी में आमूल चूल बदलाव आ जाये। हकीकत यही है कि हर बार की ही तरह यह मज़दूर मेहनतकश अवाम को और ज्यादा निचोड़ने का यंत्र है।
प्रत्यक्ष करो की प्रणाली को बढ़ाने की बजाय जो कि व्यक्ति विशेष को प्रभावित करते है इसे और कमजोर कर दिया गया है। इसके बजाय अप्रत्यक्ष कर प्रणाली को और मजबूत व व्यापक कर दिया गया है जो अपने दायरे मज़दूर मेहनतकश अवाम को समेट लेता है। इसके लिए महंगाई बढ़नी ही है। छोटी पूंजी की तबाही को बढ़ाएगा। अव्वल तो यह कोई यह नहीं पूछ रहा कि जिस जी एस टी को अब ऐतिहासिक करार दिया जा रहा है तब 2012 में क्यों इतना हंगामा इसके विरोध में मोदी - भाजपा ने बरपा था।
एकाधिकारी पूंजी की सेवक नरम हिदुत्व वाली कोंग्रेस बेचारी यह क्रेडिट लेने से वंचित रह गयी। उसे इसी का अफसोस है ! वरना तो दोनों में इसे लागू करने के मामले में अभूतपूर्व एकता है। "राष्ट्रवादियों " का यह जश्न खुद इनके अपने लिए साथ ही देश के पूंजीपति वर्ग के लिए है या यूं कहें कि जश्न मनाने का समय यह यदि किसी के लिए है वो पहले सरकार और दूसरे जो असल में सरकार बनाते हैं और सरकारें जिनके लिए काम करती हैं यानी पूंजीपति वर्ग और उसमें भी अंबानी-अदानी टाइप के पूंजीपतियों को जश्न मनाना ही चाहिए।
सरकार की कर राजस्व से आय बढ़ेगी तो वह उसे पूंजीपतियों पर ही लुटायेगी। यही नही इस " एक देश एक कर एक बाजार" के नारे के साथ शासकों ने राज्य सरकारों के अधिकार को और कमजोर कर दिया। अब राज्यों की निर्भरता केंद्र पर और ज्यादा बढ़ जाएगी। और शासकों की यह सोच या दावा कि इससे अर्थव्यवस्था को गति मिलेगी, संदिग्ध है। नोट बंदी की मार से अर्थव्यवस्था अभी उभरी नही है। आयात निर्यात दोनों ही स्तरों पर संकट मौजूद है। आंतरिक मांग बढ़ने के कोई आसार नहीं हैं।
इस सबके बावजूद देश के बड़े पूंजीपतियों के मुनाफे की दर को और गिरने से रोकने और सरकार के कर राजस्व को बढ़ाने में यह कर सुधार तात्कालिक तौर पर एक हद तक कामयाब होगा। जंहा तक देश की एकता का सवाल है । देश को एकीकृत बाजार से देखने वाले शासक पूंजीपति वर्ग व उसकी पार्टियों का मतलब यही एकता यानी एक बाज़ार है । जबकि वास्तविकता में 'एकता' तभी संभव है जब कि आत्मनिर्णय के अधिकार के तहत समाजवादी राज्य बने।
सहारनपुर के शब्बीरपुर गांव में दलितों पर हुए हमले की तथ्यान्वेषी रिपोर्ट .
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( क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन की अगुवाई में प्रगतिशील महिला एकता केंद्र एवं नौजवान भारत सभा के कार्यकर्त्ताओ ने तथ्यों की जांच पड़ताल के लिए शब्बीरपुर गांव का दौरा 8 मई को किया इस जांच पड़ताल के आधार पर यह रिपोर्ट तैयार की गई है।)
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सहारनपुर से लगभग 26 किमी दूरी पर शब्बीरपुर गांव पड़ता है । मुख्य सड़क से तकरीबन आधा किमी दूरी पर यह गांव है।इस गांव के आस पास ही महेशपुर व शिमलाना गांव भी पड़ते है। गांव के भीतर प्रवेश करते वक्त सबसे पहले दलित समुदाय के घर पड़ते है। जो कि लगभग 200 मीटर के दायरे में गली के दोनों ओर बसे हुए हैं। यहां घुसते ही हमें गली के दोनों ओर जले हुए घर, तहस नहस किया सामान दिखाई देता है। दलित समुदाय के कुछ युवक, महिलाएं व अधेड़ पुरुष दिखाई देते हैं जिनके चेहरे पर खौफ, गुस्सा व दुख के मिश्रित भाव को साफ साफ पढ़ा जा सकता है।
इस गांव के निवासियों के मुताबिक गांव में तकरीबन 2400 वोटर हैं जिसमें लगभग 1200 वोटर ठाकुर समुदाय के , 600 वोटर दलित (चमार)जाति के है। इसके अलावा कश्यप, तेली व धोबी, जोगी (उपाध्याय) आदि समुदाय से हैं। मुस्लिम समुदाय के तेली व धोबी के तकरीबन 12- 13 परिवार हैं। गांव में एक प्राइमरी स्कूल हैं जिसमें ठाकुर समुदाय के गिने चुने बच्चे ही पड़ते हैं जबकि अधिकांश दलितों के बच्चे यहां पड़ते हैं। गांव की अधिकांश खेती वाली जमीन ठाकुरों के पास है लेकिन 25-35 दलित परिवारों के पास भी जमीन है।
दलित प्रधान जो कि 5 भाई है के पास भी तकरीबन 60 बीघा जमीन है। गांव में ठाकुर बिरादरी के बीच भा ज पा के लोगों का आना जाना है। जबकि दलित समुदाय ब स पा से सटा हुआ है। गांव का प्रधान दलित समुदाय से शिव कुमार है जो कि ब स पा से भी जुड़े हुए हैं। इस क्षेत्र के गांव मिर्जापुर के दलित सत्यपाल सिंह ने बताया कि वह खुद आर एस एस(संघ) से लंबे समय से जुड़े हुए है शिमलाना, महेशपुर व शब्बीरपुर गांव में भी संघ की शाखाएं लगती हैं हालांकि इनमें दलितों की संख्या 6-7 के लगभग है और इस गांव से कोई भी दलित शाखाओं में नहीं जाता है।
घटना व घटना की तात्कालिक पृष्ठभूमि--- -
5 मई को दलित समुदाय को निशाना बनाने से कुछ वक्त पहले कुछ ऐसी बातें हुई थी जिसने दलितों को सबक सिखाने की सोच और मज़बूत होते चले गई । 14 अप्रेल को अम्बेडकर दिवस के मौके पर गांव के दलित अपने रविदास मंदिर के बाहर परिसर में अम्बेडकर की मूर्ती लगाना चाह रहे थे । लेकिंन गांव के ठाकुर समुदाय के लोगों ने इस पर आपत्ति की।प्रशासन ने मूर्ति लगाने की अनुमति दलितों को नहीं दी । मूर्ति लगाने के दौरान पुलिस प्रशासन को गांव के ठाकुर लोगों ने बुलाया। पुलिस मौके पर पहुँची मूर्ति नही लगाने दी गई ।
दलितों से कहा गया कि वो प्रशासन की अनुमति का इंतजार करें। जो कि नहीं मिली। 5 मई को इस गांव के पास शिमलाना में ठाकुर समुदाय के लोग "महाराणा प्रताप जयंती" को मनाने के लिए एकजुट हुए थे। इनकी तादात हज़ारों में बताई गई है। इसमे शब्बीरपुर गांव के ठाकुर भी थे। ये सभी सर पे राजपूत स्टाइल का साफा पहने हुए थे, हाथों में तलवार थामे हुए थे व डंडे लिए हुवे थे। 5 मई को सुबह लगभग 10:30 बजे गांव के ठाकुर समुदाय के कुछ युवक बाइक में दलित समुदाय की ओर से जाने वाले रास्ते पर से डी जे बजाते हुए आगे बढ़ रहे थे। इस पर दलितों ने आपत्ति जताई । क्योंकि प्रशासन से इनकी अनुमति नहीं थी । इसका दलितों ने विरोध किया लेकिन इस पर भी मामला नही रुका तो दलित प्रधान ने पुलिस प्रशासन को सूचित किया। पुलिस आई और डी जे को हटा दिया गया।
दलित समुदाय के लोगों ने आगे बताया कि इसके बाद ये बाइक में रास्ते से गुजरते हुए " अम्बेडकर मुर्दाबाद", "राजपुताना जिंदाबाद" महाराणा प्रताप जिंदाबाद" के नारे लगाते हुए आगे बढ़ने लगे। वह रास्ते से 2-3 बार गुजरे। इन दौरान फिर पुलिस भी आई। ठाकुर समुदाय के लोगों का कहना था कि इन दौरान दलित प्रधान ने रास्ते से गुजर रहे इन लोगों पर पथराव किया। जबकि दलित समुदाय के लोग इससे इनकार करते हैं। हो सकता है दलितों की ओर से कुछ पथराव हुआ हो। क्योंकि इसी दौरान ठाकुर समुदाय के लोग महाराण प्रताप जिन्दाबाद का नारा लगाते हुए रविदास मंदिर पर हमला करने की ओर बढ़े।
लगभग 11 बजे के आस पास रविदास मंदिर पर हमला बोला गया। दूसरे गांव से आये एक ठाकुर युवक ने रविदास की मूर्ति तोड़ दी नीचे गिरा दी । दलितों ने बताया कि इस पर पेशाब भी की गई। और यह युवक जैसे ही मंदिर के अंदर से बाहर परिसर की ओर निकला वह जमीन पर गिर गया। और उसकी मृत्यु हो गई । इसकी हत्या का आरोप दलितों पर लगाया गया। इण्डियन एक्सप्रेस के मुताबिक पोस्टमार्टम में मृत्यु की वजह ( suffocation) दम घुटना है। तुरंत ही दलितों द्वारा ठाकुर युवक की हत्या की खबर आग की तरह फैलाई गई । और फिर शिमलाना में महाराण प्रयाप जयंती से जुड़े सैकड़ो लोग तुरंत ही गांव में घुस आए। इसके बाद तांडव रचा गया। तलवार, डंडे से लैस इन लोगों ने दलितों पर हमला बोल दिया। थिनर की मदद से घरों को आग के हवाले कर दिया गया। लगभग 55 घर जले । 12 दलित घायल हुए इसमें से एक गंभीर हालत में है। गाय, भैस व अन्य जानवरों को भी निशाना बनाया गया।इस तबाही के निशान हर जगह दिख रहे थे।
यहां से थोड़ी दूर महेशपुर में सड़क के किनारे दलितों के 10 खोखे आग के हवाले कर दिए गए। यह सब चुन चुन कर किया गया। घायलों में 5 महिलाएं है जबकि 7 पुरुष। गांव के दलित प्रधान का बेटा गंभीर हालत में देहरादून जौलीग्रांट में भर्ती है। तलवार व लाठी डंडे के घाव इनके सिर हाथ पैर पर बने हुए हैं। रीना नाम की महिला के शरीर पर बहुत घाव व चोट है। इस महिला के मुताबिक इसकी छाती को भी काटने व उसे आग में डालने की कोशिश हुई। वह किसी तरह बच पायी।
शासन ,पुलिस प्रशासन व मीडिया की भूमिका ----- सरकार व पुलिस प्रशासन की भूमिका संदेहास्पद है व उपेक्षापूर्ण है। यह आरोप है कि घटनास्थल पर हमले के दौरान मौजूद पुलिस हमलावरों का साथ देने लगी व कुछ दलितों के साथ इस दौरान मारपीट भी पुलिस ने की । संदेह की जमीन यहीं से बन जाती है कि जब संघ व भाजपा के लोग अम्बेडकर को हड़पने पर लगे है तब दलितों को उन्हीं के रविदास मंदिर परिसर में अम्बेडकर की प्रतिमा लगाने से रोक दिया गया व प्रशासन ने इसकी अनुमति ही नहीं दी।
दलितों पर कातिलाना हमले के बाद भी सरकार व मुख्यमंत्री के ओर से दलितों के पक्ष में कोई प्रयास नहीं हुए जिससे कि उन्हें महसूस होता कि उनके साथ न्याय हुआ हो। इसके बजाय मामला और ज्यादा भड़काने वाला हुआ । एक ओर पुलिस प्रशासन ने पीड़ितों व हमलवारों को बराबर की श्रेणी में रखा और हमलावर ठाकुर समुदाय के लोगों के साथ साथ दलितों पर भी मुकदमे दर्ज किए दिए गए । 8 मई तक मात्र 17 लोग ही गिरफ्तार किए गए इसमें लगभग 7 दलित समुदाय के थे जबकि 10 ठाकुर समुदाय के। जबकि दूसरी ओर ठाकुर समुदाय से मृतक परिवार के लोगों को मुआवजा देने की खबर आई व मेरठ में मुख्य मंत्री योगी द्वारा अम्बेडकर की मुर्ती पर माल्यार्पण न करने की खबर भी फैलने लगी। घायल लोगों के कोई बयान पुलिस ने 8 मई तक अस्पताल में नहीं लिए थे। घायल लोगों के कपड़े घटना वाले दिन के ही पहने हुए हैं जो कि खून लगे हुए थे। ये पूरे शासन प्रशासन की संवेदनहीनता को दिखाता है।
इस दौरान गांव में डी एम ने एक बार दौरा किया व कुछ परिवारों को राशन दिया। लेकिन लोगो की जरूरत और ज्यादा की थी उन्हें छत के रूप में तिरपाल की भी जरूरत थी। लेकिन शासन प्रशासन ने फिर मदद को कोई क़दम नहीं उठाया। बाहर से जो लोग मदद पहुंचा रहे थे उन्हें भी प्रशासन ने रोक दिया। लखनऊ से गृह सचिव व डी जी पी स्थिति का जायजा लेंने पहुंचे तो वे केवल अधिकारियों से वार्ता करके चले गए गांव जाना व वंहा दलितों से मिलने का काम इन्होंने नहीं किया। बात यही नही रुकी। दलितों ने भेद भाव पूर्ण व्यवहार के विरोध में तथा मुआवजे के लिए एकजुट होने की कोशिश को भी रोका गया। दलित छात्रावास में रात को ही पी ए सी तैनात कर दी गई। और जब गांधी पार्क से एकजुट दलित लोगों ने जुलूस निकालने की कोशिश की तो उस पर लाठीचार्ज कर दिया गया।
मीडिया ने इस कातिलाना हमले को दो समुदाय के टकराव(clash) के रूप में प्रस्तुत किया। हमलावरों व हमले के शिकार लोगों को एक ही केटेगरी में रखा गया। इसका नतीजा ये रहा कि दलितों में पुलिस प्रशासन व मीडिया के प्रति अविश्वास व नफरत बढ़ते गया।
शबीरपुर घटना की दीर्घकालिक वजह :-----
. सहारनपुर में दलितों की आर्थिक व राजनीतिक स्थिति तुलनात्मक तौर ठीक है और यह तुलनात्मक तौर पर मुखर भी है । आरक्षण के चलते थोड़ा बहुत सम्पन्नता दलितों में आई है अपने अधिकारों के प्रति सजग भी हुए है। लेकिन इन बदलाव को सवर्ण समुदाय विशेषकर ठाकुर समुदाय के लोग अपनी सामंती मानसिकता के चलते सह नहीं पाते। उन्हें यह बात नफरत से भर देती है कि कल तक जिन्हें वे जब तब रौंदते रहते थे आज वही उन्हें आँख दिखाते है ।
जब से एस सी एस टी एक्ट बना हुआ है इस मुकदमे के डर से ठाकुर समुदाय के लोगों को जबरन खुद को नियंत्रित करना पड़ता है कभी कभी तो जेल भी जाना पड़ता है। ये बात इन्हें नफरत से भर देती है।ठाकुर समुदाय के लोग महसूस करते है कि बसपा की सरकार थी तो बस इन दलितों का ही राज था। अभी बसपा की सरकार होती तो सारे ठाकुर अंदर होते, भा जा पा के होने केवल 10-12 लोग ही अरेस्ट हुए। दलित व ठाकुरों के बीच के अंतर्विरोध अलग अलग वक्त पर झगड़ो के रूप में दिखते हैं।
चूंकी संघ ने निरंतर ही अपनी नफरत भरी जातिवादी विचारो का बीज इस इलाके में भी बोया है। सवर्ण समुदाय इससे ग्रसित है। वह आरक्षण व सामाजिक समानता का विरोधी है। इसलिए यह अंतर्विरोध और तीखा हुआ है। संघ मुस्लिमों के विरोध में सभी हिंदुओं को लामबंद करने की कोशिश कर रहा है अपने फास्सिट आंदोलन को मजबूत कर रहा है । शब्बीरपुर घटना उसके लिए फायदेमंद नहीं है। चुकी शब्बीरपुर गांव में ठाकुरों के वोटर दलितों से दुगुने होने के बावजूद ठाकुर अपना प्रधान नहीं बना पाए। एक बार रिजर्ब सीट होने के चलते तो दूसरी दफा सामान्य सीट होने के के बावजूद। जब ठाकुर समुदाय के लोगों से यह पूछा गया कि ऐसा कैसे हुआ ? तो उन्होंने जवाब दिया कि सारे चमार, तेली कश्यप एक हो गए हम ठाकुर एक नही हो पाए ज्यादा ठाकुर चुनाव में खड़े हो गए, वोट बंट गए और हार गए। इसका बहुत अफसोस इन्हें हो रहा था। इसके अलावा दलितों के पास जमीन होना भी ठाकुर लोगों के कूड़न व चिढ़ को उनके चेहरे व बातों में दिखा रहा रहा था। ठाकुर लोगों से जब पूछा गया कि गांव में सबसे ज्यादा जमीन किसके पास है ? तो जवाब मिला - सबके पास है दलितों के पास भी बहुत है प्रधान के पास 100 बीघा है उसका भटटा भी है पटवारी भी दलित है जितना मर्जी उतनी जमीन पैसे खाकर दिखा देता है।
ठाकुर परिवार की महिलाएं बोली - हमारी तो इज्जत है हम घर से बाहर नही जा सकती, इनकी(दलित महिलाएं) क्या इज्जत, सब ट्रैक्टर मैं बैठकर शहर जाती है पैसे लाती है। ठाकुर लोग फिर आगे बोले-इनके ( दलितों) के तो 5-5 लोग एक घर से कमाते है 600 रुपये मज़दूरी मिलती है हमारी तो बस किसानी है हम तो परेशान हैं आमदनी ही नहीं है। यही वो अंतर्विरोध थे जो लगातार भीतर ही भीतर बढ़ रहे थे दलितों को सबक सिखाने की मंशा लगातार ही बढ़ रही थी। और फिर 5 मई को डी जे के जरिये व फिर नारेबाजी करके मामला दलितों पर बर्बर कातिलाना हमले तक पहुंचा दिया गया। इसमें कम से कम स्थानीय स्तर के भा ज पा , संघ व पुलिस प्रशासन की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता।
5 मई को शिमलाना में महाराणा प्रताप जयंती का आयोजन किया गया । जिसमें हजारों लोग गांव में इकट्ठे हुवे थे। ऐसा कार्यक्रम सहारनपुर के गांव में पहली दफा हुआ। जबकि इससे पहले यह जिला मुख्यालय पर हुआ है। दलित समाज की प्रतिकिया व शासन प्रशासन--- जैसा कि स्पष्ट है विशेष तौर पर पुलिस प्रशासन के प्रति इनमें गहरा आक्रोश था। जब 9 तारीख को दोपहर में गांधी पार्क पर लाठी चार्ज किया गया तो शाम अंधेरा होते होते यह पुलिस प्रशासन से मुठभेड़ करते हुए दिखा। इनकी मांग थी - हमलावर ठाकुर समुदाय के लोगो को 24 घंटे के भीतर गिरफ्तार करो।
सहारनपुर के रामनगर,नाजीरपुरा,चिलकाना व मानकमऊ में सड़कें ब्लॉक कर दी गई । यह दलित समुदाय के युवाओं के एक संगठन 'भीम आर्मी' ने किया। लाठी डंडो से लैस इन युवाओं को पुलिस प्रशासन ने जब फिर खदेड़ने की कोशिश की तो फिर पुलिस को टारगेट करते हुए हमला बोल दिया गया।पुलिस थाने में आग लगा दी गई । पुलिस की कुछ गाड़िया जला दी गई ।पुलिस का जो भी आदमी हाथ आया उसे दौड़ा दौड़ा कर पिटा गया। अधिकारियों को भी इस आक्रोश को देख डर कर भागना पड़ा। एक दो पत्रकारों को भी पीटा गया व बाइक जला दी। एक बस से यात्रियों को बाहर कर बस में आग लगा दी गई।
इस आक्रोश से योगी सरकार के माथे पर कुछ लकीरें उभर आई। तुरंत ही अपनी नाकामयाबी का ठीकरा दो एस पी पर डालकर उन्हें हटा दिया गया। और अब वह "कानून का राज" कायम करने के नाम पर दलित युवाओं से बनी भीम आर्मी पर हमलावर हो गई है। अस्पताल से लेकर छात्रावास व गांव तक हर जगह इनको चिन्हित कर तलाशी अभियान चलाया जा रहा है। जबकि ठाकुर समुदाय के तलवार के बल पर खौफ व दहशत का माहौल पैदा करने वाले महाराण प्रताप जयंती वाली सेना को सर आंखों पर बिठा कर रखा जाता है। उनके खिलाफ ऐसी कोई कार्यवाही सुनने या देखने पढ़ने को नही मिली।साफ महसूस हो रहा है कि पुलिस प्रशासन अब पुलिस कर्मियों पर हमला करने वाले दलित समुदाय के लोगों को सबक सिखाने की ओर अपने कदम बढ़ा चुका है। कुल मिलाकर शासन -प्रशासन व राज्य सरकार का रुख दलितों के प्रति भेदभावपूर्ण, उपेक्षापूर्ण , दमनकारी व सबक सिखाने का बना हुआ है। इसलिये आने वाले वक्त में यह समस्या और गहराएगी। वैसे भी जब जातिवादी , साम्प्रदायिक व फासिस्ट विचारों से लैस पार्टी सत्ता में बैठी हुई हो तो इससे अलग व बेहतर की उम्मीद करना मूर्खता है।
धुर प्रतिक्रियावादी एकाधिकारी पूंजी की जीत
अंततः नोटबंदी के राजनीतिक स्टंट के जरिये अपने विरोधियों को चित करने की मोदी की मंशा यू पी जीत के साथ पूरी हो गयी। उत्तराखंड व यू पी में लगभग तीन चौथाई सीट हासिल करने के बावजूद मोदी का कॉन्ग्रेस मुक्त भारत का सपना अधूरा रह गया। शायद मोदी जी भूल गए कि जिन ताकतों ने उन्हे पाल पोस कर दिल्ली के तख़्त पर बिठाया है वही ताकते कोंग्रेस की पीठ पर भी हाथ रखे हुए है। पंजाब में कॉन्ग्रेस तीन चौथाई सीटें हासिल की तो मणिपुर व गोवा में सबसे बड़ी पार्टी रही।
उत्तराखंड में भा ज पा की वोट % 54 से 46 रह गयी (2014 की तुलना में ) जबकि 2012 की तुलना में लगभग 13 % बढ़ गया। यू पी में 2014 की तुलना में भाजपा का वोट % 42 से 40 के लगभग हो गया। जबकि 2012 के असेम्बली चुनाव की तुलना में 25 % बढ़ गए। पंजाब में भा ज पा का वोट शेयर 2014 के लगभग 9 % से गिरकर 5.4 % ही गया जबकि कोंग्रेस के 2014 के 33 % से बढ़कर 39 % ही गए। गोवा में भाजपा के वोट शेयर 2014 के 53 % से घटकर 33 % हो गए । कॉन्ग्रेस के 37 % से घटकर लगभग 28 % रह गए।
यू पी व उत्तराखंड में मिली जीत को ही देश के लिए जनादेश के रूप में प्रचारित किया रहा है। यू पी में फासीवादी ताकतों के लिए सब कुछ दांव पर लगा था । मीडिया की मोदी भक्ति के बावजूद माहौल पक्ष में नहीं था। इसके बावजूद इतने बड़े स्तर पर सीटों का मिलना इस आरोप में संदेह की पर्याप्त गुंजाइश छोड़ देता है कि ई वी एम में गड़बड़ी की गयी हो । यदि ऐसा नहीं है तो फिर दूसरे समीकरण जिसके लिए मोदी अमित शाह ने अपनी पूरी ताकत लगाई थी वह सफल हो गयी यानि जाति के भीतर सूक्ष्म स्तर के बंटवारे को इस्तेमाल करना , सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को तेज करना, मीडिया में चौतरफा मोदी प्रचार, पूरे मंत्री मंड़ल को चुनाव में झौंक देना आदि। मोदी की यू पी जीत के साथ अम्बानी अदानी जैसी प्रतिक्रियावादी एकाधिकारी पूंजी का वर्चस्व अब और बढ़ने की ओर है। दूसरी ओर फासीवादी ताकतों के हमले जनवादी प्रगतिशील व क्रांतिकारी ताकतों पर बढ़ने है। मज़दूर मेहनतकश अवाम समेत छोटी मझोली पूंजी की तबाही बर्बादी आने वाले वक्त में और तेज होनी है ।
8 मार्च : अन्तराष्ट्रीय श्रमिक महिला दिवस
मौजूदा दौर में महिलाओं की सबसे बड़ी समस्या उनके खिलाफ बढ़ती यौन हिंसा का है। समस्या तब और विकराल हो जाती है सत्ता पर बैठे लोग इसे परोक्ष तौर बढ़ावा देते है और कुछ तो खुद इसमें शामिल भी है । महिला व बल विकास मंत्री मेनका गांधी जब ये कहती है कि हार्मोनल बिस्फोट से बचाव को लक्षमण रेखा होनी चाहिए। तब यह शासकों की घटिया मानसिकता को व्यक्त करता है।
महिलाये किसी भी उम्र की हों घर या बाहर हर जगह असुरक्षित हैं। निर्भया कांड जैसी घटनाएं अब बढ़ती जा रही है।
लेकिन शासकों के पास इलाज के नाम पर वही नीम हकीमी नुस्खा है मज़बूत सरकार - कठोर कानून - मज़बूत क़ानून व्यवस्था ।
इस तर्क को करने वाले सशत्र बलों द्वारा सशत्र बल विशेषाधिकार क़ानून के तहत मणिपुर से कश्मीर तक महिलाओं पर किये गए यौन हिंसा को सुप्रीम कोर्ट की जांच के दायरे से भी बाहर करने को सही ठहराते है व इसे कोर्ट में भी चुनौती न दिए जा सकने को सही बताते है।
स्पष्ट है कि मामला कुछ व्यक्तियों का नहीं है बल्कि समूछे तंत्र का है व्यवस्था का है। यह पूंजीवादी व्यवस्था जिसकी बुनियाद शोषण और लूट पर टिकी है । जहाँ दिन रात महिला को यौन वस्तु मे बदल देने का प्रचार हो वहां यह मुमकिन नहीं कि लैंगिक बराबरी कायम हो, महिला मुक्ति हासिल हो।
महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा पूंजीवादी समाज के पूर्व के समाजों में भी मौजूद थी । यानी वर्गीय समाजों की उत्पत्ति के साथ यह यौन हिंसा प्रारंभ होने लगती है और आज यह व्यापक और विकराल रूप धारण करती जा रही है।
वर्गीय समाज की उत्पत्ति के साथ यौन हिंसा के दो संगठित और भिन्न रूप एकनिष्ठ विवाह और वेश्यावृत्ति सामने आये। दोनों रूप एक-दूसरे से विपरीत थे परंतु दोनों ही रूपों में स्त्री का कोई वज़ूद नहीं था वह कहीं नहीं थी।
उसकी हैसियत संपत्ति की सी थी । जिसे काबू में रखने के लिए तमाम नियम कानून बनाये गए । धर्म के जरिये इसे पवित्र व संस्थाबद्ध कर दिया गया।
इसलिए अक्टूबर क्रांति शताब्दी वर्ष पर समाजवादी क्रांति की उपलब्धियों को याद करते हुए यही कहना या स्थापित करना होगा कि महिला मुक्ति का रास्ता सिर्फ समाजवाद से होकर जाता है।
मात्र चुनाव से क्या होगा? हमें तो क्रांति चाहिए!
हमारे प्रदेश सहित पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। चुनावों की घोषणा के कई-कई माह पहले ही हमारे प्रदेश में चुनाव का माहौल बन चुका है। महीनों से विभिन्न पार्टियां कई-कई नाम से अपनी प्रचार यात्राएं निकाल रही हैं। ‘परिवर्तन यात्रा’, ‘सतत विकास यात्रा’, आदि-आदि नाम की इन यात्राओं में करोड़ों रूपये फूके जा रहे हैं। भाजपा, कांग्रेस, सपा, बसपा ने इन चुनावों में किसी भी तरह से जीत हासिल करने के लिए अपनी पूरी ताकत झौंक दी है।
देश के मजदूर, किसान सहित आम आदमी भले ही रूपयों की भयानक तंगी हफ्तों से झेल रहा हो पर इन दलों और इनके नेताओं के पास एक-एक रैली में खर्च करने के लिए लाखों-करोड़ों रूपये हैं। इतना पैसा इन लोगों के पास आता कहां से है?
इन चुनावबाज पार्टियों की रैली में लाखों रूपये खर्च करने के बाद देश के नाम पर, गरीबों के नाम पर भावुक अपीलें की जाती हैं। कोई-कोई तो एकदम भावुक हो कर रोने भी लगता है। लेकिन हर कोई जानता है कि इनमें से जो भी शासन संभालता है, वह पूरे तन-मन-धन से अमीरों की, पूंजीपतियों की ही सेवा करता है। मजदूरों, किसानों, बेरोजगार नौजवानों के हाथ कुछ नहीं आता है। हर खाते में 15 लाख रूपये देने का वायदा करने वाले कह देते हैं कि ‘‘वह एक चुनावी जुमला’’ था।
हकीकत यही है कि मजदूरों, किसानों, बेरोजगार नौजवानों से किये जाने वाले वायदे, घोषणाएं आदि सभी महज चुनावी जुमले हैं। इस बात से फिर कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह जुमला किसने उछाला है। मोदी कि राहुल गांधी कि मुलायम कि माया।
इन विधानसभा चुनावों को कोई 2019 के आम चुनाव के फायनल से पहले का ‘सेमी फायनल’ कह रहा है तो किसी के लिए यह रिहर्सल है, तो कोई मोदी सरकार के तीन साल के शासन पर रायशुमारी बता रहा है। यानि हर पार्टी और हर पार्टी को पैसा देने वाले और उनसे काम निकालने वाले इन चुनावों से अपने भविष्य की संभावना तलाश रहे हैं। पूंजीपति देख लेना चाहते हैं कि आगे वे किस घोड़े पर जुआ खेलें।
हमारे प्रदेश सहित पांचों विधानसभाओं के चुनाव परिणाम आयेंगे तब तक ‘मोदी सरकार’ को सत्ता संभाले तीन साल हो जायेंगे। इन तीन सालों में ‘मोदी सरकार’ ने क्या किया? मजदूरों, किसानों, बेरोजगार नौजवानों, उत्पीड़ित औरतों और अन्य जनों को क्या दिया?
अंबानी, अडाणी को तो वह सब कुछ दिया जो उन्होंने चाहा। अंबानी ‘जियो’ के लिए मोदी ने देश के प्रधानमंत्री की साख बेची तो अडाणी के लिए स्टेट बैंक आफ इंडिया(एसबीआई) के खजाने के मुंह खुलवाये। आस्ट्रेलिया में अडाणी कोयले का धंधा कर सके, इसके लिए स्टेट बैंक ने चंद मिनटों में 6000 करोड़ रूपये दिये।
‘मोदी सरकार’ की जब कलई खुल रही थी, जब सरकार हर जगह नाकम हो रही थी तो कालेधन पर हमला बोलने के नाम पर ‘नोटबंदी’ कर दी।
नोटबंदी कहने को कालेधन पर ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ है। निशाना तो पांच विधानसभा के चुनाव के साथ दो साल बाद का लोकसभा चुनाव था। यानि ऐसा तीर चला जाय कि सारे विरोधी एक साथ ध्वस्त हो जायें। निशाना तो कहां काला धन बनना था, बन गये गरीब मजदूरों की रोजी, रोटी और घर में मुसीबत के वक्त कि लिए रखे दो-चार हजार रूपये।
अब क्या? क्या काला धन मिट गया? क्या भ्रष्ट्राचार खत्म हो गया? क्या पूंजीपतियों की ऐश और पार्टियों के अंधाधुंध खर्चे कम हो गये? क्या नितिन गडकरी और रेडडी की बेटियों की शादी में कोई परेशानी हुयी? नहीं! न होनी थी।
फिर क्या हुआ? कई लोग लाइनों में खड़े-खड़े मर गये। फैक्टरियां बंद हो गयी। मजदूरों के खाने के लाले पड़ गये। किसानों को बीज, खाद और अपनी फसल के सही दाम पाने के लिए खून के आंसू बहाने पड़े।
खून के आंसू यदि मजदूर, किसान देश के भीतर बहा रहे हैं तो देश की सीमाओं पर ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ या आतंकवाद से निपटने के नाम पर मजदूरों, किसानों के बेटों का खून बहाया जा रहा है। एक दूसरे को जन्मदिन की बधाई देने वाले मोदी हों या नवाज शरीफ इन जैसों ने देशभक्ति को धंधा बना दिया है।
सेना, सैनिकों के नाम पर देशभक्ति की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले चुनाव जीतने और देश की गंभीर होती समस्याओं से जनता का ध्यान भटकाने के लिए सीमा पर नाहक ही निर्दोष सैनिकों और नागरिकों का कत्ल एक-दूसरे के हाथों से करवाते हैं। हद तो यह है कि दोनों कश्मीर के नाम पर देशभक्ति की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। सैकड़ों नौजवान इन वर्षों में कश्मीर के नाम पर मारे जा चुके हैं। कश्मीरियों के दुःख, कष्ट, दमन की तो कोई सीमा ही नहीं। कोई नहीं पूछता कि कश्मीर की जनता को क्या चाहिए?
‘मोदी सरकार’ के तीन सालों में मजदूरों, किसानों, बेरोजगार नौजवानों को क्या मिला? गरीबी, महंगाई, बेरोजगारी, दमन-उत्पीड़न बढ़ता ही गया। देश की अर्थव्यवस्था गहरे संकट में फंसी थी, फंसी है और फंसी ही रहेगी। और खतरा इस बात का मंडरा रहा है कि देश हिन्दू फासीवाद की गिरफ्त में न चला जाय।
यही बात अखिलेश, हरीश रावत, आदि की सरकार के लिए भी पूछा जाय तो इन सरकारों ने मजदूरों, किसानों आम जनों के लिए क्या किया? कुछ फिल्मी अंदाज में ये अपनी घोषणाएं व काम गिना सकते हैं। अखिलेश कह सकते हैं कि उन्होंने सड़कें, मेट्रो रेल, आदि बनवाये। हरीश रावत कह सकते हैं कि उन्होंने ‘इंदिरा अम्मा’ भोजनालय खोले। और बाकि क्या किया? मुलायम का खानदान यदि चुनाव सर पर नहीं होता तो बिखर गया होता। और हरीश रावत ने अपनी सरकार बचाये रखने के लिए आकाश-पाताल एक कर दिया।
इन विधानसभा चुनावों को ‘सेमिफायनल’, रिहर्सल, रायशुमारी आदि जो कुछ भी टी.वी, अखबार कहें पर यह चुनाव हो या अन्य चुनाव, सरकारें जनता के मतदान से कहीं-कहीं ज्यादा पूंजी के दम से जोड़-तोड़ से, फरेब से बनायी जाती हैं।
मोदी जी को देश का प्रधानमंत्री क्या भारत की जनता के चुनावी मतों ने बनाया। नहीं, उन्हें प्रधानमंत्री अंबानी, अडाणी की पूंजी ने बनाया। 2014 में उनके चुनाव प्रचार में 30-40 हजार करोड़ रूपये खर्च हुए। क्या किसी को उन्होंने बताया कि उन्होंने इतना पैसा कहां से पाया और क्यों चुनाव में उड़ाया। इस समय जो पैसा पानी की तरह से बहाया जा रहा है कोई अमित शाह, कोई जेटली बतायेगा कि ये पैसा कहां से आ रहा है? ये काला है या सफेद?
रही बात जनता के चुनावी मत की तो 2014 के चुनाव में करीब 85 करोड़ मतदाता थे। करीब 30 करोड़ ने अपना मत देने की जरूरत नहीं समझी। करीब 55 करोड़ ने मत दिया, जिसमें ‘बंपर जीत’ हासिल करने वाले मोदी जी को मात्र 17 करोड़ मत मिले। यानि लोकसभा में प्रचंड बहुमत हासिल करने वाली मोदी जी को देश के करीब 68 करोड़ मतदाताओं ने एक या दूसरे ढंग से नकार दिया। और यही बात अखिलेश यादव, हरीश रावत जैसों पर लागू हो जायेगी। कि साफ है कि ये सरकारें कैसे बनी, कैसी टिकी और इनका क्या आधार है।
हमारे देश के, हमारे प्रदेश के हाल ये हैं कि आम लोग गरीबी, भुखमरी से जूझ रहे हैं। बेरोजगार नौजवान जब अपने हकों के लिए सड़कों पर उतरते हैं तो लाठी-गोली खाते हैं। आये दिन लखनऊ-देहरादून में प्रशिक्षित अध्यापक, आंगनबाड़ी, आशा कार्यकर्ता बुरी तरह से पुलिस द्वारा पीटे और अपमानित किये जाते हैं। यही हाल हरिद्वार, रूद्रपुर जैसे औद्योगिक शहरों में हैं। जैसे ही मजदूर अपनी मांग उठाते है वैसे ही पुलिस फैक्टरी मालिक के इशारे पर पूरे लाव-लश्कर के साथ हाजिर हो जाती है।
सच तो यह है कि पूरी व्यवस्था ही मजदूरों, किसानों, नौजवानों, औरतों और अन्य उत्पीड़ित जनों के पूरे खिलाफ है। पूरी व्यवस्था पैसे वालों की, पूंजीपतियों की सेवा में लगी रहती है। यह पूरी व्यवस्था मजदूरों, किसानों का रक्त चूस रही है।
हालात जब ऐसे हो तब हम क्या करें? चुनाव में वोट डालें तो किसको डालें? सभी जब पूंजीपतियों के चाकर है तो किसको जितायें?
इन सवालों का जवाब हमारे देश के इतिहास में, हमारे अनुभवों में और हमारे जीवन में है।
हमें सिर्फ चुनाव नहीं चाहिए। चुनावों के नाम पर जुमले नहीं चाहिए। सच तो यह है कि चुनावों से हमारे जीवन में कोई बदलाव नहीं होने वाला है। कभी कांग्रेस, कभी भाजपा, कभी सपा और कभी बसपा को हराने-जिताने से कुछ नहीं होने वाला है।
हमें यह चुनाव-वह चुनाव; यह पार्टी-वह पार्टी; यह सरकार-वह सरकार के मकड़जाल से बाहर निकलना होगा। हमें नये ढंग से सोचना होगा। हमें इतिहास से उन सूत्रों को पकड़ना होगा जो कहीं छूट गये हैं। हमें शहीद भगत सिंह की उस बात को याद करना होगा कि गोरे अंग्रेजों के स्थान पर काले अंग्रेजों के आने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
शहीद भगत सिंह ने कहा था कि हमारे देश में मजदूरों, किसानों के जीवन में आमूलचूल परिवर्तन के लिए क्रांति की जरूरत है। हमारे देश को क्रांति चाहिए। ऐसी क्रांति जिसकी ओर हमारे देश के हजारों-हजार शहीदों ने अपनी जान को कुर्बान कर इशारा किया है। शहीद भगत सिंह के शब्दों में हमें समाजवादी क्रांति चाहिए।
ऐसी क्रांति आज से सौ वर्ष पूर्व रूस में घटी थी। ऐसी क्रांति जिसने पूंजीपतियों की सत्ता को खत्म कर मजदूरों-किसानों का राज कायम किया। पूंजीवाद को ध्वस्त कर समाजवाद का निर्माण किया।
हमारा देश जिस गहरे सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक संकट में फंसा हुआ है वहां से उसे समाजवादी क्रांति ही बाहर निकाल सकती है।
‘‘क्रांति की बात करो, क्रांति की राह पर चलो’’ यही इन चुनावों में हमारा नारा हो सकता है। क्रांति ही हमारा दृष्टिकोण है। क्रांति ही हमारा घोषणापत्र है। क्रांति ही हमारा मार्ग है। क्रांति ही वक्त की आवाज है।
आइये ! इस संघर्ष के हमसफ़र बनें ।
नोटबंदी 'विशुद्द राजनीतिक स्टंट'
काले धन के खिलाफ जहर उगलने वाले मोदी जी काले धन पर सवार होकर ही सत्ता पर पहुंचे थे। अम्बानी -अदानी जैसो के दम पर सत्ता में पहुंचने के बाद 15 लाख रूपये सबके खाते में पहुँचाने की बात को प्रधानमंत्री मोदी के जोड़ीदार अमित शाह ने राजनीतिक जुमला करार दिया था।
दिल्ली में बुरी तरह हारने व फिर बिहार में चुनाव हारने के बाद साफ़ था कि मोदी लहर का अब वो असर नहीं है। जबकि मोदी सरकार ने अपनी कैबिनेट तक चुनाव में झौंक दी थी।
स्पष्ट था कि अम्बानी-अदानी के नायक का अब यह मेहनतकश जनता के बीच बेनकाब होने का दौर था। इस दौर में मोदी व मोदी सरकार ने कॉर्पोरेट घरानों के पक्ष में आर्थिक सुधारों को तेजी से लागू करने की कोशिश की दूसरी और धार्मिक, सांस्कृतिक आदि तमाम मुद्दों के जरिये फासीवादी आंदोलन को और ज्यादा मजबूत किया।।
इस सबका ही मिला जुला असर था कि मोदी की छवि का ग्राफ गिरा। अब लोक सभा में तो मोदी सरकार को बहुमत हासिल है लेकिन राज्य सभा में अभी बहुमत से पीछे है ।
अब एक बार फिर भारी अवसर था कि उस प्रदेश में जहां से उनके 72 सांसद हैं तथा उत्तराखंड , पंजाब के चुनाव में एक बार मोदी की ऐसी छवि निर्मित की जाय कि न केवल राज्य सभा में बहुमत की दिशा में बढ़ा जा सके बल्कि एकतरफा हासिल वोट के दम पर उसे जनता का मेंडेट बता कर मोदी व मोदी सरकार फासिस्ट मंसूबों की दिशा में तेजी से आगे बढ़ सके।
काला धन ख़त्म करने के मुद्दे से और बेहतर कौन सा मुद्दा हो सकता था ? यही तो 2014 में उनका चुनावी मुद्दा था। जनता के बीच फिर उम्मीद जगायी जा सकती थी कि उनके खाते में एक खास रकम तो अब पहुँचने ही वाली है और यह भी दिखाया जा सकेगा कि देश में मोदी ही एकमात्र व्यक्ति हैं जो अमीरो को भी सबक सिखा रहे हैं।
नोट बंदी के इस निर्णय से टाटा-अम्बानी जैसे एकाधिकारी घरानों को अंततः फायदा ही होना है । नेट बैंकिंग, डेबिट-क्रेडिट कार्ड ,पे टी एम आदि जैसे कदम भी और इसके जरिये निगरानी बढ़ने के साथ -साथ कर संग्रह बढ़ना इनके पक्ष में ही है। सरकार द्वारा बताये गए काले धन के 3-4 लाख करोड़ रूपये यदि वापस नहीं आते तो सरकार इसके नए नोट जारी करके उसकी दावेदार बन जाती और इसे भी पूंजीपतियों पर ही लुटाती ।
लेकिन 500- 1000 के जारी नोटों का अधिकांश हिस्सा तो जमा हो चुका है और बाकि हिस्सा भी जमा होने की संभावना है। यहाँ मोदी सरकार असफल हो गयी और दूसरी ओर इस नोटबंदी से मज़दूर - मेहनतकश लोग - महिलाएं , छोटे कारोबारी की तबाही साथ ही बीमारी के दौरान नकदी के चलते इलाज न मिलना , मेहनत से कमाये गए अपने पैसे से ही वंचित हो जाना या फिर पुराने नोटों के रूप में मिलती तनख्वाह को नए नोटों से डिस्काउंट ( नुकसान) में बदलना आदि-आदि के चलते मोदी सरकार यंहा भी असफल हो गयी।
मोदी व मोदी सरकार को यह अंदाजा नहीं था कि दांव उल्टा भी पड सकता है। यह भी स्पस्ट है कि काला धन तो रियल एस्टेट से लेकर तमाम तरीके के कारोबार में लगा हुआ है , साथ ही यह भी कि भारत सरकार या इस वक्त की मोदी सरकार भी उन पार्टिसिपेटरी नोट का कोई जिक्र नहीं करती जिनके जरिये सटोरिये निवेश करते है कमाई करते है गुमनाम रहकर ये सब करने का अधिकार उन्है है ही। यह भी ध्यान में रखने की जरूरत है कि काला धन कितना है इस संबंध में भी कोई सटीक आंकड़ा नहीं है ।
अब जैसे जैसे 50 दिन की लिमिट नज़दीक आते गयी । मोदी व मोदी सरकार ने एक और काले धन के खिलाफ घोषित नोटबंदी को कैशलेस अर्थव्यवस्था की ओर भी मोड़ दिया । साथ ही वह रोज ब रोज हो रही धरपकड़ को मीडिया में खूब उछाल कर यह दिखाने की कोशिश में है कि उसकी योजना तो बिलकुल ठीक थी लेकिन बैंककर्मियों ने इस योजना पर पलीता लगा दिया है और यह भी कि मोदी अमीरो को नहीं बख्श रहा है । अब आने वाला वक्त ही बताएगा कि जनता इसका जवाब कैसे देती है।
सेमिनार पत्र
संकटग्रस्त पूंजीवाद विकल्प सिर्फ और सिर्फ समाजवाद
महान अक्टूबर सर्वहारा समाजवादी क्रांति की शतवार्षिकी एक ऐसे वक्त में मनायी जा रही है जब पूरी दुनिया एक गंभीर आर्थिक संकट में फंसी हुई है। संकट के 8 वर्ष बीत जाने के बाद भी इससे निजात के कोई आसार नजर नहीं आ रहे हैं। दुनिया भर के पूंजीवादी अर्थशास्त्रियों के सारे नीक हकीमी नुस्खे बेकार साबित हो रहे हैं। अभी कुछ दशक पूर्व ही ‘इतिहास के अंत’ और ‘पूंजीवाद ही अंतिम सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था’ की घोषणा करने वाले पूंजीवादी विचारक आज मुंह छिपाये फिर रहे हैं। संकट की स्थिति का आंकलन करने वाली वैश्विक संस्थाएं अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष(आई एम एफ), विश्व बैंक हर बार भविष्य की खुशनुमा तस्वीर पेश कर बदलते-बदलते अपनी साख गंवा चुकी हैं। इनके पूर्वानुमानों पर अब खुद शासक पूंजीपतियों को ही भरोसा नहीं रह गया है। पूंजीवाद के समर्थकों के बीच निराशा इतनी अधिक है कि तमाम अर्थशास्त्री अब धीमी विकास दर वाले पूंजीवाद की बातें करने लगे हैं। खुद पूंजीवाद के चलते रहने पर उसके समर्थकों का ही भरोसा कमजोर पड़ता जा रहा है।
जहां एक ओर साम्राज्यवादी-पूंजीपति वर्ग और उसकी सरकारें हैरान-परेशान हैं वहीं इस संकट का सारा बोझ उन्होंने मजदूर-मेहनतकश अवाम पर एक के बाद एक हमले बोल स्थानांतरित किया है। कल्याणकारी मदों में कटौती, वेतन भत्तों में कटौती, छंटनी, श्रम कानूनों में बदलाव के साथ बढ़ती बेकारी से आज दुनिया भर के मजदूर-मेहनतकश जूझ रहे हैं। शासकों द्वारा अपने ऊपर बोले जाते हमलों का मजदूर-मेहनतकश अवाम चौतरफा, दुनिया के हर कोने में जवाब भी दे रही है। जनता के इन संघर्षों-प्रदर्शनों से दुनिया भर के शासकों को एक बार फिर से क्रांति का भय सताने लगा है। इसीलिए शासक किसी भी तरह इन विद्रोहों-प्रदर्शनों को पूंजीवादी दायरे में ही समेट लेने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपना रहे हैं। संघर्षों के दमन के लिए फासीवादी तौर-तरीके अपनाने, फासीवादी रुख वाले लोगों को सत्ता सौंपने से लेकर संघर्षों में गैरसरकारी संगठनों को पालने-पोसने सरीखी चीजें आज आम हो चुकी हैं। शासक वर्ग यह सब अपनी चरमराती व्यवस्था को बचाने के लिए क्रांति से उसकी रक्षा के लिए कर रहा है।
जहां शासक वर्ग क्रांति से भयभीत है वहीं क्रांति करने वाली ताकतें खासकर मजदूर वर्ग और उसके क्रांतिकारी संगठनों की स्थिति बहुत उत्साहजनक नहीं है। अभी भी दुनिया में चल रहे विरोध-प्रदर्शनों में ये हाशिये पर हैं। देशों के भीतर भी ये ताकतें बिखरी हुई हैं। मजदूर-मेहनतकश जनता की बढ़ती सक्रियता के बावजूद देशों के पैमाने पर क्रांतिकारी पार्टी के गठन के अभाव के चलते शासक वर्ग संघर्षों को व्यवस्था के दायरे में थामने में सफल है।
इन हालातों में अक्टूबर समाजवादी क्रांति का महत्व और बढ़ जाता है जब गहराता संकट इंकलाब को दुनिया भर के मेहनतकशों के व्यवहारिक एजेण्डे पर फिर से ला रहा हो। समय के साथ गहराता जाता संकट जहां पूंजीवादी व्यवस्था को तोड़े बगैर इसके हल की अंसभाव्यता को सामने ला रहा है। वहीं आज से एक सदी पूर्व हुई अक्टूबर समाजवादी क्रांति संकट के वास्तविक हल की राह दिखला रही है। समाजवादी क्रांति के जरिये पूंजीवाद का अन्त कर समाजवाद की स्थापना के अलावा संकटों से निजात का कोई रास्ता नहीं है। पूंजीवाद को समाप्त कर समाजवाद की स्थापना के जरिये ही मानवता एक बेहतर समाज की ओर बढ़ सकती है।
ऐसे में जरूरी है कि आज दुनिया भर में छाये संकट का एक मोटा जायजा लिया जाये और अक्टूबर क्रांति के सबकों की चर्चा करते हुए आज दुनिया बदलने के लिए अपने कार्यभार तय किये जायें।
अ. विश्व आर्थिक संकट और जन प्रतिरोध
पिछले आठ वर्षों में अमेरिका से शुरु होकर आर्थिक संकट ने यूरोप, एशिया, अफ्रीका या यूं कहें कि सारी दुनिया को अपने आगोश में ले लिया है। संकट के शुरुआती काल में इससे किसी हद तक कम प्रभावित हुए चीन, भारत सरीखे देश भी अब इस संकट का सामना कर रहे हैं। चीन की विकास दर में लगातार गिरावट हो रही है तो भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी आंकड़ों की गणना का तरीका बदल कर अर्थव्यवस्था की जो खुशनुमा तस्वीर पेश कर रहे हैं उस पर जनता तो दूर देश के पूंजीपति भी यकीन नहीं कर रहे हैं।
संकट के इन आठ वर्षों मे दुनिया भर की सरकारों ने अपने-अपने वित्तीय संस्थानों-पूंजीपतियों को डूबने, दिवालिया होने से बचाने के लिए, उनके गिरते मुनाफे की भरपायी के लिए अपने खजानों के मुंह खोल दिये। सरकारों के हस्तक्षेप व भारी भरकम बेल आउट से वित्तीय संस्थान-पूंजीपति तो बच गये पर सरकारें कर्ज के गहरे जाल में फंस गयीं। सरकारों पर कर्ज इन आठ वर्षों में लगातार बढ़ता गया है। आज तमाम विकसित देशों की सरकारों के ऊपर कर्ज उनके सकल घरेलू उत्पाद से अधिक हो चुका है। जापान के ऊपर तो यह सकल घरेलू उत्पाद (जी डी पी) का 230 प्रतिशत तो ग्रीस के ऊपर 189 प्रतिशत है।
संकट के इतने वर्षों में विकसित देशों की विकास दर लगातार बीमार बनी हुई है। एकाध साल कुछ मामूली सुधार अगर किसी देश में होता है तो अगले वर्ष वह गायब हो जाता है। अमेरिका, जापान, यूरोपीय संघ सबकी हालत बुरी बनी हुई है। अब क्रमशः विकसित देशों की तर्ज पर ही ब्रिक्स देशों की विकास दर भी बीमार होती जा रही है। रूस, द0 अफ्रीका, ब्राजील की अर्थव्यवस्था पिछले वर्षों में खासी संकटग्रस्त हुई है।
अमेरिका से शुरू होकर इस संकट का केन्द्र शीघ्र ही यूरोप में केन्द्रित हो गया। आज भी सबसे अधिक संकटग्रस्तता यूरोप खासकर दक्षिणी यूरोप के देशों में है। ग्रीस में तो सरकार के पास अपना खर्च चलाने के लिए धन नहीं बचा। कड़ी शर्तो पर अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, यूरोपीय केन्द्रीय बैंक, विश्व बैंक की तिकड़ी के कई बार कर्ज के बावजूद स्थिति में कोई सुधार वहां नहीं हुआ। संकट के चलते स्थापित पार्टियों को पछाड़ कटौती कार्यक्रम के विरोध का वायदा कर सत्ता पर पहुंची सीरिजा तुरंत ही वायदे से मुकर गयी। स्पेन में भी आर्थिक संकट राजनैतिक संकट में तब्दील हो चुका है। यूनाइटेड किंगडम की जनता ने यूरोपीय संघ से अलग होने के पक्ष में मतदान कर यूरोपीय संघ की पूरी परियोजना को ही खतरे में डाल दिया।
कच्चे तेल की गिरती कीमतों व ओपेक देशों के बीच सहमति न बन पाने के चलते रूस, वेनेजुएला की अर्थव्यवस्था लुढ़कने की ओर बढ़ चलीं। इस वर्ष चीन के शेयर बाजारों में भारी गिरावट ने उसके भी संकट की जद में आने का मानो औपचारिक एलान कर दिया।
वित्तीय संस्थानों-पूंजीपतियों को बचाने के लिए बेलआउट के अलावा केन्द्रीय बैंकां खासकर अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने अपनी ब्याज पर खासी नीची कर दी थीं। पर जब पहले ही उत्पादित माल न बिक रहा हो तो भला उत्पादक क्षेत्र में नया निवेश कहां होता। ऐसे में उत्पादन-वितरण तो संकट में जस का तस पड़ा रहा पर अमेरिकी बैंकों से पूंजी निकाल वित्तीय संस्थान दुनिया भर के शेयर बाजारां में पैसा झोंकने से लेकर तरह-तरह की सट्टेबाजी में जुट गये। नतीजा यह हुआ कि वास्ताविक उत्पादन में बगैर किसी खास बढ़त के दुनिया भर के शेयर बाजार फिर कुलांचे भरने लगे। अमेरिका-भारत में तो ये संकट पूर्व के स्तर को भी पार कर गये। ऐसे में इस वर्ष कुछ अमेरिकी अर्थशास्त्री ब्याज दरों में कमी से स्थिति सुधार न होता देख अन्य उपायों की भी मांग करने लगे हैं।
संकट के हल होने के विश्व बैक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के पुर्वानुमान एक के बाद एक ध्वस्त होते चले गये हैं। अब पूंजीवादी अर्थशास्त्रियों को इस संकट से निजात का कोई रास्ता सूझ नहीं रहा है।
तात्कालिक तौर पर यह संकट अमेरिकी वित्तीय बाजार खासकर प्रतिभूति बाजार से शुरू हुआ। आवास संदर्भी सब प्राइम संकट के साथ इसने समस्त आवास बाजार व वित्तीय बाजार तक को अपनी चपेट में ले लिया। वित्तीय अर्थतंत्र के भीतर तरह-तरह की सटटेबाजी, प्रतिभूतियों का कारोबार सालों से चल रहा था, यह सब एक झटके के साथ ताश के महल की तरह भरभरा के गिर पड़ा। वित्तीय संस्थान एक के बाद एक दिवालिया होने लगे। वित्तीय बाजार के धराशायी होने का असर वास्तविक अर्थव्यवस्था पर भी पड़ा। 2008 में उत्पादन व्यापार में तेज गिरावट शुरू हो गयी। अमेरिका से शुरू होकर संकट ने बाकि विकसित अर्थव्यवस्थाओं को भी अपनी चपेट में ले लिया। वास्तव में अतिउत्पादन का संकट पहले से मौजूद था, वित्तीय बाजार की बढ़ती ने इसे छिपाया हुआ था। वित्तीय बाजार के ध्वस्त होने से उत्पादन का संकट खुल कर सामने आ गया।
यह संकट एक मायने में पिछले 3-4 दशकों से चली आ रही उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों का भी परिणाम था। 70 के दशक में आये ठहराव से निपटने के लिए दुनिया भर की साम्राज्यवादी-पूंजीवादी ताकतों ने कल्याणकारी राज्य पर हमला बोलना शुरू किया। 80 के दशक में रीगन-थैचर के साथ ये नई नीतियां तेजी से आगे बढ़ीं। पूंजी के घटते मुनाफे की भरपाई के लिए उसे दुनिया भर में विचरण की छूट के साथ मेहनतकशों की सुरक्षा में कटौती की जाने लगीं। जनता की आय को कम करके पूंजी का मुनाफा बढ़ाया गया। पर पूंजी के मुनाफे की भरपाई का यह रास्ता, बहुत दूर तक नहीं जा सकता था। जनता की आय में कटौती का असर शीघ्र ही मालों की बिक्री में गिरावट के रूप में सामने आने लगा। लाभकारी निवेश की जगहें खत्म होने लगीं। परिणामतः वित्तीय पूंजी सटटेबाजी की ओर बढ़ती गयी। सटटेबाजी के जरिये खड़ी समूची काल्पनिक संरचना कभी भी एक झटके से ध्वस्त हो सकती थी और वह 2007-08 में अमेरिका में ध्वस्त हो गयी। संकट शुरू हो जाने के बाद और तेजी से मेहनतकशों को नोच-खसोट कर पूंजी के गिरते मुनाफे की भरपाई करने का काम दुनिया भर की सरकारें कर रही हैं। यह सब वास्तविक उत्पादन-वितरण के संकट को और गहरा बनाने की ओर बढ़ा रहा है।
यह संकट पूंजीवाद के अंतरविरोधों के गहराने का भी परिणाम है। पूंजीवाद के दो बुनियादी अंतरविरोध हैं जिन्हें वह कभी हल नहीं कर सकता। पहला अंतरविरोध है सामाजिक उत्पादन और निजी मालिकाने के बीच। दूसरा, एक उद्यम के पैमाने पर योजनाबद्ध उत्पादन और पूरी अर्थव्यवस्था के पैमाने पर अराजकता के बीच। पूंजीवाद के विकास के साथ ये अंतरविरोध गहराते गये हैं और समय-समय पर ठहराव व संकटों को जन्म देते गये हैं।
आज उत्पादन का सामाजीकरण और वैश्विक पैमाने पर उत्पादन-वितरण की अराजकता दोनों बहुत ऊंचे स्तर पर पहुंच चुके हैं। यह सब वैश्विक पैमाने पर नियमन-संचालन की मांग करता है। पर साम्राज्यवादी आपसी दुश्मनी व तीखी प्रतिस्पर्धा के चलते नियमन का जो भी प्रयास करते हैं, वह शीघ्र ही ध्वस्त हो जाता है। ऐसे में वर्तमान संकट से निकलने का साम्राज्यवादियों को कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा है। अर्थव्यवस्था में राज्य का हस्तक्षेप बढ़ाने या कल्याणकारी राज्य की ओर वापसी के पहले आजमाये जा चुके नुस्खे भी अब बहुत कारगर नहीं होंगे।
संकट के इस लंबे खिचते जा रहे काल में दुनियाभर की सरकारें जहां पूंजी के गिरते मुनाफे की भरपाई में निर्लज्जता से खड़ी हैं वहीं मेहनतकश जनता की सुध लेने वाला कोई नहीं है। पूंजीवादी राज्य खुद ‘वर्गों से ऊपर’ होने के पर्दे को नोंच अपने आका पूंजीपतियों की खुली सेवा में नजर आ रहा है। संकट का सबसे अधिक खामियाजा मजदूर-मेहनतकश अवाम को उठाना पड़ा है। उत्पादन-वितरण के संकट ने छंटनी-बेकारी को तेजी से बढ़ाया है। पर मेहनतकश वर्गों की बदहाली में सरकारों ने नित नये-नये हमले बोल कोढ़ में खाज का काम किया है। सरकारें अपना बजट घाटा कम करने के नाम पर वेतन कटौती, पेंशन कटौती, शिक्षा-स्वास्थ्य मद में खर्च कटौती से लेकर श्रम कानूनों में पूंजीपरस्त बदलाव करने में जुटी हैं। निजी क्षेत्र के पूंजीपति भी अपने मजदूरों के ऊपर हमला बोले हुए हैं। यह सब अमेरिका-यूरोप से लेकर चीन-भारत सब जगह हो रहा है। संकट के इस काल में महंगी होती शिक्षा के साथ बढ़ती बेकारी ने दुनियाभर के युवाओं-छात्रों के भविष्य को अंधकारमय बना दिया है। कई देशों में युवाओं की एक तिहाई से लेकर आधी आबादी बेरोजगार है। वैसे तो मेहनतकशों पर निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण की पिछली 2-3 दशकों की नीतियों के जरिये पहले से ही हमला बोला जा रहा था पर संकट और उसके बाद किये नये हमलों ने उसकी कमर ही तोड़ दी है। पर ये हमले शासक आसानी से नहीं कर पा रहे हैं दुनिया के हर कोने में मेहनतकश जनता कदम दर कदम शासकों को जवाब दे रही है।
यह स्वाभाविक ही था कि अपने ऊपर हो रहे हमलों का, अपनी थाली से छीनी जा रही रोटी का मेहनतकश जनता प्रतिकार करती। दुनियाभर के पैमाने पर मजदूरों-मेहनतकशों के संघर्षों में संकट के बाद आया उफान इस बात को दिखा रहा है कि जनता की सहने की क्षमता चूकती जा रही है। खासकर वर्ष 2011-12 में तो पूरी दुनिया में विद्रोहों-विरोध प्रदर्शनों का तांता लग गया, जो कुछ ठहरे हुए रूप में अब भी जारी है और कभी भी एक झटके में फिर उग्र रूप सामने आ सकता है। दुनिया का प्रत्येक कोना आज ऐसे विस्फोटों की उर्वर जमीन बन चुका है।
वर्ष 2011-12 में ट्यूनीशिया में एक बेरोजगार युवक को नगरपालिका सिपाही द्वारा मारे गये थप्पड़ से समूचा अरब जगत सुलग उठा। ट्यूनीशिया से शुरु होकर विरोध प्रदर्शनों ने मिश्र, बहरीन, सीरिया, यमन समूचे अरब को अपने आगोश में ले लिया। ट्यूनीशिया और मिश्र में शासकों को अपनी गद्दी छोड़नी पड़ी। मिश्र के तहरीर चौक का जमावड़ा पूरी दुनिया में संघर्ष के रूप के बतौर दोहराया जाने लगा।
शीघ्र ही विरोध प्रदर्शनों की लहर इजराइल, यूरोप होते हुए अमेरिका तक जा पहुंची। हर जगह तहरीक चौक की तर्ज पर जमावड़े आयोजित होने लगे। यूरोप में ‘वास्तविक जनवाद’ की मांग करता इंडिग्नाडोस आंदोलन तो अमेरिका में आक्यूपाई आंदोलन वित्तीय पूंजीपतियों को सीधे निशाने पर लेता रहा।
अमेरिका में 2011 में मजदूरों द्वारा विंस्कोसिन में 3 सप्ताह तक विधानसभा पर कब्जा और यूरोप में कटौती कार्यक्रमों के विरोध में 2011-12 के संघर्षों में उग्र रूप ग्रहण कर लिया था। इसके बाद भी मजदूरों के ट्रेड यूनियन संघर्षों व कटौती कार्यक्रम विरोधी प्रदर्शन यूरोप में लगातार जारी रहे हैं। फ्रांस में तो सरकार आपातकाल लगा कर मजदूरों पर हमला बोलने पर मजबूर हुई है। तो कई देशों में तो टेक्नोक्रेट सरकारों द्वारा कटौती कार्यक्रम आगे बढ़ाया गया। दुनियाभर में मजदूरों-मेहनकतकशों के आक्रोश से निपटने के लिए फासीवादी तत्वों को बढ़ावा दिया जा रहा है।
संकट के बाद के इस काल में चिली, कोलम्बिया, कनाडा के छात्रों के संघर्षों ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज करायी तो पेरू, द0 अफ्रीका के खनन मजदूरों के संघर्ष भी उल्लेखनीय रहे। संघर्षों का यह सिलसिला उतार-चढ़ाव के साथ अभी भी जारी है और कभी भी विस्फोटक रूप में सामने आ सरकारों के होश उड़ा सकता है।
जब विरोध प्रदर्शन अरब जगत में शुरु हुए तो दुनिया भर के साम्राज्यवादियों ने घोषित किया कि ये संघर्ष तानाशाहियों के खिलाफ जनवाद के लिए संघर्ष हैं। पर जब यह फैलते हुए यूरोप अमेरिका में दस्तक देने लगा तो यह स्पष्ट होता गया कि इन संघर्षों के पीछे पिछले 2-3 दशकों की उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों के हमलों से परेशानहाल जनता है। इनके पीछे जनता की वह बदहाली है जो इन नीतियों के साथ मौजूदा संकट व उसके बाद के सरकारी हमलों ने पैदा की है। चूंकि ये नीतियां पूरी दुनिया में लागू हुई हैं और संकट पूरी दुनिया में फैलता गया है। इसलिए जनता का आक्रोश दुनिया के किसी भी कोने में फूट सकता है।
इन संघर्षों की कुछ विशेषताएं गौर करने लायक हैं। इन संघर्षों में बडे़ पैमाने पर मजदूरां-मेहनतकशों ने भाग लिया पर इनका नेतृत्व ट्रेड यूनियनों या मजदूरों की पार्टी कही जाने वाली स्थापित पार्टियों के हाथों में नहीं था। अक्सर ही ये संघर्ष ट्रेड यूनियन नेतृत्व व पार्टी नेतृत्व को नकार कर स्वतः स्फूर्त ढंग से आगे बढ़े। ट्रेड यूनियनें व संशोधनवादी पार्टियां इनके पीछे घिसटने को मजबूर हुईं। इन संघर्षों में बड़े पैमाने पर गैर सरकारी संगठन व अराजकतावादी सक्रिय रहे। इन संघर्षों में बिखरे हुए कम्युनिस्ट ग्रुप भी सक्रिय थे पर वे अधिकांश जगह हाशिये पर रहे। रूप के तौर पर इन संघर्षों ने जमावड़े की जनगोलबंदी का रूप अख्तियार किया।
इन संघर्षों की उपरोक्त विशेषताओं के चलते ही शासक वर्ग अभी तक इन्हें व्यवस्था के दायरे में समेटने में सफल रहा है। संघर्षों ने दिखाया कि क्रांति का रास्ता त्याग चुकी संशोधनवादी पार्टियां-संशोधनवादी ट्रेड यूनियनों पर मजदूरों-मेहनतकशों का विश्वास उठ रहा है। पूंजी के साथ उनके गठजोड़ या संघर्ष के पुराने तौर-तरीकों से जनता इनसे परेशान हो चुकी है। जनता का विश्वास इन पार्टियों से उठने के बावजूद क्रांतिकारी ताकतें अभी इनकी जगह लेने लायक परिपक्व व एकजुट नहीं हुई हैं। नेतृत्व के इस अभाव की हालत में शासकों द्वारा खड़े किये गये गैरसरकारी संगठनों को इन संघर्षों में जगह बनाने का रास्ता मिला हुआ है। जिनके सहारे शासक बगैर किसी वास्तविक बदलाव के इन संघर्षों को थामने में सफल हो रहे हैं। पर शासकों की यह सफलता बहुत देर तक जारी नहीं रह सकती। आने वाले वक्त में संकट गहराने के साथ पैदा होने वाले जनसंघर्ष और व्यापक रूप ग्रहण करेंगे। अरब जगत के विद्रोह इन नये संघर्षों के सामने बौने नजर आयेंगे। वर्ग संघर्ष के ये व्यापक उभार सही दिशा में आगे बढ़ते हुए गैर सरकारी संगठनों के तानेबाने को रोंदकर वास्तविक बदलाव की दिशा में आगे बढ़ जायेंगे। दुनियाभर के शासक जहां अभी तक की अपनी सफलता पर संतुष्ट हैं पर संकट का लगातार गहराना उन्हें भविष्य की ऊंचे संघर्षों की संभावना से भयभीत कर रहा है।
क्रांति की संभावना को रोकने के लिए शासकों ने तमाम इंतजाम-हथकंडे अतीत में अपनाये थे और आज भी अपना रहे हैं। इसमें सर्वप्रमुख है मजदूर वर्ग की विचारधारा मार्क्सवाद को बदनाम करना। सोवियत संघ के विघटन के बाद 90 के दशक में पूंजीवादी टुकड़खोर बुद्धिजीवी तरह-तरह से घोषित करने लगे कि दुनिया में साम्यवाद और इसलिए मार्क्सवाद विफल हो गया है। इसी के साथ ‘इतिहास के अंत’ की घोषणाएं की जाने लगीं। मार्क्सवाद को बदनाम कर उत्तर आधुनिक विचारधारा को पाला-पोसा गया जो घोषित करती थी कि अब मार्क्सवाद सरीखी मुक्ति की संपूर्ण परियोजना की कोई आवश्यकता नहीं रह गयी है। कि अब जाति संघर्ष, लैंगिक बराबरी का संघर्ष, राष्ट्रीयता का संघर्ष, वर्ग संघर्ष, पर्यावरण का संघर्ष सब एक दूसरे से स्वतंत्र चल सकते हैं। इस सब का उद्देश्य मजदूर वर्ग को उसके क्रांतिकारी आंदोलन से भटकाना था। पहचान के भांति-भाति के संघर्षों में लोगों को समेट कर वास्तविक बदलाव अर्थात क्रांति की ओर उन्हें बढ़ने से रोकना था।
क्रांति की रोकने के लिए ही शासकों ने जनता के आक्रोश को अपने दायरे में समेटने के लिए गैर सरकारी संगठनों की एक पूरी श्रंखला खड़ी की गयी। लाखों-लाख गैरसरकारी संगठनों को जाल की तरह पूरे समाज में फैला दिया गया।
इसी के साथ क्रांति की राह छोड़ चुके संशोधनवादी-सुधारवादी संगठनों को शासकों द्वारा प्रश्रय दिया गया। ये संगठन क्रांति को दूर की बात मान जनता को महज आर्थिक या सुधार के संघर्षों में उलझाये रहते हैं। या फिर पूंजीवादी चुनावों के जरिये ही समाजवाद लाने का झूठा स्वप्न खड़ा करते हैं। शासकों ने इन्हें एक सुरक्षा पंक्ति के रूप में अपनाया हुआ है। मूलतः ये पूंजीवाद की ज्यादा सूक्ष्म तरीके से रक्षा करते हैं।
जनता के संघर्षों के बढ़ने के साथ ही पूरी दुनिया में फासीवादी संगठनों की बढ़त दिखाई दे रही है। दक्षिणपंथी रुझान के तत्व समाज में आधार बढ़ा रहे हैं। यह बढ़त भारत-जर्मनी से लेकर अमेरिका सब जगह दिखाई दे रही है। पिछली सदी में फासीवाद ने वित्त पूंजी की नग्न तानाशाही के रूप में सेवा कर जनता को गहरे जख्म दिये थे। नयी सदी में हिटलर के वारिस एक बार फिर नये घाव देने की तैयारी में हैं। शासक वर्ग कम या ज्यादा इनकी बढ़त को शह दे रहा है। मोदी से लेकर ट्रम्प की जीत इसी की बानगी है।
शासकों की ये सारी तैयारी पूंजीवाद को बचाने, क्रांति से उसकी रक्षा के लिए हैं। शासक इस गलतफहमी में जीते हैं कि इन तैयारियों से वे इतिहास के रथ को रोक देंगे। पर जैसा की हर संकट के काल में होता है वह इस संकट के दौरान भी हो रहा है कि शासकों का अपनी तैयारियों पर भरोसा टूट रहा है। क्रांति का भूत उन्हें सताने लगा है।
इस संकट के एक ऐसे क्रांतिकारी संकट में तब्दील हो जाने की पूरी संभावना है जिसमें मजदूर-मेहनतकश आबादी क्रांति कर समाजवाद ला संकट का स्थायी समाधान कर दे।
पूंजीवादी बुद्धिजीवी संकट को हल न होता देख अब तरह-तरह के नुस्खे पेश कर रहे हैं। कोई कह रहा है कि अब धीमी विकास दर का पूंजीवाद ही लंबे समय तक चलेगा तो कुछ कल्याणकारी राज्य की ओर वापसी की मांग कर रहे हैं। पर अभी पूंजीपति वर्ग उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों पर ही आगे बढ़ संकट को और गहराने का इंतजाम कर रहा है। आने वाले वक्त में जनसंघर्षों का तूफान इन नीतियों से कदम पीछे खींचने पर शासकों को मजबूर कर सकता है। साथ ही संघर्षों को कुचलने के लिए फासीवाद का दानव फिर खड़ा हो सकता है।
दरअसल पूंजीवादी अर्थशास्त्रियों के सारे नुस्खे संकट को थामने में विशेष कारगर नहीं रह गये हैं। पूंजीवादी संकटों का एक ही स्थाई समाधान है और वो है क्रांति द्वारा समाजवाद की स्थापना। वैसी ही क्रांति जैसी अक्टूबर क्रांति थी।
ब. गहराता पूंजीवादी संकट और क्रांति का प्रश्न
पूंजीवादी व्यवस्था अपने आंतरिक अन्तरविरोधां के चलते बार-बार संकटों में फंसने को अभिशप्त है। हर संकट इस बात को सामने लाता है कि क्यों पूंजीवादी व्यवस्था एक मुकम्मल आदर्श व्यवस्था नहीं है जैसा कि पूंजीपति वर्ग दावा करता है। पुराने जमाने में भी जनता संकटों से जूझती रही है। अकालों में बड़े पैमाने पर मरती रही है पर तब के संकट उत्पादन कमी या प्राकृतिक कारणों या युद्धां आदि के चलते आते थे। पर पूंजीवादी आर्थिक संकट उत्पादन में कमी का नहीं बल्कि इसके उलट अतिउत्पादन का संकट होता है। यहां बाजार मालों से पटा होता है पर जनता क्रयशक्ति न होने के चलते भूखे मरने को मजबूर होती है। यहां एक ओर निर्लज्ज अमीरी होती है तो दूसरी ओर बेतहाशा गरीबी। पूंजीवादी संकट के वक्त ये सच्चाईयां खुल कर सामने आ जाती हैं। इसके साथ ही खुलकर सामने आता है राज्य का वास्तविक रूप कि कैसे वो पूंजीपति वर्ग द्वारा मजदूर-मेहनतकश वर्ग के शोषण का एक औजार मात्र है। ये सब बातें बारम्बार चीख कर इस बात की मांग करती हैं कि पूंजीवादी व्यवस्था का नाश कर एक अधिक न्यायपूर्ण व्यवस्था कायम की जाय।
1848 में कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणापत्र के साथ इस नयी व्यवस्था की मुकम्मल वैज्ञानिक समझदारी मजदूर-मेहनतकशों के सामने आयी। साथ ही यह तथ्य भी सामने आया कि मजदूर वर्ग ही वह क्रांतिकारी वर्ग है जो क्रांति का नेतृत्व कर पूंजीवाद का नाश और समाजवाद की स्थापना करेगा। मजदूर वर्ग के महान शिक्षकों मार्क्स व एंगेल्स ने पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजीपति वर्ग द्वारा मजदूरों के शोषण की समूची प्रक्रिया को उद्घाटित कर सिद्ध किया कि क्यों पूंजीवादी समाज अंतिम वर्गीय समाज है कि क्यों इसके बाद इतिहास का पहिया समानता वाले समाज की ओर बढ़ चलेगा। वे यह तथ्य भी क्रमशः सामने लाये कि क्यों मजदूर वर्ग समाजवाद की स्थापना के लिए पूंजीवादी मशीनरी का इस्तेमाल नहीं कर सकता कि उसे इस मशीनरी को ध्वस्त कर समाजवाद की नयी मशीनरी का निर्माण करना होगा।
मार्क्सवाद की इन शिक्षाओं को 1873 के पेरिस कम्यून के शौर्यपूर्ण परंतु असफल प्रयोग ने पुष्ट किया।
पूंजीवादी संकटों और क्रांतियों का आपस में गहरा रिश्ता है। क्रांतिकारी परिस्थितियों और क्रांति को जन्म देने के लिए पूंजीवादी संकट, तीखा और आम संकट होना जरूरी है। इस संकट के अभाव में क्रांति नहीं हो सकती। राजनैतिक सामाजिक सामरिक कारण मिलकर किसी तीखे पूंजीवादी संकट को क्रांतिकारी संकट में तब्दील करते हैं।
जैसे हर आर्थिक संकट क्रांतिकारी संकट में तब्दील नहीं होते वैसे ही हर क्रांतिकारी संकट, क्रांतिकारी परिस्थिति में तब तक क्रांति नहीं होती जब तक क्रांति को अंजाम तक पहुंचाने वाली क्रांतिकारी शक्तियां मुकम्मल रूप से तैयार नहीं होती।
अगर संकट अत्यधिक तीखा हो पर तब भी किन्हीं वजहों से क्रांति न हो तो समाज को न केवल भारी तबाही झेलनी पड़ती है बल्कि फासीवाद सरीखी बर्बरता भी झेलनी पड़ सकती है।
1914-1945 के पूंजीवाद के अब तक के सबसे तीखे संकट के दौरान ही रूस के मजदूरों ने 7 नवंबर 1917(पुराने कैलेण्डर के अनुसार 25 अक्टूबर) को समाजवादी अक्टूबर क्रांति को संपन्न कर मानवता को नयी मंजिल में प्रवेश कराया। इस क्रांति के बाद निर्मित समाजवादी समाज ने व्यवहार में इस बात को पुष्ट किया कि पूंजीवादी संकटों से स्थायी मुक्ति समाजवाद ही दिला सकता है। खासकर 30 के दशक में जब पूरी दुनिया मंदी का शिकार थी तब सोवियत संघ का तेज विकास हर किसी को प्रभावित किये बगैर नहीं छोड़ता था।
महान सर्वहारा नेता लेनिन और बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में संपन्न हुई इस क्रांति को संपन्न हुए एक सदी बीत चुकी है। इस क्रांति द्वारा स्थापित समाजवादी समाज भी खत्म हो चुका है फिर भी इस क्रांति का प्रभाव पिछली पूरी सदी के इतिहास पर साफ तौर पर देखा जा सकता है। इस क्रांति से निर्मित सोवियत समाज के सहयोग-समर्थन से ही बीसवीं सदी के मध्य तक दुनिया वहां पहुंच गयी जहां एक तिहाई दुनिया पूंजीवादी-साम्राज्यवादी तानेबाने को तोड़कर समाजवादी खेमे का निर्माण कर सकी। सोवियत समाजवाद के सहयोग-समर्थन से राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों का तूफान खड़ा हो सका, जिससे ढेर सारे देश साम्राज्यवादियों की प्रत्यक्ष गुलामी से मुक्ति की ओर बढ़ सके। सोवियत समाज की भारी कुर्बानी और संघर्षशीलता के दम पर ही फासीवाद को पिछली सदी में शिकस्त दी जा सकी। सोवियत समाजवाद के दबाव ने एक कारक के बतौर पूंजीवादी शासकों को कल्याणकारी राज्य खड़ा कर क्रांति टालने का प्रयास करने को मजबूर होना पड़ा।
इसीलिए अक्टूबर क्रांति को अगर पिछली सदी के इतिहास से निकाल दिया जाय तो दुनिया वैसी नहीं रह जायेगी जैसी आज है। अक्टूबर क्रांति को कुछ इतिहासकार अगर बीसवीं सदी की सबसे महत्वपूर्ण घटना, 1789 की फ्रांसीसी क्रांति से अधिक वैश्विक प्रभाव छोड़ने वाली करार देते हैं तो वे ठीक ही कहते हैं।
अक्टूबर क्रांति ने मार्क्सवादी विचारधारा को विकसित कर मार्क्सवाद-लेनिनवाद के स्तर तक पहुंचाया। इस क्रांति के द्वारा निर्मित समाज में 1956 में पूंजीवादी पुनर्स्थापना ने भी दुनिया भर के क्रांतिकारियां को पुनर्स्थापना के खतरे व इससे बचने के उपाय के बतौर महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रांति की ओर बढ़ने में मदद की। इस सबसे मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओ विचारधारा के स्तर पर क्रांति की विचारधारा पहुंच सकी। आज के क्रांतिकारी इसी पर आधारित कर ही क्रांति की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं।
अक्टूबर क्रांति पर बुर्जआ और संशोधनवादी दोनों हमला बोलने का प्रयास करते रहे हैं। जहां बुर्जआ सोवियत समाजवाद के ढहने, मार्क्सवाद की विफलता, स्तालिन को तानाशाह के बतौर पेश करने, समाजवाद में जनवाद के खात्मे सरीखी अनर्गल बातें करता रहा है वहीं संशोधनवादी अलग-अलग तरीके से इस क्रांति की जय बोलते हुए भी इस क्रांति को व इसकी विचारधारा को निशाना बनाते रहे हैं। कुछ के लिए लेनिन-स्तालिन के काल और खु्रश्चेव-ब्रेझनेव के काल में कोई फर्क नहीं है वे गोर्बाचोव तक के सोवियत समाज को समाजवाद घोषित करते रहे हैं तो कुछ के लिए चीन में आज भी समाजवाद है। कुछ तीन दुनिया के देंग के सिद्धान्त को मानते हैं तो कुछ खु्रश्चेव के वर्ग सहयोगी सिद्धान्त को। इससे आगे कुछ ने माओ विचारधारा को मानने से ही इंकार कर दिया है। कुछ महज हौजा-स्तालिन का झण्डा थामे माओ को संशोधनवादी घोषित करते रहे हैं। त्रात्स्की के अनुयाई तो पूरी दुनिया में फैले हुए हैं जो स्तालिन को कोसने का कोई मौका नहीं छोड़ते।
ऐसे में मार्क्सवादी विचारधारा व अक्टूबर क्रांति की रक्षा में मजबूती से खड़े होकर बुर्जआ-संशोधनवादी व क्रांतिकारी हलकों से उठ रहे प्रश्नां का जवाब देना जरूरी है। सबसे मजबूती से स्तालिन की एक महान सर्वहारा नेता के रूप में रक्षा की जानी जरूरी है। उनकी गलतियों के मामले में माओ द्वारा प्रस्तुत मूल्यांकन पर खड़ा होना जरूरी है। घोषित किया जाना जरूरी है कि कम्युनिस्ट आंदोलन का नये सिरे से पुनर्मुल्यांकन तभी हो सकता है जब इसके लायक वर्ग संघर्ष में तपी पार्टियां व इण्टरनेशनल खड़ा हो जाये।
अक्टूबर क्रांति के साथ शुरु हुई समाजवादी क्रांतियों की पहली श्रंखला चीन में पूंजीवादी पुनर्स्थापना के साथ समाप्त हो गयी है। अब 21 सदी में समाजवादी क्रांतियों की नयी श्रंखला आरंभ होगी। इस सदी की क्रांतियां पिछली सदी की क्रांतियों से कहीं अधिक वैश्विक प्रभाव वाली व कहीं अधिक टिकाऊ होंगी।
पिछली सदी में विकासक्रम के बाद दुनिया वहां पहुंच गयी है जहां पूंजीवाद, साम्राज्यवाद के तहत एक एकीकृत विश्व पूंजीवादी व्यवस्था के तहत काम कर रहा है। अर्थात दुनिया के अधिकांश देश न केवल पूंजीवादी उत्पादन संबंधों में जी रहे हैं बल्कि वे साम्राज्यवाद की गुलामी के औपनिवेशिक-अर्द्धऔपनिवेशिक, नव औपनिवेशिक रूप से मुक्ति पा चुके हैं। आज दुनिया के पिछड़े मुल्क साम्राज्यवाद के साथ आर्थिक नव औपनिवेशिक संबंधों में बंधे हैं। इसीलिए समाजवादी क्रांति विकसित ही नहीं पिछड़े देशों के एजेण्डे पर भी आ चुकी है। इन देशों में जनवादी क्रांति के बचे-खुचे कार्यभार यह समाजवादी क्रांति ही पूरा करेगी।
अक्टूबर क्रांति द्वारा निर्मित समाजवाद ने मजदूरों, नौजवानों, महिलाओं, किसानों, उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं के जीवन में जिन परिवर्तनों को पैदा किया वो आज भी पूंजीवादी दुनिया के लोगों को आश्चर्यचकित कर देता है। एक पिछड़ा देश महज तीस वर्षों में एक विकसित देश में तब्दील हो गया। यह बात पूंजीवादी अर्थशास्त्रियां को चकित करती है। निश्चय ही सोवियत समाजवाद में बेहतर जीवन आज भी दुनिया भर के मेहनतकशों को बेहतर भविष्य की राह दिखलाता है।
समाजवादी क्रांतियों की पहली श्रंखला के खात्मे के पश्चात हताश हुए कुछ लोग लैटिन अमेरिकी देशों में अमेरिकी साम्राज्यवाद विरोधी सुधारवादियों के सत्ताशीन होने पर उसे भी समाजवाद घोषित करने लगे थे तो कुछ मौजूदा संकट के काल में ग्रीस में सीरिजा की जीत से उम्मीदें पालने लगे थे। वक्त ने आज दिखा दिया है कि ये ताकतें पूंजीवादी दायरे में सुधार की कुछ कार्यवाहियां ही करने की मंशा रखती थीं। संकट गहराने के साथ पूंजीपतियों को ये सुधार भी अब बर्दाश्त नहीं हैं। इसीलिए इन पार्टियों को पूंजीवादी दायरे में निर्लज्जता से पूंजीवादी नीतियों को आगे बढ़ाने वाली पार्टियों में तब्दील होना पड़ा है। वैसे भी निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण के जमाने में जनता के पक्ष में सुधारां की गुंजाइश खत्म हो चुकी है।
इस संकट के गहराने के साथ इस बात की संभावना मौजूद है कि पूंजीवादी शासक कम्युनिस्ट नामधारी सुधारवादी पार्टियों को सत्ता सौंप क्रांति को रोकने का प्रयास करें। आखिर एक सुरक्षा पंक्ति के बतौर इन्हें शासकों के यूं ही नहीं पाला है।
अगर हम अपने देश भारत में आज के हालातों पर नजर डालें तो हम पायेंगे कि अर्थव्यवस्था का संकट यहां भी सरकार के दावों को झुठला कर घनीभूत होता जा रहा है। शासक श्रमकानूनों में बदलाव, ठेकाकरण, स्थाई रोजगार खत्म करने सरीखे ढेरों हमले मजदूरों पर थोपने को लगातार प्रयासरत है। मजदूर वर्ग इन हमलों का जवाब भी दे रहा है पर अभी भी मजदूरां का बड़ा हिस्सा संशोधनवादी पार्टियों या बुर्जआ के झण्डे तले लामबंद है।
राजनीति में फासीवादी पार्टी भाजपा को सत्ता सौंप पूंजीपति वर्ग ने संघर्षों को कुचलने, मेहनतकशों के और बुरे दिनों का इंतजाम पहले ही कर लिया है। ये फासीवादी संगठन भी आज मजदूरों-मेहनतकशों-युवाओं-महिलाआें के एक हिस्से को अपने झण्डे तले लामबंद करने में भी सफल हैं। ये कूपमण्डूकता, नारी विरोधी, सांप्रदायिक प्रचार से प्रतिक्रियावाद में पूरे देश को डुबो देने को उतारू हैं।
ऐसे माहौल में मजदूरों-मेहनतकशों का जीवन लगातार कष्टमय होता जा रहा है। बढ़ती महंगाई के साथ-साथ वे गिरते वेतन, छंटनी, बेकारी की मार भी झेल रहे हैं। किसान बड़े पैमाने पर आत्महत्या कर रहे हैं। छात्रों-युवाओं का भविष्य अंधकारमय बना हुआ है। महिलाओं का जीवन फासीवादी पार्टी के शासन में और कष्टमय होता गया है। ऐसे में समाज के मेहनतकशों के जीवन में कोई भी सुधार बगैर क्रांति के संभव नहीं है।
समाज में मेहनतकश जनता के हालातों की बेहतरी के लिए संघर्ष करने वाले पेटी बुर्जआ संगठन भी मौजूद हैं। एनजीओ और ऐसे पेटी बुर्जआ संगठन पूंजीवादी दायरे में लोगों के हित बचाने की झूठी आशा पेश करते हैं।
अगर किसी भी मेहनतकश वर्ग मजदूरों, किसानों, छात्रों के जीवन को देख लें तो इनके जीवन की आज की बदहाली पूंजीवाद के आम विकास के साथ पिछले दो दशकों की उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों की पैदाइश है। ऐसे में इनके जीवन में थोड़ा भी सुधार करने वाले को इन नीतियों को पलटने की मांग करना जरूरी है। पर क्या शासक वर्ग इन नीतियों को छोड़ने को तैयार है। नहीं। इसीलिए पूंजीवादी दायरे में जनता के जीवन में सुधार के सभी विकल्प आज सीमित होते चले गये हैं। केवल क्रांति ही एकमात्र विकल्प है जो एक झटके से इन नीतियों को पलटने के साथ-साथ सभी मेहनतकश वर्गों के जीवन में बेहतरी ला सकती है। क्रांति के अलावा और कोई राह नहीं है।
इसीलिए गहराते पूंजीवादी संकट के इस मौके पर दुनिया भर की जनता क्रांति चाहती है। अक्टूबर क्रांति सरीखी समाजवादी क्रांति ही जनता की दुख तकलीफों का अंत कर सकती है। छात्रों-युवाओं को बेहतर भविष्य-रोजगार की गारण्टी कर सकती है। महिलाओं को पुरुषों से पूर्ण बराबरी, सामंती-साम्राज्यवादी बंधनों से मुक्ति प्रदान कर सकती है। उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं को आत्मनिर्णय का अधिकार दे सकती है।
अक्टूबर क्रांति की शतवार्षिकी के इस मौके पर क्रांतिकारी संगठनों को अपने-अपने देशों में क्रांति के लिए जनता को गोलबंद करने के प्रयासों को दुगना-चौगुना करने की जरूरत है। क्रांतिकारी विचारधारा को समाज में व्यापक रूप से प्रचारित करने की जरूरत है। संशोधनवादियां के झण्डे से मेहनतकश जनता को अपने पाले में खींच लाने की जरूरत है। जरूरत है कि बुर्जआ संशोधनवादियों के हमलों से अक्टूबर क्रांति, इसके नेताओं व क्रांतिकारी विचारधारा की रक्षा की जाय। अपने-अपने देशों में वर्ग संघर्ष को तेज कर आगे बढ़ा जाय। अपने-अपने देशों में क्रांतिकारी पार्टी का गठन किया जाय।
दुनिया भर के शासकों के चेहरों पर संकट के न थमने से हवाइयां उड़ रहीं हैं। ऐसे में यह संकट क्रांतिकारी संकट में बदलने की संभावना लिए हुए है। ऐसा होने पर अपने देश में क्रांति को आगे बढ़ा हमें खुद को अक्टूबर क्रांति का सच्चा वारिस साबित करना होगा। पूंजीवाद की हार और समाजवाद की जीत दोनों निश्चित हैं।
क्रांतिकारी अभिवादन के साथ
(इंकलाबी मजदूर केन्द्र, परिवर्तनकामी छात्र संगठन, क्रांतिकारी लोकअधिकार संगठन, प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र)
संघी फासीवादियों के बढ़ते जनवाद विरोधी कदमों के विरोध में आगे आओ
संघी फासीवादी अब फिर आक्रामक होने लगे हैं वह गुंडागर्दी की एक से बढ़ाकर एक मिसालें कायम कर रहे हैं समाज में मज़दूर मेहनतकश अवाम व जनवाद के पक्ष में अन्याय के विरोध में आवाज उठाने वाली ताकतों पर वह दहशत कायम कर देना चाहते हैं। मद्रास में पेरियार स्टडी ग्रुप फिर हैदराबाद में अम्बेडकर स्टूडेंट एसोसिएसन अब ख्याति प्राप्त जे एन यू कालेज में छात्र संघ पर हमला।
पिछले कुछ महीनों से भाजपा समर्थक पूंजीवादी प्रचार माध्यम लगातार प्रचार कर रहे थे कि जे एन यू देशद्रोहियों का अड्डा बना हुआ है। उनका निशाना खास तौर पर वामपंथी छात्र संगठन बने हुए थे जिनमें से तीन एस एफ आई, ए आई एस एफ और आइसा क्रमशः माकपा, भाकपा ओर भाकपा (माले) लिबरेशन से जुड़े हुए हैं। इनके अलावा कुछ क्रांतिकारी छात्र संगठन भी हैं। छात्र संघ में एक लम्बे समय से उपरोक्त तीन छात्र संगठनों का ही कब्जा रहा है। हालांकि ये तीनों सरकारी वामपंथी पाट्रियों से जुड़े व्यवस्था परस्त छात्र संगठन हैं तब भी सत्ता के नशे में चूर संघियों को इनका भी वामपंथ बर्दाश्त नहीं हो रहा है। खासकर इनकी साम्प्रदायिकता विरोधी गतिविधियां हिन्दू साम्प्रदायिक संघियों को बहुत परेशान करती हैं। इसी लिए संघ ने इस पर हमला किया। बहाना लिया देश विरोधी नारे लगाने के--- अफजल की फांसी के विरोध में नारेबाजी का , पाकिस्तान ज़िन्दाबाद कहने का कश्मीर की आज़ादी के नारे का आदि।
कुलमिलाकर थीएम सब जगह एक ही है। देशभक्ति का लाइसेंस का ठेका अम्बानी अडानी टाटा जैसों ने संघ भाजपा व ए बी वी पी को सत्ता पर बिठाकर दे दिया है।
जो लोग भी फासीवादी संघ के देश भक्ति के सांचे में नहीं ढलते उसे देश द्रोह घोषित कर दिया जाता है। ब्रिटिश शासकों के तलवे चाटने वाला संघ परिवार आज ओबामा, शिंजो अबे व ओलांद के चरणों में लोट पॉट हो रहा है। यही उसकी देश भक्ति है एक तरफ है अम्बानी अडानी टाटा एस्सार मित्तल जैसोन की चरण बंदना तो दूसरी तरफ ओबामा से लेकर ओलांद तक , फेहरिस्त लम्बी है। यही इनका बंन्दे मातरम हैं। यही इनका जय हिन्द है।
अब इनके घृणित हौसले इस कदर बढ़ चुके हैं क़ि ये न्यायालय परिसर के भीतर हमला करते हैं। गोली मार देने तक की बात करते हैं , लगातार हमला दर हमला कर रहे हैं। न्यायालय की अवमानना करते हुए न्याय के मत्स्य सिद्धांत को लागू करना फासिस्टों की फितरत है। संघी चाहते हैं कि उनका छात्र संगठन ए बी वी पी हर शिक्षा परिसर में काबिज हो जाये। वे सत्ता का इस्तेमाल कर रहे हैं। उन्हें उम्मीद है कि वे इसके जरिये अपने हिन्दू राष्ट्र के लक्ष्य की ओर बढ़ सकते हैं।
इस घटना ने एक हद तक संघ के राष्ट्रवाद को काफी हद तक बेनकाब किया है। संघ के दोगले चरित्र को बेनकाब किया है। जे एन यु में अफजल के समर्थन में नारे लगाने वाले के लिए देश द्रोही है तो दूसरी ओर कश्मीर में अफजल गुरु को शहीद बताने वाली पी डी पी के साथ सरकार बना चुकी है यह संघ परिवार के लिए राज्य के सन्दर्भ में किया गया प्रैग्मेटिक फैसला है , आत्मसात किये जाने का मामला है। वाह !! क्या अवसरवादी फासीवादी तर्क है। फासीवादी संघ घोर अवसरवादी है यह भी साबित हो गया।
रोहित वेमूला की आत्महत्या के लिए जिम्मेवार लोगों को सजा दो
हैदराबाद विश्वविद्यालय के एक छात्र रोहित वेमूला साम्प्रदायिक फासीवादी ताकतों एवं मानव संसाधन मंत्रालय के दबाव में आत्महत्या करने को मजबूर होना पड़ा। दरअसल यह आत्महत्या नहीं बल्कि फ़ासीवादी ताकतों द्वारा पैदा की गयी परिस्थितियों का नतीजा थी। स्पष्टत यह संघी ताकतों द्वारा की जाने वाली ह्त्या थी।
अम्बेडकर स्टूडेंट एसोसिएसन के बैनर तले छात्त्रों ने संघी ताकतों पर सवाल खड़े किये । मुजफ्फरनगर २०१३ के दंगों पर बनी फिल्म 'मुजफ्फरनगर अभी बाकी है' फिल्म के समर्थन में ये छात्र आवाज उठा रहे थे। इस फिल्म के प्रदर्शन में संघीय गुंड़ा वाहिनी ने तमाम जगहों पर उपद्रव किया था। यही नहीं ये छात्र आतंकवाद के नाम पर मुसलमानों को फ़साने व उन्हें फ़ांसी देने पर सवाल खड़े कर रहे थे।
यही वो वजह थी जन्हा संघी छात्र संगठन ने उन्हें देश द्रोही के रूप में दुष्प्रचारित किया। मारपीट की
फर्जी ऍफ़ आई आर भी कराई गयी। बात न बनने पर अपनी सरकार की मदद से मानव संसाधन मंत्रालय के जरिये इन छात्रों को कॉलेज से निलंबित करवा दिया गया। इस निलंबन के विरोध में छात्र लम्बे समय से धरने पर बैठे थे। देशद्रोही निरंतर दुष्प्रचार तथा मांगों के अनसुनी होने की स्थिति में रोहित को आत्महत्या का कदम उठाना पड़ा।
दरअसल फासीवादी संघ अपने एक देश एक भाषा एक संस्कृति को पूरे देश पर थोप देना चाहता है और वह लगातार इसके लिए हर मुमकिन कोशिश कर रहा है। रहन सहन , खान पान , आदिन के नाम पर वह अपने घृणित एजंडे को लगातार आगे बढ़ा रहा है। आज देश में हर किस्म की असहमति को देश द्रोह साबित करने की कोशिशें संघी ताकतें कर रही हैं। जनवादी चेतना व जनवादी अधिकारों पर वह लगातार हर मुद्दे के जरिये हमला कर रहे हैं।
सही मायने में संघी फासीवादी ताकतों व कॉर्पोरेट घरानों का घृणित गठजोड़ आज भारत को लगातार उस दिशा में धकेल रहा है जहां पूंजीवादी जनवाद का सीमित दायरा भी ख़त्म हो जाये . नंगी तानाशाही स्थापित हो जाए। नए अार्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने व मेहनतकश जनता के अपने शोषण उत्पीड़न व अन्याय के विरोध में उठती आवाज को इसी ढंग से नियत्रिंत किये जाने की जरूरत के चलते ही यह घृणित गठजोड़ कायम हुआ है।
अब वक्त है संघी ताकतों के हर कदम का जवाब दिया जाय व पूूंजीवाद के विरोध में संघर्ष विकसित किया जाय।
अंततः बाबरी मस्जिद वाली कथित विवादित
जमीन का मालिकाना न्यायालय ने हिन्दू पक्ष को देने के सम्बन्ध में अपना फैसला सार्वजनिक किया। 9 नवम्बर का दिन इस प्रकार फ़ासीवादियों के आगे न्यायिक संस्था के समर्पण का ऐतिहासिक दिन भी बन गया। यह फैसला अप्रत्याशित नहीं था पिछले साल भर से न्यायिक संस्था के रुख से यह साफ होने लगा था कि फैसला तथ्यों, तर्कों व संवैधानिक प्रावधानों के आधार पर नहीं बल्कि यह आस्था के आधार पर होगा।
न्यायालय द्वारा यह माना गया कि बाबरी मस्जिद ध्वंस होना ग़ैरकानूनी था गलत था इसी प्रकार यह भी कि 1949 में मस्जिद परिसर में मूर्तियां रखना गलत था, यह भी कहा गया कि मस्जिद के नीचे कुछ तो था मगर वहां मंदिर नहीं था और मस्जिद 16 वी सदी से बनी हुई थी। यह कहा गया कि अयोध्या में राम के जन्म को सभी हिन्दू मानते हैं यहां उनकी आस्था है हालांकि कोर्ट आस्था से नहीं चलता। मगर फिर फैसला आस्था के आधार पर दे दिया गया जिसमें 2.77 एकड़ जमीन हिन्दू पक्ष को दे दी गई। कहा गया कि सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड जमीन पर अपना मालिकाना हक को साबित नहीं कर सका इसे साबित करने के लिए दो- तीन सदी पुराने सबूत मांगे गये। सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड द्वारा प्रस्तुत राजस्व अभिलेख व गेजेट को खारिज कर दिया गया। हिन्दू पक्ष पर जमीन स्वामित्व से सम्बंधित कोई भी सबूत की मांग नहीं की गई।
न्यायालय ने सरकार को मंदिर बनाने के सम्बन्ध में एक ट्रस्ट के गठन व इसमें निर्मोही अखाड़े को उचित प्रतिनिधित्व निर्देश दिया गया। मुस्लिम पक्ष के लिए 5 एकड़ जमीन अयोध्या में ही कहीं भी राज्य सरकार या केंद्र सरकार किसी भी द्वारा देने का निर्देश दिया गया। इस प्रकार सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड के पास एक दौर में जो 67 एकड़ जमीन थी उसके अधिकांश का अधिग्रहण सरकार द्वारा 1993 में कर लिया गया था इसके बाद 2.77 एकड़ जमीन में से मात्र एक तिहाई हिस्सा मुस्लिम पक्ष को देने का फैसला हुआ था अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने यह जमीन भी जो वक़्फ़ बोर्ड के पास थी जिसमें बाबरी मस्जिद थी पूरी तरह से छीन ली।
इस फैसले से पहले संघियों ने कोर्ट के फैसला जो कुछ भी हो उसे स्वीकार किये जाने की खोखली बातें की थी। यह उन्हें पहले से ही भान था कि फैसला लगभग इसी ढंग का होगा। इसीलिए संघपरिवार के लोग मुस्लिम समुदाय से संबंधित संगठनों, बुद्धिजीवियों के बीच जाकर इस पक्ष में सहमत कराने व अपने पक्ष में सहमत कराने में जुटे थे। अब फैसला आ जाने के बाद 'एकजुट होने' 'मिलजुलकर रहने', 'न किसी की जीत न किसी की हार होने' की पाखंडी, लफ़्फ़ाजीपूर्ण बातें कर रहे हैं। जबकि स्पष्टत: यह फ़ासीवादी ताकतों की जीत है। मौजूदा आर्थिक संकट के लिए तात्कालिक तौर पर जिम्मेदार व आम अवाम के जीवन को ज्यादा गहन संकट की ओर धकेलने वाली फ़ासीवादी ताकतें बाबरी मस्जिद जमीन के सम्बन्ध में मौजूदा फैसले से और ज्यादा ध्रुवीकरण करने की दिशा में कामयाब हुए हैं।
जहां तक विपक्षियों का सवाल है सभी खुद को बहुसंख्यक आबादी यानी हिन्दू आबादी के पक्षधर दिखाने के खेल में व्यस्त हैं कॉंग्रेस तो खुद ही वर्तमान स्थिति के लिए जिम्मेदार है। सपा, बसपा, आप आदि सभी फैसले का स्वागत कर रहे है। इममें से कुछ तो यह भी कह रहे है कि कोर्ट के फैसले ने संघ परिवार से उनका मुद्दा छीन लिया है। ऐसा होने की एक वजह यह भी है कि ये भी जनवादी नही बल्कि भाजपा की ही तरह भ्रष्ट है। इन सभी को नरम हिंदुत्व को साथ लेकर चलने से कोई परहेज नही रहा है। सुधारवादी वामपंथी पार्टियां भी इस मसले पर 'धर्मनिरपेक्ष' व सही स्थिति लेने से कतरा रही हैं।
कोर्ट का यह फैसला भले ही यह कहता है कि मस्जिद मंदिर तोड़ कर नहीं बनाई गई है। लेकिन इससे कोई विशेष फर्क नही पड़ता। क्योंकि फैसला संघियों के पक्ष में है इसे वह अपनी जीत के रूप में व हिंदुओं की जीत के रूप में दिखाने में कामयाब हैं। इनका यह घृणित मन्तव्य पूरा हुआ। हिंदुओं विशेषकर सवर्ण लोगों के दिमाग में लंबे वक्त से जो जहर संघ परिवार व इससे ग्रस्त मीडिया ने भरा है वह यह कि देश में कांग्रेस के दौर में सब कुछ मुस्लिमों के हिसाब से तय होता रहा है हिन्दू लोग सदियों से व कांग्रेस के दौर में उपेक्षित रहे है उत्पीड़ित रहे हैं।हिंदुओं के साथ भारी अन्याय हुआ है। इसे संघी शब्दावली में 'मुस्लिमों का तुष्टिकरण' कहा जाता है। इसलिए एक ऐसी घृणित व फासीवादी मनोदशा निर्मित कर दी गई है जिसका मकसद मुस्लिमों को उत्पीड़ित, अधिकारहीनता की स्थिति में धकेल देना है। हज सब्सिडी, तीन तलाक, एक देश में दो कानून, कश्मीर, बांलादेशी घुसपैठिये आदि आदि के जरिये यह बात जेहन में बिठाई गई है।
कुलमिलाकर ये फैसला अल्पसंख्यक आबादी को असुरक्षा व अलगाव की ओर धकेलने वाला है इस फैसले ने पूरे तंत्र पर इनके भरोसे को बेहद कमजोर कर दिया है। अभी तक एक उम्मीद की किरण कोर्ट से थी मगर यह भी अब खत्म हो गई है। इसीलिए कइयों को यही कहकर खुद को तसल्ली देनी पड़ी "तुम्हारा शहर, तुम्हीं कातिल, तुम्ही मुंसिफ, हमें यकीन था, कसूर हमारा ही होगा" !
यह फैसला केवल मुस्लिमों को दोयम दर्जे में धकेकने वाला नहीं है बल्कि देश की समग्र मज़दूर मेहनतकश आबादी के खिलाफ है यह इनके जनवादी व संवैधानिक अधिकारों को व्यवहार में खत्म करने की ओर जाता है। उन्हें भी दोयम दर्जे की ओर धकेलने वाला है।
जम्मू कश्मीर का भारत में विलय तथ्यों के आईने में
डोमिनियन देश के रूप में भारत व पाकिस्तान को आज़ादी हासिल होते वक़्त भारत स्वतंत्रता अधिनयम में यह प्रावधान तय था कि जो रियासतें अलग रहना चाहती हैं वह अलग रह सकती हैं और जो अपना विलय भारत या पाकिस्तान जिस डोमिनियन स्टेट में करना चाहती है वह विलय कर सकती है। आज़ादी से पहले जम्मू कश्मीर कई रियासतों की तरह एक अलग रियासत थी। जम्मू कश्मीर के राजा तब हरी सिंह थे। अंग्रेजी हुकूमत के दौर में यहां भी प्रजा सभा ( विधान सभा) का गठन किया गया था तब केवल 10 % सम्पति वाले लोगों को ही वोट देने का अधिकार था जैसे कि बाकि भारत में था। जिसमें 33 चुने हुए प्रतिनिधि तथा 42 प्रतिनिधि नॉमिनेट होने थे।
जम्मू कश्मीर के राजा हरी सिंह व प्रधानमंत्री राम चन्द्र काक आज़ाद जम्मू - कश्मीर के पक्षधर थे वे भारत में विलय के पक्ष में नहीं थे। जबकि शेख अब्दुल्ला पाकिस्तान से विलय के धुर विरोधी थे वह राजशाही के भी खिलाफ थे एक लोकतांत्रिक तरीके से चुनकर बनाई जाने वाली सरकार के पक्षधर थे। भारत के साथ स्वायत्तता के साथ रहने के पक्षधर थे। 1930-32 में शेख अब्दुल्ला की अगुवाई में ऑल जम्मू कश्मीर मुस्लिम कान्फ्रेंस बनी जो 1939 में नेशनल कॉन्फ्रेंस हो गई। यह एक अलग धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के लिए आन्दोलन कर रही थी। इस आंदोलन में सभी धर्म व जाति के लोग थे। यह एक सशक्त आंदोलन था। पंडित सुदामा सिद्धा , प्रेम नाथ बजाज, सरदार बुध सिंह आदि ने नेशनल कॉन्फ्रेंस का राष्ट्रीय मांग पत्र का ड्राफ्ट तैयार किया। यह आंदोलन राजशाही के खिलाफ भी था । मई 1946 में शेख अब्दुल्ला की अगुवाई में नेशनल कांफ्रेंस ने 'कश्मीर छोड़ो ' का आंदोलन शुरू हो गया । यह आंदोलन राजशाही के खिलाफ भी था। राजशाही ने शेख अब्दुला समेत कइयों को गिरफ्तार कर लिया। फिर 29 सितम्बर 1947 को छोड़ा गया। इस रिहाई में भारत सरकार की भूमिका रही थी।
जब भारत व पाकिस्तान आज़ाद हो गये थे। जम्मू कश्मीर की स्थिति स्वतंत्र रियासत ( मुल्क ) की तरह थी। हरि सिंह ( जम्मू कश्मीर ) की पाकिस्तान के साथ स्टैंडस्टिल ( कुछ वक्त तक रुके रहने ) समझौता हुआ था। । मगर पाकिस्तान की कबायली सेना ने 22 अक्टूबर 1947 में जम्मू कश्मीर पर हमला कर दिया तब राजा हरी सिंह ने गवर्नर लॉर्ड माउंटबेटेन के लिए पत्र लिखकर आर्मी की मदद मांगी व विलय के दस्तावेज दिए। गवर्नर जनरल माउंटबेटेन ने विलय के दस्तावेज को स्वीकार कर लिया इस प्रकार 26 अक्टूबर 1947 को समझौता हुआ। आर्मी भेजने का तय हुआ। चूंकि शेख अब्दुल्ला धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक भारत के साथ रहने के पक्षधर थे । अब इस स्थिति में जबकि हरी सिंह ने भारत में विलय के लिए बात शुरू कर दी तब गवर्नर माउंटबेटेन ने राजा हरी सिंह को अंतरिम सरकार का गठन करने तथा शेख अब्दुल्ला को प्रधानमंत्री बनाने को कहा । माउंटबेटेन द्वारा कहा गया कि विलय की प्रक्रिया में रियासतों में किसी प्रकार के विवाद होने पर वहां की जनता द्वारा ही इस पर (विलय) फ़ैसला लिया जाएगा।
पाकिस्तानी हमले से निपटने के लिए शेख अब्दुल्ला की अगुवाई में आपातकालीन प्रशासन का गठन किया गया। शेख अबदुल्ला द्वारा एक मिलिशिया ( स्वयं सेवक सेना ) का गठन किया गया जिसने पाकिस्तानी की कबायली सेना से निपटना शुरू कर दिया। बाद में भारत की सेना भी यहां पहुंच गई।
17 मार्च 1948 को शेख अब्दुल्ला प्रधानमंत्री बने जबकि हरी सिंह के बेटे कर्ण सिंह को 'सदर -ए -रियासत ' बने। भारत व जम्मू कश्मीर के बीच समझौते में तय हुआ कि रक्षा, मुद्रा , संचार, विदेश नीति के मामले केंद्र की सरकार यानी भारत के पास रहेंगे, बाकी शेष मामले जम्मू कश्मीर की सरकार तय करेगी इसकी अपनी संविधान सभा होगी, इसका अलग झंडा व अलग प्रधानमंत्री होगा। संविधान सभा को ही बाकी सारे अधिकार होंगे। यह भी समझौता था कि जम्मू कश्मीर का वह हिस्सा जो पाकिस्तान ने कब्जा लिया था उसे भारत सरकार कश्मीर की सरकार को वापस दिलाएगी।
1951 में जम्मूकश्मीर में सार्विक मताधिकार के आधार पर संविधान सभा के लिए चुनाव हुए।
जम्मू कश्मीर के विलय की इस विशेष स्थिति के चलते अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जा दिया गया। अनु 370 उसी समझौते का परिणाम था जो कि जम्मू कश्मीर व भारत के बीच हुआ था। अनु. 370 में साफ दर्ज था कि राष्ट्रपति कोई भी आदेश संविधान सभा की सहमति के बाद कर सकते हैं। समझौते के हिसाब से शेख अब्दुल्ला को जम्मू कश्मीर का प्रधानमंत्री बनाया गया। आर एस एस धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के लिए शेख अब्दुल्ला द्वारा चलाये जा रहे आंदोलन का धुर विरोधी था तथा राजशाही के समर्थन में था इसलिए शुरुवात में यह जम्मू कश्मीर के स्वतंत्र देश के बतौर रहने के राजा हरी सिंह के फैसले का पक्षधर था भारत से विलय के पक्ष में नहीं था। मगर बाद में जब परिस्थितियां बदल गयी तब यह भारत में इसके पूर्ण विलय की बात करने लगा। इसने यहां नवम्बर 1947 में चुनाव में प्रजा परिषद नाम की पार्टी खड़ी करके चुनाव में भागीदारी करनी शुरू कर दी । प्रजा परिषद का 1963 में जनसंघ में विलय हो गया। इस दौर में यानी 1948 भारत सरकार इस मामले को संयुक्त राष्ट्र संघ में भी ले गई खुद नेहरू की ओर से इस मामले पर जनमत संग्रह का प्रस्ताव भी रखा गया क्योंकि उस समय उन्हें यह भारत के फेवर में पक्ष में जाता लग रहा था शेख अब्दुला ने संयुक्त राष्ट्र संघ में इस पक्ष में जोरदार दलील भी दी। पाकिस्तान ने तब इसका विरोध किया। बाद में भारत जनमत संग्रह से पीछे हट गया। 1951 के संविधान सभा के कश्मीर में हुए चुनावों को ही भारत सरकार जनमत संग्रह के रूप में प्रस्तुत कर रही थी।
1952 में जम्मू कश्मीर की अर्थव्यवस्था भारत के साथ पूरी तरह शेख अब्दुल्ला ने एकीकृत कर दी थी अब व्यापार व लोगो की आवाजाही पर जो पाबंदी थी भारत व कश्मीर के बीच वह हट गई। इस दौर में राजशाही खत्म कर दी गई । इस दौर में भारत सरकार पर आरोप लगे कि उसकी मंशा कुछ और ही थी कि वह इस समझौते को बेहद कमजोर या खत्म कर देना चाहती थी।
इन आरोपों के बीच ही अचानक 'कश्मीर षड्यंत्र' के फर्जी आरोप में 1953 में प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला सहित 22 लोगो को गिरफ्तार कर लिया गया व जेल में डाल दिया गया। आरोप यह लगाया गया कि शेख अब्दुल्ला आजाद कश्मीर के लिए पाकिस्तान के साथ मिलकर साजिश रच रहे है। 11 सालों तक शेख अब्दुल्ला को जेल में रखा गया। मिर्जा अफ़ज़ल बेग को 1954 के नवम्बर माह में रिहा कर दिया गया। जी एम हमदानी के साथ मिर्जा बेग ने 'जनमत संग्रह मंच' बनाया इसकी मांग सँयुक्त राष्ट्र संघ की निगरानी में जनमत संग्रह के जरिये जम्मू कश्मीर की जनता के आत्मनिर्णय के अधिकार ( जनता को अपने राज्य या देश की राजनीति आदि को तय करने का अधिकार ) की थी। इसका समर्थन 'कश्मीर राजनीतिक कान्फ्रेंस' 'कश्मीर जनतांत्रिक यूनियन ' तथा प्रजा सोशलिस्ट पार्टी' (जय प्रकाश नारायण व आचार्य नरेंद्र देव आदि की) ने भी किया।
दूसरी ओर शेख अब्दुल्ला आदि को तब जेल से छोड़ा गया जब वह और उनकी पार्टी ने एक प्रकार से समर्पण कर दिया। 1964 में इनकी रिहाई हुई और जिन फर्जी मुकदमों पर 1953 में इनकी गिरफ्तारी हुई थी उन्हीं को अप्रेल 1964 में रहस्यमय तरीके से भारत सरकार ने वापस ले लिया। इस बीच 1954 में राष्ट्रपति के आदेश से 35 A जोड़ा गया था कहा जाता है कि यह पहले से ही कश्मीर में भिन्न रूप में था। 1956 में संविधान सभा भंग कर दी गई इसने 1956 में संविधान (जम्मू कश्मीर का) बनाया तथा इसमें अब जम्मू कश्मीर को भारत का हिस्सा बताया गया। संयुक्त राष्ट्र संघ ने संविधान सभा के 1951 के चुनाव को जनमतसंग्रह का विकल्प मानने से इंकार कर दिया। 1957 में इसकी जगह विधान सभा बना दी गई। बाद के समय में सदर-ए-रियासत तथा प्रधानमंत्री का पद खत्म कर दिया गया। इसकी जगह राज्यपाल व मुख्यमंत्री हो गया। दूसरी ओर जम्मू कश्मीर की सरकार को वायदे के मुताबिक वह हिस्सा जिसे पाकिस्तान ने कब्जा लिया था कभी वापस नही दिलाया गया यह पाकिस्तान के पास है इसे पाक अधिकृत कश्मीर कहा जाता है।
यह आरोप है कि इसके बाद फिर भारत सरकार लगातार ही समझौते को और ज्यादा कमजोर करते गई। 1956-57 में जम्मू कश्मीर को भारत का हिस्सा घोषित कर दिया गया। बाद में राष्ट्रपति के आदेश से तथा विधान सभा को अपने हिसाब से ढालकर कई आदेशों के जरिये देश के तमाम कानून वहां लागू करा दिए गए ।1956 से 1994 के बीच राष्ट्रपति के 47 निर्देश जम्मू कश्मीर के संबंध में जारी हुए लगभग 97 में से 94 संघीय विषय केंद्र सरकार के जरिये वहां लागू हो गए जो कि संविधान के 395 अनुच्छेदों में से 260 अनुच्छेद समेट लेती थी । 1965-66 में अनु 356 व 357 को लागू कर दिया गया। ये तथ्य साफ दिखाते है कि भारत सरकार पर जम्मूकश्मीर को छल बल से अपने में मिला लेने के आरोप हवाई नहीं थे। दूसरी ओर नेशनल कॉन्फ्रेंस की अवसरवादी व कमजोर भूमिका के चलते तथा भारत सरकार के विलय के प्रति रुख के चलते अलग आज़ाद धर्मनिरपेक्ष जम्मू कश्मीरी राष्ट्र के लिए जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट की अगुवाई में एक संघर्ष खड़ा हो गया था। यह समूचे जम्मू कश्मीर यानी पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर को अपने दायरे में समेट लेता था । यह आंदोलन व्यापक होता गया। इसकी शुरुवात तो 65 से ही हो गई थी मगर यह संगठन 1977 में बना। यहीं से फिर इस आंदोलन को कमजोर करने के लिए आतंकवाद को पैदा करने पालने पोसने के आरोप भी सरकार पर लगे । भारत व पाकिस्तान दोनो की इसमें भूमिका होने के आरोप लगे। दोनो के अपने अपने निहित स्वार्थ थे। फिर आतंकवाद को खत्म करने के नाम पर भारी मात्रा में फौज की तैनाती वहां कर दी गई । चप्पे चप्पे पर फौजी जवान खड़े हो गए। इसे टाडा तथा पब्लिक सेफ्टी बिल व सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून के तहत दमन के लिए जो कुछ भी सम्भव हो वह करने की छूट दी गई । पिछले 45 सालों से जम्मू कश्मीर की अवाम संगीनों के साये में जी रही है । इनके जरिए सीधे सीधे केंद्र सरकार ही यहां शासन कर रही थी। 'विधान सभा भंग कर देना' 'राष्ट्रपति शासन लगा देना' यह सामान्य बन गया। दूसरी ओर जे के एल एफ तो कुछ सालों बाद बहुत कमजोर हो गया। मगर आतंकवाद व अलगाववाद बढ़ता गया। एक प्रतिक्रियावादी आंदोलन भी इस दौर में पैदा हो गया या पैदा कर दिया गया जो इस्लामिक कट्टरपंथी आंदोलन था यह जम्मू कश्मीर को पाकिस्तान में मिलाये जाने की वकालत करता था ।
साफ है कि कोई भी जम्मुकश्मीर के आत्मनिर्णय के अधिकार का पक्षधर नही था। जम्मू कश्मीर की अवाम क्या चाहती है उसकी इच्छा आकांक्षा क्या है इससे किसी को कोई सरोकार न था। दोनो ही देशों के शासक इसे निगलने को तैयार थे। दोनों के लिए मात्र यह जमीन का टुकड़ा था मात्र एक बाजार था, प्राकृतिक संसाधन था व इसका इनके लिए एक भूरणनीतिक महत्व था। इनके बीच इसी को लेकर तीखे अंतर्विरोध भी थे। इसी को "राष्टवाद" की चाशनी में लपेट कर परोसा जाता है। साम्प्रदायिक उन्माद का खेल खेला जाता है।
इस प्रकार देखा जाय तो जो समझौते जम्मू कश्मीर व भारत के बीच हुए थे। उन समझौते को बेहद कमजोर कर दिया गया। 370 के तहत जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दिया गया मगर संविधान में इसे अस्थायी उपबन्ध के बतौर रखा गया था। हालाकि अनु 370 को हटाने के लिए राष्ट्रपति का आदेश तथा कश्मीर की संविधान सभा की सहमति जरूरी थी। लेकिन संविधान सभा तो 1956 में ही भंग हो गई । अब मौजूदा दौर में मोदी शाह की सरकार ने राष्ट्रपति के जरिये एक गैजेट नोटिफिकेशन जारी करवाया और 370 को खत्म करने का आदेश कर दिया। फिर इस पर तीन बिल लाकर भाजपा ने राज्य सभा व लोक सभा में इसे पास करवा लिया। 370 का खत्म किया जाना खुलेआम प्रक्रिया का उल्लंघन था। जम्मू कश्मीर की संविधान सभा की सहमति के बिना यह फैसला नहीं लिया जा सकता था जो कि अब वज़ूद में है नहीं। यदि संविधान सभा को विधान सभा माना जाय तो भी इस वक़्त कश्मीर में राष्ट्रपति शासन था विधान सभा भंग थी। राज्यपाल तो चुना हुआ प्रतिनिधि होता नही वह केंद्र सरकार का प्रतिनिधि होता है उसकी सहमति के कोई मायने नही। इस प्रकार मोदी-शाह की सरकार ने जम्मू कश्मीर की अवाम को बिना विश्वास में लिए अपने फासीवादी अंदाज में संविधान सभा या विधान सभा के माध्यम से नहीं बल्कि भारी मात्रा में वहां फौज भेजकर सारे जनवादी अधिकार छीनकर, कर्फ़्यू जैसी स्थिति पैदा करके, एक प्रकार से जम्मू कश्मीर के नागरिकों व चुने हुए कई नेताओं को बंधक बनाकर राष्ट्रपति के आदेश को सीधे संसद में अपने बहुमत के जरिये पास करवाकर लागू करने की ओर बढ़ चुकी है यही नहीं इसके दो टुकड़े करके केंद्र शासित क्षेत्र में बदल देने का प्रावधान भी किया गया है। इस प्रकार शासक वर्ग ने जम्मू कश्मीर का भारत में पूरी तरह विलय करने की अपनी कुत्सित मंशा को 1948-52 से धीरे धीरे 70 सालों में मुकम्मल कर लिया। यह कहना ज्यादा सही होगा कि कांग्रेस ने 60 सालों में विशेष राज्य के दर्जे को इतना कमजोर कर दिया था कि मोदी शाह की भाजपा के लिए 370 को खत्म करना बेहद आसान हो गया। हालांकि कोर्ट में मामला गया है वह इसी आधार या तर्क पर है कि मोदी शाह सरकार की पूरी प्रक्रिया असंवैधानिक है क्योंकि इसमें विधान सभा से भी कोई सहमति नही हुई है। कोर्ट का रुख क्या होगा यह आने वाला वक़्त ही बताएगा। जो भी हो। यह ध्रुवीकरण के लिए खतरनाक हथियार का काम और ज्यादा करेगा। साथ ही कश्मीरी अवाम के कष्ट दुख दर्द कई गुना और बढ़ जाएंगे।
भाजपा व संघ परिवार के द्वारा ऐसे समय में जबकि अर्थव्यवस्था की मंदी की ओर बढ़ने, 45 साल में सबसे ज्यादा बेरोजगारी होने, उद्योगों की सेल में भारी गिरावट तथा बड़े पैमाने पर मज़दूरों की छटनी तथा विनिवेशीकरण व कर्मचारियों की छंटनी की खबर के बीच यह फासीवादी एजेंडा सचेतन चला गया कदम है। यह यहीं पर रुकने वाला नहीं है। यह अर्थव्यवस्था के संकट व जनसंघर्षों से निपटने का खतरनाक रास्ता है इस बात की संभावना है कि अमेरिकी साम्राज्यवादी तथा इजरायल के साथ और ज्यादा सटने व उनके समर्थन से यह दांव चला गया हो। इसमें चीन व पाकिस्तानी शासक भी इसे यूं नहीं जाने देंगे। अमेरिकी शासक इसके जरिये भारतीय शासकों को दबाव में लेने का काम करेंगे भले ही अभी वह समर्थक हों । इसी ढंग से रूसी साम्राज्यवादी भी। इसीलिए यह मुद्दा लंबे वक्त के लिए जनता को अंधराष्ट्रवादी उन्माद में धकेकने का जरिया बनेगा। शासक वर्ग के लिए यह बहुत फायदे की चीज है विशेषकर जब अर्थब्यवस्था मंदी की ओर बढ़ रही हो। यह तात्कालिक तौर पर जनता के संघर्षों को कमजोर करने का जरिया भी है। संघ परिवार इसके जरिये अपने 'एक देश- एक झंडा- एक विधान' को पूरा करके खुद को "राष्ट्रवादी' के बतौर प्रचारित करने में कामयाब है जो कि अन्धराष्ट्रवाद के सिवाय कुछ नहीं है। अब यह अपने चरम आतंकी तानाशाही (फासीवाद) कायम करने की ओर बढ़ेगा। फिर जो कश्मीर में हो रहा है वह देशव्यापी हो जाएगा जिसके निशाने पर मज़दूर मेहनतकश अवाम होगी।
आम चुनाव 2019 , भाजपा की जीत और इसके मायने
2019 के चुनाव ने अन्ततः मोदी शाह की भाजपा को फिर बहुमत से सत्ता पर पहुंचा दिया है। इस जीत से मोदी भक्त मीडिया पूरी तरह उन्मादग्रस्त है अब इन्होंने खुलेआम घोषित कर दिया है कि उन्हें मोदी मीडिया होने पर गर्व है। इस जीत को भी इन्होंने प्रचण्ड बहुमत करार दिया है। हकीकत क्या है ?
हकीकत यह है कि इस बार कुल वोट प्रतिशत 67 .11 % रहा। पिछली दफा भाजपा को कुल वोटों का 31 प्रतिशत वोट हासिल हुए थे इस बार यह आंकड़ा 37.4 प्रतिशत पहुंचा है । दोनों ही बार मतो के हिसाब से यह अल्पमत की सरकार है । यह भारतीय पूंजीवादी संसदीय प्रणाली के एफ टी टी पी प्रणाली का कमाल है कि इतने कम प्रतिशत (37 %) के वावजूद यह पार्टी कुल सीटों का 56 प्रतिशत सीट हासिल कर ले गई । जबकि कांग्रेस का वोट प्रतिशत अभी भी लगभग 20 है सीटों के लिहाज से इसे केवल 10 प्रतिशत सीट हासिल हुई । बहुजन समाज पार्टी को भी वोट प्रतिशत लगभग 20 % हासिल हुआ लेकिन सीट मिली 10 यानी कि कुल सीटों का मात्र 1.8 प्रतिशत।
इस जीत को मीडिया द्वारा मोदी के व्यक्तितव का करिश्मा बताया जा रहा है कहा जा रहा है कि मोदी है तो कुछ भी मुमकिन है । लेकिन हकीकत ठीक इनके उलट है । अगर मीडिया सभी पूंजीवादी पार्टियों व इनके नेताओं के प्रति निष्पक्ष रहकर काम करता और मोदी के भाषणों व अन्य बातों को उसी तरह रखता जैसे कि राहुल से लेकर अन्य के मसले पर किया गया तो वास्तव में होता यह कि मोदी कभी भी यहां नही पहुंचते जिस मुकाम पर आज वह हैं। लेकिन ऐसा होना मुमकिन नही है यह पूंजीवाद की अपनी गति, दौर व संकटो पर निर्भर करता है । आज के दौर में साफ है एकाधिकारी पूंजी की पहली व मुख्य पसदं मोदी हैं फासीवादी ताकतें है धुर दक्षिणपंथी लोग है। यह दुनिया भर के लिए भी सच है। इसीलिए इनके द्वारा संचालित मीडिया मोदी मोदी धुन में नाच रहा है। यह अपने मत को जनमत में बदल रहा है।
इस चीज को केजरीवाल के उदाहरण से ढंग से समझा जा सकता है जब इस पूंजी द्वारा केजरीवाल को आगे करना था तो केजरीवाल हीरो थे नायक थे लेकिन जब मोदी को इस पूंजी द्वारा प्रमोट व प्रोजेक्ट किया गया तो देखते ही देखते केजरीवाल को नायक से जोकर ( उपहास का पात्र) बना दिया गया।
इसलिए मोदी की अगुवाई में फासीवादी ताकतों की यह जीत एकाधिकारी पूंजी के सामज पर पूरे वर्चस्व को दिखाता है । यह कहना ज्यादा सही होगा कि एकाधिकारी पूंजी के मालिकों ने अपनी इच्छा व आकांछा को अंततः जनादेश में बदलवा ही दिया है ! उनकी इच्छा थी मोदी की अगुवाई में फासीवादी गिरोह सत्ता पर बैठे ! इसके लिए तमाम प्रपंच रचे गए ! अरबों खरबो रुपया पानी की तरह बहाया गया ! 'मोदी नही तो कौन' की धारणा बनाई गई । पुलवामा के जरिये, अंधराष्ट्रवाद का उन्माद खड़ा किया गया । आतंकवाद व देश की सुरक्षा के लिए मोदी मात्र के ही सक्षम होने के बतौर प्रचार किया गया। साध्वी प्रज्ञा के जरिये उग्र हिंदुत्व व भगवा आतंक के रूप में ध्रुवीकरण किया गया। किसानों , बेरोजगारों को जाल में फांसने के लिए 6000 रुपये देने , धड़ाधड़ पोस्ट निकालने का काम ऐसे ही अन्य कृत्य किये गए। चुनाव के बीच इंटरव्यू देना ऐसे ढेरों प्रपंच नाटक किये गए।बहुत सी चीजें साफ दीखी थी जो इनके द्वारा अपनी जीत को हासिल करने को की गई। चुनाव आचार संहिता की जमकर धज्जियां उड़ाई गई।
इनकी इस जीत में षडयंत्र से इंकार नहीं किया जा सकता ! ऐसा इसलिए की ऐसा माहौल जमीन पर नहीं दिखा। यही अधिकांश का मानना भी था। कुछ चीज़ें साफ दिखी थी कुछ चीजें अंदरूनी स्तर पर की गई है जिनकी कभी कभार चर्चा भी हुई है जैसे फरीदाबाद में भाजपा पोलिंग एजेंट द्वारा महिलाओं के भी वोट खुद ही कमल पर डाल देना, चुनाव के पहले दिन पैंसे बटवाकर व अंगुलियों पर निशान लगवा देना ताकि इनके नाम पर अगले दिन खुद ही अपनी पसंद का बटन दबा दिया जाय, ई वी एम की उन इलाकों में खराबी जहां विरोधी वोटर हों ! फर्जी वोटिंग! आदि आदि ! इनमें से कुछ अन्य पार्टियां भी कर सकती हैं व करती है मगर उनके लिए स्कोप बहुत ही कम है। चूंकि इसका कोई सटीक आंकड़ा नहीं होता लेकिन ये नतीजों को उलट पलट सकता है।
चुनाव आयोग का जहां तक सवाल है वह तो पूरी तरह से मोदी के पक्ष में काम करता रहा। मीडिया का 90 प्रतिशत हिस्सा मोदी का प्रचार चेनल बन गया। चुनावों में इस मीडिया हर जगह मोदी ही मोदी था बाकि तो यहां से गायब थे। इस तथ्य को भी नही भुलाया जा सकता कि इनकी अगुवाई में समाज एक फासीवादी आंदोलन मौजूद है यह ताकतवर स्थिति में मौजूद है ! आर एस एस का अपना पूरा सांगठनिक नेटवर्क मोदी के पीछे खड़ा था।
यह बात बिल्कुल साफ थी कि धुर प्रतिक्रियावादी एकाधिकारी पूंजी की टॉप प्राथमिकता मोदी व इनका फासीवादी गिरोह था व है ! तब यह कैसे मुमकिन होता कि जब यह पूंजी 2014 रच चुकी हो तब 2019 न रच पाती ।
जहां तक कांग्रेस का सवाल है वह वैसे भी देश के एकाधिकारी पूंजी की ही सबसे पुरानी पार्टी है। फिलहाल इसकी जरूरत इस पूंजी के मालिकों को नहीं है। इसीलिये एकाधिकारी पूंजी द्वारा बहुत कम फण्ड ही इसे दिया गया।
यह चुनाव अपने आप में अभूतपूर्व था यह इंदिरा के गरीबी हटाओ नारे से भी अलग था। यह चुनाव फासीवादी ताकतों द्वारा आने विशुद्ध रूप में अपने फासीवादी एजेंडे पर लड़ा गया था जो अब चुनाव जीत कर अपनी वैधता व वैधानिकता भी ग्रहण कर चुका है इस मायने में यह 2014 के के चुनाव से भी भिन्न है। यह स्थिति निश्चित तौर पर अभूतपूर्व ढंग से देश के मज़दूर वर्ग, जनवाद पसन्द लोग जनपक्षधर लोगो , मेहनतकशजन, आम दलितों मुस्लिमों व महिलाओं के लिए खतरनाक है।
इस चुनाव में विपक्ष कमजोर था अपने अंतर्विरोधों से ग्रस्त था। यह खुद भ्रष्टाचार में सना हुआ है जनविरोधी व दमनकारी है। जनता को देने के लिए इनके पास कुछ नही है ये उन्हीं नई आर्थिक नीतियों की पैरोकार है व इन्हें लागू कर रही है जिन्हें कांग्रेस व भाजपा लागू कर रही है जिनसे अवाम तबाह बर्बाद हो रही है। तब स्वाभाविक सवाल है कि जनता इनको अपने विकल्प के रूप में कैसे देखती। एक तरफ विकल्पहीनता और दूसरी तरफ कमजोर व बिखरा विपक्ष के चलते भी मोदी की सत्ता में वापसी होने की संभावना थी।
वैसे भी कॉरपोरेट घरानों तथा कांग्रेस व भाजपा की लम्बे समय से यह ख्वाहिश रही है कि देश में सिर्फ दो पार्टिया हो एक भाजपा दूसरी कांग्रेस। राजनीतिक तौर पर स्थिति ऐसी बनाने की कोशिश भी चल रही है।
वामपंथी तथा ढेर सारे संगठन व लोग चुनाव के जरिये फासीवादी ताकतों को सत्ता से बाहर करना चाहते थे ! जहां तक सी पी आई व सी पी एम का सवाल है इनकी स्थिति और ज्यादा खराब हुई है अब इनकी कुल 5 सीटें रह गयी है। अन्य पार्टियों की तरह ये भी जनता के लिए विकल्प नहीं बनते। जहां तक जनता के लिए विकल्प का सवाल है इसमें कोई भी पार्टी जनता के लिए विकल्प नही बनती। इसीलिए कभी सांपनाथ तो कभी नागनाथ वाली बनी हुई है। साथ ही यह भी सच है कि फासीवादी ताकतों के सत्ता में रहने से हालात ज्यादा भयावह होंगे।
यदि फासीवादी ताकतें सत्ता से बाहर होती या कमजोर हो जाती ! यह केवल उसी सूरत होता में जब एकाधिकारी पूंजी के मालिक ऐसा चाहते तथा अपनी पुरानी वफादार पार्टी कांग्रेस को लाना चाहते! अन्यथा तो केवल और केवल फासीवाद विरोधी सशक्त क्रांतिकारी आंदोलन ही इसे अब जमींदोज कर सकता है।
आतंकी हमले और अंधराष्ट्रवाद
पुलवामा में मेहनतकशों के 42 बेटे कथित आतंकी हमले में मारे गये हैं यह बेहद दुःखद व निन्दनीय है। यह हमला आत्मघाती दस्ते के द्वारा अंजाम दिया गया। अब तस्वीर साफ होती जा रही है कि संभावित हमले की खुफिया जानकारी के बावजूद सुरक्षा में भारी लापरवाही बरती गई या फिर हमले को हो जाने दिया गया।
अब इस हमले के बाद मोदी और शाह की जोड़ी इसके जरिये चुनावों में अंधराष्ट्रवाद व युद्ध का उन्माद पैदा कर रहे है । कुछ समय से इनके बुझे हुए चेहरों में घृणित मुस्कान तैरती साफ देखी जा सकती है ये अपना चुनाव प्रचार अंधाधुंध तरीके से न केवल जारी रखे हुए हैं बल्कि सर्वदलीय बैठक जो इस आतंकी हमले के बाद रखी गई थी देश के पी एम ने इसमें उपस्थित रहना भी जरूरी न समझा वो चुनाव प्रचार में निकल गए गृह मंत्री को बिठाकर। दूसरी ओर गोदी मीडिया अपने चैनल व अखबार पर तो संघ परिवार के लम्पट संगठन सड़कों पर युद्धोन्माद व अंधराष्ट्रवादी उन्माद पैदा कर रहे हैं। ये एक ओर पाकिस्तान को ललकार रहे हैं तो दूसरी तरफ संघी लम्पट कश्मीरी लोगों देहरादून से लेकर अन्य शहरों में हमलावर है उन्हें खदेड़ रहे हैं। अब यह इनके लिए 'वोटों की फसल' तैयार करने का जरिया बन गया है साथ ही बेरोजगारी, भ्रष्टाचार जैसे तमाम सवालों को पीछे धकेलने का औजार भी।
ये सवाल करने को तैयार नहीं कि नोटबंदी के जरिये कथित आतंकवाद की कमर तोड़ देने वाल दावों का क्या हुआ। ये यह बताने को तैयार नहीं कि जब एक तरफ उन्हें इतनी नफरत पाकिस्तान से है तो फिर क्यों मोदी के दौर में भारत पाक के बीच व्यापार साल दर साल बढ़ता रहा। निर्यात 1920 मिलियन डॉलर तो आयात 488 मिलियन डॉलर हो गया। क्यों फिर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार का बेटा पाकिस्तान के नागरिक के साथ मिलकर कम्पनी चला रहे है ? आदि आदि।
एक तरफ युद्द की ललकार दूसरी तरफ खरबो का व्यापार ! यही स्थिति पाकिस्तानी शासकों की है।
आज़ादी के बाद दोनों ही देशों के पूँजीवादी शासकों ने कश्मीर को लेकर जो नीति बनाई और फिर बाद में एक दूसरे देशों को अस्थिर करने अपने घृणित हितों के अनुरूप एक दूसरे के मुल्कों में हस्तक्षेप करते रहे है। साथ ही अपने अपने देशों में दोनों देशों के शासक अपनी अपनी मेहनतकश जनता के दिलों में एक दूसरे के खिलाफ नफरत का बीजारोपण कर इसे आगे बढ़ाते गए हैं। यह अंधराष्ट्रवादी उन्माद शासकों के लिए बड़े काम की चीज बन जाती है। सत्ताधारी पार्टी फिर सत्ता पर अपनी गिरफ़्त बनाये रखने के लिए भी इसका इस्तेमाल करती हैं।
इन बातों के साथ साथ यह भी बात है कि मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद 'कश्मीर समस्या' पर कश्मीरी अवाम को अलगाव में डालने, क्रूर दमन तथा साम्प्रदायिक उन्माद का जो घृणित खेल खेला गया उसने समस्या को विकराल बना दिया है। इन सब चीजों या कारणों से स्थिति बेहद जटिल बन गयी है। पिछले एक साल में आतंकी हमले बढ़ते गए हैं। पुलवामा की ही तरह का हमला लम्बे समय के बाद होने की बात कही जा रही है।
इसलिए भारत व पाकिस्तानी पूँजीवादी शासकों की घृणित मंसूबों व नीतियों, अंतर्विरोधों के चलते हस्तक्षेप व इसके लिए पालित पोषित या फिर प्रतिक्रिया में उपजे कथित आतंकी संगठनों के हमलों में या फिर छद्म युद्धों में मेहनतकशों के बेटे ही मारे जाते हैं। ऐसा दोनों ही जगहों में होता है। इसलिए जरूरी है युद्धों व कथित आतंकी संगठनों को पैदा करने वाले पूँजीवादी निजाम को ध्वस्त किया जाय ।
जहरीली शराब से हुई मौतों के जिम्मेदार शासक ही हैं !
उत्तराखण्ड के रुड़की, यू पी के सहारनपुर व कुशीनगर में अब तक जहरीली शराब के चलते 100 से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं। हर बार की तरह फिर असल अपराधियों, शराब के अवैध कारोबारियों को बचाने का खेल खेला जा रहा है।
जहरीली शराब से होने वाली मौतों का मामला पहली दफा नहीं है। 2015 में मुंबई में गरीब बस्ती में 100 से ज्यादा लोग की मौत हुई थी। गुजरात में 2009 में 136 लोगों की जबकि 1987 में 200 लोगों की मौत हुई थी। पश्चिम बंगाल में 2011 में 170 लोग जहरीली शराब के चलते मर गए। कर्नाटक में 1981 में 308 लोग लोगों की मौत जहरीली शराब के चलते हो गई।
हर बार मरने वाले गरीब व मेहनतकश लोग ही होते हैं। सहारनपुर व रुड़की में हुई मौतों में भी सभी गरीब मज़दूर मेहनतकश लोग ही हैं।
शराब के अवैध कारोबारी बेहद सस्ती मिथाइल अल्कोहल(जहरीली शराब) का इस्तेमाल करते हैं या फिर गुड़ व शीरा को शराब बनाने के लिए इसे जल्द सड़ाने के लिए इसमें रसायन का इस्तेमाल करते हैं। इसका नतीजा यह होता है कि इसमें एथिल एल्कोहॉल(शराब) के साथ साथ मिथाइल एल्कोहॉल ज्यादा मात्रा में बन जाता है। यह बहुत सस्ती बनती है। गरीब बस्तियों में इसी की सप्लाई कर दी जाती है। इसके अलावा भी कई बार जानकारी न होने के चलते गलत प्रक्रिया से किण्वन (सड़ाने) के चलते शराब में मिथाइल एल्कोहॉल भी बन जाता है।
मिथाइल एल्कोहल की थोड़ी मात्रा भी शरीर के घातक होती है इसे पीने के कुछ घंटों बाद आँखों की रोशनी चले जाती है और अंततः मौत हो जाती है। हालांकि जल्द उपचार मिलने पर एंटीडोट से बचाया भी जा सकता है।
शराब के अवैध कारोबार का पूरा का पूरा एक नेटवर्क बनता है इसमें आबकारी विभाग से लेकर पुलिस अधिकारी, शराब के अवैध कारोबारी व विधायक तक संलिप्त मिलेंगे। यह सस्ती व घटिया मिलावटी शराब गरीब मेहनतकशों तक पहुँचती है और इनके लिए जानलेवा साबित होती है।
इन मौतों के लिए यह मौजूदा व्यवस्था जिम्मेदार हैं शासक वर्ग जिम्मेदार है। मज़दूर मेहनतकश जन को शासकों व इनकी व्यवस्था ने कंगाल दरिद्र बना दिया है कि ये हर बेहतर चीज से महरूम हैं। सबसे ज्यादा घटिया निकृष्ट कोटि की चीज ही इन्हें मयस्सर है। खान पान से लेकर रहन सहन तक या फिर इलाज, यातायात व मनोरंजन के साधन ! किसी भी चीज को उठा कर देख लीजिए ! सबसे खराब गुणवत्ता वाली चीज का उपभोग करते ये गरीब मज़दूर मेहनकश जन मिलेंगे। यही स्थिति शराब के सम्बन्ध में भी सच है। सस्ती घटिया जानलेवा शराब ही इन्हें मिलती है।
जिंदगी की हताशा, निराशा, कुंठा व क्षोभ जो इस सिस्टम से पैदा होता है यह इन्हें नशाखोरी की ओर धकेलता है।
शासक वर्ग के पास शराब को महंगा करने या फिर शराबबंदी करने के अलावा 'नशाखोरी' का कोई इलाज नहीं है। इन दोनों कदमों का ही नतीजा भी होता है कि अवैध शराब का कारोबार का मार्केट छलांग लगाने लगता है। साथ ही बड़े स्तर पर कच्ची शराब भी बनने लगती है। यहीं फिर जहरीली शराब की संभावना बन जाती है। यह घटिया व सस्ती शराब गरीब बस्तियों तक पहुंचती है इसका नतीजा सहारनपुर रुड़की जैसी घटना में होता है। पूँजीवाद के रहते मज़दूर मेहनतकशों की ज़िंदगी इसी तरह रहनी है।
भीड़ द्वारा हत्याएं और उसके समर्थक
अब तक त्रिपुरा से लेकर महाराष्ट्र तक भीड़ 27 लोगों की हत्याएं कर चुकी हैं। अब ये सिलसिला आगे बढ़ता ही जा रहा है। भाजपा के बहुमत से सत्तासीन होने के बाद ये घटनाएं बहुत तेजी से बढ़ती ही जा रही हैं। स्थिति यह पैदा कर दी गई है कि कोई कभी भी इनका शिकार हो सकता है।
दादरी में कुछ साल पहले अखलाक के घर से तलाशी लेने व गौमांस के आरोप में हत्या कर दी गई थी। उसके बाद यह संख्या अलग अलग मुद्दों के नाम से बढ़ती जा रही है। दादरी में हत्यारी भीड़ के कुछ लोगो का भाजपाइयों से सीधे सम्बन्ध था। गौरक्षा के नाम पर हो रही हत्याओं व मारपीट के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर संघ परिवार व उसकी फ़ासीवादी राजनीति ही जिम्मेदार है।
भाजपा के मंत्री जयंत सिंह द्वारा हत्यारी भीड़ का फूल मालाओं से स्वागत करना व मिठाई खिलाना दिखलाता है कि असल में इनको भाजपा का खुला समर्थन हासिल है।झारखंड के रामगढ़ में गौरक्षक दल की हत्यारी भीड़ ने एक 55 साल के मुस्लिम की हत्या कर दी थी। इन्ही में से 11 को कोर्ट ने सजा सुनाई थी अभी ये जमानत पर आए ही थे कि केंद्रीय मंत्री जयंत सिंह इनका स्वागत करने वहां हाज़िर हो गए। इन 11 में बीजेपी के स्थानीय नेता नित्यानंद महतो, गौ-रक्षक समिति और बजरंग दल के कार्यकर्ता शामिल थे।भाजपाइयों के अन्य नेता भी कुछ अलग ढंग से इन्हें अपना समर्थन जाता चुके हैं।यह फ़ासीवादी ताकतों का इन्हें समर्थन ही है जो ऐसे फासिस्ट मनोवृत्ति वाली भीड़ को अगली हत्या या मारपीट की घटना को अंजाम देने के लिए प्रेरित करना है। और ये अपने कदम उस ओर बढ़ा लेते हैं।
विशिष्ट मामलों में भीड़ द्वारा नियम कानून से परे जो अपने नफरत व आक्रोश के हिसाब से अपराधी को दंडित करती है मार डालती है कि वजह यह भी होती है कि लंबे समय से अपराध अन्याय को झेलने हो और लंबे समय तक अपराधियों को कोई सजा न मिलने के चलते पुलिस व न्याय तंत्र से विश्वास खत्म हो जाने के चलते और फिर प्रतिक्रिया में अपराधी को सबक सिखाने की मानसिकता बन जाने से ये हमले होते हैं। लेकिन ऐसा बहुत कम ही होता है।
भीड़ द्वारा हत्याएं दुनिया में पहले भी हुई है। अमेरिका में 20 वीं सदी में भीड़ द्वारा हत्याओं को अन्जाम देने, फांसी पर लटका दिया जाता था। भीड़ द्वारा जो हत्याएं की जाती थी उनमें बड़ी संख्या में अफ्रीकी व अमेरिकी अश्वेत लोग होते थे। हमारे देश में भी कमजोर गरीब मेहनतकश ही इनका शिकार हो रहे हैं विशेषकर मुस्लिम और दलित।
मौजूदा वक्त में इंटरनेट के जरिये अफवाह फैलाकर फासिस्ट मनोवृत्ति वाले लॉगों को हत्या या किसी को सजा देने के लिए उकसाना व एक जगह पे एकजुट करना भी आसान हो गया है।
मोबलिंचिंग की घटनाएं, फासिस्ट संगठनों का फैलाव व इनका सम्बन्ध भी पूंजीवाद के संकट के साथ बढ़ता है नौकरी का संकट, तबाह बर्बाद होना अपनी जड़ों से उखड़ कर अन्यत्र पहुंचने को विवश होना, पुराने सामाजिक मूल्य मान्याताओं व पारिवारिक सम्बन्धों का तेजी से तबाही अन्य सामाजिक संकट आदि का गहराना।
शासक पूंजीपति वर्ग अपनी हितों के मद्देनज़र फासीवादियों को आगे बढ़ाता है। चूंकि ये फ़ासीवादी मनोवृत्ति वाली भीड़ यदि फासिस्टों से जुड़ी हुई नहीं हो तब भी ये फासिस्ट दस्तों की भूमिका आसानी से ग्रहण कर सकते हैं। यह फासीवादी जानते हैं। इसीलिए किसी भी प्रकार उनसे सम्बन्ध बनाये रखते हैं। इसीलिए जयंत सिंह से लेकर मोदी शाह तक सभी इन्हें ना नुकुर, आलोचना करते हुए समर्थन भी कर रहे हैं। हालांकि इनका एक बड़ा हिस्सा तो संघ परिवार की फ़ासीवादी राजनीति के तहत ही यह सब कर रहा है।
इसलिए आज जरूरी है कि मोबलिंचिंग की हर घटना का सख्ती से विरोध किया जाए। साथ ही पूंजीवाद की फ़ासीवादी राजनीति को बेनकाब किया जाए। फ़ासीवादी कदमों का दृढ़ता से विरोध किया जाए।
सेमिनार पेपर
मेहनतकशों ,दलितों, अल्पसंख्यकों व जनवादी ताकतों पर बढ़ते फासीवादी हमले
आज देश का वह हर नागरिक जो भी न्याय, अमन व जनवाद की बात करता है; संवैधानिक अधिकारों की बात करता है ; वंचित ,शोषित व दमित नागरिकों , समूहों व वर्गों के पक्ष में आवाज उठाता है संघर्ष करता है ; सत्ता व सरकारों की नीतियों व नीयत पर सवाल दर सवाल खड़े करता है वह साफ साफ महसूस कर सकता है देख सकता है कि बीते 4 सालों में देश का राजनीतिक परिदृश्य काफी बदल गया है कि देश जिस राजनीतिक दिशा की ओर बढ़ रहा है वह देश के मज़दूर मेहनतकश नागरिकों, वंचित व दबे कुचले समूहों के लिये आसन्न गंभीर खतरे की आहट है। यह गंभीर खतरा देश के पूंजीवादी लोकतंत्र से फासीवाद की ओर बढ़ने का है एक खूनी आतंकी तानाशाही की ओर बढ़ने का है। यह वही खतरा है जिसे बीसवीं सदी के तीसरे-चौथे दशक में विशेषकर यूरोप के मुल्कों ने झेला था जिसे आज हम नाज़ीवाद व फासीवाद से जानते हैं। देश में मौजूद इन फासीवादी ताकतों का मुख्य औजार 'कट्टर व उग्र हिंदुत्व' 'मुस्लिम विरोध', 'अंधराष्ट्रवाद' व 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' है।
जहां तक दमन का सवाल है ! ऐसा नहीं कि दमन पिछली सरकार या कांग्रेस के दौर में न हुआ हो! कोई ऑपरेशन ग्रीन हंट को कैसे भूल सकता है ? 18 माह के इंदिरा गांधी के दौर के आपात काल को कैसे भुला सकता है ? आज़ाद भारत में एक ही दिन में 55 हज़ार लोगों पर मुकदमा दर्ज कर 8000 लोगों पर राजद्रोह का मुकदमा यू पी ए-2 के ही काल में लगा था। दमन के ऐसे ही अनगिनत उदाहरण भरे पड़े है लेकिन फ़िर भी कहना ही होगा कि 16 मई 2014 के बाद राजनीतिक दिशा व देश में माहौल बहुत तेजी से बदला है। पिछले समय विशेषकर 4 सालों की बात करें तो देश में मज़दूर वर्ग, मेहनतकशों, दलितों, अल्पसंख्यकों विशेषकर मुस्लिमों पर हमले बहुत तेजी से बढ़े हैं। एक ओर 90 के दशक की नवउदारवादी नीति (निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण) का हमला बहुत तेज गति से आगे बढ़ा है नोटबंदी व जी एस टी की मार से जनता का बहुत बड़ा हिस्सा अभी भी कसमसा रहा है तो दूसरी ओर अंधराष्ट्रवाद के उन्माद में "देशभक्ति" का पैमाना बदलकर विरोधियों को "देशद्रोही" घोषित कर हमले किये जा रहे हैं।
यदि घटनाओं की बात की जाय तो तस्वीर ज्यादा साफ हो जाएगी। गुजरात जो कि फासीवादी शक्तियों का गढ़ रहा है वहां 2016 में गौरक्षा के नाम पर हमले बढ़ गए। गाय को शुद्ध व पवित्र घोषित कर इसकी रक्षा का नारा भाजपा व संघ परिवार के साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का औजार है जिसके निशाने पर मुस्लिम हैं। चुनावी राजनीति में वोट के लिए 'हिन्दू राष्ट्र' के पैरोकारों, जातिव्यवस्था को आदर्श मानने वालों को अम्बेडकर प्रेम या दलित प्रेम का दिखावा करना पड़ता है लेकिन इनके हमले का निशाना दलित भी बनने ही थे। यह गुजरात के ऊना में जानवरों का चमड़ा निकालने वाले 4-5 दलितों के साथ बहुत बुरी तरह मारपीट करने व उनके बीच दहशत फैलाने के लिए मारपीट की वीडियो को प्रचारित करने के रूप में प्रकट हुआ। इस दौरान भाजपा सरकार बेशर्मी के साथ मार पीट करने वाले गौरक्षक दलों के साथ खड़ी रही।
ज्यादा दूर व अन्य घटनाओं की चर्चा ना भी करें और सहारनपुर के शबीरपुर में मेहनतकश दलितों पर हुए बर्बर व कातिलाना हमले को ही लें। मई 2017 में महाराणा प्रताप जयन्ती मनाने वाली राजपुताना सेना ने सुनियोजित तरीके से शबीरपुर गांव में तकरीबन 50 घरों में हथियारों के साथ हमला कर दिया जिसमें 8-9 दलितों को गंभीर चोटें आई। तकरीबन 50 घरों में आग लगा दी गई। इसके बाद मेहनतकश दलित नौजवानों ने प्रतिरोध दर्ज करते हुए न्याय के लिए उग्र संघर्ष किया तो इस संघर्ष का बर्बर दमन किया गया। कोई आंदोलन खड़ा न हो सके इसके लिए पुलिसिया व भगवा आतंक के दम पर फर्जी मुकदमे व गिरफ्तारियां कर खौफ व दहशत का माहौल कायम किया गया। इस संघर्ष की अगुवाई करने वाले भीम आर्मी के युवाओं में से एक चन्द्रशेखर को आज भी फर्जी मुकदमे लगाकर जेल में रखा गया है। योगी -मोदी की संघी सरकार का फासीवादी रुख इन्हें सबक सिखाने का है। यही हो भी रहा है। एस सी-एस टी एक्ट में कोर्ट द्वारा बदलाव कर इसे कमजोर करना भी परोक्ष तौर पर फ़ासीवादी आंदोलन के आगे बढ़ने का ही सूचक है इसके विरोध में 2 अप्रैल के भारत बंद व इसके बाद ख़ासकर भाजपा शासित राज्यों का रुख योगी की तर्ज पर प्रदर्शनकारियों को सबक सिखाने व इनमें दहशत कायम करने का ही है।
एक ओर दलित तो दूसरी ओर मुस्लिम समुदाय के खिलाफ भी गौरक्षक दस्तों का आतंक इस दौरान बढ़ा। वैसे भी संघ के 'हिन्दू राष्ट्र' की फ़ासीवादी संकल्पना में अल्पसंख्यक दोयम दर्जे के हैं जिन्हें अधिकारहीनता की स्थिति में जीना होगा। इनके इस फ़ासीवादी मंसूबों के निशाने पर विशेषकर मुस्लिम शुरू से ही रहे हैं। केंद्र की सत्ता में बहुमत से पहुंचने के बाद स्पष्ट था कि मुस्लिमों पर हमले बढ़ते। अब उत्तर प्रदेश के दादरी में सुनियोजित तरीके से अखलाक की हत्या कर इनके बीच दहशत कायम की गयी। यहां भाजपा नेता की अगुवाई में लोगों को एकजुट किया गया। फ़िर अखलाक़ के घर में गौमांस होने की अफवाह फैलाकर अखलाक़ की हत्या कर दी गई। अब संविधान को व्यवहार में खत्म कर फासीवादी यहां अपनी जीत का जश्न मनाने के लिए फिर अगले घृणित कारनामों की ओर बढ़ गये।
यूं तो संविधान में हर नागरिक को अपने संस्कृति व धर्म को मानने की आज़ादी है इसके हिसाब से खान पान व रहन सहन की आज़ादी है मगर संघ परिवार इसके खिलाफ बहुत सुनियोजित तरीके से अफवाह एवं फर्जी तथ्यों से बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय में मुस्लिमों के खिलाफ नफरत का बीजारोपण करता रहा है इसीलिए यह संभव हो सका कि एक तरफ गौमांस के नाम पर अख़लाक़ की हत्या होती है तो दूसरी ओर लम्पट फ़ासीवादी तत्व पहनावे के चलते भी मुस्लिमों को अपना निशाना बना देते हैं । एक तरफ़ राजस्थान में गौपालन कर दूध बेचने वाले मुस्लिम पहलू खान की हत्या कर दी जाती है तो दूसरी ओर राजस्थान में ही अवैध संबंधों में रुकावट बन जाने पर शम्भू लाल रेंगर द्वारा एक मज़दूर मुस्लिम अफराजुल की हत्या कर दी जाती है । इसी शम्भू लाल रेंगर को फासीवादियों ने रामनवमी में अपना स्थानीय हीरो बना दिया। यू पी की योगी सरकार ने इसी फासीवादी रुख के चलते अवैध स्लॉटर हाउस को बंद करने के नाम पर मेहनतकश मुस्लिमों पर परोक्ष तौर से हमला बोल दिया। यही स्थिति फर्जी एनकाउंटर के मसले पर भी है। साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को या सही कहा जाय तो फ़ासीवादी आंदोलन को नई ऊंचाई तक पहुंचाने के लिए 'तीन तलाक', 'राम मंदिर', धारा 370 जैसे मुद्दे भी लगातार ही फ़ज़ाओं में उछाले जाते रहे हैं। आलम यह है कि केरल के हादिया प्रकरण को "लव जिहाद" का मुद्दा बनाकर इसमें केंद्र की संघी सरकार ने एजेंसी एन आई ए को ही लगा दिया।
शिक्षा व संस्कृति को अपने फ़ासीवादी एजेंडे के हिसाब से ढालने के लिए संघ परिवार के हर जतन हो रहे हैं। इसलिए कॉलेज भी फासीवादियों से इस टकराहट का अखाड़ा बन रहे हैं। विश्विद्यालयों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों व शोधार्थियों पर मोदी सरकार का हमला बढ़चढ़कर हो रहा है। यह हमला मोदी, मोदी सरकार की नीतियों व संघ परिवार की आलोचना करने वालों को फ़ासीवादी ताकतों का जवाब है। हमले का यह सिलसिला चेन्नई के आई आई टी कॉलेज में 'अम्बेडकर-पेरियार' स्टडी सर्किल(ए पी एस सी) ग्रुप पर हमले के रूप में हुआ। इस ग्रुप को संघ के विद्यार्थी संगठन की शिकायत पर मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा जारी पत्र के आधार पर कॉलेज प्रशासन ने प्रतिबंधित कर दिया। इनका कसूर सिर्फ इतना था कि इन्होंने एक पर्चा जारी किया था जिसमें साम्प्रदायिकता व कॉरपोरेट घरानों के गठजोड़ पर हमला करते हुए मोदी सरकार को आम जनता के लिए खतरनाक बताया था। संघ परिवार व मोदी सरकार का दूसरा निशाना बना हैदराबाद यूनिवर्सिटी का अंबेडकर स्टूडेंट एसोसिएशन। इनके घृणित हथकण्डे ने इस एसोसिएशन से जुड़े छात्र रोहित वेमुला को आत्महत्या के लिए मजबूर कर दिया ।
जवाहर लाल नेहरू विश्विद्यालय के मामले में तो संघ परिवार ने लगातार ही अपने घृणित हमले जारी रखे। मीडिया, पुलिस व सरकारी मशीनरी का इनमें जमकर इस्तेमाल किया गया। फ़र्ज़ी वीडियो बनाकर अपने लोगों के जरिये फ़ासीवादियों ने जे एन यू को देश द्रोहियों का अड्डा घोषित कर दिया। कोर्ट में भी संघी वकीलों द्वारा पेशी पर ले जाये जा रहे जे एन यू छात्रों पर हमला किया गया। एफ़ टी टी आई के छात्रों पर किये गए हमले से हम रूबरू ही हैं। फासीवादियों के ये कारनामे इनके जनवादी व संवैधानिक अधिकारों पर खुले आम हमले थे। इस दौर में हरियाणा, इलाहाबाद कॉलेज में भी फासीवादी ताकतों ने हमला किया। मामला यही नहीं रुका। बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में छात्र-छात्राओं पर रात के अंधेरे में मोदी-योगी की संघी सरकार ने लाठी चार्ज करवा दिया। यहां छात्राओं ने छेड़खानी के विरोध में यूनिवर्सिटी के संघी वाइस चांसलर से मुलाकात कर अपनी मांगें उनके सम्मुख रखनी चाही थी लेकिन संघी मानसिकता के वाइस चांसलर ने मुलाकात से मना कर दिया व मांगो को कोई तवज्जो नहीं दी। इसके बजाय इन्हें सबक सिखाने के लिए दमन का रास्ता चुना गया। लाठीचार्ज के बाद 1200 छात्र-छात्राओं पर फर्जी मुकदमे दर्ज कर दिये गए। यह घटना मोदी-योगी की संघी सरकार के स्त्री विरोधी चरित्र को भी दिखलाता है। स्त्री-पुरुष की सामाजिक असमानता को भी धूर्त संघी प्राकृतिक ही बताते हैं।
संघ परिवार अपनी जहनियत में तार्किक व वैज्ञानिक चिंतन का भी विरोधी है। खुद प्रधानमंत्री ने वैदिक जमाने में गणेश का हवाला देकर प्लास्टिक सर्जरी होने का दावा किया था। आम तौर पर आम अवाम को अतार्किक व मूढ़ बनाये रखना शासक वर्ग के हित में होता है। इसी बात को समझते हुए फ़ासीवादी इतिहास परिवर्तन की परियोजना पर तेजी से काम कर रहे हैं जिसका मकसद अपने इसी हिन्दू फ़ासीवादी एजेंडे को दीर्घकालिक तौर पर आगे बढ़ाना है। इसलिए प्रगतिशील व तर्कपरक चिन्तन पर जोर देने तथा अन्धविश्वास निर्मूलन के लिये काम करने वाले वाले डॉक्टर कलबुर्गी की हत्या कर दी गई। वहीं गोविंद पंसारे जो कि ट्रेड यूनियन संघर्ष के मोर्चे पर लगातार सक्रिय थे। गोविन्द पंसारे ने संघी फासीवादियों को शिवाजी के मसले पर बेनकाब करने के लिए किताब भी लिखी थी। इनकी हत्या भी एक रोज़ कर दी गयी। गौरी लंकेश जो कि संघी फासीवाद के खिलाफ लगातार अपने लेखन के जरिये हमले कर रही थी उन्हें भी यू पी के मुख्यमंत्री योगी की भाषा में "ठोक" दिया गया। खौफ का माहौल यूं बन गया कि तमिलनाडु के लेखक पेरुमाल मुरुगन को लेखक के रूप अपनी मौत की ही घोषणा करनी पड़ी। हिटलर के फासीवादी दस्ते इस ढंग से हत्या करते थे कि फिर लोगों के बीच खौफ व दहशत कायम हो जाये। यही तरीका फासिस्टों के भारतीय संस्करण का भी है।
देश में बढ़ती असहिष्णुता के खिलाफ पुरस्कार वापसी आंदोलन को "मज़ाक़" में तब्दील कर इन पर अपना फ़ासीवादी हमला फ़ासीवादियों ने निरंतर जारी रखा। किसानों के आंदोलनों का निर्मम दमन राजस्थान व मध्य प्रदेश में किया गया। पुलिस की गोली से कुछ किसान मारे भी गए। मज़दूर वर्ग के ट्रेड यूनियन आंदोलनों पर इनके हमले बदस्तूर जारी हैं। श्रम कानूनों व ट्रेड यूनियन एक्ट में बदलाव कर मज़दूर वर्ग पर बढ़ा हमला बोलने की तैयारी चल ही रही है।
कुलमिलाकर आज़ादी के बाद एक लंबे वक्त तक हाशिये पर पड़ा यह फ़ासीवादी आंदोलन आपात काल के दौर में इसके विरोध की आड़ में अपना विस्तार करता है फिर 80 के दशक के बाद नवउदारवादी नीतियों(निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण) के समानांतर इसका फैलाव होने लगता है। इन नीतियों को लागू करवाने के दौर में 'राम मंदिर' का आंदोलन खड़ा कर ये अपना विस्तार करते हैं। इसी के बाद पहले ये कुछ राज्यों में अपनी सरकार बनाने में सफल होते हैं फिर बाद में बाजपेयी की अगुवाई में एन डी ए की सरकार बनाने में कामयाब हो जाते हैं। फिर स्थितियां ऐसी बनती हैं कि 2014 आते आते ये बहुमत से सत्ता पर पहुंच जाते हैं। तब से चार साल गुजर चुके हैं। अब ये गुजरे चार साल देश में फ़ासीवादी आंदोलन के ज्यादा तेजी से निरंतर आगे बढ़ने के साल हैं इन चार सालों में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के जरिये आगे बढ़ रहा यह फ़ासीवादी आंदोलन आज उत्तराखण्ड के शांत माने जाने वाले पहाड़ी इलाकों से लेकर बंगाल,केरल तक फैल चुका है।
ये चार साल देश के पूंजीवादी संविधान के और ज्यादा कमजोर होते जाने के साल भी हैं साथ ही सीमित जनवादी व संवैधानिक अधिकारों की खुले आम धज्जियां उड़ाये जाने व इन्हें रौंदने के साल भी हैं। ये चार साल देश की सत्ता के बढ़ते केन्द्रीकरण, संसद में मंत्रीमंडल की भूमिका को बेहद कमजोर कर देने व जन मतों से नहीं चुनी जाने वाले प्रधानमंत्री कार्यालय के सर्वोच्च निकाय के बतौर सामने आने के साल हैं। न्यायालय, चुनाव आयोग व रिजर्व बैंक की स्थिति किसी से छुपी हुई नही है। न्यायालय के 4 जजों की प्रेस कॉन्फ्रेंस इनके न्यायपालिका में बढ़ते शिकंजे के विरोध की ही एक अभिव्यक्ति थी। अब देश की हर तरह की संवैधानिक संस्थाओं में फ़ासीवादी तत्त्वों की घुसपैठ हो चुकी है। पूंजीवादी लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहलाने वाला मीडिया इनके स्तुतिगान में लगा हुआ है साथ ही यह साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को आगे बढ़ाने का साधन बन चुका है जबकि इनका विरोध करने वाले पत्रकारों की आवाज़ खामोश कर दी जा रही है।
इस फ़ासीवादी आंदोलन के निशाने पर देश का मज़दूर वर्ग व देश के मेहनतकश दलित, मेहनतकश अल्पसंख्यक विशेषकर मुस्लिम हैं। इनके निशाने पर वह हर नागरिक है जो सरकार की नीतियों पर व नियत पर सवाल करता रहा है इनकी आलोचना करता है।
स्पष्ट है कि फ़ासीवादी ताकतों के सत्ता में बने रहने पर ये घृणित हथकंडे व हमले इनके बेनक़ाब होने के साथ साथ बहुत तेजी आगे बढ़ते जाएंगे। उत्तर प्रदेश में योगी की ताजपोशी के साथ साथ राम मंदिर रथ यात्रा इसी फ़ासीवादी आंदोलन को 2019 के लिए नई ऊंचाई पर पहुंचाने की ही चाहत है। जहां तक इन्हें परास्त करने का सवाल है यह ध्यान रखना ही होगा कि फ़ासीवादी ताकतों के सत्ता पर बने रहने को केवल मोदी-शाह, भाजपा या फिर संघ परिवार तक सीमित कर देने से कोई फासीवाद विरोधी आंदोलन विशेष सफलता हासिल नही कर सकता। यदि हम गौर करें तो तस्वीर ज्यादा साफ हो जाएगी। 2007-08 से ही वैश्विक अर्थव्यव्यथा आर्थिक संकट की चपेट में है। तब अमेरिका से शुरू हुए सब प्राइम संकट ने धीरे धीरे पूरी दुनिया को अपनी जद में ले लिया था। हज़ारों अरब डॉलर का बेल आउट पैकेज तब संकट के लिए जिम्मेदार वित्तीय संस्थाओं को किया गया। यही तरीका अन्य देशों के पूंजीवादी हुक्मरानों के लिए भी नज़ीर बन गया। भारत इस संकट से कुछ हद बचा रहा तो इसकी बड़ी वजह बैंकिंग व बीमा कंपनियों का सरकार के नियंत्रण में होना था। इस आर्थिक संकट के दौर में ही हमने ट्यूनीशिया से लेकर मिश्र में जन संघर्षों की लहरें देखी। यही वो दौर भी है जब अमेरिका से लेकर यूरोप में भी भांति भांति के आंदोलन खड़े हो गए। ऑक्युपाई वाल स्ट्रीट, अमेरिका के विस्कोसिन प्रांत में मज़दूर वर्ग का जुझारू संघर्ष, ब्रिटेन के छात्रों का जबरदस्त प्रदर्शन, चीली, ब्राज़ील, चीन, स्पेन,ग्रीस ,फ्रांस में जन संघर्ष । मिश्र के जन सैलाब में मज़दूर वर्ग अग्रिम कतारों में खड़ा था। दक्षिण अफ्रीका के प्लेटिनम खदानों के मज़दूरों का संघर्ष, चीन के मज़दूर वर्ग का जुझारू संघर्ष जिससे चीन के मज़दूर वर्ग ने कुछ वेतन वृद्धि करने में सफलता हासिल की। खुद भारत में मारुति सुज़ुकी के मज़दूरों का आंदोलन ऐतिहासिक बन गया। इसके अलावा भी मज़दूर वर्ग समेत देश में अन्य तबकों के भी संघर्ष हुए। भूमि अधिग्रहण के खिलाफ जुझारू संघर्ष देश में हुए। ये सभी संघर्ष अपनी बारी में पूंजी के आक्रामक होते जाने का जवाब थे।
यह संकट व संघर्ष तात्कालिक रूप में पिछली सदी के सत्तर के दशक से वैश्विक स्तर पर लागू की गयी नवउदारवादी नीतियों की ही अभिव्यक्ति थे। इन नीतियों ने मज़दूर मेहनतकशों की तबाही बढ़ाई है असमानता को बढ़ाया है। इन नीतियों को तब के दौर के वैश्विक आर्थिक ठहराव से निपटने के नाम पर पूंजी के मुनाफे को बढ़ाने के लिए लाया गया था। यह तब पूंजी के फिर से आक्रामक होने का दौर था। अब 2007-08 में वैश्विक पूंजीवादी आर्थिक संकट उपस्थित होने पर पूंजी का हमला ज्यादा तीव्र हो गया। अब एक दौर में समाजवादी दुनिया के दबाव में कल्याणकारी राज्यों के चलते जनता को व मज़दूर वर्ग को जो कुछ भी हासिल हुआ था अब उन पर तीखे हमले का दौर था। अब एक ओर पूंजीवादी शासकों ने "कटौती कार्यक्रम" के जरिये जनता पर आर्थिक रूप में हमला बोला तो दूसरी तरफ अपनी राजनीति में उसने दक्षिणपंथी फासीवादी ताकतों को आगे कर दिया। आज समूची दुनिया की यही स्थिति है। भारत भी इसी पूंजीवादी दुनिया का ही हिस्सा है यही स्थिति यहां भी है। देश के भीतर इस दौर में भारतीय एकाधिकारी पूंजी का कांग्रेस पर लगातार नई आर्थिक नीतियों को तेजी से लागू करने का दबाव था। कांग्रेस चाहते हुए ऐसा नहीं कर पा रही थी। यही वजह थी कि एकाधिकारी पूंजी के एक मालिक टाटा को कहना पड़ा कि कांग्रेस सरकार 'पालिसी पैरालीसिस' की शिकार है। अब कांग्रेस के 'राजनीतिक व नैतिक प्राधिकार' को ध्वस्त करने के लिए फ़ासीवादी 'अन्ना व केजरीवाल' कम्पनी का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन खड़ा कर दिया गया था। भ्रष्टाचार की इसी गंगोत्री में अब भाजपा व मोदी गोते लगा रहे हैं फिर भ्रष्ट विपक्षियों के भी कुछ पतित लोग इसमें नहाकर 'ईमानदार व पवित्र' हो जा रहे है।
खैर! अब एक ओर नई आर्थिक नीतियों को तेजी से आगे बढ़ाने तो दूसरी तरफ जनांदोलनों से बेदर्दी से निपटने की चाहत पूंजीपति वर्ग की थी । एकाधिकारी पूंजी के हिसाब से अब वह वक़्त क़रीब आ पहुंचा था जब कि एक वक्त तक पाले पोसे गये फासीवादी ताकतों की केंद्रीय सत्ता पर ताजपोशी हो। गुजरात मॉडल को व उसके नायक को खड़ा कर उसे भली भांति देख लेने के बाद 2014 में यह ताजपोशी भी सम्पन्न हो गई। इसलिए कहना होगा कि फासीवादी ताकतों को सत्ता पर बिठाने का असली दारोमदार एकाधिकारी पूंजी के हाथ में है। 16 मई 2014 के बाद की स्थिति अब स्पष्ट है। अब एक ओर आर्थिक क्षेत्र में मज़दूर वर्ग के शोषण को अत्यधिक बढ़ाने के लिए श्रम कानूनों व ट्रेड यूनियन कानूनों पर हमले हो रहे हैं आम जन को मिलने वाली चंद सुविधाएं व सब्सिडी हर क्षेत्र में खत्म हो रही हैं। बैंकों के 8-10 लाख करोड़ रुपये के गैर निष्पादित परिसंपत्तियों (एन पी ए) को बट्टे खाते में डालने व 2 लाख करोड़ रुपये का बेल आउट करने के साथ ही अब 'बेल इन' की योजना भी बन रही है जिसमें बैंक के दिवालिया होने की स्थिति में इनमें जमा जमाकर्ताओं की पैसे को रोक लिया जाएगा। दूसरी ओर राजनीतिक हमले के रूप में अब तक का सबसे मजबूत फ़ासीवादी आंदोलन हमारे सामने है। यह एक ओर 'आधार' के जरिये निगरानी तंत्र खड़ा कर चुका है तो वहीं दूसरी ओर विरोधी वर्ग व तबकों के आंदोलन का धूर्तता से दमन कर रहा है ।
जहां तक फ़ासीवाद के सम्बन्ध में अतीत की बात है। बीसवीं सदी के तीसरे व चौथे दशक में जर्मनी, इटली, स्पेन, पुर्तगाल व हंगरी आदि में फ़ासीवादी सत्ताओं के उभार को हम जानते हैं। यह वह दौर है जब इस सदी के पहले दशक में मंदी व फिर पहला विश्व युद्ध हुआ था। इस विश्व युद्ध के दौर में ही साम्राज्यवादी रूस में क्रांतिकारी बदलाव हो गया था। तब समाजवादी रूस वज़ूद में आ गया था जो मज़दूर मेहनतकशों का अपना राज्य था। इस क्रांति की लहर यूरोप के अन्य मुल्कों को अपनी चपेट में लेने की ओर बढ़ गई थी। तब इटली में क्रांतिकारी लहर से निपटने के लिए प्रतिक्रियावादी वित्त पूंजीपतियों ने फ़ासीवादी मुसोलिनी व उसके फ़ासिस्ट दस्ते को सत्ता सौंप दी। यही स्थिति दूसरे विश्व युद्ध से पहले के 'महामंदी' के दौर में बन गयी जब जर्मनी के थाइसेन व क्रुप्स जैसे एकधिकारी वित्तपतियों ने नाजीवादी हिटलर व उसकी पार्टी को सत्ता पर पहुंचा दिया। इसके बाद फासीवाद ने हिंसा, उन्माद, खूनी आतंक की घृणित व बर्बर मिसालें क़ायम की थी। यह सोवियत रूस की मज़दूर सत्ता ही थी जिसने फ़ासीवाद को तब परास्त किया था जिसे तब परास्त किया जा चुका था आज उसका खतरा फिर से हमारे सामने है।
आज वैश्विक मंदी के जमाने में एक ओर दुनिया में दक्षिण पंथी व फ़ासीवादी तत्वों के उभार दिख रहे हैं तो दूसरी ओर खुद हमारे देश में अब तक का सबसे मजबूत फासीवादी आंदोलन हमारे सामने है। अम्बानी,अडानी,टाटा आदि जैसी बड़ी एकाधिकारी पूंजी का हाथ अब मोदी-शाह, भाजपा व संघ परिवार की पीठ पर है। लंबे वक्त तक कांग्रेस ने इस पूंजी के हितों को आगे बढ़ाया है लेकिन आर्थिक संकट के दौर में एकाधिकारी पूंजी की बेचैनी व अधैर्य ने फ़ासीवादी ताकतों को सत्ता पर बिठा दिया। आज देश व दुनिया में कोई शक्तिशाली क्रांतिकारी आंदोलन व क्रांति का खतरा न होने के बावजूद यदि पूंजीपति वर्ग ने फ़ासीवादी ताकतों को सत्ता पर बिठा दिया है तो यह उनकी अपने लिए मज़बूत व सुरक्षित क़िलेबंदी इस बार पहले ही कर लेने की घृणित मंसूबों की ही अभिव्यक्ति है। फिलहाल नग्न फ़ासीवादी सत्ता न कायम करने के बावजूद शासकों की मंशा यही है कि फ़ासीवादी आंदोलन की मौजूदगी लगातार देश के भीतर बनी रहे। यह फ़ासीवादी आंदोलन अलग अलग मुद्दों के जरिये देश व्यापी होता जा रहा है।
फासीवाद कोई एक अलग राजनीतिक सामाजिक अर्थव्यवस्था नहीं है बल्कि यह पूंजीवादी शासन व्यवस्था का ही एक भिन्न रूप है पूंजीवादी लोकतंत्र के बरक्स यह प्रतिक्रियावादी एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग की खुली आतंकी तानाशाही है। यह आम पूंजीवादी तानाशाही की तुलना में मज़दूर मेहनतकशों व जनवादी ताकतों के लिए कई गुना ज्यादा घातक व खतरनाक है। यह फासीवादी आंदोलन जनवादी चेतना, जनवादी मूल्यों व परम्पराओं को कमजोर करता हुआ व इसका निषेध करता हुआ आगे बढ़ रहा है। निरंकुशता, आतंक व दमन को आगे बढ़ाता हुआ यह फासीवाद की दिशा में बढ़ रहा है। इसके कई मुंह है एक ओर यह एक व्यक्ति मोदी को "महामानव" के रूप में प्रस्तुत कर रहा है तो दूसरी ओर उग्र व अंधराष्ट्रवादी उन्माद खड़ा कर रहा है। यह 'लव जेहाद', 'तीन तलाक' 'गौ माता' ' इस्लामिक आतंकवाद' के नाम पर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को तेजी से आगे बढ़ा रहा है । फ़ासीवादी समाज के सबसे ज्यादा भ्रष्ट, निकृष्ट तत्व होते हैं जो लम्पट व पतित तत्वों को भी अपने साथ शामिल कर लेते हैं। चुनाव जीतने के लिए हर घृणित हथकंडे, फर्जी एनकाउंटर, झूठ-अफवाह व फर्जी आंकड़ों का गुब्बार, भ्रष्ट पतित तत्वों को अपने में शामिल कर इनके 'नैतिक' 'ईमानदार' होने के दावे ये वो चीजें हैं जो फासिस्टों के चरित्र को खोल कर रख देती हैं। गुजरात के चर्चित शोहराबबुद्दीन फेक एनकाउंटर व इस केस को देख रहे जज लोया की हत्या का मामला तो अब हमारे सामने ही है। इसलिये जो यह सोचते हैं कि चुनाव में जातिवादी या भांति भांति के समीकरण बनाकर या फिर कोई गठबंधन बनाकर फ़ासीवादी ताकतों को हराया जा सकता है तो वास्तव में यह फासीवाद को केवल पार्टी विशेष या व्यक्ति विशेष तक सीमित करना है इसलिये यह फ़ासीवादी ताकतों को परास्त नहीं कर सकता।
फ़ासीवादी आंदोलन का जवाब चुनावी जोड़-तोड़ नहीं हो सकता। हो सकता है कि चुनाव में फ़ासीवादी ताकतें हार जाएं लेकिन चूंकि एक फ़ासीवादी आंदोलन तब भी मौजूद रहेगा जैसे ही संकट की घड़ी आएगी एकाधिकारी पूंजी के मालिक फ़ासीवादी ताकतों को सत्ता पर बिठा ही देंगे। ऐसे करने के तमाम विकल्प उनके पास होते हैं। तब व्यक्ति दूसरा भी हो सकता है पार्टी भी दूसरी हो सकती है। कांग्रेस इसी एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग की प्रतिनिधि है जिसकी अगुवाई इस वक़्त भाजपा कर रही है। इन हिन्दू फ़ासीवादी ताकतों को पालने पोसने में जहां पूंजीपति वर्ग की ही मुख्य भूमिका रही है वहीं पार्टी के रूप में कांग्रेस ने भी यही काम किया है। भाजपा के कट्टर व उग्र हिंदुत्व का जवाब कांग्रेस के पास क्या है? 'नरम हिंदुत्व'। यह 'नरम हिंदुत्व' अपनी बारी में 'उग्र हिदुत्व' में तब्दील होकर फ़ासीवादी भाजपा व संघ परिवार को ही ताक़त देगा। क्षेत्रीय पार्टियों का सवाल जहां तक है जो कि फ़ासीवादी ताकतों से कुछ टकराहट में दिखते लगते हैं तो ये खुद भी उन्हीं नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को परवान चढ़ा रही हैं जिन्हें कि कांग्रेस या भाजपा। इन नीतियों को लागू करने में ये भी घोर दमनकारी हैं साथ ही इसी वज़ह से ये घोर अवसरवादी भी हैं। ये इन नीतियों में क्षेत्रीय पूंजीपतियों के हितों के हिसाब से सौदेबाजी करती हैं। मोदी विरोधी नीतीश व उनकी पार्टी महागठबंधन के नाव पर सवार होने के बाद अब मोदी व भाजपा की गोद में बैठे हुए हैं । इस जमीन से कैसे फासीवादी आंदोलन का विरोध हो सकता है। सरकारी वामपंथियों के फसीवाद विरोध का जहां तक सवाल है इन्होंने फासीवाद को केवल मोदी, भाजपा व संघ तक सीमित कर दिया है। ये भी ख़ुद इन्ही नवउदारवादी नीतियों को आगे बढ़ा रही हैं। नंदीग्राम व सिंगुर इन्ही नीतियों की उपज थी। इस सोच व समझ के साथ फासीवादियों का मुकाबला नहीं किया जा सकता।
फासीवादियों का विरोध उसी जमीन से हो सकता है जिस वजह या डर से इसे पाला पोसा जाता है व सत्ता पर बिठाया जाता है यानी मज़दूर मेहनतकशों का सशक्त क्रांतिकारी आंदोलन। इसलिए इस फासीवादी आंदोलन का जवाब भी केवल मज़दूर मेहनतकशों का क्रांतिकारी आंदोलन व इसके साथ साथ अलग अलग वर्गों व तबक़ों का व्यापक जुझारू फासीवाद विरोधी संयुक्त मोर्चा ही हो सकता है। इस दिशा की ओर बढ़ते हुए जनवाद, जनवादी व संवैधानिक अधिकारों पर होने वाले हर फासीवादी हमले का पुरजोर विरोध करते हुए फासीवाद विरोधी आंदोलन खड़ा करने की ओर बढ़ना होगा। हमें याद रखना होगा कि इतिहास का निर्माण जनता करती है। मज़दूर वर्ग व मेहनतकश अवाम उसकी पार्टियों की अगुवाई में बने मोर्चों ने अतीत में फासीवाद को ध्वस्त किया था। ये फ़ासीवाद विरोधी संघर्ष हमारी प्रेणा है व विरासत है। यह ध्यान रखना होगा कि फ़ासीवादी जैसे जैसे आगे बढ़ते हैं आम अवाम के हर हिस्से को अपने विरोध में भी करते जाते हैं साथ ही इनकी दिशा समाज व इतिहास की गति को पीछे धकेलने की है जो निरथर्क है। यही इनकी असल कमजोरी है और हमारी ताकत। हमें मज़दूरों,छात्रों,दलितों,अल्पसंख्यकों,आदिवासियों, किसानों व महिलाओं हर तबके व वर्ग पर होने वाले फासीवादी हमले का पुरजोर विरोध करते हुए आगे बढ़ना होगा।
क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन
कर्नाटक चुनाव, भाजपा, कांग्रेस और लोकतंत्र
कर्नाटक चुनाव में पिछले चुनावों की ही तरह मोदी व शाह की जोड़ी ने बहुत कुछ दांव पे लगाया। सही कहा जाए तो इस चुनाव में मोदी-शाह की जोड़ी ने भ्रष्ट रेड्डी बंधु से हाथ मिलाया, भ्रष्ट येद्दयुरप्पा को मुख्य मंत्री का उम्मीदवार बनाया यही नहीं प्रधानमंत्री ने फिर ऐतिहासिक तथ्यों से मनमाना खिलवाड़ किया साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की हर कोशिश की और चुनाव प्रचार बन्द होने के बावजूद अंतिम दिन नेपाल से प्रचार करने का दांव भी चला। शाह ने 130 सीट जीतने का दावा भी किया। लेकिन इस सबके बावजूद भी बहुमत भाजपा को हासिल नहीं हुआ। वोट प्रतिशत के लिहाज से 36.2% के साथ पार्टी दूसरी नंबर पर थी तो सीट के हिसाब से 104 सीटों के साथ पहले नम्बर पर।
जहां तक कॉंग्रेस का सवाल है उसने भी बहुमत हासिल करने का दावा किया था हालांकि वोट प्रतिशत के लिहाज (38%) पहले नंबर पे रही तो सीटों के लिहाज से 78 सीटों के साथ दूसरे नंबर पर। कांग्रेस पार्टी कभी भी धर्मनिरपेक्ष नहीं रही नरम हिदुत्व की नीति पर वह चलती रही है। इस चुनाव में भारतीय फासीवादियों के उग्र हिंदुत्व के जवाब में गुजरात से आगे बढ़ते हए कांग्रेस नरम हिंदुत्व पर खुल कर खेलने लगी। वह मठों व मन्दिरों के चक्कर जमकर लगाने लगी। फ़ासीवादी ताकतों का जवाब कांग्रेस ऐसे ही दे सकती है इस नरम हिन्दुत्व की परिणति देर सबेर उग्र हिंदुत्व में ही होनी है।
आज के जमाने में जब पूंजीवाद का वैश्विक संकट गहन हो रहा हो शासक वर्ग दुनिया भर में प्रतिक्रियावादी ताकतों व दक्षिणपंथी ताकतों का आगे कर रहा हो खुद मध्यमार्गी पार्टी इस दिशा में ढुलक रही हो तो फिर अपने देश में इस पर अचरज कैसा। कांग्रेस की दिशा भी अब यही है। इतना तो स्पष्ट है कि एकाधिकारी पूंजी अब अपनी इस पार्टी के पतन पर ब्रेक लगाने को उत्सुक है। उसकी यह उत्सुकता एक वक़्त के "पप्पू" की गंभीरता व खुद को प्रधानमंत्री के बतौर प्रोजेक्ट करने में दिखती है। यह चुनाव के बाद घटे घटनाक्रम में और भी ज्यादा साफ है कॉंग्रेस की भाजपा के मुंह से जीत छीन लेना यूं ही नही है।
कर्नाटक चुनाव को 2019 के मोदी के लिटमस टेस्ट की तरह भी प्रस्तुत किया जा रहा था। इतना तो स्पष्ट है कि चुनाव दर चुनाव के आंकड़े दिखाते है कि मोदी की लोकप्रियता का ग्राफ या मोदी पर भरोसे का ग्राफ गिर रहा है लगभग 6%--10% की गिरावट है। कर्नाटक चुनाव में लोक सभा चुनाव की तुलना में लगभग 7%, की गिरावट है। अब कर्नाटक में सत्ता हाथ से जाने के बाद तय है कि साम्प्रदायिक उन्माद को अब और ज्यादा उग्र होकर आगे बढ़ाया जाएगा। सम्भावना इसकी ज्यादा है कि यह गुजरात की तर्ज पर हो राम मंदिर, अंधराष्ट्रवाद आदि के अलावा यह प्रधानमंत्री यानी मोदी के आतंकवादियों द्वारा मारे जाने की फर्जी खबरों की बाढ़ व गिरफ्तारियों के रूप में हो सकता है।
खैर कर्नाटक में चुनाव के बाद जो स्थिति बनी जिसमें भाजपा किसी भी कीमत पर सरकार बनाने के लिए बेचैन थी और राज्यपाल ने 15 दिन का समय बहुमत सिद्ध करने के लिए दिया था। यह गुजरे जमाने के कांग्रेस की याद दिलाने वाला था। तब कांग्रेस अपने विरोधियों की प्रांतीय सरकारों को गिराया करती थी । "नैतिकता व शुचिता" की बातें करने वाली भाजपा अब कहने लगी कि "राजनीति भी संभावनाओं की कला है"।इसके लिए विधायकों की खरीद के लिए जमकर कोशिश की गई। दूसरी ओर कांग्रेस ने जे डी एस से अवसरवादी गठजोड़ कर उसके नेता को मुख्यमंत्री घोषित कर सत्ता से भाजपा को बाहर करने के लिए जमकर मोर्चा लिया। अंततः येद्दयुरप्पा को इस्तीफा देना पड़ा। वे विधायको को ख़रीदने में असफल रहे।
कांग्रेस इस जीत को अब लोकतंत्र की जीत कह रही है उनका लोकतंत्र सही मायने में है भी यही यानी पूंजीवादी लोकतंत्र। इस लोकतंत्र में पूंजीपति वर्ग की पार्टियां बारी बारी से जनता के बीच से चुनकर आकर उन पर शासन करती है। आम अवाम के ऊपर कुछ बेहद सीमित अधिकारों के रूप में यह पूंजीवादी तानाशाही के अलावा और कुछ नही है। अब कर्नाटक में सरकार चाहे किसी भी पार्टी की बने जनता के जीवन में कोई बदलाव तो आने से रहा। जहां तक फ़ासीवादी ताकतों से लड़ने का सवाल है यह कांग्रेस की न तो मंशा है न ही वह ऐसा कर सकती है।
23 मार्च' भगत सिंह शहादत दिवस के 87 वें साल पर
23 मार्च 1931 का दिन भगत सिंह , राजगुरु व सुखदेव को अंग्रेजी हुक्मरानों द्वारा फांसी दी गई थी तब से अब 87 साल गुजर चुके हैं । इन 87 सालों में देश के शासक बदल गए। भगत सिंह की बातों में कहा जाय तो गोरे अंग्रेज तो चले गए काले अंग्रेज सत्ता पर काबिज़ हो गए। एक खतरनाक दमन, अंग्रेजी हुकूमत के आतंक साथ ही दंगों का दौर आज़ादी से पहले गुजरा था। और आज़ादी के बाद आज जब 'सवाल' उठाने पर पहरे लग रहे हों ; अधिकारों की -रोजगार की-महंगाई की बात करना गुनाह हो। जब मेहनतकश दलितों-मुस्लिमों के पक्ष में आवाज उठाना देशद्रोह हो ; हर चीज को जब 'धर्म-संस्कृति-देशभक्ति' की चाशनी में परोसा जा रहा हो; जब चौतरफा नफरत और दंगो की ही साजिश रची जा रही हो तब कहना ही होगा कि यह वक़्त बेहद खतरनाक है !
अवश्य ही ! जिस समाज का ख्वाब भगत सिंह ने बुना था यह वैसा समाज नहीं है। भगत सिंह व उनके साथियों का ख्वाब था देश आज़ाद हो ; कि आज़ाद भारत समाजवादी देश बने। जिसमें अन्याय उत्पीड़न शोषण के लिए कोई जगह न हो ; जिसमें धर्म लोगों का निजी मामला हो, कोई गैरबराबरी ना हो; जिसमें पूंजी की जकड़न से समाज मुक्त हो; मेहनतकश जनता में भाईचारा हो ।
ऐसे समाज के लिए भगत सिंह व उनके साथियों ने कुर्बानी दी। वह न केवल अंग्रेजो से लड़े बल्कि देश के काले अंग्रेजों के भी वह विरोधी थे। भगत सिंह कहते थे कुछ फर्क नही पड़ेगा यदि अंग्रेज पूंजीपति चले भी जाएं उनकी जगह देश के पूंजीपति जमीदार शासक बन जाएं तो। यही वजह थी कि 23 मार्च 1931 को भगत सिंह को फांसी दे दी गई और साथ ही राजगुरु व सुखदेव को भी।
ये नौजवान शहीद हो गए मगर इनके विचार को अंग्रेज सरकार न मार सकी । इनके कुर्बानी व विचारों की चर्चा घर घर होने लगी। बस स्थितियां ऐसी बनी कि देश आजाद तो हुआ लेकिन सत्ता काले अंग्रेजो को मिल गयी।
इन काले अंग्रजों की बदौलत आज संसाधनों व जनता की लूट खसोट निर्मम हो चुकी है। नोटबंदी व जी.एस.टी की हकीकत हमारे सामने है। बढ़ती महंगाई, बढ़ती बेरोजगारी को हर कोई महसूस करता है। फैक्ट्रियों में मज़दूर का भयानक शोषण है तो उधर किसान आत्महत्याएं कर रहे है। लेकिन चैनलों में "चमकता भारत" है "खुशहाल जनता" है । टी वी चैनलों की-अखबारों की क्या कहें ? वंहा से जनता के दुख दर्द गायब हैं जनता के मुद्दे गायब हैं । वंहा चीख-शोरगुल,गाली-गलौज के सिवाय क्या है ? यंहा बस "धर्म-राष्ट्र-संस्कृति-युद्ध" का उन्माद है। "धर्म-राष्ट्र-संस्कृति" के ठेकेदारों का ही अब चौतरफा आतंक है। ये हिटलर-मुसोलिनी के भक्त अपने आतंक से जनता को रौंद रहे है। इनके आतंक से मेहनतकश इंसान कसमसा रहा है। दूसरी ओर शासक पूंजीपतिवर्ग है उसके मुनाफे का कारोबार इन सबसे बढ़ती पर है, शेयर बाजार आसमान छू रहा है। हाल ये है कि देश की कुल संपदा का 73 % हिस्सा देश के 1 % पूंजीपतियों के कब्जे में जा चुका है जो कि पहले 58 % था। यही वो "विकास" है जिसके जश्न मनाये जा रहे है। यही जनता की "खुशहाली" है।
जनता की इस बर्बादी के लिए शासक पूंजीपति जिम्मेदार है । लंबे वक्त तक पूंजीपतियों ने कांग्रेस को सत्ता पर बिठाये रखा। अपने मुनाफे के कारोबार को बहुत बढ़ाया। मंदी का दौर आया तो पूंजीपतियों ने फासीवादी ताकतों को सत्ता पर बिठा दिया । 'अम्बानी-अडानी का हाथ अब मोदी-शाह के साथ' है इनके सर पर है। अब 'जनता को कंगाल बनाने -पूंजीपतियों को मालामाल करने' की स्कीम जोर शोर से चल रही है। इसीलिए 'पकोड़े बेचना' 'कबाड़ बेचना' 'गुब्बारे बेचना' इनकी नज़र में रोजगार है। जनता इस लूट को न समझ पाए इसलिये 'फूट डालो-राज करो' का मंत्र हर ओर है। इसीलिए दंगे अब कभी इधर तो कभी उधर बहुत जरूरी है। जनता 'हिन्दू -मुस्लिम' में बंट जाएं ऐसे मुद्दे बेहद जरूरी हैं । सीमाओं पर युद्ध जरूरी है। हथियारों के अरबों-खरबों के धंधे का सवाल जो है। फिर पड़ोसियों के खिलाफ घोर नफरत भी तो बहुत जरूरी है ताकि 'राष्ट्रवाद' का कारोबार चलता रहे और 'युद्ध' को जायज ठहराया जा सके । दोनों तरफ सीमाओं पर रहने वाले घरों में जो खौफ-दहशत व मौत पसरी रहती है उनको कोई क्यों सुने। इन दंगो में कौन मरता है ? सीमाओं पर कौन मरता है ? नोटबंदी से जो मरे वो कौन लोग थे ? क्या कोई पूंजीपति या नेता या बड़ा अधिकारी था ? नहीं । निश्चित तौर पर --मरने वाले मेहनतकश लोग थे। चाहे वह किसी भी धर्म के हों , जाति के हों या फिर क्षेत्र के हों । मेहनतकश जनता या उनके बच्चे ही सब जगह मारे जाते है।
मेहनतकश जनता मेहनत करती है संघर्ष में कुर्बानी देती है यही चीज है जो एकजुट करती है संगठित करती है। आज़ादी का संघर्ष हम मेहनतकशों की कुर्बानी को बताता है दुनिया हम मेहनतकशों की खून पसीने से ही रोशन है। इस खून-पसीने में कोई हिन्दू-मुस्लिम या ऊंची-नीची जाति नहीं बता सकता। यही वह चीज है बुनियाद है जो हमें ताकतवर बनाती है और जिससे शासक खौफ खाते है डरते हैं। अन्याय, शोषण और जुल्म से लड़ने में यही एकता मेहनतकश जनता का हथियार है । शहीद भगत सिंह इसी एकता की बात करते हुए अंग्रेजों से लड़ गए थे। यही आज की राह है।
इसलिए आज अंधेरे दौर में फिर से जरूरत है शहीद भगत को याद करने की। अपने दौर में भगत सिंह ने इन "धर्म-संस्कृति" के ठेकेदारों को खूब खरी खोटी सुनाई थी। भगत सिंह ने लिखा --“....जहाँ तक देखा गया है, इन दंगों के पीछे साम्प्रदायिक नेताओं और अख़बारों का हाथ है।.. यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर ....सिर-फुटौव्वल करवाते हैं...।....फायदा...इन दंगों से अत्याचारियों(अंग्रेजों को) को मिला है वही नौकरशाही-जिसके अस्तित्व को ख़तरा पैदा हो गया था....आज अपनी जड़ें ... मज़बूत कर चुकी है।.... .....संसार के सभी ग़रीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं। .....तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताक़त अपने हाथ में लेने का यत्न करो।..1914-15 के शहीदों ने धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था। वे समझते थे कि धर्म व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है, इसमें दूसरे का कोई दख़ल नहीं।...इसलिए गदर पार्टी-जैसे आन्दोलन एकजुट व एकजान रहे, जिसमें सिख बढ़-चढ़कर फाँसियों पर चढ़े और हिन्दू-मुसलमान भी पीछे नहीं रहे।"’( साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज " नामक लेख से)
भगत सिंह की शहादत के 87 वें साल पर जरूरी है कि विशेषकर युवा भगत सिंह की इस आवाज को सुनें जो भगत सिंह ने अपने दौर में युवाओं के लिए लिखी थी । भगत सिंह के शब्दों में ---
" चाहे तो त्यागी हो सकता है युवक, चाहे तो विलासी बन सकता है युवक।... वह इच्छा करे तो समाज और जाति को उद्बुद्ध(जगाना) कर दे..बड़े बड़े साम्राज्य उलट डाले।...अमेरिका के युवक विश्वास करते है कि अधिकारों को रौंदने वाली सत्ता का विनाश करना मनुष्य का कर्तव्य है। हे भारतीय युवक!... उठ, आँखें खोल,देख....गरज उठ !...( साप्ताहिक मतवाला में छपे लेख : "युवक" से )
आज वक़्त की जरूरत है कि शहीद भगत सिंह के विचारों की राह पर बढ़ा जाए ! संगठित हुआ जाय ! भगत सिंह के समाजवाद के ख्वाब को हकीकत में बदलने की दिशा में बढ़ा जाय।
काकोरी के शहीदों की स्मृति में
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अशफाक-बिस्मिल की विरासत को आगे बढ़ाओ!
हर साल का दिसम्बर महिना काकोरी के शहीदों की याद हमें दिलाता है। काकोरी के शहीदों का एक संगठन था - ' हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन'( एच आर ए ) । जिसका मकसद था -संगठित व हथियार बंद होकर अंग्रेजी हुकूमत से देश को आज़ाद कराना ; आज़ाद भारत को 'संघीय व धर्मनिरपेक्ष गणतन्त्र ' बनाना जिसमें सभी प्रकार के लूट-शोषण पर पाबंदी हो, कोई गैरबराबरी ना हो , भेदभाव ना हो।
इस संगठन को आगे बढ़ाने के लिए, हथियार खरीदने के लिए पैसे की भी बहुत जरूरत थी । इसलिए संगठन ने तय किया कि सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर ट्रेन में जाने वाले सरकारी खजाने को लूट लिया जाय। और फिर 9 अगस्त 1925 को लखनऊ से पहले काकोरी स्टेशन के पास ट्रेन लूट ली गई। फिर अंग्रेज सरकार लूट में शामिल लोगों को पकड़ने के लिए दिन रात एक करने लगी। 40 लोग गिरफ्तार किए गए फिर 17 लोगों को सजा सुनाई गई । इनमें से 4 लोगों को फांसी की सजा सुनाई गई। 17 दिसम्बर 1927 को राजिंदर लाहिड़ी को फांसी दे दी गई । 19 दिसम्बर 1927 को अशफाक उल्ला खां, रोशन सिंह ,रामप्रसाद बिस्मिल को फांसी दे दी गई।
यह वह दौर था जब कॉंग्रेस भी 'आज़ादी'का नारा लगा रही थी। कांग्रेस भारतीय पूंजीपतियो व जमींदारों की पार्टी थी । ये चाहते थे अंग्रेज चले जाएं और सत्ता इनके हाथ में आये। इन्ही को शहीद भगत सिंह ने "काले अंग्रेज" कहा था।
दूसरी ओर अंग्रेजों की 'फुट डालो-राज करो' तेजी से आगे बढ़ रही थी। अंग्रेजों को याद था -1857 का पहला स्वतन्त्रता संग्राम । जिसमें हिन्दू-मुस्लिम के एकजुट संघर्ष ने अंग्रेजी हुकूमत की चूलें हिला दी थी। हिन्दू-मुस्लिम जनता की एकता को तोड़ने के लिए अंग्रेजो ने हर चाल चली। हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिक संगठन इनके हथियार बन गए। मुस्लिम लीग, आर-एस-एस व हिन्दू महासभा जैसे साम्प्रदायिक संगठन उसी समय के हैं ।
अशफाक-बिस्मिल जैसे नौजवान हिन्दू-मुस्लिम एकता की भी मिसाल थे। अशफ़ाक़ मुस्लिम थे तो बिस्मिल हिन्दू। अशफ़ाक़-बिस्मिल-रोशन-लाहिड़ी को अंग्रेजी हुकूमत ने षडयंत्र रचने के आरोप में फांसी दे दी । लेकिन इनके बलिदान ने देश में संघर्ष को क्रांति को और आगे बढ़ा दिया । भारी तादाद में खासकर नौजवान आज़ादी के संघर्ष में कूद पड़े। अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ पूरे देश में नफरत व गुस्सा बहुत बढ़ गया। मज़दूरों-किसानों-नौजवानों के क्रांतिकारी संघर्षों की लहरें बढ़ते गई। औऱ फिर हुआ यह कि अंग्रेज देश के पूंजीपतियों-जमींदारों (काले अंग्रेजों) को सत्ता सौंप कर चल दिए। इनकी पार्टी 'कांग्रेस पार्टी' की सरकार बन गयी।
तब से बीते 60-70 सालों में कांग्रेस के अलावा अन्य पार्टियों की सरकारें भी बनी है या वे सरकार बनाने में शामिल रही है अब तो तीन साल से मोदीमय भाजपा बहुमत से सरकार चला रही है।
इन सभी पार्टियों ने देश के बड़े बड़े पूंजीपतियों के हितों को ही आगे बढ़ाया है। चंद करोड़ रुपये की पूंजी के मालिक 70 सालों में कई लाख करोड़ की पूंजी के मालिक बन चुके है। अब इनमें अम्बानी-अडानी-पतंजलि-अज़ीमप्रेम ज़ी आदि भी शामिल हैं।
उद्योगपतियों (पूंजीपतियों)व उनकी पार्टियों के बीच पहले एक पर्दा जो लगा रहता था मोदी जी व उनकी सरकार ने इसे भी फैंक दिया है। आज हर कोई कह सकता है देश को अम्बानी-अडानी चला रहे है कि मोदी सरकार अम्बानी -अडानी की सरकार है। बैंकों का 8-12 लाख करोड़ रुपए कर्ज फंसा हुआ है इसका बड़ा हिस्सा देश के 8-10 पूंजीपतियो के पास है ये इसे वापस नहीं लौटा रहे है। मोदी जी व उनकी सरकार की योजना है कि इस कर्ज की रकम को बट्टा खाते में डाल दिया जाए। वसूली या संपत्ति को जब्त करने के बजाय सरकार 2 लाख करोड़ रुपए बैंकों में डालेगी। साफ है आम जनता की मेहनत की लूट से इसे वसूला जाएगा। यही नही ! बैंकों में जनता की जमा रकम पर डकैती डालने के लिए नया कानून एफ.आर.डी.आई. बनाया जा रहा है।
मोदी व मनमोहन की नीतियों में कोई फर्क नहीं है। मोदी सरकार मनमोहन सरकार की नीतियों को धड़ल्ले से आगे बढ़ा रही है। आधार कार्ड , जी एस टी ये कांग्रेस के जमाने की ही चीजें थी। मोदी जी व भाजपा पहले इनका खूब विरोध करते थे। लेकिन सत्ता हासिल होते ही जी.एस.टी लागू कर दिया जबकि आधार कार्ड हर नागरिक के लिए अघोषित तौर पर अनिवार्य कर दिया गया है।
नोटबंदी के लिए मोदी सरकार ने कहा था कि 4-5 लाख करोड़ रुपये वापस नहीं आएगा । क्योकि इनके हिसाब से 4-5 लाख करोड़ रुपये काला धन था। लेकिन 1 करोड़ लोगों के बेरोजगार होने, 100 से ज्यादा लोगों की मौत व चौतरफा नुकसान के अलावा क्या हासिल हुआ ? कुछ भी नहीं। 16000 करोड़ रुपए हासिल हुए लेकिन इससे काफी ज्यादा पैसा तो नोट छापने व लोगो को व्याज देने में चला गया। इस नोटबंदी के दौरान दौलत किसकी बढ़ी ? अम्बानी से लेकर पतंजलि तक की । देश के 10 शीर्ष पूंजीपतियों की पूंजी में 50% से लेकर 170% तक की वृद्धि हो गई।
सचमुच हालात और खराब होते जा रहे हैं। 'फुट डालो-राज करो' अंग्रेजी हुकूमत के नारे को आज जमकर इस्तेमाल किया जा रहा है। आज 'महंगाई' 'रोज़गार' 'महंगी शिक्षा' 'महंगे इलाज' और अधिकारों के सवाल गायब कर दिए गए है। आज मेहनतकश जनता के एक हिस्से को मेहनतकश जनता के दूसरे हिस्से के खिलाफ खड़ा किया जा रहा है। एक दूसरे के खिलाफ नफरत की दीवार खड़ी की जा रही है। आज हर तरफ 'गाय' 'हिन्दू' 'मुस्लिम' 'बीफ' 'राम मन्दिर' का शोर है। कोई क्या पहनेगा , क्या खायेगा , क्या पसंद करेगा, किसकी व कितनी आलोचना करेगा ? यह सब भी सरकार उसकी पार्टी व संगठन तय कर रहे हैं। कुल मिलाकर फ़ासिस्ट हिटलर की चाल आज देश में दोहराई जा रही है। जर्मनी के थाइसेन व क्रूप्स जैसे बड़े बड़े पूंजीपतियो ने हिटलर व नाज़ी पार्टी को पाला पोसा था । फिर 1933 में सत्ता पर बिठा दिया । हिटलर ने प्राचीन जर्मन देश के महान होने के बात की ; जर्मन नस्ल के महान होने की बात जनता में की। यहूदी लोगों के खिलाफ नफरत पैदा की व दंगे आयोजित किये। जर्मन जनता का एक हिस्सा इन बातों को सच मानने लगा । वह हिटलर व नाज़ी पार्टी के साथ हो लिया। फिर हिटलर के राज में लाखों यहुदियों का क़त्लेआम किया गया; ट्रेड यूनियनों, संगठनों, मज़दूरो,किसानों व छात्रों पर जानलेवा हमले किये गए । जनता के अधिकारों को रौंद दिया गया। यही नही हिटलर की पार्टी व दस्ते के बहुत सारे लोगों का भी सफाया कर दिया । चुनाव खत्म हो गए। इस प्रकार हिटलर ने आतंकी तानाशाही कायम कर दी ।
आज यही खतरा एकदम हमारे निकट भी है । देश के बड़े बड़े पूँजीवादी घराने उसी दिशा की ओर बढ़ रहे है। जिस दिशा की ओर कभी जर्मनी गया था।
इसलिए आज जरूरत है काकोरी के उन शहीदों से प्रेरणा लेने की ; एकजुट होकर संघर्ष करने की जिन्होंने महान उद्देश्य के लिए अपना जीवन बलिदान कर दिया। जरूरत है मेहनतकश जनता को बांटने वाली ताकतों के खिलाफ एकजुट हुआ जाए। मेहनतकश जनता के राज समाजवाद की ओर बढ़ा जाए।
महान अक्टूबर समाजवादी क्रांति शताब्दी वर्ष पर
यह वक्त संकल्प लेने, काम में जुट जाने का है
‘महान अक्टूबर समाजवादी क्रांति’ के सौ वर्ष पूरे हो गये। पिछले एक वर्ष से भारत सहित पूरी दुनिया में इस क्रांति के शताब्दी वर्ष को न केवल मजदूर वर्ग द्वारा याद किया गया बल्कि पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने ही ढंग से याद किया गया। यहां तक कि रूस के आज के साम्राज्यवादी शासकों ने भी क्रांति को रूसी समाज की एक उपलब्धि के रूप में याद किया। इसे याद करने में कुछ ऐसा है जैसे कोई मौत के मुंह से बच गया हो।
‘महान अक्टूबर समाजवादी क्रांति’ बीसवीं सदी की सबसे निर्णायक घटनाओं में ही एक नहीं थी बल्कि यह मानव इतिहास की सबसे निर्णायक घटनाओं में से भी एक साबित हुई है। इस क्रांति ने साबित कर दिया था कि शोषित मजदूर, किसान अपनी सत्ता कायम कर सकते हैं और शोषण-उत्पीड़न का समाज से नामोनिशान मिटा सकते हैं। इस क्रांति ने न केवल कई क्रांतियों को जन्म दिया बल्कि गुलाम देशों को अपनी आजादी हासिल करने में पे्ररणा से लेकर सीधी मदद की।
‘महान अक्टूबर क्रांति’ ने रूस के जनगण को वह सब कुछ दिया जो कि फ्रांसीसी या इंग्लिश या अमेरिकी क्रांति ने अपने नागरिकों से वायदा किया था। यह इतिहास की सच्चाई है आजादी, बराबरी, भाईचारे आदि की बातें करने वाली ये क्रांतियां महज पूंजीपति वर्ग की सत्ता प्राप्ति का जरिया बन गयीं। क्रांति में प्राण-प्रण से लगने वाले मजदूर, किसान, बुद्धिजीवी ठगे और छले गये। इसके उलट अक्टूबर क्रांति ने पहले ही क्षण आजादी, बराबरी, भाईचारे के नारे को पूर्णता प्रदान कर दी। फिनलैंड को जारशाही साम्राज्य से आजाद किया, सदियों से उत्पीड़ित स्त्रियों को पूर्ण बराबरी प्रदान की और समाजवादी रूस में सभी शोषित-उत्पीड़ित भाईचारे के अभिनव सूत्र में बंध गये।
‘महान अक्टूबर समाजवादी क्रांति’ का विजय रथ आगे न बढ़ सके इसके लिए उस वक्त के जालिम शोषकों ने हर कोशिश की। फ्रांस, अमेरिका, ब्रिटेन, जापान और जर्मनी जैसे देशों ने रूस में कायम हो चुकी मजदूर-किसान सत्ता को नष्ट करने के लिए ऐड़ी-चोटी का जोर लगा दिया। वर्षों समाजवादी राज्य को देशी-विदेशी शत्रुओं से भीषण लड़ाई लड़नी पड़ी। शोषक किसी भी कीमत पर नहीं चाहते थे कि रूस में समाजवाद कायम हो। साम्राज्यवादी भयभीत थे कि कहीं उनके घर भी क्रांति की आग से न जल जायें।
हकीकत में 1918 में यूरोप के कई देशों में ऐसा हुआ भी था। जर्मनी, हंगरी, इटली और आस्ट्रिया उन देशों में प्रमुख थे जहां मजदूर क्रांतियां दस्तक दे रही थीं। ‘सारी सत्ता सोवियतों को दो’, ‘समाजवाद जिंदाबाद’ जैसे नारे गली-गली में लगाये जा रहे थे। क्रांतियों की इस श्रृंखला का दमन पूंजीपति वर्ग भारी दमन व षड्यंत्रों के दम पर ही कर पाया। सौ वर्ष पहले मजदूरों ने शोषक पूंजीपतियों को दिन में ही तारे दिखा दिये थे। इसलिए क्रांतियों की काट करने के लिए उसने फासीवाद, नाजीवाद का सहारा लिया। इसीलिए वह अब जैसे ही संगठित क्रांतिकारी मजदूर आंदोलन का थोड़ा भी दर्शन करता है तो पूरी ताकत से बर्बरता पर उतर आता है। वह अपने संविधान को ताक पर रखकर तुरंत आपातकाल की घोषणा करने लगता है। लोकतंत्र, मानवाधिकार, प्रेस सभी निलंबित कर दिये जाते हैं।
‘महान अक्टूबर क्रांति’ से पैदा हुई ऊर्जा का विश्वव्यापी प्रसार पूंजीवाद के सारे हथकंडों के बावजूद उस जमाने में तेजी से हुआ। दूसरे विश्व युद्ध के बाद तो समाजवाद शब्द हर आजाद देश की जुबान पर चढ़ गया। चीन, कोरिया, वियतनाम की क्रांतियों ने समाजवाद को एक नई जमीन प्रदान की। यह ‘महान अक्टूबर क्रांति’ की प्रेरणा और मदद से ही संभव हो सका था।
इतिहास की गति देखिये सौ वर्ष पूर्व दुनिया में कहीं समाजवाद नहीं था और आज सौ वर्ष बाद भी दुनिया में कहीं भी समाजवाद नहीं है। सौ वर्ष पूर्व पूंजीपति वर्ग अपनी सत्ता को लेकर पूर्ण आश्वस्त था आज वह अक्सर समाजवाद, मार्क्सवाद की चर्चा उपहास उड़ाने के लिए करता है। फिर क्या क्रांतियां अतीत की बात हो गयी हैं? क्या क्रांतियों का युग बीत चुका है?
सच्चाई एकदम उलट है। क्रांतियां प्रकृति से लेकर मानव जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं। वे लीक से हट कर होती हैं। और अपने चरित्र में वे सर्वदा अनुपम होती हैं। वे जब जन्म ले और विकसित हो रही होती हैं तब शोषक उनसे अंजान और लापरवाह बने रहते हैं। जब वे प्रकट होती हैं तो शोषक हक्के-बक्के और बदहवास हो जाते हैं। सौ वर्ष पूर्व जार, पूंजीपति जमींदारों ने कभी नहीं सोचा था कि उनके दिन पूरे हो चुके हैं। आगे बढ़े हुए, क्रांति कर्म में लगे मजदूरों ने नहीं सोचा था कि क्रांति के जरिये मुक्ति हासिल की जा सकती है। क्रांति उतनी ही सच साबित होती गयी जितना उसको लाने के लिए सारी मजदूर, किसान बहुसंख्यक आबादी काम करने लगी।
‘महान अक्टूबर क्रांति’ का सौवां वर्ष इस क्रांति को याद करने, सबक निकालने, संकल्प लेने का वर्ष है। पूंजी की गुलामी से मुक्ति की राह आसान नहीं है। पिछले सौ वर्षों में पूंजीपति वर्ग ने अपनी व्यवस्था की दीर्घजीविता के लिए बहुत सबक निकाले हैं। बहुत युक्तियां खोजी हैं। दुश्मन पहले से ज्यादा बलवान हुआ है पर महान अक्टूबर क्रांति हमें सिखलाती है कि इतिहास में सबसे बड़ी ताकत मजदूर, किसान है, जनता है। क्रांतिकारी जनता के सामने हर ताकत बौनी है। शासकों की सारी तिकड़में, युक्तियां उसके सामने फेल हैं। साभार enagrik.com
बी एच यू की छात्राओं का संघर्ष व इसके निहितार्थ
बनारस हिंदू विश्व विद्यालय की छात्राओं ने सितंबर माह के तीसरे हफ्ते में अपना संघर्ष शुरू किया था। यह संघर्ष सामान्य से असामान्य हो गया।
एक छात्रा के साथ यौन उत्पीड़न की घटना हुई। इसके विरोध में तत्काल ही छात्राएं एकजुट हुई। प्रॉक्टर से शिकायत हुई, कुलपति से शिकायत हुई। दोनों का ही जवाब तिलमिलाने वाला था पुरुष प्रधान मानसिकता से ग्रसित था। कुलपति तो संघ परिवार से जो था उसके नस नस में स्त्री विरोधी रुख था। छात्राओं से कहा गया कि होस्टल से 6 बजे के बाद बाहर मत निकलें।
छात्राओं की मांग थी सुरक्षा की, होस्टल परिसर में सी सी टी वी लगाने की। लेकिन इन्हें कुलपति व विश्वविद्यालय प्रशासन ने कान ही नही दिए।
अन्ततः छात्राओं को धरने पर बैठना पड़ा। एक मुद्दा जिसे तत्काल ही सुल्टाया जा सकता था उसे फासिस्ट मानसिकता ने दूसरे धरातल पर पहुंचा दिया।प्रोक्टरीयल बोर्ड के अपने लठैतों भी छात्राओं को डराने धमकाने का काम किया। छात्राओं के परिजनों को फोन के जरिये दबाव बनाने के प्रयास हुए। होस्टल छात्रावास में पानी, बिजली को भी बाधित किया गया। लेकिन संघर्ष में बाकी छात्र-छात्राएं भी शामिल होती गए।
इस दौरान प्रधानमंत्री भी वंहा से होकर गुजरे। आंदोलनकारियों को उम्मीद थी कि प्रधानमंत्री महोदय जो कि बनारस के सांसद है कम से कम सांसद होने के नाते तो उनके बीच आएंगे, बात सुनेंगें। लेकिन उम्मीद ! वह भी फासिस्टों से !! इस उम्मीद को पूरा तो होना न था। इस सबने संघर्ष को आगे बढ़ाने का काम ही किया।
कुलपति, विश्वविद्यालय प्रशासन कुछ भी सुनने को तैयार न था। न ही योगी सरकार कोई हस्तक्षेप कर रही थी। वह भी सब कुछ होने दे रही थी। अंततः सबने मिलकर इस आवाज को खामोश करने के लिए अपने हाथ बढ़ाये।
तुरंत ही भारी तादाद में पुलिस फोर्स व अर्धसैनिक बल तैनात कर दी गई। महिला पुलिस की तैनाती नही की गई। यह सब मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने के लिए भी था लेकिन आंदोलन को इसने आगे बढ़ाने का ही काम किया।
साफ साफ तौर पर अब एक तरफ जनवाद, न्याय व प्रगतिशीलता के लिए बुलन्द आवाज थी दूसरी तरफ दमनकारी, जनवाद विरोधी, स्त्रीविरोधी प्रतिक्रियावादी ताकते थी। अन्ततः दमन चक्र चलाया गया। आंदोलन तात्कालिक तौर पर बिखरने के साथ-साथ कुछ हासिल कर गया साथ ही भविष्य के संदर्भो में नई उम्मीदों को भी जगा गया। प्रॉक्टर को इस्तीफा देना पड़ा। कुलपति को प्रकारांतर से हटना पड़ा नए कुलपति को लाना पड़ा। इस संघर्ष के साथ साथ अब यह भी तय हो गया कि आने वाले समय में ऐसी टकराहटें और भी बढेंगी। व्यक्तिगत मसलों पर जनवाद के भाव के चलते ही सही फासिस्ट ताकतों का नौजवान छात्र छात्राएं जबरदस्त प्रतिरोध करेंगी ।
4-5 लाख करोड़ रुपये काले धन का मोदी का दावा हवाई साबित हुआ
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बेशर्मी-झूठ-धूर्तता में फ़ासीवादी अव्वल होते हैं। यह बात फिर फिर पुष्ट हुई। नोटबंदी के सम्बन्ध में मोदी-जेटली के तर्क व दावे सुपरफ्लॉप हो गए। लेकिन फिर भी इनकी "बेशर्मी जिंदाबाद,झूठ मक्कारी जिंदाबाद" का स्लोगन जारी है। इनका नोटबंदी के लिए सबसे मजबूत तर्क व दावा था कि आर बी आई द्वारा जारी 500-1000 के नोटो का एक मुख्य हिस्सा वापस नही आएगा यानी 4-5 लाख करोड़ रुपये वापस नहीं आएगा, और ये 4-5 लाख करोड़ रुपये इसलिए वापस नही आएगा क्योकि यह काला धन होगा; और फिर इस पर सरकार का दावा होगा ये सरकार का मुनाफा होगा !!! इसके अलावा कहा गया था जाली नोट की रोकथाम, आतंकवाद पर लगाम लगेगी!! रिजर्व बैंक ने अब कहा है कि 98.96% नोट वापस आ गए है। अब इन गुजरे 10 माह में साबित हुआ कि नोटबंदी सुपरफ्लॉप रही शायद 1.04% भी वापस आ जाते यदि सरकार ने बाद के दौर में रोक नही लगाई होती ।
आम जनता के लिए तो यह एक त्रासदी से कम नहीं थी। 100 से ज्यादा लोगों की नोटबंदी की सर्जीकल स्ट्राइक ने हत्या कर दी । छोटे उद्योग धंधे के मालिक , कारोबारी का धंधा चौपट हो गया। किसान बर्बाद हुए। मज़दूर बेरोजगार हो गए। बी स्टैंडर्ड के मुताबिक 70 लाख लोग इस दौरान बेकार हो गए।इस तरह आर्थिक गतिविधियों के अत्यधिक संकुचित हो जाने से जी डी पी की दर भी लगभग 2 % तक गिर गई।
आरबीआई ने अपनी सालाना रिपोर्ट में यह कहा है कि नोटबंदी के दौरान महज 41 करोड़ रुपये के जाली नोट पकड़ में आए। कि नोटबंदी के बाद लोगों ने बंद हुए 15.44 लाख करोड़ रुपये में से 15.28 लाख करोड़ रुपये बैंकिंग प्रणाली में जमा करा दिए। । लगभग 16 हज़ार करोड़ रुपये के नोट वापस नही आये जबकि नए नोटों की छपाई की लागत 7,965 करोड़ रुपये रही। जबकि बैंको में जमा हो चुके कई लाख करोड़ रुपये की रकम पर सोचिए कितना व्याज बैंक को चुकाना होगा !!! यानी चौतरफा बर्बादी !!!
इस कवायद का असर वित्त वर्ष 2016-17 में सरकार को आरबीआई से मिलने वाले लाभांश पर पड़ा है, जो करीब आधा घटकर 30,659 करोड़ रुपये रहा।
भा ज पा का सहयोगी बी एम एस ने भी नोटबंदी पर कहा है- "असंगठित क्षेत्र की ढाई लाख यूनिटें बंद हो गईं और रियल एस्टेट सेक्टर पर बहुत बुरा असर पड़ा है. बड़ी तादाद में लोगों ने नौकरियां गंवाई हैं."
लेकिन बेशर्मी व धूर्तता से वित्त मंत्री अरुण जेटली प्रधान मंत्री ने फिर दोहराया है कि नोटबंदी का असर अनुमान के अनुरूप ही रहा है कि जो पैसा बैंकों में जमा हो गया है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि यह पूरा धन वैध है। नरेंद्र मोदी ने लाल किले से बताया कि नोटबंदी के बाद 3 लाख करोड़ रुपये बैंकिंग सिस्टम में आ गए। इसमें से जमा 1.75 लाख करोड़ रुपये का लेनदेन शक के दायरे में है। इसके अलावा 2 लाख करोड़ रुपये का काला धन बैंक पहुंचा है। इन फर्जी व गोल मोल बातों को करके अवाम को बार बार धोखा नही दिया जा सकता।
अब "अर्थशास्त्री" भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कहा है कि अर्थव्यस्था नोटबंदी की वजह से नही गिरी बल्कि 'तकनीकी' कारणों से हुआ है।
कहां तो 4-5 लाख करोड़ के काले धन का दावा !! जिसे कि वापस ही नही लौटना था। और कंहा अब जो पैसे वापस आ गए है उसमें से 3 लाख करोड़ पर काला धन होने का दावा !! बेशर्मी, धूर्तता व कुतर्क की कोई इंतहा नही !!
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पत्र में यह भी लिखा गया था कि सभी राम रहीम की ताकत व पहुंच के साथ ही घर वालों के अंधविश्वास के चलते कुछ न कर पाने को मजबूर हुए व चुप चाप सब कुछ सहते रहे रामरहीम अपनी पहुंच, हथियारों व गुंडों का खौफ इन सभी विरोध करने वालों को दिखाता था ।कुछ ऐसे भी थे जो घर वापस आ गए। इनके इस पत्र को तब अखबार में छापने वाले पत्रकार की हत्या रामरहीम ने करवा दी। यौन शोषण के इस आरोप के बाद ही हाईकोर्ट के इसे स्वत:संज्ञान लेने से राम रहीम के खिलाफ मुकदमा दर्ज हुआ था।जिस पर सी बी आई जांच चल रही थी सी बी आई की कोर्ट में ही मामला चल रहा था। इन 15 सालों में राम रहीम ने अपनी दौलत, हैसियत एवं ताकत कई गुना इजाफा कर लिया था।
धार्मिक गतिविधियों के जरिये ,लोगों के अंधविश्वास व धार्मिक पूर्वाग्रहों का इस्तेमाल करके व लोगों के बीच कुछ राहत के काम करते हुए इसने अपने नेटवर्क को मजबूत किया । एक साम्राज्य खड़ा कर लिया। जिसके चलते लाखों की तादाद में लोग इसके अनुयायी बने थे। राजनीतिक पार्टियों से इसके गहरे संबंध रहे हैं विशेषकर भाजपा से । 7 अक्टूबर 2014 को विधायक के लिए खड़े भाजपा के 44 उम्मीदवारों की बैठक रामरहीम के साथ सिरसा में होती है जिसमें कैलाश विजयवर्गीय भी शामिल थे। एक बैठक अमित शाह के साथ भी हुई थी तभी पिछ्ले विधान सभा चुनाव में रामरहीम ने खुलकर भाजपा का समर्थन दिया था।
25 अगस्त पंचकुला की सी बी आई कोर्ट में राम रहीम की पेशी थी। हरियाणा की खट्टर सरकार ने 700 एकड़ के भब्य क्षेत्र में रह रहे यौन शोषण के आरोपी राम रहीम से गुजारिश की कि वह पेशी पर जाए। राम रहीम ने अपने हवाई जहाज से कोर्ट जाने की बात की । लेकिन फिर फ़ासीवादी खट्टर सरकार ने जैसे तैसे गाड़ी से कोर्ट जाने के लिए बाबा को मनाया।अंततः 400-800 गाड़ियों का काफिला कोर्ट की ओर रवाना हुआ था भाजपा सरकार ने ऐसा करने की प्रशासनिक अनुमति भी दी ।
इस बात की संभावना दिखने लगी थी की कोर्ट में फैसला पक्ष में न आने पर बाबा के लम्पट समर्थक विरोध या हिंसा कर सकते है। लेकिन भाजपा सरकार ने इन लाखों समर्थकों को रोकने के लिए व उनको एकजुट न होने देने के कोई विशेष प्रयास नहीं किये। धारा 144 लागू की तो वह भी केवल नाम के लिए। अंततः:कोर्ट के आदेश के बाद ही हरियाणा की भाजपा सरकार ने अर्धसैनिक बलों को बुलाया। लेकिन तब भी कोई सख्ती नही की गई। परिणाम फिर वही हुआ जैसा होने की संभावना जताई गई थी। जैसे ही कोर्ट ने धूर्त ,लम्पट व अपराधी राम रहिंम को यौन शोषण के दोषी होने का फ़ैसला सुनाया वैसे ही बाबा के लम्पट समर्थकों का तांडव शुरू हो गया। लगभग 32 लोगों की 26 अगस्त तक मौत हो गई। जबकि 250 से ज्यादा लोग घायल हो गए ।
इसके अलावा बसों, गाड़ियों, व रेलों में आगजनी व तोड़ फोड़ की गई। अब एक ओर 5 राज्यों में अलर्ट जारी किया गया है जबकि कई शहरों में कर्फ्यू लगा दिया गया है इंटरनेट पर रोक लगा दी गई है।
एक ओर हिंसा व इसमें मारे जाते लोग तो दूसरी ओर खट्टर सरकार से लेकर केंद्र की मोदी सरकार का सुर अपराधी रामरहीम के प्रति बहुत नरम है। "भारत का नक्शा मिटा देंगे" नारे लगाने वालों के खिलाफ आज फासिस्ट संघी राष्ट्रवादियों की जुबान को आज लकवा मार गया है। मोदी "शांति" संदेश के लिए ट्वीट कर रहे है। साक्षी महाराज कोर्ट को डरा रहे है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पुरोधाओं के हिसाब से जो कोई भी अपराधी रामरहीम व उसके लम्पट दस्ते की आलोचना कर रहे है वह भारतीय संस्कृति को बदनाम कर रहे है। कुल मिलाकर फासिस्टों ने ख़ुद को बेनकाब करने के साथ साथ अपनी पक्षधरता भी साफ कर दी है। वह यह कि वह महिलाओं के खिलाफ अपराध को अंजाम देने वाले लम्पट व धूर्त संतो के साथ है जैसा कि अतीत में वे बलात्कार के आरोपी स्वामी नित्यानंद के साथ खड़े थे ।
दरअसल रामरहीम , आशाराम, नित्यानाद, स्वामी ओम, रजनीश, निर्मल बाबा आदि आदि इसकी फेहरिश्त लंबी है इन सभी को राजनीतिक पार्टियों का भी संरक्षण प्राप्त रहता है। कोंग्रेस के साथ चंद्रास्वामी का नाम भी चिपका हुआ था। प्रधानमंत्री से चंद्रास्वामी के सीधे संबध थे। दूसरे रूप में कहा जाय तो यह कि भारतीय राज्य अपनी जहनियत में कभी भी धर्मनिरपेक्ष नहीं रहा है। शासकों ने शुरू से ही अपने फ़ायदे में धर्म को अपनी गोद में पाला पोसा है इसे संरक्षण प्रदान किया है।
इसने धर्म, धार्मिक संस्थाओं को नियंत्रित करने , सार्वजनिक जीवन में इसके दखल को खत्म करने तथा इसे निजी जीवन तक सीमित करने के कोई भी कदम कभी नहीं उठाए। धर्म को राज्य के मामले में राजनीति में लाने पर रोक नहीं लगाई । इसके उलट इन दोनों का साथ शुरू से ही बना रहा। पूंजीवादी राजनीतिज्ञ धर्म, धार्मिक त्योहारों कार्यक्रमों व संस्थाओं में आते जाते रहे व इसका इस्तेमाल करते रहे। इसी का नतीजा आज एक ओर रामरहीम के रूप में दिखाई देता है जो अपने लम्पट दस्तों के जरिये राज्य के कानूनों को चुनौति देने लगता है व खुद को राज्य आए ऊपर समझने का भरम पाल बैठता है । तो दूसरी तरफ फासिस्ट संघ परिवार है भाजपा जैसे है जिन्होंने साम्प्रदायिक ध्रूवीकरण के जरिए अपना प्रसार किया है और मौजूदा वक्त में इसे एकाधिकारी पूंजी ने सत्ता पर बिठाया है। इनकी ताकत राम रहीम जैसे जिनके लाखों अनुयायी हो से काफी बढ़ जाती है। इन दोनों की पैदा होने की जमीन एक ही है।
हत्याओंं के दौर में "राष्ट्रवादियों" का जश्न
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पिछले तीन सालों में मेहनतकश अल्पसंख्यकों व दलितों पर हमले काफी बढ़ चुके है। आम तौर पर ये हमले गौरक्षक दस्तों द्वारा किये गए है। इनमें हत्याएं भी की गई है। दूसरी ओर गुजरात ऊना के बाद जुनैद व झा-खण्ड में अल्पसंख्यकों की हत्या के मौके पर "ह-त्यारी चुप्पी" को तोड़ते हुए प्रधानमंत्री महोदय फिर उपदेशात्मक मुद्रा में आये । फासिस्ट हत्यारो को फिर से एक बार उपदेश उन्होंने दिया। इन्हें "भीड़ द्वारा हत्याओं" के रूप में प्रचारित कर फास्सिट अपनी ताकत में इजाफा करते जा रहे है। जब दौर ऐसा हो तब ऐसे शोक संतप्त दहशत भरे माहौल में "जी एस टी" लागू करने की रात को ऐतिहासिक पल बताकर "जश्न" मनाया जाता है।
"एक देश-एक कर- एक बाजार" के नारे के साथ एक केंद्रीकृत कर प्रणाली को यूं इस तरह पेश किया जाता है कि मानो मज़दूर मेहनतकश अवाम की जिंदगी में आमूल चूल बदलाव आ जाये। हकीकत यही है कि हर बार की ही तरह यह मज़दूर मेहनतकश अवाम को और ज्यादा निचोड़ने का यंत्र है।
प्रत्यक्ष करो की प्रणाली को बढ़ाने की बजाय जो कि व्यक्ति विशेष को प्रभावित करते है इसे और कमजोर कर दिया गया है। इसके बजाय अप्रत्यक्ष कर प्रणाली को और मजबूत व व्यापक कर दिया गया है जो अपने दायरे मज़दूर मेहनतकश अवाम को समेट लेता है। इसके लिए महंगाई बढ़नी ही है। छोटी पूंजी की तबाही को बढ़ाएगा। अव्वल तो यह कोई यह नहीं पूछ रहा कि जिस जी एस टी को अब ऐतिहासिक करार दिया जा रहा है तब 2012 में क्यों इतना हंगामा इसके विरोध में मोदी - भाजपा ने बरपा था।
एकाधिकारी पूंजी की सेवक नरम हिदुत्व वाली कोंग्रेस बेचारी यह क्रेडिट लेने से वंचित रह गयी। उसे इसी का अफसोस है ! वरना तो दोनों में इसे लागू करने के मामले में अभूतपूर्व एकता है। "राष्ट्रवादियों " का यह जश्न खुद इनके अपने लिए साथ ही देश के पूंजीपति वर्ग के लिए है या यूं कहें कि जश्न मनाने का समय यह यदि किसी के लिए है वो पहले सरकार और दूसरे जो असल में सरकार बनाते हैं और सरकारें जिनके लिए काम करती हैं यानी पूंजीपति वर्ग और उसमें भी अंबानी-अदानी टाइप के पूंजीपतियों को जश्न मनाना ही चाहिए।
सरकार की कर राजस्व से आय बढ़ेगी तो वह उसे पूंजीपतियों पर ही लुटायेगी। यही नही इस " एक देश एक कर एक बाजार" के नारे के साथ शासकों ने राज्य सरकारों के अधिकार को और कमजोर कर दिया। अब राज्यों की निर्भरता केंद्र पर और ज्यादा बढ़ जाएगी। और शासकों की यह सोच या दावा कि इससे अर्थव्यवस्था को गति मिलेगी, संदिग्ध है। नोट बंदी की मार से अर्थव्यवस्था अभी उभरी नही है। आयात निर्यात दोनों ही स्तरों पर संकट मौजूद है। आंतरिक मांग बढ़ने के कोई आसार नहीं हैं।
इस सबके बावजूद देश के बड़े पूंजीपतियों के मुनाफे की दर को और गिरने से रोकने और सरकार के कर राजस्व को बढ़ाने में यह कर सुधार तात्कालिक तौर पर एक हद तक कामयाब होगा। जंहा तक देश की एकता का सवाल है । देश को एकीकृत बाजार से देखने वाले शासक पूंजीपति वर्ग व उसकी पार्टियों का मतलब यही एकता यानी एक बाज़ार है । जबकि वास्तविकता में 'एकता' तभी संभव है जब कि आत्मनिर्णय के अधिकार के तहत समाजवादी राज्य बने।
सहारनपुर के शब्बीरपुर गांव में दलितों पर हुए हमले की तथ्यान्वेषी रिपोर्ट .
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( क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन की अगुवाई में प्रगतिशील महिला एकता केंद्र एवं नौजवान भारत सभा के कार्यकर्त्ताओ ने तथ्यों की जांच पड़ताल के लिए शब्बीरपुर गांव का दौरा 8 मई को किया इस जांच पड़ताल के आधार पर यह रिपोर्ट तैयार की गई है।)
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सहारनपुर से लगभग 26 किमी दूरी पर शब्बीरपुर गांव पड़ता है । मुख्य सड़क से तकरीबन आधा किमी दूरी पर यह गांव है।इस गांव के आस पास ही महेशपुर व शिमलाना गांव भी पड़ते है। गांव के भीतर प्रवेश करते वक्त सबसे पहले दलित समुदाय के घर पड़ते है। जो कि लगभग 200 मीटर के दायरे में गली के दोनों ओर बसे हुए हैं। यहां घुसते ही हमें गली के दोनों ओर जले हुए घर, तहस नहस किया सामान दिखाई देता है। दलित समुदाय के कुछ युवक, महिलाएं व अधेड़ पुरुष दिखाई देते हैं जिनके चेहरे पर खौफ, गुस्सा व दुख के मिश्रित भाव को साफ साफ पढ़ा जा सकता है।
इस गांव के निवासियों के मुताबिक गांव में तकरीबन 2400 वोटर हैं जिसमें लगभग 1200 वोटर ठाकुर समुदाय के , 600 वोटर दलित (चमार)जाति के है। इसके अलावा कश्यप, तेली व धोबी, जोगी (उपाध्याय) आदि समुदाय से हैं। मुस्लिम समुदाय के तेली व धोबी के तकरीबन 12- 13 परिवार हैं। गांव में एक प्राइमरी स्कूल हैं जिसमें ठाकुर समुदाय के गिने चुने बच्चे ही पड़ते हैं जबकि अधिकांश दलितों के बच्चे यहां पड़ते हैं। गांव की अधिकांश खेती वाली जमीन ठाकुरों के पास है लेकिन 25-35 दलित परिवारों के पास भी जमीन है।
दलित प्रधान जो कि 5 भाई है के पास भी तकरीबन 60 बीघा जमीन है। गांव में ठाकुर बिरादरी के बीच भा ज पा के लोगों का आना जाना है। जबकि दलित समुदाय ब स पा से सटा हुआ है। गांव का प्रधान दलित समुदाय से शिव कुमार है जो कि ब स पा से भी जुड़े हुए हैं। इस क्षेत्र के गांव मिर्जापुर के दलित सत्यपाल सिंह ने बताया कि वह खुद आर एस एस(संघ) से लंबे समय से जुड़े हुए है शिमलाना, महेशपुर व शब्बीरपुर गांव में भी संघ की शाखाएं लगती हैं हालांकि इनमें दलितों की संख्या 6-7 के लगभग है और इस गांव से कोई भी दलित शाखाओं में नहीं जाता है।
घटना व घटना की तात्कालिक पृष्ठभूमि--- -
5 मई को दलित समुदाय को निशाना बनाने से कुछ वक्त पहले कुछ ऐसी बातें हुई थी जिसने दलितों को सबक सिखाने की सोच और मज़बूत होते चले गई । 14 अप्रेल को अम्बेडकर दिवस के मौके पर गांव के दलित अपने रविदास मंदिर के बाहर परिसर में अम्बेडकर की मूर्ती लगाना चाह रहे थे । लेकिंन गांव के ठाकुर समुदाय के लोगों ने इस पर आपत्ति की।प्रशासन ने मूर्ति लगाने की अनुमति दलितों को नहीं दी । मूर्ति लगाने के दौरान पुलिस प्रशासन को गांव के ठाकुर लोगों ने बुलाया। पुलिस मौके पर पहुँची मूर्ति नही लगाने दी गई ।
दलितों से कहा गया कि वो प्रशासन की अनुमति का इंतजार करें। जो कि नहीं मिली। 5 मई को इस गांव के पास शिमलाना में ठाकुर समुदाय के लोग "महाराणा प्रताप जयंती" को मनाने के लिए एकजुट हुए थे। इनकी तादात हज़ारों में बताई गई है। इसमे शब्बीरपुर गांव के ठाकुर भी थे। ये सभी सर पे राजपूत स्टाइल का साफा पहने हुए थे, हाथों में तलवार थामे हुए थे व डंडे लिए हुवे थे। 5 मई को सुबह लगभग 10:30 बजे गांव के ठाकुर समुदाय के कुछ युवक बाइक में दलित समुदाय की ओर से जाने वाले रास्ते पर से डी जे बजाते हुए आगे बढ़ रहे थे। इस पर दलितों ने आपत्ति जताई । क्योंकि प्रशासन से इनकी अनुमति नहीं थी । इसका दलितों ने विरोध किया लेकिन इस पर भी मामला नही रुका तो दलित प्रधान ने पुलिस प्रशासन को सूचित किया। पुलिस आई और डी जे को हटा दिया गया।
दलित समुदाय के लोगों ने आगे बताया कि इसके बाद ये बाइक में रास्ते से गुजरते हुए " अम्बेडकर मुर्दाबाद", "राजपुताना जिंदाबाद" महाराणा प्रताप जिंदाबाद" के नारे लगाते हुए आगे बढ़ने लगे। वह रास्ते से 2-3 बार गुजरे। इन दौरान फिर पुलिस भी आई। ठाकुर समुदाय के लोगों का कहना था कि इन दौरान दलित प्रधान ने रास्ते से गुजर रहे इन लोगों पर पथराव किया। जबकि दलित समुदाय के लोग इससे इनकार करते हैं। हो सकता है दलितों की ओर से कुछ पथराव हुआ हो। क्योंकि इसी दौरान ठाकुर समुदाय के लोग महाराण प्रताप जिन्दाबाद का नारा लगाते हुए रविदास मंदिर पर हमला करने की ओर बढ़े।
लगभग 11 बजे के आस पास रविदास मंदिर पर हमला बोला गया। दूसरे गांव से आये एक ठाकुर युवक ने रविदास की मूर्ति तोड़ दी नीचे गिरा दी । दलितों ने बताया कि इस पर पेशाब भी की गई। और यह युवक जैसे ही मंदिर के अंदर से बाहर परिसर की ओर निकला वह जमीन पर गिर गया। और उसकी मृत्यु हो गई । इसकी हत्या का आरोप दलितों पर लगाया गया। इण्डियन एक्सप्रेस के मुताबिक पोस्टमार्टम में मृत्यु की वजह ( suffocation) दम घुटना है। तुरंत ही दलितों द्वारा ठाकुर युवक की हत्या की खबर आग की तरह फैलाई गई । और फिर शिमलाना में महाराण प्रयाप जयंती से जुड़े सैकड़ो लोग तुरंत ही गांव में घुस आए। इसके बाद तांडव रचा गया। तलवार, डंडे से लैस इन लोगों ने दलितों पर हमला बोल दिया। थिनर की मदद से घरों को आग के हवाले कर दिया गया। लगभग 55 घर जले । 12 दलित घायल हुए इसमें से एक गंभीर हालत में है। गाय, भैस व अन्य जानवरों को भी निशाना बनाया गया।इस तबाही के निशान हर जगह दिख रहे थे।
यहां से थोड़ी दूर महेशपुर में सड़क के किनारे दलितों के 10 खोखे आग के हवाले कर दिए गए। यह सब चुन चुन कर किया गया। घायलों में 5 महिलाएं है जबकि 7 पुरुष। गांव के दलित प्रधान का बेटा गंभीर हालत में देहरादून जौलीग्रांट में भर्ती है। तलवार व लाठी डंडे के घाव इनके सिर हाथ पैर पर बने हुए हैं। रीना नाम की महिला के शरीर पर बहुत घाव व चोट है। इस महिला के मुताबिक इसकी छाती को भी काटने व उसे आग में डालने की कोशिश हुई। वह किसी तरह बच पायी।
शासन ,पुलिस प्रशासन व मीडिया की भूमिका ----- सरकार व पुलिस प्रशासन की भूमिका संदेहास्पद है व उपेक्षापूर्ण है। यह आरोप है कि घटनास्थल पर हमले के दौरान मौजूद पुलिस हमलावरों का साथ देने लगी व कुछ दलितों के साथ इस दौरान मारपीट भी पुलिस ने की । संदेह की जमीन यहीं से बन जाती है कि जब संघ व भाजपा के लोग अम्बेडकर को हड़पने पर लगे है तब दलितों को उन्हीं के रविदास मंदिर परिसर में अम्बेडकर की प्रतिमा लगाने से रोक दिया गया व प्रशासन ने इसकी अनुमति ही नहीं दी।
दलितों पर कातिलाना हमले के बाद भी सरकार व मुख्यमंत्री के ओर से दलितों के पक्ष में कोई प्रयास नहीं हुए जिससे कि उन्हें महसूस होता कि उनके साथ न्याय हुआ हो। इसके बजाय मामला और ज्यादा भड़काने वाला हुआ । एक ओर पुलिस प्रशासन ने पीड़ितों व हमलवारों को बराबर की श्रेणी में रखा और हमलावर ठाकुर समुदाय के लोगों के साथ साथ दलितों पर भी मुकदमे दर्ज किए दिए गए । 8 मई तक मात्र 17 लोग ही गिरफ्तार किए गए इसमें लगभग 7 दलित समुदाय के थे जबकि 10 ठाकुर समुदाय के। जबकि दूसरी ओर ठाकुर समुदाय से मृतक परिवार के लोगों को मुआवजा देने की खबर आई व मेरठ में मुख्य मंत्री योगी द्वारा अम्बेडकर की मुर्ती पर माल्यार्पण न करने की खबर भी फैलने लगी। घायल लोगों के कोई बयान पुलिस ने 8 मई तक अस्पताल में नहीं लिए थे। घायल लोगों के कपड़े घटना वाले दिन के ही पहने हुए हैं जो कि खून लगे हुए थे। ये पूरे शासन प्रशासन की संवेदनहीनता को दिखाता है।
इस दौरान गांव में डी एम ने एक बार दौरा किया व कुछ परिवारों को राशन दिया। लेकिन लोगो की जरूरत और ज्यादा की थी उन्हें छत के रूप में तिरपाल की भी जरूरत थी। लेकिन शासन प्रशासन ने फिर मदद को कोई क़दम नहीं उठाया। बाहर से जो लोग मदद पहुंचा रहे थे उन्हें भी प्रशासन ने रोक दिया। लखनऊ से गृह सचिव व डी जी पी स्थिति का जायजा लेंने पहुंचे तो वे केवल अधिकारियों से वार्ता करके चले गए गांव जाना व वंहा दलितों से मिलने का काम इन्होंने नहीं किया। बात यही नही रुकी। दलितों ने भेद भाव पूर्ण व्यवहार के विरोध में तथा मुआवजे के लिए एकजुट होने की कोशिश को भी रोका गया। दलित छात्रावास में रात को ही पी ए सी तैनात कर दी गई। और जब गांधी पार्क से एकजुट दलित लोगों ने जुलूस निकालने की कोशिश की तो उस पर लाठीचार्ज कर दिया गया।
मीडिया ने इस कातिलाना हमले को दो समुदाय के टकराव(clash) के रूप में प्रस्तुत किया। हमलावरों व हमले के शिकार लोगों को एक ही केटेगरी में रखा गया। इसका नतीजा ये रहा कि दलितों में पुलिस प्रशासन व मीडिया के प्रति अविश्वास व नफरत बढ़ते गया।
शबीरपुर घटना की दीर्घकालिक वजह :-----
. सहारनपुर में दलितों की आर्थिक व राजनीतिक स्थिति तुलनात्मक तौर ठीक है और यह तुलनात्मक तौर पर मुखर भी है । आरक्षण के चलते थोड़ा बहुत सम्पन्नता दलितों में आई है अपने अधिकारों के प्रति सजग भी हुए है। लेकिन इन बदलाव को सवर्ण समुदाय विशेषकर ठाकुर समुदाय के लोग अपनी सामंती मानसिकता के चलते सह नहीं पाते। उन्हें यह बात नफरत से भर देती है कि कल तक जिन्हें वे जब तब रौंदते रहते थे आज वही उन्हें आँख दिखाते है ।
जब से एस सी एस टी एक्ट बना हुआ है इस मुकदमे के डर से ठाकुर समुदाय के लोगों को जबरन खुद को नियंत्रित करना पड़ता है कभी कभी तो जेल भी जाना पड़ता है। ये बात इन्हें नफरत से भर देती है।ठाकुर समुदाय के लोग महसूस करते है कि बसपा की सरकार थी तो बस इन दलितों का ही राज था। अभी बसपा की सरकार होती तो सारे ठाकुर अंदर होते, भा जा पा के होने केवल 10-12 लोग ही अरेस्ट हुए। दलित व ठाकुरों के बीच के अंतर्विरोध अलग अलग वक्त पर झगड़ो के रूप में दिखते हैं।
चूंकी संघ ने निरंतर ही अपनी नफरत भरी जातिवादी विचारो का बीज इस इलाके में भी बोया है। सवर्ण समुदाय इससे ग्रसित है। वह आरक्षण व सामाजिक समानता का विरोधी है। इसलिए यह अंतर्विरोध और तीखा हुआ है। संघ मुस्लिमों के विरोध में सभी हिंदुओं को लामबंद करने की कोशिश कर रहा है अपने फास्सिट आंदोलन को मजबूत कर रहा है । शब्बीरपुर घटना उसके लिए फायदेमंद नहीं है। चुकी शब्बीरपुर गांव में ठाकुरों के वोटर दलितों से दुगुने होने के बावजूद ठाकुर अपना प्रधान नहीं बना पाए। एक बार रिजर्ब सीट होने के चलते तो दूसरी दफा सामान्य सीट होने के के बावजूद। जब ठाकुर समुदाय के लोगों से यह पूछा गया कि ऐसा कैसे हुआ ? तो उन्होंने जवाब दिया कि सारे चमार, तेली कश्यप एक हो गए हम ठाकुर एक नही हो पाए ज्यादा ठाकुर चुनाव में खड़े हो गए, वोट बंट गए और हार गए। इसका बहुत अफसोस इन्हें हो रहा था। इसके अलावा दलितों के पास जमीन होना भी ठाकुर लोगों के कूड़न व चिढ़ को उनके चेहरे व बातों में दिखा रहा रहा था। ठाकुर लोगों से जब पूछा गया कि गांव में सबसे ज्यादा जमीन किसके पास है ? तो जवाब मिला - सबके पास है दलितों के पास भी बहुत है प्रधान के पास 100 बीघा है उसका भटटा भी है पटवारी भी दलित है जितना मर्जी उतनी जमीन पैसे खाकर दिखा देता है।
ठाकुर परिवार की महिलाएं बोली - हमारी तो इज्जत है हम घर से बाहर नही जा सकती, इनकी(दलित महिलाएं) क्या इज्जत, सब ट्रैक्टर मैं बैठकर शहर जाती है पैसे लाती है। ठाकुर लोग फिर आगे बोले-इनके ( दलितों) के तो 5-5 लोग एक घर से कमाते है 600 रुपये मज़दूरी मिलती है हमारी तो बस किसानी है हम तो परेशान हैं आमदनी ही नहीं है। यही वो अंतर्विरोध थे जो लगातार भीतर ही भीतर बढ़ रहे थे दलितों को सबक सिखाने की मंशा लगातार ही बढ़ रही थी। और फिर 5 मई को डी जे के जरिये व फिर नारेबाजी करके मामला दलितों पर बर्बर कातिलाना हमले तक पहुंचा दिया गया। इसमें कम से कम स्थानीय स्तर के भा ज पा , संघ व पुलिस प्रशासन की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता।
5 मई को शिमलाना में महाराणा प्रताप जयंती का आयोजन किया गया । जिसमें हजारों लोग गांव में इकट्ठे हुवे थे। ऐसा कार्यक्रम सहारनपुर के गांव में पहली दफा हुआ। जबकि इससे पहले यह जिला मुख्यालय पर हुआ है। दलित समाज की प्रतिकिया व शासन प्रशासन--- जैसा कि स्पष्ट है विशेष तौर पर पुलिस प्रशासन के प्रति इनमें गहरा आक्रोश था। जब 9 तारीख को दोपहर में गांधी पार्क पर लाठी चार्ज किया गया तो शाम अंधेरा होते होते यह पुलिस प्रशासन से मुठभेड़ करते हुए दिखा। इनकी मांग थी - हमलावर ठाकुर समुदाय के लोगो को 24 घंटे के भीतर गिरफ्तार करो।
सहारनपुर के रामनगर,नाजीरपुरा,चिलकाना व मानकमऊ में सड़कें ब्लॉक कर दी गई । यह दलित समुदाय के युवाओं के एक संगठन 'भीम आर्मी' ने किया। लाठी डंडो से लैस इन युवाओं को पुलिस प्रशासन ने जब फिर खदेड़ने की कोशिश की तो फिर पुलिस को टारगेट करते हुए हमला बोल दिया गया।पुलिस थाने में आग लगा दी गई । पुलिस की कुछ गाड़िया जला दी गई ।पुलिस का जो भी आदमी हाथ आया उसे दौड़ा दौड़ा कर पिटा गया। अधिकारियों को भी इस आक्रोश को देख डर कर भागना पड़ा। एक दो पत्रकारों को भी पीटा गया व बाइक जला दी। एक बस से यात्रियों को बाहर कर बस में आग लगा दी गई।
इस आक्रोश से योगी सरकार के माथे पर कुछ लकीरें उभर आई। तुरंत ही अपनी नाकामयाबी का ठीकरा दो एस पी पर डालकर उन्हें हटा दिया गया। और अब वह "कानून का राज" कायम करने के नाम पर दलित युवाओं से बनी भीम आर्मी पर हमलावर हो गई है। अस्पताल से लेकर छात्रावास व गांव तक हर जगह इनको चिन्हित कर तलाशी अभियान चलाया जा रहा है। जबकि ठाकुर समुदाय के तलवार के बल पर खौफ व दहशत का माहौल पैदा करने वाले महाराण प्रताप जयंती वाली सेना को सर आंखों पर बिठा कर रखा जाता है। उनके खिलाफ ऐसी कोई कार्यवाही सुनने या देखने पढ़ने को नही मिली।साफ महसूस हो रहा है कि पुलिस प्रशासन अब पुलिस कर्मियों पर हमला करने वाले दलित समुदाय के लोगों को सबक सिखाने की ओर अपने कदम बढ़ा चुका है। कुल मिलाकर शासन -प्रशासन व राज्य सरकार का रुख दलितों के प्रति भेदभावपूर्ण, उपेक्षापूर्ण , दमनकारी व सबक सिखाने का बना हुआ है। इसलिये आने वाले वक्त में यह समस्या और गहराएगी। वैसे भी जब जातिवादी , साम्प्रदायिक व फासिस्ट विचारों से लैस पार्टी सत्ता में बैठी हुई हो तो इससे अलग व बेहतर की उम्मीद करना मूर्खता है।
धुर प्रतिक्रियावादी एकाधिकारी पूंजी की जीत
अंततः नोटबंदी के राजनीतिक स्टंट के जरिये अपने विरोधियों को चित करने की मोदी की मंशा यू पी जीत के साथ पूरी हो गयी। उत्तराखंड व यू पी में लगभग तीन चौथाई सीट हासिल करने के बावजूद मोदी का कॉन्ग्रेस मुक्त भारत का सपना अधूरा रह गया। शायद मोदी जी भूल गए कि जिन ताकतों ने उन्हे पाल पोस कर दिल्ली के तख़्त पर बिठाया है वही ताकते कोंग्रेस की पीठ पर भी हाथ रखे हुए है। पंजाब में कॉन्ग्रेस तीन चौथाई सीटें हासिल की तो मणिपुर व गोवा में सबसे बड़ी पार्टी रही।
उत्तराखंड में भा ज पा की वोट % 54 से 46 रह गयी (2014 की तुलना में ) जबकि 2012 की तुलना में लगभग 13 % बढ़ गया। यू पी में 2014 की तुलना में भाजपा का वोट % 42 से 40 के लगभग हो गया। जबकि 2012 के असेम्बली चुनाव की तुलना में 25 % बढ़ गए। पंजाब में भा ज पा का वोट शेयर 2014 के लगभग 9 % से गिरकर 5.4 % ही गया जबकि कोंग्रेस के 2014 के 33 % से बढ़कर 39 % ही गए। गोवा में भाजपा के वोट शेयर 2014 के 53 % से घटकर 33 % हो गए । कॉन्ग्रेस के 37 % से घटकर लगभग 28 % रह गए।
यू पी व उत्तराखंड में मिली जीत को ही देश के लिए जनादेश के रूप में प्रचारित किया रहा है। यू पी में फासीवादी ताकतों के लिए सब कुछ दांव पर लगा था । मीडिया की मोदी भक्ति के बावजूद माहौल पक्ष में नहीं था। इसके बावजूद इतने बड़े स्तर पर सीटों का मिलना इस आरोप में संदेह की पर्याप्त गुंजाइश छोड़ देता है कि ई वी एम में गड़बड़ी की गयी हो । यदि ऐसा नहीं है तो फिर दूसरे समीकरण जिसके लिए मोदी अमित शाह ने अपनी पूरी ताकत लगाई थी वह सफल हो गयी यानि जाति के भीतर सूक्ष्म स्तर के बंटवारे को इस्तेमाल करना , सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को तेज करना, मीडिया में चौतरफा मोदी प्रचार, पूरे मंत्री मंड़ल को चुनाव में झौंक देना आदि। मोदी की यू पी जीत के साथ अम्बानी अदानी जैसी प्रतिक्रियावादी एकाधिकारी पूंजी का वर्चस्व अब और बढ़ने की ओर है। दूसरी ओर फासीवादी ताकतों के हमले जनवादी प्रगतिशील व क्रांतिकारी ताकतों पर बढ़ने है। मज़दूर मेहनतकश अवाम समेत छोटी मझोली पूंजी की तबाही बर्बादी आने वाले वक्त में और तेज होनी है ।
8 मार्च : अन्तराष्ट्रीय श्रमिक महिला दिवस
काले धन के खिलाफ जहर उगलने वाले मोदी जी काले धन पर सवार होकर ही सत्ता पर पहुंचे थे। अम्बानी -अदानी जैसो के दम पर सत्ता में पहुंचने के बाद 15 लाख रूपये सबके खाते में पहुँचाने की बात को प्रधानमंत्री मोदी के जोड़ीदार अमित शाह ने राजनीतिक जुमला करार दिया था।
संघी फासीवादी अब फिर आक्रामक होने लगे हैं वह गुंडागर्दी की एक से बढ़ाकर एक मिसालें कायम कर रहे हैं समाज में मज़दूर मेहनतकश अवाम व जनवाद के पक्ष में अन्याय के विरोध में आवाज उठाने वाली ताकतों पर वह दहशत कायम कर देना चाहते हैं। मद्रास में पेरियार स्टडी ग्रुप फिर हैदराबाद में अम्बेडकर स्टूडेंट एसोसिएसन अब ख्याति प्राप्त जे एन यू कालेज में छात्र संघ पर हमला।
रोहित वेमूला की आत्महत्या के लिए जिम्मेवार लोगों को सजा दो
अनपढ़ गरीब व वंचितों को चुने जाने के अधिकार को छीने जाने की साजिश का विरोध करो !
राजस्थान के बाद हरियाणा में संघी सरकार ने पंचायत चुनावों गरीब और अनपढ़ लोगों के चुनाव में चुने जाने यानी खड़े होने के अधिकार को छीन लिया है. इसे देश के सर्वोच्च न्यायालय ने सही ठहरा दिया है।
ब्रिटिश हुकमत के दौर में उच्च शिक्षा व संपत्ति रखने वाले संपत्ति धारी लोगो तक चुनाव को सीमित किया गया था पूंजीवाद जनवाद अपने शुरुवाती काल में इसी ढंग से आगे बढ़ा है। रूसी क्रान्ति के बाद सत्ता मज़दूर वर्ग के हाथ मैं आने के बाद दुनिया भर में शोषित उत्पीड़ित जनो के संघर्ष आगे बढे। हिन्दुस्तान की आज़ादी में इसी काम पढ़ी लिखी या अनपढ़ रखी गयी मज़दूर किसान आदिवासी जन की कुर्बानी व संघर्ष के दम पर ही वह स्थिति बनी कि देश आज़ाद हुआ। सत्ता पर शोषक उत्पीड़क वर्ग ही काबिज हो गया। लेकिन उसकी पार्टी को जनता को संविधान में अलग अलग जनवादी संस्थाओं में चुने जाने व चुनने का अधिकार घोषित करना पड़ा। लेकिन आज विशेषकर संघी ताकतें इस जनवादी अधिकार को को अनपढ़ या काम पढ़े लिखे जनसमुदाय के खिलाफ एक साजिश के तहत इसे छीन रही है।
हरियाणा सरकार ने पंचायत चुनाव प्रतिनिधियों के संबंध में यह नियम बना दिया है कि उन्हें एक न्यूनतम शैक्षिक योग्यता रखनी होगी। यानी इस योग्यता के न होने पर वे चुनाव में खड़े नहीं हो सकते। सर्वोच्च न्यायालय ने हरियाणा सरकार के जनवाद विरोधी कदम को सही करार दे डाला
राजस्थान की संघी सरकार ने यह नियम बनाया था कि पंचायत चुनाव वही लड़ सकते हैं जिनके घर में शौचालय हो तथा जो किसी भी तरह के कर्ज से मुक्त हों। इन कर्जो में बिजली का बिल भी शामिल है।
इन दोनों संघी सरकारों के फैसलों से सीधे तौर पर समाज के गरीब और वंचित प्रभावित होंगे। वे पंचायत चुनाव नहीं लड़ पायेंगे। इस प्रकार एक साजिश के तहत गरीब और वंचित लोगों को निशाना बनाया जा रहा है
संघ परिवार तो वैसे भी हमेशा से ही जनवाद विरोधी रहा है। वह देश में मुसलमान और इसाई अल्पसंख्यकों के जनवादी अधिकारों को कुचलने की बात तो खुलेआम करता ही रहा है, सामजिक असमानता जाति व्यवस्था को समाज मुफीद मानने वाला संघ में बराबरी का कोई स्थान नहीं रहा है।
पंचायती राज के तहत शासकों ने अपने लूट शोषण के तंत्र का गांवों और मोहल्लों तक विस्तार किया हैं। तथा इस तंत्र के अपने होने का भ्रम लोगों के बीच फैलाया है ।इसके जरिये पूंजीवादी पार्टियां गाँव गाँव तक एजेन्ट कायम कर लेती हैं। लेकिन इस सब के बावजूद यह जनवादी अधिकार से जुड़ा हुआ सवाल है लम्बे जनसंघर्षों से जनता को हासिल है। इसलिए इस अधिकार में कटौती खिलाफ आवाज बुलंद करनी होगी।
एक बार फिर उजागर हुआ शासकों का पाखण्ड
पेरिस में आतंकवादी हमले के बाद एक बार से अमेरिका फ्रांस समेत दुनिया भर के पूंजीवादी शासक आतकवाद के मसले पर एकसुर होते दिख रहे हैं । भारत के संघी फासीवादी मोदी तक सभी आतंकवाद की निंदा कर रहे हैं फ्रांस में हुए हमले को मानवता के खिलाफ घोषित करते हुएइसे नेस्तनाबूत करने की बात कर रहे हैं। शार्ले हब्दों घटना के बाद एक बार फिर यह फ्रांस में होता दिख रहा है। तब भी अभिव्यक्ति के अधिकार के नाम पर अभिव्यक्ति का गला घोंटने वालों ने एकजुट होकर प्रदर्शन किया था।
पेरिस हमले की जिम्मेदारी आई एस आई एस ने ली है।अन्य आतंकवादी संगठनों की तरह इसे भी साम्राज्यवादियों विशेषकर अमेरिकी साम्रज्यवाद द्वारा खड़ा किया गया पाला पोषा गया है। अब यह अपनी गति में इन घटनाओं को अंजाम दे रहाहै। अब आई एस आई एस की बर्बरता चर्चा खूब हो रही हैं. लेकिन खुद अमेरिकी साम्रज्यवादी व अन्य साम्रज्यवादी आतंक ने इराक अफगानिस्तान समेत दुनिया भर में लाखों लोगों का कत्लेआम किया है जिसे भुला दिया जाता है. इसधार्मिक कट्टरपंथी आतंकवाद को पैदा करके फिर इसी के नाम पर देशों में हस्तक्षेप व हमला किया जाता है। आई एस जैसे कट्टरपंथी आतंकवादी साम्राज्यवादियों द्वारा कियेजाने वाले इस हमले व बर्बरता से खुद को मज़बूत करते हैं व खुद को जायज ठहराते हैं नये लोगों कोजोड़ते हैं । और जो लोग साम्रज्यवाद के दुष्चक्र व हमले के शिकार हैं उन्ही को अपने हमले का निशाना बनाते हैं।
साम्राज्यवादी मुल्क और ये आतंकवादी इस तरह एक दूसरे को मदद पहुंचाते हुए राजनीतिक लक्ष्य को साधते हैं।
पिछड़े पूंजीवादी देशों के शासक भी इसका इस्तेमाल अपने हित में करते हैं । भारतीय शासकों द्वारा भी आतंकवाद को इस्लाम का पर्याय बनाने में देश के स्तर पर भरपूर प्रयास हुए हैं । संघी सरकार तो इसे मामले में और भी चार कदम आगे है। इस तरह इन्होने इसके जरिये समाज में फासीवादीकरण को आगे बढ़ाया है।
कुल मिलाकर शासकों और आतंकवादी समूहों के आतंक का समाधान केवल जनवादी व क्रांतिकारी संघर्षों के जरिये ही हो सकता है ।अंतत: इस समस्या को पैदा करने वाले पूंजीवाद कोई समाधान नहीं है बल्कि समाजवादी समाज की स्थापना ही इसका मुकम्मिल जवाब है।
बिहार में भाजपा की पराजय
संघी स्वयं सेवकों मोदी-शाह की जोड़ी को बिहार में नितीश-लालू की जोड़ी ने पटकनी दे दी । ये दोनों चारों खाने चित्त हैं और इनके साथ भाजपा के उन सारे बड़बोलों की बोलती बंद हो गई है जो पिछले डेढ़ साल से बेहद उद्धत ढंग और हिकारत से अपने हर विरोधी को लतिया रहे थे। इसमें उन्होंने देश के जाने-माने बुद्धिजीवियों और कलाकारों को भी नहीं बख्शा था।
बिहार विधान सभा का चुनाव मोदी-शाह की जोड़ी के लिए बेहद अहम था। इसमें सफलता के बाद वे उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में भी सफलता की ओर बढ़ सकते थे। इसके जरिये वे राज्य सभा में भी बहुमत हासिल करने की ओर बढ़ सकते थे जिसके बिना अंबानी-अदानी की सेवा करने की उनकी मंशा परवान नहीं चढ़ पा रही है। इसी कारण उन्होंने यह चुनाव जीतने के लिए जमीन-आसमान एक कर दिया।
जहां अमित शाह ने बिहार में महीनों से डेरा ही डाल दिया था वहीं मोदी ने भी ताबड़तोड़ रैलियां कर डालीं। ज्यादातर केन्द्रीय मंत्री इस चुनाव में झोंक दिये गये। पता नहीं कितने हेलीकाॅप्टर इनके चुनाव प्रचार में लगाये गये। रुपये-पैसों का तो कोई हिसाब-किताब ही नहीं था।
व्यक्तिगत प्रयासों के साथ इन्होेंने अपनी चुनावी रणनीति में भी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। जातिगत समीकरण बैठाने के लिए उन्होंने राम विलास पासवान और कुशवाहा को साथ लिया तो जीतन मांझी को नितीश से तोड़कर अपने साथ मिलाया। अपने हिसाब से उन्होंने पिछड़ों, दलितों और महादलितों को साथ ले लिया था, सवर्ण तो पहले से उनके साथ थे।
लेकिन इस जातिगत समीकरण को बैठाने के बावजूद वे जीत के प्रति आश्वस्त नहीं थे। इसीलिए उन्होंने शुरू से ही धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण करने की कोशिश की। नरेन्द्र मोदी ने गाय और ‘बीफ’ (गोमांस) पर ध्रुवीकरण करने की कोशिश की। नरेन्द्र मोदी ने गाय और ‘बीफ’ का मुद्दा उछाला। अंत में तो बेशरमी की हद पार करते हुए उन्होंने मुसलमानों को धर्म के आधार पर आरक्षण का मुद्दा छेड़ दिया।
मोदी-शाह का यह जाना-माना हथकण्डा था। इसे वे लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश में पूरी तरह दक्षता से इस्तेमाल कर चुके थे। उत्तर प्रदेश में एक ओर जहां उन्होंने कुछ पिछड़ी और दलित जातियों को साथ लेने के लिए गठबंधन से लेकर अन्य तरह के हथकण्डे अपनाए वहीं धर्म के नाम पर गोलबंदी के लिए सारी हदें पार कर दीं। इस सबसे उन्हें आशातीत सफलता भी मिली।
पर बिहार में वे यह अपनी उम्मीद के अनुसार सफल नहीं हो पाये। इसका सीधा सा कारण था कि बिहार में उनके प्रमुख विरोधी एक गठबंधन में एक हो गये। लोकसभा चुनावों में उत्तर-प्रदेश और बिहार दोनों में भाजपा की अप्रत्याशित जीत का प्रमुख कारण विरोधी खेमे का बिखराव था। इस बार नितीश-लालू-कांग्रेस गठबंधन ने जितनी सीटें जीती हैं वे उतनी ही हैं जितनी तब बनतीं जब वे लोकसभा चुनाव के दौरान मिलकर लड़े होते। बिहार में मोदी-शाह की इस अप्रत्याशित हार का कारण बिलकुल वही है जो लोकसभा चुनावों के दौरान उनकी जीत का था। फर्क केवल इतना था कि विरोधी तब बंटे हुए थे, अब एक हैं।
इस तरह बात यह नहीं है कि नितीश कुमार के ‘सुशासन’ को इस बार बिहार की जनता ने स्वीकार कर लिया जबकि लोकसभा चुनावों में नकार दिया था। इस बार भी मतों के प्रतिशत में शायद ही कोई परिवर्तन हुआ हो। फर्क गठबंधन के होने या न होने का था।
हेकड़ीबाज मोदी-शाह के गालों पर बिहार चुनावों में दनादन थप्पड़ पड़े हैं तो केवल इसी कारण कि वे अपनी लोकप्रियता के प्रति कुछ ज्यादा ही आश्वस्त हो गये थे। अन्यथा तो सच्चाई यह है कि भाजपा अभी भी बिहार में सबसे ज्यादा मत हासिल करने वाली पार्टी है। यानी भाजपा की व्यक्तिगत लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई है। यानी इन परिणामों से यह मान लेना कि यह भाजपा के पराभव को दर्शाता है, गलत है।
दूसरे यह कि यदि कोई यह सोचता है कि मोदी-शाह की भाजपा बिहार चुनाव परिणाम से सबक सीखकर अपना रास्ता बदलेगी और हिन्दू साम्प्रदायिक फासीवाद को छोड़कर एक सामान्य दक्षिणपंथी पार्टी बनने की ओर बढ़ेगी तो यह खुशफहमी होगी। हिन्दू साम्प्रदायिक फासीवाद भाजपा के डी.एन.ए. में है। इससे भी ज्यादा यह मोदी-शाह के डी.एन.ए. में है। इसी के बल पर ये पिछले लोकसभा चुनावों में बहुमत हासिल करने में कामयाब रहे थे।
इसीलिए मोदी-शाह की भाजपा हिन्दू साम्प्रदायिक फासीवाद के एजेण्डे को नहीं छोड़ने वाली। आने वाले चुनावों में मोदी-शाह फिर यही करेंगे। उनके पास यही तुरुप का इक्का है। ‘विकास’ की सारी बातें भोले-भाले लोगों के लिए हैं या उन लोगों के लिए जो स्वयं को धोखे में रखना चाहते हैं।
हां, यह हो सकता है कि इस चुनाव परिणाम के बाद भाजपा में मोदी-शाह की जोड़ी के एकक्षत्र अधिपत्य के प्रति विरोध के स्वर बुलंद हों और ऐसे दो-चार और झटकों के बाद इनमें से एक या दोनों की बलि चढ़ा दी जाये। तब भाजपा शायद वाजपेई टाइप भाजपा की ओर लौट आये जिससे नितीश कुमार जैसे ‘धर्मनिरपेक्ष’ ‘विकास पुरुषों’ को कोई परेशानी नहीं थी।
इन चुनावों में हिन्दू साम्प्रदायिक फासीवाद के विरोधी खुश हो सकते हैं पर उन्हें लालू-नितीश-राहुल के प्रति कोई भी नरमी नहीं बरतनी चाहिए। भारतीय पूंजीपति वर्ग के ये सेवक भी मजदूर-मेहनतकश जनता के लिए कोई कम खतरनाक दुश्मन नहीं हैं। स्वयं हिन्दू साम्प्रदायिकता के मुद्दे पर भी ये बेहद अवसरवादी रुख अपना सकते हैं जैसा कि इनका इतिहास बताता है।
Repression of Occupy UGC’ movement
Delhi --- The students’of Delhi’s universities and J N U were protesting against the University Grants Commission’s (UGC’s) . This struggle started against the decision to discontinue the non-National Eligibility Test (NET) Fellowship for research scholars. But instead of hearing their voice the government deployed there police and paramilitary personnel with the intention of crack down on “Occupy UGC” movement. A group of protesters was picked up by ITBP and CRPF personnel from the UGC office premises and detained, while another group faced lathicharge at ITO .
संघ मण्डली और उसके प्रधानमंत्री अब इसी तरह का एक नया प्रयोग अंजाम दे रहे हैं। यह प्रयोग है किसी शब्द का इतना मखौल उड़ाया जाये कि वह अपना अर्थ खो दे। संघ व उसके चहेते मोदी दोनों को भारतीय संविधान में भारत को धर्मनिरपेक्ष (सेक्युलर) घोषित किये जाने पर आपत्ति है। संघ तो देश को खुलेआम हिदू राष्ट्र बनाना ही चाहता है। ऐसे में इन शख्सियतों की इतनी हिम्मत तो है नहीं कि वे संविधान बदल दें इसलिए वे चोर दरवाजे से दूसरी रणनीति को अंजाम दे रहे हैं।
यह रणनीति है कि सेक्युलरिज्म का इतना मखौल उड़ाया जाय कि लोग धीरे-धीरे यह भूल जायें कि भारत का संविधान भारत को एक सेक्युलर देश बताता है। कि लोग इस बात को धीरे-धीरे मान लें कि धर्म निरपेक्ष कहलाना एक मजाक बन जाये। इसमें कोई भूल कर भी यह सवाल न उठा पाये कि देश के प्रधानमंत्री जब धर्मनिरपेक्षता का मजाक उड़ाते हैं तो वे खुलेआम भारतीय संविधान का भी मखौल बनाते हुए एक अपराधिक कृत्य करते हैं। इसीलिए जब मोहन भागवत देश को हिंदू राष्ट्र करार देते हैं तो कोई भी आवाज इसे एक अपराधिक वक्तव्य ठहराने की नहीं उठती।
संघ मंडली ने सेक्युलरिज्म का मखौल उड़ाने का मुख्य जिम्मा प्रधानमंत्री मोदी को ही दे रखा है। अभी मोदी को देश के भीतर तो यदा कदा ही सेक्युलरिज्म का मजाक बनाने का मौका मिला पर जब भी उन्होंने विदेशों में अनिवासी भारतीयों को सम्बोधित किया तो इसका मजाक बनाने का कोई मौका नहीं छोड़ा।
पिछले वर्ष टोकियों में मोदी ने जब जापानी राजा को गीता भेंट की तो साथ ही यह भी कह डाला कि हमारे सेक्युलर मित्र इस पर तूफान खड़ा कर देंगे कि मोदी खुद को क्या समझता है। वे गीता को अपने साथ लाने पर उन्हें साम्प्रदायिक करार देंगे। इसके बाद बर्लिन में यह कहा कि किसी जमाने में जर्मन रेडियो संस्कृत में एक बुलेटिन प्रसारित करता था पर भारत में इस पर सेक्युलरिज्म के ऊपर इतना तूफान मच जाता कि संस्कृत भी विवाद में फंस जाती। और अभी हाल में 23 सितम्बर 2015 को आयरलैण्ड के डबलिन में मोदी का स्वागत संस्कृत के श्लोक व गीत से किये जाने पर उन्होंने टिप्पणी की कि अगर भारत में ऐसा करने का प्रयास किया जाए तो सेक्युलरिज्म पर सवालिया निशान खड़ा हो जाता।
आजाद भारत में धर्मनिरपेक्षता को कभी वैज्ञानिक अर्थों में परिभाषित ही नहीं किया गया। किसी राज्य के धर्मनिरपेक्ष होने का सीधा अर्थ यह होता है कि राजकीय मसलों- राजनीति- शिक्षा आदि में धर्म का हस्तक्षेप बन्द कर दिया जाये। लोगों को व्यक्तिगत तौर पर जिस धर्म को वे चाहें मानने की स्वतंत्रता हो पर राज्य या सार्वजनिक जीवन में धर्म का कोई हस्तक्षेप न हो। राज्य वैज्ञानिक व तार्किक चिंतन को लगातार समाज में, शिक्षा में स्थापित करें।
पर भारत में धर्मनिरपेक्षता की उपरोक्त व्याख्या के बजाय सर्वधर्म समभाव के रूप में व्याख्या की गयी यानि राज्य सभी धर्मों के प्रति समान भाव रखे। सब धर्मों के आयोजनों को वह समान रूप से प्रश्रय दे। भारत के स्वाधीनता संघर्ष में कांग्रेस के तिलक-गांधी नुमा नेताओं की पृष्ठभूमि में धर्मनिरपेक्षता के वैज्ञानिक अर्थ ग्रहण करने की संभावना क्षीण ही थी क्योंकि ये नेता अक्सर हिंदू प्रतीकों का इस्तेमाल करते पाये जाते थे।
संघ व एकाधिकारी पूंजी के गठजोड़ के इस चरण में इससे भिन्न व्यवहार की उम्मीद भी नहीं की जा सकती। यह बात ही इस ओर संकेत करती है कि आज पूंजीवादी दायरे में धर्मनिरपेक्षता-तार्किकता को स्थापित करने की हर कवायद निष्फल होनी तय है क्योंकि यह नेहरू का नहीं मोदी का जमाना है। पूंजीपति वर्ग का हाथ अब नेहरू के सिर पर नहीं मोदी के सिर पर है। धर्मनिरपेक्षता को वास्तविक अर्थों (सार्वजनिक जीवन, राजकीय मसलों से अलग धर्म को व्यक्तिगत मसला घोषित करना) में स्थापित करने वाले सभी बुद्धिजीवियों-चिन्तकों को इसके लिए पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ खड़ा होना पड़ेगा। मजदूर वर्ग के नेतृत्व में चल रहे समाजवाद के लिए संघर्ष का हमराह बनना होगा। समाजवाद में ही धर्मनिरपेक्ष भारत का निर्माण होगा तब तक मोदी के सेक्युलरिज्म विरोध के साथ अन्य पूंजीवादी दलों के छदम सेक्युलरिज्म का पर्दाफाश करना होगा।
इस घटनाक्रम से अमरीकी साम्राज्यवादी बौखला गये हैं। वे रूसी हुकूमत के विरुद्ध जहर उगलने की मुहिम और तेज कर चुके हैं लेकिन इससे रूसी हमलों में कोई कमी नहीं आ रही है। अमरीकी साम्राज्यवादियों की बशर अल असद को सत्ता से हटाने की मुहिम कमजोर हो गयी है। अभी तक अमरीकी साम्राज्यवादी तथा अरब देशों में मौजूद शेखशाहियां, विशेष तौर पर साऊदी अरब के शासक सुन्नी आतंकवादियों को हथियार, पैसा और प्रशिक्षण मुहैय्या कराके बशर अल असद की हुकूमत को हटाने के लिए उसके विरुद्ध आतंकवादी वारदातों को अंजाम दे रहे थे। उत्तर में तुर्की को प्रशिक्षण शिविर के बतौर इस्तेमाल किया जा रहा था। तुर्की से आतंकवादी सीआईए से प्रशिक्षण लेकर सीरिया के अलेप्पो प्रांत में अधिकार जमा चुके थे। यह सब अमरीकी साम्राज्यवादी आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध के नाम पर कर रहे थे। यह अब जानी हुई बात है कि अमरीकी साम्राज्यवादियों ने ही आईएसआईएस, अल नुसरा और ‘फ्री सीरियन आर्मी’ जैसे आतंकवादी संगठनों को खड़ा करने में मदद की थी और इस काम में उनके घनिष्ठ सहयोगी साऊदी अरब के बहावी शासक थे।
30 सितम्बर के बाद सीरिया में स्थिति बदल गयी है। अमरीकी शासकों के सामने यह चुनौती खड़ी हो गयी है कि आतंकवादी गुटों को सचमुच में खतम करने वाले रूसी हवाई हमलों को किस तरह से गलत सिद्ध किया जाए। अमरीकी साम्राज्यवादी अब यह कह रहे हैं कि रूसी हवाई हमले बशर अल असद की हुकूमत के विरुद्ध लड़ने वाले उदारवादी विरोधियों के विरुद्ध केन्द्रित हो रहे हैं। रूसी साम्राज्यवादी यह साफ तौर पर कह रहे हैं कि बशर अल-असद की हुकूमत के निमंत्रण पर वे सीरिया में आतंकवादियों का सफाया करने के मकसद से हवाई हमले कर रहे हैं। सीरिया में उनके द्वारा किया गया हवाई हमला कानूनी और न्यायसंगत है जब कि अमरीकी साम्राज्यवादियों द्वारा आतंकवादी समूहों को दी जाने वाली मदद और प्रशिक्षण गैरकानूनी और अन्यायपूर्ण है। यह अमरीकी साम्राज्यवादियों द्वारा अपनी नापसंद हुकूमतों को दुष्ट हुकूमतें कहने और उनके ‘हुकूमत परिवर्तन’ के अभियान का हिस्सा है। यह सिर्फ इसलिए चलाया जा रहा है कि अमरीकी साम्राज्यवादी इस क्षेत्र के तेल भंडारों और अन्य साधन स्रोतों पर कब्जा कर सकें। रूसी साम्राज्यवादी सीरिया में बशर अल असद की सरकार को कायम रखना चाहते हैं और अमरीकी साम्राज्यवादी उस हुकूमत को हटाकर अपनी मनपसंद सरकार कायम करना चाहते हैं। यह ज्ञात हो कि पश्चिम एशिया में सीरिया एकमात्र देश है जिसके साथ रूसियों के घनिष्ठ सम्बन्ध सोवियत संघ के जमाने से निरंतर रहे हैं।
रूसी साम्राज्यवादी तुर्की की हुकूमत के साथ निरंतर सम्पर्क में हैं। वे तुर्की के शासकों को यह साफ-साफ संदेश दे रहे हैं कि सीरिया में उसका हस्तक्षेप बंद होना चाहिए। तुर्की नाटो का सदस्य देश है। अमरीकी साम्राज्यवादी तुर्की को इस बात के लिए उकसा रहे हैं कि वह रूस द्वारा उसके हवाई क्षेत्र का अतिक्रमण करने और तुर्की के क्षेत्र में बमबारी करने का विरोध करे और रूस के विरुद्ध लड़ाई में उतर जाए। इससे नाटो के देशों को रूस के विरुद्ध चौतरफा युद्ध छेड़ने में मदद मिलेगी क्योंकि नाटो संगठन के प्रावधान के अनुसार यदि नाटो के किसी देश पर कोई हमला करता है तो नाटो के सदस्य देश इसे अपने ऊपर हमला मानकर उसके विरुद्ध साझी कार्रवाई करेंगे।
लेकिन तुर्की इसके परिणामों से परिचित है। तुर्की के शासकों को रूसी साम्राज्यवादी लगातार यह बता रहे हैं कि उनका तुर्की से लड़ने का कोई इरादा नहीं है। यदि तुर्की के क्षेत्र में कोई बम गिरा है तो यह आकस्मिक है। यह रूसी सेना का इरादा नहीं है। लेकिन तुर्की के शासक अपनी अभी तक की चली आ रही सीरिया विरोधी नीति को बदलने के लिए तैयार नहीं हैं। वे रूसी साम्राज्यवादियोें के विरुद्ध दूर तक जाने के लिए भी तैयार नहीं हैं। रूसी साम्राज्यवादियों ने उन्हें बता दिया है और चेतावनी भी दे दी है कि कुर्द लोगों के दमन के विरुद्ध लड़ाई तेज होने पर तुर्की के शासक कमजोर स्थिति में जा सकते हैं और स्वतंत्र कुर्द राज्य बन सकता है। रूसी हवाई हमलोें के दस दिन बाद तुर्की में एक बम विस्फोट उस समय हुआ जब एक कुर्द पार्टी की रैली हो रही थी। इस बम विस्फोट में 50 से ज्यादा लोग मारे गये और भारी तादाद में लोग घायल हुए। यह आतंकवादी कार्रवाई निश्चित तौर पर तुर्की हुकूमत की छत्र छाया में पलने वाले आतंकवादी संगठनों में से किसी ने की होगी। तुर्की जो अभी तक अमरीकी साम्राज्यवादियों, साऊदी अरब और अन्य शेखशाहियों से मिलीभगत करके सीरिया की हुकूमत के विरुद्ध आतंकवादियों की मदद कर रहा था अब उसकी गति सांप-छछूंदर की हो गयी है। अभी तक वह अमरीकी साम्राज्यवादियों के साथ मिलकर सीरिया की हुकूमत के लिए ‘नो फ्लाई जोन’ बनाना चाहता था, अब उसमें पानी फिर गया है। अब खुद अमरीकी साम्राज्यवादियों और तुर्की जैसे उसके सहयोगियों के लिए ‘नो-फ्लाई जोन’ सीरिया में बनने के आसार बन रहे हैं।
इस समूचे घटनाक्रम के दौरान अमरीकी साम्राज्यवादियों के भीतर खुद अंतरविरोध तीव्र हो गये हैं। बराक ओबामा की ‘हुकूमत परिवर्तन’ की अभी तक चलने वाली नीति पर हमले हो रहे हैं। अमरीकी साम्राज्यवादियोें का एक धड़ा यह मांग करने लगा है कि आतंकवाद के खात्मे के लिए अमरीका को रूस के साथ सहयोग करना चाहिए क्योेंकि रूसी हवाई हमला आतंकवाद के विरुद्ध ही केन्द्रित है। एक दूसरा मजबूत धड़ा है जो रूसी साम्राज्यवादियों के विरुद्ध युद्ध करने का नारा दे रहा है। अमरीकी साम्राज्यवादियों ने नाटो के जरिए रूस को चारों तरफ से घेर रखा है। यूक्रेन में फासिस्ट हुकूमत के जरिए रूस को लगातार लड़ाई में डालने की कोशिश की है। यूरोपीय संघ के साथ मिलकर यूक्रेन के मसले पर रूस के विरुद्ध आर्थिक प्रतिबंध लगा रखे हैं। इस सबके बावजूद रूस ने सीरिया में हवाई हमला करके दुनिया भर के शासकों में अपनी साख को बढ़ाया है और अमरीकी साम्राज्यवादियों की दादागिरी पर लगाम लगाने में पहल की है। इससे अमरीकी साम्राज्यवादियों के बीच आपसी टकराहट और तेज हुयी है। फिलहाल ऐसा लगता है कि ओबामा को तात्कालिक तौर पर पीछे हटना पड़ेगा और बशर अल असद की हुकूमत के साथ किसी न किसी किस्म की समझौता वार्ता में अपने समर्थकों को बिठाना होगा। लेकिन दीर्घकालिक तौर पर अमरीकी साम्राज्यवादियों की नीति वही हुकूमत परिवर्तन की बनी रहेगी।
पश्चिम एशिया में इस हवाई हमले ने एक नये गठबंधन को और मजबूती प्रदान की है। ईरान की हुकूमत पहले से ही सीरिया की हुकूमत का साथ दे रही थी लेकिन इस रूसी हवाई हमले ने ईरान की हुकूमत की अमरीकी साम्राज्यवादियों के साथ सौदेबाजी करने की ताकत को और बढ़ा दिया है। जैसा कि दुनिया भर के पूंजीवादी शासकों का चरित्र है कि वे हर मौके का अपने लाभ के लिए इस्तेमाल करते हैं। इसी के अनुरूप ईरान के शासक भी इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। ईरान के शासकों को अभी तक अमरीकी साम्राज्यवादियों की बंदरघुडकी और दबावों को ज्यादा झेलना पड़ रहा था, इस घटनाक्रम में उनकी स्थिति मजबूत हुई है और वे रूसी साम्राज्यवादियों के पक्ष में फिलहाल ज्यादा मजबूती से खड़े हो गये हैं।
इराक में लम्बी तबाही के बाद जो अमरीका परस्त हुकूमत वहां मौजूद है, उसमें भी दरारें पड़ रही हैं। खुद इराक के भीतर अमरीकी साम्राज्यवाद की मौजूदगी उनके अंदर एक तरह की बैचेनी और असंतोष का कारण बन रही है। यह इस बात का सुबूत है कि आज की दुनिया में किसी देश को लम्बे समय तक गुलाम बनाकर नहीं रखा जा सकता। इराक के शासक हलकों में सीरिया में हो रहे रूसी हवाई हमलों के समर्थन में लोग मौजूद हैं। बातें यहां तक हो रही हैं कि इराक, ईरान, सीरिया और रूस का इस इलाके में एक नया गठबंधन तैयार हो रहा है। इस गठबंधन में लेबनान के हिजबुल्ला छापामार भी शामिल होंगे। इस तरह, इस क्षेत्र में अमरीकी साम्राज्यवादियों के एक छत्र प्रभुत्व पर गहरा आघात लगा है।
अफगानिस्तान, इराक और लीबिया में अमरीकी साम्राज्यवादियों की हुकूमत परिवर्तन की नीति का खामियाजा अभी तक वहां की अवाम भुगत रही है। लाखों लोगों की हत्याओं और इससे भारी तादाद में लोगों के घायल होने, घरों और सम्पत्ति की तबाही तथा शरणार्थियों की भारी तादाद खत्म होने का नाम नहीं ले रही है। 2011 से सीरिया में जो आतंकवादी गतिविधियों का सिलसिला जारी रखा है उसने लाखों-लाख लोगों को शरणार्थी बना दिया है। ये शरणार्थी यूरोप के देशों में दर-दर भटक रहे हैं। यूरोप के देश उन्हें कोई ठिकाना नहीं दे रहे हैं। बच्चे और औरतें-बूढ़े कहीं समुद्र में मर रहे हैं तो कहीं बिना दवा के, बिना भोजन के और बिना ठिकाने के मरने को अभिशप्त हैं। इन लाखों-लाख लोगों की हत्याओं के लिए मुख्यतः अमरीकी साम्राज्यवादी जिम्मेदार हैं। इन देशों में हुई और होती जा रही तबाही और बर्बादी ने इन देशोें के शासक हलकों के भीतर भी अमरीकी साम्राज्यवाद की एक ध्रुवीय दुनिया के विरुद्ध अपनी आवाज शामिल करने की भावना को बढ़ाया है और सीरिया में रूसी हवाई हमले के समर्थन में कमोवेश खड़ा किया है, कम से कम इन सभी देशों के शासकों के बीच दरार को बढ़ाने में मदद की है।
अगर पश्चिम एशिया में मजबूती से अमरीकी साम्राज्यवाद के पक्ष में कुछ हुकूमतें खड़ी हैं तो वे इजरायल के अलावा साऊदी अरब, संयुक्त राज्य अमीरात इत्यादि की शेखशाहियां हैं। साऊदी अरब खुद यमन में लगातार हूती विद्रोहियों के दमन में लगा हुआ है और भारी दमन के बावजूद वह उन्हें दबा नहीं पा रहा है। खुद इन शेखशाहियों के विरुद्ध इन देशों में आवाजें उठ रही हैं। ये खुद कुछ सुधार करने की ओर जाने की और अपने-अपने देशों के भीतर विवश होंगे। इस रूसी हवाई हमले के बाद इजरायल के विरुद्ध फिलिस्तीनी अवाम के संघर्ष को और ज्यादा बल मिलेगा।
रूसी साम्राज्यवादी इस विश्व परिस्थिति को देखकर ही सीरिया में यह हवाई हमला करने की ओर गये हैं। सोवियत संघ के विघटन के लगभग 25 वर्षों बाद रूसी साम्राज्यवादियों ने यह कदम उठाया है। इसने पश्चिम एशिया के समीकरणों को बदलने में भूमिका निभायी है। इससे अमरीकी साम्राज्यवादियों की एक ध्रुवीय दुनिया बनाने के प्रयासों को धक्का लगा है। रूसी साम्राज्यवादियों ने नैतिक तौर पर अपने को ऊंचा खड़ा कर दिया है।
आखिर अमरीकी साम्राज्यवादी इस हमले के बाद सीरिया में क्यों रक्षात्मक स्थिति में जाने को मजबूर हुए हैं? इसका सबसे महत्वपूर्ण कारण तो खुद अमरीकी साम्राज्यवादियों की कमजोर होती जा रही स्थिति है। आज आर्थिक तौर पर अमरीकी साम्राज्यवादी उतने मजबूत नहीं हैं जितना कि दो दशक या एक दशक पहले तक थे। हालांकि उनकी सैन्य ताकत के आस-पास कोई भी देश नहीं है। दूसरे, रूसी साम्राज्यवादी फिर से आर्थिक तौर पर एक शक्ति के तौर पर उभर कर खड़े हो गये हैं। तीसरे, रूसी साम्राज्यवादियों ने अपनी ताकत को बढ़ाने के लिए और अमरीकी साम्राज्यवाद द्वारा खड़ी की गयी विश्व संस्थाओं के समानान्तर अपने क्षेत्रीय संगठन खड़े किये हैं। ब्रिक्स द्वारा खड़ा किया गया बैंक तथा शंघाई सहकार संगठन जैसे संगठन इसमें अमरीकी वर्चस्व के विरुद्ध कारगर भूमिका निभाते हैं। चौथे, आज की दुनिया ऐसे मुकाम पर पहुंच गयी है जहां पर किसी देश में कठपुतली शासक बनाना लम्बे समय तक सम्भव नहीं है। अन्य कारकों के अलावा ये महत्वपूर्ण कारक हैं जो अमरीकी साम्राज्यवादियों को सीरिया में पीछे हटने के लिए मजबूर कर रहे हैं।
लेकिन जैसा कि कहावत है कि सभी आतताइयों और अन्यायियों की तरह साम्राज्यवादी मूर्ख होते हैं। वे खुद ही भारी पत्थर उठाकर अपने ही पैरों में गिरा देते हैं। अमरीकी साम्राज्यवादी भी इसका अपवाद नहीं हैं।
अपनी एक ध्रुवीय दुनिया के सपने को साकार करने और विश्व प्रभुत्व की आकांक्षा में वे ऐसी मूर्खताएं करने को अभिशप्त हैं।
उत्तर प्रदेश के शिक्षा मित्रों का आंदोलन
एफ टी टी आई आई के छात्रों की हड़ताल
मुजफ्फरनगर सांप्रदायिक दंगा
Alwar: Repression and struggle in Honda factory
आदिवासी छात्रों से झूठे मुकदमे वापस लो!
पानवेल, मुंबई(महाराष्ट्र) के सरकारी जनजाति छात्रावासों के छात्रों की अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल का समर्थन करो!- अजमल खान
छात्रों ने इस संदर्भ में कई बार लिखित शिकायतें देकर लगातार अपनी मांगें उठाईं पर वार्डन व अन्य अधिकारियों ने इस पर कोई खास ध्यान नहीं दिया। छात्रों का जीवन पिछली अप्रैल के बाद से बद से बदतर होता चला गया जब कोलबड़े हाॅस्टल के मालिक ने एक नोटिस चिपका कर छात्रों से हाॅस्टल खाली करने को कहा। चूंकि यह 1 अप्रैल को हुआ इसलिए छात्रों ने सोचा कि उन्हें बेवकूफ बनाने के लिए ऐसा किया गया। पर उसी दिन उन्हें यह पता चला कि उनकी इमारत का किराया एक वर्ष से अधिक समय से बकाया है और उन्हें हाॅस्टल खाली करना पड़ेगा और उन सभी को पानवेल के पहले से काफी भरे हुए हाॅस्टल में जाना होगा। इसने छात्रों के लिए पानवेल में रहना असम्भव बना दिया। छात्रों ने अपने वार्डन व अन्य उच्च अधिकारियों को शिकायतें व प्रार्थना पत्र देना जारी रखा। छात्रों का एक प्रतिनिधि मंडल इन सब समस्याओं को लेकर जनजातीय मंत्री, जनजातीय कमिश्नर व अतिरिक्त जनजातीय कमिश्नर से भी मिला। लेकिन वायदों और आश्वासनों के अलावा उनका कोई भी आग्रह या मांग पूरी नहीं हुयी।
अंततः दोनों हाॅस्टलों के 309 छात्रों ने पेन में जनजाति विकास कार्यक्रम अधिकारी से 21 अगस्त को मिलना व ये मुद्दे उठाने का निर्णय किया।
1. उनके हाॅस्टल ऐसी जगहों पर स्थापित किये जाने चाहिए जहां वे आसानी से पहुंच सके। (छात्रों को स्कूल व कालेज जाना व हाॅस्टल लौटना पड़ता है। उन्हें अपनी जेब से पैसा खर्च कर कोलवडे के हाॅस्टल पहुंचना पड़ता था जो कि दूर है और जहां रात में नहीं पहुंचा जा सकता।)
2. वहां 127 छात्र 75 छात्रों के लायक जगह में रह रहे हैं और 200 छात्रायें, 75 छात्राओं के लायक जगह में रह रही हैं।
3. हाॅस्टलों में भोजन की गुणवत्ता बहुत खराब है। हाॅस्टल में पीने के पानी की कोई उचित व्यवस्था नहीं है और सरकार के नवम्बर 2011, अप्रैल 2013, जून 2013 के प्रस्तावों में वर्णित बुनियादी सुविधाओं का इंतजाम नहीं है।
4. शुकरपुर हाॅस्टल में एक कमरे में 5 छात्राओं के रहने लायक क्षमता है पर इसे 25 छात्राओं को दिया गया है और इसमें केवल एक बाथरूम है।
5. महिला वार्डन छात्राओं के साथ ठीक व्यवहार नहीं करती और उनके साथ लगातार गाली-गलौच किया जाता है।
6. उन्हें कोई यात्रा भत्ता नहीं दिया जाता व भोजन की डाइट के नियमों का पालन नहीं किया जाता।
7. प्रवेश के कई महीनों बाद तक छात्रों को ड्रेस, किताबों व अन्य स्टेशनरी सामान नहीं दिया गया।
8. हाॅस्टल में साफ पीने के पानी की कोई व्यवस्था नहीं है।
9. छात्रों के लिए नियमित स्वास्थ्य चेकअप का इंतजाम नहीं है।
10. कम्प्यूटर व अन्य सुविधाओं का कोई इंतजाम नहीं है जबकि इसके लिए धनराशि स्वीकृत की जा चुकी है।
11. उन्हें अपने सांस्कृतिक कार्यक्रम करने की छूट नहीं है और धनराशि स्वीकृति होने के बावजूद उन्हें बाहर घुमाने नहीं ले जाया जाता।
12. प्रतियोगी परीक्षाओं की ट्रेनिंग व शारीरिक ट्रेनिंग का कोई इंतजाम नहीं है।
13. छात्रों की जरूरी समस्याओं व मुद्दों को देखने के लिए कोई स्टाफ मौजूद नहीं रहता।
अगले दिन स्थानीय जनजाति विकास अधिकारी रंजना दाभडे जो कि पिछले दिन अनुपस्थित थीं, ने छात्रों के खिलाफ पेन पुलिस स्टेशन में एक तहरीर दे दी ताकि उन्हें अपनी मांगें उठाने से रोका जा सके। केस को निर्मित करते हुए पेन पुलिस स्टेशन ने 9 छात्र सुनील टोटावर, विकास नाडेकर, सचिन दीन डे, गुरूनाथ शहरे, अजय थुमडा, विनोद बुधास, राहुल चादर, दामु मंडे और योगेश कडे पर यह आरोप लगाते हुए कि उन्होंने कार्यालय में कम्प्यूटर तोड़ने व अशांति फैलाने का प्रयास किया, एफआईआर दर्ज कर ली। छात्र जिन्होंने शांतिपूर्वक कार्यालय जाकर शिकायत व प्रार्थना पत्र दिया था, जनजाति विकास अधिकारी की इस चाल से अचम्भे में पड़ गये। धारा 341, 141, 147, 149 और 506 के तहत उन पर आरोप कायम किया गया।
राज्य जनजाति विभाग और पुलिस के इस उत्पीड़न को देखते हुए लगभग 200 छात्र व छात्राओं ने 31 अगस्त से अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल शुरू कर दी। कोई भी मीडिया उनकी हड़ताल को रिपोर्ट करने को तैयार नहीं है। वे मांग कर रहे हैं कि उनके मुद्दे निपटाये जायें और छात्रों पर लगाये मुकदमे वापस लिये जायें।
आदिवासी छात्र करजाट, नेराल, महाद, पाली, पेन, थाने, उल्हासनगर, कल्याण, भिवंडी, जवजार, टालसारी, वादा, विक्रमगाद, गोरेगांव, पानवेल, शाहपुर, मुरबाद और बोरडी हाॅस्टलों में अपने सामने मौजूद गम्भीर मुद्दों को उठाने के लिए भूख हड़ताल पर हैं। जब भी वे सम्बन्धित अधिकारियों से मिले, उन्हें केवल वायदे मिले पर उनके मुद्दे हल नहीं किये गये। पानवेल की भूख हड़ताल की मीडिया में खासी कम कवरेज की गयी जबकि 200 आदिवासी छात्र 4 दिन से भूख हड़ताल पर हैं। छात्रों पर झूठे केस मढ़े गये और कुछ अन्य छात्रों को पानी की कमी होने के चलते अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। पुलिस व हाॅस्टल के अधिकारी उन्हें भूख हड़ताल तोड़ने के लिए धमका रहे हैं। चूंकि ये छात्र आईआईटी या एफटीआईआई या देश के अन्य अभिजात संस्थानों से नहीं हैं, ये महाराष्ट्र के गरीब आदिवासी छात्र हैं इसलिए इनका संघर्ष प्रचारित व लोकप्रिय नहीं हो रहा है।
The parliamentary democracy has given universal adult franchise, without changing the unequal status on economic basis. This basic contradiction of bourgeois democratic system , where citizens who are economically unequal have equal political right, gathered all filth i.e. corruption in public life, curtailment of all rights including basic & fundamental rights, rising exploitation etc.
‘राइट टू रिकॉल’ अथवा वापस बुलाने का अधिकारः पूंजीवादी जनतंत्र में सुधार का एक प्रयास
संसदीय जनतंत्र में सुधार के इस नुस्खे का प्रस्थान बिन्दु यह है कि इसमंे चुने हुए जन प्रतिनिघि जनता के प्रतिनिधि होते हैं और कि वे जनता के सेवक होते हैं और मालिक बनने से रोका जाना चाहिए। लेकिन सवाल यह है कि संसदीय जनतंत्र में क्या वास्तव में जनता के प्रतिनिधि और जनता के सेवक होते हैं? इस सवाल का जबाव देेने के लिए साथ ही यह सवाल भी पूछा जाना चाहिए कि क्या जनता समांग है और उसके सभी हिस्सों के एक जैसे हित हैं?
पूंजीवाद में जनता मुख्यतः तीन हिस्सों में बंटी होती हैः पूंजीपति वर्ग, मजदूर वर्ग और बीच का मध्यम वर्ग। मध्यम वर्ग में नौकरीपेशा वाले लोगों से लेकर स्वतंत्र पेशा वाले और छोटी सम्पत्ति वाले मसलन दुकानदार और छोटे-मझोले किसान आते हैं। संसदीय जनतंत्र के जनप्रतिनिधि इनमें से किस हिस्से के प्रतिनिधि होते हैं?
पूंजीवाद में पूंजीपति वर्ग ज्यादातर सम्पत्ति का मालिक होता है। ज्यादातर फैक्ट्रियां, कारोबार के अन्य संस्थान और खेत-खलिहान उसी के होते हैं। इनसे होने वाली ज्यादातर आय भी उसी की होती है। अपनी जीविका के लिए मजदूर उसी के यहां काम करने जाते हैं।
दूसरे ठीक उलट मजदूर वर्ग के पास कोई सम्पत्ति नहीं होती। उसके पास अपनी जीविका के कोई साधन नहीं होते। यदि उसे जिन्दा रहना है तो उसे पंूजीपति के पास जाकर अपनी काम करने की क्षमता यानी श्रम शक्ति बेचनी होगी। पूंजीपति उसकी श्रम शक्ति खरीद लेता है और बदले में मजदूर को जिन्दा रहने लायक मजदूरी देता है। यदि मजदूर अपनी श्रम शक्ति न बेचे या वह न बिक पाये तो मजदूर जिन्दा नहीं रह पायेगा। यही नहीं, अपनी श्रम शक्ति पूंजीपति को बेच देने के बाद उस पर मजदूर का कोई नियंत्रण नहीं रह जाता। उस पर पंूजीपति का नियंत्रण हो जाता है। वही मजदूर से अपने संस्थान में अपने हिसाब से काम करवाता है। वहां मजदूर बस मशीन का हिस्सा बन जाता है।
इस तरह मजदूर पूंजीवाद में उस स्थिति में पहंुच जाता है जिसे उजरती गुलामी कहते हैं यानी उजरत (मजदूरी) पर काम करने वाला गुलाम। इसमें मजदूर पूंजी और उसके मालिक पूंजीपति वर्ग का गुलाम होता है। पुराने जमाने के गुलामों से इस उजरती गुलाम मंे यह फर्क होता है कि इसमें मजदूर स्वेच्छा से (जिन्दा रहने की कीमत पर) और रोज-रोज अपने को पूंजीपति के हाथों बेचता है। इसमें पूंजीपति का मजदूर की जान पर और शरीर पर कोई अधिकार नहीं होता। लेकिन तब मजदूर को जिन्दा रखने की जिम्मेदारी भी पूंजीपति की नहीं होती। यदि मजदूर मर जाता है तो पूंजीपति को कोई फर्क नहीं पड़ता। वह नया मजदूर रख लेगा।
मजदूर की यह उजरती गुलामी पूंजीवाद का अनिवार्य हिस्सा है। पूंजीवाद में कोई भी सुधार इसे समाप्त नहीं कर सकता। यदि पूंजीवाद में मजदूर के थोड़ा बेहतर-खाने पहनने को मिल भी जाए तो भी यह उजरती गुलामी बरकरार रहेगी। जिस दिन मजदूर की उजरती गुलामी नहीं रहेगी उस दिन पूंजीपति वर्ग भी नहीं रह जायेगा और पूंजीवाद समाप्त हो जायेगा। मजदूर की मुक्ति की शर्त भी यही है कि उसकी उजरती गुलामी की स्थिति को समाप्त किया जाए।
पूंजीवाद में पूंजीपति और मजदूर यही दो प्रमुख वर्ग होते हैं। बीच के मध्यम वर्ग की निर्णायक भूमिका नहीं होती। उसकी आबादी भी वक्त के साथ कम होती जाती है।
अब यदि समाज में एक ओर लगभग सारी सम्पत्ति के मालिक पूंजीपति हैं और दूसरी ओर उनके उजरती गुलाम मजदूर तो फिर इसमें चुने हुए जन प्रतिनिधि वास्तव में किसके प्रतिनिधि होंगेे? पूंजीपति और मजदूर मंे न केवल सम्पत्ति के मामले में जमीन आसमान का फर्क है बल्कि दोनों एक-दूसरे के विरोघी छोर पर खड़े हैं। एक मालिक है और दूसरा उसका गुलाम। दोनों के हित एकदम विरोधी है। एक का फायदा दूसरे का नुकसान है। एक की हालत बेहतर होने का मतलब है दूसरे की खराब होना। यदि दोनों का हित कहीं समान है तो यही कि पूंजीवादी उत्पादन चलता रहे। तभी मजदूर को काम मिलता है और जिन्दा रहता है तथा पूंजीपति को मुनाफा मिलता है। लेकिन यह भी कुछ इस तरह होता है कि पूंजीवादी उत्पादन की तरक्की मजदूर की गुलामी की बेडि़यों को और मजबूत करती जाती है क्योंकि मुनाफा बढ़ने पर पंूजी भी तेजी से बढ़ती जाती है। पूंजीपति के मुकाबले मजदूर की हालत और खराब होती चली जाती है।
ऐसे में पंूजीवादी संसदीय जनतंत्र के प्रतिनिघि-किस वर्ग के प्रतिनिधि होंगे? पूंजीपति वर्ग के या उसके उजरती गुलामी मजदूर के। यदि वे दोनों के प्रतिनिधि होंगे तो इसी हद तक और इसलिए कि उजरती गुलामी की वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था चलती रहे। पूंजीवाद के भीतर केवल इस पूंजीवादी उत्पादन के चलते रहने में ही पूंजीपति और मजदूर के समान हित हैं। इसीलिए यदि संसदीय जनतंत्र पूंजीपतियों और मजदूरों दोनों के हितों की देखभाल करता है तो केवल इसी तरह कि मजदूरों के शोषण पर टिकी मजदूरों की उजरती गुलामी वाली यह व्यवस्था चलती रहे।
इस तरह स्पष्ट है कि पूंजीवाद में चुने हुए जन प्रतिनिधि मजदूर वर्ग के जन प्रतिनिधि नहीं हो सकते। यदि होंगे तो केवल उसकी उजरती गुलामी की स्थिति को बनाये रखने के लिए। लेकिन यह तो पूंजीपति वर्ग का काम हुआ। इसीलिए पूंजीवाद में जन प्रतिनिधि वास्तव मंे पूंजीपति वर्ग के ही प्रतिनिधि हो सकते हैं।
कहा जाता है कि संसदीय जनतंत्र में जन प्रतिनिधि जनता के सेवक होते हैं। लेकिन ‘जनता’ में तो पंूजीपति और उनके उजरती गुलाम मजदूर दोनों आते हैं और दोनांे के हित एकदम विपरीत हैं। ऐसे जनप्रतिनिधि किसके सेवक होंगे? पंूजीपतियों के या उनके उजरती गुलाम मजदूरों के? स्वाभाविक सा उत्तर होगा कि पूंजीपतियों के। क्योंकि यदि इसका उल्टा होगा तो यह पूंजीवादी व्यवस्था चल नहीं पायगी। आर्थिक तौर पर उत्पादन के क्षेत्र में पंूजीपति हर चीज के मालिक हों और मजदूर उसके उजरती गुलाम। लेकिन राजनीतिक तौर पर मजदूर मालिक होंगे। यह अंतर्विरोध पंूजीवादी समाज में चल नहीं सकता। लगभग तुरन्त ही यह अंतर्विरोध पंूजीपति वर्ग के पक्ष में हल हो जायेगा। यानी जनप्रतिनिधि या तो पूंजीपति वर्ग के सेवक बन जायेंगे या फिर वे हटा दिये जायेंगे। यह कानूनी तरीके से सम्पन्न होगा और गैर कानूनी तरीके से यह महत्वपूर्ण नहीं है।
पूंजीवादी समाज और संसदीय जनतंत्र का यह चरित्र किसी भी तरह के सुधार से नहीं बदला जा सकता। जब तक पूंजीवाद है तब तक ऐसा ही रहेगा। केवल पूंूजीवाद की समाप्ति से ही इसे खत्म किया जा सकता है। पूंजीवाद में संसदीय जनतंत्र पूंजीपति वर्ग का होगा और उसके चुने हुए जनप्रतिनिघि पूंजीपति वर्ग के सेवक और प्रतिनिधि होंगे यह अनिवार्य सत्य है।
लेकिन वास्तविक व्यवहार में यह चमत्कार कैसे हासिल किया जाता है कि अति विशाल बहुमत वाले मजदूरों और अन्य मेहनतकशों के वोट से चुने हुए जनप्रतिनिधि पूंजीपति वर्ग के जन प्रतिनिधि बन जायं जो कि कुल आबादी का बहुत छोटा सा हिस्सा होते हैं। यह होता है राजनीतिक और व्यक्तिगत भ्रष्टाचार के माध्यम से।
ज्यादातर जन प्रतिनिधि स्वयं भी सम्पतिवान वर्गो से आते हैं। वे स्वयं छोटे या बड़े पूंजीपति होते हैं। सम्पतिवान वर्गों में ही उनके पारिवारिक-सामाजिक संबंध होते हैं। इस तरह अपनी मानसिकता, इच्छाओं-आकांक्षाओं और हितों के हिसाब से वे पूंजीपति वर्ग के ही व्यक्ति होते हैं। यही नहीं राजनीति उनका पेशा होती है और किसी भी पेशे की तरह इस पेशे का भी उद्देश्य होता है पैसा और हैसियत हासिल करना।
ऐसा व्यक्ति जब मजदूर वर्ग के पास जनप्रतिनिधि बनने के लिए जाता है तो वे शुरू से ही जानता है कि उसे मजदूरों को धोखा देना है। उसे उनसे झूठे वायदे करके उनके वोट हासिल करना है और फिर काम पूंजीपतियों का करना है। वह स्वयं भी मजदूरों को उसी नजर से देखता है जैसे पूंजीपति देखते हैं। उसके पक्ष में ज्यादा से ज्यादा यही बात की जा सकती है कि वह स्वयं भी पूंजीपति-मजदूर संबंघ को और उसके यथार्थ को एक सहज-स्वाभाविक चीज मानकर चलता है। वह जब अपने को मजदूरों का प्रतिनिधि मानता है तो इसीलिए कि वह उन्हें पूंजीवाद में कुछ राहत दिला देगा। शोषण पर टिकी व्यवस्था में वह उनका ‘शोषण’ नहीं होने देगा यानी कानून द्वारा प्रदत्त सुविधाएं-तनख्वाहें दिलायेगा।
आज के पतित पूंजीवाद में यह भी नहीं होता। सांसद, विधायक जानता है कि वह यह भी नहीं करेगा क्योंकि यह करने का मतलब है बेलगाम पूंजीवाद पर नियंत्रण, पूंजीपतियों के मुनाफे में कटौती। इसका मतलब है उसके खुद के भी मुनाफे में कटौती। वह अपने और अपने पूंजीपतियों के बंधुओं के हितों के खिलाफ नहीं जा सकता। इसीलिए वह चुनाव के समय फर्जी वायदे कर भूल जाता है। यह केवल इक्का-दुक्का सांसदों-विधायकों के मामले में नहीं होता। यह पार्टियों तक के मामले में भी होता है। यह भारत में ही नही, अमेरिका और यूरोप में भी होता है।
जैसा कि पहले कहा गया है संसदीय जनतंत्र में पूंजीवादी राजनीति एक पेशा है और पूंजीवाद में सभी पेशे की तरह इसका भी उद्देश्य होता है पैसा और हैसियत। इसमें जनता या देश की सेवा की बात केवल भोले लोगों को धोखा देने के लिए होती है। असली मकसद तो व्यवसाय में तरक्की का होता है। पूंजीवाद में पेशेवर पूंजीवादी राजनीतिज्ञों से इससे भिन्न उम्मीद करना पूंजीवाद की आम गति के विपरीत चलने की उम्मीद करना है। अब सांसद या विधायक उनके साथ के लोग यह कानूनी तौर पर भी कर सकते हैं और गैर-कानूनी तौर पर भी। वैसे भी पूंजीवाद में कानून की सीमा कहां समाप्त होती है और गैर कानूनी कहां से शुरू होता है, कहा नहीं जा सकता। इस तरह कानूनी और गैर कानूनी तरीकों का इस्तेमाल कर जन प्रतिनिधि मालामाल होते चले जाते हैं। यह भारत में होता है और जापान, इटली और अमेरिका में भी।
इस तरह राजनीतिक और व्यक्तिगत भ्रष्टाचार वह तरीका है जिससे यह चमत्कार सम्पन्न किया जाता है कि आबादी के विशाल बहुमत वाले मजदूरों और मेहनतकशों के मन से चुने हुए प्रतिनिघि आबादी के बहुत छोटे से अल्पमत वाले पूंजीपतियों के लिए काम करें, जिनमें से ज्यादातर वोट भी नहीं देने जाते। जैसा कि कहा गया है यह व्यक्तिगत सांसदों-विघायकों के स्तर पर ही नहीं पार्टियों के स्तर पर भी होता है। समूची सरकारें यह काम करती हैं। भारत में 1991 में मजदूरों-मेहनतकशों के हितों के खिलाफ निजीकरण, उदारीकरण, वैश्वीकरण की नीतियां लागू करने वाली नरसिंहाराव की कांगे्रस सरकार संसद में अल्पमत में थी, देश के कुल मतों की बहुत छोटी संख्या का प्रतिनिधित्व करती थी और अभी ठीक पहले सम्पन्न चुनावों में इसे मुद्दा भी नहीं बनाया था जब कि पक्ष-विपक्ष सभी जानतें थे कि चुनाव के बाद क्या किया जाना है।
संसदीय जनतंत्र के बारे में एक और चीज पर भी ध्यान देना जरूरी है जो अत्यन्त महत्वपूर्ण है। पूंजीवाद में संसदीय जनतंत्र शासन चलाने का एक रूप मात्र है। इसके अन्य रूप भी हो सकते हैं मसलन एक व्यक्ति की तानाशाही, एक पार्टी की तानाशाही, सैनिक तानाशाही, फासीवाद इत्यादि। बहुत सारे मामले में संसदीय जनतंत्र पूंजीवादी शासन के लिए बहुत अनुकूल है लेकिन यह कुछ असुविधाएं भी पैदा करता है। असुविधाएं ज्यादा बढ़ जाने पर पूंजीपति वर्ग बहुत आसानी से संसदीय जनतंत्र से छुटकारा पा लेता है। जर्मनी, इटली का फासीवाद इसका एक रूप है, चिली में अलेंदे सरकार का तख्तापलट इसका दूसरा रूप है और अभी आर्थिक संकट से निपटने के नाम पर ग्रीस और इटली में ‘टेक्नोक्रेटिक’ सरकारों का गठन इसका एक अन्य रूप है।
पूंजीवाद में संसदीय जनतंत्र के तहत शासन में भी चुने हुए प्रतिनिधियों की संस्थाओं के मुकाबले गैर निर्वाचित संस्थाएं ज्यादा महत्वपूर्ण होती हैं। इसमें सर्वोपरि हैं सेना-पुलिस और स्थाई नौकरशाही। चुनावों के जरिये व्यक्ति और पार्टियां बदलती रहती हैं पर ये कभी नहीं बदलते। यही नही, स्वयं पूंजीपति वर्ग और उनके राजनीतिज्ञों की ओर से यह बात जोर-शोर से उठाई जाती है कि सेना-पुलिस और नौकरशाहों को राजनीति से परे रखा जाना चाहिए। इसका सीघा सा आशय यह है कि यह मजदूर वर्ग पर पूंजीवादी शासन के मूल-भूत अंग हैं और इन्हें पूंजीवादी संसदीय राजनीति की उठापटक से प्रभावित नहीं होने देना चाहिए।
संसदीय जनतंत्र के तहत भी व्यवहारतः यही होता है कि पूंजीवादी शासन के सबसे महत्वपूर्ण निर्णय संसद और विधान सभाओं से दूर लिये जाते हैं। बहुत सारे मामले तो कभी संसद में पेश भी नहीं किये जाते। विदेशी संबंधों के ज्यादातर गंभीर मामले इसी श्रेणी में आते हैं। देश के भीतर भी वास्तविक गंभीर मामले इसी श्रेणी में डाले जाते हैं। इस तरह स्वयं पूंजीपति वर्ग अपनी संसद को महज गपशप का अड्डा बना देता है। एकाधिकारी पूंजीवाद के जमाने में यह बड़े पैमाने पर होने लगता है। इसमें ज्यादातर मामाले संसद से बाहर लिये जाते हैं। निजीकरण, उदारीकरण, वैश्वीकरण के दौर में तो यह चरम पर जा पहुंचा हैं। आज भारत में संसद का ज्यादातर समय फालतू के शोरगुल में व्यतीत होता है तो यूं ही नहीं। वहां सार्थक बहस की जरूरत समाप्त हो चुकी है क्योंकि ज्यादातर नीतिगत मामलों में विभिन्न पार्टियों के बीच कोई मतभेद नहीं है। इसलिए विधेयक बिना किसी बहस के मिनटों में पास हो जाते हैं।
संसदीय जनतंत्र का यह वास्तविक चरित्र और उसका यह खोखलापन इतना उजागर हो चुका है इसको निशाना बनाते हुए बडे पैमाने के विरोध प्रदर्शन शुरू हो गये हैं। यूरोप के संकटग्रस्त देशों में ‘सच्चा जनतंत्र’ की मांग इसी की अभिव्यक्ति है। इसमें भोलेपन से यह मांग की जा रही है कि संसदीय जनतंत्र में सुधार कर इसे जनआकांक्षाओं को अभिव्यक्त करने वाला बना दिया जाय। यह असंभव सी मांग है। या तो अपने इसी चरित्र के साथ पूंजीवादी जनतंत्र रहेगा या फिर वह एक ऊंची व्यवस्था समाजवादी जनतंत्र के लिए रास्ता खाली करेगा।
संसदीय जनतंत्र के इस खोखलेपन के उजागर होते जाने के साथ इसमें पैबंद लगाकर इसे ढकने के प्रयास भी हो रहें है। अपने देश में ‘राइट टू रिकाल’ यानी चुने हुए जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने की मांग एक ऐसा ही प्रयास है। इसके द्वारा यह प्रयास किया जा रहा है कि संसदीय जनतंत्र से लोगों के बढ़ते मोहभंग को रोका जाय। इसमें विश्वास को गहराया जाय।
ऊपर कही गयी बातांे से स्पष्ट है कि संसदीय जनतंत्र में कोई भी सुधार इसके प्रतिनिधियों को जनता का यानी मजदूरों-मेहनतकशों का सेवक नहीं बना सकता। वे पूंजीपति वर्ग के सेवक हैं और वही रहेंगे। वे मजदूर-मेहनतकश जनता पर सवारी गांठते हैं और वैसा ही करते रहेंगे। चुने गये प्रतिनिधियों को वापस बुलाने के अधिकार से वे जनता के सेवक नहीं हो जायेंगे। जब वे चुने जाते हैं तब भी जनता के सेवक नहीं होते। इसलिए उन्हें वापस बुलाए जाने के भय के मारे वे सेवक नहीं हो जायेंगे। जिस प्रक्रिया के तहत वे मजदूर-मेहनतकश जनता का वोट हासिल कर पूंजीपतियों की सेवा करते हैं और उनकी ओर से मजदूरों-मेहनतकशों पर डंडा चलाते हैं उसी प्रक्रिया के तहत ‘राइट टू रिकाल’ के तहत भी पूंजीपतियों के सेवक बने रहेंगे।
तब फिर क्या ‘राइट टू रिकाल’ का कोई मतलब नहीं हैं? क्या इसकी मांग नही आनी चाहिए? ऐसा नहीं है। इसे उठाया जाना चाहिए। लेकिन इसमें दो बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए।
पहला यह कि ‘राइट टू रिकाल’ जनता को उसी फ्रेमवर्क के भीतर अधिकार देगा जो संसदीय जनतंत्र का आम फ्रेमवर्क है। संसदीय जनतंत्र पूंजीपति वर्ग का शासन है। इसमें जनता को राजनीतिक स्वतंत्रता और प्रतिनिधि चुनने का अधिकार हासिल है। यह राजशाही या एक व्यक्ति की तानाशाही, सैनिक तानाशाही इत्यादि से बेहतर है। तब भी है अंततः पूंजीपति वर्ग की तानाशाही ही। लेकिन यह मजदूर वर्ग को राजनीतिक संघर्ष में भागीदारी का मौका उपलब्ध कराता है तथा इसी प्रक्रिया में संसदीय जनतंत्र से मोहभंग का रास्ता खोलता है इसीलिए मजदूर वर्ग संसदीय जनतंत्र को किसी अन्य तरह के पूंजीवादी शासन पर तरजीह देता है। ‘राइट टू रिकाल’ भी इसी पूंजीवादी संसदीय जनतंत्र के दायरे में होगा। इससे इस जनतंत्र और इसके प्रतिनिधियों पर मजदूरों का कोई नियंत्रण कायम नहीं होगा। पर इसके जरिये मजदूर वर्ग को संघर्ष का एक और औजार मिलेगा। साथ ही इस अधिकार के इस्तेमाल करने की प्रक्रिया में व्यापक मजदूर आबादी के सामने प्रत्यक्ष हो जायेगा कि पूंजीवादी जनवादी जनतंत्र में कोई भी सुधार इसे मजदूरों का जनतंत्र नहीं बना सकता।
यहीं से दूसरी बात आती है। पूंजीवादी व्यवस्था में कार्यरत भांति-भांति के सुधारवादी इसी काम में लगे हुए हैं कि इसमें सुधार कर इसकी जिंदगी बढ़ाई जाय। ‘राइट टू रिकाल’ की मांग करने वाले पूंजीवादी व्यक्ति और संस्थाएं भी इसी श्रेणी के लोग हैं। इसके जरिए वे यह जताने का प्रयास कर रहे हैं इस सुधार से वर्तमान जनतंत्र सारी जनता के लिए काम करने लगेगा। चुने हुए प्रतिनिधि जनता के सेवक बन जाएंगे और उसके लिए काम करेंगे। उनका भ्रष्ट-पतित आचरण खत्म हो जायेगा। अन्ना हजारे की जिन्दगी की सारी समस्याओं का समाधान हो जायेगा। अन्ना हजारे एण्ड कंपनी जैसे पूंजीवादी बाजीगरों और मजमेबाजों के अनुसार जनलोकपाल बिल और ‘राइट टू रिकाल’ के द्वारा देश की सारी समस्याओं का समाधान हो जायेगा।
हमें पूंजीवादी सुधारकों की इन बातों और प्रयासों का निर्ममता से भंडाफोड़ करना चाहिए और यह स्थापित करना चाहिए कि पूंजीवादी जनतंत्र में कोई भी सुधार इसे जनता यानी मजदूरों-मेहनतकशों का जनतंत्र नहीं बना सकता। इसके लिए वर्तमान पूंजीवादी राज्य सत्ता को ध्वस्त कर मजदूर वर्ग का शासन कायम करना होगा।
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