Thursday, 14 May 2020

कोरोना संक्रमण, फासीवादी शासक और आम अवाम

                     कोरोना संक्रमण,  फासीवादी शासक और आम अवाम

         दुनिया भर में कोरोना संक्रमण के तेज़ प्रसार ने शासकों को मजदूर मेहनतकश जनता के सामने बेनकाब किया है। अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, पाकिस्तान से लेकर भारत तक। अमेरिकी साम्राज्यवादी शासकों की स्थिति सांप-छछुंदर सी हो गई है। बड़बोला व लम्पट ट्रम्प बदहवासी में बके जा रहा है। हालत ये है कि आज अमेरिका कोरोना संक्रमितों की संख्या व इससे होने वाली मौतों की संख्या के मामले में शीर्ष पर है। कभी विश्व स्वास्थ्य संगठन के फंड को रोकना कभी चीन को इसके लिए जिम्मेदार ठहराना तो कभी कुछ बोलना ट्रम्प की बदहवासी को दिखाता है। एक तरफ उद्योग में काम करने वाले मज़दूर संक्रमण के खतरे के चलते हड़ताल की ओर बढ़ रहे हैं उद्योग काम को निरंतर किये जाने का दबाव बना रहा है। दूसरी तरफ स्वास्थ्यकर्मी भी निजी सुरक्षा उपकरणों तथा अन्य वजहों से हड़ताल पर जाने को विवश हैं। इसके अलावा भी बेरोजगार होते लोग, भुखमरी के शिकार होते लोग भी आक्रोशित हैं।
     ऐसा नहीं कि यह स्थिति केवल एक मुल्क की ही हो, यह अधिकांश जगह, अधिकांश देशों में किंतु-परंतु के साथ बनी हुई हैं। कुछ जगह तो अवाम लॉकडाउन के खिलाफ सड़कों पर भी उमड़ चुकी है। सड़कों पर उमड़ता यह आक्रोश-प्रदर्शन रोज़ी-रोटी के लिए ही है।
      अब जरा भारत को देखें ! यहां सड़कों पर आधा भारत है। जो गरीब असहाय है। मजदूर, बच्चों व महिलाओं समेत लाखों की तादाद में अपने गांव व घर की ओर लौट रहे हैं। मोदी सरकार ने इन खबरों को शुरुवात में डाइवर्ट करने में सफलता भी हासिल कर ली थी। तब्लीगी जमात को कोरोना प्रसार के लिए जिम्मेदार ठहराने का खेल टीवी चैनलों के माध्यम से रचा गया। मगर यह स्थिति ज्यादा वक्त तक नहीं बनी रह सकती थी। कुछ वक्त बाद फिर से मजदूरों की सड़कों पर अपने घरों की ओर जाने की ख़बर फिर से आम होने लगी। यही नहीं इस बार मज़दूरों का आक्रोश, प्रदर्शन व संघर्ष भी जगह जगह देखने को मिला। मज़दूरों, मजदूर महिलाओं व बच्चों के सैकड़ों किमी चलने की वीडियो भी फेसबुक और व्हाट्सएप पर घूमने लगी।
        विरोध स्वास्थकर्मियों द्वारा भी किया गया। सरकारी क्षेत्र के स्वास्थकर्मी निजी सुरक्षा उपकरणों की मांग को लेकर निरंतर दबाव बना रहे थे। मगर इसे भी सरकार में अनसुना किया। निजी क्षेत्र के कई डाक्टरों ने तो मरीजों को देखना ही बन्द कर दिया, इस डर से की कहीं खुद संक्रमित न हो जाएं।
   
       जबकि दूसरी तरफ मोदी सरकार, इसके स्वास्थ्य मंत्रालय के तमाम दावों के विपरीत कोरोना संक्रमितों की संख्या में बहुत तेज बढ़ोत्तरी होने लगी। पहले 50 प्रतिदिन से संख्या अब 4000 प्रतिदिन से ऊपर तक पहुंच गई है यानी 80 गुणा की वृद्धि हो चुकी है। मौतों का ही आंकड़ा 2 हजार से ऊपर पहुंच चुका है। इस सबके बावजूद अभी भी सरकार 'सामुदायिक संक्रमण' से इंकार करती रही है। 'सामुदायिक संक्रमण' के मापदंड की मनमानी व्याख्या की गई। साफ देखा जा सकता है कि हिन्दू फासीवादी सरकार की सारी योजना व गणना असफल साबित हुई है हालांकि कोई योजना जैसी चीज थी ही नहीं।
वहीं निरंतर व तेज़ रफ़्तार से बढ़ती संख्या के चलते खुद शासक पूंजीपति वर्ग का दूसरा धड़ा भी नाखुश है। अहंकार, तानाशाही व फासीवादी आचरण यहां भी हावी है। कहा जा रहा है कि इस स्थिति के चलते वैज्ञानिकों व प्रशासन में बैठे कई लोगो के बीच भी असन्तोष है, वैज्ञानिकों व महामारी विशेषज्ञों से सलाह मशवरा कतई नहीं होता।
 नरेन्द्र मोदी प्रशासन को सलाह देने के लिए भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद द्वारा एक राष्ट्रीय टास्क फोर्स गठित की गई मगर दूसरी बार लॉकडाउन बढ़ाने के बारे में टास्क फोर्स से परामर्श नहीं किया गया।
     स्थिति बेहद हास्यास्पद, मूर्खतापूर्ण व मनमानी भरी है यहां जरा भी जवाबदेही नहीं है। 24 अप्रैल को प्रेस कोंफ्रेंस केन्द्र सरकार की ओर से की गई। इसमें नीति आयोग के सदस्य द्वारा एक मॉडल प्रस्तुत किया गया और भविष्यवाणी कर दी गई कि 16 मई के बाद देश में कोरोना महामारी खत्म हो जाएगी, कि कोविड-19 के नए मामले आने बंद हो जाएंगे।
      आज स्थिति सबके सामने है। गोमूत्र व गोबर में बीमारियों का इलाज ढूढने वालों का यही हश्र होना था। मगर विडंबना यह है कि इसकी कीमत आम अवाम को ही चुकानी है और वही चुका भी रही है। एक तरफ गरीब, मज़दूर-मेहनतकश लोग हैं जो भूखे-प्यासे यात्रा के दौरान मौत का शिकार हो रहे है। अस्पतालों में भर्ती से इंकार कर देने के चलते सड़कों पर भी गरीब मज़दूर महिलाओं के बच्चे जनने की भी कई खबर आ रही हैं। औरंगाबाद में 16 मजदूरों के ट्रेन से कटने की घटना किसी को भी परेशान, दुखी व उद्वेलित करने वाली थी।
   
       मजदूरों के विरोध प्रदर्शन व अन्य वजहों से मज़दूरों को ट्रेन के जरिये उनके राज्य तक पहुचाने का फैसला केंद्रीय गृह मन्त्रालय द्वारा लिया गया। मगर इसका हश्र "सबका साथ-सबका विकास" की ही तरह होना था। न्यायालय से लेकर कई पूंजीवादी अखबारों व चैनलों की घोर व घृणित मज़दूर विरोधी सोच सामने आ गयी। इनके लिए मज़दूर सिर्फ मशीन के पुर्जे की तरह थे जिनका इंसान के रूप में कोई वज़ूद नहीं। ट्रेनें चली। मज़दूरों के एक हिस्से को ले भी गयी। किराया मज़दूरों से ही वसूला गया। लेकिन मज़दूर के एक छोटे हिस्से को ही उनके गृह राज्य तक पहुंचाया गया है। घोर क्रूरता, असंवेदनशीलता, अपमान व दमन को मजदूर वर्ग ने साफ साफ महसूस किया। सवाल सभी के लिए यहां भी बना कि किराए का पैंसा केंद्र सरकार खर्च क्यों नहीं कर रही है।
      सवाल बनता ही है कि पीएम केयर्स फंड, कर्मचारियों की तनख्वाह से कटौती तथा 1.6 अरब डॉलर विदेश से लेने के बावजूद यह भारी भरकम राशि कहां खर्च हो रही है इसका कोई हिसाब क्यो नहीं?
      आज खुद आम लोग सवाल कर रहे हैं कि जब कोरोना केस की संख्या बहुत कम थी तब अचानक लॉकडाउन कर दिया गया और जब अब संक्रमण रोज़ 4 हजार से ज्यादा बढ़ रहे हैं तब लॉकडाउन को खत्म करने की मनोदशा बनायी जा रही है। इसी ढंग की प्लानिंग की जा रही हैं ऐसा क्यों? अचानक से सीधे शराब की दुकानें खोलने का नतीजा सभी ने देखा।
      एक तरफ तो कई हज़ार लोगों को लॉकडाउन के उल्लंघन में लाठियां खानी पड़ी व मुकदमे झेलने पड़े, दूसरी तरफ शराब की दुकानों के बाहर इतनी लंबी कतारें लगी। यहां संक्रमण की चिंता सरकार के लिए नहीं थी। यहां तो राजस्व सामने था।
      मजदूरों की स्थिति हर संवेदनशील इंसान को झकझोरने वाली है इस वक़्त मज़दूर वर्ग व मेहनत कश जनता को राहत, इलाज, सहयोग व संवेदनशीलता की सख्त जरूरत थी व है मगर सब कुछ इसके विपरीत हो रहा है। अब हिंदू फासीवादी कार्यदिवस को 8 से 12 घंटे करने की ओर बढ़ चुके हैं। योगी सरकार तो श्रम कानूनों को 3 साल तक स्थगित कर देने के संबंध में अध्यादेश लाने पर विचार कर रही है।
      कुलमिलाकर आज इतिहास फिर उस बिंदु की ओर बढ़ रहा है जहां एक सदी पहले था। कोरोना संक्रमण ने पूंजीवादी अर्थव्यवस्था व समाज के अंतर्विरोधों को और ज्यादा तीखा कर दिया है। इन अंतर्विरोधों का समाधन पिछली सदी की ही तरह समाजवादी क्रांति से ही संभव है।
    
    
    






      
 

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