Wednesday, 22 April 2020

कोरोना संक्रमण फासीवादी एजेंडा तथा मज़दूर वर्ग

 कोरोना संक्रमण फासीवादी एजेंडा तथा मज़दूर वर्ग
 
     जनवरी माह के अंत में भारत में कोरोना संक्रमण का एक मामला सामने आया था। अब इस वायरस के संक्रमण का प्रसार देश के आधे जिलों में हो चुका है। अब 12 अप्रैल तक कोरोना वायरस के प्रसार के चलते लगभग 9 हज़ार से ज्यादा संक्रमित मामले उजागर हुए हैं जबकि 300 से ज्यादा मौत हुई हैं। यह स्थिति बहुत कम टेस्टिंग होने के बावजूद है। इन 9 हजार संक्रमित मामलों में से लगभग 2 हजार कोरोना संक्रमित मामले महाराष्ट्र से हैं जबकि 3 सौ मौतों में से लगभग 150 मामले महाराष्ट्र से हैं  यानी कुल संक्रमण का 20 प्रतिशत तथा कुल मौतों का लगभग 45 प्रतिशत मामले महाराष्ट्र से हैं। 
     महाराष्ट्र के मामले को इसीलिए ध्यान में रखने की जरूरत है, महाराष्ट्र के पुणे शहर में 9 मार्च को कोरोना संक्रमण का पहला मामला सामने आया था। यह पहला मामला दुबई से लौटे युगल थे। और फिरइनके संपर्क में आये तीन अन्य लोग भी कोरोना संक्रमित हो गए। 11 मार्च को मुंबई में भी पहले दो मामले कोरोना संक्रमण के सामने आये। ये मामले भी  पुणे के कोरोना संक्रमित युगल से संपर्क के थे। इसी दिन 11 मार्च को पुणे व नागपुर में कोरोना संक्रमण के तीन मामले सामने आए। ये तीनों अमेरिका की यात्रा से अभी लौटे थे। 14 मार्च को नागपुर में अमेरिका से लौटे कोरोना संक्रमित व्यक्ति की पत्नी व दोस्त भी इसके संपर्क में आने से कोरोना संक्रमित हो गए।
       इस बीच 13 मार्च को ही महाराष्ट्र सरकार ने कोरोना वायरस संक्रमण के प्रसार को महामारी घोषित कर दिया तथा मुंबई, पुणे सहित 6 शहरों में 'महामारी रोग एक्ट 1897' लागू कर दिया।
भारत में कोरोना संक्रमण का पहला केस 30 जनवरी को पता लगा। यह केरल में था। इसके बाद केरल में ही 3 फरवरी को तीन मामले कोरोना वायरस संक्रमण के और पता लगे। इन सभी का संबंध चीन के वुहान से था। सभी छात्र थे।
      फरवरी माह में सरकार के हिसाब से कोरोना संक्रमण के मामलों में कोई खास बढ़ोत्तरी नहीं हुई । फिर 4 मार्च को 22 मामले कोरोना संक्रमण के पता लगे। इनमें 14 इटली से आये पर्यटक भी थे।
     पंजाब में सिक्ख धर्म के उपदेशक जो कि जर्मनी व इटली से होकर आए थे, मार्च के माह में पंजाब पहुंचे और इसके बाद, वे होला मोहल्ला कार्यक्रम में भी पहुंचे, जिसमें 20 लाख लोगों के शामिल होने की बात की जा रही है। 17 मार्च को स्वास्थ्य खराब होने पर डॉक्टर को दिखाया गया, तो डॉक्टर ने भी इसे गंभीरता से नही लिया, 18 मार्च को इनकी मौत हो गई। 8 मार्च से 18 मार्च तक इनके संपर्क में अनगिनत लोग आए। नतीजा यह हुआ कि उक्त धर्म उपदेशक के परिवार के ही 21 लोग कोरोना वायरस से संक्रमित हो गए। इसके अलावा अन्य लोग भी संक्रमित हुए होंगे। इसके बाद इस इलाके में लगभग 2 माह के लिए पंजाब सरकार ने धारा 144 लागू कर दी। मगर स्वर्ण मंदिर तथा अन्य जगहों पर गुरुद्वारों के खुले रहने तथा लोगों के इकट्ठा होने पर कोई विशेष रोक नहीं लगी।
        ये तथ्य साफ साफ इस ओर इशारा करते हैं कि जर्मनी, इटली, अमेरिका, दुबई, फ्रांस, नीदरलैंड,  वुहान आदि से जो विदेशी या भारतीय भारत में आये थे, वे खुद भी कोरोना वायरस से संक्रमित थे तथा भारत में कोरोना वायरस के वाहक बने। कैबिनेट सचिव द्वारा बताया गया कि 18 जनवरी से 23 मार्च तक भारत के भीतर विदेश से 15 लाख लोगों का प्रवेश हुआ जबकि जांच इसकी तुलना में कम है। जबकि देश में 12 अप्रैल तक कुल जांच का आंकड़ा डेढ़ लाख के लगभग है।   इस बीच केंद्र की मोदी सरकार के लिए यह कोई गंभीर मामला नहीं था। जब यकायक कोरोना संक्रमण के मामलों ने गति पकड़ी तथा केरल, पंजाब, महाराष्ट्र , छत्तीसगढ़ व राजस्थान की सरकार इस मामले पर पहले सक्रिय हो गई तब केंद्र की मोदी सरकार को होश आया। वह तो नागरिकता संशोधन कानून, एन पी आर विरोधी संघर्ष को कुचलने में मशगूल थी या फिर मध्यप्रदेश में सरकार बनाने में।
      जब मोदी सरकार को होश आया तो आनन फानन में लॉकडाउन की घोषणा कर दी गई जबकि 25 मार्च को हवाई यात्राओं पर प्रतिबंध लगाया गया। इस अयोजनाबद्ध खामियाजा गरीब, मजदूर मेहनतकश आबादी को ही झेलना था। 25-26-27 मार्च के बीच लाखों मज़दूरों के सड़को पर अपने घरों की ओर भूखे प्यासे पैदल जाने की खबरें मीडिया की सुर्खियां बन गयी। भूखे प्यासे पैदल जाते मज़दूर पुरुष, महिलाएं छोटे-छोटे बच्चे सड़कों पर वायरल होते वीडियो में दिखाई देते थे। मजबूरन टीवी चैनलों में भी यह कवरेज बन गयी।
   इस स्थिति ने मोदी सरकार के घोर मज़दूर व गरीब विरोधी रुख को सामने ला दिया। मोदी सरकार ने तुरंत इन्हें फर्जी बताते हुए कोर्ट का रुख किया। कोर्ट से मांग की कि इस ढंग की "फर्जी खबरों" पर रोक लगाने का आदेश दे। मगर कोर्ट ने इससे इंकार कर दिया। यहीं से हिन्दू फासीवादी सरकार अपने घृणित एजेंडे पर आ गयी। अचानक ही 28 मार्च के आस-पास से टी वी चैनलों के जरिये निज़ाममुद्दीन मरकज के तकबिली जमात को निशाने पर ले लिया गया। इसे लगातर बहस व प्रचार का मुद्दा बनाया गया। अब तब्लीगी जमात को इस तरह प्रस्तुत किया जाने लगा मानो, ये कोरोना वायरस को किसी साजिश के तहत भारत में इधर उधर फैला रहे हों।
      हकीकत क्या थी ? तकरीबन सात-आठ सौ तब्लीकि जमात से जुड़े विदेशी भी मरकज में पहुंचे थे।  अन्य विदेश से भारत आ चुके अन्य विदेशियों या भारतीयों की तरह इनकी भी संभावना थी कि ये भी कोरोना संक्रमित होते। ये भी ठीक भारत सरकार, इसके गृह मंत्रालय व विदेश मंत्रालय की अनुमति से ही भारत आये थे।  ये उन 15 लाख विदेश से भारत में प्रवेश कर चुके लोगो में से , बाकी की ही तरह थे।
       दिल्ली में 12 से 15 मार्च के बीच इनका कार्यक्रम था। यह कार्यक्रम दिल्ली पुलिस व गृहमंत्रालय की निगरानी में था। इनकी जानकारी में था। मगर हुआ क्या ? 27-28 मार्च तक जब मोदी सरकार की आम अवाम के बीच किरकिरी होने लागी तो सचेत तौर पर 'तकबिली जमात' वाले मामले को टी वी चैनलों के जरिये साजिशन आगे बढ़ाया गया। फिर तो संघी अफवाह मशीनरी ने अपने नेटवर्क के जरिये मुसलमानों के खिलाफ घटिया दुष्प्रचार शुरू कर दिया। 'सब्जियों में थूकने' 'मोहल्लों में थूक कर कोरोना फैला कर भाग जाने' की, यह अफवाह खूब उछाली गई। यह दुष्प्रचार जारी है।
       इस प्रकार मोदी सरकार ने भरपूर कोशिश की है और कोरोना संक्रमण के प्रसार को भी अपने लिये 'धुव्रीकरण के हथियार' के रूप में बदल दिया है। इसने यह घृणित तर्क आम लोगों के दिमाग में बिठाने का काम किया है कि लॉकडाउन करने तथा लॉकडाउन के चलते आम हिन्दू लोगों को होने वाले दुख तकलीफों के तकबिली जमात यानी मुसलमान दोषी हैं। देश की एकाधिकारी पूंजी मोदी सरकार के साथ खड़ी है।
      सवाल यह है कि क्या वास्तव में मोदी सरकार या देश के शासक अपने इस घृणित मकसद में कामयाब हो पाएंगे ? क्या मजदूर वर्ग मोदी सरकार, गोदी मीडिया के दुष्प्रचार का शिकार हो जाएगा जैसा कि मध्यमवर्गीग हिन्दू है? क्या मजदूर वर्ग लॉकडाउन में उसके अपने साथ हुए घृणित व्यवहार को भूल सकता है ? हकीकत यही है कि कोरोना महामारी के दौर में देश में जिस ढंग से लॉकडाउन किया गया उसने मजदूर वर्ग को बहुत सीखा दिया है एक ही झटके में उसके सामने मालिक-मजदूर का तीखा अंतर्विरोध सामने आ गया, बहुत तेज़ गति से हालात ने उसे यह भी दिखाया व महसूस कराया है कि यहां सबसे पीड़ित, उत्पीड़ित तथा निचले पायदान पर वही है, परिस्थितियों ने तेज़ी से मज़दूर वर्ग के सामने उस भेदभावपूर्ण व अपमानजनक व्यवहार को बखूबी महसूस किया जो विदेश में फंसे सम्पन्न भारतीयों को लेने तो ऐरोप्लेन भेजने के रूप में दिखा जबकि मज़दूरों को सड़क पर दर दर भटकने, सैकड़ो किमी पैदल भूखे प्यासे चलने के लिए छोड़ दिया गया। मज़दूरों का गुजरात के सूरत में हुआ प्रदर्शन उसके इसी अचेत गुस्से की बानगी है। भविष्य जल्द ही दिखाएगा कि इस दौर ने मज़दूर वर्ग के अचेत तौर पर संगठित होने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है।








अयोजनाबद्ध लॉकडाउन और त्रस्त आम मेहनतकश अवाम

 अयोजनाबद्ध लॉकडाउन और त्रस्त आम मेहनतकश अवाम
        मोदी सरकार द्वारा 25 मार्च से 14 अप्रैल तक देश में लॉकडाउन घोषित कर दिया। जैसा कि पहले से ही स्पष्ट था कि यह लॉकडाउन का फैसला कुछ राज्य सरकार अपने-अपने स्तर पर ले चुकी थी। इसी के बाद मोदी सरकार द्वारा केंद्रीय स्तर पर लॉकडाउन का फैसला लिया गया।
       सभी ने देखा, 22 मार्च के एक दिन के 'जनता कर्फ्यू' का मोदी, भाजपा व मोदी भक्तों ने किस तरह जश्न के माहौल में बदल दिया था। तब, एक तरफ 'जनता कर्फ्यू' के जरिये लोगों को घरों में रहने व फिर शाम को 'थाली, ताली या घन्टी' बजाकर, उन लोगों को 'सम्मान' देने की बात की गई, जो डॉक्टर व नर्स मास्क, ग्लव्स व अन्य निजी सुरक्षा उपकरणों की घोर कमी की स्थिति में इस वक़्त इलाज कर रहे हैं जबकि दूसरी तरफ मोदी सरकार मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार गिरा चुकी थी तथा शपथ ग्रहण के जरिये संघी जश्न मना रहे थे।
      इस तथ्य को भी साफ तौर पर महसूस किया गया व देखा गया कि जब शासक जनता को घोर अवैज्ञानिकता, अतार्किकता तथा अंधविश्वास की ओर ले जाते हैं तो इसकी कीमत खुद शासकों को भी चुकानी होती है, जनता तो इसकी भारी कीमत चुकाती ही है।
     पहला तो यह, कि खुद लंबे वक्त तक हिंदू फासीवादी सरकार तमाम चेतावनियों के बावजूद भी 'कोरोना वायरस' के प्रसार तथा इसके प्रभाव से बेखबर थे व भयानक तौर पर लापरवाह थे। ये, बेखबर व लापरवाह ही नहीं रहे बल्कि इस दौरान ये अपने 'हिन्दू फासीवादी' एजेंडे को निरन्तर आगे बढ़ाने में लगे रहे। ये सीएए व एनपीआर के अपने घृणित एजेंडे को इस बीच लगातार आगे बढ़ाते रहे। दूसरा यह, कि 22 तारीख के 'जनता
कर्फ्यू' को "भक्तजनों" ने मोदी सरकार की   चाल मात्र समझी जिसके जरिये 'शहीनबाग' जैसे सीएए एनपीआर विरोधी प्रदर्शनों को कुचला जा सके, नतीजा यह रहा कि शाम 5 'थाली, ताली, घंटी' बजाने की मांग, जश्न में बदल गयी, लोग कई जगह पर लोग अपने घरों से बाहर निकल कर व एकजुट होकर जश्न मनाने लगे। स्थिति यह रही की पीलीभीत में तो अधिकारी ही जुलूस को नेतृत्व देते हुए दिखाई दे रहे थे। जबकि लखनऊ में भाजपाई नेता अपनी अय्याशियों के चलते पार्टियों के आयोजन में भी लगे। कोरोना संक्रमित गायिका की पार्टी इसका एक उदाहरण है।
        भारत में कोरोना का पहला मामला 30 जनवरी को पता लगा। इसके बाद 26 मार्च तक यह संख्या 700 पहुंच चुकी थी जबकि 16 की मौत हो चुकी थी। इस बीच विश्व स्वास्थ्य संगठन इसे वैश्विक महामारी घोषित कर चुका था। विपक्षी भी, इस बीच, सरकार को इस दिशा में ध्यान देने व इससे निपटने के लिए आगाह कर रहे थे। मगर मोदी सरकार तो अपनी फासीवादी धुन में थी। इस बीच मोदी सरकार क्या कर रही थी?
       मोदी सरकार इस बीच, अपने हिन्दू फासीवादी एजेंडे को परवान चढ़ाने में व्यस्त थे। दिल्ली चुनाव में इन्होंने 'शहीन बाग' के जरिये अपनी नफरत भरे साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के प्रचार को आगे बढ़ाने को सारे कृत्य किये। इसके बाद दिल्ली के दंगों का प्रायोजन किया गया। जिसमें सैकड़ों मुस्लिमों को विस्थापित होकर इधर उधर शरण लेनी पड़ी। लखनऊ में सीएए विरोधियों से निपटने के लिए 'प्रदर्शनकारियों' के नाम, पते व फ़ोटो दीवारों पर चस्पा कर दी गई। जबकि मोदी इस बीच 'किम छो ट्रम्प' के आयोजन में लगे रहे जिसमें हज़ारों लोग, अहमदाबाद में इकट्ठा हुए।
       यह स्पष्ट था, कि 'सार्स-कॉव-2' यानी कोरोना वायरस का केंद्र चीन था, यहीं से उसका प्रसार 'यातायात' के चलते संक्रमित व्यक्तियों से दुनिया भर में हो रहा था। इस स्थिति में जरूरी था, कि विदेशों से जो भी लोग भारत आ रहे थे, उनकी आवाजाही को सीमित कर देने तथा उनकी पर्याप्त जांच, निगरानी करने व पृथक कर देने की नीति पर अमल किया जाना चाहिये था साथ ही टेस्टिंग बड़े स्तर और होनी चाहिए थी।
   हुआ क्या? इस स्तर पर भयानक लापरवाही बरती गई। थर्मल स्क्रीनिंग की गई , मगर यह भी नाम की थी। नतीजा यह रहा कि बहुत बड़ी तादाद में लोग भारत के भीतर प्रवेश कर गए, अपने इलाके  व घर तक पहुंच गए। कनिका कपूर से लेकर ऐसे कई मामले हैं जो सामने आये हैं। यहीं नहीं, कोरोना टेस्टिंग को बहुत सीमित स्तर पर किया गया। जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन व वैज्ञानिकों का रुख साफ था कि टेस्टिंग बड़े स्तर पर की जानी चाहिए। मगर सरकार व उसका स्वास्थ्य मंत्रालय अपनी 'सीमित टेस्टिंग' की नीति पर चलता रहा। इसका नतीजा यही होना था कि संक्रमित लोगो की संख्या बहुत कम दिखाई देती।
     अब, जब मार्च के तीसरे सप्ताह से इसका प्रसार साफ दिखने लगा, तब मोदी सरकार जागी, आत्ममुग्ध मोदी अपनी धुन से बाहर निकले।  फिर पहले 'जनता कर्फ्यू' लागू हुआ। इसके तत्काल बाद, बिना किसी पूर्वतैयारी व योजना के लॉकडाउन की घोषणा कर दी गई।
   लॉकडाउन की स्थिति ये है कि आम जनता की, जो अपने जरूरत का सामान लाने बाजार जा रही है तो सड़कों पर उनकी ठुकाई हो जा रही है उस पर मुकदमे दर्ज हो रहे हैं मगर दूसरी तरफ  योगी आदित्यनाथ 70-80 लोगो  के  समूह में अयोध्या में मंदिर में पहुंच जाते हैं। यहां कुछ भी नहीं होता।
     इस अयोजनाबद्ध व यकायक हुए लॉकडाउन की घोषणा में साफ था कि मजदूर मेहनतकश जनता को ही ही इसकी भारी कीमत चुकानी होगी। भारत में कुल कामगार आबादी की 20 प्रतिशत आबादी प्रवासी श्रमिकों की हैं। विशेषकर बिहार, उत्तरप्रदेश आदि से अन्य राज्यों में दिहाड़ी कर ये मजदूर, इस लॉकडाउन की स्थिति में सैकड़ों किलोमीटर दूर अपने घरों  को पैदल जाते देखे जा सकते हैं। इनके सामने भुखमरी का संकट पैदा हो चुका है। इसीलिए कई, यह कहते हुए देखे जा सकते हैं कि इससे पहले उन्हें कोरोना मारे, भूख उन्हें पहले खत्म कर देगी। वहीं दूसरी ओर शहरों में स्लम बस्तियों
में रहने वाले लोग, रोज़ कमाने व खाने वाले लोगों के लिए भी यह लॉकडाउन भयानक विपदा साबित हो रहा है।
         देश में स्वास्थ्य सुविधाओं की दुर्गति को कौन है जो नहीं जानता, समझता। यहां डॉक्टरों, व नर्सों तक के लिए निजी सुरक्षा उपकरणों का भारी अभाव होने के चलते, खुद उनके सामने भी संक्रमित होने का खतरा मंडरा रहा है। वहीं जो लाखों लोग, इस बीच इधर-उधर हुए हैं इनमें संक्रमित कितने होंगे, कितने नहीं तथा गर संक्रमित हैं तो फिर कहां तक इसका प्रसार होता है यह कुछ वक्त बीतने पर ही साफ हो जायेगा। मोदी सरकार व उसके स्वास्थ्य मंत्रालय ने फिलहाल कुछ नमूनों के आधार पर ही ये कहा है कि कम्युनिटी प्रसार की संभावना नहीं लग रही है। मगर तस्वीर वक़्त के साथ साफ हो जाएगी।  निश्चित तौर पर जो स्थितियां पैदा हो चुकी हैं उस  सबके लिए हमारे शासक जिम्मेदार हैं, मौजूदा हिन्दू फासीवादी सरकार जिम्मेदार है।


चुनाव की आड़ में बिहार में नागरिकता परीक्षण (एन आर सी)

      चुनाव की आड़ में बिहार में नागरिकता परीक्षण (एन आर सी)       बिहार चुनाव में मोदी सरकार अपने फासीवादी एजेंडे को चुनाव आयोग के जरिए आगे...