Sunday, 9 July 2017

हत्याओंं के दौर में "राष्ट्रवादियों" का जश्न



हत्याओंं के दौर में "राष्ट्रवादियों" का जश्न 

   पिछले तीन सालों में मेहनतकश अल्पसंख्यकों व दलितों पर हमले काफी बढ़ चुके है। आम तौर पर ये हमले गौरक्षक दस्तों द्वारा किये गए है। इनमें हत्याएं भी की गई है। दूसरी ओर गुजरात ऊना के बाद जुनैद व झा-खण्ड में अल्पसंख्यकों की हत्या के मौके पर "ह-त्यारी चुप्पी" को तोड़ते हुए प्रधानमंत्री महोदय फिर उपदेशात्मक मुद्रा में आये । फासिस्ट हत्यारो को फिर से एक बार उपदेश उन्होंने दिया। इन्हें "भीड़ द्वारा हत्याओं" के रूप में प्रचारित कर फास्सिट अपनी ताकत में इजाफा करते जा रहे है। 
     जब दौर ऐसा हो तब ऐसे शोक संतप्त दहशत भरे माहौल में "जी एस टी" लागू करने की रात को ऐतिहासिक पल बताकर "जश्न" मनाया जाता है। "एक देश-एक कर- एक बाजार" के नारे के साथ एक केंद्रीकृत कर प्रणाली को यूं इस तरह पेश किया जाता है कि मानो मज़दूर मेहनतकश अवाम की जिंदगी में आमूल चूल बदलाव आ जाये। हकीकत यही है कि हर बार की ही तरह यह मज़दूर मेहनतकश अवाम को और ज्यादा निचोड़ने का यंत्र है। प्रत्यक्ष करो की प्रणाली को बढ़ाने की बजाय जो कि व्यक्ति विशेष को प्रभावित करते है इसे और कमजोर कर दिया गया है। इसके बजाय अप्रत्यक्ष कर प्रणाली को और मजबूत व व्यापक कर दिया गया है जो अपने दायरे मज़दूर मेहनतकश अवाम को समेट लेता है। इसके लिए महंगाई बढ़नी ही है। छोटी पूंजी की तबाही को बढ़ाएगा।   
        अव्वल तो यह कोई यह नहीं पूछ रहा कि जिस जी एस टी को अब ऐतिहासिक करार दिया जा रहा है तब 2012 में क्यों इतना हंगामा इसके विरोध में मोदी - भाजपा ने बरपा था। एकाधिकारी पूंजी की सेवक नरम हिदुत्व वाली कोंग्रेस बेचारी यह क्रेडिट लेने से वंचित रह गयी। उसे इसी का अफसोस है ! वरना तो दोनों में इसे लागू करने के मामले में अभूतपूर्व एकता है। "राष्ट्रवादियों " का यह जश्न खुद इनके अपने लिए साथ ही देश के पूंजीपति वर्ग के लिए है या यूं कहें कि जश्न मनाने का समय यह यदि किसी के लिए है वो पहले सरकार और दूसरे जो असल में सरकार बनाते हैं और सरकारें जिनके लिए काम करती हैं यानी पूंजीपति वर्ग और उसमें भी अंबानी-अदानी टाइप के पूंजीपतियों को जश्न मनाना ही चाहिए। सरकार की कर राजस्व से आय बढ़ेगी तो वह उसे पूंजीपतियों पर ही लुटायेगी।
       यही नही इस " एक देश एक कर एक बाजार" के नारे के साथ शासकों ने राज्य सरकारों के अधिकार को और कमजोर कर दिया। अब राज्यों की निर्भरता केंद्र पर और ज्यादा बढ़ जाएगी। और शासकों की यह सोच या दावा कि इससे अर्थव्यवस्था को गति मिलेगी, संदिग्ध है। नोट बंदी की मार से अर्थव्यवस्था अभी उभरी नही है। आयात निर्यात दोनों ही स्तरों पर संकट मौजूद है। आंतरिक मांग बढ़ने के कोई आसार नहीं हैं। इस सबके बावजूद देश के बड़े पूंजीपतियों के मुनाफे की दर को और गिरने से रोकने और सरकार के कर राजस्व को बढ़ाने में यह कर सुधार तात्कालिक तौर पर एक हद तक कामयाब होगा। जंहा तक देश की एकता का सवाल है । देश को एकीकृत बाजार से देखने वाले शासक पूंजीपति वर्ग व उसकी पार्टियों का मतलब यही एकता यानी एक बाज़ार है । जबकि वास्तविकता में 'एकता' तभी संभव है जब कि आत्मनिर्णय के अधिकार के तहत समाजवादी राज्य बने।

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