Tuesday, 7 August 2018

     असम में नागरिकता आंच पर भारतीयता 




  


      (बिज़नेस स्टैण्डर्ड का यह लेख एक हद तक संघ परिवार के मंतव्य व उनकी राजनीति को बेनकाब करता हुआ ) 
साभार ( business standard..शेखर गुप्ता | Aug 05, 2018)

    


      


        मैं आपको रवांडा का कोई किस्सा नहीं सुनाऊंगा। उसके बारे में विकीपीडिया पर काफी जानकारी मौजूद है। मुझे शायद आपको 35 वर्ष पुराने नेल्ली नरसंहार का किस्सा सुनाने की भी आवश्यकता नहीं है। वह भी अब हमारी राजनीतिक लोककथाओं का हिस्सा है। मैं आपको खोइराबाड़ी, गोहपुर और सिपाझार जैसी उन जगहों के बारे में बताऊंगा जिनके विषय में कम लोग जानते हैं। इन दिनों जब असम में राष्ट्रीय नागरिक पंजी (एनआरसी) को लेकर इतना राजनीतिक ध्रुवीकरण हो रहा है तो ब्रह्मïपुत्र के उत्तरी तट पर स्थित इन जगहों को याद करना जरूरी है।
      सन 1983 में ब्रह्मïपुत्र घाटी में हुई हत्याओं में करीब 7,000 लोग मारे गए थे। इनमें 3,000 से अधिक मुस्लिम थे जिन्हें 18 फरवरी की अलसुबह नेल्ली में कुछ ही घंटों में जान से मार दिया गया था। शेष हत्याएं जगह-जगह हुईं और इनमें भी अधिकांश मुस्लिम ही मारे गए। परंतु मैंने जिन तीन स्थानों का जिक्र किया है वहां मरने वाले भी हिंदू थे और मारने वाले भी हिंदू ही थे। अगर गुस्सा विदेशी नागरिकों (पढि़ए मुस्लिमों) के खिलाफ था तो हिंदू ही हिंदुओं को क्यों मार रहे थे? पूर्वोत्तर और असम की तमाम बातों की तरह यह भी एक जटिल किस्सा है जिसकी कई परत हैं। एक-एक करके बात करते हैं। हमलावर हिंदू, असमी बोलने वाले थे। उन्होंने बंगालियों की हत्या की। भाषायी और जातीय घृणा एकदम सांप्रदायिक नफरत की हद तक पहुंच रही थी। नेल्ली जैसी बंगाली मुस्लिमों की अधिक आबादी वाली जगहों पर कहानी आसान थी और असमी हिंदुओं ने बंगाली मुसलमानों की हत्या की। हर कोई एक दूसरे की जान के पीछे पड़ा था। भाजपा और सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर उस घातक मिश्रण को भडक़ा दिया है।40 लाख लोग एनआरसी के मसौदे में जगह बनाने में नाकामयाब रहे हैं। बतौर सरकार और पार्टी भाजपा की भाषा इस मामले में अलग-अलग है। गृहमंत्री राजनाथ सिंह का कहना है कि यह अंतरिम और पहला मसौदा है। अमित शाह संसद में उन्हें घुसपैठिया कह चुके हैं। अगर आप उन 40 लाख संभावित लोगों में होंगे तो आप इसे कैसे देखेंगे? आपको लगेगा कि आपको निशाना बनाया जा रहा है। पूर्व मुख्यमंत्री तथा भाजपा के कनिष्ठ सहयोगी दल असम गण परिषद के मुखिया पहले ही इससे असहमति जता चुके हैं।          
         संभावना यही है कि इन 40 लाख में से अंतिम सूची में 5 लाख नाम ही बचेंगे। पूरी प्रक्रिया में अनियमितता है जो टिकेगी नहीं। गौहाटी उच्च न्यायालय ने स्थानीय लोगों की उस मांग पर मुहर लगा दी है कि ग्राम पंचायत से मिले प्रमाणपत्रों को नागरिकता का प्रमाण नहीं माना जाएगा। अब आधार के आगमन के पहले से यहां रह रहे ये गरीब लोग कौन सा प्रमाण लाएंगे? राज्य सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में इसके खिलाफ अपील भी नहीं की। किसी और ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। सबसे बड़ी अदालत ने उच्च न्यायालय के आदेश पर मुहर तो नहीं लगाई और उच्च न्यायालय से कहा कि वह मानक तय करके बताए कि पंचायतों के किन प्रमाणपत्रों को मान्यता दी जाएगी। इसी भ्रम में सर्वोच्च न्यायालय ने एनआरसी की तैयारी को गति प्रदान की। इन प्रमाणपत्रों को लेकर अगर तार्किक सोच अपनाई गई तो कोई बाहरी व्यक्ति नहीं बचेगा। भाजपा ऐसा नहीं चाहती। न्यायालय ने सन 1985 के राजीव गांधी- आसू/एएजीएसपी शांति समझौते की भावना के अनुरूप काम किया। इसमें वादा किया गया था कि नागरिकता निर्धारण के वास्ते एनआरसी के लिए 25 मार्च, 1971 को कट ऑफ वर्ष माना जाएगा। इसका अर्थ यह था कि जो लोग उस तारीख से पहले भारत आ गए थे उन्हें भारतीय नागरिक माना जाएगा। यह बात इंदिरा गांधी और शेख मुजीबुर्रहमान के समझौते के अनुरूप थी जिसके तहत बांग्लादेश, भारत से अपने करीब एक करोड़ शरणार्थियों को वापस लेने को तैयार हो गया था। इनमें से करीब 80 फीसदी हिंदू थे। इंदिरा गांधी चाहती थीं कि हिंदू-मुस्लिम सभी शरणार्थी लौट जाएं।  
         सन 1985 में यानी आज से 33 वर्ष पहले जब राजीव गांधी ने असम में विद्रोहियों के साथ समझौता किया था तो एनआरसी को इसी आधार पर रखने का वादा किया था। तमाम वजहों से एनआरसी अब तक नहीं तैयार हो सका। इस बीच दो और पीढिय़ां बड़ी हो गईं। क्या अब आप उनको देश से बाहर भेज सकते हैं या उनकी नागरिकता समाप्त कर सकते हैं? भाजपा भी जानती है कि यह संभव नहीं है। अगर भाजपा का कोई व्यक्ति कहता है कि इसमें कोई राजनीति नहीं है तो उनसे पूछिए कि क्या उन्होंने अमित शाह का भाषण नहीं सुना? उन्हें इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने पूरी पारदर्शिता के साथ 2019 के चुनाव अभियान की शुरुआत कर दी। विकास के दावे अक्सर इसके वादे से कम लुभावने निकलते हैं। केंद्र में दूसरा कार्यकाल हासिल करने के लिए भाजपा राष्ट्रवाद के नाम पर धु्रवीकरण करेगी। असम में यह मसला तब तक सुलगता रहेगा। भाजपा लाखों लोगों को घुसपैठिया कहती रहेगी। देश में बांग्ला भाषी मुस्लिमों को तब तक इस चिप्पी के साथ जीना होगा। माना जा रहा है कि ‘धर्मनिरपेक्ष’ विपक्ष, वाम धड़े के बौद्धिक समर्थन के साथ मजबूरन इनके बचाव में उतरेगा। इससे माहौल यह बनाया जाएगा कि वे मुस्लिमों के समर्थक और राष्ट्र विरोधी हैं। कांग्रेस इस जाल को देख रही है लेकिन उसके पास इसका कोई जवाब नहीं है। अगर 2019 का चुनाव मुस्लिम समर्थक और मुस्लिम विरोधी के खांचे में बंटा तो भाजपा की जीत तय है। अमित शाह के लिए असम केवल देश भर में राष्ट्रवाद की भावना भडक़ाने का जरिया है। शाह और भाजपा अपनी चुनावी राजनीति को दूसरों से बेहतर समझते हैं। पर क्या उनको असम की समझ है? मैं आपको 35 वर्ष पीछे ले चलता हूं। मैं गुवाहाटी के नंदन होटल के छोटे से कमरे में रुका था। मुझसे मिलने जो चार लोग आए थे वे विनयशील और प्रभावी लोग थे। वे किंकर्तव्यविमूढ़ नजर आ रहे थे। उनके नेता थे के एस सुदर्शन, जो उस वक्त राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के बौद्धिक प्रमुख थे। बाद में वह सरसंघचालक बने। उनमें से दो बाद में आरएसएस में पूर्वोत्तर विशेषज्ञ बने और अब संघ और भाजपा सरकार में अहम पदों पर हैं। वह मुझसे यह जानने आए थे कि महीने की शुरुआत में हुए असम के दंगों में इतनी बड़ी तादाद में बंगाली हिंदू कैसे मारे गए? उनका सवाल था कि असम के लोग मुस्लिम घुसपैठियों और हिंदू शरणार्थियों में भेद क्यों नहीं कर पा रहे? सुदर्शन ने पूछा कि वे खोइराबाड़ी में इतने हिंदुओं को कैसे मार सकते हैं? मैंने उन्हें असम में हुए इस हत्याकांड के पीछे की जातीय और भाषायी जटिलता समझाई। सुदर्शन ने कहा कि किंतु हिंदू तो अरक्षित है? यह बातचीत सन 1984 में आई मेरी किताब असम: द वैली डिवाइडेड (पृष्ठ 121-122) में दर्ज है। उसके बाद आरएसएस ने असमी विद्रोहियों को नए सिरे से शिक्षित करने का अभियान चलाया। जैसा कि मैं लिख चुका हूं। गत विधानसभा चुनाव में मिली जीत उसी सफलता का पुरस्कार है। असम में भाजपा में अब आसू और अगप के तमाम पुराने लोग शामिल हैं। प्रदेश के मुख्यमंत्री और उनके सबसे ताकतवर सहयोगी भी उनमें से ही हैं। परंतु जैसा कि उन्होंने सन 1983 में अपनी युवावस्था में किया था, इस बार भी उन्हें एनआरसी के मामले में आरएसएस/भाजपा की शर्तों पर काम करना मुश्किल होगा: यानी बंगाली मुस्लिमों को निशाना बनाना और हिंदुओं को साथ लेना। भाजपा ने असम को 2019 के लिए अपना प्रमुख हथियार बनाना तय किया है। जैसा कि हमने नोटबंदी से देखा, शाह और मोदी बड़े जोखिम उठा सकते हैं। बहरहाल, राजनीतिक लाभ के लिए आर्थिक नुकसान झेलना एक बात है और असम में पुरानी आग भडक़ाना दूसरी बात। संभव है कि शांति बरकरार रहे लेकिन अगर ऐसा नहीं हुआ तो मामला फिर हिंदू बनाम मुस्लिम, असमी बनाम बंगाली, हिंदू या मुस्लिम, हिंदू बनाम हिंदू और मुस्लिम बनाम मुस्लिम का बन जाएगा।

पाकिस्तानी अवाम के लिए जैसे नवाज वैसे इमरान

        पाकिस्तानी अवाम के लिए जैसे नवाज वैसे इमरान
 (साभार - enagrik.com)


    
आतंकवादी हमलों और भारी खून-खराबे के बीच पाकिस्तान में आम चुनाव सम्पन्न हो गये। किसी भी पार्टी को केन्द्र में सरकार बनाने लायक आवश्यक सीटें नहीं मिलीं। इमरान खान की पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में जरूर उभरी है।

    इस चुनाव में नवाज शरीफ की पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग के खिलाफ आक्रोश की ज्यादा अभिव्यक्ति हुयी है। उसके वर्तमान प्रधानमंत्री शाहिद अब्बासी और भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश नवाज शरीफ के भाई शहबाज शरीफ चुनाव हार गये। यह चुनाव ऐसे वक्त में हो रहे थे जब नवाज भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण जेल में हैं।

    इमरान खान की पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर सामने आयी है परन्तु खुद इमरान खान अपनी जीत को लेकर कितने आश्वस्त थे, यह उनके पांच स्थानों से चुनाव लड़ने से स्पष्ट हो जाता है।

    आम चुनावों के प्रति पाकिस्तान की जनता के रुझान को इस बात से समझा जा सकता है कि लगभग आधे मतदाता चुनाव में मतदान करने ही नहीं आये। पाकिस्तान में 10.6 करोड़ मतदाता हैं तथा इस चुनाव में मतदान का अनुमान 50 से 55 फीसदी का है।

    लगभग आधे मतदाताओं का मत न डालना और उसमें इमरान खान की पार्टी का सरकार बनाने लायक आवश्यक सीट न मिल पाना दिखा देता है कि पाकिस्तान में बड़ी पार्टियों के खिलाफ कितना समर्थन है। उनके खिलाफ काफी आक्रोश है। पूर्व में सत्ता में रही पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी अब अपने वजूद के लिए लड़ रही है।

    नवाज शरीफ और आसिफ अली जरदारी (पीपीपी के नेता व पूर्व राष्ट्रपति) भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे हुए हैं। दोनों पार्टियों को कम सीटें मिलना इनके घटते जनाधार को दिखलाता है।

    पाकिस्तान में सेना का दखल जीवन के हर क्षेत्र में है। यह आम धारणा है कि पाकिस्तानी सेना प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष ढंग से इमरान खान की पार्टी की मदद इस चुनाव में कर रही थी। पाकिस्तानी सेना के इतिहास और उसके स्वयं के आर्थिक हितों को देखते हुए यह बात सही ही है। पाकिस्तान में यह धारणा मशहूर है कि वहां पर तीन ए (अल्लाह, आर्मी, अमेरिका) ही देश को चला रहे हैं।

    धार्मिक कट्टरपंथियों व तालिबानी मानसिकता के वर्चस्व, सेना तथा अमेरिकी साम्राज्यवाद के हस्तक्षेप के चलते ही पाकिस्तान में यह धारणा बनी है।

    पाकिस्तान की संसद में 342 सीटें हैं। इनमें से 272 पर भारत की तरह चुनाव होता है। शेष 70 सीटों में 60 सीटें महिलाओं के लिए तथा 10 सीटें धार्मिक अल्पसंख्यकों और जनजातीय समूहों के लिए आरक्षित होती हैं। इन सीटों पर प्रतिनिधित्व कम से कम पांच फीसदी मत पाने वाली पार्टियों में अनुपातिक प्रणाली के आधार पर होता है। भारत में पाकिस्तान के लोकतंत्र को गाली देने वाले संघी-भाजपाई मानसिकता के लोगों के लिए यह शायद कुछ सीख दे।

    पाकिस्तान अपने जन्म से अब तक सैन्य तानाशाही और संसदीय लोकतंत्र के दौर से गुजरता रहा है। परवेज मुशर्रफ की सैन्य तानाशाही के बाद से अब पिछले कुछ वर्षों से वहां एक के बाद एक नागरिक सरकारें आती रही हैं। इस मामले में पाकिस्तानी सेना किसी हद तक पर्दे के पीछे रही है। यहां यह बात गौर करने की है कि संसदीय लोकतंत्र पूंजीवादी तानाशाही का ही एक रूप है। यह पूंजीपति वर्ग के शासन को दीर्घजीवी बनाता है। संसदीय चुनाव में एक पार्टी की हार व दूसरे की जीत आम मजदूर-मेहनतकश में इस बात का भ्रम पैदा करती है कि अब कुछ ठीक होगा। परन्तु होता यह है कि पूंजीपति वर्ग की एक पार्टी या गुट के स्थान पर दूसरा गुट सत्ता में काबिज हो जाता है। जनता की दिक्कतें, आकांक्षायें सभी अपनी जगह पर रह जाती हैं। यही पाकिस्तान में हो रहा है।

    नवाज शरीफ की पार्टी के सत्ताच्युत होने और इमरान की पार्टी के सत्ता पर काबिज होने से पाकिस्तान के मजदूरों, किसानों के जीवन में कोई फर्क नहीं पड़ेगा। पूंजीपति वर्ग-नौकरशाहों-सेना का गठजोड़ उसके ऊपर सवारी गांठता रहेगा। जरूरत इस बात की है कि पाकिस्तान का मेहनतकश अवाम जल्द से जल्द इस बात को समझे और महसूस कर एक मुकम्मिल इंकलाब की तैयारी करे। पूंजीवादी निजाम की जगह समाजवादी निजाम कायम करे। 


चुनाव की आड़ में बिहार में नागरिकता परीक्षण (एन आर सी)

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