Friday, 23 December 2016

नोटबंदी 'विशुद्द राजनीतिक स्टंट'


         नोटबंदी 'विशुद्द राजनीतिक स्टंट'

काले धन के खिलाफ जहर उगलने वाले मोदी जी काले धन पर सवार होकर ही सत्ता पर पहुंचे थे। अम्बानी -अदानी जैसो  के दम पर  सत्ता में  पहुंचने के बाद 15 लाख रूपये सबके खाते में पहुँचाने की बात को प्रधानमंत्री मोदी के जोड़ीदार अमित शाह ने राजनीतिक जुमला करार दिया था।  
   दिल्ली में बुरी तरह हारने व फिर बिहार में चुनाव हारने के बाद साफ़ था कि मोदी लहर का अब वो असर नहीं है। जबकि मोदी सरकार ने अपनी कैबिनेट तक चुनाव में झौंक दी थी।
   स्पष्ट था कि अम्बानी-अदानी के नायक का अब यह मेहनतकश जनता के बीच बेनकाब होने का दौर था।  इस दौर में मोदी व मोदी सरकार ने कॉर्पोरेट घरानों के पक्ष में आर्थिक सुधारों को तेजी से लागू करने की कोशिश की दूसरी और धार्मिक, सांस्कृतिक आदि  तमाम मुद्दों के जरिये फासीवादी आंदोलन को और ज्यादा मजबूत किया।।
 इस सबका ही मिला जुला असर था कि मोदी की छवि का ग्राफ गिरा। अब लोक सभा में तो मोदी सरकार को बहुमत हासिल है लेकिन राज्य सभा में अभी बहुमत से पीछे है ।
अब एक बार फिर भारी अवसर था कि उस प्रदेश में जहां से उनके 72 सांसद हैं तथा उत्तराखंड , पंजाब के चुनाव में एक बार मोदी की ऐसी छवि निर्मित की जाय कि न केवल राज्य सभा में बहुमत की दिशा में बढ़ा जा सके बल्कि एकतरफा हासिल वोट के दम पर उसे जनता का मेंडेट बता कर मोदी व मोदी सरकार  फासिस्ट मंसूबों की दिशा में तेजी से आगे बढ़ सके।
  काला धन ख़त्म करने के मुद्दे से और बेहतर कौन सा मुद्दा हो सकता था ? यही  तो 2014 में उनका चुनावी मुद्दा था। जनता के बीच फिर उम्मीद जगायी जा सकती थी कि उनके खाते में एक खास रकम तो अब पहुँचने ही वाली है और यह भी दिखाया जा सकेगा कि देश में मोदी ही एकमात्र व्यक्ति हैं  जो अमीरो को भी सबक सिखा रहे हैं।
 नोट बंदी के इस निर्णय से टाटा-अम्बानी जैसे एकाधिकारी घरानों को अंततः फायदा ही होना है । नेट बैंकिंग, डेबिट-क्रेडिट कार्ड ,पे टी एम आदि जैसे कदम भी और इसके जरिये  निगरानी बढ़ने के साथ -साथ कर संग्रह बढ़ना इनके पक्ष में ही है। सरकार द्वारा बताये गए काले धन के  3-4 लाख करोड़ रूपये यदि वापस नहीं आते तो सरकार इसके नए नोट जारी करके उसकी दावेदार बन जाती और इसे भी पूंजीपतियों पर ही लुटाती ।
 लेकिन 500- 1000 के जारी नोटों का अधिकांश हिस्सा तो जमा हो चुका है और बाकि हिस्सा भी जमा होने की संभावना है। यहाँ मोदी सरकार असफल हो गयी और दूसरी ओर इस नोटबंदी से मज़दूर - मेहनतकश लोग - महिलाएं , छोटे कारोबारी की तबाही साथ ही बीमारी के दौरान नकदी के चलते इलाज न मिलना , मेहनत से कमाये गए अपने पैसे से ही वंचित हो जाना या फिर पुराने नोटों के रूप में मिलती तनख्वाह को नए नोटों से डिस्काउंट ( नुकसान) में बदलना आदि-आदि के चलते मोदी सरकार यंहा भी असफल हो गयी।
मोदी व मोदी सरकार को यह अंदाजा नहीं था कि दांव उल्टा भी पड सकता है। यह भी स्पस्ट है कि काला धन तो रियल एस्टेट से लेकर तमाम तरीके के कारोबार में लगा हुआ है , साथ ही यह भी कि भारत सरकार या इस वक्त की मोदी सरकार भी उन पार्टिसिपेटरी नोट का कोई जिक्र नहीं करती जिनके जरिये सटोरिये निवेश करते है कमाई करते है गुमनाम रहकर ये सब करने का अधिकार उन्है है ही। यह भी ध्यान में रखने की जरूरत है कि काला धन कितना है इस संबंध में भी कोई सटीक आंकड़ा नहीं है ।
  अब जैसे जैसे 50 दिन की लिमिट नज़दीक आते गयी । मोदी व मोदी सरकार ने एक और काले धन के खिलाफ घोषित नोटबंदी को कैशलेस अर्थव्यवस्था की ओर भी मोड़ दिया । साथ ही वह रोज ब रोज हो रही धरपकड़ को मीडिया में खूब उछाल कर यह दिखाने की कोशिश में है कि उसकी योजना तो बिलकुल ठीक थी लेकिन बैंककर्मियों ने इस योजना पर पलीता लगा दिया है और यह भी कि मोदी अमीरो को नहीं बख्श रहा है । अब आने वाला वक्त ही बताएगा कि जनता इसका जवाब कैसे देती है।






Wednesday, 21 December 2016

महेन्द्रगढ़ में द्रौपदीः शिक्षा जगत में भगवा आंतक


महेन्द्रगढ़ में द्रौपदीः शिक्षा जगत में भगवा आंतक से मुठभेड़


(20 अक्टूबर को हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय का दौरा करने गई एक जांच दल की रिपोर्ट के कुछ अंश यहां प्रस्तुत हैं। जांच दल के सदस्य- अनिर्बान कर, दीपक गुप्ता, जितेंद्र धनकर, सचिन एन., समीक्षा खंडेलवाल और सरोज गिरी थे)


    21 सितंबर 2016 को, महेंद्रगढ़ स्थित हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय के अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विभाग के छात्रों तथा अध्यापकों ने महाश्वेता देवी की लघुकथा पर आधारित नाटक द्रौपदी का मंचन किया। जिस समय आयोजक तथा कलाकार दर्शकों से प्रशंसा पा रहे थे उस समय वह उस परदे के पीछे हो रही तैयारी से अनभिज्ञ थे जो संघी ताकतें उनके खिलाफ कर रही थीं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने सेवा निवृत्त, संघ कार्यकर्ताओं तथा स्थानीय दबंगों का एक समूह बनाकर नाटक के विरुद्ध विरोध प्रदर्शन किया। महेंद्रगढ़ शहर तथा उसके आस-पास के गांवों में बाकायदा नाटक के कुछ अंशों का वीडियो बनाकर अभियान चलाकर दिखाया गया। एक आदिवासी महिला के साथ हिरासत में हुए बलात्कार तथा उत्पीड़न पर आधारित नाटक को देशद्रोही तथा सेना-विरोधी नाटक के रूप में प्रचारित किया गया। हरियाणा केन्द्रीय विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग के डा. एम एस स्नेहसाटा और डा. मनोज कुमार के विरुद्ध एक जांच कमेटी बनाई जिसकी रिपोर्ट आनी अभी बाकी है।................

विश्वविद्यालय का शैक्षिक-प्रशासकीय वातावरण

    21 सितम्बर की घटना के राष्ट्रीय तथा स्थानीय दोनों चरित्र है। जहां राष्ट्रीय चरित्र में हमले की रूप-रेखा हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय तथा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में संघ द्वारा किए गए हमले से बिल्कुल मिलती जुलती है वहीं स्थानीय चरित्र हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय के विशिष्ट शैक्षिक एवं प्रशासनिक वातावरण से मिलता जुलता है।

    हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय यूपीए के कार्यकाल के दौरान स्थापित 15 नए विश्वविद्यालयों में से एक है। यह महेंद्रगढ़ शहर से 10 किमी. दूर जंत-पाली में स्थित है। इस परिसर के लिए दो पंचायतों की सामूहिक बंजर जमीन का अधिग्रहण किया गया था। करीब 25 विभागों ने अपना शैक्षणिक कार्यक्रम शुरू किया जिसमें करीब 1500 छात्रों ने प्रवेश लिया। ज्यादातर छात्र राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली से होने के बावजूद छात्र निकाय की संरचना काफी विविधतापूर्ण है जिसमें कश्मीर, केरल तथा बिहार के छात्रों का मात्रात्मक प्रतिनिधित्व है। परिसर में दो छात्रावास हैं- एक लड़कों का और एक लड़कियों का। विश्वविद्यालय ने 2013 में नरनौल में चल रहे अपने अस्थाई संरचना से खुद को मौजूदा परिसर में स्थानान्तरित किया।

    विश्वविद्यालय सीखने, विमर्श तथा वाद-विवाद का एक ऐसा स्थान होता है जहां पर नए विचार और विचारधाराएं विकसित होती हैं तथा प्रचलित विचारधाराओं को चुनौती दी जाती है तथा नया आकार दिया जाता है। ...... मौजूदा शैक्षिक नीति केवल बातों में अनुसंधान तथा ज्ञान के विकास को अपना मुख्य तत्व बताती है (हालांकि प्रस्तावित शैक्षणिक नीति ने अपना यह दिखावा भी तज दिया है जिसके अनुसार अब शिक्षा का प्राथमिक उद्देश्य कुशलता का निर्माण रह गया है।), किंतु वास्तव में इसमें जनवादी गुंजाइश बहुत कम है और यह हर संभव तरीके से इसे रोकने की कोशिश करता है। पुराने विश्वविद्यालयों, के पास तो फिर भी एक हद तक का लोकतांत्रिक स्थान है और छात्रों तथा अध्यापकों के संयुक्त प्रयासों की बदौलत उसे बचाए रखने की लगातार कोशिश चल रही है। लेकिन नए विश्वविद्यालय एक तरह से नव उदारवादी शैक्षिक नीतियों की प्रयोगशाला बन चुके हैं। यह सभी नए विश्वविद्यालय शिक्षकों तथा स्टाफ की भर्ती के लिए कई सालों से ठेकदारी, अस्थाई व्यवस्था चला रहे हैं।

    हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय में शैक्षिक या गैर-शैक्षिक किसी भी गतिविधि के लिए अधिकारियों की मंजूरी की जरूरत होती है। अध्यापकों द्वारा किए जा रहे किसी भी कार्यक्रम की स्क्रिप्ट को पहले विभागाध्यक्ष को दिखाया जाना जरूरी होता है। विश्वविद्यालय द्वारा अनुमोदित कार्यक्रमों में छात्रों तथा शिक्षकों के लिए हाजिरी अनिवार्य होती है, चाहे उनकी रुचि या आवश्यकता हो या न हो। अध्यापकों को तो गैर-हाजिर होने पर कारण-बताओ नोटिस तक जारी कर दिया जाता है। ......... हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय में छात्रों के साथ सर्वोत्तम व्यवहार बाल-कैदियों की तरह किया जाता है और सबसे खराब व्यवहार जेल में बंद कैदियों की तरह किया जाता है। छात्रावासों में रात 10 बजे के बाद कर्फ्यू शुरू हो जाता है। छात्राओं को होस्टल से बाहर जाते समय हर बार एंट्री करनी होती है चाहे वह लेक्चर लेने भी क्यों न जा रही हों। हमने ऐसी-ऐसी कहानियां भी सुनीं जहां पर एक छात्रा सिर्फ इसलिए अपनी प्रतियोगिता परीक्षा नहीं दे पाई क्योंकि विश्वविद्यालय अधिकारियों ने उसे सुबह 6 बजे होस्टल छोड़ने की अनुमति नहीं दी। 2015 में हुई फीस वृद्धि के खिलाफ जब छात्रों ने विरोध किया तो, उन्हें न सिर्फ कड़े अनुशासनात्मक कार्रवाई की धमकी दी गई बल्कि उनके माता-पिता को बुलाकर उन्हें बताया गया कि उनके बच्चे अवैध गतिविधियों में शामिल हैं। .......

हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय पर संघ का नियंत्रण

    हालांकि यूनियनों का न होना यह नहीं दिखाता है कि विश्वविद्यालय में राजनीतिक नियंत्रण नहीं है। इसी साल मार्च के महीने में विश्वविद्यालय ने एक कार्यक्रम आयोजित किया जिसमें एक स्थानीय संघी कार्यकर्ता ने राष्ट्रवाद पर भाषण दिया। संघ कार्यकर्ता ने रोहिथ वेमुला मामले में आयोजित कैंडल मार्च को रद्द करने के लिए विश्वविद्यालय प्राधिकरण की तारीफ की। कुलपति द्वारा उस संघ कार्यकर्ता को तलवार भेंट कर उसका सम्मान किया। हमेशा की तरह इस कार्यक्रम के लिए भी अध्यापकों एवं छात्रों की हाजिरी अनिवार्य थी। इस कार्यक्रम से एक महीने पहले हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय के एक छात्र समूह ने रोहिथ वेमुला की मौत के विरोध में एक शांतिपूर्ण कैंडिल-मार्च का आयोजन किया था। राॅड और डंडों से लैस अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के सदस्यों ने छात्रों को धमकाया और बाद में परिसर में राष्ट्र विरोधी गतिविधियां करवाए जाने के बारे में पुलिस शिकायत भी दर्ज की।   

    परिसर में अंधराष्ट्रवाद की भावना फैलाने तथा तुच्छ बदले निकालने के लिए एबीवीपी से जुड़े छात्रों ने 2015 के क्रिकेट विश्व कप के दौरान कश्मीरी छात्रों पर ‘‘पाकिस्तान जिंदाबाद’’ के नारे लगाने का आरोप भी लगाया। 2014 में; बाबरी मस्जिद ढहाए जाने और उसके बाद संघी संगठनों द्वारा किए गए, दंगों पर बनी फिल्म ‘राम के नाम’ की स्क्रीनिंग के दौरान, आडिटोरियम में बिजली काट कर प्रदर्शन में बाधा उत्पन्न की। यह सब कुछ विश्वविद्यालय के साथ किए गए मौन तथा स्पष्ट गठजोड़ के बिना संभव नहीं था। हमें बताया गया कि पिछले कुछ कुलपतियों ने तो तत्कालीन राजनीतिक मालिकों तथा संघ कार्यकर्ताओं को खुश करने के लिए हर हद पार कर दी। परिसर के भीतर तथाकथित रूप से नियमित तौर पर आरएसएस की शाखाएं लगवाए जाने का तथ्य भी सामने आया। आधिकारिक तौर पर किसी छात्र संगठन के न होने के बावजूद एबीवीपी से जुड़े कुछ पूर्व छात्रों ने विश्वविद्यालय में कैंटीन चलाने के बहाने अपनी उपस्थिति बनाई हुई है।

घटना तथा उसके बाद के चरणों की विशिष्टताएं

कार्यक्रम के लिए मंजूरी

    कथित कार्यक्रम ‘‘श्रृद्धांजलिः महाश्वेता देवी को श्रृद्धांजलि’’ विभागाध्यक्ष द्वारा शुरू किया गया था और जिसे उच्च अधिकारियों यानी कि रजिस्ट्रार और कुलपति की अनुमति प्राप्त थी। विभागाध्यक्ष, डा. संजीव कुमार ने कार्यक्रम के संयोजन की जिम्मेदारी डा. मनोज कुमार और डा. स्नेहसाटा को दी। पूरे कार्यक्रम का आयोजन, रिहर्सल तथा मंचन विभागाध्यक्ष के मार्गदर्शन में हुआ। यहां तक कि कार्यक्रम की तारीख भी विभागाध्यक्ष द्वारा कुलपित से सलाह लेकर तय की गई थी। ..........

21 सितंबर

.........

    कार्यक्रम के पहले भाग में प्रोफेसर संजीव कुमार द्वारा स्वागत भाषण, एक छात्र द्वारा एकल नाटक, प्रोफेसर बीर सिंह द्वारा भाषण, एक छात्र द्वारा द्रौपदी का परिचय तथा नाटक शामिल था। ड्रामा महाश्वेता देवी की एक कहानी पर आधारित था। पहला भाग तो काफी अच्छे से गया। सभी लोगों ने छात्रों तथा शिक्षकों की तारीफ की। रजिस्ट्रार तथा विभागाध्यक्ष (अंग्रेजी), जिन्होंने कार्यक्रम की अनुमति दी थी, भी वहां मौजूद थे। दूसरे भाग में ‘हजार चौरासीवें की मां’ फिल्म का प्रदर्शन किया गया। तब तक अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के छात्रों ने मीडिया को बुला लिया और नाटक की अवधारणा को लेकर प्रदर्शन करने लगे। उनका कहना था कि यह भारतीय सभ्यता के विरुद्ध है और भारतीय सेना को बलात्कारी के रूप में चित्रित करता है इत्यादि। नाटक के एक हिस्से का वीडियो एबीवीपी के लोगों के बीच प्रचारित किया और उन्होंने सेनानायक के हिस्से को भारतीय सेना कह कर गांव वालों को दिग्भ्रमित किया। बाद के हुए विरोधों में से एक पोस्टर पर एक सैनिक की फोटो थी और उस पर लिखा था ‘‘मेरे पिता बलात्कारी’’ नहीं हैं। स्थिति तनावपूर्ण बनी रही और उसी दिन पुलिस शिकायत दर्ज करवाने और विश्वविद्यालय द्वारा एक अंदरूनी जांच कमेटी बिठाए जाने की अफवाहें भी उड़ती रहीं।

22 सितंबर

    22 सितंबर को स्थानीय प्रदर्शनकारियों ने कुलपति, रजिस्ट्रार, डा. संजीव कुमार (विभागाध्यक्ष), डा. मनोज कुमार और डा. स्नेहसाटा के खिलाफ पुलिस शिकायत दर्ज की। .........

25 सितंबर

    विश्वविद्यालय में एक प्रेस वार्ता आयोजित की गई जिसकी रिपोर्टिंग अधूरी और एकतरफा थी।

बाद में विश्वविद्यालय के गुड़गांव कार्यालय में 4 अक्टूबर को हो रही जांच कमेटी की बैठक में डा. स्नेहसाटा और डा. मनोज को बुलाया गया। मनोज से लगभग 20 मिनट तक और स्नेहसाटा से लगभग 40 मिनट तक सवाल पूछे गए।

    17 अक्टूबर को स्थानीय निवासियों और एबीवीपी/आरएसएस कार्यकर्ताओं द्वारा एक महाधरना आयोजित किया गया। वहां लगभग 300-400 लोग मौजूद थे। उन्हें बताया गया कि जांच कमेटी का निर्णय एक हफ्ते बाद दिया जाएगा।

    स्थानीय प्रदर्शनकारियों ने कुलपति पर दबाव डालने के लिए उसका पुतला भी जलाया। वह अपना धरना विश्वविद्यालय गेट के बाहर जारी रखे हुए थे।

    उसके बाद कुलपति द्वारा शिक्षकों की एक बैठक बुलाई गई जिसमें उनसे हर चीज के लिए अनुमति लेने के लिए कहा गया। उन्हें अधिकारियों द्वारा बताया गया कि विश्वविद्यालय परिसर के बाहर जाने के लिए भी उन्हें अधिकारियों को सूचित करना पड़ेगा और पूरा विवरण लिखित में देना होगा। किसी भी कार्यक्रम में उनके द्वारा दिया जाने वाला भाषण उन्हें लिखित में कार्यक्रम की सभी बारीकियों के साथ देना होगा। इस सबके बाद भी यदि कुछ होता है तो उसकी जिम्मेदारी उनकी अपनी होगी। हर कक्षा और यहां तक कि आवासीय क्षेत्रों में भी सीसीटीवी कैमरा लगाए जाने के प्रस्ताव भी आए।

    ......................

    अपनी बातचीत की कड़ी में हमारी मुलाकात सबसे पहले कानून विभाग की अध्यापिका से हुयी। वह इस मामले में अन्य शिक्षकों द्वारा चुप्पी लगाने व वीसी के व्यवहार से बेहद क्षुब्ध थीं। बकौल अध्यापिका वि.वि. को एक स्कूल की तरह चलाया जा रहा है। छोटे से छोटे मामले में शिक्षकों को कारण बताओ नोटिस भेज दिया जाता है। शिक्षकों व छात्रों को निरंतर अनुशासन व भय के माहौल में रहना पड़ता है, ऐसे में हर कोई बचने के लिए प्रशासन की हां में हां मिलाता रहता है। ..........

    दूसरे शिक्षक भी बातचीत में शामिल हो गए और बातचीत के क्रम को उन्होंने आगे बढ़ाया। उन्होंने बताया ये लोग सेना व राष्ट्रवाद की आड़ में अपने निजी स्वार्थ की पूर्ति करना चाहते हैं, एबीवीपी के कई नेता जो व्यक्तिगत तौर पर नाटक के खिलाफ प्रदर्शन करने को गलत मान रहे हैं, जोर-शोर से विरोध में शामिल हो रहे हैं।  

    ऐसे लोग इस मामले का इस्तेमाल पार्टी में ऊपर चढ़ने के लिए कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि ऐसा नहीं है कि केवल आरएसएस, भाजपा के लोग ही विरोध में शामिल हैं बल्कि कांग्रेस से जुड़े लोग भी इसमें पूरी तरह शामिल हैं, जैसे घटना के बाद एनएसयूआई के नेता का हमारे पास फोन आया। फोन पर उन्होंने मामला जानने व हमारा साथ देने के लिए मिलने की बात की, पर अगले दिन ही कांग्रेस के भूतपूर्व विधायक ने इस मामले के खिलाफ प्रदर्शन किया। प्रदर्शन में एनएसयूआई का उपरोक्त नेता भी शामिल था, वह अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए ही हमारा समर्थन करने की बात कर रहे थे पर जब पता चला कि समर्थन से ज्यादा फायदा विरोध करने में है तो विरोध में शामिल हो गए, कोई भी आरएसएस द्वारा फैलाए गए अंधराष्ट्रवादी माहौल की धुंध को साफ नहीं करना चाहता। सभी अपने हितो के हिसाब से इस झूठे शोर में अपनी ताल मिला रहे हैं।

    उन्होंने आरएसएस द्वारा गांवों में फैलाए जा रहे झूठे प्रचार के बारे में भी बताया। आरएसएस के लोगों द्वारा गांव में बोला जा रहा है कि उस दिन वहां बीफ भी मिला। माइक से गांव में घूमकर प्रचार किया जा रहा है कि नाटक में ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ व फौजियों का अपमान किया गया।......

    शिक्षकों ने इस बात की तसदीक की कि केवल उनको टारगेट नहीं किया जा रहा बल्कि उनके चरित्र, निजी मामलों (जाति, अंर्तजातीय विवाह आदि) के बारे में भी झूठी अफवाहें फैलायी जा रही हैं।

    डा. मनोज कुमार जिन पर जांच बैठायी गयी है, ने हमें बताया कि कुछ गांव वालों को भी जांच के लिए बुलाया गया था। इनमें से कोई भी नाटक के दौरान मौजूद नहीं था। ‘द्रोपदी’ नाटक केवल महाश्वेता देवी को श्रृद्धांजली देने के लिए किया गया था, जिससे छात्र लघुकथा ‘द्रोपदी’ को ठीक तरीके से समझ सकें।

..........

    मामले में जांच झेल रही शिक्षिका स्नेह साटा ने भी घटना व उसके बाद की घटनाओं के बारे में हमें बताया। उन्होंने कहा कि अपने काॅलेज जीवन के समय से ही मैं महिलाओं के लिए कुछ करना चाहती थी। उनकी समस्याओं को उठाना चाहती थी। अध्यापक बनने के बाद नाटक के माध्यम से मैंने इसे करने की कोशिश की। द्रोपदी में भी मैंने महिलाओं के सवालों को उठाने की कोशिश की। कश्मीर, मणिपुर में महिलाओं पर सेना द्वारा किए जा रहे जुल्मों को दिखाना ही मेरी कोशिश थी। नाटक के खिलाफ सब लोग सेना का अपमान करने का आरोप लगा रहे हैं पर कोई नाटक की केन्द्रीय थीम ‘महिलाओं के बलात्कार’ पर बात नहीं कर रहा। विरोध-प्रदर्शनों में भी एक भी महिला शामिल नहीं हैं। पूरे प्रशासन के द्वारा मुझ पर माफी मांगने का दबाव बनाया जा रहा है पर मैं पीछे नहीं हटूंगी। मैंने कुछ गलत नहीं किया है। .........

    शिक्षकों से बातचीत के दौरान हमें ये भी पता चला कि कैम्पस के परिसर में ही रोज सुबह आरएसएस की शाखा भी लगायी जाती है जिसमें आस-पास के गांव के 10-15 लड़के भाग लेते हैं। जब इस बारे में एक शिक्षिका ने प्रशासन के एक आदमी को बताया तो उन्होंने मामले को दांए-बांए करते हुए चुप्पी साध ली।........

.........एक छात्रा जो कि पास के गांव में रहती है, ने हमें बताया कि विरोध करने वाले अधिकांश एबीवीपी के लड़के मेरे गांव के हैं। मैं उनमें से अधिकांश को जानती हूं। घटना के बाद कुछ ने मुझसे मिलकर विरोध में शामिल होने के लिए भी कहा पर मैंने नाटक देखा है। और वह मुझे पसंद भी आया। मैंने उनसे विरोध में शामिल होने से साफ इंकार कर दिया। मैंने उनसे भी विरोध करने को मना किया लेकिन वे नहीं माने। उन्हें इस मामले में अपना राजनीतिक कैरियर चमकाने का मौका मिल रहा है। ऐसा मौका वे छोड़ना नहीं चाहते। गांव की रोटी-जमीन-रोजगार जैसे मुद्दों को ये कभी नहीं उठाते। इन्हें नाटक ही समस्या नजर आता है।........

    नाटक में एक मुख्य रोल करने वाली छात्रा ने बताया कि मेरे पिता खुद नेवी में हैं। घर में पहले से ही सेना के लिए एक इज्जत की भावना मौजूद है। हम तो नाटक के द्वारा केवल महाश्वेता देवी को श्रृद्धांजली देना चाहते थे। सेना का अपमान करना हमारा मकसद नहीं था। लेकिन कुछ लोग जानबूझकर इस मामले को आगे बढ़ा रहे हैं। घर में सब लोग चिन्तित हैं। वहां से भी निरन्तर दबाव बनाया जा रहा है।.............

........बातचीत के दौरान खुलकर ना बोल पाने के चलते एक छात्रा चारू ने मीटिंग के खात्मे के बाद हमसे बात की। उसने कहा कि पूरे कैम्पस में डर का माहौल है। नाटक का विरोध करने वाली ताकतों का प्रतिरोध करना जरूरी है। हम एक-एक कर लोगों को नहीं समझा सकते। वे संगठित हैं। लेकिन हमें भी कुछ करने की जरूरत है और मैं अपनी ताकतभर जरूर कुछ करूंगी। ..............

निहितार्थ तथा सिफारिशें

    यह विश्वविद्यालय के छात्रों को तिरस्कृत करने और यातना देने के लिए बनायी गयी एक सुनियोजित योजना थी। यहां योजना बनाने वालों का तात्कालिक उद्देश्य (राजनीतिक फायदे तथा स्थानीय स्तर पर मजबूती प्राप्त करना) और लक्ष्य (वह छात्र तथा अध्यापक जो व्यवस्था की आलोचना करते हैं) साफ है। हम यहां यह भी कहना चाहते हैं कि उनका देश भर के विश्वविद्यालयों तथा आम जनता को पंगु कर देने का एक वृहद लक्ष्य भी है। जाहिर है कि यह अभियान जेएनयू की घटना के बाद से उभरे राष्ट्रवाद के पागलपन को और ज्यादा पोषित करता है। यह शिक्षा जगत के भीतर (एमएसयू बड़ौदा फाइन आर्ट फैकल्टी घटना जहां संघ परिवार ने वार्षिक परीक्षाओं में आए चित्रों का विरोध किया था, दिल्ली विश्वविद्यालय तथा मुम्बई विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों से किताबों का हटवाया जाना इत्यादि) और बाहर (पेरूमल मुरुगन पर किया गया सेंसरिंग, नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसारे और एमएम कलबुर्गी की हत्या) फासीवादी आंतक की अन्य घटनाओं की भी याद दिलाता है।       

    विश्वविद्यालय के बाहर के मुख्य संचालकों में एबीवीपी-आरएसएस-भाजपा दल के लोग हैं जिन्हें संयोग से स्थानीय एनएसयूआई-कांग्रेस के नेतृत्व का सहयोग प्राप्त है, जो इस अवसर को बहुमत को अपने वोट बैंक के साथ जोड़ने के अवसर के रूप में देख रहे हैं। ......... उन्होंने भीड़ के आगे दो अध्यापकों के खिलाफ एक खाप पंचायत भी लगाई। हमें डर है कि आने वाले दिनों में यह एक प्रतिमान बन जाएगा। यह तथ्य कि इतिहास में फासीवाद ने हमेशा से ही सबसे पहले शैक्षणिक संस्थानों और शिक्षा के अधिकार पर हमला किया है किसी भी जनवाद में विश्वास रखने वाले व्यक्ति को सही संकेत नहीं देता है।

    मौजूदा जांच की बारीकियों पर अगर बात करें तो हम जांच कमेटी के निष्कर्षों का केवल तुक्का लगा सकते हैं। डा. स्नेहसाटा और डा. मनोज कुमार को दोषी बनाए जाने की पूरी संभावना है। जैसा कि कार्य प्रणाली दिखाती है- उनसे स्क्रिप्ट में मौजूद इन्वर्टेड कौमा के लगाए जाने और न लगाए जाने तक के बारे में सवाल किए गए हैं, उन्हें बताया कि वह किसी लघुकथा को नाटक में परिवर्तित कर पाने में सक्षम नहीं हैं, उनसे यह नाटक किए जाने से पहले कहानी के लेखक से अनुमति न लेने के बारे में पूछा गया जबकि वह इस बात से बिल्कुल अंजान हैं कि दिवंगत लेखिका इस कहानी को नाटक के रूप में दिखाते समय उसे समकालीन परिस्थितियों से जोड़ सकने की क्षमता की तारीफ करने वाली पहली व्यक्ति होतीं। ........

    एक जांच दल के तौर पर हम मानते हैं कि यह हमारा काम है कि हम आपको बताएं कि न सिर्फ दो अध्यापक, जिनकी बहादुरी और न दबना हमने देखा और कुछ छात्र जांच के तहत आते हैं, बल्कि सभी महाश्वेता देवियां, सभी द्रौपदी महाजन और सभी जनवादी लोग अभियोगाधीन हैं। शैक्षणिक और राजनीतिक आजादी, न्याय-संविधान के तहत आने वाले सभी सशक्त मूल्य अभियोगाधीन हैं।

हमारी सिफारिशें निम्न हैं-

1. इस जांच को पूरी तरह से निरस्त किया जाए।

2. कारण-बताओ नोटिस प्राप्त अध्यापकों की दोषमुक्ति।

3. हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय का जनवादीकरण जो कि सभी मुद्दों पर आलोचनात्मक दृष्टि रख सकने की शैक्षणिक और राजनीतिक आजादी को संभव बनाएगा।
 
साभार नागरिक
अंक : 16-31 Dec, 2016 (Year 19, Issue 24)


Monday, 19 December 2016

      महान अक्टूबर समाजवादी क्रान्ति जिन्दाबाद


महान अक्टूबर समाजवादी क्रांति शताब्दी वर्ष के मौके पर क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन ,परिवर्तन कामी छात्र संगठन , इंक़लाबी मज़दूर केंद्र प्रगतिशील महिला एकता केंद्र ने संयुक्त रूप से शताब्दी वर्ष में इस क्रांति की उपलब्धियों,क्रांतिकारी राजनीति , विचारधारा को समाज में  प्रचारित करने व आत्मसात करने  का संकल्प लिया है । इसके तहत एक पुस्तिका व पर्चे के जरिये अभियान चलाया  जा रहा है।  सेमीनार , गोष्ठियों का आयोजन भी किया जा रहा है। इस दौरान संयुक्त तौर पर आम जनता के बीच "ये सर्जीकल स्ट्राइक काले धन  नहीं देश की मेहनतकश जनताके खिलाफ है"  शीर्षक से एक पर्चे का अभियान घऱ घर लोगों से बातचित करते हुए बांटा गया। 
  शांति- रोटी- आज़ादी के नारे के साथ किस प्रकार जनता को बोल्शेविक पार्टी द्वारा लामबंद किया गया तथा मज़दूर वर्ग के अगुवाई में पहले फरवरी क्रांति और फिर अंततः: अक्टूबर में समाजवादी क्रांति को अंजाम दिया गया । यह लोगो को बताया गया । समाजवादी क्रांति ने फिर जिन कार्यभारों को संपन्न किया क्रांति के बाद  किन किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा , और लगभग  चार दशक तक इसने जिन ऊंचाइयों को छूआ यह बताने की कोशिश की गयी। पहले  चरण में अभियान में प्रचार गोष्ठी व सेमिनार का आयोजन किया गया ।
   हरिद्वार   , रुद्रपुर  , बरेली ,मऊ सेमिनार का आयोजन किया गया।

काकोरी के शहीदों की स्मृति में

                  काकोरी के शहीदो की स्मृति में 


आज से लगभग 100 साल पहले इस इसी दिसंबर माह के तीसरे हफ्ते ब्रिटिश शासको के खिलाफ संघर्ष करने वाले 4 नौजवानों को फांसी दे दी गयी। ये नौजवान थे अशफाक उल्ला खां, रामप्रसाद बिस्मिल, राजेंद्र लाहिरी तथा रोशन सिंह।
हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएसन के दस सदस्यों ने देश की आज़ादी के लिए प्रसिद्द काकोरी घटना को अंजाम दिया । मकसद था - ट्रेन में जा रहे पैसे को लूटकर देश को आज़ाद कराने के लिए हथियार हासिल करना और फिर हथियारबंद संघर्ष करना ।
 लेकिन आज़ाद भारत का उनका सपना  कोंग्रेस का जैसा नहीं था जो कि पूंजीपतियों व जमींदारों की आवाज को बुलंद करती थी। ये नौजवान आदर्शवादी थे । साम्राज्यवादी गुलामी से ये नफरत करते थे । समाजवाद से भी प्रभावित थे । देश की मज़दूर मेहनतकश अवाम के पक्ष में विचारा  करते थे।
ये धार्मिक थे लेकिन सांप्रदायिक नहीं थे । धर्म को इंसान का व्यक्तिगत मसला मानते थे। एक ही संगठन में एक आदर्श के लिए बलिदान देकर धार्मिक एकता की अद्भुत मिसाल भी इन्होंने  पेश की। बिस्मिल-असफाक की जोड़ी विशेष तौर पर इसका प्रतीक है।
आज के दौर में जब हमारे शासक एक तरफ साम्राज्यवादी मुल्कों के साथ तमाम तरीके के समझौते कर रहे है और दूसरी ओर देश के भीतर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को तेज करके अपने फासीवादी आंदोलन को आगे बढ़ाते जा रहे है तब इसे दौर में काकोरी के शहीदों का महत्व कई कई गुना बढ़ जाता है ।

चुनाव की आड़ में बिहार में नागरिकता परीक्षण (एन आर सी)

      चुनाव की आड़ में बिहार में नागरिकता परीक्षण (एन आर सी)       बिहार चुनाव में मोदी सरकार अपने फासीवादी एजेंडे को चुनाव आयोग के जरिए आगे...