काकोरी के शहीदो की स्मृति में
आज से लगभग 100 साल पहले इस इसी दिसंबर माह के तीसरे हफ्ते ब्रिटिश शासको के खिलाफ संघर्ष करने वाले 4 नौजवानों को फांसी दे दी गयी। ये नौजवान थे अशफाक उल्ला खां, रामप्रसाद बिस्मिल, राजेंद्र लाहिरी तथा रोशन सिंह।
हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएसन के दस सदस्यों ने देश की आज़ादी के लिए प्रसिद्द काकोरी घटना को अंजाम दिया । मकसद था - ट्रेन में जा रहे पैसे को लूटकर देश को आज़ाद कराने के लिए हथियार हासिल करना और फिर हथियारबंद संघर्ष करना ।
लेकिन आज़ाद भारत का उनका सपना कोंग्रेस का जैसा नहीं था जो कि पूंजीपतियों व जमींदारों की आवाज को बुलंद करती थी। ये नौजवान आदर्शवादी थे । साम्राज्यवादी गुलामी से ये नफरत करते थे । समाजवाद से भी प्रभावित थे । देश की मज़दूर मेहनतकश अवाम के पक्ष में विचारा करते थे।
ये धार्मिक थे लेकिन सांप्रदायिक नहीं थे । धर्म को इंसान का व्यक्तिगत मसला मानते थे। एक ही संगठन में एक आदर्श के लिए बलिदान देकर धार्मिक एकता की अद्भुत मिसाल भी इन्होंने पेश की। बिस्मिल-असफाक की जोड़ी विशेष तौर पर इसका प्रतीक है।
आज के दौर में जब हमारे शासक एक तरफ साम्राज्यवादी मुल्कों के साथ तमाम तरीके के समझौते कर रहे है और दूसरी ओर देश के भीतर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को तेज करके अपने फासीवादी आंदोलन को आगे बढ़ाते जा रहे है तब इसे दौर में काकोरी के शहीदों का महत्व कई कई गुना बढ़ जाता है ।
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