Wednesday, 27 December 2023

काकोरी के शहीदों की स्मृति में

                काकोरी के शहीदों की स्मृति में

                अशफ़ाक़-बिस्मिल की राह चलो !

               राम प्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़ उल्ला खाँ, दोनों ही काकोरी के शहीद हैं। काकोरी के ये शहीद, हिंदुस्तान प्रजातांत्रिक संघ (एच.आर.ए) के सदस्य थे। इस संगठन का मकसद था- अंग्रेजी गुलामी से पूर्ण आज़ादी तथा देश को 'धर्मनिरपेक्ष गणतांत्रिक संघ' बनाना, जहां हर तरह के शोषण का खात्मा हो।

         इन शहीदों ने, काकोरी में ट्रेन में जनता की लूट खसोट से इकट्ठे ब्रिटिश खजाने पर कब्जा किया। मगर बाद में सभी पकड़े गए। अंग्रेज़ सरकार ने राजेंद्र लाहिड़ी, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़ उल्ला और रोशन सिंह को 17 और 19 दिसम्बर 1927 को फांसी दे दी।

       इस शहादत ने आज़ादी के आंदोलन को लहरों की तरह आगे बढ़ाया और भगत सिंह जैसे नायक पैदा हुए। देखते ही देखते अकूत शहादतों के 20 सालों बाद देश आज़ाद हो गया।

        यह साल, काकोरी के शहीदों की शहादत का 96 वां साल है। सवाल है कि क्या जो सपना अशफ़ाक़-बिस्मिल जैसे काकोरी के शहीदों का था; वह हासिल हुआ ? क्या भारत को धर्मनिरपेक्ष और गणतांत्रिक संघ बनाने का उनका लक्ष्य हासिल हुआ; जहां मजदूर, किसान हर आम नागरिक को बराबरी का अधिकार हो, जहां किसी भी प्रकार शोषण ना हो? नहीं। गोरे अंग्रेजों की गुलामी से आज़ादी जरूर हासिल हुई।

        बिस्मिल कट्टर आर्य समाजी हिंदू थे और अशफ़ाक़ मुस्लिम। दोनों ने कभी भी धर्म को राजनीतिक जीवन में नहीं घुसने दिया। दोनों के लिए धर्म और धार्मिक मामले बिल्कुल निजी थे, केवल घर तक सीमित थे जबकि राजनीति और सामाजिक मामलों में धर्म के लिए कोई जगह नहीं थी। दोनों का मकसद एक समान था। दोनों साथ-साथ जिये, साथ-साथ ही शहीद हुए। दोनों के लिए जलियांवाला बाग के शहीद मिसाल थे। यहां भी हिन्दू-मुस्लिम-सिख जनता ने एक साथ अंग्रेज सरकार गोलियां खाई और शहीद हो गए थे।

       शहीदों के संघर्ष से अंग्रेजी गुलामी से आज़ादी मिली, कुछ अधिकार भी जनता को जरूर मिले मगर धर्मनिरपेक्ष व गणतांत्रिक संघ का सपना पूरा नहीं हुआ। गोरे अंग्रेजों की जगह अब काले अंग्रेजों ने ले ली। पूंजीपति और बड़े बड़े जमींदार देश के नियंता बन गए। यही काले अंग्रेज देश के नए शासक थे। यहां जनता को अपने अधिकारों के लिए बार-बार सड़कों पर उतरना पड़ा। मजदूरों, किसानों, कर्मचारियों, बेरोजगार नौजवानों व अन्य मेहनतकश हिस्सों को, अपनी जिंदगी की बेहतरी के लिए बार बार संघर्ष करना पड़ा।

      हिंदू-मुस्लिम एकता की जो मिसाल राम प्रसाद बिस्मिल और अशफ़ाक़ उल्ला ने पेश की थी, इस मामले में आज हालात क्या हैं? आज राजनीति पूरी तरह धर्म की चाशनी में डूबी हुई  है। धर्म निजी मामला नहीं रह गया है यह सड़कों, संसदों और राजनीति में प्रदर्शन करने की चीज बन गयी है। यह डराने, धमकाने और शासकों के आतंक के राज को कायम करने का जरिया है। धर्म आज के शासकों का सबसे खतरनाक हथियार है। जनता की एकता और ताकत को खत्म करने में यह सबसे कारगर चीज है। एक ओर मोदी सरकार और भाजपा है जो खुलकर यह काम कर रही है तो दूसरी तरफ कांग्रेस या अन्य राजनीतिक पार्टियां है जो कम या ज्यादा मात्रा में धार्मिक प्रतीकों और धर्म का इस्तेमाल कर रही हैं। 

      मोदी सरकार और भाजपा हिंदू राष्ट्र के रथ पर सवार है। एक ओर इस हिंदू राष्ट्र के झंडे के नीचे करोड़ों बेरोजगार नौजवान, न्यूनतम मजदूरी को तरसते करोड़ों मजदूर और महंगाई से त्रस्त करोड़ों लोग हैं रोज ब रोज यौन हिंसा की शिकार महिलाएं हैं जो हताश-निराश हैं, बेचैन हैं और घुट-घुट कर जीने को मजबूर हैं तो वहीं दूसरी तरफ हिंदू राष्ट्र के नाम पर दिन-रात तेजी से दौलत बटोरते, मुट्ठी भर अरबपति हैं जिनकी दौलत की हवस बढ़ती ही जा रही है ये हर तरह से सुरक्षित हैं सरकार इनकी सेवा में दिन-रात मुस्तैद है। इसी को कुछ लोग 'ब्रिटिश राज से अरबपतियों का राज' भी कह रहे हैं।

         हकीकत यही है। यह पूंजीपतियों का राज है। यही देश के मालिक हैं। शासन-प्रशासन और सरकार इन्हीं की है। इन्हीं के मुनाफे के हिसाब से सारी योजनाएं बनती हैं नीतियां बनती हैं। यह पूंजीवाद है। 

          इसीलिए 4-5 सालों में, एक तरफ  अरबपतियों की संख्या के मामले में, भारत दुनिया में तीसरे न. पर पहुंच गया है तो दूसरी तरफ भुखमरी में, भारत विश्व गुरु बनने की कगार पर है। हालत यह है कि एक ओर देश के 10 टॉप पूंजीपतियों की रोज की औसत कमाई करीब 300 करोड़ रुपये है तो दूसरी ओर देश के करोड़ों लोग हैं जिनकी रोज की कमाई ही इतनी कम है कि वे जैसे-तैसे गुजर-बसर करते हुए सरकारी राशन पर जिंदा भर हैं। 

        बात इतनी ही नहीं है यह भी है कि कर (टेक्स) का बहुत बड़ा बोझ आम जनता के कंधों पर डाला जा रहा है यह बढ़ता ही जा रहा है। साल 2022 में सरकार ने जी.एस.टी से ही 14.83 लाख करोड़ रुपये टेक्स वसूल कर लिए। इसमें देश के ऊपर के 10 प्रतिशत अमीर लोगों का हिस्सा केवल 3 प्रतिशत था जबकि नीचे की 50 प्रतिशत जनता से 64 प्रतिशत हिस्सा वसूला गया है।

        यह भयंकर लूट-खसोट, शोषण और असमानता समाज को बड़े विस्फोट की ओर धकेल रही है। कुछ-कुछ वैसा ही विस्फोट, जैसा श्रीलंका, बांग्लादेश और कई देशों में हुआ या जैसा अंग्रेजी राज में हुआ था। 

        अंग्रेजों के राज में लूट-खसोट, जुल्म-सितम से जनता त्रस्त थी। इस गुलामी और लूट खसोट से मुक्ति के लिए जनता ने बार-बार संघर्ष किये, बगावतें की। तब 'हिंदू-मुस्लिम-सिख' जनता ने एकजुट होकर संघर्ष किये। यह एकता अंग्रेज शासकों के लिए खतरा थी। 

         अंग्रेज सरकार ने धर्म का भयंकर इस्तेमाल किया। धार्मिक कट्टरपंथी संगठनों को पाला पोसा। ये मुस्लिम लीग, हिंदू महासभा, संघ, अकाली दल जैसे संगठन थे। इस तरह अंग्रेज शासकों ने जनता को धर्मों में उलझाया, बांटा और लड़ाया। इसके खिलाफ अशफ़ाक़-बिस्मिल जैसे हज़ारों हज़ार नौजवानों ने आवाज उठाई। आज़ादी के आंदोलन को आगे बढ़ाया। एक ओर कुर्बानियां हुई तो दूसरी ओर संघर्ष आगे बढ़ता गया। आजादी तो हासिल हो गयी मगर काले अंग्रेजों, देशी पूंजीपतियों का राज आ गया। अब तो यह बात शायद ही किसी से छुपी हुई हो। यह इतना साफ है कि कोई मोदी सरकार को 'कॉरपोरेट सरकार' कहता है तो कोई 'अडानी-अंबानी' की सरकार।

          हमें पाठ पढ़ाया जा रहा है कि ये पूंजीपति ही हैं ये पूंजी (पेंसा) लगाते हैं दौलत पैदा करते हैं फैक्ट्रियां खोलते हैं लोगों को रोजगार देते हैं और देश का विकास करते हैं। क्या यह सच है ? नहीं। वास्तव में यह बिल्कुल फर्जी बात है।

            हकीकत इसके ठीक उलटी है।  प्रकृति के बाद यह इंसान का श्रम ही है जो हर चीज का निर्माण करता है। देश के करोड़ो करोड़ मजदूरों मेहनतकशों का श्रम ही है जो  दौलत पैदा कर रहा है हर चीज का निर्माण कर रहा है। मगर सारे संसाधनों के मालिक पूंजीपति हैं ये इसे हथियाकर मालामाल हो रहे हैं। इन्हें तरह-तरह से टेक्स में छूट है बिजली में छूट है; जमीनों कौड़ी के मोल दी जाती है और मजदूरों के श्रम की लूट की छूट है। ये बैंकों का कई लाख करोड़ रुपये कर्ज डकार जाते हैं। इसके अलावा सरकारी खजाना इन पर तरह-तरह से लुटाया जाता है इस तरह पूंजीपति करोड़पति से अरबपति फिर खरबपति बनते हैं। 

         इसका क्या नतीजा होता है? वही जो देश मे हो रहा है। एक ओर भयानक  असमानता, भयानक बेरोजगारी तो दूसरी ओर ऊंची महंगाई। एक ओर जनता के सामने भयानक आर्थिक-सामाजिक असुरक्षा, बढ़ती आत्महत्याएं और मानसिक बीमारियां तो दूसरी तरफ नशाखोरी, हिंसा और अपराध। यह स्थिति असन्तोष और गुस्से को बढ़ाती है जनता को बगावत (विद्रोह) की ओर धकेल देती है। जैसा कि कई देशों में हो रहा है। जैसा कि आज़ाद भारत में इंदिरा गांधी की सरकार के दौरान हुआ और इससे पहले अंग्रेज शासकों के खिलाफ हुआ था।

           जनता के इस असन्तोष और गुस्से को ठंडा करने का एक ही उपाय शासकों के पास है। वही उपाय जो अंग्रेजों ने किया था, जो हिटलर ने किया था। यह उपाय है - धर्म के नाम पर नफरत और उन्माद पैदा करो; जनता को बांटो और लड़ा दो। 'हिंदू राष्ट्र' बनाने के नाम पर यही हो रहा है। 'हिंदू-मुस्लिम' 'मंदिर-मस्जिद' की राजनीति इसीलिए है। 'हिंदू राष्ट्र' का नारा अडानी-अम्बानी जैसे कॉरपोरेट पूंजीपतियों की सेवा करता है इनका मुनाफा बढ़ाता है जबकि मजदूरों, किसानों, बेरोजगार नौजवानों और छोटे मझौले कारोबारियों को कंगाल बनाता है और कुचलता है। इस तरह ये हिंदू फासीवाद यानी आतंक का तानाशाही वाला राज कायम करना चाहते हैं।

         इसलिए, ऐसे दौर में जरूरी है कि काकोरी के शहीदों को याद किया जाय। इनकी विरासत को आगे बढ़ाया जाय। धर्म के नाम पर उन्माद और नफरत की राजनीति के खिलाफ आवाज उठाई जाय।

                       


           

        

      

        

        

           

          

         

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