जनवादी अधिकारों के लिए संघर्षशील व साम्राज्यवाद विरोधी क्रांतिकारी संगठन
Friday, 28 December 2012
Tuesday, 25 December 2012
woman question
पुरुष प्रधान मानसिकता, अश्लीलता व यौन हिंसा परोसने वाले
नाटकों,
साहित्य, फिल्मों व इंटरनेट साईटों को
तत्काल प्रतिबंधित करो! ऐसी घटिया व पतित सामाग्री के प्रचारकों ,प्रसारकों और निर्माताओं को
जेल में डालो !! 16 दिसम्बर की रात लगभग
10 बजे दिल्ली के व्यस्ततम इलाके में जब एक युवक-युवती बस में बैठ कर घर की ओर प्रस्थान कर रहे थे तब बस में ही दोनों को
बेरहमी से पीटने के बाद लड़की के साथ दुराचार किया गया और फिर डेढ़ घंटे बाद इसी
हालत में चलती बस से सड़क पर फैंक दिया गया। युवती अब सफदरजंग अस्पताल में मौत से
जूझ रही है।
दिल्ली जो देश की सत्ता का केन्द्र है जहां एक ओर कॉंग्रेस के नेतृत्व में
राज्य सरकार चल रही है तो वहीं कॉग्रेस के ही नेतृत्व में केन्द्र सरकार चल रही
है। एक ओर मुख्य मंत्री शीला दिक्षित महिला हैं तो दूसरी ओर लोक सभा अध्यक्ष मीरा कुमार
व खुद कॉग्रेस की अध्यक्षा सोनिया गांधी महिला है
विभिन्न खुफ़िया एजेन्सियां व सशस्त्र बल राजधानी की सुरक्षा में हर वक्त
मुस्तैद रहते हैं। लेकिन उसके बावज़ूद भी महिलाएं असुरक्षित हैं। आये दिन महिलाऒं
के साथ ऐसे हादसे होते रहते हैं। ऐसा नहीं कि यह कोइ पहली या अब आखिरी घटना हो।
इस घटना के तत्काल बाद ही मीडिया को जैसे कोई मसाला मिल गया हो वह इसे सनसनीखेज बनाकर अपनी टी.आर.पी बढ़ाने की जुगत में लगा हुआ है। क्या अखबार क्या टी.वी. खबरिया चैनल अधिकांशतया सभी के संपादक, संवाददाता या फ़िर सांसद, विधायक या शासक वर्ग के अन्य लोग जिसे भी मौका मिल रहा है अधिकांश चिल्ला चिल्ला कर कह रहे है ये “वहशी दरिन्दे” हैं इन्हें “फ़ांसीं” दे देनी चाहिये या फ़िर “नपुसंक” बना देना चाहिये।यानी एक बार फ़िर “सख्त कानून - कठोर कानून” की बातें। और अब बसों में सीसी टीवी लगाने की बात कही जा रही है “अच्छा इन्तजाम है कैमरे बिकवाने का”।
इस घटना के तत्काल बाद ही मीडिया को जैसे कोई मसाला मिल गया हो वह इसे सनसनीखेज बनाकर अपनी टी.आर.पी बढ़ाने की जुगत में लगा हुआ है। क्या अखबार क्या टी.वी. खबरिया चैनल अधिकांशतया सभी के संपादक, संवाददाता या फ़िर सांसद, विधायक या शासक वर्ग के अन्य लोग जिसे भी मौका मिल रहा है अधिकांश चिल्ला चिल्ला कर कह रहे है ये “वहशी दरिन्दे” हैं इन्हें “फ़ांसीं” दे देनी चाहिये या फ़िर “नपुसंक” बना देना चाहिये।यानी एक बार फ़िर “सख्त कानून - कठोर कानून” की बातें। और अब बसों में सीसी टीवी लगाने की बात कही जा रही है “अच्छा इन्तजाम है कैमरे बिकवाने का”।
चीख -चीख कर पर्दे के आगे बलात्कार के लिये “कठोर
कानून बनाने ” “फ़ांसी देने” “नपुसंक
बनाने” की बात कही
जा रही है थोड़ा धूर्त लोगों द्वारा कहा जा रहा है कि “मानसिकता”
खराब है मानसिकता बदले बगैर समस्या हल नहीं होगी। ड्राइवरों की
वेरिफ़िकेसन कराने की बात व गाडियों में काले शीशे पर रोक लगाने की बात कही जा रही
है। ऐसी घटनाओं को रोकने के लिये कई लोगों का तर्क है कि महिलाओं को इतनी रात
में नहीं घूमना चाहिए खुद दिल्ली की मुखिया शीला दीक्षित भी ऐसा ही फ़रमाती हैं ।
या यह नहीं करना चाहिए और वह नहीं करना चाहिए.... वगैरह, वगैरह। सवाल यह है कि
महिलाओं के लिए ही यह अघोषित कर्फ़्यू क्यों? महिलाओं पर ही पाबंदी क्यों?सवाल यह है कि संविधान में
लिंग के आधार पर समानता व स्वतनत्रता के आधार पर अधिकार दिये जाने व वादा किये जाने
के बावज़ूद आज लगभग ६ दशकों बाद भी यह स्थिति क्यों ?.. महिलाओं की दोयम दर्जे की स्थिति व महिलाओं के प्रति
इस प्रकार बढ़्ते अपराधों के बावज़ूद किस आधार पर हमारे शासक “महिला सशक्तिकरण” का राग अलापते रहते हैं...?.. .सवाल आगे यह है कि जिस देश की शासन सत्ता को चलाने वाले लोगों में भी कुछ
ऐसे ही ‘अपराधी’ लोग शुमार हों, जिस देश की हुकुमत या पुलिस
प्रशासन व फ़ौज “बलात्कार” को
टॉर्चर के बतौर व जनता के आन्दोलनों के
दमन के लिये इस्तेमाल करती रहती हो ... और देश के पुर्वोत्तर
व कश्मीर में इन “बलात्कारियों”
को जब “डिस्टर्ब एरिया ऎक्ट” “सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून”के नाम पर कोर्ट में
भी चुनौति नहीं दी जा सकती हो .. तो फ़िर क्या “बलात्कार” जैसी घटनाओं को रोका जा सकता है। मणीपुर
में आसाम राइफ़ल्स के जवानों द्वारा किया गया मनोरमा देवी बलात्कार हत्याकाण्ड व
इसके विरोध में यहां की महिलाओं का “भारतीय सैनिको हमारा
बलात्कार करो” के नारे के साथ सेना के कार्यालय के सामने
किया गया नग्न प्रदर्शन। कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर भारत उत्तराखण्ड आन्दोलन में “मुजफ़्फ़र
नगर काण्ड” यह हर जगह का सच है .... क्या इसे भूलाया जा सकता है .. ? इस बात को क्या हमें भूल जाना चाहिये कि चाहे बस में या फ़िर किसी अन्य
स्थान पर या फ़िर आन्दोलन् के दमन में बलात्कार की शिकार होती हैं आम तौर पर आम
मेहनतकश महिलाएं ही। हर समस्या का समाधान “कानून के चश्मे” से देखने वाले लोग फ़रमाते है कि “कठोर कानून व इसका
अनुसरण” ही इसका समाधान है कानून का हश्र तो हम देखते ही
रहते हैं। यह शासक वर्ग के साथ एक तरह का व्यववहार करता है और आम जनता के साथ ठीक
उसका उल्टा। इसके अलावा यदि कानून कठोरता से लागू हो भी गया तो भी यह ‘मात्र सजा देने’ का काम कर पाएगा। क्या यह कानून उस
सोच को खत्म कर पाएगा जिस सोच के अनुसार महिलाएं केवल “शरीर
हैं, माल
हैं,उपभोग की वस्तु हैं” जिसे जब चाहा रौंदा? विरोध हुआ तो हत्या कर दी। जिसके लिए
महिलाओं का कोई स्वतंत्र वजूद ही नहीं वह तो बस पैर की जूती है... कदापि नहीं। यह कानून उनसे कैसे निपटेगा जो कि समाज में ऐसा जहर फ़ैला रहे है। जब “अश्लीलता” “यौन हिंसा”
व “पुरुष प्रधान मानसिकता” का जहर पूरे समाज में फ़ैलाया जा रहा हो। समाज में “शीला
की जवानी” “मुन्नी बदनाम हुई” आदि -आदि जैसे अश्लील व घटिया गाने आम हो चुकें हों इनके खिलाफ़ नफ़रत के बजाय
लोग इनसे आनन्द उठाते हों। गली-गली में “उत्तेजक दिखने की” सौन्दर्य प्रतियोगितायें आयोजित
हों।‘उत्तेजक कहलाने में फ़क्र महसूस करवाया” जा रहा हो। समाज में “उत्तेजक दिखने” व “हिसंक दिखने
-होने ” को ग्लैमराइज किया जा रहा हो
तब कैसे उम्मीद की जा सकती है कि महिलाओं के प्रति अपराध नहीं होंगे इसके उल्टे यह
तो और ज्यादा तेजी से बढ़ेंगी। इस प्रकार की फ़िल्मों, विग्यापनों नाटकों को करने
वाले लोग जो कि शासक वर्ग के ही लोग हैं जो ‘नग्नता’
‘हिंसा’ आदि-आदि का प्रदर्शन कर जिन्दगी का
लुत्फ़ उठाते हैं समाज में ऐसा ही करने का संदेश देते हैं चूकीं ये तो सुरक्षा की चारदिवारियों में हर वक्त मौजूद रहते हैं और
फ़िर इसका शिकार होती है आम महिलाएं।
महिला अपराधों को अंजाम देने वाले
अपराधियों को दण्डित करना चाहिये लेकिन सवाल यह है कि इन्हीं को “बहसी दरिन्दे” या मानवता के सबसे बढ़े अपराधी के रूप
में चित्रित करके इन्टर्नेट पर पोर्न सामाग्री डालने वालों “अश्लीलता
व यौनहिंसा” व पुरुष वर्चस्ववादी सोच को परोसने वाली फ़िल्मों
नाटकों आदि के निर्माताओं या ‘असली अपराधियों’ को सजा क्यों नहीं दी जाती..? क्यों नहीं समाज में ऐसी
मानसिक विकृति को पैदा करने ऐसे अपराधियों को पैदा करने वाली घृणित व घटिया
सामाग्री को प्रतिबन्धित किया जाता..?
क्या
इसीलिये कि इस पर अरबों खरबों का कारोबार टिका हुआ है। इस पर अंगूली रखते ही सवाल
फ़िर पूरे तन्त्र पर आयेगा। सवाल फ़िर पूंजीवाद व्यवस्था पर होगा जिसके मुनाफ़े का
दर्शन उस हर चीज को “माल” में “उपभोग की वस्तु”
में बदल देता है जिसे बाज़ार में बेचकर मुनाफ़ा कमाया जा सकता है। साथ
ही हर नागरिक को ‘उपभोक्ता’ में बदलकर
समाज में ‘उपभोक्ता वादी सोच’ को बढ़ावा
देता है “खाओ-पीओ-मौज करो” की संस्कृति को समाज में फ़ैलाकर समाज में “असंवेदनशीलता
व खुदगर्जी” को बड़ा रहा है। हकीकत यह है
कि भारत सरकार व इसका समस्त ‘शासन प्रशासन आम महिलाओं के
प्रति बेहद असंवेदनशील है। अपने वर्ग की महिलाओं के मामले में यह तत्काल सक्रिय हो
जाता है वहीं दूसरी ओर आम महिलाओं के मामले में इसका ठीक उल्टा। अलग-अलग वर्गों के
हिसाब से यह व्यवहार करता है मध्यम वर्ग के साथ एक व्यवहार तो मज़दूर वर्ग व गरीब
मेहनतकश के साथ तो बेहद घटिया व उसे बिल्कुल भी तवज्जो नहीं देना अपमानित व
तिरष्कृत करने की सोच। इसके साथ ही यहां बैठे अधिकांश लोग भी इन्हीं पुरुष प्रधान
मानसिकता व पूंजीवादी उपभोक्तावादी सोच जैसी मूल्य मान्यताओं से ग्रसित हैं। यही
एक कारण भी है कि ‘महिला आरक्षण बिल’ आज
भी लटका हुआ है। इसके अलावा यह भी कारण है कि इस घृणित महिला विरोधी सोच को पाल-पोस कर बढ़ावा देकर, इस लूट व ‘शोषण पर टिके पूंजीवादी समाज को ये बचाए रखना चाहते हैं।
इसलिये महिलाओं के खिलाफ़ बढ़ रहे इस प्रकार के अपराधों को खत्म करने का
संघर्ष बगैर पूंजीवादी व्यवश्था को अपने निशाने पर लिये आगे नहीं बढ़ सकता है।
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