Saturday, 19 May 2018

कर्नाटक चुनाव, भाजपा, कांग्रेस और लोकतंत्र

    कर्नाटक चुनाव, भाजपा,  कांग्रेस और लोकतंत्र
             
        कर्नाटक चुनाव में पिछले चुनावों की ही तरह मोदी व शाह की जोड़ी ने बहुत कुछ दांव पे लगाया। सही कहा जाए तो इस चुनाव में मोदी-शाह की जोड़ी ने भ्रष्ट रेड्डी बंधु से हाथ मिलाया, भ्रष्ट येद्दयुरप्पा को मुख्य मंत्री का उम्मीदवार बनाया यही नहीं प्रधानमंत्री ने फिर ऐतिहासिक तथ्यों से मनमाना खिलवाड़ किया साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की हर कोशिश की और चुनाव प्रचार बन्द होने के बावजूद अंतिम दिन नेपाल से प्रचार करने का दांव भी चला। शाह ने 130 सीट जीतने का दावा भी किया। लेकिन इस सबके बावजूद भी बहुमत भाजपा को हासिल नहीं हुआ। वोट प्रतिशत के लिहाज से 36.2% के साथ पार्टी दूसरी नंबर पर थी तो सीट के हिसाब से 104 सीटों के साथ पहले नम्बर पर।
             जहां तक  कॉंग्रेस का सवाल है उसने भी बहुमत हासिल करने का दावा किया था हालांकि वोट प्रतिशत के लिहाज (38%) पहले नंबर पे रही तो सीटों के लिहाज से 78 सीटों के साथ दूसरे नंबर पर। कांग्रेस पार्टी कभी भी धर्मनिरपेक्ष नहीं रही नरम हिदुत्व की नीति पर वह चलती रही है। इस चुनाव में भारतीय फासीवादियों के उग्र हिंदुत्व के जवाब में गुजरात से आगे बढ़ते हए कांग्रेस नरम हिंदुत्व पर खुल कर खेलने लगी। वह मठों व मन्दिरों के चक्कर जमकर लगाने लगी। फ़ासीवादी ताकतों का जवाब कांग्रेस ऐसे ही दे सकती है इस नरम हिन्दुत्व की परिणति देर सबेर उग्र हिंदुत्व में ही होनी है।
            आज के जमाने में जब पूंजीवाद का वैश्विक संकट गहन हो रहा हो शासक वर्ग दुनिया भर में प्रतिक्रियावादी ताकतों व दक्षिणपंथी ताकतों का आगे कर रहा हो खुद मध्यमार्गी पार्टी इस दिशा में ढुलक रही हो तो फिर अपने देश में इस पर अचरज कैसा। कांग्रेस की दिशा भी अब यही है। इतना तो स्पष्ट है कि एकाधिकारी पूंजी अब अपनी इस पार्टी के पतन पर ब्रेक लगाने को उत्सुक है। उसकी यह उत्सुकता एक वक़्त के "पप्पू" की गंभीरता व खुद को प्रधानमंत्री के बतौर प्रोजेक्ट करने में दिखती है। यह चुनाव के बाद घटे घटनाक्रम में और भी ज्यादा साफ है कॉंग्रेस की भाजपा के मुंह से जीत छीन लेना यूं ही नही है।
           कर्नाटक चुनाव को 2019 के मोदी के लिटमस टेस्ट की तरह भी प्रस्तुत किया जा रहा था। इतना तो स्पष्ट है कि चुनाव दर चुनाव के आंकड़े दिखाते है कि मोदी की लोकप्रियता का ग्राफ या मोदी पर भरोसे का ग्राफ गिर रहा है लगभग 6%--10% की गिरावट है। कर्नाटक चुनाव में लोक सभा चुनाव की तुलना में लगभग 7%, की गिरावट है। अब कर्नाटक में सत्ता हाथ से जाने के बाद तय है कि साम्प्रदायिक उन्माद को अब और ज्यादा उग्र होकर आगे बढ़ाया जाएगा। सम्भावना इसकी ज्यादा है कि यह गुजरात की तर्ज पर हो राम मंदिर, अंधराष्ट्रवाद आदि के अलावा यह प्रधानमंत्री यानी मोदी के आतंकवादियों द्वारा मारे जाने की फर्जी खबरों की बाढ़ व गिरफ्तारियों के रूप में हो सकता है।
           खैर कर्नाटक में चुनाव के बाद जो स्थिति बनी जिसमें भाजपा किसी भी कीमत पर सरकार बनाने के लिए बेचैन थी और राज्यपाल ने 15 दिन का समय बहुमत सिद्ध करने के लिए दिया था। यह गुजरे जमाने के कांग्रेस की याद दिलाने वाला था। तब कांग्रेस अपने विरोधियों की प्रांतीय सरकारों को गिराया करती थी । "नैतिकता व शुचिता" की बातें करने वाली भाजपा अब कहने लगी कि "राजनीति भी संभावनाओं की कला है"।इसके लिए विधायकों की खरीद के लिए जमकर कोशिश की गई। दूसरी ओर कांग्रेस ने जे डी एस से अवसरवादी गठजोड़ कर उसके नेता को मुख्यमंत्री घोषित कर सत्ता से भाजपा को बाहर करने के लिए जमकर मोर्चा लिया। अंततः येद्दयुरप्पा को इस्तीफा देना पड़ा। वे विधायको को ख़रीदने में असफल रहे।
            कांग्रेस इस जीत को अब लोकतंत्र की जीत कह रही है उनका लोकतंत्र सही मायने में है भी यही यानी पूंजीवादी लोकतंत्र। इस लोकतंत्र में पूंजीपति वर्ग की पार्टियां बारी बारी से जनता के बीच से चुनकर आकर उन पर शासन करती है। आम अवाम के ऊपर कुछ बेहद सीमित अधिकारों के रूप में यह पूंजीवादी तानाशाही के अलावा और कुछ नही है। अब कर्नाटक में सरकार चाहे किसी भी पार्टी की बने जनता के जीवन में कोई बदलाव तो आने से रहा। जहां तक फ़ासीवादी ताकतों से लड़ने का सवाल है यह कांग्रेस की न तो मंशा है न ही वह ऐसा कर सकती है।

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