बजट: जूता सूंघाकर मूर्च्छा तोड़ने कीकोशिश
बजट के दिन अजब-गजब नजारा था। संसद में वित्तमंत्री के बजट भाषण पर देश के प्रधानमंत्री मेज थपथपा रहे थे और शेयर बाजार में निवेशक अपनी छाती पीट रहे थे। अखबारों में बजट की भूरि-भूरि प्रशंसा और चैनलों में बजट की वाह-वाही के बीच आम आदमी पेट्रोल-डीजल के दाम में हुयी वृद्धि के बीच समझ नहीं पा रहा था कि बजट कैसा है।
वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने बजट भाषण से स्पष्ट कर दिया कि वह पूर्व वित्तमंत्रियों अरुण जेटली और पी चिदम्बरम से किसी मामले में कम नहीं हैं। शेरों-शायरी, उपमायें और किस्म-किस्म के बिम्बों से कैसे आम लोगां की आंखों में धूल झोंकी जाती है, उन्होंने इसका अच्छा उदाहरण पेश किया। और जो कसर बची थी उसे अगले दिन अखबारों ने पूरा कर दिया। ‘नारी तू नारायणी’ जैसे जुमले उछालकर बता दिया कि वह मोदी सरकार की काबिल मंत्रियों में है।
सच भले ही यह हो कि देश में कृषि क्षेत्र में तेज िंगरावट हो, औद्योगिक क्षेत्र मंदी की चपेट में हो पर मोदी सरकार यह सब्ज बाग दिखाती है कि 2024 तक भारत की अर्थव्यस्था 5 ट्रिलियन डालर की हो जायेगी। यानी आज की लगभग दुगुनी। और जब इस हवाबाजी की आलोचना शुरू हुयी तो आलोचकों की जुबान चुप कराने के लिए कहा गया कि वे ‘‘पेशेवर निराशावादी’’ हैं। और आलोचक पलटकर यह नहीं कह सके कि आप ‘‘पेशेवर लफ्फाजी’’ हैं और वित्तमंत्री ने आपकी शागिर्दी में यह हुनर बहुत जल्दी हासिल कर लिया है। वे भी अच्छी लफ्फाज बन गयी हैं।
सच भले ही यह है कि राजस्व घाटा बढ़ रहा है, निर्यात नीचे गिर रहा है। पूंजी निर्माण की दर निम्न है पर मोदी सरकार का दावा है कि भारत तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है। यह दीगर बात है मोदी सरकार के मंत्रियों और संघ-भाजपा के सूरमाओं के अलावा हर कोई इसका उल्टा महसूस करता हो। नामी गिरामी अर्थशास्त्रियों, पूंजीपतियों के अलावा सामान्य मजदूर भी महसूस करते हैं कि हालात ठीक नहीं है। आंकड़े बता रहे हैं कि बेरोजगारी चरम पर है, क्रय शक्ति घट गयी है, व्यापार ठण्डा है। आमदनी गिर गयी है।
यह सरकार राष्ट्रवाद की बात बहुत करती है। पर इस बजट में वित्तमंत्री के हाथ में कटोरा पकड़ने का पूरा जुगाड़ है। सरकार अर्थव्यवस्था में जान फूंकने के लिये विदेशों से कर्ज लेगी। यह कर्ज इसलिये लिया जायेगा ताकि भारत के भीतर कर्ज लेने वालों को दिक्कत न हो। क्योंकि सरकार के देश के भीतर से कर्ज लेने से देश के भीतर कर्ज वालों को दिक्कत होती है। ब्याज की दरें चढ़ जाती हैं। क्या गजब का तर्क है। सच्चाई यह है कि सरकार ने देश के भीतर की संस्थाओं का ढंग से दोहन कर लिया है और उसे और निचोड़ने की सम्भावना कम है। और सबसे बड़ी बात विदेशी संस्थाओं से ऋण से मतलब सरकार रामबाण औषधि समझती है। विदेशी संस्थाओं से ऋण से मतलब होता है कि सरकार की बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के लिये धन की उपलब्धता बने और उन कम्पनियों को यहां से मुनाफा कमाने का मौका मिले जो इस वक्त मंदी के दौर से गुजर रही हैं। फायदा देशी-विदेशी पूंजीपतियों और वित्तीय संस्थाओं का होगा पर कर्ज का मूल और सूद भारत के मजदूर-मेहनतकश चुकायेंगे। भारत को कर्ज जाल में फंसाना, क्या बढ़िया राष्ट्रवाद है।
यह राष्ट्रवाद तब-तब मजबूत होता है जब-जब विदेशी कम्पनियां इस देश में निवेश करती हैं। और लूट-लूट कर मोटा मुनाफा ले जाती हैं। यह राष्ट्रवाद बताता है कि लुटेरे फ्रांसीसी साम्राज्यवादियों की हथियार कम्पनी का राफेल लड़ाकू विमान देश की सुरक्षा के लिए कितना जरूरी है। और यह राष्ट्रवाद बताता है कि यह भी बहुत जरूरी है कि भारत के सैन्य अड्डों, बन्दरगाहों में अमेरिकी साम्राज्यवादियों की सेना घूमा करे। इस बजट में हथियारों की खरीद-फरोख्त आसानी से रूस, अमेरिका, फ्रांस जैसे लुटेरों साम्राज्यवादियों की कम्पनियों से हो सके इसका बड़ा प्रबंध किया गया है। इतने अनोखे ढंग से शायद ही कभी कोई देश इतिहास में मजबूत और सशक्त हुआ हो। पर भारत के राष्ट्रवादियों की हर बात अनोखी है। ऐतिहासिक है।
अपने पिछले कार्यकाल में मोदी सरकार ने अर्थिक सुधारों को जो गति दी, नोट बंदी की और जी.एस.टी. को लागू किया उसका नतीजा यह निकला कि देश के छोटे-मझौले उत्पादक यानी मुख्य तौर पर किसान, दस्तकार और छोटे व्यापारी और कारोबारी बरबाद होते गये। बरबादी को ये लोग महसूस न करें इसके लिये इन्हें राष्ट्रवाद का रासायनिक घोल पिलाया गया था पर फिर भी असर कहीं बीच में खत्म न हो जाये इसके लिये कुछ अन्य तरीके भी ईजाद किये गये। मसलन जब देश में एक तरफ कृषि व डीजल गैस आदि पर दी जाने वाली सब्सिडी व कर राहत खत्म कर दी गयी तो दूसरी तरफ प्रति वर्ष 6000रु किसानों की सहायता की घोषणा की गयी। यह राशि बरबाद होते किसानों को झूठा दिलासा देना है। ऐसा ही इस बजट में छोटे व्यापारियों को पेंशन देने की घोषणा के जरिये किया गया है। छोटे व्यापारी बड़ी-बड़ी रिटेल कम्पनियांं (ऑनलाइन सामान बेचने वाली, अमेजन फिलिप कार्ट कम्पनियां) की मार से बरबाद होते जा रहे हैं। बरबादी के शिकारों के लिये एक मामूली सी पेंशन। और उस पेंशन का भविष्य क्या होगा कोई नहीं जानता। ऐसी ही फर्जी पेंशन योजना चुनाव के ठीक पहले मजदूरों के लिए भी घोषित की गयी थी।
भारत को 5 ट्रिलियन डालर (343 लाख करोड़ रुपये) की अर्थव्यवस्था बनाने के लिये इस सरकार की अर्थिक नीतियां वही हैं जो पिछले तीन दशकों से चल रही हैं। निजीकरण के जरिये यह सरकार अपने राजस्व घाटे को पाटना चाहती है। रेलवे, एअर इण्डिया का निजीकरण इसके एजेण्डे पर है। साथ ही सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का विनिवेशीकरण और उनकी भू सम्पत्ति को रियल स्टेट की लुटेरू कम्पनियों को देकर यह पैसा कमाना चाहती है। रेलवे का निजीकरण पूरी दुनिया में कहीं भी आसान नहीं रहा है। यहां तक कि ब्रिटेन और फ्रांस में भी नहीं। पर मोदी सरकार की ऐसी घोषणायें, इरादे अर्थिक संकट से जूझती अर्थव्यवस्था में जान फूंकने में अब तक नाकाम रहे हैं। 2007-08 के बाद का दुनिया का ही नहीं भारत का इतिहास भी ऐसा ही है।
बाजार के लुटेरे निवेशकों की स्थिति यह है कि वे कोई भी रुकावट अपने मुनाफे में नहीं चाहते। वित्त मंत्री की कम्पनियों पर कुछ मामूली टैक्स की घोषणा का बाजार की भारी गिरावट द्वारा प्रति उत्तर दिया जायेगा, यह अनुमान उस्ताद और शागिर्द दोनों को नहीं था। बाजार की लुढ़कन ने बता दिया कि बजट लुटेरों को रास नहीं आया। लुटेरों की खिदमत करने वाले अब क्या तरीका उन्हें खुश करने का निकालेंगे। यह कोई भी समझ सकता है। जो बात उन्हें पसन्द नहीं हैं उस काम को मत करो। बजट को दुरुस्त करो।
पर सरकार की दिक्कत यह है कि वह अपने राजस्व को कैसे बढ़ाये। मजदूरों, किसानों और अन्य मेहनतकशों को कितना लूटें। भारत के प्राकृतिक संसाधनों की कितनी बोली लगायें। यह काम तो तेजी और तेजी से कर रही है पर बात बन नहीं रही हैं।
असल में पूरी दुनिया की स्थिति यही है। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का संकट ऐसा है कि वह उन उन्नत शिखरों को भी छू रहा है जो अब तक महफूज थे। उनको भी अपने लपेटे में ले रहा है जो उसे महफूज करने के धन्धे में लगे थे। कई सरकारें कर्ज जाल में फंस गयी हैं।
यह बजट भारतीय अर्थव्यवस्था की मूर्छा को तोड़ने की वैसी ही हरकत है जैसे कोई मिर्गी के मरीज को जूता सुंघाता है। और उम्मीद पालता है कि वह इससे ठीक हो जायेगा। खुदा न खास्ता मरीज की मूर्छा जूता सूंघने से टूट भी जाये पर इससे उसका रोग नहीं जाता है।
ब