पाकिस्तानी अवाम के लिए जैसे नवाज वैसे इमरान
(साभार - enagrik.com)
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आतंकवादी हमलों और भारी खून-खराबे के बीच पाकिस्तान में आम चुनाव सम्पन्न हो गये। किसी भी पार्टी को केन्द्र में सरकार बनाने लायक आवश्यक सीटें नहीं मिलीं। इमरान खान की पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में जरूर उभरी है।
इस चुनाव में नवाज शरीफ की पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग के खिलाफ आक्रोश की ज्यादा अभिव्यक्ति हुयी है। उसके वर्तमान प्रधानमंत्री शाहिद अब्बासी और भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश नवाज शरीफ के भाई शहबाज शरीफ चुनाव हार गये। यह चुनाव ऐसे वक्त में हो रहे थे जब नवाज भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण जेल में हैं।
इमरान खान की पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर सामने आयी है परन्तु खुद इमरान खान अपनी जीत को लेकर कितने आश्वस्त थे, यह उनके पांच स्थानों से चुनाव लड़ने से स्पष्ट हो जाता है।
आम चुनावों के प्रति पाकिस्तान की जनता के रुझान को इस बात से समझा जा सकता है कि लगभग आधे मतदाता चुनाव में मतदान करने ही नहीं आये। पाकिस्तान में 10.6 करोड़ मतदाता हैं तथा इस चुनाव में मतदान का अनुमान 50 से 55 फीसदी का है।
लगभग आधे मतदाताओं का मत न डालना और उसमें इमरान खान की पार्टी का सरकार बनाने लायक आवश्यक सीट न मिल पाना दिखा देता है कि पाकिस्तान में बड़ी पार्टियों के खिलाफ कितना समर्थन है। उनके खिलाफ काफी आक्रोश है। पूर्व में सत्ता में रही पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी अब अपने वजूद के लिए लड़ रही है।
नवाज शरीफ और आसिफ अली जरदारी (पीपीपी के नेता व पूर्व राष्ट्रपति) भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे हुए हैं। दोनों पार्टियों को कम सीटें मिलना इनके घटते जनाधार को दिखलाता है।
पाकिस्तान में सेना का दखल जीवन के हर क्षेत्र में है। यह आम धारणा है कि पाकिस्तानी सेना प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष ढंग से इमरान खान की पार्टी की मदद इस चुनाव में कर रही थी। पाकिस्तानी सेना के इतिहास और उसके स्वयं के आर्थिक हितों को देखते हुए यह बात सही ही है। पाकिस्तान में यह धारणा मशहूर है कि वहां पर तीन ए (अल्लाह, आर्मी, अमेरिका) ही देश को चला रहे हैं।
धार्मिक कट्टरपंथियों व तालिबानी मानसिकता के वर्चस्व, सेना तथा अमेरिकी साम्राज्यवाद के हस्तक्षेप के चलते ही पाकिस्तान में यह धारणा बनी है।
पाकिस्तान की संसद में 342 सीटें हैं। इनमें से 272 पर भारत की तरह चुनाव होता है। शेष 70 सीटों में 60 सीटें महिलाओं के लिए तथा 10 सीटें धार्मिक अल्पसंख्यकों और जनजातीय समूहों के लिए आरक्षित होती हैं। इन सीटों पर प्रतिनिधित्व कम से कम पांच फीसदी मत पाने वाली पार्टियों में अनुपातिक प्रणाली के आधार पर होता है। भारत में पाकिस्तान के लोकतंत्र को गाली देने वाले संघी-भाजपाई मानसिकता के लोगों के लिए यह शायद कुछ सीख दे।
पाकिस्तान अपने जन्म से अब तक सैन्य तानाशाही और संसदीय लोकतंत्र के दौर से गुजरता रहा है। परवेज मुशर्रफ की सैन्य तानाशाही के बाद से अब पिछले कुछ वर्षों से वहां एक के बाद एक नागरिक सरकारें आती रही हैं। इस मामले में पाकिस्तानी सेना किसी हद तक पर्दे के पीछे रही है। यहां यह बात गौर करने की है कि संसदीय लोकतंत्र पूंजीवादी तानाशाही का ही एक रूप है। यह पूंजीपति वर्ग के शासन को दीर्घजीवी बनाता है। संसदीय चुनाव में एक पार्टी की हार व दूसरे की जीत आम मजदूर-मेहनतकश में इस बात का भ्रम पैदा करती है कि अब कुछ ठीक होगा। परन्तु होता यह है कि पूंजीपति वर्ग की एक पार्टी या गुट के स्थान पर दूसरा गुट सत्ता में काबिज हो जाता है। जनता की दिक्कतें, आकांक्षायें सभी अपनी जगह पर रह जाती हैं। यही पाकिस्तान में हो रहा है।
नवाज शरीफ की पार्टी के सत्ताच्युत होने और इमरान की पार्टी के सत्ता पर काबिज होने से पाकिस्तान के मजदूरों, किसानों के जीवन में कोई फर्क नहीं पड़ेगा। पूंजीपति वर्ग-नौकरशाहों-सेना का गठजोड़ उसके ऊपर सवारी गांठता रहेगा। जरूरत इस बात की है कि पाकिस्तान का मेहनतकश अवाम जल्द से जल्द इस बात को समझे और महसूस कर एक मुकम्मिल इंकलाब की तैयारी करे। पूंजीवादी निजाम की जगह समाजवादी निजाम कायम करे।
इस चुनाव में नवाज शरीफ की पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग के खिलाफ आक्रोश की ज्यादा अभिव्यक्ति हुयी है। उसके वर्तमान प्रधानमंत्री शाहिद अब्बासी और भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश नवाज शरीफ के भाई शहबाज शरीफ चुनाव हार गये। यह चुनाव ऐसे वक्त में हो रहे थे जब नवाज भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण जेल में हैं।
इमरान खान की पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर सामने आयी है परन्तु खुद इमरान खान अपनी जीत को लेकर कितने आश्वस्त थे, यह उनके पांच स्थानों से चुनाव लड़ने से स्पष्ट हो जाता है।
आम चुनावों के प्रति पाकिस्तान की जनता के रुझान को इस बात से समझा जा सकता है कि लगभग आधे मतदाता चुनाव में मतदान करने ही नहीं आये। पाकिस्तान में 10.6 करोड़ मतदाता हैं तथा इस चुनाव में मतदान का अनुमान 50 से 55 फीसदी का है।
लगभग आधे मतदाताओं का मत न डालना और उसमें इमरान खान की पार्टी का सरकार बनाने लायक आवश्यक सीट न मिल पाना दिखा देता है कि पाकिस्तान में बड़ी पार्टियों के खिलाफ कितना समर्थन है। उनके खिलाफ काफी आक्रोश है। पूर्व में सत्ता में रही पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी अब अपने वजूद के लिए लड़ रही है।
नवाज शरीफ और आसिफ अली जरदारी (पीपीपी के नेता व पूर्व राष्ट्रपति) भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे हुए हैं। दोनों पार्टियों को कम सीटें मिलना इनके घटते जनाधार को दिखलाता है।
पाकिस्तान में सेना का दखल जीवन के हर क्षेत्र में है। यह आम धारणा है कि पाकिस्तानी सेना प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष ढंग से इमरान खान की पार्टी की मदद इस चुनाव में कर रही थी। पाकिस्तानी सेना के इतिहास और उसके स्वयं के आर्थिक हितों को देखते हुए यह बात सही ही है। पाकिस्तान में यह धारणा मशहूर है कि वहां पर तीन ए (अल्लाह, आर्मी, अमेरिका) ही देश को चला रहे हैं।
धार्मिक कट्टरपंथियों व तालिबानी मानसिकता के वर्चस्व, सेना तथा अमेरिकी साम्राज्यवाद के हस्तक्षेप के चलते ही पाकिस्तान में यह धारणा बनी है।
पाकिस्तान की संसद में 342 सीटें हैं। इनमें से 272 पर भारत की तरह चुनाव होता है। शेष 70 सीटों में 60 सीटें महिलाओं के लिए तथा 10 सीटें धार्मिक अल्पसंख्यकों और जनजातीय समूहों के लिए आरक्षित होती हैं। इन सीटों पर प्रतिनिधित्व कम से कम पांच फीसदी मत पाने वाली पार्टियों में अनुपातिक प्रणाली के आधार पर होता है। भारत में पाकिस्तान के लोकतंत्र को गाली देने वाले संघी-भाजपाई मानसिकता के लोगों के लिए यह शायद कुछ सीख दे।
पाकिस्तान अपने जन्म से अब तक सैन्य तानाशाही और संसदीय लोकतंत्र के दौर से गुजरता रहा है। परवेज मुशर्रफ की सैन्य तानाशाही के बाद से अब पिछले कुछ वर्षों से वहां एक के बाद एक नागरिक सरकारें आती रही हैं। इस मामले में पाकिस्तानी सेना किसी हद तक पर्दे के पीछे रही है। यहां यह बात गौर करने की है कि संसदीय लोकतंत्र पूंजीवादी तानाशाही का ही एक रूप है। यह पूंजीपति वर्ग के शासन को दीर्घजीवी बनाता है। संसदीय चुनाव में एक पार्टी की हार व दूसरे की जीत आम मजदूर-मेहनतकश में इस बात का भ्रम पैदा करती है कि अब कुछ ठीक होगा। परन्तु होता यह है कि पूंजीपति वर्ग की एक पार्टी या गुट के स्थान पर दूसरा गुट सत्ता में काबिज हो जाता है। जनता की दिक्कतें, आकांक्षायें सभी अपनी जगह पर रह जाती हैं। यही पाकिस्तान में हो रहा है।
नवाज शरीफ की पार्टी के सत्ताच्युत होने और इमरान की पार्टी के सत्ता पर काबिज होने से पाकिस्तान के मजदूरों, किसानों के जीवन में कोई फर्क नहीं पड़ेगा। पूंजीपति वर्ग-नौकरशाहों-सेना का गठजोड़ उसके ऊपर सवारी गांठता रहेगा। जरूरत इस बात की है कि पाकिस्तान का मेहनतकश अवाम जल्द से जल्द इस बात को समझे और महसूस कर एक मुकम्मिल इंकलाब की तैयारी करे। पूंजीवादी निजाम की जगह समाजवादी निजाम कायम करे।
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