Wednesday, 22 April 2020

अयोजनाबद्ध लॉकडाउन और त्रस्त आम मेहनतकश अवाम

 अयोजनाबद्ध लॉकडाउन और त्रस्त आम मेहनतकश अवाम
        मोदी सरकार द्वारा 25 मार्च से 14 अप्रैल तक देश में लॉकडाउन घोषित कर दिया। जैसा कि पहले से ही स्पष्ट था कि यह लॉकडाउन का फैसला कुछ राज्य सरकार अपने-अपने स्तर पर ले चुकी थी। इसी के बाद मोदी सरकार द्वारा केंद्रीय स्तर पर लॉकडाउन का फैसला लिया गया।
       सभी ने देखा, 22 मार्च के एक दिन के 'जनता कर्फ्यू' का मोदी, भाजपा व मोदी भक्तों ने किस तरह जश्न के माहौल में बदल दिया था। तब, एक तरफ 'जनता कर्फ्यू' के जरिये लोगों को घरों में रहने व फिर शाम को 'थाली, ताली या घन्टी' बजाकर, उन लोगों को 'सम्मान' देने की बात की गई, जो डॉक्टर व नर्स मास्क, ग्लव्स व अन्य निजी सुरक्षा उपकरणों की घोर कमी की स्थिति में इस वक़्त इलाज कर रहे हैं जबकि दूसरी तरफ मोदी सरकार मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार गिरा चुकी थी तथा शपथ ग्रहण के जरिये संघी जश्न मना रहे थे।
      इस तथ्य को भी साफ तौर पर महसूस किया गया व देखा गया कि जब शासक जनता को घोर अवैज्ञानिकता, अतार्किकता तथा अंधविश्वास की ओर ले जाते हैं तो इसकी कीमत खुद शासकों को भी चुकानी होती है, जनता तो इसकी भारी कीमत चुकाती ही है।
     पहला तो यह, कि खुद लंबे वक्त तक हिंदू फासीवादी सरकार तमाम चेतावनियों के बावजूद भी 'कोरोना वायरस' के प्रसार तथा इसके प्रभाव से बेखबर थे व भयानक तौर पर लापरवाह थे। ये, बेखबर व लापरवाह ही नहीं रहे बल्कि इस दौरान ये अपने 'हिन्दू फासीवादी' एजेंडे को निरन्तर आगे बढ़ाने में लगे रहे। ये सीएए व एनपीआर के अपने घृणित एजेंडे को इस बीच लगातार आगे बढ़ाते रहे। दूसरा यह, कि 22 तारीख के 'जनता
कर्फ्यू' को "भक्तजनों" ने मोदी सरकार की   चाल मात्र समझी जिसके जरिये 'शहीनबाग' जैसे सीएए एनपीआर विरोधी प्रदर्शनों को कुचला जा सके, नतीजा यह रहा कि शाम 5 'थाली, ताली, घंटी' बजाने की मांग, जश्न में बदल गयी, लोग कई जगह पर लोग अपने घरों से बाहर निकल कर व एकजुट होकर जश्न मनाने लगे। स्थिति यह रही की पीलीभीत में तो अधिकारी ही जुलूस को नेतृत्व देते हुए दिखाई दे रहे थे। जबकि लखनऊ में भाजपाई नेता अपनी अय्याशियों के चलते पार्टियों के आयोजन में भी लगे। कोरोना संक्रमित गायिका की पार्टी इसका एक उदाहरण है।
        भारत में कोरोना का पहला मामला 30 जनवरी को पता लगा। इसके बाद 26 मार्च तक यह संख्या 700 पहुंच चुकी थी जबकि 16 की मौत हो चुकी थी। इस बीच विश्व स्वास्थ्य संगठन इसे वैश्विक महामारी घोषित कर चुका था। विपक्षी भी, इस बीच, सरकार को इस दिशा में ध्यान देने व इससे निपटने के लिए आगाह कर रहे थे। मगर मोदी सरकार तो अपनी फासीवादी धुन में थी। इस बीच मोदी सरकार क्या कर रही थी?
       मोदी सरकार इस बीच, अपने हिन्दू फासीवादी एजेंडे को परवान चढ़ाने में व्यस्त थे। दिल्ली चुनाव में इन्होंने 'शहीन बाग' के जरिये अपनी नफरत भरे साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के प्रचार को आगे बढ़ाने को सारे कृत्य किये। इसके बाद दिल्ली के दंगों का प्रायोजन किया गया। जिसमें सैकड़ों मुस्लिमों को विस्थापित होकर इधर उधर शरण लेनी पड़ी। लखनऊ में सीएए विरोधियों से निपटने के लिए 'प्रदर्शनकारियों' के नाम, पते व फ़ोटो दीवारों पर चस्पा कर दी गई। जबकि मोदी इस बीच 'किम छो ट्रम्प' के आयोजन में लगे रहे जिसमें हज़ारों लोग, अहमदाबाद में इकट्ठा हुए।
       यह स्पष्ट था, कि 'सार्स-कॉव-2' यानी कोरोना वायरस का केंद्र चीन था, यहीं से उसका प्रसार 'यातायात' के चलते संक्रमित व्यक्तियों से दुनिया भर में हो रहा था। इस स्थिति में जरूरी था, कि विदेशों से जो भी लोग भारत आ रहे थे, उनकी आवाजाही को सीमित कर देने तथा उनकी पर्याप्त जांच, निगरानी करने व पृथक कर देने की नीति पर अमल किया जाना चाहिये था साथ ही टेस्टिंग बड़े स्तर और होनी चाहिए थी।
   हुआ क्या? इस स्तर पर भयानक लापरवाही बरती गई। थर्मल स्क्रीनिंग की गई , मगर यह भी नाम की थी। नतीजा यह रहा कि बहुत बड़ी तादाद में लोग भारत के भीतर प्रवेश कर गए, अपने इलाके  व घर तक पहुंच गए। कनिका कपूर से लेकर ऐसे कई मामले हैं जो सामने आये हैं। यहीं नहीं, कोरोना टेस्टिंग को बहुत सीमित स्तर पर किया गया। जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन व वैज्ञानिकों का रुख साफ था कि टेस्टिंग बड़े स्तर पर की जानी चाहिए। मगर सरकार व उसका स्वास्थ्य मंत्रालय अपनी 'सीमित टेस्टिंग' की नीति पर चलता रहा। इसका नतीजा यही होना था कि संक्रमित लोगो की संख्या बहुत कम दिखाई देती।
     अब, जब मार्च के तीसरे सप्ताह से इसका प्रसार साफ दिखने लगा, तब मोदी सरकार जागी, आत्ममुग्ध मोदी अपनी धुन से बाहर निकले।  फिर पहले 'जनता कर्फ्यू' लागू हुआ। इसके तत्काल बाद, बिना किसी पूर्वतैयारी व योजना के लॉकडाउन की घोषणा कर दी गई।
   लॉकडाउन की स्थिति ये है कि आम जनता की, जो अपने जरूरत का सामान लाने बाजार जा रही है तो सड़कों पर उनकी ठुकाई हो जा रही है उस पर मुकदमे दर्ज हो रहे हैं मगर दूसरी तरफ  योगी आदित्यनाथ 70-80 लोगो  के  समूह में अयोध्या में मंदिर में पहुंच जाते हैं। यहां कुछ भी नहीं होता।
     इस अयोजनाबद्ध व यकायक हुए लॉकडाउन की घोषणा में साफ था कि मजदूर मेहनतकश जनता को ही ही इसकी भारी कीमत चुकानी होगी। भारत में कुल कामगार आबादी की 20 प्रतिशत आबादी प्रवासी श्रमिकों की हैं। विशेषकर बिहार, उत्तरप्रदेश आदि से अन्य राज्यों में दिहाड़ी कर ये मजदूर, इस लॉकडाउन की स्थिति में सैकड़ों किलोमीटर दूर अपने घरों  को पैदल जाते देखे जा सकते हैं। इनके सामने भुखमरी का संकट पैदा हो चुका है। इसीलिए कई, यह कहते हुए देखे जा सकते हैं कि इससे पहले उन्हें कोरोना मारे, भूख उन्हें पहले खत्म कर देगी। वहीं दूसरी ओर शहरों में स्लम बस्तियों
में रहने वाले लोग, रोज़ कमाने व खाने वाले लोगों के लिए भी यह लॉकडाउन भयानक विपदा साबित हो रहा है।
         देश में स्वास्थ्य सुविधाओं की दुर्गति को कौन है जो नहीं जानता, समझता। यहां डॉक्टरों, व नर्सों तक के लिए निजी सुरक्षा उपकरणों का भारी अभाव होने के चलते, खुद उनके सामने भी संक्रमित होने का खतरा मंडरा रहा है। वहीं जो लाखों लोग, इस बीच इधर-उधर हुए हैं इनमें संक्रमित कितने होंगे, कितने नहीं तथा गर संक्रमित हैं तो फिर कहां तक इसका प्रसार होता है यह कुछ वक्त बीतने पर ही साफ हो जायेगा। मोदी सरकार व उसके स्वास्थ्य मंत्रालय ने फिलहाल कुछ नमूनों के आधार पर ही ये कहा है कि कम्युनिटी प्रसार की संभावना नहीं लग रही है। मगर तस्वीर वक़्त के साथ साफ हो जाएगी।  निश्चित तौर पर जो स्थितियां पैदा हो चुकी हैं उस  सबके लिए हमारे शासक जिम्मेदार हैं, मौजूदा हिन्दू फासीवादी सरकार जिम्मेदार है।


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