‘‘मी टू’’ अभियान व भा ज पा
पिछले कुछ वक़्त से देश में #मी टू अभियान ने उन चेहरों को बेनकाब करना शुरू कर दिया है जो अपने उजले चेहरे के पीछे पाखण्ड एवं स्त्री विरोधी कृत्य किये बैठे हैं। यह आंदोलन अमेरिका से अन्य मुल्कों होते हुए भारत पहुंच गया है। फ़िल्म इंडस्ट्री से लेकर पत्रकारिता, खेल जगत में फिलहाल वो महिलाएं जिन्होंने कभी अपने अतीत में यौन शोषण या उत्पीड़न को झेला है अब उन घटनाओं व व्यक्तियों को सामने ला रही है जिन्होंने तब अपने पद , ताकत, शोहरत का इस्तेमाल अपनी मातहत पर किया। इस अभियान में नाना पाटेकर , आलोक नाथ से लेकर भाजपा के केंद्रीय मंत्री और एक दौर के प्रख्यात पत्रकार संपादक एम जे अकबर पर ऐसे गम्भीर यौन उत्पीड़न के आरोप लगे है।
केंद्रीय मंत्री एम जे अकबर के खिलाफ तो अब तक 4-6 महिला पत्रकार ने ऐसे आरोप लगाए है। यह राजनीतिक पार्टियों के लिए ऐसा मुद्दा बन गया है जो न उगलते बन रहा है न निगलते। इस पर सामान्य वक्तव्य देने के अलावा विशिष्ट रूप में कोई बात या कार्यवाही की बात नही की गई है।
जहां तक मोदी सरकार का रुख है इस मुद्दे पर मोदी का 'चिरपरिचित मौन' बरकरार है। वैसे भी 'स्नूपगेट' के आरोपियों से ऐसे असुविधाजनक 'मुद्दों' पर वक्तव्य देने की उम्मीद नही की जा सकती। एक ऐसी पार्टी से तो वैसे भी कतई नही जो पितृसत्तात्मक मूल्यों में सनी हुई हो जिसे 'वैवाहिक बलात्कार' पर कार्यवाही का मसला भारतीय संस्कृति या हिदू विवाह संस्कार पर हमला दिखाई देता हो। इसीलिए एम जे अकबर ने अपने पीछे मोदी सरकार का वरदहस्त के साथ '97' वकील की टीम के दम पर उस महिला पत्रकार पर कानूनी कार्यवाही के रूप में हमला बोल दिया है जिसने एक वक़्त के बाद कुछ कहने का साहस जुटाया था।
खैर! जहां तक इस अभियान की बात है # मी टू’’ की यही बात खास है कि यह सत्ताधारी वर्ग की शासक वर्ग की ढंकी-छिपी सच्चाई को बाहर लाता है। यहां उत्पीड़क और उत्पीड़ित दोनों ही पूंजीपति वर्ग के सदस्य हैं। उत्पीड़क अपनी कुत्सित यौन इच्छाओं को पूरा करने के लिए किसी भी हद तक गिर सकता है। वह राष्ट्रपति होकर या किसी प्रभावशाली पद पर होकर एक स्त्री के मान, गरिमा, इच्छा किसी से भी खेल सकता है। और जिससे खेला जा रहा हो वह अपने को इसके लिए चाहे-अनचाहे पेश करती है चुप रहती है क्योंकि चुप रहने से उस वक्त लाभ है। उसके कैरियर को सहारा मिल सकता है। उसे सफलता मिल सकती है। दौलत, शौहरत, ग्लैमर के साथ सेलीब्रेटी बनने का मौका मिल सकता है। यह उस समय कैरियर के लिए किया जाने वाला अति आवश्यक समझौता (कम्प्रोमाइज) बन जाता है।हर कोई जानता है कि ऐसा होता है। जो कर रहा है वह तो मजे ले रहा है। जिसके साथ हो रहा है वह मानता है यह एक कम्प्रोमाइज है। एक वक्ती चीज है।
दरअसल सड़ते-गलते पूंजीवादी समाज की यह एक ऐसी सच्चाई है जिसे हर सामान्य, हर मजदूर-मेहनतकश स्त्री अपने रोज के अनुभव से जानती है, वह है उसके साथ होने वाला यौन दुर्व्यवहार। यह यौन दुर्व्यवहार सामान्य छेड़छाड़, फब्तियां कसने से लेकर वीभत्स गैंग रेप से आगे हत्या तक जाता है।
'#मी टू ' अभियान से इस बात का अंदाजा लगाया सकता है कि जब शासक वर्ग के स्तर पर महिलाओं की यह स्थिति हो तब आम मज़दूर मेहनतकश महिलाओं की स्थिति कैसी होगी।
यहीं से इस आन्दोलन की सीमाएं भी उजागर हो जाती है यह व्यापकता में इस समस्या को नही देखता। यह लैंगिक अधिकारों की बराबरी की बात करते हुए सामाजिक बराबरी की दिशा में नही जा पाता। हालांकि इसमें सकारात्मक कहने को यह है कि ऐसे मामले उछलने से, महिलाओं का खुल कर अपनी बात कहने से एक हद तक ऐसी मानसिकता वाले लोगो पर कुछ लगाम तो लगती ही है।
लेकिन दूसरी तरफ यह मसले को व्यक्तिवादी बना देता है यह पुरुष बनाम स्त्री के रूप में समस्या को देखता है। यह स्त्री विरोधी मानसिकता, पुरूष प्रधान मानसिकता को पैदा करती सामाजिक आर्थिक व्यवस्था को चिन्हित नही करता। इस रूप में यह आंदोलन संकीर्ण भी है। यह मात्र सुधार की चाहत रखने वाला सहुलियत वाला आंदोलन है। यह इस पूंजीवादी व्यवस्था को अपने निशाने पर कतई भी नही लेता जिसने अपनी गति में महिलाओं को यौन वस्तु में तब्दील कर दिया है। यह केवल कुछ कानूनी नुक्तों के दम पर इस प्रकार के उत्पीड़न पर लगाम लगाने की चाहत रखता है।
केंद्रीय मंत्री एम जे अकबर के खिलाफ तो अब तक 4-6 महिला पत्रकार ने ऐसे आरोप लगाए है। यह राजनीतिक पार्टियों के लिए ऐसा मुद्दा बन गया है जो न उगलते बन रहा है न निगलते। इस पर सामान्य वक्तव्य देने के अलावा विशिष्ट रूप में कोई बात या कार्यवाही की बात नही की गई है।
जहां तक मोदी सरकार का रुख है इस मुद्दे पर मोदी का 'चिरपरिचित मौन' बरकरार है। वैसे भी 'स्नूपगेट' के आरोपियों से ऐसे असुविधाजनक 'मुद्दों' पर वक्तव्य देने की उम्मीद नही की जा सकती। एक ऐसी पार्टी से तो वैसे भी कतई नही जो पितृसत्तात्मक मूल्यों में सनी हुई हो जिसे 'वैवाहिक बलात्कार' पर कार्यवाही का मसला भारतीय संस्कृति या हिदू विवाह संस्कार पर हमला दिखाई देता हो। इसीलिए एम जे अकबर ने अपने पीछे मोदी सरकार का वरदहस्त के साथ '97' वकील की टीम के दम पर उस महिला पत्रकार पर कानूनी कार्यवाही के रूप में हमला बोल दिया है जिसने एक वक़्त के बाद कुछ कहने का साहस जुटाया था।
खैर! जहां तक इस अभियान की बात है # मी टू’’ की यही बात खास है कि यह सत्ताधारी वर्ग की शासक वर्ग की ढंकी-छिपी सच्चाई को बाहर लाता है। यहां उत्पीड़क और उत्पीड़ित दोनों ही पूंजीपति वर्ग के सदस्य हैं। उत्पीड़क अपनी कुत्सित यौन इच्छाओं को पूरा करने के लिए किसी भी हद तक गिर सकता है। वह राष्ट्रपति होकर या किसी प्रभावशाली पद पर होकर एक स्त्री के मान, गरिमा, इच्छा किसी से भी खेल सकता है। और जिससे खेला जा रहा हो वह अपने को इसके लिए चाहे-अनचाहे पेश करती है चुप रहती है क्योंकि चुप रहने से उस वक्त लाभ है। उसके कैरियर को सहारा मिल सकता है। उसे सफलता मिल सकती है। दौलत, शौहरत, ग्लैमर के साथ सेलीब्रेटी बनने का मौका मिल सकता है। यह उस समय कैरियर के लिए किया जाने वाला अति आवश्यक समझौता (कम्प्रोमाइज) बन जाता है।हर कोई जानता है कि ऐसा होता है। जो कर रहा है वह तो मजे ले रहा है। जिसके साथ हो रहा है वह मानता है यह एक कम्प्रोमाइज है। एक वक्ती चीज है।
दरअसल सड़ते-गलते पूंजीवादी समाज की यह एक ऐसी सच्चाई है जिसे हर सामान्य, हर मजदूर-मेहनतकश स्त्री अपने रोज के अनुभव से जानती है, वह है उसके साथ होने वाला यौन दुर्व्यवहार। यह यौन दुर्व्यवहार सामान्य छेड़छाड़, फब्तियां कसने से लेकर वीभत्स गैंग रेप से आगे हत्या तक जाता है।
'#मी टू ' अभियान से इस बात का अंदाजा लगाया सकता है कि जब शासक वर्ग के स्तर पर महिलाओं की यह स्थिति हो तब आम मज़दूर मेहनतकश महिलाओं की स्थिति कैसी होगी।
यहीं से इस आन्दोलन की सीमाएं भी उजागर हो जाती है यह व्यापकता में इस समस्या को नही देखता। यह लैंगिक अधिकारों की बराबरी की बात करते हुए सामाजिक बराबरी की दिशा में नही जा पाता। हालांकि इसमें सकारात्मक कहने को यह है कि ऐसे मामले उछलने से, महिलाओं का खुल कर अपनी बात कहने से एक हद तक ऐसी मानसिकता वाले लोगो पर कुछ लगाम तो लगती ही है।
लेकिन दूसरी तरफ यह मसले को व्यक्तिवादी बना देता है यह पुरुष बनाम स्त्री के रूप में समस्या को देखता है। यह स्त्री विरोधी मानसिकता, पुरूष प्रधान मानसिकता को पैदा करती सामाजिक आर्थिक व्यवस्था को चिन्हित नही करता। इस रूप में यह आंदोलन संकीर्ण भी है। यह मात्र सुधार की चाहत रखने वाला सहुलियत वाला आंदोलन है। यह इस पूंजीवादी व्यवस्था को अपने निशाने पर कतई भी नही लेता जिसने अपनी गति में महिलाओं को यौन वस्तु में तब्दील कर दिया है। यह केवल कुछ कानूनी नुक्तों के दम पर इस प्रकार के उत्पीड़न पर लगाम लगाने की चाहत रखता है।
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