इस आपदा का दोषी कौन? प्रकृति अथवा मनुष्य
जून माह में उत्तराखण्ड में आयी आपदा को सरकारी तंत्र और मीडिया प्राकृतिक तो कुछ लोग मानवीय आपदा की संज्ञा दे रहे हैं। उत्तराखण्ड में हजारों लोगों की मौत और करोड़ों-करोड़ रुपये के सम्पत्ति के नुकसान के साथ यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि इसके लिए जिम्मेवार कौन है? प्रकृति अथवा मनुष्य!
प्रकृति को जिम्मेवार ठहराकर वे सभी लोग एकबारगी में ही बरी हो जाते हैं जिनके द्वारा शासन-प्रशासन चलाया जाता है। वे लोग भी एकदम ही भुलाये दिये जाते हैं जिनके द्वारा अपने हित व मुनाफे की हवस के कारण प्रकृति के साथ रोज खिलवाड़ किया जा रहा है। प्रकृति को दोषी ठहराकर गुनाहगार मासूम बन जाते हैं। भोले बन जाते हैं। क्या यह सच है कि प्रकृति ने ही यह आपदा रची है? क्या महज पहले आ गये मानसून के कारण यह सब घटा है?
उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री व केन्द्र सरकार और मीडिया के एक बड़े हिस्से की बातों का तो यही अर्थ है कि यह भयानक प्राकृतिक आपदा थी। विजय बहुगुणा ने एक अंग्रेजी अखबार को दिये गये अपने इंटरव्यू में तो यही कहा। वे इस बात का जवाब दे रहे थे कि यह मानव निर्मित आपदा है कि नहीं। वे कहते हैं,‘‘ये उन लोगों द्वारा दिया जाने वाला बचकाना तर्क है जो प्रकृति को नहीं समझते हैं लेकिन सरकार को लज्जित महसूस करवाना चाहते हैं।’’
प्राकृतिक आपदा के मुकाबले मानव निर्मित आपदा का तर्क भी लचर और भ्रम में डालने वाला है। इसमें प्रकृति तो आपदा के लिए जिम्मेवार नहीं है परन्तु सभी मनुष्य इसके लिए जिम्मेवार हैं। मनुष्यों के दायरे में सभी आ जाते हैं। उत्पीडि़त और उत्पीड़क भी, शोषित और शोषक भी। जो मर चुके हैं वे भी जो अभी मुसीबत में हैं वे भी। पहाड़ों में ऐश करने वाले भी और उनकी सेवा करने वाले भी। बहुर्राष्ट्रीय कम्पनियां भी और पहाड़ में किसी तरह जीवनयापन करने वाले छोटे किसान व खेतिहर मजदूर भी। हेलीकाप्टर से केदारनाथ, बद्रीनाथ जाने वाले अभिजात भी और पहाड़ में किसी तरह गुजर बसर करने वाले भी।
इस आपदा को प्राकृतिक या मानवीय कहना सफेद झूठ बोलना है। आम लोगों की आंख में धूल झोंकना है। मूर्ख बनाना है।
यह आपदा हमारे देश के शासक वर्ग के द्वारा निर्मित, प्रतिक्षित आपदा थी। यह आपदा शासकों की नीतियों की उपज है। यह आपदा ऐसे लोगों द्वारा थोपी गयी आपदा है जो भारत में एक दिन भी शासन करने के योग्य नहीं हैं। यह आपदा अभी उत्तराखण्ड में पैदा की गयी है कल ऐसी ही पूरे देश में कभी भी, कहीं भी घट सकती है। फिर वहां भी यही प्राकृतिक या मानवीकृत आपदा का शोर खड़ा हो जायेगा। सरकार, शासक वर्ग कहेगा प्राकृतिक। मानवतावादी, पर्यावरणवादी, गांधीवादी कहेंगे मानवीकृत।
उत्तराखण्ड सरकार कह रही है कि इस आपदा में उसे कई हजार करोड़ का नुकसान हुआ है। उत्तराखण्ड तीन साल पीछे चला गया है। पर्यटन उद्योग, चारधाम यात्रा जो उत्तराखण्ड की अर्थव्यवस्था का प्रमुख हिस्सा है खतरे में पड़ चुकी है। बिजली परियोजना संकट में है। इसका क्या अर्थ लगाया जाए। बेताल उसी डाल में फिर बैठ चुका है जहां से आपदा ने उसे उतारा था।
उत्तराखण्ड सहित पूरे देश में पूंजीवादी विकास जिस ढंग व गति से हो रहा है वह भारतीय समाज व प्रकृति को गम्भीर संकट में डाल रहा है। प्राकृतिक संसाधनों का पूंजीवादी समाज जिस ढंग से इस्तेमाल करता है वह प्रकृति को गम्भीर व कई बार तो स्थायी नुकसान पहुंचाता है। जिस ढंग से प्रकृति से खनिज, तेल, गैस आदि का दोहन किया जाता है। वह एक तरह से उस स्थान तक पहुंच जाता है जहां ऐसी आपदाओं की नींव डाल देना है। किसी भी प्राकृतिक घटना के प्रभाव को कई हजार गुणा बढ़ा देना है। पूंजीवाद का अराजक व असमान विकास का यह परिणाम है।
इसके साथ जो और अधिक महत्वपूर्ण है वह है शासकों का शासितों से बढ़ता जाता अलगाव। मजदूरों, किसानों और अन्य मेहनतकशों से अलगाव और उनके प्रति असंवेदनशीलता अपने चरम पर इस व्यवस्था में पहुंचती जाती है। उत्तराखण्ड में अन्यथा ऐसे कैसे होता है कि वही कहानी बार-बार दुहरायी जाती है जो पिछली हर प्राकृतिक आपदा के आने के बाद घटी। पिछले दो दशकों में ही उत्तराखण्ड कभी भूकम्प, कभी भू-स्खलन, कभी बादल फटने, कभी बाढ़ आ जाने से लहूलुहान होता रहा है। क्यों पिछली आपदा से कोई सबक नहीं सीखा गया। क्यों पूर्व तैयारी नहीं की गयी। खबरें यहां तक आ रही हैं कि आपदा प्रबंधन के लिए बनाये गये निकाय की बैठकें समय-समय पर आयोजित ही नहीं की गयी। मंत्री, अफसर किन कामों में व्यस्त और किन दायित्वों का निर्वाह करते हैं, खुदा जाने! निकम्मे, निर्लज्ज, शासकों से यह उम्मीद करना कि वे भारत के मजदूरों, किसानों, निम्न मध्मयवर्गीय के जीवन, उनकी परेशानियों, कठिनाइयों का ख्याल रखेंगे, व्यर्थ है। झूठी आशाएं पालना है।
भारत के शासकों का जो व्यवहार इस समय है क्या भोपाल गैस काण्ड से वह कुछ खास भिन्न है। कुछ वर्ष पूर्व आयी सुनामी या बिहार में आई कोसी नदी की बाढ़ या उड़ीसा व पश्चिम बंगाल में आये चक्रवाती तूफानों के समय कमोवेश ऐसा ही नहीं होता है जैसा आज उत्तराखण्ड में हो रहा है।
अधिक से अधिक ऐसे मौकों पर राज्य केन्द्र सरकार या फिर विभिन्न पूंजीवादी कम्पनियां या दाता संस्थाओं की भूमिका खैरात बांटने की होती है। खैरात का काम करने वालों को भी ऐसे मौकों पर फलने-फूलने का बढि़या मौका मिल जाता है। यह सब क्या है? यह सब कुछ ऐसा है जैसे जख्म देने वाले ही मरहम लेकर हाजिर हो जायें। युद्ध छेड़ने-थोपने वाले ही शांति मिशन की बातें करें।
भारत के मेहनतकश मजदूर, किसान भारत के शासकों की खैरात की मोहताज नहीं हैं। वे हर कष्ट, दुःख, आपदा में सदियों से खुद ही लड़ते रहे हैं। खुद ही खड़े होते रहे हैं। उनकी रीढ़ की हड्डी मजबूत व सीधी है उनकी दुर्दशा का कारण वे स्वयं नहीं हैं। इसका कारण तो आज का शासक वर्ग और उसकी व्यवस्था है। आपदा या फिर और गैर आपदा का समय हो भारत की मेहनतकश जनता अपना जीवन भारी मेहनत व कठिनाइयों के बीच जीती है। उसके जीवन में अच्छे या बुरे शासकों से कुछ ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ने वाला है। उसके जीवन में प्रभाव या बदलाव अब तो उसके स्वयं के ही शासक बनने से पड़ेगा। उसके संगठित होने और वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था को बदलने से ही पड़ेगा। पूरे भारतीय समाज को नये आधार पर संगठित व पुर्ननिर्मित करने से ही पड़ेगा। इंकलाब ही उसकी जीवन की समस्याओं को हल कर सकता है।
मजदूर-किसानों का राज ही वह समाज निर्मित कर सकता है जहां प्रकृति व मनुष्य के उस संबंध की स्थापना की जा सकती है जिसमें मनुष्य प्रकृति के नियमों को सही ढंग से समझकर उसमें अपने हित वैज्ञानिक ढंग से साधेगा। उससे लेगा भी परन्तु उसे संरक्षित भी करेगा। अपने आने वाली पीढ़ी को हर गुजरने वाली पीढ़ी ऐसा समाज और प्रकृति भेंट करेगी जो पहले से और अधिक उन्नत और बेहतर होगी। पूंजीवादी समाज में यह संबंध एकदम उल्टा है
प्रकृति को जिम्मेवार ठहराकर वे सभी लोग एकबारगी में ही बरी हो जाते हैं जिनके द्वारा शासन-प्रशासन चलाया जाता है। वे लोग भी एकदम ही भुलाये दिये जाते हैं जिनके द्वारा अपने हित व मुनाफे की हवस के कारण प्रकृति के साथ रोज खिलवाड़ किया जा रहा है। प्रकृति को दोषी ठहराकर गुनाहगार मासूम बन जाते हैं। भोले बन जाते हैं। क्या यह सच है कि प्रकृति ने ही यह आपदा रची है? क्या महज पहले आ गये मानसून के कारण यह सब घटा है?
उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री व केन्द्र सरकार और मीडिया के एक बड़े हिस्से की बातों का तो यही अर्थ है कि यह भयानक प्राकृतिक आपदा थी। विजय बहुगुणा ने एक अंग्रेजी अखबार को दिये गये अपने इंटरव्यू में तो यही कहा। वे इस बात का जवाब दे रहे थे कि यह मानव निर्मित आपदा है कि नहीं। वे कहते हैं,‘‘ये उन लोगों द्वारा दिया जाने वाला बचकाना तर्क है जो प्रकृति को नहीं समझते हैं लेकिन सरकार को लज्जित महसूस करवाना चाहते हैं।’’
प्राकृतिक आपदा के मुकाबले मानव निर्मित आपदा का तर्क भी लचर और भ्रम में डालने वाला है। इसमें प्रकृति तो आपदा के लिए जिम्मेवार नहीं है परन्तु सभी मनुष्य इसके लिए जिम्मेवार हैं। मनुष्यों के दायरे में सभी आ जाते हैं। उत्पीडि़त और उत्पीड़क भी, शोषित और शोषक भी। जो मर चुके हैं वे भी जो अभी मुसीबत में हैं वे भी। पहाड़ों में ऐश करने वाले भी और उनकी सेवा करने वाले भी। बहुर्राष्ट्रीय कम्पनियां भी और पहाड़ में किसी तरह जीवनयापन करने वाले छोटे किसान व खेतिहर मजदूर भी। हेलीकाप्टर से केदारनाथ, बद्रीनाथ जाने वाले अभिजात भी और पहाड़ में किसी तरह गुजर बसर करने वाले भी।
इस आपदा को प्राकृतिक या मानवीय कहना सफेद झूठ बोलना है। आम लोगों की आंख में धूल झोंकना है। मूर्ख बनाना है।
यह आपदा हमारे देश के शासक वर्ग के द्वारा निर्मित, प्रतिक्षित आपदा थी। यह आपदा शासकों की नीतियों की उपज है। यह आपदा ऐसे लोगों द्वारा थोपी गयी आपदा है जो भारत में एक दिन भी शासन करने के योग्य नहीं हैं। यह आपदा अभी उत्तराखण्ड में पैदा की गयी है कल ऐसी ही पूरे देश में कभी भी, कहीं भी घट सकती है। फिर वहां भी यही प्राकृतिक या मानवीकृत आपदा का शोर खड़ा हो जायेगा। सरकार, शासक वर्ग कहेगा प्राकृतिक। मानवतावादी, पर्यावरणवादी, गांधीवादी कहेंगे मानवीकृत।
उत्तराखण्ड सरकार कह रही है कि इस आपदा में उसे कई हजार करोड़ का नुकसान हुआ है। उत्तराखण्ड तीन साल पीछे चला गया है। पर्यटन उद्योग, चारधाम यात्रा जो उत्तराखण्ड की अर्थव्यवस्था का प्रमुख हिस्सा है खतरे में पड़ चुकी है। बिजली परियोजना संकट में है। इसका क्या अर्थ लगाया जाए। बेताल उसी डाल में फिर बैठ चुका है जहां से आपदा ने उसे उतारा था।
उत्तराखण्ड सहित पूरे देश में पूंजीवादी विकास जिस ढंग व गति से हो रहा है वह भारतीय समाज व प्रकृति को गम्भीर संकट में डाल रहा है। प्राकृतिक संसाधनों का पूंजीवादी समाज जिस ढंग से इस्तेमाल करता है वह प्रकृति को गम्भीर व कई बार तो स्थायी नुकसान पहुंचाता है। जिस ढंग से प्रकृति से खनिज, तेल, गैस आदि का दोहन किया जाता है। वह एक तरह से उस स्थान तक पहुंच जाता है जहां ऐसी आपदाओं की नींव डाल देना है। किसी भी प्राकृतिक घटना के प्रभाव को कई हजार गुणा बढ़ा देना है। पूंजीवाद का अराजक व असमान विकास का यह परिणाम है।
इसके साथ जो और अधिक महत्वपूर्ण है वह है शासकों का शासितों से बढ़ता जाता अलगाव। मजदूरों, किसानों और अन्य मेहनतकशों से अलगाव और उनके प्रति असंवेदनशीलता अपने चरम पर इस व्यवस्था में पहुंचती जाती है। उत्तराखण्ड में अन्यथा ऐसे कैसे होता है कि वही कहानी बार-बार दुहरायी जाती है जो पिछली हर प्राकृतिक आपदा के आने के बाद घटी। पिछले दो दशकों में ही उत्तराखण्ड कभी भूकम्प, कभी भू-स्खलन, कभी बादल फटने, कभी बाढ़ आ जाने से लहूलुहान होता रहा है। क्यों पिछली आपदा से कोई सबक नहीं सीखा गया। क्यों पूर्व तैयारी नहीं की गयी। खबरें यहां तक आ रही हैं कि आपदा प्रबंधन के लिए बनाये गये निकाय की बैठकें समय-समय पर आयोजित ही नहीं की गयी। मंत्री, अफसर किन कामों में व्यस्त और किन दायित्वों का निर्वाह करते हैं, खुदा जाने! निकम्मे, निर्लज्ज, शासकों से यह उम्मीद करना कि वे भारत के मजदूरों, किसानों, निम्न मध्मयवर्गीय के जीवन, उनकी परेशानियों, कठिनाइयों का ख्याल रखेंगे, व्यर्थ है। झूठी आशाएं पालना है।
भारत के शासकों का जो व्यवहार इस समय है क्या भोपाल गैस काण्ड से वह कुछ खास भिन्न है। कुछ वर्ष पूर्व आयी सुनामी या बिहार में आई कोसी नदी की बाढ़ या उड़ीसा व पश्चिम बंगाल में आये चक्रवाती तूफानों के समय कमोवेश ऐसा ही नहीं होता है जैसा आज उत्तराखण्ड में हो रहा है।
अधिक से अधिक ऐसे मौकों पर राज्य केन्द्र सरकार या फिर विभिन्न पूंजीवादी कम्पनियां या दाता संस्थाओं की भूमिका खैरात बांटने की होती है। खैरात का काम करने वालों को भी ऐसे मौकों पर फलने-फूलने का बढि़या मौका मिल जाता है। यह सब क्या है? यह सब कुछ ऐसा है जैसे जख्म देने वाले ही मरहम लेकर हाजिर हो जायें। युद्ध छेड़ने-थोपने वाले ही शांति मिशन की बातें करें।
भारत के मेहनतकश मजदूर, किसान भारत के शासकों की खैरात की मोहताज नहीं हैं। वे हर कष्ट, दुःख, आपदा में सदियों से खुद ही लड़ते रहे हैं। खुद ही खड़े होते रहे हैं। उनकी रीढ़ की हड्डी मजबूत व सीधी है उनकी दुर्दशा का कारण वे स्वयं नहीं हैं। इसका कारण तो आज का शासक वर्ग और उसकी व्यवस्था है। आपदा या फिर और गैर आपदा का समय हो भारत की मेहनतकश जनता अपना जीवन भारी मेहनत व कठिनाइयों के बीच जीती है। उसके जीवन में अच्छे या बुरे शासकों से कुछ ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ने वाला है। उसके जीवन में प्रभाव या बदलाव अब तो उसके स्वयं के ही शासक बनने से पड़ेगा। उसके संगठित होने और वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था को बदलने से ही पड़ेगा। पूरे भारतीय समाज को नये आधार पर संगठित व पुर्ननिर्मित करने से ही पड़ेगा। इंकलाब ही उसकी जीवन की समस्याओं को हल कर सकता है।
मजदूर-किसानों का राज ही वह समाज निर्मित कर सकता है जहां प्रकृति व मनुष्य के उस संबंध की स्थापना की जा सकती है जिसमें मनुष्य प्रकृति के नियमों को सही ढंग से समझकर उसमें अपने हित वैज्ञानिक ढंग से साधेगा। उससे लेगा भी परन्तु उसे संरक्षित भी करेगा। अपने आने वाली पीढ़ी को हर गुजरने वाली पीढ़ी ऐसा समाज और प्रकृति भेंट करेगी जो पहले से और अधिक उन्नत और बेहतर होगी। पूंजीवादी समाज में यह संबंध एकदम उल्टा है
No comments:
Post a Comment