Monday, 14 July 2025

चुनाव की आड़ में बिहार में नागरिकता परीक्षण (एन आर सी)

      चुनाव की आड़ में बिहार में नागरिकता परीक्षण (एन आर सी)

      बिहार चुनाव में मोदी सरकार अपने फासीवादी एजेंडे को चुनाव आयोग के जरिए आगे बढ़ा रही है। नागरिकता संशोधन कानून के जरिए गैर मुस्लिमों की जो तीन पड़ोसी देशों के होंगे उन्हें भारत की नागरिकता देने का प्रावधान 2019 में किया गया था और फिर नागरिकता परीक्षण हेतु राष्ट्रीय नागरिकता पंजीकरण (एनआरसी) कराने की बात मोदी सरकार ने कही और इसके बाद बड़े स्तर पर देश भर में आंदोलन हुआ तो सरकार पीछे हट गई। मगर अब साम्प्रदायिक नागरिकता कानून के बाद चुनाव के बहाने बिहार में परोक्ष तरीके से नागरिक परीक्षण कराया जा रहा है।

      यह चुनाव आयोग विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) के नाम पर कर रहा है । इस प्रक्रिया में मतदाताओं को अपनी नागरिकता साबित करने के लिए जन्म प्रमाण पत्र सहित 11 दस्तावेजों में से कोई एक जमा करना जिसमें जन्म और जगह का पता लगे, अनिवार्य किया गया है, इसमें आधार कार्ड, वोटर कार्ड, राशन कार्ड, डी एल, पेन कार्ड जैसे आम पहचान दस्तावेज़ अब नागरिकता के प्रमाण नहीं माने जा रहे हैं। अब बड़ी संख्या में इन 11 दस्तावेजों के नहीं होने के चलते भी बिहार के गरीब, पिछड़े और अल्पसंख्यक वर्गों पर गहरा असर पड़ेगा। हिंदू फासीवादियों के हिसाब से जिनके पास ये 11 दस्तावेज में से कोई नहीं होगा, यदि वे मुस्लिम होंगे तो घुसपैठिए और बाकी धर्मों के होंगे तो शरणार्थी होंगे। 

     हिन्दू फासीवादी सरकार इसे मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने और चुनावी ध्रुवीकरण का हथियार बना रहे हैं। बिहार चुनाव से पहले इसे लागू कर वे अपने वोट बैंक को भी मजबूत करना चाहते हैं। जाहिर है सवर्णों का दायरा सापेक्षिक तौर पर अनुपात में बढ़ जाएंगे।

     चुनाव आयोग ने स्पष्ट किया है कि आधार कार्ड, वोटर कार्ड, पैन कार्ड जैसे दस्तावेज नागरिकता साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। इसके बजाय जन्म प्रमाण पत्र, पासपोर्ट, जाति प्रमाण पत्र जैसे 11 दस्तावेजों की मांग की गई है, जो आम जनता के लिए जुटाना मुश्किल होगा।

       बिहार में अधिकांश ग्रामीण परिवारों के पास जमीन नहीं है, पासपोर्ट रखने वालों की संख्या बहुत कम है, और सरकारी सेवाओं में काम करने वालों की संख्या भी सीमित है। ऐसे में दस्तावेज जुटाना उनके लिए चुनौतीपूर्ण होगा। हाईस्कूल की शिक्षा किया हुए लोगों का प्रतिशत भी 10- 12 से ज्यादा नहीं है।

      नागरिकता साबित करने की जिम्मेदारी जिम्मेदारी सरकार या जांच एजेंसियों की बजाय आम नागरिकों पर डाली गई है कि वे अपनी नागरिकता साबित करें। यदि कोई दस्तावेज़ नहीं जमा कर पाता, तो उसे विदेशी या घुसपैठिया घोषित करने का खतरा रहेगा।

      विपक्ष ने इस प्रक्रिया को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी, लेकिन कोर्ट ने फिलहाल चुनाव आयोग के पक्ष में फैसला दिया है। कोर्ट ने कहा है कि नागरिकता की पहचान गृह मंत्रालय का काम है, चुनाव आयोग का नहीं। हालांकि यह सुझाव भी दिया कि आधार, वोटर कार्ड और राशन कार्ड पर भी चुनाव आयोग विचार करे। मगर चुनाव आयोग अब बिहार में भारी संख्या में नेपाली, बांग्लादेशी आदि आदि के होने का हवाले देकर एन आर सी के पक्ष में माहौल बना रहा रहा है।

     वास्तव में, यह प्रक्रिया न्याय की मूल अवधारणा के खिलाफ है क्योंकि नागरिक नहीं होने का आरोप का बोझ निर्दोष जनता पर डाला गया है, जिसे खुद आरोप से मुक्ति पाने के लिए खुद को निर्दोष साबित करना होगा। न्याय की बुनियादी अवधारणा यह है कि आरोप लगाने वाले को अपने आरोप साबित करने होंगे, अन्यथा किसी पर भी आरोप लगाना बेहद आसान होगा और यह उत्पीड़न का औजार बन जाएगा। वास्तव में हिंदू फासीवादी ने इसी सिद्धांत को अधिकांश मामलों में अपना न्याय का सिद्धांत बना डाला है। जिसमें वे किसी पर भी आरोप लगाते हैं मीडिया ट्रायल शुरू होता है बिना न्यायिक प्रक्रिया के ही जिस पर आरोप लगाया जाता है उसे अपराधी बना दिया जाता है सालों बाद उसे बिना सबूत के न्यायालय निर्दोष के रूप में रिहा करती है।  

इस एजेंडे के देशव्यापी विस्तार की संभावना है। बिहार में इस प्रक्रिया को लागू कर इसे अन्य राज्यों में भी लागू करने की तैयारी है, जिससे पूरे देश में सामाजिक और राजनीतिक तनाव बढ़ सकता है।

     इस प्रकार, बिहार में चल रहा विशेष गहन पुनरीक्षण के जरिए एन आर सी एक ऐसा कदम है जो लोकतांत्रिक अधिकारों और सामाजिक न्याय के लिए गंभीर खतरा बन सकता है इसकी ही ज्यादा संभावना है। इसके ज़रिए भी हिंदू फासीवादी एकाधिकारी पूंजी के हित में हिंदू फासीवादी राज्य कायम करने की ओर बढ़ रहे हैं।

Monday, 12 May 2025

भारत पाक सैन्य टकराव और युद्ध विराम

 

  भारत पाक सैन्य टकराव युद्ध विराम 

       22 अप्रैल को कश्मीर के पहलगाम में कथित आतंकी हमले में 28 लोग मारे गए। इसमें अधिकतर हिंदू पर्यटक थे। मारे जाने वालों में एक मुसलमान मजदूर भी था। हिंदू फासीवादियों और मीडिया ने इसे हिंदू बनाम मुसलमान आतंकवादी के रूप में प्रस्तुत किया और आम हिंदुओं के दिमाग में मुसलमानों को आतंकवादी होने और खतरे के रूप में प्रचारित किया गया।
     इसके बाद देश भर में हिंदू राष्ट्र के ध्वजवाहकों ने आम मुसलमानों को जगह जगह अलगाव में धकेलने, मार पीट करने धमकी देने, कारोबार पर हमला करने की कार्रवाई की। जो बेहद घृणित और निंदनीय है।
    मोदी शाह और इनकी अगुवाई वाली सरकार ने दावा किया कि इस आतंकी हमले को पाकिस्तान के आतंकी संगठनों ने अंजाम दिया।
      मोदी शाह और सरकार का दावा था कि जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 की समाप्ति के बाद शांति क़ायम हो गई है और आतंकवाद समाप्त हो गया है। हकीकत ठीक इसके विपरीत है। इस घटना ने भी यह साबित कर दिया।
      इस हमले के बाद हिंदू फासीवादी सरकार ने अंधराष्ट्रवादी युद्ध का उन्माद खड़ा किया। आर्मी, खुफिया विभाग के साथ बैठकों का सिलसिला और फिर मॉक ड्रिल की तैयारी। समूचे देश में क्रमशः सनसनी, असुरक्षा, नफरत और बदले की मानसिकता को तेजी से आगे बढ़ाया गया। हालत यह रही कि सभी विपक्षी पार्टियां सरकार की जुबान बोलने लगी। इस तरह जनता के एक ठीक ठाक हिस्से और विपक्ष को हिंदू फासीवादी
अपने एजेंडे पर गोलबंद करने में कामयाब रहे।
     इस बीच 7 मई को ऑपरेशन सिंदूर के तहत रात को पाकिस्तान के कथित 9 आतंकी ठिकानों पर भारतीय सेना ने हमला करने और इसमें 100 आतंकियों के मरने का दावा किया। पाकिस्तानी सरकार ने दावा किया यह आम नागरिकों पर हमला था और इसमें 31 आम नागरिक मारे गए और कुछ घायल हुए है।
    इसके बाद पाकिस्तानी सेना ने सीमा पर और ड्रोन आदि के जरिए हवाई हमले किए। इस तरह सैन्य टकराव की स्थिति बन गई। दोनों ओर से दावे हुए कि आम नागरिक आबादी पर हमला नहीं हुआ और सैन्य अड्डों पर  हमले हुए। दोनों ने ही अपने देश के भीतर नागरिकों पर हमले के दावे किए। दोनों ही देशों के शासकों ने हमले में अपने देश के भीतर नुकसान न होने जबकि दूसरे देश को  भारी नुकसान पहुंचाने के दावे किए।
      अभी तीसरा ही दिन था कि अधिकांश लोग युद्ध की ओर बढ़ जाने का अनुमान लगा रहे थे तभी ट्रंप के द्वारा दोनों देशों के बीच युद्ध विराम होने की बात आई। और इसके बाद भारत की ओर से भी युद्ध विराम लागू होने की बात उजागर हुई।
       इस स्थिति ने मोदी शाह और भाजपाइयों के लिए स्थिति बेहद असहज कर दी। वैसे भी, पिछले कुछ समय से अमेरिकी साम्राज्यवादी लगातार ही इनके लिए विकट स्थिति पैदा कर दे रहे है। अमरीकी साम्राज्यवाद के इस दखलंदाजी ने भारतीय शासकों खासकर मोदी शाह और इनकी वाली सरकार की हैसियत को बेनकाब कर दिया। ऐसी फजीहत की मोदी शाह की जोड़ी को उम्मीद नहीं थी।
        एक ओर पाकिस्तानी शासकों की तैयारी उनके जवाबी सैन्य हमले दूसरी ओर साम्राज्यवादी हस्तक्षेप में भारतीय शासकों के लिए अलगाव की स्थिति बन गई। कहां तो मोदी और सरकार का आंकलन था कि पाकिस्तानी कथित आतंकी ठिकानों पर हमले के बाद पाकिस्तानी हुक्मरान चुप रहेंगे। इस तरह मोदी शाह और इनकी सरकार अमेरिकी इजरायली शासकों की ही पंक्ति में खड़ी हो जाएगी। इस तरह इतिहास में नाम दर्ज हो जाएगा। मगर सारा दांव उल्टा पड़ गया। कहां तो पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर पर कब्जे की बात, पाकिस्तान के टुकड़े करने की बात और कहां मिली ये जग हंसाई।
         अब युद्ध विराम हो चुका है। मगर अंधराष्ट्वाद  बना रहेगा और फिर इसी तरह की स्थिति या छद्म युद्ध की संभावना फिर भी बनी रहेगी। यह, दोनों ही देशों के शासकों के लिए अपने देश के भीतर जनता के असंतोष, संघर्ष से निपटने का तरीका भी है।  पूंजीवाद का संकट इसमें कमजोर और ताकतवर देशों की स्थिति, प्रभुत्व की चाह युद्ध की ओर ले जाती है। शासकों के लिए युद्ध एक कारोबार भी बन जाता है। आम तौर पर आतंकवाद को भी पूंजीवादी सरकारें ही खड़ा करती हैं पालती पोसती हैं। या यह राज्य / पूंजीवादी सरकारों की दमन उत्पीड़न की प्रतिक्रिया से उपजता है।
     जहां तक आम जनता का सवाल है उसके लिए युद्ध हर दृष्टि से तबाही बर्बादी लाने वाला होता है। युद्ध में सेना में मरने वाले भी जनता के ही बेटे बेटियां होती हैं। युद्ध के खर्चे का बोझ भी जनता के ही कंधे पर पड़ता है।
इसलिए आम जनता को युद्धों की मुसीबतों से तभी छुटकारा मिल सकता है जब अन्यायपूर्ण पूंजीवादी व्यवस्था की जगह समाजवादी व्यवस्था कायम हो।




















Monday, 7 April 2025

समान नागरिक संहिता और इसका विरोध

 

              समान नागरिक संहिता और इसका विरोध 


      उत्तराखंड में भाजपा सरकार ने 27 जनवरी 2025 से समान नागरिक संहिता को लागू कर दिया है। इस संहिता को हिंदू फासीवादी सरकार अपनी उपलब्धि के रूप में प्रचारित कर रही है। संहिता के मामले में बिल्कुल झूठा प्रचार किया जा रहा है। यह झूठा प्रचार इस रूप में है कि इस कानून ने संपत्ति में बेटियों को भी बराबर का अधिकार दिया है और लिव इन संबंधों में महिलाओं को सुरक्षा दी है महिलाओं को सशक्त बनाया है। संपति में बेटियों का बराबर का अधिकार 2005 के कानून से बना था और इसी तरह लिव इन को सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही मान्यता दी है और इसमें पैदा होने वालों बच्चों को उत्तराधिकार में संपत्ति पर अधिकार हासिल है साथ ही महिला को भरण पोषण का अधिकार। इस संबंध में कई मामलों में सुप्रीम कोर्ट यह फैसले दे चुका है।

     उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता के लागू होने के दौरान और बाद में भी इसका विरोध अलग अलग वजहों से हो रहा है। एक तरफ दक्षिणपंथी समूह या लोग हैं जिनका विरोध इसलिए है कि यह कानून लिव संबंधों को पंजीकरण के जरिए वैध बनाता है और ऐसा करना उत्तराखंड की संस्कृति के खिलाफ है। खुद कांग्रेस जो प्रगतिशील होने का दिखावा करती है उसने विधान सभा सत्र के दौरान इसी तर्क के आधार पर इस संहिता के विरोध में रैली निकाली थी।

      इसके अलावा विरोध की आवाज राज्य के कई संगठनों की ओर से भी है। इसमें कुछ इसे संविधानिक आधार पर गलत मानते हैं इसे नागरिक अधिकारों का अतिक्रमण करने वाला और नागरिकों की निजी जिन्दगी में दखल देने वाला मानते हैं। इनमें से कुछ ऐसे हैं जो सीधे इस संहिता का विरोध करने के बजाय अनुच्छेद 44 का तर्क देकर, इस संहिता को असंवैधानिक करार देते हैं। इनके हिसाब से अनुच्छेद 44 के तहत केवल केंद्र सरकार नागरिको के लिए एक समान नगारिक संहिता बना सकता है।  इस तर्क मात्र के हिसाब से देखें तो यदि अनु. 44 के तहत मोदी सरकार इसी तरह का यू.सी.सी लाती तो फिर विरोध स्वयं खारिज हो जाता। दरअसल राज्य सरकार को भी समवर्ती सूची ( सातवीं अनुसूची) के तहत विवाह तलाक उत्तराधिकार के मामले में कानून बनाने का अधिकार है।

      विरोध का स्वर, जमीयत जैसे धार्मिक कट्टपंथी संगठनों की ओर से भी है जाहिर है इनका जोर धर्म पर ही होना है। ये इसे केवल, शरीयत पर हमले के रूप में ही देखते हैं शरीयत पर हमले को, नहीं सहने का तर्क देते हैं। अलग अलग तर्कों के दम पर इसे संगठनों और व्यक्तियों ने हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है। न्यायपालिका ने हिंदू फासीवादी ताकतों के आगे जिस हद तक समर्पण कर दिया है उससे गुंजाइश कम ही है कि जनपक्षधर फैसला आए।

      इस कथित समान नागरिक संहिता को उत्तराखंड में प्रयोग के बतौर थोपा गया है। हिंदू फासीवादियों ने आम चुनाव से कुछ माह पहले समान नागरिक संहिता बनाने को मुदा बनाया था। मगर तब आदिवासी जनजाति संगठनों के बड़े विरोध को देखते हुए, इन्होंने अपने कदम पीछे खींच लिए थे। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ कथित समान नागरिक संहिता को  काफी लंबे समय से ही मुद्दा बनाता रहा है। पिछली सदी के साठ के दशक में संघियों ने ' विवाह, तलाक, उत्तराधिकार और गोद ' लेने के मामले में बहुसंख्यक हिंदुओं के लिए लिए बने' हिंदू कोड बिल' का जबर्दस्त विरोध किया था। इस कोड को कांग्रेस सरकार ने अपने नरम हिंदुत्व की नीति के तहत ही सिख, बौद्ध, जैन और आदिवासियों पर थोप दिया था। 

     उस वक्त का, यह ' हिंदू विवाह कानून' और ' हिंदू उत्तराधिकार कानून' , काफी हद तक, हिंदू धार्मिक कानून और परम्परा के हिसाब से  ही बना था। बाद में संघर्षों और कानूनी चुनौती मिलने पर समाज के आगे बढ़ने से इसमें बदलाव भी हुए। लिव इन संबंधों, संपत्ति में लड़कियों को भी बराबर का अधिकार देने आदि मामलों में इसमें कुछ सुधार करने पड़े।

      हिंदू फासीवादियों की यह कथित समान नागरिक संहिता इनके फासीवादी हमलों की ही अगली कड़ी है। इस संहिता के जरिए भी, ये फासीवादी ध्रुवीकरण के अपने एजेंडे को ही आगे बढ़ा रहे हैं। उत्तराखंड के बाद  फिर अन्य राज्यों में लागू करते हुए फिर केंद्र की ओर बढ़ने की इनकी योजना है। इसकी संभावना है अगले आम चुनाव में इसे मुद्दा बनाएं और ध्रुवीकरण को आगे बढ़ाएं। 

      शुरुवात में ही जनजाति और आदिवासी संगठनों के विरोध को देखते हुए संघी सरकार ने उत्तराखंड में इन्हें, इस कथित नागरिक संहिता से बाहर रखा है। यानी इन पर यह कानून लागू नहीं होगा। इस तरह से, देश के तमाम आदिवासी समूहों के लिए संदेश दिया है कि उनकी विवाह और तलाक की परम्पराओं में कोई हस्तक्षेप नहीं होगा।

      उत्तराखंड में भाजपा सरकार का यह फासीवादी प्रयोग फिलहाल सफल रहा है। इसके जनवाद विरोधी, संवैधानिक अधिकारों के विरोधी होने के तर्क के आधार पर कोई बड़ा विरोध नहीं हुआ है। पिछले 60- 70 सालों से संघी संगठन और भाजपा बड़े पैमाने पर मुसलमानों के खिलाफ भयानक दुष्प्रचार कि मुसलमान पुरुष 4-5 शादियां करते हैं और 20- 25 बच्चे पैदा करते हैं, का यह असर है। इस तरह नफरत को,  एक ओर जनसंख्या बढ़ाने का तरकर देकर और दूसरी ओर पितृसत्तात्मक वर्चस्ववादी सोच के हिसाब से हिंदू पुरुषों में  ' सुख से वंचित रहने ' की कुंठा को बढ़ाकर या तर्क देकर आगे बढ़ाया गया। इसलिए एक देश में दो कानून नहीं होने का कुतर्क गढ़कर कथित समान नागरिक संहिता के लिए माहौल बनाया गया।

      हिंदू फासीवादियों की यह समान नागरिक संहिता किसी भी रूप में समान नागरिक संहिता नहीं हो सकती थी। इसे इनके अपने फासीवादी सोच के अनुरूप ही होना था। हिन्दू फासीवादी घोर मजदूर विरोधी हैं घोर महिला विरोधी हैं, घोर दलित और मुसलमान विरोधी है। ये हर तरह के जनवाद, बराबरी और स्वतंत्रता को खत्म कर देने पर यकीन रखते हैं। हर नागरिक को  निगरानी तंत्र, पुलिस और लंपट संघी संगठनों के हवाले कर देना चाहते हैं।

      उत्तराखंड की इस कथित समान नागरिक संहिता इनकी इसी घृणित फासीवादी मानसिकता का पुलिंदा है। सही अर्थों एक समान नागरिक संहिता तभी सही मायने में बन सकती है जब कोई राज्य या देश धर्म निरपेक्ष हो। धर्म नागरिकों का निजी मामला हो। उग्र हिंदुत्व की नीति पर चलने वाली सत्ता और समान नागरिक संहिता बिल्कुल विरोधी बातें हैं।

      उत्तराखंड की इस नागरिक संहिता को देखा जाय। इसमें एक 193 पेज का समान नागरिक संहिता अधिनियम है। इसके अलावा 200 से ज्यादा पेज की यूसीसी नियमवाली और 3-4 पेज का पंजीकरण आदि के मामले में लगने वाली फीस का दस्तावेज है।

        यह संहिता खुद हिंदू फासीवादियों के ' एक देश में दो कानून ' नहीं चलेंगे, के दावे के बिल्कुल उलट है। यह उत्तराखंड की 3 प्रतिशत की जनजाति आबादी पर लागू नहीं होता है। यानी उत्तराखंड की 97 प्रतिशत आबादी इस कानून के हिसाब से चलने को बाध्य होगी जबकि आदिवासी जनजाति अपनी परम्परा के हिसाब से चलेगी। जौनसार जहां के हिंदुओं में एक वक्त बहुपति विवाह प्रचलित था, अभी भी आपवादिक मामले आते हैं, वहां यह कानून लागू नहीं होगा। इस तरह ' एक राज्य में दो कानून ' चलेंगे।

      यह कानून उत्तराखंड के भीतर रहने वाले और उत्तराखंड के वे निवासी जो यहां से बाहर रहते हैं उन सभी पर लागू होगा। बाहरी राज्यों के उन लोगों पर भी लागू होगा जो यहां एक साल से रह रहे हैं। केंद्र सरकार की उत्तराखंड के भीतर संस्थाओं में काम करने वाले नागरिकों पर भी यह कानून लागू होगा। इस रूप में यह दूसरे राज्यों के निवासियों पर लागू होने के चलते भी यह एक कानूनी विवाद का विषय इस रूप में बनेगा कि केंद्र और एक राज्य के कानून में किसको वरीयता दी जाय।

        यह कानून भी निगरानी या जासूसी का औजार है जो नागरिक की हर जानकारी की मांग करता है। इस तरह निजता में पूरी तरह दखल देता है। इसमें प्रमाण इकट्ठा करने का बोझ भी पंजीकरण करवाने वाले के ऊपर ही डाला गया है। 26 मार्च 2010 के बाद से संहिता लागू होने के बीच हुए सभी विवाह/तलाक़ का, कोड लागू होने के तारीख से छः माह के भीतर पंजीकरण को अनिवार्य बनाता है जबकि संहिता लागू होने के बाद सम्पन्न विवाह को 60 दिन में। 26 मार्च 2010 से पहले के विवाह वाले अपना पंजीकरण करा सकते हैं यह अनिवार्य नहीं है। जो पंजीकरण केवल एक शपथ पत्र के दम पर भी संभव था उसे बेहद जटिल बनाया गया है। पंजीकरण के लिए आधार कार्ड, फोन न से लेकर 25 - 30 प्रकार की जानकारी (प्रमाण) जुटाकर सरकार को देनी होगी। आधार कार्ड पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उल्लंघन करके यह कानून इसे पंजीकरण के लिए अनिवार्य बनाता है।अपने पहले के विवाह या तलाक और इससे जुड़ी जानकारी (प्रमाण) सरकार को देने होगी। हर बार पता बदलने, नंबर बदलने, धर्म बदलने आदि की जानकारी सरकार को तत्काल देनी होगी। अपना व्हाट्स एप नंबर सरकार को देना होगा। यदि एक से ज्यादा विवाह और तलाक हुए हैं तो पुरुषों को हर पूर्व पत्नी की फोटो और अन्य जानकारियां ऑनलाइन या ऑफलाइन फॉर्म पर लगानी या देनी होगी। इस तरह नागरिकों को प्रमाण जुटाने की पेचीदा, उलझाऊ, अनावश्यक काम की ओर धकेल दिया गया है। इसके साथ ही यह राज्य के हर नागरिक की गतिविधि, उसके राजनीतिक झुकाव आदि को निगरानी के दायरे में ले आती है।

     यह प्रक्रिया कई महिलाओं के लिए कई मुश्किलें भी खड़ा करेगा। विशेषकर बिना औपचारिक तलाक के पति को उसकी हरकतों से तंग आकर छोड़ देने वाली महिलाओं को। 

    यह कानून पंजीकरण से लेकर वसीयतनामे और दंड,  हर स्तर पर वसूली (फीस के नाम पर) का भी तंत्र है। लिव इन संबंधों में तो एक माह के भीतर ही पंजीकरण कराना होगा।  यह कानून नागरिकों का उत्पीड़न और दमन करने वाला है । विवाह/तलाक का पंजीकरण तय समय के भीतर कराना होगा। इसमें अधूरी सूचना देने, झूठी सूचना देने, तथ्य छुपाने और रजिस्ट्रार ( पंजीकरण करने वाला अधिकारी) द्वारा दिए गए नोटिस का कोई जवाब ना देने के नाम पर अलग अलग दंड की व्यस्था है। विवाह पंजीकरण के लिए 250 तो लिव इन के लिए 500 और लिव इन में संबंध तोड़ने की फीस 1000 रुपए है। विवाह तलाक आदि के पंजीकरण के मामले में देरी होने पर 200 रुपए से लेकर 10000 रुपए तक का जुर्माना देना होगा। इसके अलावा पंजीकरण ना कराने पर सरकारी योजनाओं के लाभ से वंचित करने किए जाने की भी संभावना है।  लिव इन संबंधों के मामले में 10000 से लेकर 25000 रुपए जुर्माने के साथ ही 3 से लेकर 6 माह तक की जेल है। इस प्रकार देखें तो यह विवाह संबंधों में बंधने की तैयारी ( लिव इन संबंध) को एक तरह से अपराध की श्रेणी में डाल देता है।

      यह कानून सरकार ही नहीं किसी तीसरे व्यक्ति को भी, निजी जिंदगी में ताक झांक करने और हस्तक्षेप का मौका देता है पुलिस के पास शिकायत करने का अधिकार देता है। लिव इन संबंधों की शंका होने पर, पंजीकरण के संबंध में शंका होने पर कोई भी तीसरा व्यक्ति शिकायत दर्ज करा सकता है। शिकायत कर्ता द्वारा दूसरी और तीसरी झूठी शिकायत पर जुर्माना जरूर है। लिव इन संबंधों में रहने वालों की जानकारी उनके माता पिता, मकान मालिक को दी जाएगी और पुलिस से सारी जानकारी साझा की जाएगी।  लिव इन में कोई भी पक्ष एकतरफा तौर पर रजिस्ट्रार को सूचित करके संबंध खत्म कर सकता है। 

       लिव इन के संबंध में बना यह कानून औद्योगिक इलाकों और सेवा क्षेत्रों में न्यूनतम वेतनमान पर या इससे भी वंचित मजदूर वर्ग को हर तरह से हैरान परेशान करने वाला साबित होगा।

       निषिद्ध संबंध (सपिंड  और सगोत्र विवाह निषिद्ध) के आधार पर हिंदुओं में ऐसे लिव इन संबंधों का पंजीकरण नहीं होगा और यह अवैध होगा जो निषिद्ध संबंधों के दायरे में हैं। जिस समाज या धर्म आदि में निषिद्ध संबंध की इस तरह की रोक नहीं है वो अपने धर्म गुरु का प्रमाण देकर लिव इन पंजीकरण करा सकते है।

      यह कानून घोर महिला विरोधी है उनकी अपनी मर्जी से विवाह करने को व्यवहार में असंभव बना देता है।          आज समाज में दलितों ,मुस्लिमों और ईसाइयों के खिलाफ क्या स्थिति है यह किसी से छुपी हुई नहीं है। लिव इन संबंधों में बंधने वाले जैसे ही अपनी पंजीकरण की ओर बढ़ेंगे। अपने आधार कार्ड, जाति, धर्म, माता पिता, फोन न की जानकारी पंजीकरण के दौरान देंगे।  कुछ ही वक्त में यह जानकारी लड़की के माता पिता से लेकर कथित लंपट धर्म रक्षक संगठनों तक पहुंच जाएगी। यदि लड़का मुस्लिम होगा, तो लंपट संघी संगठन इसे लव जिहाद का मुद्दा बताकर नफरत की विष बेल बढ़ाएंगे, उन्माद पैदा करेंगे। जबकि माता पिता अपनी जाति या धर्म से बाहर लड़की की शादी को रोकने की भरसक कोशिश करेंगे। लड़का दलित या ईसाई हो तो भी सहजीवन (लिव इन ) मुश्किल हो जाएगा। जब इज्जत के नाम पर निचली जाति से विवाह करने पर जब तब ऑनर किलिंग कर दी जाती हो, स्थिति कितनी खतरनाक होगी समझ में आ सकती है।

       इस तरह व्यवहार में, यह कानून महिलाओं को सशक्त नहीं बनाता बल्कि उनकी अपनी पसंद के हिसाब से शादी करने को असम्भव बना देता है। उनकी यौनिकता को नियंत्रित करने का औजार बन जाता है। 

     यह कानून दलितों, ईसाइयों और मुस्लिमों के खिलाफ है। जातिवाद खत्म होने के लिए भी जरूरी है कि अंतर्जातीय विवाह समाज में तेजी से आगे बढ़ें। आम तौर पर समाज में लोग जाति धर्म के हिसाब से अलग थलग बाड़बंदी जैसी स्थिति में रहते हैं सवर्णों की बस्ती अलग, दलितों की अलग, मुस्लिमों की अलग। यह स्थिति अपने आप में ही स्वस्थ समाज बनने के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा है। हिंदू फासीवादियों के लिए यह स्थिति काफी मददगार है। लिव इन संबंधों और विवाह के पंजीकरण पर बना कानून इस स्थिति को और आगे बढ़ाता है अंतर्जातीय विवाह तथा अंतरधार्मिक विवाह को यह व्यवहार में बेहद मुश्किल बना देता है। एक ओर ऐसा दलित और स्वर्ण के विवाह या लिव इन के मामले में होगा तो दूसरी ओर दलित और मुस्लिम के बीच भी यही होगा।

        यह कानून उत्तराधिकार के मामले में हिंदुओं की मिताक्षरा पद्धति को सभी पर थोप देता है। 2005 में हिंदू महिलाओं को पैतृक संपत्ति पर बराबर का अधिकार का कानून बनाकर इसे कमजोर किया गया। इस पद्धति के हिसाब से पिता अपनी अर्जित संपत्ति से अपनी पत्नी बच्चों को बेदखल कर सकते है और वे केवल भरण पोषण के अधिकारी है यह प्रावधान इस संहिता में बना हुआ है। जबकि मुस्लिमों में पिता या पुरुष  2/3 से पत्नी या बच्चों को बेदखल या वंचित नहीं कर सकता। इस तरह से भी यह कानून मुस्लिम विरोधी है। फ्रांस समेत यूरोप के कई देशों में दो शताब्दी पहले हुई फ्रांसीसी क्रांति के बाद नेपोलियन कोड ( समान नागरिक संहिता) की बात करें तो यहां जबरन उत्तराधिकार का कानून है इसमें पुरुष (पिता) अपनी अर्जित संपत्ति से पत्नी और बच्चों को बेदखल नहीं कर सकता। 

      यदि तलाक़ के मामले को देख जाय। तलाक का हिंदू विवाह में विच्छेद कानून महिलाओं के लिए तलाक़ को बेहद मश्किल बनाता है। यही समान नागरिक संहिता में भी बना हुआ है।  मुस्लिम महिलाओं को धार्मिक कानून के हिसाब से खुला, मुबारत या लियान के जरिए तलाक का अधिकार हासिल था। मगर अब इस कानून के चलते यह स्थिति खत्म कर दी गई है। 

     जहां तक एल जी बी टी समुदाय की बात है इस संबंध में यह संहिता इस तरह खामोश ही जैसे इस समुदाय का कोई वजूद ही नहीं हो।

       इस तरह यह साफ है कि यह नागरिक संहिता, संघर्षों से हासिल संविधान में दर्ज जनवादी और मौलिक अधिकारों को इस तरह पूरी तरह रौंदने वाला है। स्वतंत्रता और जनवाद को; निगरानी तंत्र, जानकारी का भरमार इकट्ठा करके, पुलिस और तीसरे व्यक्ति के दखल से पूरी तरह खत्म कर देता है। अपनी इच्छा, पसंदगी के हिसाब से विवाह करने और इसमें किसी के भी दखल ना होने के जनवादी अधिकार को व्यवहार में खत्म कर देता है। विवाह या लिव इन संबंधों में पंजीकरण ना कराने या देर से करने या ना करा पाने या फिर झूठी सूचना या तथ्य छुपाने का आरोप लगाकर, इन्हें आपराधिक बनाकर करके जुर्माना या जेल का प्रावधान करता है।

     इसलिए इसका हर स्तर पर विरोध करने और साथ ही समग्र तौर पर हिंदू फासीवादियों का इस कानून और हर तरह से बेनकाब करने के साथ ही विरोध करना जरूरी है।


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चुनाव की आड़ में बिहार में नागरिकता परीक्षण (एन आर सी)

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