जनवादी अधिकारों के लिए संघर्षशील व साम्राज्यवाद विरोधी क्रांतिकारी संगठन
Friday, 28 December 2012
Tuesday, 25 December 2012
woman question
पुरुष प्रधान मानसिकता, अश्लीलता व यौन हिंसा परोसने वाले
नाटकों,
साहित्य, फिल्मों व इंटरनेट साईटों को
तत्काल प्रतिबंधित करो! ऐसी घटिया व पतित सामाग्री के प्रचारकों ,प्रसारकों और निर्माताओं को
जेल में डालो !! 16 दिसम्बर की रात लगभग
10 बजे दिल्ली के व्यस्ततम इलाके में जब एक युवक-युवती बस में बैठ कर घर की ओर प्रस्थान कर रहे थे तब बस में ही दोनों को
बेरहमी से पीटने के बाद लड़की के साथ दुराचार किया गया और फिर डेढ़ घंटे बाद इसी
हालत में चलती बस से सड़क पर फैंक दिया गया। युवती अब सफदरजंग अस्पताल में मौत से
जूझ रही है।
दिल्ली जो देश की सत्ता का केन्द्र है जहां एक ओर कॉंग्रेस के नेतृत्व में
राज्य सरकार चल रही है तो वहीं कॉग्रेस के ही नेतृत्व में केन्द्र सरकार चल रही
है। एक ओर मुख्य मंत्री शीला दिक्षित महिला हैं तो दूसरी ओर लोक सभा अध्यक्ष मीरा कुमार
व खुद कॉग्रेस की अध्यक्षा सोनिया गांधी महिला है
विभिन्न खुफ़िया एजेन्सियां व सशस्त्र बल राजधानी की सुरक्षा में हर वक्त
मुस्तैद रहते हैं। लेकिन उसके बावज़ूद भी महिलाएं असुरक्षित हैं। आये दिन महिलाऒं
के साथ ऐसे हादसे होते रहते हैं। ऐसा नहीं कि यह कोइ पहली या अब आखिरी घटना हो।
इस घटना के तत्काल बाद ही मीडिया को जैसे कोई मसाला मिल गया हो वह इसे सनसनीखेज बनाकर अपनी टी.आर.पी बढ़ाने की जुगत में लगा हुआ है। क्या अखबार क्या टी.वी. खबरिया चैनल अधिकांशतया सभी के संपादक, संवाददाता या फ़िर सांसद, विधायक या शासक वर्ग के अन्य लोग जिसे भी मौका मिल रहा है अधिकांश चिल्ला चिल्ला कर कह रहे है ये “वहशी दरिन्दे” हैं इन्हें “फ़ांसीं” दे देनी चाहिये या फ़िर “नपुसंक” बना देना चाहिये।यानी एक बार फ़िर “सख्त कानून - कठोर कानून” की बातें। और अब बसों में सीसी टीवी लगाने की बात कही जा रही है “अच्छा इन्तजाम है कैमरे बिकवाने का”।
इस घटना के तत्काल बाद ही मीडिया को जैसे कोई मसाला मिल गया हो वह इसे सनसनीखेज बनाकर अपनी टी.आर.पी बढ़ाने की जुगत में लगा हुआ है। क्या अखबार क्या टी.वी. खबरिया चैनल अधिकांशतया सभी के संपादक, संवाददाता या फ़िर सांसद, विधायक या शासक वर्ग के अन्य लोग जिसे भी मौका मिल रहा है अधिकांश चिल्ला चिल्ला कर कह रहे है ये “वहशी दरिन्दे” हैं इन्हें “फ़ांसीं” दे देनी चाहिये या फ़िर “नपुसंक” बना देना चाहिये।यानी एक बार फ़िर “सख्त कानून - कठोर कानून” की बातें। और अब बसों में सीसी टीवी लगाने की बात कही जा रही है “अच्छा इन्तजाम है कैमरे बिकवाने का”।
चीख -चीख कर पर्दे के आगे बलात्कार के लिये “कठोर
कानून बनाने ” “फ़ांसी देने” “नपुसंक
बनाने” की बात कही
जा रही है थोड़ा धूर्त लोगों द्वारा कहा जा रहा है कि “मानसिकता”
खराब है मानसिकता बदले बगैर समस्या हल नहीं होगी। ड्राइवरों की
वेरिफ़िकेसन कराने की बात व गाडियों में काले शीशे पर रोक लगाने की बात कही जा रही
है। ऐसी घटनाओं को रोकने के लिये कई लोगों का तर्क है कि महिलाओं को इतनी रात
में नहीं घूमना चाहिए खुद दिल्ली की मुखिया शीला दीक्षित भी ऐसा ही फ़रमाती हैं ।
या यह नहीं करना चाहिए और वह नहीं करना चाहिए.... वगैरह, वगैरह। सवाल यह है कि
महिलाओं के लिए ही यह अघोषित कर्फ़्यू क्यों? महिलाओं पर ही पाबंदी क्यों?सवाल यह है कि संविधान में
लिंग के आधार पर समानता व स्वतनत्रता के आधार पर अधिकार दिये जाने व वादा किये जाने
के बावज़ूद आज लगभग ६ दशकों बाद भी यह स्थिति क्यों ?.. महिलाओं की दोयम दर्जे की स्थिति व महिलाओं के प्रति
इस प्रकार बढ़्ते अपराधों के बावज़ूद किस आधार पर हमारे शासक “महिला सशक्तिकरण” का राग अलापते रहते हैं...?.. .सवाल आगे यह है कि जिस देश की शासन सत्ता को चलाने वाले लोगों में भी कुछ
ऐसे ही ‘अपराधी’ लोग शुमार हों, जिस देश की हुकुमत या पुलिस
प्रशासन व फ़ौज “बलात्कार” को
टॉर्चर के बतौर व जनता के आन्दोलनों के
दमन के लिये इस्तेमाल करती रहती हो ... और देश के पुर्वोत्तर
व कश्मीर में इन “बलात्कारियों”
को जब “डिस्टर्ब एरिया ऎक्ट” “सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून”के नाम पर कोर्ट में
भी चुनौति नहीं दी जा सकती हो .. तो फ़िर क्या “बलात्कार” जैसी घटनाओं को रोका जा सकता है। मणीपुर
में आसाम राइफ़ल्स के जवानों द्वारा किया गया मनोरमा देवी बलात्कार हत्याकाण्ड व
इसके विरोध में यहां की महिलाओं का “भारतीय सैनिको हमारा
बलात्कार करो” के नारे के साथ सेना के कार्यालय के सामने
किया गया नग्न प्रदर्शन। कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर भारत उत्तराखण्ड आन्दोलन में “मुजफ़्फ़र
नगर काण्ड” यह हर जगह का सच है .... क्या इसे भूलाया जा सकता है .. ? इस बात को क्या हमें भूल जाना चाहिये कि चाहे बस में या फ़िर किसी अन्य
स्थान पर या फ़िर आन्दोलन् के दमन में बलात्कार की शिकार होती हैं आम तौर पर आम
मेहनतकश महिलाएं ही। हर समस्या का समाधान “कानून के चश्मे” से देखने वाले लोग फ़रमाते है कि “कठोर कानून व इसका
अनुसरण” ही इसका समाधान है कानून का हश्र तो हम देखते ही
रहते हैं। यह शासक वर्ग के साथ एक तरह का व्यववहार करता है और आम जनता के साथ ठीक
उसका उल्टा। इसके अलावा यदि कानून कठोरता से लागू हो भी गया तो भी यह ‘मात्र सजा देने’ का काम कर पाएगा। क्या यह कानून उस
सोच को खत्म कर पाएगा जिस सोच के अनुसार महिलाएं केवल “शरीर
हैं, माल
हैं,उपभोग की वस्तु हैं” जिसे जब चाहा रौंदा? विरोध हुआ तो हत्या कर दी। जिसके लिए
महिलाओं का कोई स्वतंत्र वजूद ही नहीं वह तो बस पैर की जूती है... कदापि नहीं। यह कानून उनसे कैसे निपटेगा जो कि समाज में ऐसा जहर फ़ैला रहे है। जब “अश्लीलता” “यौन हिंसा”
व “पुरुष प्रधान मानसिकता” का जहर पूरे समाज में फ़ैलाया जा रहा हो। समाज में “शीला
की जवानी” “मुन्नी बदनाम हुई” आदि -आदि जैसे अश्लील व घटिया गाने आम हो चुकें हों इनके खिलाफ़ नफ़रत के बजाय
लोग इनसे आनन्द उठाते हों। गली-गली में “उत्तेजक दिखने की” सौन्दर्य प्रतियोगितायें आयोजित
हों।‘उत्तेजक कहलाने में फ़क्र महसूस करवाया” जा रहा हो। समाज में “उत्तेजक दिखने” व “हिसंक दिखने
-होने ” को ग्लैमराइज किया जा रहा हो
तब कैसे उम्मीद की जा सकती है कि महिलाओं के प्रति अपराध नहीं होंगे इसके उल्टे यह
तो और ज्यादा तेजी से बढ़ेंगी। इस प्रकार की फ़िल्मों, विग्यापनों नाटकों को करने
वाले लोग जो कि शासक वर्ग के ही लोग हैं जो ‘नग्नता’
‘हिंसा’ आदि-आदि का प्रदर्शन कर जिन्दगी का
लुत्फ़ उठाते हैं समाज में ऐसा ही करने का संदेश देते हैं चूकीं ये तो सुरक्षा की चारदिवारियों में हर वक्त मौजूद रहते हैं और
फ़िर इसका शिकार होती है आम महिलाएं।
महिला अपराधों को अंजाम देने वाले
अपराधियों को दण्डित करना चाहिये लेकिन सवाल यह है कि इन्हीं को “बहसी दरिन्दे” या मानवता के सबसे बढ़े अपराधी के रूप
में चित्रित करके इन्टर्नेट पर पोर्न सामाग्री डालने वालों “अश्लीलता
व यौनहिंसा” व पुरुष वर्चस्ववादी सोच को परोसने वाली फ़िल्मों
नाटकों आदि के निर्माताओं या ‘असली अपराधियों’ को सजा क्यों नहीं दी जाती..? क्यों नहीं समाज में ऐसी
मानसिक विकृति को पैदा करने ऐसे अपराधियों को पैदा करने वाली घृणित व घटिया
सामाग्री को प्रतिबन्धित किया जाता..?
क्या
इसीलिये कि इस पर अरबों खरबों का कारोबार टिका हुआ है। इस पर अंगूली रखते ही सवाल
फ़िर पूरे तन्त्र पर आयेगा। सवाल फ़िर पूंजीवाद व्यवस्था पर होगा जिसके मुनाफ़े का
दर्शन उस हर चीज को “माल” में “उपभोग की वस्तु”
में बदल देता है जिसे बाज़ार में बेचकर मुनाफ़ा कमाया जा सकता है। साथ
ही हर नागरिक को ‘उपभोक्ता’ में बदलकर
समाज में ‘उपभोक्ता वादी सोच’ को बढ़ावा
देता है “खाओ-पीओ-मौज करो” की संस्कृति को समाज में फ़ैलाकर समाज में “असंवेदनशीलता
व खुदगर्जी” को बड़ा रहा है। हकीकत यह है
कि भारत सरकार व इसका समस्त ‘शासन प्रशासन आम महिलाओं के
प्रति बेहद असंवेदनशील है। अपने वर्ग की महिलाओं के मामले में यह तत्काल सक्रिय हो
जाता है वहीं दूसरी ओर आम महिलाओं के मामले में इसका ठीक उल्टा। अलग-अलग वर्गों के
हिसाब से यह व्यवहार करता है मध्यम वर्ग के साथ एक व्यवहार तो मज़दूर वर्ग व गरीब
मेहनतकश के साथ तो बेहद घटिया व उसे बिल्कुल भी तवज्जो नहीं देना अपमानित व
तिरष्कृत करने की सोच। इसके साथ ही यहां बैठे अधिकांश लोग भी इन्हीं पुरुष प्रधान
मानसिकता व पूंजीवादी उपभोक्तावादी सोच जैसी मूल्य मान्यताओं से ग्रसित हैं। यही
एक कारण भी है कि ‘महिला आरक्षण बिल’ आज
भी लटका हुआ है। इसके अलावा यह भी कारण है कि इस घृणित महिला विरोधी सोच को पाल-पोस कर बढ़ावा देकर, इस लूट व ‘शोषण पर टिके पूंजीवादी समाज को ये बचाए रखना चाहते हैं।
इसलिये महिलाओं के खिलाफ़ बढ़ रहे इस प्रकार के अपराधों को खत्म करने का
संघर्ष बगैर पूंजीवादी व्यवश्था को अपने निशाने पर लिये आगे नहीं बढ़ सकता है। Wednesday, 12 December 2012
repression of movement
लाठी चार्ज के लिये जिम्मेदार अधिकारियों को बरखास्त
करो ! फ़र्जी मुकदमे वापस लो !! उत्तराखण्ड की कॉग्रेस सरकार ने विधान सभा के बाहर धरना प्रदर्शन कर रहे शिक्षा मित्रों का बेदर्दी से दमन किया। इन दिनों विधान सभा सत्र
चलने के चलते ये शिक्षा मित्र पिछले कई दिनों से यहां धरना प्रदर्शन कर रहे थे । इन
शिक्षा मित्रों की मुख्य मांग थी -इनके डी.ई.एल.एड के कोर्स को तय समय पर करवाया जाय
तथा मानदेय को 10 हज़ार से बढ़ाकर 22 हज़ार किया
जाय। ठीक 10 दिसम्बर को ‘मानवाधिकार दिवस’ के ही दिन महिला पुरूष शिक्षा मित्रों पर
लाठियां चलाकर घोड़े दौड़ाकर ‘मानवधिकारों’ को रौदां गया।जिसमें कुछ को गम्भीर चोटें
आयी हैं एक महिला शि्क्षा मित्र बेहोश भी हो गयी। इसके बाद भी जब लगा कि आन्दोलन नहीं
थमा तो 11 दिसम्बर की रात होते होते आईपीसी की धारा-147, 148, 323, 332, 353, 188 के
साथ ही सेवेन क्रिमनल ला अमेंडमेंट एक्ट के तहत मुकदमा भी दर्ज कर दिया गया। इसमें
ललित द्विवेदी, रविंद्र खाती, अनिल शर्मा, अमरा रावत, हीरा सिंह, संदीप रावत, हेम बोरा
समेत अन्य 350 लोगों को आरोपित बनाया गया है। इस लाठी चार्ज में शिक्षा मित्रों के
मुताबिक लगभग 100 को चोटें आयी है ।कोरोनेसन अस्पताल में 27 शिक्षा मित्र की मरहम पट्टी
की गयी जिसमें से तकरीबन 6 को गम्भीर चोटें भी आयी थी यह भी पता लगा कि इन्हें लाठीचार्ज
में घायल दिखाने के बजाय दुर्घटना दिखाया गया है। इसके अलावा दून अस्पताल में भी कई
शिक्षा मित्र इलाज करवाने गये थे कई ऐसे भी थे जो डर-भगदड़ की वजह से असपताल ही नहीं
गयी। पांच पुलिस्कर्मी भी अस्पताल में इस लाठीचार्ज में चोट आने की वजह से एडमिट थे
। शिक्षा मित्रों का आन्दोलन इस दमन के बावज़ूद अभी भी जारी है इस दमन ने इनमें और ज्यादा
एकता व जुझारूपन पैदा कर दिया है गौरतलब हो कि प्रदेश में लगभग दो वर्ष पहले भी
शिक्षा मित्र आन्दोलन कर रहे थे उस वक्त निशंक के नेतृत्व में भा.ज.पा. सरकार सत्ता
पर चला रही थी लगभग सवा पांच हज़ार शिक्षा मित्रों के भविष्य का तब सवाल था । भा.ज.पा. सरकार ने तब कई वर्षों से शिक्षण कार्य
कर रहे इन शिक्षकों को नियमित नियुक्ति देने के बजाय बड़ी चालाकी से बी.टी.सी. करवाने
का झुनझुना थमाया और इस प्रकार अधिकांश स्नातक ना होने के तर्क के आधार पर बाहर हो
जाते । बाद में लगभग 1200-1300 शिक्षा मितों को बी.टी.सी. ट्रेनिगं करवायी गयी। शेष
4000 से ऊपर शिक्षा मित्रों में से लगभग 2315 को जुलाई 2011 से दूरस्थ शिक्षा के तहत
इन्दिरा गांधी मुक्त विश्वविध्यालय से 2 वर्ष का ‘एलीमेन्ट्री एजुकेसन’ करवाने की बात
की गयी इसका पहला सत्र इस वर्ष अगस्त माह में ही पूरा हो जाना था जो कि अभी तक पूरा
नहीं हो पाया । अब यह भी पता लगा है इग्नु द्वारा
संचालित इस कोर्स के पाठ्यक्रम को को तब एन.सी.टी.ई.
का अनुमोदन ही नहीं था। इस कोर्स का पूरा पैसा शिक्षा मित्रों के मुताबिक उन्होंने
खुद ही अपनी जेब से दिया है और राज्य सरकार इस बात का दावा कर रही है कि पैसा सरकार
द्वारा दिया गया । राज्य सरकार यह भी कह रही है कि उसे नहीं पता कि कोर्स के पाठ्यक्रम
को एन.सी.टी.ई. का अनुमोदन नहीं था। जबकि दूसरी ओर जो भा.ज.पा. इस वक्त कॉग्रेस को कठघरे में खड़ा कर रही है उसने खुद
अपनी सत्ता के दौरान शिक्षा मित्रों योग प्रशिक्षकों आदि-आदि पर जो लाठियां चलवायी
व मुकदमे दर्ज कर दिये उसे भुलाने का नाटक कर रही है साथ ही शिक्षा मित्रों के आन्दोलन
को तोड़्ने के लिये बी.टी.सी. का लौलीपॉप थमाया।
जिन 1200-1300 शिक्षा मित्रों को बी.टी.सी.
का कोर्स करवाया गया उन्हें फ़िर से इस साल शिक्षा निदेशालय के सामने आन्दोलन करना पड़ा।
उत्तराखण्ड सरकार दवारा अब कहा जा रहा है कि इन बी.टी.सी.शिक्षा मित्रों को नियुक्ति
नहीं दी जा सकती क्योंकि इन्होंने टी.ई.टी पास नहीं किया है।
इस प्रकार
शासकों द्वारा जनता के साथ खिलवाड़ लगातार जारी
है। उनकी मांगों को लगातार अनसुना करना ताकि आन्दोलन निराशा में खुद ही बिखर
जाय अगर इसका उल्टा हुआ आन्दोलन और तेज हो
जाय तो इनकी हथियार पुलिस है ही जिसे ये बखुबी चलाना जानते हैं। इस प्रकार मामला पुलिस
बनाम जनता का बन जाय और सरकार पर्दे के पीछे रहकर अपने निर्दोष होने व दमन में शामिल
अधिकारियों-कर्मियों को द्ण्डित करने का नाटक करते रहे । पूंजीपतियों को कई लाख करोड़ रुपये का राहत पैकेज देने
वाली कॉंग्रेस पार्टी को जनता के काम के एवज में वेतन देने की मांग संकट व बोझ लगता
है।उत्तराखण्ड के सिडकुल में पूंजीपतियों को तमाम तरीके की रियायतें देने वाली ये पूंजीवादी
राजनीतिक पार्टियां व इनके मंत्री कहते हैं कि राज्य वित्तीय-आर्थिक संकट की कगार पर है। अपना नाकाफ़ी
दिखने वाला वेतन व सुविधायें बढ़ाने का प्रस्ताव सेकेन्डों में ध्वनि मत से पारित करने
वाले ये मंत्री फ़रमाते हैं कि शिक्षा मित्रों
का मानदेय अगर 15 हज़ार कर दिया जाता है तो सालाना 24 करोड़ रुपये का बोझ सरकारी कोष
पर पड़ेगा। ‘समान काम का समान वेतन’ की धज्जियां
उड़ाते इन मंत्रियों को संविदा कर्मचारियों
की मात्र 5000 रुपये की बढ़ोत्तरी बोझ लगती है । शिक्षा मित्रों के
जख्मों पर लगाने की कोशिश करते हुए मुख्य मंत्री बहुगुणा ने इस घटना की न्यायिक जांच
की बात कही और साथ ही अगले दिन 11 दिसम्बर को वार्ता का वक्त दिया लेकिन जब अगले दिन
शिक्षा मित्रों के प्रतिनिधि वार्ता के लिये गये निर्धारित वक़्त पर पहुंचे तो पता लगा कि मुख्य मंत्री के अलावा और कोई मंत्री
पहुंचा ही नहीं । इस प्रकार शाम होते-होते वार्ता केवल इन्तजार बनकर रह गयी। मुख्य
मंत्री ने यह आश्वासन शिक्षा मित्रों को दिया कि उनपर कोई भी मुकदमे नहीं लगेंगे। लेकिन
रात होते-होते किसी रणनीति के तहत सबक सिखाने व आन्दोलन को तोड़्ने के लिये मुकदमे संगीन
धाराओं के तहत मुकदमे दर्ज कर दिये गये। इस प्रकार शान्तिपूर्ण प्रदर्शनों का दमन करके पुलिसिया राज व आतंक कायम करके ये खुद ही ‘दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र’ होने के अपने दावे पर सवालिया निशान लगा देते हैं।
खुद ही जनता को संविधान में मिले मौलिक अधिकारों पर हमला कर गैरसंवैधानिक कृत्य करते
हैं व अपने ही संविधान के औचित्य पर प्रश्न-चिह्न लगा देते हैं। इस स्थिति में यह जरूरी बन
जाता है कि इस दमन का साथ ही साथ अन्य जगहों पर होने वाले दमन का तीखा विरोध किया जाय
व अपने जनवादी अधिकारों के लिये संघर्ष किया जाय।
the peoples right to decide
जनता की जिन्दगी से जुड़े मुद्दों का फ़ैसला कौन करेगा ? जनता या फ़िर.......... पिछले दो दशक में सरकार नयी आर्थिक नीतियों के जरिये पहले मज़दूरों कर्मचारियों फ़िर किसानों [पूंजीवादी फ़ार्मरो को छोड़्कर] पर हमला बोला । अब खुदरा क्षेत्र में इन ही नीतियों की मार एफ़.डी.आई. के रूप में व्यापारियों पर पड़ने वाली है । इस बीच विभिन्न पूंजीवादी राजनीतिक पार्टियां संसद में सरकार के एफ़.डी.आई. के निर्णय का विरोध भी कर रही है। एक तरफ़ विरोध हो और अपना राजनीतिक आधार भी बचा रहे और दूसरी ओर ये नीतियां भी लागू भी हो जायं और इस प्रकार देश की एकाधिकारी पूंजी या कई लाख करोड रुपये का कारोबार करने वाले टाटा-बिड़्ला-अम्बानी जैसे उध्योगतियों को और खुद को भी मामामाल किया जाय यही इनकी "इमानदारी व नैतिकता" है। एफ़.डी आई रिटेल में लाने के लिये तर्क दिये जा रहे हैं कि इससे किसानों को फ़ायदा होगा, उपभोक्ताओं को माल सस्ता होगा देश में विकास होगा रोजगार के नये क्षेत्र खुलैंगे । अवाम जानती है कि ये फ़िजुल के तर्क है ऐसे ही तर्क 90 के दशक में इन नीतियो को लागू करते वक्त भी दिया गया था पिछले 20-22 वर्षों में सरकार इन नीतियों के जरिये देश में संगठित क्षेत्र के मज़दूरों-कर्मचारियों को मिलने वाले अधिकारों खत्म करने की ओर बढ़ी है ।असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले भारत के लगभग 97% श्रमिक तो पहले ही इन अधिकारों से वंचित थे। ठेकाकरण-संविदाकरण के साथ बढ़्ती महंगाई यही आज का सच है। कृषि क्षेत्र में तो लाखों किसान आत्मह्त्या को विवश हुए हैं। अब यही तबाही खुदरा क्षेत्र में भी दोहरायी जायेगी। एक तथ्य के अनुसार भारत में लगभग 4 करोड़ खुदरा व्यापारी है इसका कुल कारोबार लगभग 22,000 अरब रुपया[विकिपीडिया] है भारत में दुनिया में सबसे ज्यादा लगभग 1 करोड़ 30लाख रिटेल आउट्लेट्स हैं।[2007 के आकडों के मुताबिक भारतीय खुदरा व्यापार-चुनौतियां अवसर व नज़रिया साईट से] विश्व खुदरा सूचकांक के मुताबिक भारत में अगले 5 वर्षों तक लगातार 15-20% की दर से खुदरा बाज़ार में विकास की संभावनायें है[आई.सी.आर.आए.ई.आर के मुताबिक] भारत दुनिया का अर्थव्यवस्था के लिहाज से पांचवां बड़ा बाज़ार बनता है इस विशाल बाज़ार पर भारत के अम्बानी- भारती आदि-आदि जैसे बड़े पूंजीपतियों की नज़र पहले से थी। उन्होंने इसके लिये कई हथकण्डे भी अपनाये लेकिन इसके बावज़ूद ये इस विशाल बाज़ार को अपने कब्जे में लेने में सफ़ल नहीं हो पाये ।खुदरा क्षेत्र में संगठित क्ष्रेत्र की अभी कुल हिस्सेदारी सारे प्रयासो के बावज़ूद 4.2 % ही बन पायी है।
इस बाज़ार को अपनी पकड़ में लेने के लिये जिस अनुभव तकनिकी कुशलता व विशेषग्यता की जरूरत थी ये अम्बानी-भारती जैसे पूंजीपतियों के पास नहीं थी। इस सबको हासिल करने के लिये जरूरत थी वालमार्ट केयरफ़ोर,टेस्को मेट्रो ग्रूप जैसे इस क्षेत्र के अनुभवी तकनिकी रूप से कुशल विशेषग्यों की। वालमार्ट कम्पनी की 7331 आउट्लेट्स है इसकी कुल 39,59,050 लाख अमेरिकन डॉलर , केयरफ़ोर की 13419 आउट्लेट्स है इसकी कुल 14,22,290 लाख अमेरिकन डॉलर का सेल्स है यही हाल यही अन्य का है।[2007 के आकडों के मुताबिक भारतीय खुदरा व्यापार-चुनौतियां अवसर व नज़रिया साईट से] दुनिया के कई मुल्कों में अपने कारोबार को फ़ैलाकर ये अपने कौशल दक्षता व तकनिकी का प्रदर्शन कर चुकी हैं। और भारतीय पूंजीपति इस दक्षता व तकनिकी को हासिल करके देश विदेशों में लूट मचायेंगें ।जैसा कि वालमार्ट आदि जैसी कम्पनिया कर रही है एक ओर मज़दूरों को बेहद कम वेतन , खुदरा क्षेत्र के व्यापारियों का सफ़ाया तो दूसरी ओर बाज़ार में एकछ्त्र साम्राज्य कायम हो जाने के बाद सामानों की कीमतों में बढ़ोत्तरी। निश्चित तौर पर ऐसी दिग्गज कम्पनियां जब भारत पहुंचेगी तो खुदरा बाज़ार के व्यापारियों का बहुलांश हिस्सा धीरे-धीरे ही सही तबाह-बर्बाद होंगे।ये उन किसानो की तरह अपनी सम्पत्ति व पूंजी से वंचित हो जायेंगे जो पिछले दो दशकों में जिनकी जमीन व पूंजी बाज़ार की लूट के जरिये बड़े पूंजीवादी फ़ारमरों के पास पहुंच गयी। इस प्रकार इन्हीं की तरह मज़दूर वर्ग की कतार में पहुंच जायेंगे। तब हमारे सामने एक जो पहला सवाल है वह यह कि आखिर ऐसा ही क्यों होता है कि बड़े-बड़े फ़ैसले जो आम अवाम की जिन्दगी को गहराई से प्रभावित करने वाले होते हैं उन्हें जनता की मर्जी के बगैर लागू कर दिया जाता है । कोई भागीदारी आम जनता की निर्णयों के संदर्भ में नहीं होती।जब वोट देने का हमें अधिकार है तो फ़िर इस अधिकार से हमें क्यों वचिंत रखा जाता है क्यों नहीं ऐसे महत्वपूर्ण फ़ैसलों पर हमा्री राय ली जाती या इस पर जनमत संग्रह कराया जाता है जब हमारे शासक भारत को ‘दुनिया का सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक मुल्क’ कहते है तो फ़िर वह इस बात मात्र से इतना घबराते क्यों हैं?.... केवल इसी वजह से कि इनका यह तथाकथित लोकतन्त्र टाटा-बिड़्ला-अम्बानी जैसे पूंजीपतियों का सेवक है उसे चलाने में अड़्चनें आने लगेंगी। फ़िर अगला सवाल इस स्थिति में यह बनता है कि ऐसे हालातों में क्या किया जाय । हालात इससे ज्यादा गम्भीर है दरअसल छोटी पूंजी -बड़ी पूंजी और फ़िर बड़ी पूंजी द्वारा छोटी पूंजी को निगलते हुए विशालकाय होते चले जाना। ये लूट-पाट जो बाज़ार के नियमों के द्वारा व बड़ी पूंजी के सेवकों द्वारा बनाये गये कानूनों द्वारा होता है । छोटी पूंजी का बड़ी पूंजी द्वारा इस तरह निगल लेने की प्रक्रिया से बचा नही जा सकता। यह पूंजीवादी व्यवस्था का पैदायशी गुण है एकजुट होकर जुझारू संघर्ष करके इसे कुछ समय के लिये टाला तो सकता है लेकिन हमेशा के लिये रोका नहीं जा सकता। उसी प्रकार जैसे कि बहते हुए पानी को बांध बनाकर कुछ समय के लिये इसके बहाव को थामा जा सकता है लेकिन वक्त गुजरते ही पानी अपने लिये रास्ता बनाकर बहाव को फ़िर कायम कर लेगा । यही प्रक्रिया भिन्न रूप में पूंजी के इस लूट में भी है। बड़ी पूंजी द्वारा छोटी पूंजी को निगलते चले जाने का दुखद परिणाम एक ओर यह होगा कि यह बर्बारी और तबाही को जन्म देगी तो दूसरी ओर सकारात्मक अर्थों में यह समाज के स्तर पर सामानों के उत्पादन व विपणन को विशाल स्तर पर नियन्त्रित व संगठित कर देगा और यह एक ऐसे समाजवादी समाज के लिये आधार तैयार करेगा जहां बड़ी पूंजी व छोटी पूंजी के इस लूट के ताने-बाने की जगह व इसको जन्म देने वाले पूंजीवाद की जगह छोटी पूंजी को सहकारी रूप में संगठित किया जायेगा।
इस दिशा को समझते हुए ही व इस ओर बढ़्ने पर खुदरा व्यापारियों का व समस्त मेहनतकश अवाम का संघर्ष सही समाधान की ओर होगा इसकी शुरुआत अब हमें यही से करनी होगी कि निर्णय लेने की व समग्र नीतियों को तय करने में अवाम का हस्तक्षेप हो मेहनतकश जनता का यह अधिकार हो।
इसलिये हमें अपनी आवाज बुलन्द कर इन नारों के साथ व इन्हें हासिल करने के लिये संघर्ष करना होगा----
खुदरा क्षेत्र में एफ़.डी.आई वापस लो ! रिटेल में एफ़.डी.आई का फ़ैसला जनमत संग्रह से लो! नयी आर्थिक नीतियां रद्द करो ! विश्व व्यापार संगठन से बाहर आओ ! साम्राज्यवादी
मुल्कों से किये गये समझौते रद्द करो !
द्वारा
क्रान्तिकारी अभिवादन के साथ क्रान्तिकारी लोक अधिकार संगठन
दिनांक 4-12-2012
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