राज्य कर्मचारियों की जायज मांगों के
संबंध में सरकार अविलम्ब जी.ओ. जारी करे !
साथियो,
उत्तराखंड
में राज्य कर्मचारियों द्वारा राज्य संयुक्त कर्मचारी परिषद के बैनर तले पिछले कई
दिनों से अपनी जायज आर्थिक मांगो के संबंध में संघर्ष चलाया जा रहा है ।
कर्मचारियों की मुख्य मांगे वेतन विसंगति दूर किए जाने व तीन प्रोन्नति या
प्रोन्नत वेतनमान दिये जाने के संबंध में है । इन मांगों के संबंध में इससे पहले
भी राज्य कर्मचारी संघर्ष करते रहे हैं लेकिन हर बार शासको का रवैया ऐसा ही रहता
है ।
इस
संघर्ष के प्रति राज्य सरकार का रुख उपेक्षापूर्ण है टालामटोली का है। और कोशिश
यही है कि जब तक मजबूरी न बन जाय तब तक इसे लटकाए रखे । और इस स्थिति में भी जब कभी
कर्मचारी अपनी हदों को पार करते हैं तो फिर आंदोलन को वापस लेने के लिए उन को `नो वर्क – नो पे’ या फिर एस्मा जैसा काला कानून लागू करने की धमकी देने से भी कोई गुरेज
नही होता है । जबकि यह स्थिति खुद सरकार द्वारा पैदा की गई है जो कि कर्मचारियों
के संबंध में 6th वेतनमान व प्रोन्नति के संबंध में खुद स्वयं द्वारा
मान्य नियमों को लागू करने से बचती रहती है । कहा जा रहा है कि इसे लागू करने से
खजाने पर 450 करोड़ रुपये का बोझ बढ़ेगा । और यही तर्क तब दिया गया था जब शिक्षा
मित्रों ने अपना मानदेय बढ़ाने के लिए राजधानी में प्रदर्शन किया था । जनता के हर
हिस्से के आंदोलन के प्रति सरकार का कम या ज्यादा तीव्रता के साथ यही व्यवहार रहता
है ।
ये अमीर पूंजीवादी राजनेता जो विधान
सभाओं व संसद में अपने वेतन व सुविधाएं बढ़ाने वाले बिल को सेकंडों में पारित
कर तत्काल लागू कर देते है जो कि पूंजीपति
वर्ग के ईमानदार प्रतिनिधि है इसीलिए लाखों करोड़ की पूंजी के मालिकों की मुनाफे की
चिंता में ही डूबे रहते है और खुद को व इन पूँजीपतियों को और मालामाल करने के लिए कौड़ियों
के मोल इन्हे जमीन देने, देश के खनिज संसाधनों को इन पर लुटा देने, सस्ती
बिजली, सस्ता मजदूर देने तथा ढेर सारी छूटें देने को आकाश
पाताल एक कर देती है यदि इन्हे जनता के एक बेहद छोटे हिस्से कि मांग भी खजाने में
बोझ लगती है तो समझ में आ जाता है कि एसा क्यों है ।
क्रांतिकारी
लोक अधिकार संगठन राज्य सरकार के इस घटिया व संवेदनहीन व्यवहार की तीखी भर्त्सना
करता है और मांग करता है कि सरकार कर्मचारियों की मांगो के संबंध में तत्काल
आवश्यक दिशानिर्देश जारी करे ।
कर्मचारियों
की मांगे व संघर्ष जायज है इसमे कोई दो राय नहीं । लेकिन इसके साथ ही यह कहना भी सही
होगा कि यह संघर्ष मात्र आर्थिक हितो या
सुविधाओं के लिए चलाया जा रहा सीमित या संकीर्ण संघर्ष भी है यह स्थिति
मजदूर-कर्मचारियों व मेहनतकश जनता के समग्र हित में ठीक नहीं है और यह स्थिति
चिंताजनक भी है ।
यह
स्थिति चिंताजनक, गंभीर व
खतरनाक इसलिए है कि जब पूरे देश में मजदूर-कर्मचारी विरोधी श्रम नीति को लागू करने
की दिशा केंद्र व राज्य सरकारें बेहद तेजी से अपना कदम बढ़ा रही हो, `संविदा प्रथा’ व `ठेका प्रथा’ व `आउटसोर्सिंग’ नीति ज़ोर शोर से आगे बढ़ रही हो, ट्रेड यूनियन अधिकारों पर हमले किए जा रहे हों , निजीकरण का शोर चारों ओर हो तब इन गंभीर चुनौतियों व हमलों के दौर में
कर्मचारियों व कर्मचारी यूनियनों का इन नीतियों के विरोध में व्यापक संघर्ष नही
दिखाई देता । आज से लगभग 13 वर्ष पहले विध्युत विभाग के कर्मचारियों का विभाग
के निजीकरण के विरोध में किए गए जुझारू
संघर्ष को याद करें तो यह समझ में आ जाएगा ।
विरोध का यह तीखा स्वर व संघर्ष तब भी नहीं दिखाई देता जब सरकारी विभागों
के संविदाकर्मी या ठेकाकर्मी या फिर बेहद कम वेतन ( मानदेय ) पर काम करने वाले
कर्मी अपने नियमितीकरण या अन्य मांगों के लिए संघर्ष कर रहे होते हैं और इनके
संघर्ष का दमन किया जाता है ।
शासकों
द्वारा अलग-अलग वक्त में 5th , 6th
वेतनमान को लागू किया अब तो 7th वेतनमान
की चर्चा आम हो गई है । यह इसलिए लागू नही किया गया कि इन्हें कर्मचारियों की बहुत चिंता थी । एक सोची समझी रणनीति के तहत यह
सब किया गया जो कि जारी है । इन वेतनमानों के जरिये उच्च अधिकारियों का वेतन काफी
ज्यादा बढ़ाया गया , कर्मचारियों व इनके वेतन में अंतर को
काफी बढ़ाया गया । कर्मचारियों के व्यापक व जुझारू संघर्ष करने की प्रवृति को कुंद कर
दिया गया एसा वेतन के जरिये सुविधाभोगी बनाकर किया गया । जनता के व्यापक हिस्से
मजदूर मेहनतकश से इसके अलगाव को बेहद बढ़ा दिया गया । एक ओर मुट्ठी भर लोगों की तंख्वाह
तुलनात्मक तौर पर काफी बढाई गई तो दूसरी तरफ व्यापक मज़दूर आबादी के जीवन को और
मुश्किल हालातों में डाला गया । सरकारी विभागों में नई स्थायी भर्तियों को बंद
करके काफी कम वेतन पर संविदाकर्मियों, ठेकाकर्मियों की या
मानदेयकर्मियों की भर्ती व या आउटसोर्सिंग की प्रक्रिया की ओर जोर - शोर से बढ़ा
गया ।
बीते वक्त की तरह ही सरकार आन्दोलन को तोड़ने के लिए हर तिकड़में कर रही हैं
और अब आंदोलन के प्रति उदासीनता व उपेक्षा बरतकर आंदोलन को लंबा खिचने दे रही है ताकि
आंदोलन ठंडा पड़ जाये , मेहनतकश जनता के अन्य हिस्से आवश्यक सेवाए ना मिल पाने
की स्थिति में कर्मचारियों को ही दोषी माने व
इसका तिरस्कार करें जबकि इन सभी स्थितियों
के लिए सरकार दोषी है ।
साथियो
, इसलिए मौजूदा संघर्ष के फ़लक को बढ़ाने की
व इसे व्यापक लिए जाने की बेहद सख्त जरूरत
है । हम सभी अच्छी तरह से जानते है कि देश में पूंजीवादी व्यवस्था है और यहाँ पूंजीपतियों के हितों को ही देश या राष्ट्र हित
के रूप में प्रचारित किया जाता है समग्र देश की आर्थिक राजनीतिक व सामरिक नीतियों
का इसी के हितों व मुनाफे के अनुरूप
संचालन किया जाता है । 90 के दशक से पहले भी यही होता था और बाद में भी जब 90 के
दशक में पूरे देश को इनके द्वारा
साम्प्रादायिक उन्माद की आग में झोंका गया तब नई आर्थिक नीतियों का नारा देते हुए `निजीकरण –उदारीकरण – वैश्वीकरण ` को लागू किया गया ।
यह सब भी देश की पूंजीपतिवर्ग के संकट को हल करने के किया गया था। तब से बीते दो
दशक में सरकार इन्हे लागू करने की दिशा
में काफी आगे बढ़ चुकी है । यू. पी. ए. 1st
या 2nd मैं शामिल पार्टियाँ हो या एन. डी.ए . में सभी
पूँजीपतियों के हित में इन्हे लागू किए जाने की पक्षधर है ।
अत: इन स्थितियों में जरूरत है
नए आर्थिक सुधारों के नाम पर लागू किए जा रहे `निजीकरण उदारीकरण ` के विरोध में एक व्यापक जुझारू
संघर्ष चलाये जाने की । साथ ही साथ
भारत सरकार पर साम्राज्यवादी मुल्को से किए गए
समझौते रद्द करने के लिए दबाव बनाने की जरूरत है । अंतिम समाधान तभी संभव
है जबकि क्रांतिकारी मजदूर वर्ग के नेतृत्व में समाजवादी व्यवस्था के निर्माण के
संघर्ष में कंधे से कंधा मिलाया जाय ।आइये मांग करें :
1:
राज्य कर्मचारियों की मागों पर सरकार तत्काल
जी . ओ . जारी करे ।
2: विध्युत संविदाकर्मियों समेत सभी
संविदाकर्मियों,
मानदेयकर्मियों को नियमित करो ।
3: मजदूरों के ट्रेड यूनियन अधिकारों का हनन बंद
करो ।
4: नई आर्थिक नीति रद्द करो ।
5:
साम्राज्यवादी मुल्को से किए गए असम्मानजनक व गैरबराबरीपूर्ण समझौते रद्द करो
।
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