Thursday, 31 December 2015

अनपढ़ गरीब व वंचितों को चुने जाने के अधिकार को छीने जाने की साजिश का विरोध करो !

राजस्थान के बाद हरियाणा में संघी सरकार ने पंचायत चुनावों गरीब और अनपढ़ लोगों के चुनाव में चुने जाने यानी खड़े होने के अधिकार को छीन लिया है. इसे देश के सर्वोच्च न्यायालय ने  सही ठहरा दिया है।  
  ब्रिटिश हुकमत के दौर में उच्च शिक्षा व संपत्ति रखने वाले संपत्ति धारी लोगो तक चुनाव को सीमित किया गया था पूंजीवाद जनवाद अपने शुरुवाती काल में इसी ढंग से आगे बढ़ा है। रूसी क्रान्ति के बाद सत्ता मज़दूर वर्ग के  हाथ मैं आने के बाद दुनिया भर में शोषित उत्पीड़ित जनो के संघर्ष आगे बढे।  हिन्दुस्तान की आज़ादी में इसी काम पढ़ी लिखी  या अनपढ़ रखी गयी मज़दूर किसान आदिवासी  जन की कुर्बानी व संघर्ष के दम पर ही वह  स्थिति बनी कि देश आज़ाद हुआ। सत्ता पर शोषक उत्पीड़क वर्ग ही काबिज हो गया। लेकिन उसकी पार्टी को जनता को संविधान में अलग अलग जनवादी संस्थाओं में चुने जाने व चुनने का अधिकार घोषित करना पड़ा।  लेकिन आज विशेषकर संघी ताकतें इस जनवादी अधिकार को को अनपढ़ या काम पढ़े लिखे जनसमुदाय के खिलाफ एक साजिश के तहत इसे छीन रही है।      
  हरियाणा सरकार ने पंचायत चुनाव प्रतिनिधियों के संबंध में यह नियम बना दिया है कि उन्हें एक न्यूनतम शैक्षिक योग्यता रखनी होगी। यानी इस योग्यता के  होने पर वे चुनाव में खड़े नहीं हो सकते।  सर्वोच्च न्यायालय ने हरियाणा सरकार के जनवाद विरोधी कदम को सही करार  दे डाला 
  राजस्थान की संघी सरकार ने यह नियम बनाया था कि पंचायत चुनाव वही लड़ सकते हैं जिनके घर में शौचालय हो तथा जो किसी भी तरह के कर्ज से मुक्त हों। इन कर्जो में बिजली का बिल भी शामिल है।
इन दोनों संघी सरकारों के फैसलों से सीधे तौर पर समाज के गरीब और वंचित प्रभावित होंगे। वे पंचायत चुनाव नहीं लड़ पायेंगे। इस प्रकार एक साजिश के तहत  गरीब और वंचित लोगों को निशाना बनाया जा रहा  संघ परिवार तो वैसे भी हमेशा से ही जनवाद विरोधी रहा है। वह देश में मुसलमान और इसाई अल्पसंख्यकों के जनवादी अधिकारों को कुचलने की बात तो खुलेआम करता ही रहा है, सामजिक असमानता  जाति व्यवस्था को समाज  मुफीद मानने वाला संघ  में बराबरी का कोई स्थान नहीं रहा है।
पंचायती राज के तहत  शासकों ने अपने लूट शोषण के तंत्र का गांवों और मोहल्लों तक विस्तार किया हैं। तथा इस तंत्र के अपने होने का भ्रम लोगों के बीच फैलाया है ।इसके जरिये  पूंजीवादी पार्टियां गाँव गाँव तक एजेन्ट कायम कर लेती हैं।  लेकिन इस सब के बावजूद यह जनवादी अधिकार से जुड़ा हुआ सवाल है लम्बे जनसंघर्षों से  जनता को हासिल है। इसलिए इस अधिकार में कटौती  खिलाफ आवाज बुलंद करनी होगी।  


                        उत्तर प्रदेश पंचायती चुनाव
उत्तर प्रदेश पंचायती चुनाव में क्रालोस द्वारा पर्चा जारी करके मऊ बलिया देवरिया में अभियान लिया गया 
              
            इंकलाब जिंदाबाद !                                  पूंजीवाद मुर्दाबाद     !!                 समाजवाद जिंदाबाद !!!
                                                पंचायती चुनाव से क्या कुछ हासिल होगा
              दोस्तों एक बार फिर से पंचायती चुनाव आ गए हैं तमाम प्रत्याशी फ्री रंग बिरंगे दावों वादों के साथ हमारे बीच हैं । एक बार फिर वोटों को हासिल करने के घृणित हथकंडे हो रहे हैं । शराब, पैसा, ताकत, जाति-धर्म, भाई भतीजावाद इसी का बोलबाला है ।
            बेरोजगारी, महंगाई अधिकार व गरीबों के मुद्दे इस चुनाव में भी गायब हैं । प्रत्याशी हमारे बीच आता है वोटो की भीख मांगकर अपने मालामाल होने के रास्ते बनाता है । बेरोजगारी महंगाई आदि जनमुद्दों के लिए जनता को एकजुट करना व सक्रिय करने से इनका कोई मतलब नहीं होता । पंचायती निकाय की सीमाओं व अधिकार से भी इनका कोई मतलब नहीं । चुनाव जीतकर अपने लिए अधिकार हासिल करके वह पाँच साल तक जनता के अधिकारों की बात तक नहीं करता ।

पंचायतें व पंचायत प्रतिनिधि जनता के लिए क्या कुछ कर सकते हैं  ---- हमारी नज़र में ईमानदार से ईमानदार प्रत्याशी भी जनता के जीवन के दुख दर्द कम नहीं कर सकता खत्म नहीं कर सकता ।
            दरअसल पंचायती निकायों की हैसियत कुछ भी नहीं है । क्या देश के 3-4 लाख किसानों की आत्महत्याओं व भूमि अधिग्रहण के मसले पर , क्या बेरोजगारी महंगाई के मसले पर या फिर शिक्षा व्यवस्था के मसले पर पंचायतों  के पास अधिकार है  ? क्या  पंचायतों के पास अपने क्षेत्र के मसले पर सरकार को प्रस्ताव भेजने व इसे लागू करवाने का अधिकार है ।......... नहीं ।
            पंचायतें हर तरह से अधिकारविहीन संस्थाएं हैं । ये सरकार की योजनाओं को मात्र लागू करने वाली संस्थाएं हैं । इन्हें आर्थिक मदद के लिए सरकार का मुंह ताकते रहना पड़ता है ।
            स्थानीय स्तर पर कुछ सुविधाओं हेतु जो कुछ रकम सरकार इन्हें देती है इसे ही हड़पने की होड में प्रत्याशियों द्वारा हर हथकंडे अपनाए जाते हैं । यह सीख भी इन्हें अपने बड़े पूंजीवादी नेताओं से ही मिलती है । चंद दुर्लभ ईमानदार प्रत्याशी ही इसे देख निराश हताश होते हैं ।
आइये बेहतर भविष्य के लिए संघर्ष करें  ------  दोस्तों हमारी जिंदगी के कष्टों परेशानियों को कम करने मैं पंचायतें कुछ भी नहीं कर सकती । हमारे देश के पूंजीवादी शासक पंचायत निकायों के जरिये अपनी शासन सत्ता को मज़बूत करते हैं। शोषण उत्पीड़न के तंत्र को गाँव गाँव फैलाते हैं ।
            इसके जरिये ये भ्रम फैलाते हैं कि ये निकाय जनता का भविष्य बदल सकते हैं । जो कि बहुत गलत है । यदि कुछ अधिकार इन्हें मिल भी जाय तो भी क्या होगा ? ये सब जनता पर सवारी गाँठने का ही काम करेंगी ।
            देश के भीतर सारे ही फैसले लेने व नीतिया बनाने का अधिकार संसद के पास है । भ ज पा , स पा , ब स पा कांग्रेस समेत सभी पूंजीवादी पार्टिया चुनाव के समय जनता के बीच वोट मांगते हैं । इसके बदले अच्छे दिन लाने का वादा करते हैं । लेकिन हर चुनाव के बाद अच्छे दिन  बुरे दिन में बदल जाते हैं । 68 सालों से यही होता रहा है  ।
            दरअसल सभी पूंजीवादी पार्टिया पूंजीवादी व्यवस्था को चलाने का काम करती हैं जो कि मजदूर मेहनतकश जनता की मेहनत को हड़पने का तंत्र है तथा पूँजीपतियों को मालामाल बनाने का । तथा खुद भी मालामाल बनने का तंत्र है । संसद में ये पार्टिया इनही के लिए नीतिया बनाती हैं व फैसले लेती हैं
            ये जनता की सामूहिक ताकत को नकारते हैं ठेंगा ढिखाते हैं । इसके बदले एक व्यक्ति को स्थापित करते हैं कि वही अकेले अकेले सब कुछ कर देगा ।
            इसलिए आज असल सवाल सामूहिक तौर पर संघर्ष करने का है । अपने अधिकारों के संघर्ष करने का है ।
            ये चुनाव मालिक मजदूर के संबंध नहीं बदल सकते । ये चुनाव अमीरी गरीबी को बढ़ाते हैं । हमें कदम कदम पर एकजुट होकर संघर्ष करके इन प्रत्याशियों पर दबाव बनाने की जरूरत है कि हमारे पक्ष में नीतिया बनायें । हमारे अधिकारों को केवल वोट तक सीमित ना हो बल्कि देश के स्तर पर सभी महत्वपूर्ण फैसले व नीतिया बनाने का अधिकार भी हमें मिले । बड़े महत्वपूर्ण फैसलोन पर जनमत संग्रह करवायें जायें । तथा प्रतिनिधियों का वापस बुलाने का अधिकार भी हमें मिले ।
            अंतत: यह सब हासिल हो जाने के बाद भी लूट शोषण उत्पीड़न वाली पूंजीवादी व्यवस्था चलती रहेगी । इसलिए समाजवादी व्यवस्था के लिए भी संघर्ष करने की जरूरत हैं । यही वह व्यवस्था है सारे ही अधिकार मजदूर मेहनतकश आवाम को होंगे । लूट शोषण पर पाबंदी होगी । रोजगार की गारंटी होगी । नि:शुल्क शिक्षा , चिकित्सा व परिवहन के अधिकार होंगे ।

                                     क्रांतिकारी लोक अधिका संगठन
  
   असहिषुणता के विरोध में संयुक्त कार्यक्रम  
काकोरी के शहीदों को याद करते हुए 20  दिसम्बर को  दिल्ली उत्तराखंड व उत्तर प्रदेश के विभिन्न इलाकों में गोष्ठियों का आयोजन किया गया।  संयुकत  रूप  जारी पर्चे का वितरण किया गया।  क्रालोस द्वारा एक पर्चा इसी मुद्दे पर पहली जारी किया गया था।  क्रालोस , पछास, इमके व प्र म ए के  चार संगठनों ने संयुक्त तौर पर कार्यक्रम का आयोजन किया।  

 पूंजीवाद मुर्दाबाद !                                                                  समाजवाद  जिंदाबाद  !    
  बढ़ती असहिष्णुता के विरोध में साहित्यकारों व कलाकारों द्वारा पुरस्कार वापसी के समर्थन में

बढ़ते सांप्रदायिक उन्माद तथा असहमति की आवाज को खत्म करने की साजिश के खिलाफ एकजुट होओ !

साथियो ,
             केंद्र की सत्ता पर मोदी सरकार को काबिज हुए 18 माह से ज्यादा का समय हो चुका है । इस दौरान सांप्रदायिक व कट्टरपंथी संगठन खुलकर आगे बढ़े हैं । गौमांस , लव जिहाद जैसे मुद्दे खूब उछाले गए हैं ।महंगाई बेरोजगारी आम नागरिकों के अधिकारों के मुद्दे नदारद हैं । श्रम क़ानूनों ,ट्रेड यूनियन अधिकारों पर हमला बोला गया है । इस दौरान मोदी सरकार की नीतियों के खिलाफ खड़े लोगों को कांग्रेसी या देश द्रोही साबित करने की कोशिशें हुई है ।  इस दौरान सांप्रदायिक दंगे काफी बढ़े हैं यह गृह मंत्रालय की रिपोर्ट भी कहती है ।
            इस समय ही कट्टरपंथी ताकतों ने  कन्नड विद्वान कलबुर्गी की हत्या की ।  उसके बाद दादरी में बछड़े के मांस का अफवाह फैलाकर प्रायोजित तरीके से अखलाक की हत्या कर दी गई  ।लेकिन देश के मुखिया ने इस जरूरी समय पर चुप्पी साध ली । असहमति की आवाज को कुचलने की कोशिश लगातार हुई हैं सांप्रदायिक उन्माद पैदा करने की घटनाएं होते रही हैं ।  घटनाए इसके पहले व  बाद में भी होते रही हैं । ये हत्याएं साम्प्रादायिक व कट्टरपंथी संगठनों के खुलकर खेलने देने का ही नतीजा हैं। ये हत्याएँ मात्र व्यक्तियों की हत्या नहीं बल्कि एक खास विचार व सोच को खत्म करने की दिशा की ओर है।
            यह खास विचार व सोच है :-- विज्ञान पर भरोसा , वैज्ञानिक व तर्कफरक सोच ; तथा गैरबराबरी व अन्याय शोषण उत्पीड़न  के विरोध में संघर्ष करना व जाति-धर्म-लिंग के नाम हो रही गैरबराबरी के विरोध में बराबरी की वकालत करना । पिछले एक साल में इस विचार व सोच को कमजोर करने को हमले बहुत तेजी से बढ़े हैं । इसीलिए शिक्षण संस्थाओं से लेकर तमाम संस्थाओं में साम्प्रदायिक व्यक्तियों  की तैनाती की जा रही है । आम नागरिकों का खान-पान, रहन-सहन कैसा व क्या हो । इस मामले में संघ परिवार खुलकर फतवा सुना रहा है ।
            ऐसा घुटन भरा माहौल पहले न था । निश्चित तौर पर ऐसे माहौल का विरोध होना स्वाभाविक था । कलबुर्गी व अखलाक की हत्या वह मुकाम था जहां साहित्यकारों व कलाकारों  व प्रख्यात वैज्ञानिक भार्गव ने अपने पुरस्कार वापस लौटाए । इसके चलते मोदी सरकार को अपनी साख दांव पर नज़र आने लगी । लेकिन फासिस्ट स्टाइल में ही मोदी सरकार ने इस विरोध को फर्जी साबित करने की तमाम कोशिश की । दिल्ली व बिहार चुनाव की ही तरह वे इसमें भी असफल साबित हो रहे हैं  ।
            मोदी सरकार ने इस विरोध को कुंद करने के लिए प्रायोजित विरोध भी रचा । मोदी सरकार ने तर्क दिये कि यह विरोध आपात काल के समय क्यों नहीं हुआ , या फिर सिक्ख दंगों के समय क्यों नही हुआ या तब कांग्रेस का विरोध क्यों नहीं किया  या फिर विरोध दूसरे ढंग से होना चाहिए पुरस्कार वापस नहीं करने चाहिए आदि आदि । गुजरात दंगों का तो संघ व मोदी सरकार जान बूझकर नाम ही नहीं लिया । अब मोदी सरकार के विरोध का मतलब मोदी जी के प्रति असहिष्णुता बताया जा रहा है ।         
             निश्चित तौर पर कुछ साहित्यकारों की कमजोरिया रही हैं लेकिन क्या इससे उनके गलत को गलत कहने का अधिकार खत्म हो जाता है ? क्या इससे मोदी सरकार का हर गलत काम सही साबित हो जाता है ? क्या अब मोदी सरकार यह तय करेगी कि  किसीको कब विरोध करना चाहिए ? किसका विरोध करना चाहिए ? विरोध कैसे करना चाहिए ? यही फासिस्टों का अंदाज भी होता है कि उनका यदि विरोध भी हो, तो उनकी मर्जी से हो ।
            भाजपा की ही तरह कांग्रेस भी देश के बड़े पूंजीपतियों की ही पार्टी है । इसे भी दंगों के आयोजन से कोई परहेज नहीं रहा है । 84 के दंगों का दाग इनके माथे पर लगा हुआ है । आपातकाल की खौफनाक यादें आज भी लोगों के जेहन में हैं । फिलहाल कॉर्पोरेट घरानों ने कांग्रेस को ड्राइविंग सीट से पीछे करके इसे मोदी व भाजपा को थमा दिया है । दोनों ही टाटा –बिड़ला –अंबानी –अदानी जैसों के सेवक हैं । अन्य चुनावबाज पूंजीवादी पार्टियां भी इन दोनों की तरह पूंजीवाद को ही आगे बढ़ा रही हैं ।
            दरअसल पूंजीपति वर्ग मंदी का सारा बोझ मेहनतकश नागरिकों पर डाल रहा है । वह अपने गिरते मुनाफे को हासिल करने को आम जनता की जेब से सब कुछ निचोड़ लेना चाहता है । वह पहले के सारे जनपक्षधर कानूनों व अधिकारों को खत्म कर देना चाहता है । उसकी इस राह में रुकावटें भी हैं । जिनको वह तुरत फुरत में खत्म कर देना चाहता है । इस चाहत ने ही मोदी जी व भाजपा-संघ को सत्ता पर पहुंचा दिया ।
            आज के पूंजीपति वर्ग या पूंजीवाद को तर्क , तार्किक व वैज्ञानिक सोच सहन नहीं है । यह आज   सामाजिक बराबरी के अधिकार की बातों , विरोधी विचार या सोच को धैर्यपूर्वक सुनने की सोच के खिलाफ खड़ा है । यह प्रगतिशील विचारों व सोच का विरोधी है । यह संवैधानिक व जनवादी अधिकारों के विरोध में खड़ा है । आज का पूंजीवाद कूपमंडूक व पुराथनपंथी सोच को बढ़ावा देने वाला है । यह सांप्रदायिक, नस्लवादी जातिवादी राजनीति को बढ़ावा देने वाला है । इसलिए भी  कि उसकी हुकूमत बनी और बची रहे ।
             निश्चित तौर पर साहित्यकारों - कलाकारों का विरोध इस पूरी समाजविरोधी सोच के खिलाफ होना चाहिए । जो विरोध उन्होने किया वह स्वागत योग्य है । लेकिन इतने तक सीमित रहना ठीक नहीं । यह नाकाफी है । बरतोल्त ब्रेख्त के शब्दों में यह कहना ही सही होगा कि
                        “कलाकार,…….
                                    जो कुछ है तुम्हें वही दिखाना चाहिए ,
                          लेकिन जो है उसे दिखाते हुए तुम्हें
                            जो होना चाहिए और नहीं है ,
                                         और जो राहतमंद हो सकता है
                                         उसकी ओर भी इशारा करना चाहिए ......
                                    तय मानो; तुम एक अंधेरे युग में रह रहे हो .... । ”
            आज ऐसे दौर में जब हिटलरी-मुसोलीनी अंदाज हर ओर पैर पसार रहा है तब बरतोल्त ब्रेख्त, क्रिस्टोफर कौडवेल व राल्फ फाक्स जैसे साहित्यकारों –कलाकारों के तर्ज पर चलने की बहुत जरूरत है।
            आज सांप्रदायिक फासीवादी ताक़तें लगातार आगे बढ़ रही हैं । केजरीवाल या नीतीश की जीत का मतलब फासीवादी ताकतों की हार नहीं हैं । केजरीवाल हो या नीतीश वह भी इसी पूंजीवाद के घोड़े पर सवार है । इन सभी की आर्थिक नीतियां  लगभग एक सी हैं ।      
            आज सांप्रदायिक फासीवादी विचारों व संगठनों को पीछे धकेलने के लिए जरूरी है कि अपने  राजनीतिक व जनवादी अधिकारों के लिए सजग होकर जुझारू संघर्ष किया जाय । हर प्रकार के सांप्रदायिक घटनाओं व कूपमंडूक सोच के विरोध में संघर्ष तेज  किया जाय ।
             फासीवाद को अंतिम तौर तभी हराया जा सकता है जब इसे पैदा करने वाली व्यवस्था को खत्म करने के लिए संघर्ष किया जाय । यानी पूंजीवादी व्यवस्था को खत्म करने के संघर्ष का हिस्सा बना जाय ।  तथा समाजवादी व्यवस्था का निर्माण किया जाय । इस मायने में आज भगत सिंह के विचारों पर चलने की  सख्त जरूरत है । 
             

                                                            

Sunday, 22 November 2015

    एक बार फिर उजागर हुआ शासकों  का पाखण्ड 


पेरिस में आतंकवादी हमले के बाद एक बार से अमेरिका फ्रांस समेत दुनिया भर के पूंजीवादी शासक आतकवाद के मसले पर एकसुर होते दिख रहे हैं । भारत के संघी फासीवादी मोदी तक सभी आतंकवाद की निंदा कर रहे हैं फ्रांस में हुए हमले को  मानवता के खिलाफ घोषित करते हुएइसे नेस्तनाबूत करने की बात कर रहे हैं।  शार्ले हब्दों  घटना के बाद एक बार फिर यह फ्रांस में होता दिख रहा है।  तब भी अभिव्यक्ति के अधिकार के नाम पर अभिव्यक्ति का गला घोंटने वालों ने एकजुट होकर प्रदर्शन किया था।  
पेरिस हमले की  जिम्मेदारी आई एस आई एस ने ली है।अन्य आतंकवादी संगठनों की तरह इसे भी साम्राज्यवादियों  विशेषकर अमेरिकी साम्रज्यवाद द्वारा खड़ा किया गया पाला पोषा गया  है। अब यह अपनी गति में इन घटनाओं को अंजाम दे रहाहै।  अब आई एस आई एस की बर्बरता चर्चा खूब हो रही हैं.  लेकिन खुद अमेरिकी साम्रज्यवादी व अन्य साम्रज्यवादी आतंक ने इराक अफगानिस्तान समेत दुनिया भर में लाखों लोगों का कत्लेआम किया है जिसे भुला दिया जाता है.  इसधार्मिक कट्टरपंथी आतंकवाद को पैदा करके फिर इसी के नाम पर देशों में हस्तक्षेप व हमला  किया जाता है। आई एस जैसे कट्टरपंथी आतंकवादी साम्राज्यवादियों द्वारा कियेजाने वाले इस हमले व  बर्बरता से खुद को मज़बूत करते हैं  व खुद को  जायज ठहराते हैं  नये लोगों कोजोड़ते हैं । और जो लोग साम्रज्यवाद के दुष्चक्र व हमले के शिकार हैं उन्ही को अपने हमले का निशाना बनाते हैं।  
 साम्राज्यवादी मुल्क और ये  आतंकवादी इस तरह एक दूसरे को  मदद पहुंचाते  हुए  राजनीतिक लक्ष्य को साधते हैं। 
     पिछड़े पूंजीवादी देशों के शासक भी  इसका इस्तेमाल अपने  हित में करते हैं । भारतीय शासकों द्वारा भी आतंकवाद को इस्लाम का पर्याय बनाने में देश के  स्तर पर भरपूर प्रयास हुए हैं । संघी सरकार तो इसे मामले में और भी चार कदम आगे है। इस तरह इन्होने इसके जरिये  समाज में  फासीवादीकरण को आगे बढ़ाया है।
  कुल मिलाकर  शासकों और आतंकवादी समूहों के आतंक का  समाधान केवल  जनवादी व  क्रांतिकारी  संघर्षों  के जरिये ही हो सकता है ।अंतत: इस समस्या को पैदा करने वाले पूंजीवाद  कोई समाधान नहीं है बल्कि समाजवादी समाज की स्थापना ही इसका मुकम्मिल जवाब है।  

चुनाव की आड़ में बिहार में नागरिकता परीक्षण (एन आर सी)

      चुनाव की आड़ में बिहार में नागरिकता परीक्षण (एन आर सी)       बिहार चुनाव में मोदी सरकार अपने फासीवादी एजेंडे को चुनाव आयोग के जरिए आगे...