कन्ऩड विद्वान और तर्कशास्त्री एम.एम.कलबुर्गी की हत्या
एम.एम.कलबुर्गी की हत्या ने कर्नाटक में हर क्षेत्र के लोगों को झकझोर दिया है। नरेंद्र दाभोलकर तथा गोविंद पनसारे की हत्या के बाद अब हंपी विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति कलबुर्गी की हत्या कई समानताएं लिए हुए है। कलबुर्गी की हत्या 30 अगस्त को घर में दिनदह़ाडे कर दी गई थी।
कलबुर्गी को पुरालेख विशेषज्ञ, कन्ऩड साहित्य और 12वीं सदी के वाचना साहित्य का विशेषज्ञ माना जाता था। लिंगायतवाद के जनक माने जाने वाले बसावा के साहित्य पर उन्होंने काफी काम किया था। उनका कहना था कि बसावा के साहित्य के हिसाब से मूर्तिपूजा, जाति प्रथा का विरोध, मंदिर नहीं बनाने जैसी बातों की वजह से लिंगायत समुदाय हिंदू समाज का हिस्सा नहीं है। लिंगायत समुदाय राजनीति में काफी दखल देता है।
लेखिका एच.एस.अनुपमा के मुताबिक ""मेरे हिसाब से यह विचार को निशाना बनाना है। व्यक्ति को चुप कराना है। कलबुर्गी समेत कई लोग हैं जो संघ परिवार और उसके विचार के खिलाफ हैं। हालांकि हम यह नहीं कह सकते कि कलबुर्गी की हत्या में संघ परिवार का हाथ है। इस हत्या के कई पहलू हैं।"" .......
""कोई भी विचार, जो वर्तमान में सत्ता में बैठे लोगों के थो़डा भी खिलाफ हो, उसे बर्दाश्त नहीं किया जा रहा है। अभिव्यक्ति की आजादी मजाक बनकर रह गई है और अब इसका वजूद न के बराबर है। देश में कितने ही लोगों को उनके विचारों की वजह से चुप करा दिया गया है।""
भाजपा से लिंगायत समुदाय के नेताओं की नजदीकी है। इस मामले में कलबुर्गी का लेखन हिंदुत्ववादियों के लिए खतरा पैदा कर रहा था। एक बार लिंगायत नेताओं के दबाव पर उन्हें अपना कुछ लेखन वापस लेना प़डा था। कलबुर्गी ने तब कहा था कि अपने घरवालों को बचाने के लिए उन्होंने बौद्धिक खुदकुशी की है। फेडरेशन ऑफ रैशनलिस्ट एसोसिएशन के अध्यक्ष नरेंद्र नायक के मुताबिक , ""77 साल के एक आदमी को उसके विचारों के लिए मार देना बुजदिली है। बातों को व्याख्यायित करने का उनका अपना वैज्ञानिक तरीका था। उन्हें मारा जा सकता है लेकिन उनके विचारों को नहीं।"" कलबुर्गी ने राज्य की कांग्रेस सरकार द्वारा प्रस्तावित अंधविश्वास विरोधी विधेयक का समर्थन किया था। काले जादू और ओझैती-सोखैती का विरोध करने वाले इस विधेयक की भाजपा और अन्य हिंदू संगठनों ने आलोचना की थी।
नरेंद्र दाभोलकर व गोविंद पंसारे की
ही तर्ज पर कलबुर्गी भी काम कर कर रहे थे । अंधविश्वास का निर्मूलन करना चाहते थे
अपनी अपनी जगहों पर इसके लिए संघर्ष रत थे । वैज्ञानिक चिंतन व तार्किक सोच को
बढ़ावा देना चाहते थे । ऐसा भी नहीं कि यह कोई संविधान से परे बात थी । भारतीय
संविधान में खुद अंधविश्वास व अवैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने वाली गतिविधियों के
खिलाफ रोक है ।
लेकिन व्यवहार में शासकों ने इसके
विरोध में ही काम किया । या फिर अंधविश्वास व अतार्किक सोच को बढ़ावा देने वालो को
आगे बढ़ने का मौका दिया गया । आज भारतीय शासकों के लिए यह बहुत बहुत ज्यादा
फायदेमंद है कि जनता अंधविश्वास व अतार्किक सोच पर खड़ी रहे या उसे इस पर और ज्यादा
खड़ा किया जाय इसलिए कि अपने जीवन में बढ़ते संकट के कारणों की छानबीन सही दिशा में
न कर सके ।
और जब आज अपनी प्रकृति से ही जनवादी
सोच व वैज्ञानिक सोच के खिलाफ खड़ी फासीवादी ताक़तें शीर्ष पर हों तब समझा जा सकता
है कि हत्या क्यों की गई व किनके द्वारा की गई । यही नहीं केवल कुतर्कों के द्वारा
व आस्था के को चोट पहुंचाने के नाम पर इसे जायज भी ठहराया जा रहा है । निश्चित तौर
पर यह कृत्य बहुत निंदनीय व घृणित है ।
यह व्यक्ति के जनवादी अधिकार व
संविधान में हासिल अधिकार अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर हमला है निश्चित तौर पर
संविधान में दर्ज मौलिक अधिकार पर भी हमला है । लेकिन जिन पर संविधान का पालन
कराने की ज़िम्मेदारी हैं वह खुद इसके खिलाफ खड़े हैं । सभी न्यायपसंद नागरिकों व
संगठनों का दायित्व बनता है कि इस हत्या के विरोध में आजाज उठाए ।
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