सर्कुलर : मौजूदा परिस्थितियों में भारत में फासीवाद
साथियों
पिछले वर्ष जनवरी माह में कार्यकारिणी ने सांप्रदायिकता व फासीवाद के संबंध में एक
सरकुलर जारी किया था । जिसका मकसद तब इस
विषय के सम्बन्ध में सांगठनिक स्तर पर सही राजनीतिक समझ बनाना था । इसी वजह से जून 2014 में एकदिवसीय शिविर का आयोजन किया गया
ताकि इस पर हर पहलू से समझ साफ हो जाय । और फिर जनता के बीच जाकर सही राजनीतिक समझ
पर अपनी बातें जनता के बीच पहुचायी जाय ।
जनवरी 2014 के सर्कुलर में हमने इस
बात की संभावना जताई थी कि भारतीय एकाधिकारी
पूंजीपति वर्ग नरेंद्र मोदी जैसे फासिस्ट को सत्ता पर बिठाने को आतुर है । चुनाव
के बाद हमने देखा कि प्रतिक्रियावादी एकाधिकारी पूंजीपति फासीवादी ताकतों को सत्ता
पर बैठा चुका है ।
पिछले 10 माह के नरेंद्र मोदी सरकार
के शासन काल के सबंध में आज समाज में अलग अलग मूल्यांकन है । इसी संबंध में तथा
फासीवाद पर अपनी समझ को और साफ करने के मकसद से यह सर्कुलर जारी किया जा रहा है ।
फासीवाद व भारत में मौजूदा स्थितियों में इसकी वास्तविक
स्थिति व गति
फासीवाद : फासीवाद एकाधिकारी व प्रतिक्रियावादी पूंजीपति वर्ग की खूनी तानाशाही
है । पूंजीपति वर्ग की तानाशाही का यह रूप आंदोलन की शक्ल में आता है । यह
फासीवादी आंदोलन के रूप में समाज में आता है । फासीवादी आंदोलन मजदूर मेहनतकश
नागरिकों के सम्बन्ध में जनवाद व जनवादी अधिकारों व मूल्यों का विरोधी
होता है । फासीवादी आंदोलन आम तौर पर अंधराष्ट्रवाद , उग्रराष्ट्रवाद
, नस्ल, धर्म ,क्षेत्र आदि मुद्दे के इर्द गिर्द लफ्फाजी से निर्मित
होता है । कभी –कभी यह पूंजीपतियों के विरोध की बातें करते हुए या फिर सैन्य शासन
का महिमामंडन करते हुए भी होता है । जिसमें वर्गीय समाज के विचार को धुंधला कर दिया
जाता है । वर्ग संघर्ष के स्थान पर वर्गों से परे सत्ता के निर्माण की बात की जाती
है ।
फासीवाद निम्न पूंजीवादी
आंदोलन की शक्ल में समाज के अलग अलग वर्गों व तबकों को अपनी लफ्फाजी या शब्द जाल
के इर्द गिर्द लामबंद करता हुआ आगे बढ़ता है । इसे पूंजीपति वर्ग पालता पोसता है और
वक्त आने पर जरूरत पड़ने पर सत्ता सौप देता है । फासीवादी आंदोलन जनवाद का इस्तेमाल
करते हुए आगे बढ़ता है और पूंजीवादी जनवाद को ही खत्म कर देता है।
फासीवाद हर प्रकार के जनवादी संस्थानों चाहे वह
विधायिका हो या फिर ट्रेड यूनियन आदि सभी को खत्म करने का प्रयास करता है । जनवादी
मूल्यो व जनवादी चेतना पर हमला करता है । मानव समाज की अब तक की अग्रगति को पीछे
मोड देता है । इसे बर्बर अवस्था में पहुंचा देता है । महिलाओं के संबंध में यह
उन्हें सामाजिक उत्पादन में भागेदारी से वापिस घर की चारदीवारी में धकेल देता है ।
पूंजीवादी स्वतन्त्रता व समानता को हर तरह से रौंद डालता है।
मध्यम
वर्ग-निम्न मध्यम वर्ग के लोग व छोटे
व्यवसायी - कारोबारी इसके वाहक होते हैं । ये ऐसे लोग हैं जिन पर पूंजीवाद में
लगातार ही तबाही का खतरा मँडराता रहता है ये मजदूर वर्ग की पातों में शामिल होते
जाते हैं । यही नहीं मजदूर वर्ग के भी एक हिस्से को फासीवादी अपने पीछे लामबद्द
करने में सफल हो जाते है । इस प्रकार फासिस्ट आंदोलन में इन वर्गों या तबकों
द्वारा बेहतर भविष्य की उम्मीद में अपने जनवादी अधिकार का समर्पण हो जाता है ।
इन्हें अपने जनवादी अधिकार छीने जाने का अहसास बहुत देर में होता है ।
यह तानाशाही से इस मायने
में भिन्न होता है कि तानाशाही लागू होने पर जनता को अपने जनवादी अधिकारों के छीने
जाने का एहसास तत्काल हो जाता है । 1975 में इंदिरा गांधी की सरकार ने आंदोलनो से
निपटने के लिए संवैधानिक तानाशाही लागू की थी । जिसका देश में तुरंत विरोध शुरू हो
गया था ।
फासीवाद कब कायम होता
है : --- पूंजीवादी अर्थव्यवस्था लगातार संकटों के दौर से
गुजरते हुए आगे बढ़ती है । यही संकट क्रांतिकारी संकट में बदल जाते है । तब मजदूर -
मेहनतकश जनता अपनी बदहाली के खिलाफ संघर्ष करती है उसका संघर्ष इस हद तक पहुँच
जाता है कि शासक अब पुराने तरीके से उनपर नियंत्रण कायम नहीं कर पाते हैं साथ ही
मजदूर वर्ग की क्रांति की पूर्ण संभावना बन जाती है । तब शासकों को शासन के अपने
पुराने तरीके बदलने पड़ते हैं । इस क्रांतिकारी संकट में ही वह फासीवाद को कायम
करता है ।
पूंजीवादी संकट एक ओर
प्रतिक्रियावादी आंदोलन को पैदा करते है तो दूसरी ओर क्रांतिकारी आंदोलन को । यह
प्रतिक्रियावादी आंदोलन फासीवादी आंदोलन ही होता है । पूंजीपति वर्ग इन फासीवादी
आंदोलनों को पालता पोसता है आगे बढ़ाता है ।
अतीत में फासीवाद :-- फासीवाद के अंकुर 20 वी सदी के
दूसरे –तीसरे दशक में इटली , जर्मनी , हंगरी , फ़िनलैंड , पोलैंड आदि में पैदा
हुए थे इटली, जर्मनी, स्पेन आदि मुल्कों में फासीवादी राज्य वजूद में आए थे । इटली --- इटली पहला फासीवादी राज्य बना था । इटली का
फासीवादी शासक मुसोलिनी था । वह गिरगिट की तरह रंग बदलता था । इटालियन सोसलिस्ट
पार्टी का सदस्य था व इस पार्टी के पत्र ‘अवन्ती’ का संपादक था । साम्राज्यवादी
युद्ध का विरोधी था ।
बाद में वह इस युद्ध का
समर्थक बन गया इस पक्ष में प्रचार करने लगा 1915 में इसने ‘फासी द अजिओन इंतर्वेस्तिता ’ नाम के संगठन को बनाया था ।1919 के चुनाव में इसकी बुरी तरह पराजय हुई जबकि
जबकि सोशलिस्ट पार्टी सबसे बड़ी पार्टी के रूप
में हो गई थी
प्रथम विश्व युद्ध खत्म होने के बाद 1920 में
कुछ और गुटों को मिलाकर एक ‘फासिस्ट पार्टी’ का गठन किया ।इस दौर में इटली में क्रान्ति की लहर आई तब फासिस्ट पार्टी
कमजोर थी । लोकप्रियता हासिल करने के लिए इस पार्टी ने लफ्फाजी भरा कार्यक्रम
बनाया जिसमें राजवंश के खात्मे , युद्धकालीन मुनाफे की जब्ती, किसानों को जमीन देने, स्टॉक एक्सचेंज खत्म करने , उद्योगों पर मजदूरों के नियंत्रण कायम करने आदि के नारे दिये । इस दौर में
किसानों द्वारा ज़मीनों पर कब्जा करने व मजदूरों द्वारा फैक्ट्रियों पर कब्जा करने
की मुसोलीनी ने तारीफ की ।
दूसरी ओर पूँजीपतियों, राजा व फौजी
अधिकारियों की मदद से अपने गिरोह को हथियारों से लैस करता था । 28 अक्तूबर 1922
को फासिस्टों की ‘रोम पर चढ़ाई’ का अभियान शुरू हुआ । यह राजा, पूंजीपतियों व फौजी अधिकारियों के सहयोग से हुआ । इस दौरान फासिस्टों को
सरकारी ऑफिसों , रेलवे स्टेशनों आदि
में कब्जा करने दिया गया । राजा ने मुसोलीनी को प्रधानमंत्री बना दिया और इस
प्रकार पूंजीपति वर्ग ने सत्ता फासिस्टों को सौप दी । लेकिन अभी फासीवादी राज्य
कायम नहीं हुआ था ।
कुछ समय तक मुसोलिनी ने
संसदीय जनतंत्र का दिखावा किया । वह क्रमश: जनवादी अधिकारों का अपहरण करता गया । 1923 तक वह एक
प्रकार से तानाशाह बन गया । जबर्दस्ती इस समय एक चुनाव कानून पास करवाया गया ।
इसके अनुसार 1924 के चुनाव हुए उसमें फासिस्ट पार्टी ने मार काट खून खराबे के बल
पर संसद में दो तिहाई सीटें हथिया ली । अब मुख्य विरोधी दल सोसलिस्ट पार्टी रह गई
।
इसके एक सदस्य की फासिस्ट पार्टी के लोगों ने जून 1924 में हत्या कर दी जिस पर पूरे
इटली हंगामा खड़ा हो गया ।दो साल तक
हत्यारों पर मुकदमे का स्वांग रचा गया । 1925 और 1926 में हजारों म्युनिसिपल्टियों
और अधिकांश शहरों के स्वायत्त अधिकारों को छीन लिया गया । संसद के अधिकारों को पर
हमला बोला गया उसके कानून बनाने के अधिकार को छीन लिया गया । 1926 में फासिस्ट
पार्टी को छोडकर सारी ही पार्टियां भंग कर दी गई । प्रधानमंत्री को यानी मुसोलिनी
को फरमान जारी कर कानून बनाने का अधिकार हो गया । इस प्रकार फासीवादी राज्य कायम
हो गया । मुसोलिनी स्थल सेना, जल सेना और वायु सेना का प्रधान सेनापति बन गया । सोशलिस्ट पार्टी का
सदस्य होने पर निर्वासन की सजा हो गई ।
जर्मनी --- जर्मनी का फासीवाद नाजीवाद कहलाता है । जर्मनी की संसोधनवादी पार्टी (
दक्षिण पंथी सोशल डेमोक्रेट)ने प्रथम विश्व युद्ध का समर्थन किया था । इस युद्ध में
जर्मनी की हार हुई थी जर्मनी पर अपमानजनक
संधिया लाद दी गई थी । दूसरी ओर देश के भीतर स्पार्टकस लीग की अगुवाई में क्रान्ति
की लहर आगे बढ़ रही थी ।1918 में पूंजीपति
वर्ग ने पीछे हटते हुए दक्षिनपंथी सोशल डेमोक्रेट को सत्ता सौप दी
दक्षिण पंथी सोशल
डेमोक्रेट व स्वतंत्रन्त्र सोशल डेमोक्रेट का संयुक्त अध्यक्ष मण्डल कायम किया गया
।कुछ जनवादी मांगों को स्वीकार कर लिया गया । 8 घंटे काम , सार्विक मताधिकार आदि
कुछ मांगें मान ली गई । दूसरी ओर दक्षिण पंथी सोशल डेमोक्रेट ने क्रांति को
तहस नहस करने का काम किया । मजदूरों को निरस्त्र कर दिया । मजदूर वर्ग के योद्धा व
नेता कार्ल लिबनेख्त व रोजा लकजमबर्ग की 15 जनवरी 1919 को हत्या कर दी गई ।
1918 से 1932 तक कायम इस
राज्य को वाईमर गणतन्त्र कहा गया । इस पूंजीवादी गणतन्त्र को भी खत्म करने के लिए
प्रतिक्रियावादियों ने 1920 में इस पर आक्रमण किया । बर्लिन पर 60 हज़ार सैनिकों की
मदद से प्रतिक्रियावादियों ने कब्जा कर लिया । इसे काप विद्रोह कहा जाता है मजदूर वर्ग ने मोर्चा संभालकर इस हमले को पीछे
धकेल दिया । 1923- 24 के अंत में फासीवाद को यहाँ आधार मिला । इस वक्त क्रांतिकारी
परिस्थिति पैदा हुई लेकिन मजदूर वर्ग उसका उपयोग नहीं कर सका ।
1923 की नवंबर माह में
हिटलर व लुडेन्ड्राफ ने पुन: सत्ता हथियाने की चेष्टा की । लेकिन इस विद्रोह (
म्यूनिख विद्रोह ) का दमन कर दिया गया । इस वक्त नाजी पराजित हुए । अभी पूंजीपति वर्ग को
हिटलर व उसकी नाजी पार्टी की इतनी जरूरत नहीं थी । हिटलर का प्रशिक्षण जर्मन सेना के अधिकारियों ने
किया था । उसी के आदेश पर वह जर्मन लेबर पार्टी ( बाद में नेसनल सोसलिस्ट जर्मन
वर्कर्स पार्टी ) में शामिल हुआ आ।
1920 से नाजी पार्टी ने 25 सूत्री
कार्यक्रम अपनाया था । इसने यहूदी विरोध, पूंजीवाद,
वर्साई संधी( प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी के हारने के बाद उस पर थोपी गई
अपमानजनक संधी ) जर्मन नस्ल की श्रेष्ठता आदि के इर्द गिर्द लफ्फाजी से भरा जबर्दस्त प्रचार
किया । इसका आधार बढ़ने लगा मई 1924 के चुनाव में इन्हें 19 लाख वोट मिले । इस वक्त
संकट कुछ कम हुआ । 1928 के आम चुनाव तक यह घटकर 8 लाख रह गया ।
1931-32 में पूंजीवादी संकट फिर उपस्थित हुआ ।
अब पूंजीपति वर्ग उन सारी ही चीजों को छीन लेना चाहता था जो की मजदूर वर्ग को 1918
में हासिल हुए थे । इसलिए पूंजीपति वर्ग ने 1930 में ब्रुनिंग की अगुवाई में
तानाशाही स्थापित की । अब मजदूर वर्ग पर दोहरे हमले होने लगे एक तरफ फासिस्ट तो
दूसरी तरफ ब्रुनिंग की तानाशाही का ।
पूंजीपति वर्ग ने फासीवादियों का समर्थन और सहयोग अब पूरी तरह बढ़ा दिया ।
अंतत: जनवरी 1933 में हिटलर को
जर्मनी का चांसेलर बना दिया गया । इस समय जर्मन संसद ( राइखस्ट्रांग ) 587 में से
194 सीटें फासिस्टों की थी । फासिस्टों ने इसे बहुमत में बदलने के लिए संसद
बर्खास्त करवा दी । 1932 -33 के काल में मज़दूरों की बड़ी बड़ी हड़तालें हो रही थी ।
फरवरी 1933 में राइखस्ट्राग ( संसद ) में
आग लगा दी गई कम्युनिस्टों पर इसका आरोप लगाकर मारकाट शुरू कर दी गई । मार्च
1933 में चुनाव का ऐलान हिटलर ने करवाया । इस बीच राजसत्ता हाथ में होने चलते
कम्युनिस्टों, सोशल डेमोक्रेट आदि का दमन किया गया। चुनाव में मारकाट
मचाकर 1933 के चुनाव में इसने 288 सीटें
हासिल कर ली । अब हिटलर ने 4 साल के लिए तानाशाही अधिकार हासिल कर लिए । हिटलर को
अधिकार सौपने के पक्ष में सोशल डेंक्रेट ने भी वोट दिया । मार्च 1933 में ही उसने
प्रांतीय विधान सभाओं को भंग कर दिया । और उनके मंत्रीमंडलों के कानून बनाने का
अधिकार छीन लिये । इसके बाद राज्य सभा ( राइखसात ) के अधिकार छीन लिए कम्युनिस्ट या सोशल डेमोक्रेट पार्टी के सदस्य
होने पर मौत की सजा मुकर्रर की गई । ये नेता गिरफ्तार कर लिए गए व संपत्ति जब्त कर
ली गई । 1933 में ही ट्रेड यूनियनें समाप्त कर दी गई । इसकी जगह फासिस्ट ( जर्मन लेबर
फ्रंट ) स्थापित हुए । 1933 जुलाई में नात्सी पार्टी को जर्मनी की एकमात्र
राजनीतिक पार्टी घोषित कर दिया गया । इस प्रकार फासीवादी राज्य काम हुआ ।
अक्तूबर 1933 में संसद ( राईखस्ट्राग) भंग कर दी
गई । खुद नात्सी पार्टी में समाजवाद को न पाकर असन्तोष पैदा होने लगा जिसका (खूनी
रविवार - 30 जून की सफाई ) सफाया कर दिया गया । 1935 में जर्मनी में सारे यहूदियों
से जर्मन नागरिकता के अधिकार छीन लिए गए । कुख्यात होलोकास्ट को अंजाम दिया गया ।
गॅस चैम्बरों में कत्लेआम किए गए । श्रमिकों की स्थिति गुलामों सी हो गई ।
भारत में फासीवादी की स्थिति : देश के भीतर अंग्रेजों के जमाने से ही
साम्प्रादायिक फासीवादी संगठन रहा है। आर एस एस की स्थापना में मुख्य भूमिका
निभाने वाला महाराष्ट्र का मुंजे इटली के फासीवाद से बहुत प्रभावित था और इस मकसद
से इटली भी गया था । संघ मुसोलिनी व हिटलर का मुरीद रहा है । ब्रिटिश हुकूमत का इन
हिन्दू फासीवादियों को सहयोग व संरक्षण था ।
सांप्रदायिक मुस्लिम संगठन और
सांप्रदायिक हिन्दू संगठन संघ एक दूसरे को अपने कामों से आगे ही बढ़ाने का माहौल
पैदा कराते थे । धार्मिक आधार पर देश के बँटवारे में इनकी भी महत्वपूर्ण भूमिका
रही थी । आज़ादी के बाद भी साम्प्रदायिक
मुसलिम संगठन समाज में धार्मिक विभाजन पैदा कर समाज को जब तब दंगों की आग में
झोंकते रहे ।
पाकिस्तान व चीन के खिलाफ अंधराष्ट्रवाद
, कुछ चेरिटेबल
कामों व धार्मिक उन्माद व दंगे रचते हुए संघ आगे बढ़ा इसने अपने आधार का विस्तार
किया । पूँजीपतियों व उसकी मुख्य पार्टी कॉंग्रेस की इसे आगे बढ़ाने में इसके फलने
फूलने में मुख्य भूमिका रही ।आपात काल का विरोध कर व जे पी आंदोलन में शिरकत कर एक
मज़बूत ताकत बन गई ।
98 तक आते आते इसकी राजनीतिक पार्टी
भा ज पा गठबंधन बनाकर 5 साल तक के लिए सत्ता में पहुँच गई । गुजरात में मोदी व
अमित शाह की जोड़ी ने एकाधिकारी पूंजीवादी घरानों के लिए वह हर काम किया जो वह
चाहते थे । फासीवादी मोदी की अगुवाई में जो कुछ हुआ पूंजीपति वर्ग वही सब कुछ देश
के पैमाने पर चाहता था ।
वर्तमान दुनिया 2008 से ही मंदी की चपेट में है
मंदी के इस संकट में पूंजीपति वर्ग मजदूर मेहनतकश नागरिकों पर और ज्यादा हमलावर हो
चुका है । मजदूर वर्ग द्वारा संघर्षों के दम पर हासिल ट्रेड यूनियन क़ानूनों,
श्रम क़ानूनों पर तथा अन्य अधिकारों को पूंजीपति वर्ग छीनने की ओर बढ़ रहा है ।
वह उन सभी सुविधाओं व अनुदानों को खत्म कर देना चाहता
है जो मेहनतकश नागरिकों के अलग अलग
हिस्सों को हासिल थे ।
शिक्षा स्वास्थ्य आदि आदि मदों पर बजट में खर्च की जाने
वाली थोड़ी राशि को भी वह खत्म कर देने की ओर अग्रसर है । इसका परिणाम और ज्यादा
बेरोजगारी महंगाई के रूप में सामने आ रहा है जनता की तबाही बरबादी के रूप में
सामने आ रहा है । जनता इस पर खामोश नहीं है बल्कि वह सड़कों पर संघर्ष कर रही है ।
इन परिस्थितियों में ही पूंजीपति वर्ग
फासिस्ट ताकतों को सत्ता में ला रहा है या फिर उन्हें आगे बढ़ा रहा है । इसलिए आज
दुनिया भर में नव नवनाजीवाद, नवफासीवाद का उभार आ रहा है ।
यही स्थिति भारत में भी है नरेंद्र
मोदी का सत्ता पर आना इसी का लक्षण है । पिछले 10 माह में मोदी सरकार ने एक प्रकार
से अध्यादेश राज कायम किया हुआ है भूमि अधिग्रहण अध्यादेश पर भी तमाम विरोध के बावजूद
फिर से अध्यादेश लाने की बातें की जा रही है बजट में जनता के मद में व्यय होने वाली राशि में
भारी कटौति हुई है । श्रम क़ानूनों व पर्यावरण क़ानूनों पर भी हमला बोला गया है ।
सरकारी संस्थानों के विनिवेश को तेज कर दिया गया है । योजना आयोग को नीति आयोग में
बदल दिया गया है । कुल मिलाकर जिन आर्थिक नीतियों को कॉंग्रेस लागू कर रही थी उसे
बहुत तेजी से मोदी सरकार ने लागू किया है ।
दूसरी ओर सत्ता का केन्द्रीकरण बढ़ता
जा रहा है । मंत्री मण्डल व मंत्रियों की ताकत को कमजोर कर दिया गया है ।अलग अलग
मसलों पर फैसले लेने वाले सामूहिक निकाय ( ई जी ओ एम ) को खत्म कर दिया गया है ।
राज्य सरकारों को कमजोर करने की कोशिश की जा रही है । मोदी राज्य (प्रांत )के
मुखिया मुख्य मंत्री के बजाय मुख्य सचिव ( नौकरशाह ) को तवज्जो दे रहे हैं । मंत्रियों को अपने निजी सचिव चुनने तक की आज़ादी
नहीं है । मंत्रियों को जब तब मोदी द्वारा
परेड करवाई जा रही है । सत्ता अब मोदी व नौकरशाहों से बने पी एम ओ में केन्द्रित
होती जा रही है ।
शिक्षा के भगवाकरण की मुहिम शुरू हो
चुकी है । इतिहास अनुसंधान परिषद में संघ के लोगों को बैठा दिया गया है । खुद मोदी
हिन्दू देवता गणेश का हवाला देते हुए प्लास्टिक सर्जरी को वेदों में होने की बात
कहकर अतीत का महिमामंडन कर रहे है । राज्य मशीनरी की हर अंग को अब इसी रंग में
रंगने की ओर बढ़ा जा रहा है ।
संघ और उसके सर संघ संचालक भागवत अब
खुल कर विष वमन करने में लगे हैं आज़ादी के बाद इतिहास में पहली दफा पिछले साल
विजयादशमी के दिन वह देश को संबोधित कर
चुके हैं । लव जिहाद, धर्मांतरण, धारा 370 ,
देश को हिन्दू राष्ट्र बताने आदि आदि जैसी बातें करके वह लगातार साम्प्रादायिक
ध्रुवीकरण कर रहे हैं ।
भारत में फासीवाद के संबंध में
मूल्यांकनव इसकी संभावाना : मोदी सरकार के उपरोक्त कार्यों के आधार पर ही कुछ लोगों
द्वारा इसे फासीवादी या अर्द्धफासीवादी
राज्य कहा जाने लगा है । यह मूल्यांकन गलत है । इस मूल्यांकन के गलत नतीजे
निकलेंगे ।
निश्चित तौर पर पूंजीपति वर्ग ने
सत्ता पर मोदी के नेतृत्व में फासीवादी ताकतों को बैठा दिया है । मोदी सरकार अभी
उसी दिशा में तेजी से बढ़ रही है जिस दिशा
में कॉंग्रेस उसे ले जा रही थी । अभी वही नीतिया तेजी से लागू हो रही है जिसे
कॉंग्रेस लागू कर रही थी या फिर जिसे कॉंग्रेस लागू करना चाहती थी तब भा ज पा ने
इसे लागू नहीं होने दिया था । इसीलिए कॉंग्रेस का इस पर यू टर्न सरकार का आरोप है
। आधार कार्ड, जी एस टी ( गूड्स एण्ड सर्विस टेक्स ) या फिर राज्यों
के अधिकार को कम करने वाला एन सी टी सी ( राष्ट्रीय आतंकवाद निरोधी केंद्र) तो
कांग्रेस की ही योजना थे ।
हमने देखा है कि फासीवाद की जरूरत
पूंजीपति वर्ग को तभी पड़ी थी जब कि पूंजीपति वर्ग को अपना वजूद ही खतरे में पड़ता
दिखाई दे रहा हो वह सामान्य तरीके से जनसंघर्षों को नियंत्रित न कर पा रहा हो; जब
कि क्रांतिकारी संकट मौजूद हो, मजदूर वर्ग समेत जनता के संघर्षों की लहर ऐसी हो कि
पूंजीपति वर्ग के लिए खतरा हो । जर्मनी -इटली में हमने देखा कि एक सशक्त मजदूर
आंदोलन मौजूद था , पूंजीपति वर्ग हर ओर से संकट ग्रस्त था ;
क्रान्ति का खतरा बना हुआ था जब फासिस्टों को लाया गया ।
क्या आज भारत में शासक पुराने तरीके
से शासन नहीं कर पा रहे है ? क्या मजदूर
वर्ग समेत जनता के संघर्ष आज उस स्थिति में खड़े हैं कि पूंजीपति वर्ग के लिए
तत्काल कोई खतरा पैदा कर कर रहे हों ? नहीं यह दोनों
स्थितियां आज मौजूद नहीं है। कोई क्रांतिकारी संकट अभी मौजूद नहीं है ऐसा कोई देश
व्यापी जनसंघर्ष आज नहीं है कि जनता शासित होने से इंकार कर रही हो इसके उलट भारत
का पूंजीवादी शासक पूंजीवादी जनवाद के सालों से चले आ रहे पुराने तरीके से आराम से
शासन कर रहा है इस पूंजीवादी जनतंत्र पर जनता को भरोसा अभी बना हुआ है । बढ़ते हुए
वोटिंग प्रतिशत में भी इसे देखा जा सकता है। तब अभी पूंजीपति वर्ग को फासीवाद कायम
करने की जरूरत ही क्या है।
परंतु पूंजीपति वर्ग व उसकी सरकार जिस
तरह से लोगों में आर्थिक तंगी बढ़ा कर व जनवादी अधिकार छीन रहे हैं उसमें इस बात की
पूरी संभावाना है कि ये समाज को मजदूर मेहनतकश जनता को क्रांतिकारी संघर्षों की ओर
ले जाएँ । पूंजीपति वर्ग यह जानता है वह
फासीवादी ताकतों को आगे कर ऐसे जनउभार से निपटने की पूर्व तैयारी कर रहा है ।
फासीवादी आंदोलन का होना या फासीवादी ताकतों का
सत्ता पर पहुँचने का मतलब यह नही कि फासीवाद कायम हो गया है। एक मजबूत फासीवादी
आंदोलन की मौजूदगी जरूर है। फासीवादी संघ की यह इच्छा जरूर है कि फासीवाद कायम हो
जाये लेकिन अभी पूंजीपति वर्ग को पूंजीवादी जनवाद को धता बताकर फासीवाद कायम करने
की जरूरत नहीं है अभी पूंजीपति वर्ग की जरूरत इन फासीवादी ताकतों को पाल पोसकर
क्रांतिकारी संकट से निपटने की पूर्व तैयारी करने की है । निकट भविष्य में किसी
क्रांतिकारी संकट के उपस्थित होने पर पूंजीपति वर्ग व फासीवादी संघ की चाहत में
एकता हो जाने से फासीवाद की पूरी सम्भावना बन जाती है ।
जहां तक भारत में फासीवाद की संभावना की बात है उसमें उसके सामने आने वाले
बाधाओ की चर्चा करना भी जरूरी होगा । भारत भाषायी विविधता वाला मुल्क है यहाँ
सास्कृतिक विभिन्नताएँ हैं बहुराष्ट्रीय मुल्क है इसलिए संघ का “ एक भाषा – एक
संस्कृति …. ” का नारा लागू होना आसान नहीं है इसका विरोध इसके लागू
होते ही होगा ।
खुद हिन्दू धर्म के भीतर विविधता व
जाति व्यवस्था इसकी राह में रुकावट है । इसके अलावा पूंजीपति वर्ग के अलग अलग
हिस्सों के बीच अपने अपने हितों के लिए अंतर्विरोध मौजूद है सपा ,
बसपा , जनता दल , तृण मूल
कॉंग्रेस आदि- आदि के रूप में यह
अभिव्यक्त होता है । यह इनकी राह की बाधा है । अंबानी-अदानी टाटा जैसे एकधिकारी
पूँजीपतियों का समर्थन अभी मोदी व संघ को मिला है । जबकि धनी किसानों,
क्षेत्रीय पूँजीपतियों ,नौकरशाह पूंजीपति आदि आदि का समर्थन इसे अभी हासिल अभी
नहीं है ।
चुनावों ने भी इसे दिखाया कि 282 सीटें
भाजपा को जरूर मिली लेकिन कुल 31.1
प्रतिशत वोट ही भाजपा को मिले । वह भी पूंजीपति वर्ग के
मीडिया द्वारा पूरा ज़ोर लगाने के बावजूद ।
लेकिन इन सब बाधाओं के होने का मतलब
यह नहीं है जैसा कि कुछ लोगों (पूंजीपति वर्ग के चाटुकार) का सोचना या कहना है कि
भारत जैसे इस प्रकार के विविधता वाले मुल्क में फासीवाद आ ही नहीं सकता । ये
बाधाएँ फासीवाद की राह को जटिल बना देती है लेकिन ये फासीवाद के ना कायम होने की
शर्त नहीं है ।
आज संघ भाजपा के रूप में एक मजबूत
फासीवादी आंदोलन मौजूद है जो अपने इतिहास के किसी अन्य समय से ज्यादा ताकतवर है यह
जनवादी अधिकारों पर हमले लगातार बढ़ा रहा है आज देश में फासीवाद कायम होने का
वास्तविक खतरा मौजूद है ।
जहां तक फासीवाद या फासीवादी ताकतों
को चुनौति देने व उसे पराजित करने का सवाल है यह केवल और केवल क्रांतिकारी संघर्ष
के ही दम पर दिया जा सकता है । पूंजीवादी व्यवस्था में सिमटने वाले लोग जिनके हित
फासीवाद में नहीं हैं व इसके पक्षधर नहीं है बल्कि इसके विरोधी हैं प्रतिरोध तो
करेंगे लेकिन इसे पीछे नहीं धकेल सकते । यह मजदूर वर्ग की अगुवाई में पूंजीवाद विरोधी
क्रांतिकारी संघर्ष के दम पर ही संभव है । इसी क्रांतिकारी संघर्ष के इर्द गिर्द
बना व्यापक संयुक्त मोर्चा इसे पराजित कर सकता है ।
केंद्रीय
कार्यकारिणी
क्रांतिकारी
लोक अधिकार संगठन
29 मार्च 2015
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