छठे सम्मलेन में पारित राजनीतिक प्रस्ताव
राजनीतिक प्रस्ताव -1 : शहीदों
को श्रद्धांजली
पिछले लगभग सवा तीन सालों
में समाजवाद की स्थापना का सपना संजोए हुए पूंजीवाद साम्राज्यवाद से लड़ते हुए
दुनिया भर के ढेरों लोग शहीद हुए । क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन इन इंकलाबी
शहीदों को अपनी भावभीनी श्रद्धांजली देता है और उनके सपनों को पूरा करने संकल्प
लेता है ।
इसके अलावा इसी दौरान तमाम
लोगों ने जनवाद के रक्षा के लिए लड़ते हुए कुर्बानी दी है भारत में आदिवासियों , किसानों ने जबरन बेदखली के खिलाफ संघर्ष में अपनी जानें गवाई
है । धार्मिक अंधविश्वास के खिलाफ प्रचार कर वैज्ञानिक मूल्यों की स्थापना को लेकर
सक्रिय लोगों की फासीवादी गुंडों द्वारा हत्याएं की गईं तो कई सूचना अधिकार
कार्यकर्त्ताओं भी मौत के घाट उतार दिये गए । ट्रेड यूनियन संघर्षों में तमाम लोग
मारे गए हैं इन सभी लोगों को यह सम्मेलन श्रद्धांजली देता है ।
इन संघर्षों के इतर
पूंजीवादी साम्राज्यवादी व्यवस्था द्वारा अनगिनत लोगों को ठंडी मौत देने का
सिलसिला जारी है । भुखमरी , कुपोषण , बेकारी , से लेकर व्यवस्थाजन्य आपदाओं में लोगों का मारा जाना जारी है ।
क्रांतिकारी लोक अधिकार
संगठन इन सभी मौतों के लिये पूंजीवादी साम्राज्यवादी व्यवस्था का दोषी मानता है
संघटन पूंजीवाद साम्राज्यवाद से लड़ते हुए जनवाद की रक्षा व विस्तार के लिए लड़ते
हुए शहादत देने वाले शहीदों के सपनों को साकार करने का संकल्प लेता है और इनकी याद
में अपने झंडे को झुकाता है ।
राजनीतिक
प्रस्ताव 2 : फासीवाद के बढ़ते खतरे के
विरुद्ध
एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग और
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के घृणित गठजोड़ के परिणामस्वरूप देश की केंद्रीय सत्ता
पर भा ज पा के सत्तासीन होने से संघ के नेतृत्व वाला हिन्दू फासीवादी आंदोलन अपने
इतिहास की सबसे ताकतवर स्थिति में पहुँच गया है ।
यह केंद्रीय संस्थाओं आई सी
एच आर , आए सी सी आर के बाद अब एन सी
ई आर टी
और एन बी टी के भगवाकरण की दिशा में बढ़ रहा है । संघी फासिस्टों ने भारतीय
फिल्म और टेलीविजन व प्रशिक्षण संस्थान पुणे में चेयरमेन के पद पर भा ज पा
कार्यकर्त्ता गजेंद्र चौहान की नियुक्ति कर दी है ।
वर्तमान मोदी सरकार ने जहां
धर्मांतरण , लव जिहाद जैसे मुद्दों को आगे बढ़ाया तथा
सरस्वती पूजा, गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करवाने गौमांस खाने पर प्रतिबंध आदि
मुद्दों पर बहस को हवा देकर अपने साम्प्रादायिक फासीवादी एजेंडे को आगे बढ़ाया है ।
वहीं दूसरी ओर नागरिकों के व्यक्तिगत मामलो मसलन खान पान ,
रहन सहन , विश्वास मूल्यों मान्यताओं के जनवादी अधिकारपर भी
हमला बोला है ।
भारतीय शासक वर्ग ने जनवादी
संस्थाओं के फासीवादीकरण की मुहिम तेज कर दी है । नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में
संस्थाओं का केन्द्रीकरण बढ़ा है । योजना आयोग को समाप्त किया जा चुका है । देश के
महत्वपूर्ण फैसले प्रधानमंत्री कार्यालय ( पी एम ओ ) ले रहा है । चुने हुए मंत्रियों
के स्थान पर नौकरशाहों से महत्वपूर्ण कारी लेने की प्रवृत्ति बढ़ रही है । नौकरशाही
के अधिकारों में वृद्धि कर जनवादी संस्थाओं व पदों पर नौकरशाहों को बिठाने का
रुझान लगातार बढ़ रहा है ।
संघ के नेता खुले आम भारत
को हिन्दू राष्ट्र घोषित कर रहे हैं तथा शिव सेना ने तो मुसलमानो से मताधिकार
छीनने तक की मांग उठाई है । संघ ‘एक राष्ट्र – एक
भाषा-एक संस्कृति ’ को थोपने का प्रयास
करता हुआ हमारे समाज का एक खतरनाक फासीवादी संगठन है । जो भाजपा के सत्ता में आने
का लाभ उठाते हुए देश में हिन्दू फासीवादी राज्य की स्थापना करना चाहता है ।
देश में जनवाद प्रगतिशील
संस्कृति , वैज्ञानिक मूल्यों आदि के लिए काम करने
वाली संस्थाओं तथा व्यक्तियों पर हमले बढ़े हैं । महाराष्ट्र के नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पनसारे व कर्नाटक के प्रोफेसर कलबुर्गी तथा आर टी आई
कार्यकर्त्ताओं , मानव अधिकार कार्यकर्त्ताओं व सामाजिक
कार्यकर्त्ताओं की हत्याएं व उन्हे
धमकियां इसी का उदाहरण हैं ।
ऐसे में फासीवाद के इस खतरे
को चुनौती देना तथा पराजित किया जाना आवश्यक है । फासीवादी आंदोलन के हर तरह के
झूठे हथकंडों को जनता के बीच बेनकाब करना उसका प्रतिरोध करना हमारी महती
ज़िम्मेदारी बनती है ।
यह सम्मेलन साम्प्रदायिक
फासीवाद के खिलाफ संघर्ष करने तथा इसके खतरों को आम नागरिकों के बीच उजागर करने का
संकल्प लेता है ।
राजनीतिक
प्रस्ताव -3 : श्रम क़ानूनों में बदलाव के
विरोध में
देश में आज़ादी के संघर्ष के दौरान व उसके बाद मजदूर मेहनतकश जनता के संघर्षों के कारण सरकारों को कई ऐसे श्रम
कानून बनाने पड़े जो संगठित क्षेत्र के मजदूरों को कुछ राहतें व सहूलियतें प्रदान
करते थे । असंगठित क्षेत्र में यह श्रम कानून व्यवहार कहीं भी लागू नहीं होते।
यद्यपि इन श्रम क़ानूनों को
पूंजीपति वर्ग व सरकारें आधे-अधूरे तरीके से व अक्सर मजदूरों के संघर्ष के कारण ही
पालन करने को मजबूर होती रही हैं । इसी कारण पूंजीपति वर्ग लंबे समय से श्रम
कानूनों में संशोधन की बात करता रहा है उसकी इच्छा रही है कि उसे मजदूरों के
निर्बाध शोषण का अधिकार मिल जाये ।
स्थापित ट्रेड यूनियनों
द्वारा जुझारू ट्रेड यूनियन संघर्ष से किनाराकशी करने के कारण 80 के दशक से ही
पूंजीपति वर्ग को हमलावर होने का मौका मिल गया । बाद में उदारीकरण व वैश्वीकरण के
दौर में श्रम कानून में बदलाव की उसकी
मांग मुखर होटी गई । उसकी इस मांग की ही सूत्रीत अभिव्यक्ति द्वितीय श्रम आयोग की
रिपोर्ट के रूप में जारी हुई थी । तत्कालीन सरकारें इस दिशा में धीरे धीरे कदम
बढ़ाकर पूंजीपति वर्ग को संतुष्ट करती रही ।
2007-08 से दुनिया बाहर में
जारी विश्व आर्थिक संकट ने भारत के पूंजीपति वर्ग को भी संकट की ओर धकेला ऐसे में
इस संकट की भरपाई के लिए पूंजीपति वर्ग व उसकी सरकारें मजदूर वर्ग और मेहनतकश जनता
पर और ज्यादा हमलावर हो गई । इसी दौरान पूँजीपतियों की तमाम कोशिशों व कांग्रेस
पार्टी के खिलाफ जनाक्रोश के कारण भा ज पा सत्ता में आई । इस सरकार ने न्यूनतम
मजदूरी अधिनियम 1948 , कारख़ाना अधिनियम 1961 , औद्योगिक विवाद अधिनियम 1949 , ट्रेड यूनियन
अधिनियम 1926 , बाल श्रम अधिनियम तथा कुछ अद्योगों को रिटर्न
भरने रजिस्टर रखने से छूट संबंधी अधिनियम 1988 में मजदूर विरोधी संशोधन प्रस्तावित करके मजदूरों पर हमला तेज कर दिया
है ।
सरकार ने इन सशोधनों को
संसद से पास कराने की पुरजोर कोशिश की है और लोक सभा में अपने बहुमत का इस्तेमाल
करके कुछेक को पास भी करा चुकी है । भाजपा की राजस्थान व महाराष्ट्र सरकारें तो इस
मामले में केंद्र की सरकार से भी दो कदम आगे निकल गई हैं ।
ये संशोधन जहां एक ओर मजदूर
वर्ग की श्रम दशाओं को और बदहाली की ओर धकेलने की कोशिशें हैं वहीं दूसरी ओर मजदूर
वर्ग के संगठित प्रतिरोध को कमजोर करने का भी इंतजाम करते हैं। ये संशोधन मजदूर
वर्ग के संगठित होने के आधिकार को कमजोर करते हैं ।
भारत के मजदूर वर्ग पर तेज
होता हमला उदारीकरण वैश्वीकरण के मौजूदा दौर में और विशेषकर विश्व आर्थिक संकट के
काल में पूरी दुनिया भर में पूंजीपति वर्ग द्वारा श्रम पर बोले जा हमले का ही एक
हिस्सा है । वैश्विक पैमाने पर आज जैसे जैसे पूंजी द्वारा श्रम पर एक के बाद एक
हमले बोले जा रहे हैं वैसे वैसे ही मजदूर वर्ग भी इसके विरोध में एक के बाद एक
जुझारू संघर्ष कर रहा है । हमारे देश में भी पूंजी के हमले के विरुद्ध मजदूरों के
संघर्षों में तेजी आई हैं ।
क्रालोस का यह सम्मेलन सब
कुछ पैदा करने वाले अपनी मेहनत से पूरी दुनिया चलाने वाले मजदूर मेहनतकशों को उनके
संघर्ष व कुर्बानियों द्वारा मिले श्रम कानूनों में पूंजी के हितों के अनुरूप हो
रहे बदलावों – प्रस्तावों का विरोध करता है । क्रालोस श्रम कानूनों में हो रहे
बदलाव के खिलाफ मजदूरों के संघर्षों में
भागीदारी को कृतसंकल्प है तथा इन संघर्षों के किसी भी तरह के दमन का प्रबल विरोधी
है ।
राजनीतिक
प्रस्ताव 4 : सत्ता के बढ़ते केन्द्रीकरण
का विरोध करो !
पिछले साल 16 मई के बाद
केंद्र की सत्ता में पहुँचते ही मोदी सरकार के नेतृत्व में सत्ता का बढ़ता
केन्द्रीकरण अब स्पष्ट दिखाई देने लगा है । मोदी व मोदी सरकार की पूरी कार्यशैली
इंदिरा गांधी के आपात काल के दौर की यादों को ताजा करने लगी है ।
सत्ता के बढ़ते केन्द्रीकरण
का न केवल जनपक्षधर संगठनों ने विरोध किया है बल्कि शासक वर्गीय अन्य पार्टियों व
खुद भा ज पा के जबरन मार्गदर्शक बनाए गए नेता ने भी इस ओर इशारा किया है ।
स्थितियां यहां तक पहुंची हैं कि खुद प्रधानमंत्री मोदी को इस संबंध में सफाई देनी
पड़ी है ।
पूंजीवादी लोकतन्त्र के
संबंध में हकीकत यही है कि यह पूंजीपति वर्ग द्वारा आम मेहनतकश नागरिकों का
शांतिपूर्ण शोषण उत्पीड़न की व्यवस्था है कि यह पूंजीपति वर्ग की अवाम पर तानाशाही
का ऐसा रूप है जिसमें मेहनतकश आवाम को सीमित अधिकार होते हैं जबकि इसके बरक्स
शासकों को सारे विशेषाधिकार होते हैं ।
स्पष्ट है कि सत्ता की सारी
शक्ति शासक पूंजीपति वर्ग के हाथ में ही केन्द्रित होती है । न्यायपालिका, विधायिका व कार्यपालिका इस पूंजीवादी व्यवस्था के ही अंग हैं
। इसमें जनता का हस्तक्षेप केवल विधायिका तक है वह भी बहुत सीमित रूप में । शासक
पूंजीपति वर्ग अपनी पार्टियों को जनता के मतों के जरिये सत्ता में पहुंचाता है ।
साल 2014 में कारपोरेट
घरानों ने मोदी को सत्ता पर अभूतपूर्व ढंग से बिठाने से अब यह बात बहुत बहुत
ज्यादा स्पष्ट हो चुकी है । कारपोरेट घारानों ने मोदी को सत्ता पर जिस मकसद से
बिठाया था उसकी पूर्ती के लिए जरूरी था कि सत्ता की सारी ताकत /शक्ति अत्यधिक
केन्द्रित हो जाये ताकि नए आर्थिक सुधारों को तेजी से लागू करने में आ रहे तमाम
भांति भांति के अवरोधों से निपटने में आसानी हो ।
कारपोरेट घरानों व संघ के
अभूतपूर्व गठजोढ़ से सत्ता पर काबिज मोदी सत्ता के केन्द्रीकरण की ओर तेजी से बढ़
रहे हैं । इस बात के संकेत तभी यानी 16 मई को ही मिल गए थे जब संसद में माथा टेकते
ही उन्होने अध्यादेश जारी कर नृपेन्द्र मिश्रा को अपना सचिव बना लिया । तब से अब
तक अध्यादेश दर अध्यादेश जारी कर यह सरकार
‘अध्यादेश सरकार’ बन गई
है ।
प्रधानमंत्री मोदी के इस एक
वर्ष के कार्यकाल में सर्वोच्च नीति निर्धारक निकाय व्यवहार में मंत्रीमंडल न रहकर
प्रधामन्त्री कार्यालय हो गया है । मंत्रीमंडल की ताकत नाममात्र की रह गई है ।
मंत्रियों, राज्यमंत्रियों की हैसियत इस हद तक कमजोर
कर दी गई है कि उनको निजी सचिव रखने तक की आज़ादी प्रधानमंत्री मोदी के चरणों में
लोट पोट हो रही है । यह केवल मुखौटा भर हैं ।
अब मंत्रीमंडल की बजाय
फैसले लेने व नीतियों को तय करने का सारा काम व्यवहार में मोदी व 6 (नौकरशाह )
सचिव से बना पी एम ओ कर रहा है । मंत्रियों के सशक्त समूह ( ई जी ओ एम ) तो पहले
ही तत्काल भंग कर दिये गए थे ।
सत्ता के बढ़ते केन्द्रीकरण
का ही यह नतीजा है कि मोदी की फासिस्ट कार्यशैली के जब न्यायपालिका से अंतरविरोध
बनने लगे तो मोदी सरकार ने न्यायपालिका के अधिकारों को कमजोर करने में कतई देर
नहीं की । जबकि रिजर्व बैंक के साथ बनते अंतर्विरोध से निपटने के लिए नया बिल लाने
की कोशिश हुई ताकि गवर्नर के वीटो पावर को कमजोर या खत्म किया जा सके ।
सत्ता के इस बढ़ते केन्द्रीकरण ने न केवल 1975
बल्कि हिटलर व मुसोलिनी के दौर की यादों
को भी फिर से जिंदा कर दिया है । सत्ता में बैठी वर्तमान ताक़तें अपने
चरित्र में फासीवादी हैं । इसीलिए हिटलर व मुसोलिनी की तर्ज पर काम कर रहे मोदी व मोदी सरकार के होते फासीवाद का गंभीर
खतरा हमारे सामने है । हिटलर व मुसोलिनी ने सत्ता पर पहुँचने के कुछ साल गुजरते
गुजरते फासीवाद कायम कर लिया था ।
मोदी सरकार के नेतृत्व में
सत्ता का बढ़ते केन्द्रीकरण की दिशा भी यही है । सम्मेलन सत्ता के इस बढ़ते
केन्द्रीकरण के विरोध में आवाज उठाने का संकल्प लेता है ।
राजनीतिक प्रस्ताव 5 : -- अफ्रीकी पश्चिमी एशियाई देशों में साम्राज्यवादी दुश्चक्र
के विरोध में
पश्चिमी एशियाई और अफ्रीकी देश इराक सीरिया लीबिया सूडान व अफगानिस्तान
साम्राज्यवादियों द्वारा थोपे गये युद्धों से पैदा हुई तबाही बर्बादी के कारण
भयावह मानवीय त्रासदी झेल रहे हैं । लाखों लोग युद्ध में जान गंवा चुके हैं ।
युद्ध में फंसे लोगों का जीवन दूभर है । युद्ध की तबाही ने आबादी के भारी हिस्सों
को उनकी जमीन से उखड़ने को मजबूर किया है । अपने निवास से उजड़े लाखों लाख स्त्री
पुरुष व बच्चों का सैलाब सुरक्षित जगहों की तलाश में दूसरे देशों में शरण पाने के
लिए पलायन के लिए मजबूर है ।
लोग शरण पाने के लिए
असुरक्षित समुद्री मार्गों दुर्घटनाओं में जान गंवा रहे हैं । मार्ग में
मानवतस्करों के जाल में फंस रहे हैं ।
दूसरे देशों
के सरकारों के अपमानजनक सीमा पाबंदी की मार झेल रहे हैं । जानकारों का दावा है की
यह द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की सबसे बड़ी पलायन की परिघटना है ।
साम्राज्यवादी शक्तियां
अमेकी नेतृत्व में अपने वर्चस्व को थोपने अपने लूट व शोषण को स्थापित करने के लिए
दूसरे देशों में दखलअंदाजी करते रहे हैं । शीट युद्ध से लेकर रंगीन क्रांतियों का
षड्यंत्र रखने में हमेशा सक्रिय रहे हैं । सरकारों का तख़्ता पलट करना, विद्रोहों को भड़काना, प्रतिक्रियावादी , रूढ़िवादी ताकतों फासिस्ट गिरोहों को पाल पोस कर हस्तक्षेप के बहाने बनाने
में ये सक्रिय रहते हैं ।
बुरे राष्ट्रों के बहाने , जनवाद स्थापित करने के पाखंड , आतंकवाद
का फरेबी हो हल्ला गढ़ कर इंहोने दुनिया भर में जहां तहां स्वार्थों की पूर्ति के
लिए हस्तक्षेप किए । अफगानिस्तान इराक इनके खुले आक्रमण व कब्जाकारी विध्वंशक
कारगुजारियों के शिकार रहे हैं । जहां जनता ने दशकों से विनाशकारी तबाही को झेला
है ।
वर्ष 2011 में अरब व
पश्चिमी एशियाई देशों में उठे जन विद्रोहों को अपने हितों के अनुरूप मोड़ने के लिए
साम्राज्यवादियों ने साता परिवर्तन का खेल खेला । इनके इस दुश्चक में अपने
प्रतिगामी हितों की रक्षा के लिए इजरायल, सऊदी
अरब व अन्य शेखों के राज्य भी शामिल रहे । लीबिया में गद्दाफ़ी की हत्या करने के
बाद उन्होने सीरिया को भी तख़्ता पलट दुश्चक्र का निशाना बनाया । विद्रोहों की
सीरियन आर्मी को सामरिक साजो समान से लैस कर युद्ध आरंभ किया गया । सीरिया को
चौतरफा युद्ध से घेर दिया गया । इस्लामिक स्टेट आतंकी संगठन को सीरिया के खिलाफ
खड़ा किया । तुर्की, सऊदी अरब ने आतंकी संगठन अहरार-अह-शाम व
जैस-अल-इस्लाम तथा जमात-अल-नूसरा को आगे कर सीरिया के खिलाफ परोक्ष युद्ध छेड़ दिया
। इस चौतरफा युद्ध का घोषित लक्ष्य सीरिया के शासक बसर-अल-असद को सत्ता से हटाना
था। साढ़े चार साल के लंबी विध्वंशक युद्ध के हालातों ने जनता की तबाही बढ़ा दी । दो
लाख लोग युद्ध में मारे गए । सीरिया की आधी आबादी
तकरीबन 2 करोड़ 30 लाख अपनी जमीन से उखड़ गई । 40 लाख लोग शरण पाने के लिए
दूसरे देशों की ओर पलायन करने को मजबूर हुए ।
साम्राज्यवादी इतनी भयावह
त्रासदी के बावजूद अपने दुश्चक्र को रोकने को तैयार नहीं हैं । युद्ध को और कारगर
बनाने की जोड़ तोड़ जारी है । उनकी कोशिश है कि सीरिया को भी लीबिया, इराक की तरह अपने चंगुल में फंसा लें । रूस व ईरान इसमें आड़े
आ रहे हैं ।
सभी देशों की तबाही बर्बादी
ने भयावह मानवीय त्रासदी को जन्म दिया है । अपनी जमीन से उखड़े लोगों का सैलाब बढ़ता
हुआ यूरोपीय देशों में पहुंच रहा है । ये देश शरणार्थियों को रोकने के लिए अपनी
सीमा चौकसी बढ़ा रहे हैं । शरणार्थियों को कमजोर देशों की ओर ठेल रहे हैं। विश्व
जनमानस इस अमानवीय त्रासदी से प्रभावित हो
रहा है ।
इतिहास साक्षी है
साम्राज्यवादी व्यवस्था मानवद्रोही रही है । इसने विश्व भर में जनता की गुलामी और
शोषण को बढ़ाया है यही कारण है 20 वीं सदी के जनता के संघर्षों का मुख्य निशाना
साम्राज्यवाद रहा है । शीट युद्ध से लेकर नव उदारवादी शोषण साम्राज्यवाद द्वारा
थोपा गया है ।
सम्मेलन अफ्रीकी पश्चिमी एशियाई देशों की जनता की पीड़ा
का एहसास करता है और अपनी संवेदनाएं व्यक्त करता है । साम्राज्यवादी आक्रामकता का
समूल नाश करने में अपनी भागीदारी का वचन देता है ।
राजनीतिक
प्रस्ताव 6 : -- कन्नड विद्वान कलबुर्गी की हत्या के विरोध
में
कुछ दिनों पहले कर्नाटक के मशहूर विद्वान ,
तार्किक चिंतक , अंधविश्वास विरोधी कलबुर्गी की फासीवादी
तत्वों द्वारा हत्या कर दी गई । इससे पूर्व हिन्दू फासीवादी तत्वों द्वारा दाभोलकर
व पनसारे के हत्या कर दी गई थी ।
कलबुर्गी , दाभोलकर व पंसारे तीनों ही धार्मिक अंधविश्वासों के घोर
विरोधी , कर्मकाण्डों के विरोधी व वैज्ञानिक व तार्किक चिंतन
को समाज में स्थापित करने को प्रयासरत थे । संघी फासीवादी तत्व हिन्दू धर्म के
कर्मकाण्डों ,अंधविश्वासों को समाज में स्थापित करने पर
उतारू हैं । इसीलिए ये लोग उन्हें अपनी राह में बाधा के रूप में नज़र आए और
फासीवादी लंपटों ने इनकी हत्या कर दी ।
ये तीनों विद्वान पूंजीवादी
साम्राज्यवादी व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष नहीं कर रहे थे । इनमें पंसारे संशोधन
वादी पार्टी से जुड़े थे । इसीलिए कहा जा सकता है कि ये तीनों ही पूंजीवादी दायरे
में भारतीय संविधान की धर्मनिरपेक्षता के साथ वैज्ञानिक मूल्यों को स्थापित करने
में जुटे थे । लेकिन फासीवादी तत्वों को संविधान के दायरे में कार्यरत इन
विद्वानों की कार्यवाहियां भी बर्दाश्त नहीं हुई ।
इसीलिए पूंजीवादी व्यवस्था
के खात्मे के लिए संघर्षरत लोगों के साथ फासीवादी तत्व इससे भी बुरा सलूक करेंगे ।
आज जब पूंजीपति वर्ग अपनी सारी तार्किकता विज्ञान के मूल्यों को एक किनारे रख
फासीवादी पार्टी के समर्थन आ खड़ा हुआ है ऐसे में पूंजीवादी दायरे में समाज को और
तार्किक वैज्ञानिक बनाने की संभावनाएं बेहद कमजोर हो जाती हैं ।
इसीलिए समाज को
तार्किक-वैज्ञानिक मूल्यों पर खड़ा करने के किसी भी प्रयास को पूंजीवादी व्यवस्था
के खिलाफ संघर्ष का हमराही बनना होगा । पूंजीवाद विरोध की जमीन पर खड़ा होकर
फासीवादी ताकतों के हमलों का वैचारिक जवाब दिया जा सकता है ।
क्रांतिकारी लोक अधिका
संगठन फासीवादी लंपटों द्वारा तार्किक चिंतक कल्बुर्गी की हत्या का विरोध करता है
। और इन सभी लोगों की हत्यारों पर कार्यवाही की मांग करता है । यह सम्मेलन
फासीवादी ताकतों के खिलाफ संघर्ष का संकल्प लेता है ।
राजनीतिक
प्रस्ताव 7 : - भूमि अधिग्रहण के खिलाफ
किसानों की जमीन का सरकार
द्वारा जबरन अधिग्रहण करने का सिलसिला ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के जमाने से चला आ
रहा है। ब्रिटिश शासकों ने इसके लिए 1894 का भूमि अधिग्रहण कानून बनाया था । जो
उन्हें किसानों से जबरन मनमाने दामों पर भूमि अधिग्रहित करने का अधिकार देता था ।
यह कानून पूरी तरह से ज़ोर जबर्दस्ती का कानून था ।
आज़ादी के बाद भी इसी कानून
के तहत लंबे समय तक भूमि अधिग्रहण होता रहा । किसानों ने जबरन भूमि अधिग्रहण के
खिलाफ देश भर में कई जुझारू संघर्ष किए । बिहार के चंपारण, गुजरात के बारदौली, पंजाब के बाहनाक, महाराष्ट्र के रायगढ़, हरियाणा के गुड़गांव, उड़ीसा के कलिंग नगर, बंगाल के सिंगूर और नंदीग्राम , उत्तर प्रदेश के दादरी और भट्टा पारसौल में किसानों ने अन्यायपूर्ण भूमि
अधिग्रहण के जबर्दस्त संघर्ष चलाया था । इन संघर्षों में किसानों ने अपनी जान की
कुर्बानी दी ।
किसानों के इन संघर्षों व
2014 के चुनावों में राजनीतिक लाभ के मद्देनजर कांग्रेस सरकार ने 2013 का नया भूमि
अधिग्रहण कानून पास किया । यद्यपि यह कानून भी किसानों खासकर विस्थापित खेतीहर
मजदूरों व भूमिहीनों की सुरक्षा का कोई बेहतर इंतजाम नहीं करता था पर फिर भी इस
कानून से अभी तक मनमाने भूमि अधिग्रहण पर लगाम लगाने की कुछ उम्मीद जगी थी ।
पूंजीपति वर्ग ने इस कानून
में किसानों को मिलने वाली सहूलियतों के प्रति अपनी नाखुशी इसके पारित होते ही जता
दी थी । पूंजीपति वर्ग तभी से 2013 के कानून को रद्द करने के लिए सरकार पर दबाव
बनाता रहा है । इसीलिए जब 2014 में पूंजीपति वर्ग द्वारा नियोजित चुनाव के जरिये
मोदी प्रधानमंत्री बने तो उन्होने अध्यादेश के जरिये 2013 के कानून को बदल डालने
की कवायद शुरू कर दी । 2014 के अध्यादेश में किसानों को मिली तमाम सहूलियतें छीन
ली गई थी ।
इस किसान विरोधी अध्यादेश
का व्यापक विरोध होना लाजिमी था और भारी विरोध के चलते फिलवक्त मोदी सरकार को अपने
कदम पीछे खींचते हुए अध्यादेश वापस लेना पड़ा है पर सही मौका पाते ही सरकार फिर से
इस अध्यादेश को आगे बढ़ायेगी ।
आज़ादी के बाद से भूमि
अधिग्रहण के जरिये करोड़ों लोगों को विस्थापित किया जा चुका है । विस्थापितों के
पुनर्वास के सरकार केवल वायदे ही करते रहती है। मोदी सरकार विकास के नाम पर बड़े
पैमाने पर भूमि अधिग्रहण की योजनाएँ लेकर बैठी है जो किसानों से भूमि छीन पूंजीपतियों
को लौटाने का एक तरीका है ।
पूंजीवादी व्यवस्था हर तरह
से छोते मझौले किसानों को तबाह बर्बाद करती है । बाज़ार के मैकेनिज़्म के जरिये छोटे
मझौले किसानों को अपनी भूमि बेच मजदूर बनाने की ओर धकेला जाता है कई दफा सरकार की
जबरन भूमि छीन भी किसानों को मजदूर बनने को मजबूर कर देती है । पूंजीवाद में छोटी
संपत्ति की तरह छोटे मझौले किसानों की तबाही तय है । इसीलिए छोटे गरीब किसानों
के हितों की मुकम्मल रक्षा पूंजीवाद में नहीं समाजवाद में ही संभव है ।
क्रांतिकारी लोक अधिकार
संगठन किसानों से जबरन भूमि अधिग्रहण के किसी भी प्रयास का विरोध करता है । किसान
विरोधी किसी भी अधिग्रहण कानून का संगठन पुरजोर विरोध करेगा ।
राजनीतिक प्रस्ताव 8 :--
जनसंघर्षों के दमन के खिलाफ
इतिहास गवाह है कि जनता अपने एक एक
अधिकार को शासकों से लड़कर ही हासिल कर पायी है आज भी हमारे देश में मेहनतकश जनता
अपने अधिकारों की रक्षा व विस्तार के लिए जगह जगह लड़ रही है । हमारे पूंजीवादी
शासक इन संघर्षों का गला घोंटने के लिए लाठी गोली सरीखे हथकंडे अपनाने के साथ साथ
दमनकारी काले क़ानूनों का निर्माण कर रहे हैं ।
आज मजदूर वर्ग पूरे देश में
श्रम क़ानूनों परिवर्तन के खिलाफ संघर्षरत है । इन क़ानूनों में बदलाव कर शासक वर्ग
अपने लिए लूट की खुली छूट हासिल करना चाहता है । मजदूरों से संगठित हो यूनियन
बनाने का हक छीन लेना चाहता है। अपने हकों के लिए आज मजदूर वर्ग जब भी संघर्ष की
राह पर चल रहा है तो उसे शासकों के निर्मम दमन का सामना करना पड़ रहा है। होंडा से
लेकर मारुति सुजुकी का दमन इसके जीते जागते उदाहरण हैं ।
देश में किसान समुदाय कृषि
लागतों के महंगा होने के खिलाफ समर्थन मूल्य बढ़ाने सरीखे मुद्दों पर संघर्षरत हैं
सरकारों द्वारा कृषि में अनुदान घटाने व किसानों की उपज को बाज़ार के हवाले करने से
तबाह बर्बाद कर्ज में डूबे किसानों की आत्महत्याएं लगातार बढ़ रही हैं । इसके साथ
ही किसान मोदी सरकार द्वारा जबरन भूमि छीनाने के दस्तावेज़ नए भूमि अधिग्रहण विधेयक
के खिलाफ संघर्षरत रहे हैं। किसानों के इस संघर्ष से भी हमारे शासक लाठी गोली की
भाषा से निपट रहे हैं । पिछले एक दशक में जबरन भूमि छीने जाने के खिलाफ लड़ते हुए
ढेरों किसानों को मौत के घाट उतार दिया गया ।
मध्य भारत में जंगलों में
मौजूद खनिज संपदा को पूँजीपतियों के हवाले करने के लिए शासकों ने आदिवासी लोगों को
खदेड़ने के लिए आपरेशन ग्रीन हंट अभियान चला रखा है । आदिवासी जन अपनी जबरन बेदखली
के खिलाफ जुझारू संघर्ष कर रहे हैं और सरकार अपने पुलिस बलों की मदद से आदिवासियों
के खून की होली खेल उनका मुंह बंद कर देने पर उतारू हैं ।
कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर
में भारतीय राजसत्ता के उत्पीड़न का शिकार उत्पीड़ित राष्ट्रीयताएं अपनी मुक्ति के
लिए निरंतर संघर्षरत हैं भारतीय सुरक्षा बलों द्वारा यहाँ की संघर्षरत जनता का
निर्मम दमन बदस्तूर जारी है । महिलाओं से बलात्कार, संघर्षरत लोगों को आतंकवादी करार देकर फर्जी मुठभेड़ में मार गिराना आदि
भारतीय शासकों के दमन के हथकंडे हैं ।
देश के तमाम राज्यों में बेरोजगार नौजवान रोजगार की मांग को
लेकर, बेहद कम वेतन पर कार्यरत आंगनवाड़ी
–आशा-भोजन माता आदि अपने स्थाई काम के लिए , प्रशिक्षित
नौजवान रोजगार के लिए संघर्षरत हैं । सम्मानजनक जीवन की इनकी मांग को हमारे शासक
लाठी गोली से कुचलने पर उतारू हैं ।
फासीवादी पार्टी के
सत्तासीन होने के बाद से लोगों के खान पान,
संस्कृति, रहन-सहन, शिक्षा आदि पर जबरन
संघी विचार थोपे जा रहे हैं। इतिहास के भगवाकरण से लेकर तमाम पदों पर संघी लोग
बैठाये जा रहे हैं । इनके खिलाफ संघर्षरत छात्रों-मेहनतकशों का निरंतर दमन किया जा
रहा है ।
मोदी सरकार के सत्तासीन
होने के बाद से अपने हकों के लिए संघर्ष करने का अधिकार जनता से क्रमश: छीना जा
रहा है । सरकार जनसंघर्षों के दमन के लिए काले क़ानूनों का जाल खड़ा करने से लेकर
पुलिस बालों को आधुनिक उपकरणों से लैस कर आधिक खूंखार बनाने में जुटी है ।
क्रांतिकारी लोक अधिकार
संगठन देश के इन न्यायपूर्ण संघर्षों में अपनी क्षमताभर भागीदारी को कृतसंकल्प है
और इन संघर्षों के दमन का पुरजोर विरोध करता है ।
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