सवाल दुनिया को बदलने का है ( कार्ल मार्क्स की 200वीं जयंती पर)
( साभार : enagrik.com )
( साभार : enagrik.com )
आज भी पूंजीवादी व्यवस्था के घनघोर समर्थकों से लेकर आमजन तक से एक बात अक्सर सुनने को मिल जाती है जिसका सार यह होता है कि दुनिया में अमीर-गरीब, शोषक-शोषित हमेशा से रहे हैं और हमेशा रहेंगे। जहां आमजन अपने जीवन की हताशापूर्ण स्थितियों से इन नतीजों तक पहुंचे होते हैं वहीं पूंजीवादी व्यवस्था के पैरोकार अपनी व्यवस्था के बचाव में इस तरह के तर्क ईजाद कर रहे होते हैं। इनमें से ज्यादा पढ़े-लिखों के पास इस तरह के पुराने तर्कों का एक जखीरा मौजूद होता है।
जब आमजन यह कहते हैं कि अमीर-गरीब, शोषक-शोषित, शासक-शासित हमेशा से मौजूद रहे हैं तो उनकी बात में एक आंशिक सच्चाई होती है। यह सच्चाई केवल उनके सीमित जीवन की सच्चाई नहीं है जिस दौरान दुनिया नहीं बदली। यह सच्चाई ज्यादा बड़ी है। यह सच है कि जब से दुनिया में वर्गीय समाज पैदा हुए हैं तब से हमेशा से अमीर-गरीब, शोषक-शोषित, शासक-शासित मौजूद रहे हैं। और इस बात को पांच हजार साल हो चुके हैं। मानव के ध
जब आमजन यह कहते हैं कि अमीर-गरीब, शोषक-शोषित, शासक-शासित हमेशा से मौजूद रहे हैं तो उनकी बात में एक आंशिक सच्चाई होती है। यह सच्चाई केवल उनके सीमित जीवन की सच्चाई नहीं है जिस दौरान दुनिया नहीं बदली। यह सच्चाई ज्यादा बड़ी है। यह सच है कि जब से दुनिया में वर्गीय समाज पैदा हुए हैं तब से हमेशा से अमीर-गरीब, शोषक-शोषित, शासक-शासित मौजूद रहे हैं। और इस बात को पांच हजार साल हो चुके हैं। मानव के ध
रती पर कुल दो लाख साल के जीवन में पांच हजार साल ज्यादा नहीं हैं पर ये पांच हजार साल ही मानव सभ्यता के भी काल हैं। इसके पहले तो मानव आदिम कबीलाई समाज में रहता था -सभ्यता पूर्व के काल में। आज के मानव की ज्यादातर यादें तो इसी सभ्यता के काल की हैं।
इस तरह सभ्यता के काल में मानव समाज एक जैसा रहा है -आमजन के हिसाब से आंसुओं के समुद्र में डूबा हुआ। ऐसा नहीं है कि इस काल में इस समुद्र से बाहर निकलने के लिए आमजन ने प्रयास नहीं किये, पर पाया यह गया कि प्रयास मूलतः असफल हो गये। ऐसे में यह घारणा पैदा होनी स्वाभाविक थी कि दुनिया नहीं बदल सकती। और यह जब आमजन की अपनी जिंदगी की हताशापूर्ण स्थितियों से मेल खा जाती हो तो यह घारणा एकदम पुख्ता हो जाती है।
पर जैसा कि पहले कहा गया है कि यह एक आंशिक सच्चाई ही थी। ज्यादा बड़ी और ज्यादा व्यापक सच्चाई यह है कि दुनिया बदली है। ठीक इसीलिए यह आगे भी बदलेगी।
पर जैसा कि पहले कहा गया है कि यह एक आंशिक सच्चाई ही थी। ज्यादा बड़ी और ज्यादा व्यापक सच्चाई यह है कि दुनिया बदली है। ठीक इसीलिए यह आगे भी बदलेगी।
इस संबंघ में सबसे पहली बात तो यही है कि पांच-सात हजार साल पहले मानव समाज में एक आमूलचूल बदलाव हुआ था। इसी बदलाव के द्वारा पहले का आदिम समाज वर्गीय समाज में रूपांतरित हो गया। अब तक मानव समाज में यह सबसे बड़ा परिवर्तन रहा है।
यहां यह रेखांकित करना होगा कि जब पांच-सात हजार साल पहले वर्गीय समाज पैदा होने की बात की जा रही है तो यह पूरी दुनिया के लिए नहीं है। यह भारत, चीन और यूनान जैसी चुंनिदा जगहों पर हुआ। अन्य जगहों पर मानव समाज कबीलाई बने रहे और बाद में अलग-अलग समयों पर वर्गीय समाजों में रूपांतरित हुए। यह प्रक्रिया आज भी जारी है -भारत जैसे देशों में भी।
आदिम कबीलाई समाज का वर्गीय समाज में रूपांतरण एकदम मूलभूत था। कबीलाई समाज में न तो निजी सम्पत्ति थी और न तेरे-मेरे का भाव। सामूहिकता पूरे समाज की आत्मा थी, वैदिक भाषा में वह ‘ऋत’ थी। इसमें अमीर-गरीब, शोषक-शोषित, शासक-शासित नहीं थे। स्त्री-पुरुष के बीच भेद भी नहीं था। वर्गीय समाज इन सारे ही मामलों में ठीक उलटा था। इसमें निजी सम्पत्ति थी। तेरे-मेरे का भेद था। सामूहिकता के बदले निजी प्रघान था। कुछ लोग अति सम्पतिवान थे बाकी लोग सम्पतिविहीन या बहुत थोड़ी सम्पत्ति वाले थे। इसमें शोषण था, अन्याय-अत्याचार था। इसमें चोरी-डकैती, हत्या-बलात्कार और वेश्यावृत्ति थी जिनसे कबीलाई समाज एकदम अंजान था। कोई आश्चर्य नहीं कि ऋगवेद में ‘ऋत’ के हटकर चले जाने पर इतना विलाप किया गया है। यह भी कोई आश्चर्य नहीं कि इस भयंकर बदलाव ने भारत में बौद्ध घर्म जैसे घर्म को जन्म दिया। ईसाई घर्म की उत्पत्ति के पीछे भी ऐसी ही परिवर्तन की प्रक्रिया थी।
मानव समाज में यह बदलाव कबीलाई समाज के लोगों के हिसाब से अत्यन्त क्रूर था। यह क्रूरता की दास्तान उपरोक्त घर्मों, मिथकों, पुराण कथाओं और लोक कथाओं से भरी पड़ी है। पर मानव समाज के हिसाब से यह क्रूर परिवर्तन एक प्रगतिशील कदम था। इसी के जरिये मानव समाज आदिम जीवन को छोड़कर सभ्यता में प्रवेश कर सका। इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो यही है कि जो समाज यह कदम नहीं उठा सके वे उसी आदिम अवस्था में जी रहे हैं। जबकि दूसरे मानव चांद-सितारों तक पहुंच रहे हैं।
यह बहुत अजीब है कि मानव सभ्यता का यह इतना बड़ा प्रगतिशील कदम इतना ज्यादा क्रूर था। इतना ही नहीं, यह वह कदम भी था जिसने मानव को शेष प्रकृति से अलग करके उसे उसके खिलाफ खड़ा कर दिया। आदिम कबीलाई समाज का मनुष्य शेष प्रकृति का हिस्सा था। वह प्रकृति के एक हिस्से के तौर पर पैदा हुआ था और उसी रूप में बना हुआ था। अब वर्गीय समाज के मनुष्य के रूप में वह प्रकृति के खिलाफ खड़ा हो गया। उसकी सभ्यता का एक प्रमुख तत्व प्रकृति से विलगाव और उसके खिलाफ खड़े होने में था। सभ्यता के विकास के साथ यह तत्व प्रमुख होता गया और अब पूंजीवाद में तो प्राकृतिक विनाश के जरिये समूचे मानव अस्तित्व के लिए ही खतरा पैदा हो गया है। सभ्यता के विकास की इसी गति को देखते हुए रूसो ने कहा था कि सभ्य मानव की हर प्रगति साथ ही अवनति भी है।
आदिम कबीलाई समाज के वर्गीय समाज में मूलभूत रूपांतरण के बाद ऐसा नहीं हैं कि बदलाव रुक गया। वास्तव में बदलाव हुआ है पर वह उतना मूलभूत नहीं है। इसीलिए सामान्य तौर पर देखने में बदलाव नजर नहीं आता। इसीलिए आमजन इस बदलाव को नजरंदाज कर देता है। जब वर्गीय समाजों में बदलाव के बावजूद निजी सम्पत्ति, अमीर-गरीब, शोषक-शोषित, शासक-शासित बने हुए हैं तो बदलावों का आंख से ओझल हो जाना समझ में आने वाली बात है।
पर असल बात तो यह है कि बदलावों को हवा-पानी की तरह स्वीकार कर लिया गया है यानी जिंदगी का हिस्सा बन गयी हैं। चंद उदाहरण इसे स्पष्ट करेंगे। आज गुलामी तो क्या बंघुआ मजदूरी भी किसी को स्वीकार नहीं हो सकती। कहीं बंघुआ मजदूरी का मामला सामने आते ही हो-हल्ला मच जाता है। लेकिन एक जमाना था जब गुलामी एक स्वीकार्य आम चीज थी और दूसरे जमाने में बंधुआ मजदूरी आम बात। पहला गुलाम समाज में था दूसरा सामंती समाज में। आज पूंजीवाद में ये दोनों ही नितांत अस्वीकार्य हैं क्योंकि इसमें मजदूर स्वतंत्र होता है, कानून की नजर में मालिक के बराबर होता है। दूसरा उदाहरण लें। गौतम बुद्ध की हिम्मत हुई थी कि तब वे समाज में स्थापित हो रही वर्ण व्यवस्था को खारिज कर दें। उन्होंने अपने बौद्ध संघ में सभी वर्णों के लोगों को शामिल होने की इजाजत दी पर समाज में स्थापित हो रही वर्ण व्यवस्था को उन्होंने चुनौती नहीं दी। आज बहुत सारे दलित वर्ण व्यवस्था को चुनौती देने के लिए हिन्दू धर्म को छोड़कर बौद्ध घर्म में शामिल हो रहे हैं। आज आम दलित जन को भी वर्ण व्यवस्था स्वीकार नहीं है। तीसरा उदाहरण, आज शासन के लिए पूंजीवादी लोकतंत्र सामान्य बात मानी जाती है जबकि दो सौ साल पहले सारी दुनिया में राजाओं का ही शासन था। भारत में पुराने राजाओं-रजवाड़ों के वंशज चुनाव के जरिये ही सत्ता तक पहुंच पाते हैं। उनमें से किसी के द्वारा पुराने खानदानी अधिकार का दावा केवल मजाक का विषय ही बनेगा।
बदलावों के बहुत सारे उदाहरण और दिये जा सकते हैं पर इतना स्पष्ट है कि वर्गीय समाजों की कुछ मूलभूत विशेषताओं के बने रहने के बावजूद इन समाजों में बहुत बदलाव हुए हैं। सबसे बड़े बदलाव तो समाज व्यवस्थाओं के बदलाव ही हैं। गुलाम समाज, सामंती समाज और पूंजीवादी समाज। यह सही है कि सारे ही समाजों में ये व्यवस्थाएं एक के बाद एक क्रमशः मिल जाती हैं। और आज तो इसमें दो राय नहीं कि सारी दुनिया में ही पूंजीवादी व्यवस्था हावी है।
इन बदलावों को कई तरह से देखा जा सकता है। शोषित-उत्पीड़ित जन के हिसाब से देखें तो एक ओर जहां इनका शोषण बढ़ता गया है वहीं दूसरी ओर इनके खिलाफ क्रूरता कम होती गयी है और आजादी बढ़ती गयी है। गुलाम, भूदास और मजदूर में ये सबसे ज्यादा प्रत्यक्ष है। शासकों के हिसाब से देखें तो एक ओर उनकी दौलत और ताकत बढ़ती गयी है पर दूसरी ओर उनकी स्वेच्छाचारिता और निरंकुशता पर लगाम लगी है। पूंजीवादी लोकतंत्रों में शोषक पूंजीपति और शासक पूंजीपति-नेता सभी नियमों में बंघे हुए हैं। पूरे समाज के हिसाब से देखें तो विज्ञान, तकनीक और उत्पादकता का लगातार विकास होता गया है और समाज स्थानीय-विशेषीकृत होने के बदले ज्यादा व्यापक और संभाग होता गया है। पूंजीवाद में तो सारी दुनिया में ही मोटा-मोटी एक संस्कृति है।
वर्गीय समाजों की इस आम गति के अलावा यदि पूंजीवादी समाज की गति को बारीकी से देखें तो स्वयं इसमें भी काफी बदलाव दिखते हैं। पिछले पांच सौ साल में ही नहीं बल्कि पिछले डेढ़ सौ साल पहले छोटी-छोटी पूंजीवादी कंपनियां और छोटे-छोटे पूंजीपति थे। इंग्लैण्ड जैसे एकाघ देशों को छोड़ दें तो खेती अब भी मुख्य पेशा थी। शासन अभी भी राजा ही कर रहे थे और पूंजीवादी लोकतंत्र पैदा ही हो रहा था। पूंजीवाद की नई दुनिया और सामंतवाद की पुरानी दुनिया आपस में गुत्तम-गुत्था थे तथा ज्यादातर समाजों में दूसरा ही हावी था। साथ में यह भी था कि नये विकसित हो रहे पूंजीवादी देश बाकी समाजों को अपना गुलाम बना रहे थे। भारत इंग्लैण्ड का गुलाम बन चुका था। आज डेढ़ सौ साल बाद दुनिया की तस्वीर एकदम अलग है।
लब्बे-लुबाब यह कि यह सही नहीं है कि दुनिया जस की तस है। दुनिया लगातार बदलती रही है। यह बदलाव अलग-अलग स्तर का रहा है। यह मात्रात्मक भी रहा है और गुणात्मक भी। गुणात्मक बदलाव भी अलग-अलग तरह का रहा है। वर्गविहीन आदि के कबीलाई समाज से वर्गीय समाज में रूपांतरण एक तरह का था तो सामंती समाज से पूंजीवादी समाज में रूपांतरण (निजी सम्पत्ति की एक व्यवस्था से निजी सम्पत्ति की दूसरी व्यवस्था में रूपांतरण) दूसरी तरह का। स्वयं पूंजीवादी समाज में मुक्त प्रतियोगिता से एकाघिकारी पंूजीवाद में रूपांतरण एक अन्य तरह का गुणात्मक परिवर्तन था।
कार्ल मार्क्स ने जब कहा था कि दार्शनिकों ने अभी तक भांति-भांति के तरीके से केवल दुनिया की व्याख्या करने की कोशिश की है जबकि सवाल तो इसे बदलने का है तो दरअसल बदलाव की परियोजना में शामिल होकर ही वे यह बात कर रहे थे। उनके दर्शन और समूचे सिद्धांत का यही उद्देश्य था। सबसे पहले और सबसे बढ़कर वे क्रांतिकारी थे। यहीं से खड़े होकर उन्होंने प्रकृति और समाज में गति और परिवर्तन को देखा। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद और ऐतिहासिक भौतिकवाद प्रकृति और समाज की गति और परिवर्तन के आम सिद्धांत हैं।
मार्क्स ने केवल यह नहीं बताया कि गति और परिवर्तन समाज समेत प्रकृति का आम चरित्र है। कि बदलाव होता ही है कि बदलाव मात्रात्मक और गुणात्मक, क्रमिक और छलांग दोनों होता है कि क्रांतिकारी बदलाव समय-समय पर अनिवार्य हैं। उन्होंने यह भी बताया कि मानव अपने समाज का निर्माण खुद करता है पर उसे दी गयी परिस्थितियों में। यानी मानव इतिहास की गति का परिणाम और उसका निष्पादक दोनों हैं। मानव समाज में जो भी परिवर्तन हुए हैं उनमें शोषकों और शोषितों, शासकों और शासितों की प्रमुख भूमिका रही है।
आज जब पूंजीवादी समाज के पैरोकार चीख-चीख कर कह रहे हैं कि उनकी व्यवस्था का कोई विकल्प नहीं है तो वे प्रकारांतर से यही कह रहे हैं कि अब मानव समाज में कोई परिवर्तन नहीं होगा। अब गति और परिवर्तन के प्रकृति के सारे नियम निष्क्रिय हो जायेंगे। उनकी व्यवस्था शाश्वत रहेगी। वैसे यह कहना होगा कि पहले के सारे शासकों को भी यही गुमान था। राजा-महाराजा कभी नहीं सोच पाये कि एक समय आयेगा जब उनका शासन नहीं रहेगा।
पूंजीवादी व्यवस्था के पैराकारों से अलग स्वयं पूंजीवादी समाज की सच्चाई ही यह चीख-चीख कर कह रही है कि इस व्यवस्था को समाप्त किया जाये और मानवता को एक नये चरण में ले जाया जाये। आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक किसी भी पहलू से इस व्यवस्था के अब बने रहने का औचित्य नजर नहीं आता। अब यह व्यवस्था मानवता के लिए अकथनीय दुख, कष्ट और तबाही-बर्बादी का कारण बन गयी है। अब कोई भी तकनीक या उत्पादक प्रगति अपने साथ कई गुना तबाही ला रही है। इस व्यवस्था में आज कई कोणों से मानवता के भविष्य को खतरा पैदा हो गया है।
आज ऐतिहासिक ही नहीं तात्कालिक तौर पर यह जरूरी हो गया है कि इस व्यवस्था को समाप्त कर नई व्यवस्था कायम की जाये। यह नई व्यवस्था कम्युनिज्म के अलावा और कुछ नहीं हो सकती। और इसमें मानवता को ले जाने का महती कार्यभार मजदूर वर्ग के ऊपर आन पड़ा है।
यहां यह रेखांकित करना होगा कि जब पांच-सात हजार साल पहले वर्गीय समाज पैदा होने की बात की जा रही है तो यह पूरी दुनिया के लिए नहीं है। यह भारत, चीन और यूनान जैसी चुंनिदा जगहों पर हुआ। अन्य जगहों पर मानव समाज कबीलाई बने रहे और बाद में अलग-अलग समयों पर वर्गीय समाजों में रूपांतरित हुए। यह प्रक्रिया आज भी जारी है -भारत जैसे देशों में भी।
आदिम कबीलाई समाज का वर्गीय समाज में रूपांतरण एकदम मूलभूत था। कबीलाई समाज में न तो निजी सम्पत्ति थी और न तेरे-मेरे का भाव। सामूहिकता पूरे समाज की आत्मा थी, वैदिक भाषा में वह ‘ऋत’ थी। इसमें अमीर-गरीब, शोषक-शोषित, शासक-शासित नहीं थे। स्त्री-पुरुष के बीच भेद भी नहीं था। वर्गीय समाज इन सारे ही मामलों में ठीक उलटा था। इसमें निजी सम्पत्ति थी। तेरे-मेरे का भेद था। सामूहिकता के बदले निजी प्रघान था। कुछ लोग अति सम्पतिवान थे बाकी लोग सम्पतिविहीन या बहुत थोड़ी सम्पत्ति वाले थे। इसमें शोषण था, अन्याय-अत्याचार था। इसमें चोरी-डकैती, हत्या-बलात्कार और वेश्यावृत्ति थी जिनसे कबीलाई समाज एकदम अंजान था। कोई आश्चर्य नहीं कि ऋगवेद में ‘ऋत’ के हटकर चले जाने पर इतना विलाप किया गया है। यह भी कोई आश्चर्य नहीं कि इस भयंकर बदलाव ने भारत में बौद्ध घर्म जैसे घर्म को जन्म दिया। ईसाई घर्म की उत्पत्ति के पीछे भी ऐसी ही परिवर्तन की प्रक्रिया थी।
मानव समाज में यह बदलाव कबीलाई समाज के लोगों के हिसाब से अत्यन्त क्रूर था। यह क्रूरता की दास्तान उपरोक्त घर्मों, मिथकों, पुराण कथाओं और लोक कथाओं से भरी पड़ी है। पर मानव समाज के हिसाब से यह क्रूर परिवर्तन एक प्रगतिशील कदम था। इसी के जरिये मानव समाज आदिम जीवन को छोड़कर सभ्यता में प्रवेश कर सका। इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो यही है कि जो समाज यह कदम नहीं उठा सके वे उसी आदिम अवस्था में जी रहे हैं। जबकि दूसरे मानव चांद-सितारों तक पहुंच रहे हैं।
यह बहुत अजीब है कि मानव सभ्यता का यह इतना बड़ा प्रगतिशील कदम इतना ज्यादा क्रूर था। इतना ही नहीं, यह वह कदम भी था जिसने मानव को शेष प्रकृति से अलग करके उसे उसके खिलाफ खड़ा कर दिया। आदिम कबीलाई समाज का मनुष्य शेष प्रकृति का हिस्सा था। वह प्रकृति के एक हिस्से के तौर पर पैदा हुआ था और उसी रूप में बना हुआ था। अब वर्गीय समाज के मनुष्य के रूप में वह प्रकृति के खिलाफ खड़ा हो गया। उसकी सभ्यता का एक प्रमुख तत्व प्रकृति से विलगाव और उसके खिलाफ खड़े होने में था। सभ्यता के विकास के साथ यह तत्व प्रमुख होता गया और अब पूंजीवाद में तो प्राकृतिक विनाश के जरिये समूचे मानव अस्तित्व के लिए ही खतरा पैदा हो गया है। सभ्यता के विकास की इसी गति को देखते हुए रूसो ने कहा था कि सभ्य मानव की हर प्रगति साथ ही अवनति भी है।
आदिम कबीलाई समाज के वर्गीय समाज में मूलभूत रूपांतरण के बाद ऐसा नहीं हैं कि बदलाव रुक गया। वास्तव में बदलाव हुआ है पर वह उतना मूलभूत नहीं है। इसीलिए सामान्य तौर पर देखने में बदलाव नजर नहीं आता। इसीलिए आमजन इस बदलाव को नजरंदाज कर देता है। जब वर्गीय समाजों में बदलाव के बावजूद निजी सम्पत्ति, अमीर-गरीब, शोषक-शोषित, शासक-शासित बने हुए हैं तो बदलावों का आंख से ओझल हो जाना समझ में आने वाली बात है।
पर असल बात तो यह है कि बदलावों को हवा-पानी की तरह स्वीकार कर लिया गया है यानी जिंदगी का हिस्सा बन गयी हैं। चंद उदाहरण इसे स्पष्ट करेंगे। आज गुलामी तो क्या बंघुआ मजदूरी भी किसी को स्वीकार नहीं हो सकती। कहीं बंघुआ मजदूरी का मामला सामने आते ही हो-हल्ला मच जाता है। लेकिन एक जमाना था जब गुलामी एक स्वीकार्य आम चीज थी और दूसरे जमाने में बंधुआ मजदूरी आम बात। पहला गुलाम समाज में था दूसरा सामंती समाज में। आज पूंजीवाद में ये दोनों ही नितांत अस्वीकार्य हैं क्योंकि इसमें मजदूर स्वतंत्र होता है, कानून की नजर में मालिक के बराबर होता है। दूसरा उदाहरण लें। गौतम बुद्ध की हिम्मत हुई थी कि तब वे समाज में स्थापित हो रही वर्ण व्यवस्था को खारिज कर दें। उन्होंने अपने बौद्ध संघ में सभी वर्णों के लोगों को शामिल होने की इजाजत दी पर समाज में स्थापित हो रही वर्ण व्यवस्था को उन्होंने चुनौती नहीं दी। आज बहुत सारे दलित वर्ण व्यवस्था को चुनौती देने के लिए हिन्दू धर्म को छोड़कर बौद्ध घर्म में शामिल हो रहे हैं। आज आम दलित जन को भी वर्ण व्यवस्था स्वीकार नहीं है। तीसरा उदाहरण, आज शासन के लिए पूंजीवादी लोकतंत्र सामान्य बात मानी जाती है जबकि दो सौ साल पहले सारी दुनिया में राजाओं का ही शासन था। भारत में पुराने राजाओं-रजवाड़ों के वंशज चुनाव के जरिये ही सत्ता तक पहुंच पाते हैं। उनमें से किसी के द्वारा पुराने खानदानी अधिकार का दावा केवल मजाक का विषय ही बनेगा।
बदलावों के बहुत सारे उदाहरण और दिये जा सकते हैं पर इतना स्पष्ट है कि वर्गीय समाजों की कुछ मूलभूत विशेषताओं के बने रहने के बावजूद इन समाजों में बहुत बदलाव हुए हैं। सबसे बड़े बदलाव तो समाज व्यवस्थाओं के बदलाव ही हैं। गुलाम समाज, सामंती समाज और पूंजीवादी समाज। यह सही है कि सारे ही समाजों में ये व्यवस्थाएं एक के बाद एक क्रमशः मिल जाती हैं। और आज तो इसमें दो राय नहीं कि सारी दुनिया में ही पूंजीवादी व्यवस्था हावी है।
इन बदलावों को कई तरह से देखा जा सकता है। शोषित-उत्पीड़ित जन के हिसाब से देखें तो एक ओर जहां इनका शोषण बढ़ता गया है वहीं दूसरी ओर इनके खिलाफ क्रूरता कम होती गयी है और आजादी बढ़ती गयी है। गुलाम, भूदास और मजदूर में ये सबसे ज्यादा प्रत्यक्ष है। शासकों के हिसाब से देखें तो एक ओर उनकी दौलत और ताकत बढ़ती गयी है पर दूसरी ओर उनकी स्वेच्छाचारिता और निरंकुशता पर लगाम लगी है। पूंजीवादी लोकतंत्रों में शोषक पूंजीपति और शासक पूंजीपति-नेता सभी नियमों में बंघे हुए हैं। पूरे समाज के हिसाब से देखें तो विज्ञान, तकनीक और उत्पादकता का लगातार विकास होता गया है और समाज स्थानीय-विशेषीकृत होने के बदले ज्यादा व्यापक और संभाग होता गया है। पूंजीवाद में तो सारी दुनिया में ही मोटा-मोटी एक संस्कृति है।
वर्गीय समाजों की इस आम गति के अलावा यदि पूंजीवादी समाज की गति को बारीकी से देखें तो स्वयं इसमें भी काफी बदलाव दिखते हैं। पिछले पांच सौ साल में ही नहीं बल्कि पिछले डेढ़ सौ साल पहले छोटी-छोटी पूंजीवादी कंपनियां और छोटे-छोटे पूंजीपति थे। इंग्लैण्ड जैसे एकाघ देशों को छोड़ दें तो खेती अब भी मुख्य पेशा थी। शासन अभी भी राजा ही कर रहे थे और पूंजीवादी लोकतंत्र पैदा ही हो रहा था। पूंजीवाद की नई दुनिया और सामंतवाद की पुरानी दुनिया आपस में गुत्तम-गुत्था थे तथा ज्यादातर समाजों में दूसरा ही हावी था। साथ में यह भी था कि नये विकसित हो रहे पूंजीवादी देश बाकी समाजों को अपना गुलाम बना रहे थे। भारत इंग्लैण्ड का गुलाम बन चुका था। आज डेढ़ सौ साल बाद दुनिया की तस्वीर एकदम अलग है।
लब्बे-लुबाब यह कि यह सही नहीं है कि दुनिया जस की तस है। दुनिया लगातार बदलती रही है। यह बदलाव अलग-अलग स्तर का रहा है। यह मात्रात्मक भी रहा है और गुणात्मक भी। गुणात्मक बदलाव भी अलग-अलग तरह का रहा है। वर्गविहीन आदि के कबीलाई समाज से वर्गीय समाज में रूपांतरण एक तरह का था तो सामंती समाज से पूंजीवादी समाज में रूपांतरण (निजी सम्पत्ति की एक व्यवस्था से निजी सम्पत्ति की दूसरी व्यवस्था में रूपांतरण) दूसरी तरह का। स्वयं पूंजीवादी समाज में मुक्त प्रतियोगिता से एकाघिकारी पंूजीवाद में रूपांतरण एक अन्य तरह का गुणात्मक परिवर्तन था।
कार्ल मार्क्स ने जब कहा था कि दार्शनिकों ने अभी तक भांति-भांति के तरीके से केवल दुनिया की व्याख्या करने की कोशिश की है जबकि सवाल तो इसे बदलने का है तो दरअसल बदलाव की परियोजना में शामिल होकर ही वे यह बात कर रहे थे। उनके दर्शन और समूचे सिद्धांत का यही उद्देश्य था। सबसे पहले और सबसे बढ़कर वे क्रांतिकारी थे। यहीं से खड़े होकर उन्होंने प्रकृति और समाज में गति और परिवर्तन को देखा। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद और ऐतिहासिक भौतिकवाद प्रकृति और समाज की गति और परिवर्तन के आम सिद्धांत हैं।
मार्क्स ने केवल यह नहीं बताया कि गति और परिवर्तन समाज समेत प्रकृति का आम चरित्र है। कि बदलाव होता ही है कि बदलाव मात्रात्मक और गुणात्मक, क्रमिक और छलांग दोनों होता है कि क्रांतिकारी बदलाव समय-समय पर अनिवार्य हैं। उन्होंने यह भी बताया कि मानव अपने समाज का निर्माण खुद करता है पर उसे दी गयी परिस्थितियों में। यानी मानव इतिहास की गति का परिणाम और उसका निष्पादक दोनों हैं। मानव समाज में जो भी परिवर्तन हुए हैं उनमें शोषकों और शोषितों, शासकों और शासितों की प्रमुख भूमिका रही है।
आज जब पूंजीवादी समाज के पैरोकार चीख-चीख कर कह रहे हैं कि उनकी व्यवस्था का कोई विकल्प नहीं है तो वे प्रकारांतर से यही कह रहे हैं कि अब मानव समाज में कोई परिवर्तन नहीं होगा। अब गति और परिवर्तन के प्रकृति के सारे नियम निष्क्रिय हो जायेंगे। उनकी व्यवस्था शाश्वत रहेगी। वैसे यह कहना होगा कि पहले के सारे शासकों को भी यही गुमान था। राजा-महाराजा कभी नहीं सोच पाये कि एक समय आयेगा जब उनका शासन नहीं रहेगा।
पूंजीवादी व्यवस्था के पैराकारों से अलग स्वयं पूंजीवादी समाज की सच्चाई ही यह चीख-चीख कर कह रही है कि इस व्यवस्था को समाप्त किया जाये और मानवता को एक नये चरण में ले जाया जाये। आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक किसी भी पहलू से इस व्यवस्था के अब बने रहने का औचित्य नजर नहीं आता। अब यह व्यवस्था मानवता के लिए अकथनीय दुख, कष्ट और तबाही-बर्बादी का कारण बन गयी है। अब कोई भी तकनीक या उत्पादक प्रगति अपने साथ कई गुना तबाही ला रही है। इस व्यवस्था में आज कई कोणों से मानवता के भविष्य को खतरा पैदा हो गया है।
आज ऐतिहासिक ही नहीं तात्कालिक तौर पर यह जरूरी हो गया है कि इस व्यवस्था को समाप्त कर नई व्यवस्था कायम की जाये। यह नई व्यवस्था कम्युनिज्म के अलावा और कुछ नहीं हो सकती। और इसमें मानवता को ले जाने का महती कार्यभार मजदूर वर्ग के ऊपर आन पड़ा है।
No comments:
Post a Comment