Wednesday, 27 December 2023

काकोरी के शहीदों की स्मृति में

                काकोरी के शहीदों की स्मृति में

                अशफ़ाक़-बिस्मिल की राह चलो !

               राम प्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़ उल्ला खाँ, दोनों ही काकोरी के शहीद हैं। काकोरी के ये शहीद, हिंदुस्तान प्रजातांत्रिक संघ (एच.आर.ए) के सदस्य थे। इस संगठन का मकसद था- अंग्रेजी गुलामी से पूर्ण आज़ादी तथा देश को 'धर्मनिरपेक्ष गणतांत्रिक संघ' बनाना, जहां हर तरह के शोषण का खात्मा हो।

         इन शहीदों ने, काकोरी में ट्रेन में जनता की लूट खसोट से इकट्ठे ब्रिटिश खजाने पर कब्जा किया। मगर बाद में सभी पकड़े गए। अंग्रेज़ सरकार ने राजेंद्र लाहिड़ी, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़ उल्ला और रोशन सिंह को 17 और 19 दिसम्बर 1927 को फांसी दे दी।

       इस शहादत ने आज़ादी के आंदोलन को लहरों की तरह आगे बढ़ाया और भगत सिंह जैसे नायक पैदा हुए। देखते ही देखते अकूत शहादतों के 20 सालों बाद देश आज़ाद हो गया।

        यह साल, काकोरी के शहीदों की शहादत का 96 वां साल है। सवाल है कि क्या जो सपना अशफ़ाक़-बिस्मिल जैसे काकोरी के शहीदों का था; वह हासिल हुआ ? क्या भारत को धर्मनिरपेक्ष और गणतांत्रिक संघ बनाने का उनका लक्ष्य हासिल हुआ; जहां मजदूर, किसान हर आम नागरिक को बराबरी का अधिकार हो, जहां किसी भी प्रकार शोषण ना हो? नहीं। गोरे अंग्रेजों की गुलामी से आज़ादी जरूर हासिल हुई।

        बिस्मिल कट्टर आर्य समाजी हिंदू थे और अशफ़ाक़ मुस्लिम। दोनों ने कभी भी धर्म को राजनीतिक जीवन में नहीं घुसने दिया। दोनों के लिए धर्म और धार्मिक मामले बिल्कुल निजी थे, केवल घर तक सीमित थे जबकि राजनीति और सामाजिक मामलों में धर्म के लिए कोई जगह नहीं थी। दोनों का मकसद एक समान था। दोनों साथ-साथ जिये, साथ-साथ ही शहीद हुए। दोनों के लिए जलियांवाला बाग के शहीद मिसाल थे। यहां भी हिन्दू-मुस्लिम-सिख जनता ने एक साथ अंग्रेज सरकार गोलियां खाई और शहीद हो गए थे।

       शहीदों के संघर्ष से अंग्रेजी गुलामी से आज़ादी मिली, कुछ अधिकार भी जनता को जरूर मिले मगर धर्मनिरपेक्ष व गणतांत्रिक संघ का सपना पूरा नहीं हुआ। गोरे अंग्रेजों की जगह अब काले अंग्रेजों ने ले ली। पूंजीपति और बड़े बड़े जमींदार देश के नियंता बन गए। यही काले अंग्रेज देश के नए शासक थे। यहां जनता को अपने अधिकारों के लिए बार-बार सड़कों पर उतरना पड़ा। मजदूरों, किसानों, कर्मचारियों, बेरोजगार नौजवानों व अन्य मेहनतकश हिस्सों को, अपनी जिंदगी की बेहतरी के लिए बार बार संघर्ष करना पड़ा।

      हिंदू-मुस्लिम एकता की जो मिसाल राम प्रसाद बिस्मिल और अशफ़ाक़ उल्ला ने पेश की थी, इस मामले में आज हालात क्या हैं? आज राजनीति पूरी तरह धर्म की चाशनी में डूबी हुई  है। धर्म निजी मामला नहीं रह गया है यह सड़कों, संसदों और राजनीति में प्रदर्शन करने की चीज बन गयी है। यह डराने, धमकाने और शासकों के आतंक के राज को कायम करने का जरिया है। धर्म आज के शासकों का सबसे खतरनाक हथियार है। जनता की एकता और ताकत को खत्म करने में यह सबसे कारगर चीज है। एक ओर मोदी सरकार और भाजपा है जो खुलकर यह काम कर रही है तो दूसरी तरफ कांग्रेस या अन्य राजनीतिक पार्टियां है जो कम या ज्यादा मात्रा में धार्मिक प्रतीकों और धर्म का इस्तेमाल कर रही हैं। 

      मोदी सरकार और भाजपा हिंदू राष्ट्र के रथ पर सवार है। एक ओर इस हिंदू राष्ट्र के झंडे के नीचे करोड़ों बेरोजगार नौजवान, न्यूनतम मजदूरी को तरसते करोड़ों मजदूर और महंगाई से त्रस्त करोड़ों लोग हैं रोज ब रोज यौन हिंसा की शिकार महिलाएं हैं जो हताश-निराश हैं, बेचैन हैं और घुट-घुट कर जीने को मजबूर हैं तो वहीं दूसरी तरफ हिंदू राष्ट्र के नाम पर दिन-रात तेजी से दौलत बटोरते, मुट्ठी भर अरबपति हैं जिनकी दौलत की हवस बढ़ती ही जा रही है ये हर तरह से सुरक्षित हैं सरकार इनकी सेवा में दिन-रात मुस्तैद है। इसी को कुछ लोग 'ब्रिटिश राज से अरबपतियों का राज' भी कह रहे हैं।

         हकीकत यही है। यह पूंजीपतियों का राज है। यही देश के मालिक हैं। शासन-प्रशासन और सरकार इन्हीं की है। इन्हीं के मुनाफे के हिसाब से सारी योजनाएं बनती हैं नीतियां बनती हैं। यह पूंजीवाद है। 

          इसीलिए 4-5 सालों में, एक तरफ  अरबपतियों की संख्या के मामले में, भारत दुनिया में तीसरे न. पर पहुंच गया है तो दूसरी तरफ भुखमरी में, भारत विश्व गुरु बनने की कगार पर है। हालत यह है कि एक ओर देश के 10 टॉप पूंजीपतियों की रोज की औसत कमाई करीब 300 करोड़ रुपये है तो दूसरी ओर देश के करोड़ों लोग हैं जिनकी रोज की कमाई ही इतनी कम है कि वे जैसे-तैसे गुजर-बसर करते हुए सरकारी राशन पर जिंदा भर हैं। 

        बात इतनी ही नहीं है यह भी है कि कर (टेक्स) का बहुत बड़ा बोझ आम जनता के कंधों पर डाला जा रहा है यह बढ़ता ही जा रहा है। साल 2022 में सरकार ने जी.एस.टी से ही 14.83 लाख करोड़ रुपये टेक्स वसूल कर लिए। इसमें देश के ऊपर के 10 प्रतिशत अमीर लोगों का हिस्सा केवल 3 प्रतिशत था जबकि नीचे की 50 प्रतिशत जनता से 64 प्रतिशत हिस्सा वसूला गया है।

        यह भयंकर लूट-खसोट, शोषण और असमानता समाज को बड़े विस्फोट की ओर धकेल रही है। कुछ-कुछ वैसा ही विस्फोट, जैसा श्रीलंका, बांग्लादेश और कई देशों में हुआ या जैसा अंग्रेजी राज में हुआ था। 

        अंग्रेजों के राज में लूट-खसोट, जुल्म-सितम से जनता त्रस्त थी। इस गुलामी और लूट खसोट से मुक्ति के लिए जनता ने बार-बार संघर्ष किये, बगावतें की। तब 'हिंदू-मुस्लिम-सिख' जनता ने एकजुट होकर संघर्ष किये। यह एकता अंग्रेज शासकों के लिए खतरा थी। 

         अंग्रेज सरकार ने धर्म का भयंकर इस्तेमाल किया। धार्मिक कट्टरपंथी संगठनों को पाला पोसा। ये मुस्लिम लीग, हिंदू महासभा, संघ, अकाली दल जैसे संगठन थे। इस तरह अंग्रेज शासकों ने जनता को धर्मों में उलझाया, बांटा और लड़ाया। इसके खिलाफ अशफ़ाक़-बिस्मिल जैसे हज़ारों हज़ार नौजवानों ने आवाज उठाई। आज़ादी के आंदोलन को आगे बढ़ाया। एक ओर कुर्बानियां हुई तो दूसरी ओर संघर्ष आगे बढ़ता गया। आजादी तो हासिल हो गयी मगर काले अंग्रेजों, देशी पूंजीपतियों का राज आ गया। अब तो यह बात शायद ही किसी से छुपी हुई हो। यह इतना साफ है कि कोई मोदी सरकार को 'कॉरपोरेट सरकार' कहता है तो कोई 'अडानी-अंबानी' की सरकार।

          हमें पाठ पढ़ाया जा रहा है कि ये पूंजीपति ही हैं ये पूंजी (पेंसा) लगाते हैं दौलत पैदा करते हैं फैक्ट्रियां खोलते हैं लोगों को रोजगार देते हैं और देश का विकास करते हैं। क्या यह सच है ? नहीं। वास्तव में यह बिल्कुल फर्जी बात है।

            हकीकत इसके ठीक उलटी है।  प्रकृति के बाद यह इंसान का श्रम ही है जो हर चीज का निर्माण करता है। देश के करोड़ो करोड़ मजदूरों मेहनतकशों का श्रम ही है जो  दौलत पैदा कर रहा है हर चीज का निर्माण कर रहा है। मगर सारे संसाधनों के मालिक पूंजीपति हैं ये इसे हथियाकर मालामाल हो रहे हैं। इन्हें तरह-तरह से टेक्स में छूट है बिजली में छूट है; जमीनों कौड़ी के मोल दी जाती है और मजदूरों के श्रम की लूट की छूट है। ये बैंकों का कई लाख करोड़ रुपये कर्ज डकार जाते हैं। इसके अलावा सरकारी खजाना इन पर तरह-तरह से लुटाया जाता है इस तरह पूंजीपति करोड़पति से अरबपति फिर खरबपति बनते हैं। 

         इसका क्या नतीजा होता है? वही जो देश मे हो रहा है। एक ओर भयानक  असमानता, भयानक बेरोजगारी तो दूसरी ओर ऊंची महंगाई। एक ओर जनता के सामने भयानक आर्थिक-सामाजिक असुरक्षा, बढ़ती आत्महत्याएं और मानसिक बीमारियां तो दूसरी तरफ नशाखोरी, हिंसा और अपराध। यह स्थिति असन्तोष और गुस्से को बढ़ाती है जनता को बगावत (विद्रोह) की ओर धकेल देती है। जैसा कि कई देशों में हो रहा है। जैसा कि आज़ाद भारत में इंदिरा गांधी की सरकार के दौरान हुआ और इससे पहले अंग्रेज शासकों के खिलाफ हुआ था।

           जनता के इस असन्तोष और गुस्से को ठंडा करने का एक ही उपाय शासकों के पास है। वही उपाय जो अंग्रेजों ने किया था, जो हिटलर ने किया था। यह उपाय है - धर्म के नाम पर नफरत और उन्माद पैदा करो; जनता को बांटो और लड़ा दो। 'हिंदू राष्ट्र' बनाने के नाम पर यही हो रहा है। 'हिंदू-मुस्लिम' 'मंदिर-मस्जिद' की राजनीति इसीलिए है। 'हिंदू राष्ट्र' का नारा अडानी-अम्बानी जैसे कॉरपोरेट पूंजीपतियों की सेवा करता है इनका मुनाफा बढ़ाता है जबकि मजदूरों, किसानों, बेरोजगार नौजवानों और छोटे मझौले कारोबारियों को कंगाल बनाता है और कुचलता है। इस तरह ये हिंदू फासीवाद यानी आतंक का तानाशाही वाला राज कायम करना चाहते हैं।

         इसलिए, ऐसे दौर में जरूरी है कि काकोरी के शहीदों को याद किया जाय। इनकी विरासत को आगे बढ़ाया जाय। धर्म के नाम पर उन्माद और नफरत की राजनीति के खिलाफ आवाज उठाई जाय।

                       


           

        

      

        

        

           

          

         

Friday, 8 December 2023

हिंदू फासीवादियों की जीत के मायने




       विधान सभा चुनाव : 2023
      हिंदू फासीवादियों की जीत के मायने        

      जैसा कि तय था मोदी और शाह की जोड़ी की अगुवाई में हिंदूत फासीवादी उत्तर भारत के तीन राज्यों के चुनाव में जीत के लिए सब कुछ दांव पर झोंक देंगे। इस जीत के जरिए 2024 की लोक सभा चुनाव के लिए पूरा माहौल तैयार कर देना था। इन प्रांतों में चुनाव में भाजपा को जीत हासिल हुई। बहुमत के लिए जरूरी सीटों से ज्यादा सीट हासिल करने में मोदी सरकार कामयाब रही। इसी के साथ ही यह भी सच है कि तेलंगाना में भाजपा तमाम तिकड़मों के बावजूद सत्ता के निकट भी नहीं पहुंच सकी। इसी तरह मिजोरम में जेड पी एम पार्टी जीत गई।

        उत्तर भारत में भाजपा के चुनाव जीतते ही शेयर बाजार ने जश्न मनाया। इसका सूचकांक तुरंत ही ऊपर उठ गया साथ ही अदानी के शेयर में भारी उछाल देखने को मिला।

      तीन राज्यों में भाजपा की जीत पर कार्पोरेट मीडिया मोदी की जयजयकार में डूबा हुआ है। एक तरह से 2024 के आम चुनाव में मोदी की भाजपा को जीता हुआ घोषित कर दिया है।

       निश्चित तौर पर मोदी और भाजपा की जीत हुई है। छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस की वापसी की बातें की जा रही थी, वह नहीं हुई।

       यदि मत प्रतिशत के लिहाज से देखा जाय तो कांग्रेस ने इन राज्यों में अपने मत वोट शेयर को बरकरार रखा है। बीजेपी छतीसगढ़ में 46.3 फीसदी वोट शेयर के साथ 54 सीटें ; मध्य प्रदेश में 48.6 प्रतिशत मत के साथ 163 सीटें; तथा, राजस्थान में 41.7 प्रतिशत के साथ 115 सीट हासिल कर बाज़ी पलट दी। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को 42.2 वोटों के साथ 35 सीटें मिलीं; मध्य प्रदेश में 42.1 प्रतिशत वोटों के साथ 66 सीटें; और राजस्थान में 39.5 वोट शेयर के साथ 69 सीटें मिली।

         इन तीनों ही राज्यों में भाजपा का आधार पहले से ही मौजूद रहा है विशेषकर मध्य प्रदेश में।  यहां  2003 के चुनाव में भाजपा को 173, बाद में 143 और फिर 165 सीटें मिलती रही हैं। इसी तरह छत्तीसगढ़ में भी अलग राज्य बनने  के बाद ही भाजपा 50 सीटें हासिल करती रही हैं। और मत प्रतिशत 40 के आसपास रहा है। राजस्थान में 2003 में भाजपा को 120 तो 2013 में 45 प्रतिशत मतों के साथ 163 सीटें मिली हैं।

          ये तथ्य खुद में, यह बता देते हैं कि जो मीडिया मोदी को सर्वाधिक लोकप्रिय और मतदाताओं को अपनी ओर खींचने वाला बताते हैं उसकी हकीकत में क्या स्थिति है। इस तरह भाजपा यानी हिंदू फासीवादियों की मौजूदा चुनाव में जीत कहीं से भी 2024 के आम चुनाव में जीत की गारंटी नहीं हैं। यदि इस लिहाज से नहीं तो इस तर्क से भी की 2018 के चुनाव में भाजपा की इन राज्यों में हार हुई थी जबकि फिर 2019 के आम चुनाव में भाजपा जीत गई थी।

        मोदी शाह और भाजपा की जीत की सबसे बड़ी ताकत है कॉरपोरेट पूंजी का खुला साथ। कॉरपोरेट पूंजी अपने फंड और मीडिया के दम पर मोदी को देश की तस्वीर बदल देने वाला और सर्वश्रेष्ठ नेता बताता है। इसके साथ ही इनकी सबसे बड़ी ताकत इनका संगठन और सांगठनिक नेटवर्क, अफवाह मशीनरी है जिसके दम पर ये जमीनी स्तर पर फीड बैक लेते हैं और माहौल को रातों रात बदलने की कोशिश करते हैं। इसके अलावा केंद्र की सत्ता में होने के अतिरिक्त फायदे इन्हें मिल जाते हैं। इनकी उग्र हिंदुत्व की राजनीति इसके साथ साथ चलती है जिसे कभी भी इस सबसे अलग नहीं किया जा सकता। इसके अलावा इनके पास तमाम तिकड़में हैं विरोधी मतदाताओं के नाम मतदाताओं की सूची से गायब कर देना तथा फर्जी वोटिंग; यह सब सूक्ष्म स्तर पर होता है। जिसका नतीजा यही होता है कि यदि जनता के स्तर पर बड़े स्तर पर इनके खिलाफ़ वोटिंग ना हो या इन्हें वोट ना मिले तो इनका  जीतना तय है।

        ये कॉरपोरेट मीडिया और ई डी जैसी सस्थाओं के दम पर विपक्ष की साख को मिट्टी में मिलाने का अभियान चलाते हैं।

      मौजूदा विधान सभा चुनावों में विशेषकर उत्तर भारत में यही काम इन्होंने किया। चुनाव को हर बार की ही तरह मोदी बनाम स्थानीय विपक्ष नेता किया गया। केंद्रीय नेताओं को झोंक दिया गया। जब कभी इस रणनीति में ये चुनाव में हारते हैं तब फिर ठीकरा दूसरों पर मढ देते हैं जबकि जीतने पर वह सिर्फ मोदी की जीत होती हैं।

       विपक्ष की पूंजीवादी पार्टियां विशेषकर कांग्रेस जो कि हिंदू फासीवादियों को चुनाव में हरा देने का दावा कर रही थी खुद हार गई। 2024 के लिए जो गठबंधन सितंबर में जोर शोर से आगे बढ़ रहा था वह विधान सभा चुनाव आते आते बिखर गया। भानुमति का कुनबा अपने ही अंतर्विरोधों से पार नहीं पा सका है। कांग्रेस इसमें अपने वर्चस्व को, इस चुनाव में जीत लेने के बाद बनाने की मंशा रखती थी मगर बेचारों के लिए वह स्थिति बन ही नहीं पाई।

      विपक्ष की अन्य छोटी और राज्य के स्तर की पार्टियां के पास सिवाय कांग्रेस के इर्द गिर्द सिमटने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा है। इसे कांग्रेस भी जानती है। इसी लिए आम चुनाव के लिए किस पार्टी को कितनी सीट मिलेंगी, इसका झगड़ा अभी जारी है।

        विपक्ष की इस स्थिति से वे लोग बहुत हैरान परेशान हैं जिन्हें राहुल गांधी और राहुल की कांग्रेस हिंदू फासीवादियों को टक्कर देते हुए नजर आते हैं।जिन्हें लगता है यही हिंदू फासीवादियों से मुक्ति दिला सकती है। इनका भरोसा जनता पर नहीं है। ये भूल गए हैं कि इतिहास का निर्माण जनता ही करती हैं।

         सही बात यही है कि विपक्ष की जीत से जनता को कोई मुक्ति नहीं मिलने वाली। ना तो दुख तकलीफों से ना ही हिंदू फासीवादियों से। छत्तीसगढ़, राजस्थान में भाजपा की सरकार के हार के बाद कांग्रेस का जीतना फिर से भाजपा का यहां सत्ता पर आ जाना, इस चीज को स्पष्ट कर देती है। यही स्थिति देश में आम चुनावों में भी विपक्ष के जीतने की स्थिति में भी बनेगी।

 


       


Saturday, 4 November 2023

इजरायली फासीवादी सत्ता द्वारा किये जा रहे नरसंहार का विरोध करो !


    इजरायली फासीवादी सत्ता द्वारा किये जा रहे नरसंहार का विरोध करो !
       


           हमास ने 7 अक्टूबर को इजरायल पर सैकड़ो रॉकेट हमला किया था। जिसमे लगभग 1400 आम नागरिक मारे गए थे। इसके बाद इजरायल इस हमले की आड़ में हवाई हमलों और जमीनी स्तर से हमले में 8000-9000 से ज्यादा फिलिस्तीनियों को मार चुका है। इसमें 3000 बच्चे मारे गए हैं।  युद्ध विराम की बातों को इजरायली हुकूमत ने खारिज कर दिया है। यह अस्पतालों, स्कूलों, शरणार्थी कैम्पों पर हमास के नाम पर बम बरसा रहा है और नरसंहार कर रहा है।
          हमास के हमले को आतंकी हमला कहकर इजरायली शासक पिछले 7-8 दशकों में खुद के द्वारा किये गए फिलिस्तीनी जनता के कत्लेआम पर पर्दा डाल रहे हैं। फिलिस्तीन की जनता को उनके अपने फिलिस्तीन में ही शरणार्थियों की तरह रहने को मजबूर कर दिया गया। लाखों फिलिस्तीनी पड़ोसी देशों में भागने को मजबूर कर दिए गए। फिलिस्तीन पर कब्जा कर लिया। फिलिस्तीन की जनता के प्रतिरोध को बर्बर तरीके से कुचल दिया। फिलिस्तीनियों को गाज़ा पट्टी और वेस्ट बैंक के छोटे से टुकड़े तक समेट दिया। वेस्ट बैंक में यहूदी बसाई गयी यहां नाम के लिए अल फतह का शासन है। जबकि गाजा पट्टी पर अलग फिलिस्तीनी इस्लामिक राष्ट्र के लिये संघर्ष कर रहे हमास का शासन है।
           हमास को एक दौर में पालने पोसने में इजरायली शासकों का ही हाथ बताया जाता है ताकि फिलिस्तीनी जनता के पी एल ओ व अल फतह की अगुवाई में चल रहे अलग धर्मनिरपेक्ष फिलिस्तीनी राष्ट्र के लिए संघर्ष को कमजोर व खत्म किया जा सके। फतह और पी एल ओ कमजोर पड़ा और यह भ्रष्ट हो गया।
          इस स्थिति फिलिस्तीन की जनता की मुक्ति की आकांक्षा और संघर्ष को हमास ने आगे बढ़ाया। भले ही इस संघर्ष का उद्देश्य धर्मनिरपेक्ष फिलिस्तीनी राष्ट्र का ना हो और तौर तरीके आतंकी हों। यह तरीका इजरायली शासकों के द्वारा बार बार किये गये आतंकी हमलों का ही नतीजा है।
          फिलिस्तीन भू भाग पहले ऑटोमन तुर्क साम्राज्य के कब्जे में थी। यह सामंती साम्राज्य था। बाद में प्रथम विश्व युद्ध में तुर्क साम्राज्य हार गया। इसके हिस्से वाले भूभाग को ब्रिटिश उपनिवेशवादियों और फ़्रांसिसी शासकों ने कब्जा लिया। फिलिस्तीनी भू भाग पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद का कब्जा करहो गया।
          इस वक्त तक युहुदी के अलग देश की मांग उठने लगी थी।  अधिकांश यहुदी यूरोप में धनी थे। रोथ्स्चाइल्ड परिवार 19 वीं-20 वीं सदी में तब सबसे धनी बैंकरों में से एक था। ब्रिटिश संसद में इसी के हिसाब से फिलिस्तीन में यहुदियों को बसाने की बात हुई। इस दौर में फिलिस्तीन में यहूदी, ईसाई और मुस्लिम धर्म के लोग थी। अधिकांश इसमें मुस्लिम थे।
          ब्रिटिश शासकों का कब्जा फिलिस्तीन पर हो जाने के बाद 1917 के बालाफोर घोषणा में खुलेआम फिलिस्तीन में यहूदियों को बसाने की बात कही गयी।  फिर यहूदियों का फिलिस्तीन जाने का सिलसिला शुरू हो गया। इसका विरोध भी फिलिस्तीन में होने लगा। 1930-40में इसका विरोध हुआ। फिलिस्तीनियों का दमन भी हुआ। धनी यहूदियों ने फिलिस्तीन में बड़ी मात्रा में  खेती की जमीनें खरीदी।
          जर्मनी में हिटलर की नाजीवादी सत्ता ने यहूदियों का नरसंहार किया व इन्हें खदेड़ा गया। इसके चलते यहूदियों के पक्ष में सहानुभूति बनी। इस वक्त तक यहूदियों का फिलिस्तीन जाने का सिलसिला चलता रहा। बाद में दूसरा विश्व युद्ध फासीवाद की पराजय के साथ खत्म हुआ।
           इस दौर में राष्ट्र मुक्ति के आंदोलनों की दुनिया में लहरें उठ खड़ी हुई। एक तरफ कुछ देशों में इंकलाब हुए तो दूसरी तरफ़ गुलाम मुल्क आजाद होते चले गए। इधर ब्रिटिश साम्राज्यवाद सिमट कर छोटे से इलाके तक सीमित गया तो उधर अमेरिकी साम्राज्यवाद ताकतवर होकर सामने आ गया। दुनिया को नए तरीके से नियंत्रण में रखा जाय इसकी योजनाएं बनने लगी।
          पश्चिमी एशिया को सोवियत समाजवाद के प्रभाव से मुक्त रखने और अपने नियंत्रण में रखने के लिए यहूदियों के प्रति उमड़ी सहानुभुति का इस्तेमाल किया गया। फिलिस्तीन के एक हिस्से पर यहूदियों को 1948 में बसाया गया। इस देश का नाम पड़ा इजरायल। फिलिस्तीन के तीन हिस्से किये जाने थे। एक फिलिस्तीन दूसरा इजरायल और तीसरा येरुशलम। मगर हुआ कुछ और।
           इजरायल के बसने का फिलिस्तीन और अरब ने विरोध किया। फिलिस्तीनी जनता पर यह फैसला थोप दिया गया। 1948-50 में अरब के विरोध के चलते अरब इजरायल संघर्ष हुआ जिसका अमेरिकी और ब्रिटिश हथियारों और सामरिक सहयोग से अरब और फिलिस्तीनी हरा दिए गए। 7 लाख से ज्यादा फिलस्तीनी शरणार्थी बन गए। कई मारे गए। यही फिलिस्तीनियों के लिए पहला नकबा यानी पहला महाविनाश था। तब से 2007 तक आते आते फिलिस्तीन को इजरायली जियनवादी फासिस्टों ने लगभग कब्जा कर लिया।
          अलग फिलिस्तीनी राष्ट्र के लिए फिलिस्तीन की जनता ने लगातार संघर्ष किया। पहला और दूसरा इन्तिफादा ( प्रतिरोध युद्ध) लड़े। नरसंहार झेले। पहले पी एल ओ व अल फतह की अगुबाई में आवाज उठाई। इनके समझौता कर लेने और पीछे हट जाने पर हमास की अगुवाई में आवाज बुलंद की। यह नरसंहार अब गाज़ा और वेस्ट बैंक में 7 अक्टूबर से फिर से शुरू हो चुका है। सभी जनवादी प्रगतिशील ताकतें इस नरसंहार के खिलाफ आवाज उठा रही है।
 
      
     


       
       
   

Thursday, 6 July 2023

क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन का आठवां सम्मेल



               क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन का आठवां सम्मेलन
        

           क्रालोस का आठवां सम्मेलन 24- 25 जून 2023 को उत्तर प्रदेश के बरेली शहर में आएशा पैलेस में आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, दिल्ली के प्रतिनिधियों ने भागीदारी की।

        सम्मेलन की शुरुआत 24 जून को प्रातः 8 बजे झंडारोहण के साथ शुरू हुई। संगठन के अध्यक्ष पी पी आर्या ने झंडारोहण किया। झंडारोहण की कार्यवाही के बाद प्रगतिशील सांस्कृतिक मंच ने ( मेरा रंग दे बसंती चोला ) गीत प्रस्तुत किया। इसके बाद अलग अलग संघर्षों में दुनिया और देश के भीतर शहीद हुए शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित की गई और 2 मिनट का मौन रखा गया।

        अध्यक्षीय संबोधन में पी.पी.आर्या ने कहा कि संगठन अपने पच्चीस साल की यात्रा में तमाम उतार चढ़ावों से गुजरते हुए आगे बड़ा है। संगठन जन सरोकारों से जुड़े मुद्दों तथा जनवादी , संवैधानिक अधिकारों के लिए क्षमताभार संघर्ष करता रहा है। संगठन ने मेहनतकश जनता और शोषित उत्पीड़ित समूहों के न्याय प्रिय आंदोलनों का समर्थन किया हैं तो कई मौकों पर आंदोलनों को नेतृत्व देने का प्रयास किया है।

         इसके बाद अध्यक्ष ने सम्मेलन के संचालन के लिए एक तीन सदस्यीय संचालक मंडल का नाम प्रस्तावित किया जिसे सदन में उपस्थित प्रतिनिधियों ने अनुमोदित किया। इसके बाद सम्मेलन के बंद सत्र की शुरुआत हुई। 

          सम्मेलन में राजनीतिक रिपोर्ट तथा सांगठनिक रिपोर्ट पर चर्चा की गयी। राजनीतिक रिपोर्ट के अंतरराष्ट्रीय परिस्थिति वाले हिस्से पर बात रखते हुए वक्ताओं ने कहा कि 2007 से शुरू हुआ विश्व अर्थव्यवस्था का संकट कोरोना महामारी के बाद और भी घनीभूत हुआ है।  इस संकट ने दुनिया में राजनीतिक, सामाजिक, और सांस्कृतिक संकट को घनीभूत किया है। दक्षिणपंथी, फासीवादी राजनीति का उभार बढ़ा है। कई देशों में राजनीतिक अस्थिरता भी बढ़ी है। इस चौतरफा संकट ने समाज में एकाकीपन, भरोसे की कमी, आत्मकेंद्रीयता को बढ़ाया है।
           वक्ताओं ने यह भी रेखांकित किया कि चीन के एक नई साम्राज्यवादी ताकत के रूप में सामने आने और रूस के फिर से उभार ने साम्राज्यवादियों के बीच टकराहट को बढ़ाया है। जिससे एक और रूस यूक्रेन युद्ध में रूसी साम्राज्यवादी और अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी साम्राज्यवादी शासकों की सनक का शिकार जनता को होना पड़ रहा है। दुनिया में शरणार्थी और प्रवासी संकट भी गहरा गया है। दुनिया में बढ़ते फासीवादी उभार ने मजदूर मेहनतकश जनता सहित शोषित उत्पीड़ित समूहों पर हमलों को तीखा किया है। जनवादी अधिकारों पर भी हमले तेज हुए हैं। 

            इस उत्पीड़न , शोषण के खिलाफ पैदा हो रहे संघर्षों के दौरान जनता एक बेहतर समाज की ओर भी आगे बढ़ेगी ऐसी आशा सम्मेलन ने जाहिर की।
           इसी तरह राष्ट्रीय परिस्थिति वाले हिस्से पर चर्चा करते हुए कहा गया कि विश्व परिस्थियों से भारत भी अछूता नहीं है। हमारे यहां भी आर्थिक , सामाजिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक स्थितियां विकराल स्थिति ग्रहण कर रही हैं। देश में गरीबी , बेरोजगारी, महंगाई, भुखमरी, असमानता लगातार बढ़ रही है। मजदूरों मेहनतकशों पर हमले तेज हुए हैं। अल्पसंख्यक समुदाय को हाशिये पर धकेलने के हिंदू फासीवादी शासकों द्वारा प्रयास किए जा रहे हैं। मेहनतकश जनता के संवैधानिक, जनवादी व नागरिक अधिकारों का गला घोंटा जा रहा है।  वहीं दूसरी तरफ फासीवादी एजेंडों को आगे बढ़ाने के लिए देश में अराजकता और हिंसा का माहौल पैदा किया जा रहा है। उत्तराखंड , उत्तर प्रदेश , मध्य प्रदेश में 'लव जिहाद', 'लैंड जिहाद' आदि फासीवादी एजेन्डे फासीवादियों के मंसूबों को दिखाती है। वही मणिपुर जैसी स्थितियां दिखाती हैं वर्तमान शासक पूरे देश को नफरत की आग में झोंक देना चाहते हैं।
          इस दौरान देश ने नागरिकता कानून विरोधी आंदोलन, ऐतिहासिक किसान आंदोलन, महिला पहलवानों के आंदोलन और जगह जगह काफी लंबे चल रहे मजदूर आंदोलन इसके अलावा देश भर जारी जनवादी आंदोलन एक उम्मीद की किरण भी दिखाते हैं। इन सब परिस्थितियों पर बात करने के बाद सदन ने राजनीतिक  रिपोर्ट को पास किया।
            सदन में सांगठनिक रिपोर्ट पर भी विस्तार से चर्चा हुई जिसमे पिछले सम्मेलन से अब तक की कार्यवाहियों का ब्यौरा पेश किया गया। तथा संगठन ने अपनी उपलब्धियों एवं कमियों खामियों को चिन्हित करते हुए अगले सम्मेलन तक के लिए अपनी लिए कार्य योजना पेश की।
            अगले दिन सम्मेलन ने विभिन्न सामायिक विषयों पर प्रस्ताव पास किए। ये प्रस्ताव  दलितों अल्पसंख्यकों पर बढ़ते हमलों के विरोध में, समान नागरिक संहिता के संबंध में, चारों श्रम संहिताओं के विरोध में, बढ़ते फासीवादी हमलों के विरोध में, एन पी एस के विरोध में , मणिपुर में जारी हिंसा के संबंध में आदि मामलों पर थे। जिसे सम्मेलन में पास किया।
            इसके बाद चुनाव हुए। अध्यक्ष के रूप में  पी पी आर्या और महासचिव के रूप में भूपाल का चुनाव किया गया। संगठन के नवनिर्वाचित अध्यक्ष ने बिरादर संगठनों से आए पर्यवेक्षक साथियों और तकनीकी सहयोग के लिए आए साथियों का धन्यवाद किया जिनकी वजह से सम्मेलन ठीक से आयोजित हो पाया।
             इसके बाद दोपहर दो बजे से खुले सत्र का आरम्भ किया गया। जिसमे शहर से तमाम ट्रेड यूनियन, सामाजिक संगठनों और सहयोगी संगठनों के साथी उपस्थित रहे। सभी साथियों ने संगठन की सम्मेलन के लिए बधाई दी। तथा नई कमेटी व पदाधिकारियों को बधाई दी। सभी ने संगठन से जनवादी आंदोलन को आगे बढ़ाने की आशा व्यक्त की। खुले सत्र में वक्ताओं ने आज की पतिस्थियों और देश दुनियां में मेहनतकश जनता के हालत, उस पर किए जा रहे हमलों, सरकार की जन विरोधी नीतियों, संघर्षों के दमन , दलितों अल्पसंख्यकों पर बढ़ते हमलों, जनवादी व संवैधानिक अधिकारों के हनन आदि मसलों पर चिंता जाहिर करते हुए बातें की।
               खुले सत्र को बरेली ट्रेड यूनियंस के महामंत्री संजीव मेहरोत्रा, बरेली कॉलेज के कर्मचारी नेता जितेंद्र मिश्र, ट्रेड यूनियन नेता महेश गंगवार, पी यू सी एल के साथी एड यशपाल सिंह, मजदूर सहयोग केंद्र के साथी दीपक सांगवाल, इंकलाबी मजदूर केंद्र के साथी रामजी सिंह, परिवर्तनकामी छात्र संगठन के महासचिव साथी महेश, प्रगतिशील महिला एकता केंद की साथी हेमलता, सामाजिक न्याय फ्रंट के साथी सुरेंद्र सोनकर, टेंपो यूनियन के साथी कृष्ण पाल, सामाजिक कार्यकर्ता साथी ताहिर बेग, प्रगतिशील सांस्कृतिक मंच के साथी ओम प्रकाश, ट्रेड यूनियन नेता सलीम अहमद ने संबोधित किया।
              अंत में संगठन के नवनिर्वाचित अध्यक्ष साथी पी पी आर्या ने वर्तमान परिस्थितियों और संघर्ष की जरूरत पर विस्तार से बात रखी और सभी साथियों का क्रांतिकारी अभिवादन किया। प्रगतिशील सांस्कृतिक मंच के साथियों ने बंद सत्र और खुले सत्र में जोशीले क्रांतिकारी गीतों के माध्यम से सम्मेलन में क्रांतिकारी उत्साह बनाए रखा इसके लिए उन्हें धन्यवाद।
                खुले सत्र के बाद एक सांकेतिक जुलूस निकाला गया। इस बीच में पुलिस प्रशासन ने जुलूस में हस्तक्षेप किया व अकारण ही टकराव पैदा करने की कोशिश की।  जुलूस झंडे , बैनर, तख्तियों पर लिखे नारों से लोगों को आकर्षित कर रहा था।  जुलूस में जोशीले नारे लगाते हुए साथी आगे बढ़ रहे थे।  जुलूस सम्मेलन आएशा पैलेस से शुरू होकर जगत पुर पुलिस चौकी होते हुए बीसलपुर चौराहे तक गया उसके बाद उसी रास्ते वापस आ गया। सम्मेलन स्थल पर साथियों ने उत्साह से गीत गाए। तत्पश्चात सम्मेलन की पूरी कार्यवाही सफलता पूर्वक संपन्न हुई।


           

Thursday, 13 April 2023

जालियावाला बाग के शहीदों की स्मृति में


 जालियावाला बाग के शहीदों को याद करो !
धर्म की जहरीली राजनीति को ध्वस्त करो!   

          ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति की आकांक्षा में अनगिनत कुर्बानियां भारतीय जनता ने दी थी। इसी कड़ी में बैशाखी के दिन 1919 में हुई कुर्बानी को हमें याद करने की जरूरत है। बैशाखी के दिन 13 अप्रेल 1919 को अमृतसर के जलियावाला बाग में हज़ारों हिन्दू-मुस्लिम-सिख जनता सभा कर रही थी। ब्रिटिश हुकूमत ने जनता के संघर्षों को रोकने, कमजोर करने और खत्म करने के लिए दमनकारी कानून 'रौलेट एक्ट' लागू किया था। जिसके हिसाब से केवल शक के आधार पर किसी को भी गिरफ्तार किया जा सकता था और  बिना सुनवाई के अनिश्चित काल के लिए जेल में ठूंसा जा सकता था। इसका सार था -'न अपील, न दलील, न वकील' । इसके विरोध में जनता देश भर में सड़कों पर उमड़ आयी थी। 13 अप्रेल को बैशाखी के दिन ही अमृतसर में जालियावाला बाग में सभा हो रही थी। हज़ारों लोग स्त्री, पुरुष, वृद्ध और बच्चे सभी मैदान में थे। मुस्लिम, सिक्ख और हिन्दू सभी एक जान सभा में रौलेट एक्ट का विरोध कर रहे थे।

        इस निहत्थी जनता को घेरकर अंग्रेजी हुकूमत ने सैकड़ो लोगों का कत्ल कर दिया। आज़ादी के संघर्ष को खून में डुबो दिया।

        इस बर्बर हत्याकांड के विरोध में नानक सिंह ने कविता लिखी 'खूनी बैशाखी'। इसका शीर्षक था 'रोलट बिल दा रौला'। इसकी कुछ पंक्तियां इस प्रकार है -

रोलट बिल ने घतिया आन रौला,
सारे हिन्द दे लोक उदास होए। .....
पंच वजे अप्रैल दी तेहरवीं न,
लोकीं बाग वल होए रवान चले।
दिलां विच इनसाफ दी आस रख के,
सारे सिख हिन्दू मुसलमान चले।
विरले आदमी शहिर विच रहे बाकी,
सब बाल ते बिरध जवान चले।
अज दिलां दे दुख सुणान चले,
सगों आपने गले कटवाण चले।

       आज़ादी की मशाल इस कत्लेआम के बावजूद मद्धिम ना हुई। बल्कि संघर्षों का नई लहर खड़ी हुई। मगर अफसोस कि इतिहास कुछ इस तरह आगे बढ़ा कि जनता के इस संघर्ष पर सवार होकर अंग्रेजी हुकूमत के साथ सांठगांठ कर रहा पूंजीपति वर्ग और जमींदार वर्ग अपनी पार्टी कांग्रेस के जरिए सत्ता पर काबिज हो गया। मुस्लिम लीग, आर.एस.एस और हिन्दुमहासभा तो इस संघर्ष के तूफानी दौर में अंग्रेजी हुकुमत की गोद में बैठकर 'बांटो और राज करो' में लिप्त थी। आजादी के बाद इतिहास इस तरह आगे बढ़ा कि दोनों ही  (संघ और कांग्रेस) जनता के खिलाफ एक हो गए और एक दूसरे की मदद से आगे बढ़ते रहे।

          आज वही आरएसएस व भाजपा कांग्रेस से सांठ गाठ व सहयोग से और कॉरपोरेट पूंजी के अभूतपूर्व सगयोग से सत्ता में है मोदी शाह और भाजपा संघ कॉरपोरेट पूंजी के नंगी लूट खसोट के लिए जनता की स्थिति को फिर गुलामी की स्थिति में धकेल देने के घृणित काम में लिप्त हैं।

           जलियावाला बाग के शहीदों की कुर्बानी हमें याद दिलाती है कि आम जनता को धर्म की ज़हरीली विभाजनकारी राजनीति के खिलाफ एकजुट होकर संघर्ष करने की फिर से सख्त जरूरत है। यही जालियावाला बाग के शहीदों को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

Friday, 31 March 2023

जी 20 और भारत


       जी 20 और भारत
        

       जी 20 की इस साल की अध्यक्षता भारतीय शासक कर रहे हैं। इस समूह में दुनिया भर में लूटखसोट मचाने और कई देशों की संप्रभुता को तहस नहस करने वाले साम्राज्यवादी देशों तथा विकसित पूंजीवादी देशोंऔर पिछड़े पूंजीवादी देश हैं। इसमें 19 देश और एक यूरोपीय यूनियन है।   

इस मंच को 1999 में गठित किया गया है। साम्राज्यवादी देशों ने 'निजीकरण उदारीकरण वैश्वीकरण' की नीतियों को आसानी से लागू कर सकने की मंशा से क्षेत्रीय पूंजीवादी ताकतों को लेकर इस समूह का गठन किया था।  भारत, चीन, ब्राज़ील, दक्षिण अफ्रीका, तुर्की आदि जैसे देश इसमें शामिल हैं। आज स्थिति यह है कि एक ओर चीन एक नई साम्राज्यवादी ताकत के रूप में सामने है तो दूसरी तरफ इस समूह के भीतर तीखे विरोध भी हैं इसके साथ यह मुख्य चीज जिस पर सभी एकजुट है वह है दुनिया भर में अलग अलग देशों की संसाधनों  की लूट खसोट को बढ़ाना है मजदूर मेहनतकश जनता की मेहनत को निचोड़ना है।

        इस मंच के माध्यम से नई आर्थिक नीतियों के जरिए संसाधनों और मजदूर मेहनतकश आबादी की मेहनत की लूट खसोट मचाने, जनता के संघर्षों को कुचलने के लिए हर साल जी 20 की बैठकें बारी बारी से अलग अलग देशों में होती हैं। मोदी सरकार ने 2020 में आयोजित बैठक को 2024 के चुनाव के मद्देनजर व्यापक प्रचार के मौके में बदल डालने के लिए खिसकाकर 2023 में करने की योजना बनाई। इसी के तहत इस साल इसकी प्रकिया बैठक अलग अलग जगह देश भर में होनी है फिर सितंबर में दिल्ली में इसका सम्मेलन होना है।

       मार्च के अंतिम सप्ताह में इसकी बैठक उत्तराखंड के नैनीताल जिले के रामनगर क्षेत्र में हुई। रामनगर तक पंतनगर हवाई क्षेत्र से विदेशी और देशी लुटेरे प्रतिनिधियों को पहुंचाने से पहले सड़क मार्ग पर पड़ने वाली दुकानों को बुलडोज़र से धवस्त कर दिया गया। इसी तरह के मामले आने वाले वक्त में और सामने आते जाएंगे।

        आज दुनिया के जो  हालात उसे इस मंच के भीतर अलग अलग देशों की टकराहटों, द्वन्दों तथा खुद देश के भीतर के आर्थिक आर्थिक राजनीतिक हालात से समझा जा सकता है।

        भारत में मोदी सरकार ने एक ओर घोर पूंजीपरस्त नीतियों को सरपट भगाया है तो दूसरी तरफ हिंदू फासीवादी राजनीति के दम पर ध्रूवीकरण को तेजी से आगे बढ़ाया है। भारतीय समाज आज सबसे ज्यादा राजनीतिक तौर पर विभाजित है। मुस्लिमों को दोयम दर्जे की स्थिति में धकेला गया है। हिन्दू आबादी का ठीकठाक हिस्सा इस हिंदुत्व की राजनीति के साथ गोलबंद है।

        एक ओर यह है तो दूसरी तरफ पाकिस्तान और चीन के शासकों के साथ अंतर्विरोध तीखे हुए हैं।

        भारत से बाहर देखें तो दुनिया दो खेमे में बंटी हुई है एक ओर अमेरिका की अगुवाई में ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी और कनाडा व जापान के साथ नाटो तो दूसरी तरफ रूस और चीन। अमेरिकी शासकों के अपने प्रभुत्व की मंशा के चलते दोनों खेमों में अंतर्विरोध तीखे हुए हैं। इसका नतीजा यूक्रेन में अमेरिका और रूस के बीच चल रहा युद्ध है। जिसमें दोनों ही आमने सामने नहीं मगर परोक्ष संघर्ष में है।

        इससे इतर इन सभी देशों में मजदूर वर्ग और बाकी जनता से शासकों के अंतर्विरोध तीखे हुए हैं। फ्रांस, जर्मनी और ब्रिटेन में इस वक़्त बड़ी हड़तालें और संघर्ष सामने हैं। शासक वर्ग जनता पर हमलावर है। सभी जगह दक्षिणपंथी या फासीवादी पार्टियां उभार पर हैं।  

        जी 20 की बैठक इसी घोर जनविरोधी आर्थिक नीति के साथ घोर जनवाद विरोधी दक्षिणपंथी या फासीवादी राजनीति को आगे बढ़ा रही है। एक ओर भारत में फासीवादी मोदी सरकार में व्यवहार में अघोषित निरंकुशता की स्थिति बना दी है तो दूसरी तरफ रूस में पुतिन अंधराष्ट्रवाद के दम पर विपक्ष और जन विरोध को ध्वस्त करते हुए निरंकुशता की स्थिति कायम कर चुके हैं।






        
          
           

       

Thursday, 23 March 2023

23 मार्च 1931 के शहीदों की याद में


 
भगत सिंह की बात सुनो
इंकलाब की राह चुनो


       23 मार्च 1931 के शहीदों को याद करने के साथ उनके विचारों पर चलने की आज सख्त जरूरत है। भगत सिंह जिस संगठन से थे उसका नाम था हिंदुस्तान समाजवादी गणतांत्रिक संघ। शहीदे आजम भगत सिंह इस संगठन को वैचारिक दिशा देने वाले साहस और ऊर्जा से भरपूर नौजवान थे।

      1927 से 1931 के बीच भगत सिंह ने कई लेख लिखे और सम्पादित किये। भगत सिंह की वर्गीय पक्षधरता सुस्पष्ट थी। भगत सिंह अपने जेल जीवन के दौरान मार्क्सवाद के निकट पहुंचने की ओर बढ़ते गए। उनकी यात्रा राष्ट्रवादी क्रांतिकारी से समाजवादी होने की ओर बढ़ी।

      भगत सिंह व उनके साथियों ने साफ तौर पर कहा कि क्रांति से उनका अभिप्राय अन्याय पर आधारित मौजूदा व्यवस्था का खात्मा है कि कांग्रेस धनिकों का संगठन है यह जमीदारों और पूंजीपतियों के पक्ष में कुछ सुधार करने तक सीमित है।

     भगत सिंह ने यह भी कहा कि साम्राज्यवाद डाकेजनी के सिवाय कुछ भी नहीं है जब तक एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र का और एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति का शोषण खत्म नहीं हो जाता तब तक मानवता को उनके दुखों से मुक्ति नहीं मिल सकता      भगत सिंह ने कहा कि समाज का साम्यवादी सिद्धांतों पर पुनर्गठन करने की जरूरत है। इसके लिए नौजवानों को किसानों और मजदूरों को संगठित करना होगा।

     21 वीं सदी के इस दौर में भगत सिंह की यह बात आज कई गुना ज्यादा प्रासंगिक है। विद्यार्थियों, नौजवानों के बीच आज फिर से भगत सिंह और उनके साथियों के विचारों को व्यापक रूप में ले जाने की सख्त जरूरत है। इंकलाब यानी समाज का समाजवादी पुनर्गठन ही मानवता को आज के अंधेरे दौर से मुक्ति दिला सकता है।



चुनाव की आड़ में बिहार में नागरिकता परीक्षण (एन आर सी)

      चुनाव की आड़ में बिहार में नागरिकता परीक्षण (एन आर सी)       बिहार चुनाव में मोदी सरकार अपने फासीवादी एजेंडे को चुनाव आयोग के जरिए आगे...