Monday, 9 September 2024

आरक्षण के भीतर आरक्षण का सवाल

 

‘आरक्षण के भीतर आरक्षण’ : आमजन के लिए आज महज झुनझुने के भीतर झुनझुना

 
    उच्चतम न्यायालय की सात सदस्यों की संविधान पीठ ने अपने बहुमत (6-1) से यह फैसला दिया कि ‘राज्य अनुसूचित जाति (एससी) व अनुसूचित जनजाति (एसटी) के भीतर एक तार्किक व्यवस्था के तहत आरक्षण को उप-वर्गीकृत कर सकते हैं’। इस फैसले को लेकर खूब हंगामा मचा हुआ है। 

    इस फैसले का खास अर्थ यह है कि उच्चतम न्यायालय अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति को एक समांग समूह (कैटेगरी) के रूप में नहीं देखता है। उच्चतम न्यायालय का यह फैसला अपने पूर्व में दिए गए फैसलों के उलट है। 2004 में उच्चतम न्यायालय की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने यह फैसला दिया था कि सरकारें आरक्षण के लिए अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति को उप-वर्गीकृत (सब-कैटगरी) नहीं कर सकती हैं। 2020 में यह मामला जब फिर उठा तो उच्चतम न्यायालय ने इस विषय पर विचार करने के लिए एक बड़ी पीठ मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व में बना दी थी। यह फैसला उसी पीठ का है।
    उच्चतम न्यायालय की 7 सदस्यीय पीठ के बहुमत के फैसले ने समाज में एक घमासान छेड़ दिया है। कोई इस फैसले का स्वागत कर रहा है तो कोई खुलेआम विरोध कर रहा है। ‘आरक्षण के भीतर आरक्षण’ को कई नेता अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के बीच फूट डालने की साजिश के तौर पर देख रहे हैं तो कुछ नेता इसे अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के भीतर अप्रत्यक्ष तौर पर कुछ जातियों को ‘क्रीमी लेयर’ के तहत लाकर उन्हें आरक्षण के बड़े लाभ से वंचित करने के रूप में देख रहे हैं। कुछ के हिसाब से अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के अति पिछड़ों को इस उप-वर्गीकरण से लाभ होगा।
    ‘आरक्षण के भीतर आरक्षण’ आरक्षण के सिद्धांत की स्वाभाविक, तार्किक व कानूनी परिणति है। उच्चतम न्यायालय ने इस निष्कर्ष पर पहुंचने में दशकों लगा दिए हैं। जबकि तर्क के अनुसार और कानूनी नुक्तेबाजी यही कहती है कि यह बहुत पहले हो जाना चाहिए था। उच्चतम न्यायालय तर्क और कानून व समाज की स्थिति को देखते हुए और आगे जाता तो उसे ‘आरक्षण के भीतर आरक्षण’ और उसके भी भीतर आरक्षण की व्यवस्था महिलाओं के लिए करनी चाहिए थी। क्योंकि यह एक सामान्य सी बात है कि महिलाएं हर समुदाय, हर जाति, हर जनजाति में बहुत-बहुत पिछड़ी हैं। शिक्षा व सरकारी नौकरियों में वे अपनी ही जाति, जनजाति व समुदाय के मामले में काफी पिछड़ी हुई हैं। ‘आरक्षण के भीतर आरक्षण’ और उसके भी भीतर आरक्षण ही उच्चतम न्यायालय के इस फैसले की तार्किक व कानूनी परिणति होनी चाहिए थी। उच्चतम न्यायालय को ऐसा करने से किसने और किस चीज ने रोका? वैसे कई राज्यों में जातिगत आधार पर नहीं तो महिला होने के आधार पर क्षैतिज आरक्षण की व्यवस्था है। जाहिर है ऐसी स्थिति में लाभ सवर्ण जातियां ही अधिक उठा सकती हैं। 
    ‘आरक्षण के भीतर आरक्षण’ का मूल विरोध उन नेताओं की ओर से मुखर रूप से आया है जो अपने आप को अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का समग्र तौर पर नेता मानते हैं। इन नेताओं में चिराग पासवान, रामदास अठावले जैसे सत्ताधारी नेता हैं तो प्रमुख दलित राजनेता मायावती भी हैं। वे इस फैसले को ‘फूट डालो और राज करो’ की श्रेणी में रखते हैं। इन नेताओं के सामने मुख्य समस्या अपने वोट बैंक के, इस फैसले के कारण छितर जाने की है।
    इस फैसले से उन जातिगत आधार वाले नेताओं को भी कुछ समस्या है जो मानते हैं कि इस बंटवारे से अब तक जो लाभ आगे बढ़े हुए उनकी अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के लोगों को मिल रहा है वह कम हो जाएगा। और वे वंचित रह जाएंगे। उनका वर्चस्व टूट जाएगा और नेतृत्व सीमित हो जाएगा।
    इसी तरह से इस वक्त आमतौर पर चुप लगाकर बैठी भाजपा इसमें अपना खास कुछ फायदे (अलग-अलग राज्यों में) और अपनी हिंदू फासीवादी परियोजना के आम नुकसान के रूप में देख रही है। ‘आरक्षण के भीतर आरक्षण’ के लिए समाज में विभिन्न जातियों के संघर्ष छिड़ने से उसकी धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति को झटका लगेगा। इंडिया गठबंधन इस फैसले को अपने लिए एक अवसर के रूप में देख रहा है।
    आरक्षण के संदर्भ में सामाजिक हकीकत यही है कि पिछले तीन दशकों से जारी ‘उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण’ की नीतियों ने इसके लाभ से आरक्षित जातियों-जनजातियों को अप्रत्यक्ष ढंग से वंचित कर दिया है। सरकारी-सार्वजनिक क्षेत्र में लंबे समय से छंटनी जारी है और काम को ठेके में देने की प्रथा जोर-शोर से जारी है। स्थाई काम के स्थान पर अस्थायी, संविदा ठेके पर काम की प्रथा है। और केंद्र व राज्य सरकार के कई विभागों में ग्रुप डी की नौकरियां खत्म कर दी गई हैं। केंद्र व राज्य सरकारें विभिन्न न्यायालयों द्वारा स्थाई नौकरी या न्यूनतम वेतन से संबंधित फैसलों को लागू ही नहीं करते हैं। ऐसे में ‘आरक्षण के भीतर आरक्षण’ से रोजगार की मौजूदा स्थिति में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं आने वाला है।
    केंद्र व राज्य सरकारों का रवैया है कि स्थाई रोजगार मत दो और जहां कहीं भी भर्ती करो वहां नौकरी अल्पकालिक हो, संविदा या ठेके पर हो का नतीजा यही निकल रहा है कि आरक्षण बेमानी हो गया है।
    आज आरक्षण या ‘आरक्षण के भीतर आरक्षण’ तब कुछ अर्थ रख सकता है जब शासक वर्ग की ‘उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण’ की नीति खत्म हो और सरकारी व सार्वजनिक क्षेत्र में छंटनी की कार्रवाई बंद हो और बड़े पैमाने पर नियुक्तियां हों। निजी क्षेत्र, सेना में भी आरक्षण लागू हो।
    शिक्षा के क्षेत्र में भी निजीकरण की प्रक्रिया खत्म हो। निजी स्कूल, कालेज, विश्वविद्यालयों आदि सभी का सरकारीकरण हो। 
    साथ ही आरक्षण या ‘आरक्षण के भीतर आरक्षण’ तब कुछ कारगर हो सकता है जब देश के भीतर व्यापक व सटीक जाति गणना हो। जाति गणना के साथ आर्थिक स्थिति का सटीक मूल्यांकन हो। तदनुरूप नीतियों का निर्माण हो।
    भारतीय समाज में लंबे समय से आरक्षण ने एक सकारात्मक योगदान दिया है। सवर्ण जातियों के शिक्षा व नौकरियों में वर्चस्व को तोड़ने में एक हद तक सार्थक भूमिका निभाई। यह भूमिका नई आर्थिक नीतियों के साथ सीमित से सीमित होती चली गई है। अब आरक्षण पहले की तरह भूमिका निभाने के स्थान पर राजनैतिक हथकंडा और राजनैतिक कैरियर बनाने के लिए आतुर चतुर राजनेताओं का हथियार बन गया है। शासक वर्ग की पार्टियों के लिए यह अपने वोट बैंक को बनाने और एकजुट रखने का जरिया बन गया है। भारत की संसद में बैठी लगभग सारी पार्टियां नई आर्थिक नीतियों का समर्थन करती रही हैं।
    आरक्षण के जरिये शासक वर्ग ने अपने आधार का विस्तार किया है और उन जातियों-उप जातियों में एक छोटे से हिस्से को अपने वर्ग में शामिल किया और एक मध्य वर्ग को तैयार किया। ‘आरक्षण के भीतर आरक्षण’ इसी प्रक्रिया को आज के संदर्भ में थोड़ा सा विस्तार और दे देगा। हकीकत में आरक्षण इस विस्तार के साथ करोड़ों लोगों को झूठी आशा में बांधता है कि उनके बीच से भी कोई भी आरक्षण का लाभ पाकर अफसर बन सकता है। अच्छी सरकारी नौकरी व अच्छी शिक्षा पा सकता है। इसका एक परिणाम यह निकलता है कि विभिन्न जातियों के मजदूर-मेहनतकश अपनी-अपनी जाति के खोल में चिपटे रहते हैं। जाति-समाज की राजनीति व गोलबंदी में फंसे रहते हैं। और उससे भी बुरी बात यह है कि वे धूर्त, महत्वाकांक्षी पूंजीवादी राजनेताओं के पिछलग्गू व अनुचर बने रहते हैं। ‘आरक्षण के भीतर आरक्षण’ इस चुनावी राजनैतिक प्रक्रिया को और आगे अपनी अंतिम सीमा तक ले जाएगा। 
    आज कोई एक राजनेता अपनी जाति विशेष का ठेकेदार बन जाता है और इस आधार पर वह विभिन्न स्थापित बड़ी पार्टियों से सौदेबाजी करने की हैसियत प्राप्त कर लेता है। और उन्हें ठीक ही मजबूर करता है कि सत्ता में उन्हें भी भागीदारी दें। पिछले दो दशक में यह प्रक्रिया तेज हुई है; अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति व पिछड़ों में विभिन्न उपजातियों के नेता उभरे हैं और वे कुशलतापूर्वक अपनी चाहत पूरी कर ले रहे हैं। ‘आरक्षण के भीतर आरक्षण’ इस प्रक्रिया को आगे ले जाएगा। इसमें वही जातियां कामयाब होंगी जिनका संख्या बल चुनावी राजनीति के हिसाब से कुछ महत्व रखेगा अन्यथा अन्यों के लिए इस जाति-राजनीति का कुछ खास अर्थ नहीं होगा। वे अपनी पिछड़ी व उपेक्षा की अवस्था में ही पड़े रहेंगे।
    भारत के मजदूरों-किसानों व अन्य मेहनतकशों के हित यह मांग कर रहे हैं कि हम वर्तमान पूंजी व्यवस्था और उसके संचालकों से चार कदम आगे की सोचें। इनके विचारधारात्मक-राजनीतिक सोच को एक किनारे रखकर बेरोजगारी, गरीबी, महंगाई, महंगी व आंखों में पर्दा डालने वाली वर्तमान शिक्षा व्यवस्था के असली कारणों को तलाशें। यह तलाश स्वाभाविक रूप से हमें इस निष्कर्ष पर ले जाएगी कि यह पूंजीवादी व्यवस्था ही है जो हमारी समस्याओं के मूल कारणों में है। यदि इस व्यवस्था के स्थान पर समाजवादी व्यवस्था कायम की जाए तो हमारी सभी बुनियादी समस्याओं का समाधान हो सकता है। और फिर आरक्षण जैसे प्रावधानों की आवश्यकता नहीं होगी। समाजवादी समाज हर व्यक्ति की शिक्षा की निःशुल्क व्यवस्था कर सकता है। हर व्यक्ति जहां तक शिक्षित होना चाहे वहां तक शिक्षा पा सकता है। शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो ज्ञान को उत्पादन, विज्ञान व समाजवादी सिद्धांतों से जोड़े।
    और रोजगार के संदर्भ में नीति हो सकती है कि ‘हर व्यक्ति को उसकी योग्यतानुसार काम दिया और काम के अनुसार वेतन दिया जाए’। शिक्षा, रोजगार में जाति, नस्ल, लिंग, राष्ट्रीयता किसी भी आधार पर भेदभाव न किया जाए। उन सब के उत्थान के लिए विशेष प्रयास और उपाय समाजवादी समाज को करने होंगे जो ऐतिहासिक रूप से पिछड़े रहे हैं। इसके तहत समाजवादी राज्य को अपने संसाधनों के इस्तेमाल में विशेष ध्यान देना व सावधानी बरतनी होगी। क्योंकि समाजवादी व्यवस्था में शासक स्वयं मजदूर और मेहनतकश किसान होंगे अतः वहां पूंजीवादी व्यवस्था की तरह झूठी-खोखली भरमाने वाली नीतियां और तौर-तरीके नहीं होंगे। उन्हें अपनी मुक्ति की योजना स्वयं ही बनानी और लागू करनी होगी।
    जहां तक जाति व्यवस्था के उन्मूलन का सवाल है वह वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था और खासकर उसकी राजनैतिक प्रणाली व सामंती मूल्यों को पालने वाली सामाजिक संस्कृति के कारण नहीं हो सकती है। जाति व्यवस्था का सामाजिक, वैचारिक व राजनैतिक व कुछ आर्थिक आधार पूंजीवादी समाज में बना ही रहता है। एक रूप में यह बार-बार पुनर्जीवन पाता रहता है। समाजवादी समाज एक ऐसी सामाजिक स्थिति तैयार करेगा जहां जाति अतीत की वस्तु बन जाएगी। जातिगत भेदभाव व उत्पीड़न का सामूल नाश हो जाएगा।


Tuesday, 18 June 2024

मोदी का आभामंडल ध्वस्त, बैसाखी पर सवार मोदी सरकार

        मोदी का आभामंडल ध्वस्त, बैसाखी पर सवार मोदी सरकार
           लोक सभा 2024 के चुनाव की एकतरफा जीत का मोदी का सपना मिट्टी में मिल गया। खुद को परमेश्वर का दूत कहने वाले मोदी को इस बार मुंह की खानी पड़ी। जितना आभामंडल पिछले 10 सालों में कॉरपोरेट मीडिया, भाजपा आई टी सेल और संघी संगठनों ने खड़ा किया था वह अबकी बार ध्वस्त हो गया। भाजपा 240 पर सिमट गई। मोदी शाह की जोड़ी को इस बार बैसाखी की जरूरत पड़ गई। तेलगु देशम पार्टी और जनता दल यूनाइटेड पार्टी मुख्य घटक पार्टियां है इसके अलावा और भी छोटी छोटी  पार्टियों के कुल 24 सांसद है जिनका समर्थन भाजपा को है।
           राम मंदिर का गरदो गुबार खड़ा करने, उद्घाटन करने और  पहले चरण के चुनाव से ठीक दो दिन पहले रामनवमी का आयोजन भी किसी काम नहीं आया। चुनाव में जीत के लिए तमाम हथकंडे अपनाए गए।  फर्जी वोटिंग से वोटिंग प्रतिशत का खेल खेला गया। विरोधी मत को रोका गया। यहां तक कि ई वी एम काउंटिंग को भी रोककर भाजपा उम्मीदवार को जिताने के आरोप लगे हैं। यह सब होने के बावजूद 240 पर सिमटना थी दिखाता है कि नाराजगी बड़े स्तर पर थी जिसकी क्षतिपूर्ति नहीं हो सकी। 
            भाजपा का वोट प्रतिशत भले ही 1 % की गिरावट मात्र को ही दिखाता है मगर भाजपा के केंद्रक इलाकों विशेषकर उत्तर भारत की वोट प्रतिशत 5 से लेकर 9 % तक गिरा है। ज्यादा सीट लड़ने और दक्षिण भारत के कुछ राज्य , केरल और पंजाब आदि में वोट प्रतिशत  बढ़ने से, कुल वोट प्रतिशत लगभग स्थिर दिखता है।
              मोदी शाह की निरंकुश कार्यशैली पर इस बार अंकुश लगेगा।  मीडिया मोदी राग फिर भी गाता रहेगा मगर इस मोदी की खंडित, ध्वस्त आभामंडल को अब वह फिर से पुनर्जीवित नहीं कर सकता।
            दूसरी ओर इस बार विपक्ष का दर्जा भी कांग्रेस को देने पर मोदी शाह को मजबूर होना पड़ेगा।  इस तरह मनमर्जी से मोदी शाह और पी एम ओ कोई भी बिल पास करवाने की स्थिति में नहीं होगा।
              तकरीबन 25 सालों से बहुमत की आड़ में निरंकुश और मनमर्जी से काम करने, रातों रात नोटबंदी जैसे तुगलकी फरमान सुनाने वाले मोदी को पहली बार गठबंधन सरकार के रूप में कार्य करना होगा। 
               एन डी ए के रूप में बना गठबंधन पहले नाम का था इसमें भाजपा को बहुमत था जबकि इस बार वास्तव में यह एक गठबंधन की सरकार होगी।
              जहां तक इस गठबंधन सरकार में नई आर्थिक नीतियों का सवाल है इन्हें तेजी से लागू करने में मुश्किल खड़ी होने की संभावना कम है। 
             फासिस्ट एजेंडे को लागू करने पर ही टी डी पी और जे डी यू को दिक्कत होगी। यही से एक संभावना सरकार के गिरने की बनती है। दूसरा मोदी शाह की जोड़ी विपक्ष और गठबंधन में शामिल दलों को अपने में विलीन करने की कोशिश करें इसकी भी संभावना बनती है।
             एक संभावना ये भी है कि किसी सी ए ए एन आर सी, यू सी सी आदि जैसे फासीवादी मुद्दे पर एक वक्त बाद मोदी शाह की जोड़ी सरकार गिरा दे और मध्यावती चुनाव करवा दे, इसमें बहुमत हासिल करने की कोशिश करे।
             इस बात की संभावना कम ही है कि हिंदू मुस्लिम की नफरत भरी राजनीति कमजोर पड़े। मीडिया और संघी लंपट संगठन तथा भाजपा आई टी सेल इस काम को जोर शोर से अभियान के रूप में जारी रखेगा। अंधराष्ट्रवाद यानी चीन और विशेषकर पाकिस्तान के खिलाफ नफरत का अभियान चलता रहेगा। सरकार सीधे इस मामले में इंवॉल्व कम होगी। जैसा कि पहले कार्यकाल में दिखता था।
               फासीवादी आंदोलन समाज में मौजूद है। सत्ता में भले ही कमजोर पड़ी हो मगर इसकी मौजूदगी हर स्तर पर है। इसलिए फासीवाद का खतरा टला नहीं है। यह हमारे सामने है। ऐसा भी हो सकता है कि यह कुछ समय के लिए कमजोर पड़ जाए। जनता में विशेषकर बहुसंख्यक हिंदुओं में इसकी अपील कमजोर पड़ जाय। और ये कुछ सालों के लिए सत्ता से भी बाहर हो जाएं। ऐसा भी हो सकता है आर्थिक संकट के गहराने और किसी विस्फोट ( जनसैलाब सड़कों पर हो) के होने पर तेजी से फासीवाद की बढ़ जाएं। इसी की संभावना ज्यादा दिखती है। क्यों दुनिया में आर्थिक संकट गहरा रहा है। अंतर्विरोध तीखे हो रहे हैं। कई देशों में फासीवादी पार्टियां बढ़ती पर हैं।
             
               

Saturday, 23 March 2024

23 मार्च के शहीदों की याद में

                        23 मार्च  के शहीदों की याद में       

                       भगत सिंह की बात सुनो, इंकलाब की राह चुनो !

             

           23 मार्च 1931 के शहीदों को याद करने की आज के दौर की घोर जरूरत है। ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्ति के लिए और साथ ही पूंजीवाद से मुक्ति के लिए जो संघर्ष छेड़ा था तथा जिस मुक्ति के लिए भगत सिंह राजगुरु और सुखदेव ने खुद को बलिदान कर दिया, वह मुक्ति की लड़ाई आज भी अधूरी है। भगत सिंह ने और उनके साथियों ने जिन विचारों को अपने लेखों की व्यक्त किया था उन्हें आज के अंधेरे दौर में फिर से जानने समझने की जरूरत है।

       शहीद भगत सिंह 'हिंदुस्तान समाजवादी गणतांत्रिक संगठन' के नेता और कार्यकर्ता थे। इस संगठन का घोषणा पत्र कहता था- "..भारत के मेहनतकश वर्ग की हालत आज बहुत गंभीर है। उसके सामने दोहरा ख़तरा है– एक तरफ विदेशी पूंजीवाद के तो, दूसरी तरफ भारतीय पूंजीवाद के धोखे भरे हमले का..। ...इसी कारण मेहनतकश की तमाम आशाएं अब सिर्फ़ समाजवाद पर टिकी हैं और सिर्फ़ यही...सब भेदभाव खत्म करने में सहायक हो सकता है...।"

         भगत सिंह और उनके संगठन का मकसद था - अंग्रेजी गुलामी से आजादी और आजाद भारत में मजदूर मेहनतकश जनता का राज 'समाजवाद' कायम करना; देश को 'धर्मनिरपेक्ष' बनाना यानी राजनीति और सार्वजनिक मामलों में धर्म के दखल को खत्म कर देना तथा धर्म को बिल्कुल निजी मामला बनाकर घर तक सीमित कर देना।

       आज, आज़ाद भारत में  'समानता'   'समाजवाद' और 'धर्मनिरपेक्ष' जैसे शब्द, जो  नाम के लिए ही संविधान में हैं; इस संविधान को भी बदल देने की बातें कही जा रही है। आज के काले अंग्रेज, जो हिटलर के नक्शे कदम पर चल रहे हैं; उन्हें ये खोखले शब्द भी बर्दाश्त नहीं है। ये 'हिंदू राष्ट्र' के नाम पर  हिटलर के 'नाजीवाद' की ही तरह 'आतंकी तानाशाही' कायम करना चाहते हैं।

          शहीद भगत सिंह अपने संगठन को वैचारिक दिशा देने वाले नेता थे। 1928 से मार्च 1931 के बीच उन्होंने कई लेख लिखे व संपादित किये। इनमें लिखे विचार आज भी देश के नौजवानों और जनता के लिए बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण हैं।

         8 अप्रेल 1929 को भगत सिंह और उनके साथियों ने असेंबली बम विस्फोट के वक़्त हॉल में एक पर्चा  बांटा  था। इस पर्चे में कहा गया था - "बहरों को सुनाने के लिए बहुत ऊँची आवाज़ की आवश्यकता होती है, ....हम ‘सार्वजनिक सुरक्षा’ और ‘औद्योगिक विवाद’ के दमनकारी क़ानूनों और लाला लाजपत राय की हत्या के विरोध में देश की जनता की ओर से यह क़दम उठा रहे हैं।.. हम ऐसे उज्ज्वल भविष्य में विश्वास रखते हैं जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण शान्ति और स्वतन्त्रता का अवसर मिल सके..।"

             इसी लिखित बयान में भगत सिंह ने आगे कहा था-".. मज़दूरों को उनके... अधिकार से वंचित रखा जा रहा है और उनकी गाढ़ी कमाई का सारा धन शोषक पूँजीपति हड़प जाते हैं।... अन्नदाता किसान आज अपने परिवार सहित दाने-दाने के लिए मुहताज हैं। ... इसके विपरीत समाज के जोंक, शोषक पूँजीपति ज़रा-ज़रा-सी बातों के लिए लाखों का वारा-न्यारा कर देते हैं। इसीलिए.... जब तक... मनुष्य द्वारा मनुष्य का तथा एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र का शोषण... समाप्त नहीं कर दिया जाता तब तक मानवता को उसके कष्टों से छुटकारा मिलना असम्भव है, और तब तक युद्धों को समाप्त कर विश्व-शान्ति... की सारी बातें महज ढोंग .. हैं..।"

            उन दिनों जब संघ और लीग अंग्रेजों  के हित में 'हिन्दू-मुस्लिम' व 'मंदिर-मस्जिद' की जहरीली राजनीति कर रहे थे; तब इसके विरोध में भी भगत सिंह ने एक लेख 1928 में लिखा। इसका  शीर्षक था- 'साम्प्रदायिक दंगे और इनका इलाज'। इसमें कहा गया था- " इन दंगों के पीछे साम्प्रदायिक नेताओं और अख़बारों का हाथ है।.....  ये लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएँ भड़काते हैं l... एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए कि स्थानीय अखबारों ने बड़े भड़काऊ लेख लिखे हैं।"

           इसी लेख में उन्होंने आगे लिखा- "..सभी दंगों का इलाज...भारत की आर्थिक दशा में सुधार से ही हो सकता है..... गरीब, मेहनतकशों व किसानों को समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं।...  संसार के सभी गरीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं।..."

             'विद्यार्थी और राजनीति' लेख में भगत सिंह ने लिखा था- "..जिन नौजवानों को कल देश की बागडोर हाथ में लेनी है, उन्हें आज अक्ल के अन्धे बनाने की कोशिश की जा रही है।....वे (नौजवान) पढ़ें, जरूर पढ़े! साथ ही पालिटिक्स का भी ज्ञान हासिल करें और जब जरूरत हो तो मैदान में कूद पड़ें और अपने जीवन को इसी काम में लगा दें।.."

         जनवरी 1930 में हाईकोर्ट में जज के सामने लिखित बयान में भगत सिंह ने कहा- ".......पिस्तौल और बम इंकलाब नहीं लाते, बल्कि इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज़ होती है।... हमारे इंकलाब का अर्थ पूँजीवादी युद्धों की मुसीबतों का अन्त करना है।..."

        मार्च 1930 में कोर्ट में अपने छः साथियों की ओर से बयान देते हुए भगत सिंह ने कहा- "...साम्राज्यवाद एक बड़ी डाकेजनी की साज़िश के अलावा कुछ नहीं। साम्राज्यवाद मनुष्य के हाथों मनुष्य के और राष्ट्र के हाथों राष्ट्र के शोषण का चरम है। साम्राज्यवादी अपने हितों, और लूटने की योजनाओं को पूरा करने के लिए .....भयंकर हत्याकाण्ड भी आयोजित करते हैं।....युद्ध जैसे ख़ौफ़नाक अपराध भी करते हैं।...."

         फरवरी 1931 में जेल से भेजे 'कौम के नाम संदेश' में भगत सिंह ने कहा - " ..... कांग्रेस दूकानदारों और पूँजीपतियों के ज़रिये इंग्लैण्ड पर आर्थिक दबाव डाल कर कुछ अधिकार ले लेना चाहती है। परन्तु जहाँ तक देश की करोड़ों मज़दूर और किसान जनता का ताल्लुक है,..इन्हें विदेशी हुकूमत के साथ-साथ जमीदारों और पूँजीपतियों के जुए से भी उद्धार पाना है, परन्तु कांग्रेस का उद्देश्य यह नहीं है...।"

         फांसी होने से तीन दिन पहले 20 मार्च 1931 को भगत सिंह ने पंजाब के राज्यपाल को लिखा - " हम यह कहना चाहते हैं कि युद्ध छिड़ा हुआ है और यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी जब तक कि शक्तिशाली व्यक्तियों ने भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर अपना एकाधिकार कर रखा है- चाहे ऐसे व्यक्ति अंग्रेज पूँजीपति हों या सर्वथा भारतीय ही हों, उन्होंने आपस में मिलकर एक लूट जारी कर रखी है। ....भविष्य में अन्तिम युद्ध लड़ा जाएगा और यह युद्ध निर्णायक होगा।... यही वह लड़ाई है जिसमें हमने प्रत्यक्ष रूप से भाग लिया है।..."

         जिस साम्राज्यवाद और पूंजीवाद से भगत सिंह और उनके साथियों की जंग थी; वह आज भी कायम है। बस लूट खसोट के तौर-तरीके बदल गए हैं। आज एक तरफ अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन व रूस, चीन जैसे साम्राज्यवादी लुटेरे शासक हैं; जिनकी बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने देश और दुनिया के कोने-कोने में लूट-खसोट मचा रही हैं तो वहीं दूसरी तरफ भारत जैसे कई पूंजीवादी देश हैं; जो इन लुटेरे साम्राज्यवादियों से सांठगांठ किये हुए हैं।  अडानी, अंबानी, टाटा, बिड़ला जैसे भारत जैसे देशों के पूंजीपति शासक भी अमेरिका, ब्रिटेन, चीन जैसे देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ मिलजुलकर इस भयानक लूट-खसोट के अभियान में लगी हुई हैं। यह देशी- विदेशी लूट-खसोट भांति-भांति के तरीके से हो रही है।

           इस लूट खसोट का ही नतीजा है आज हर जगह, समाज चौतरफा भीषण संकट में है। एक ओर भयानक बेरोजगारी, आसमान छूती महंगाई, भारी गरीबी, भीषण असमानता, युद्ध जैसे हालात के रूप में यह संकट हमारे सामने है तो दूसरी तरफ यह संकट भयानक असुरक्षा, बढ़ते अपराध, बढ़ती  हिंसा, बढ़ती आत्महत्याओं, अकेलापन व अवसाद जैसी बढ़ती मानसिक बीमारियों के रूप में है।

          इस सड़े गले समाज में, एक तरफ 10-20 लाख करोड़ रुपए की दौलत और संपत्ति वाले मुट्ठी भर खरबपति हैं जो सरकार बनाने-बिगाड़ने का खेल रचते है सारे संसाधन इनकी मुट्ठी में ही हैं सरकार, पूंजीवादी राजनीतिक पार्टियां इन्हीं की हैं; तो दूसरी तरफ करोड़ों-करोड़ आम नागरिक हैं जो कथित 'मुफ्त राशन' मात्र पर ज़िंदा रहने को मजबूर कर दिए गए हैं। 'धर्म' की अफीम चटाने और कुछ 'खैरात' के अलावा सरकारों के पास इन्हें देने के लिए कुछ भी नहीं है सिवाय लूट खसोट के।

            हद तो यह है कि इन खरबपति मगरमच्छों को; जो आम नागरिकों की मेहनत को तरह-तरह से हड़प ले रहे हैं रोजगार को भी निगल ले रहे हैं; उन्हें 'दौलत पैदा करने वाले' कहा जा रहा है जबकि बिना श्रम के (मेहनत के) कोई दौलत पैदा ही नहीं होती।

         शहीद भगत सिंह इस गहरे संकट का समाधान समाज के आमूल चूल बदलाव में देखते थे; समाजवाद में देखते थे; क्रांति में देखते थे।

       'बम का दर्शन' लेख में भगत सिंह ने लिखा था- "क्रांति पूँजीवाद, वर्गवाद तथा कुछ लोगों को ही विशेषाधिकार दिलाने वाली प्रणाली का अन्त कर देगी। यह राष्ट्र को अपने पैरों पर खड़ा करेगी,उससे नवीन राष्ट्र और नये समाज का जन्म होगा। क्रांति से सबसे बड़ी बात तो यह होगी कि वह मजदूर व किसानों का राज्य कायम कर उन सब सामाजिक अवांछित तत्त्वों को इसके अधीन कर देगी जो देश की राजनीतिक शक्ति को हथियाए बैठे हैं..।"

        शहीद भगत सिंह की इस बात को ध्यान में रखते हुए आज वक़्त की जरूरत है कि शहीद भगत सिंह के बताए रास्ते पर चला जाए। इंकलाब के रास्ते की ओर कदम बढ़ाए जाएं।

 
    



              





साम्प्रदायिक नागरिकता (संशोधन) कानून के ज़रिए भी फासीवादी निजाम की ओर बढ़े कदम



    


साम्प्रदायिक नागरिकता (संशोधन) कानून के ज़रिए भी फासीवादी निजाम की ओर बढ़े कदम

     

        आखिरकार संघी सरकार ने सी ए ए लागू कर ही दिया है। हालांकि इस बार एन आर सी पर और एन पी आर पर ये खामोश हैं l 2019 में गृहमंत्री ने कहा था कि देश में एन आर सी और  एन पी आर होकर रहेगी, तब इसका व्यापक विरोध हुआ था। विरोध सबसे पहल पहले असम में ही हुआ था। असम में जिस वजह से एन आर सी (राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर) लागू की गई थी उसी वजह से मोदी-शाह की सरकार के सी ए ए का व्यापक और उग्र विरोध की शुरुआत भी यहीं से हुई थी। असम के मूल निवासी सी ए ए के जरिए किसी को भी नागरिकता देकर असम में बसाये जाने की आशंका के चलते सी ए ए का विरोध कर रहे थे। जबकि देश के बाकी हिस्सों में इसका विरोध नागरिकता कानून के सांप्रदायिक रुख और एन आर सी होने पर नागरिकता जाने के खतरे के चलते हो रहा था।

   इस व्यापक विरोध के बाद गृहमंत्री और प्रधानमंत्री को बार-बार कहना पड़ा कि देश में एन आर सी नहीं होगी। बाद में सरकार ने संघर्ष के दबाव में इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया था। इस वक्त व्यापक विरोध की एक खास वजह थी वह यह कि संघी सरकार ने साफ कहा था कि आधार कार्ड, वोटर कार्ड, राशन कार्ड जैसे बुनियादी दस्तावेज मान्य नहीं होंगे।

       इस बार पीछे हटकर इन्होंने इन तीन पड़ोसी देशों के गैर मुस्लिमों के लिए एक दस्तावेज उनके मूल देश का साबित करने वाले की जरूरत के साथ भारत सरकार द्वारा जारी पेन कार्ड, आधार कार्ड आदि को भी मान्यता देकर इसकी जरूरत बताई है। इसका ये मतलब नहीं कि भारत में केवल आधार कार्ड, पेन कार्ड, डी एल आदि नागरिकता साबित करने वाले दस्तावेज़ हैं।

      नागरिकता संशोधन कानून (2019) के जरिए  मनमाने तरीके से तीन देशों पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश के गैर मुस्लिम अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने के प्रावधान कर दिए थे। मुस्लिमों  को अपने ध्रुवीकरण।के औजार बनाकर इससे वंचित कर दिया गया। गरीब अप्रवासियों को  विशेषकर अवैध मुस्लिम अप्रवासियों  को ये दीमक और घुसपैठिये को दीमक के रूप में प्रचारित करते है।

    अब फिर से ठीक चुनाव से पहले इसे ये ले आए। इसकी एक खास वजह असम ही थी जहां बहुसंख्यक हिन्दू जो पिछली बार नागरिकता के दायरे से बाहर रह गए थे, उन्हें इसके दायरे में ले आना; साथ ही पश्चिम बंगाल में मेतुवा समुदाय को अपने पक्ष में लामबंद करना था। जबकि इसकी आम वजह तो पूरे देश के भीतर अपने फासीवादी एजेंडे को आगे बढ़ाना है, बहुसंख्यक हिंदुओं को अपने पक्ष में लामबंद करना है।

    यद्यपि सरकार इस कानून को नागरिकता देने वाला बता इससे किसी की नागरिकता न छीनने की बात कर रही है पर भविष्य में एन आर सी लागू कर वह देश में रह रहे तमाम वंचित समुदायों से नागरिकता छीन सकती है। मुस्लिम समुदाय के लोगों को वह विशेष तौर पर लक्षित कर सकती है। यद्यपि असम की तरह इस प्रक्रिया के निशाने पर आदिवासी व अन्य वंचित समुदाय भी आयेंगे।

       कुल मिलाकर मोदी सरकार अभी नागरिकता के मामले में पीछे हटी है मगर इसका कोर यानी केन्द्रीय चीज बची हुई है वह है सांप्रदायिक आधार पर नागरिकता देना। अभी यह फासीवादी एजेंडा समाप्त नहीं हुआ है बल्कि आने वाले वक्त में यह एजेंडा देश के भीतर नागरिकता की पहचान करने के रूप में सामने आएगा।

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