मेहनतकश अवाम की तबाही व
बर्बादी की नयी ईबारत लिखती नयी आर्थिक नीतियॉं
परिचय: ब्रिटिश हुकुमत की गुलामी से निजात पाने के लिये भारत की मेहनतकश अवाम ने
शानदार जुझारू संघर्ष किये। आदिवासियों के संघर्ष, किसानों के संघर्ष व मजदूरों
के संघर्ष अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग
वक्त में लड़े गये। 19वीं-20वीं सदी का इतिहास इन संघर्षों का
गवाह है। 20वीं
सदी के दूसरे दशक में जब रूस में मजदूर वर्ग ने सत्ता पर काबिज होकर समाजवादी
व्यवस्था का निर्माण कर दिया तो इसने दुनिया भर के मजदूर वर्ग व मेहनतकश अवाम को
ऐसा ही अपने मुल्कों में कर डालने के लिये प्रेरित किया और पांचवें दशक तक आते-आते कई मुल्कों में समाजवादी सत्ताएं वज़ूद में आ गयी। समाजवाद ने जहां
फ़ासीवाद को ध्वस्त किया वहीं इस प्रचण्ड धारा ने राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलनों को
आवेग प्रदान किया जिससे औपनिवेशिक मुल्क एक-एक कर आजाद होते
चले गये।बाजार व प्राकृतिक संसाधनों की लूट के लिये हुए दूसरे विश्व युद्ध में
यूरोपीय व जापानी साम्राज्यवाद काफ़ी कमजोर हो गये जबकि अमेरिकी साम्राज्यवाद
प्रभुत्व की स्थिति में आ गया। अब साम्राज्यवाद को प्रत्यक्ष शासन से पीछे हटते
हुए अन्तराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक व गैट {वर्तमान में विश्व व्यापार संगठन} बनाकर इसके माध्यम
से अपनी लूट का ताना बाना बनाने को मजबूर होना पड़ा। भारत का मजदूर किसान व मेहनतकश
अवाम भी समाजवाद से उद्वेलित व प्रेरित हुआ। ब्रिटिश हुकुमत के खिलाफ़ उसका संघर्ष
और तीखा हो गया। और अन्तत: एकतरफ़ समाजवादी सत्ताओं का दबाव
तो दूसरी तरफ़ देश के भीतर चल रहे संघर्ष ने ब्रिटिश हुकुमत को देश छोड़ने पर मजबूर
कर दिया। 15 अगस्त 1947
को देश को ब्रिटिश साम्राज्यवादी मुल्क की गुलामी से देश
को निजात मिली। सत्ता अब अंग्रेज साम्राज्यवादियों के हाथों से स्थानान्तरित होकर
भारतीय पूंजीपति वर्ग-भूस्वामी वर्ग के हाथों में आ
गयी। विकास का रास्ता व आमजन की स्थिति :भारतीय शासकों ने सन 47 की इस कमजोर आजादी को 7-8
वर्ष बीतते-बीतते वास्तविक बना लिया था। उसने
संविधान का निर्माण कर इसे लागू कर इसे गणतन्त्र घोषित कर दिया। भारतीय शासक
वर्ग को फ़ौज-पुलिस जैसे दमनकारी उपकरण, ढेर सारे काले कानून व
नौकरशाही का एक विशाल ताना-बाना इसे ब्रिटिश
हुकुमत से विरासत में ही मिल गया था इसे भारतीय शासकों ने और पुख्ता किया। इस
दमनकारी उपकरण के जरिये देश के भीतर चल रहे जनवादी आन्दोलनों का बर्बर दमन किया
गया। सांमतशाही के विरोध में चल रहे संघर्षों को अपने पक्ष में हल करते हुए लगभग 570
राजा रजवाड़ों की स्वायत्ता को खत्म करके एक केन्द्रीय सत्ता का
निर्माण शासकों ने किया। सामंतों को प्रीविपर्स दिये गये व सामंती भूस्वामियों को
पूंजीवादी भुस्वामियों में रूपान्तरित होने के भरपूर मौके दिये गये। इस प्रकार
भारतीय पूंजीपति वर्ग अपने घरेलूबाजार को संरक्षित करने की दिशा में बढ़ा तथा पूरे
देश के प्राकृतिक संसाधनों पर अपने प्रभुत्व की ओर। अर्थव्यवस्था में अपनी स्थिति को
मज़बूत करने व साम्राज्यवादियों के प्रभाव को कम करने के लिये अर्थव्यवस्था को नियन्त्रित करने का तन्त्र खड़ा
किया। रिजर्व बैंक व इम्पीरियल बैंक का राष्ट्रीयकरण करके वित्तीय तन्त्र पर अपना
नियन्त्रण बढ़ाया गया। 1969 में अन्य बडे़ बैंकों के
राष्ट्रीयकरण करके इसे नियन्त्रित किया गया। विकास के इस नेहरूवादी समाजवादी मॉडल या टाटा-बिड़ला एक्शन प्लान के तहत पूंजीवादी रास्ते में आगे बढ़ा गया।।संरक्षणवादी
कदमों के तहत भारी सीमा शुल्क का बन्दोबश्त किया गया। 1957
में आयात-निर्यात नीति जो पहले ढीली थी अब इसे
नियन्त्रित किया गया। उपभोक्ता सामग्री का आयात लगभग प्रतिबन्धित कर दिया गया केवल
पूंजीगत वस्तुओं के आयात की अनुमति थी वह भी लाइसेन्स आधारित। अर्थव्यवस्था के
लिये बेहद जरूरी वस्तुएं पेट्रोलियम, खाद, धातुएं वगैरह के आयात को सरकारी एकाधिकार के अन्तर्गत सारणीबद्ध कर दिया
गया। ‘दाम नियन्त्रण प्रणाली’ वज़ूद में
लायी गयी।सार्वजनिक वितरण प्रणाली की व्यवस्था की गयी जरूरी वस्तुओं की
सट्टेबाजारी व जमाखोरी को अपराध घोषित कर दिया।उगाहे गये करों की मदद से ‘एस.ए.आइ.एल’,
‘बी.एच.ई.एल’, ‘एच.एम.टी.’ ‘बी.ई.एल’ जैसे सार्वजनिक उपक्रम खड़े किये गये। टाटा बिड़ला जैसे इजारेदार
पूंजीपतियों के अलावा छोटे व मझौले पूंजीपतियों को भी शोषण करने के मौके देने के
लिये ‘एकाधिकारी व निरोधात्मक व्यापार व्यवहार कानून’
को लागू किया गया। ‘विदेशी मुद्रा अधिनियमन
कानून’ बनाकर साम्राज्यवादी पूंजी की घुसपैठ को कमजोर किया गया । वैश्विक स्तर पर समाजवादी खेमे व
साम्राज्यवादी मुल्कों के अन्तर्विरोध व बाद में तीखे साम्राज्यवादी अन्तरविरोध के
चलते ही भारतीय शासकों के लिये ऐसा करना संभव हो पाया। लेकिन इस सब के बावजूद
साम्राज्यवाद की उपस्थिति भारत में बनी रही। कृषि में पूंजीवादी विकास के लिये
सामंती भूस्वामियों को पूंजीवादी फ़ार्मरों में बदलने के मौके दिये गये इसके अलावा
ग्रामीण मंडियों के विकास,न्यूनतम समर्थन मूल्य पर आधारित
उपज की सरकारी खरीद व हरित क्रान्ति के तहत यह सब किया गया। भारतीय शासकों के साम्राज्यवाद से सीमित अलगाव वाले इस पूंजीवादी विकास के
मॉडल को संकट्ग्रस्त होना ही था। इसे संकट दर संकट ही आगे बढ़ना था। 90 के दशक आते-आते यह कई बार संकटों में फ़ंसते हुए
हिचकोले खाते हुए आगे बढ़ते रही।अन्तराष्ट्रीय मुद्रा कोष व विश्व बैंक से उनकी
शर्तों पर कर्ज़ लेकर उनके दबाव में मुद्रा का अवमूल्यन कर संकट से मुक्त होने का
प्रयास किया गया। इन संकटों के दौर में अवाम का प्रतिरोध भी बढ़ जाता था। दूसरी ओर मजदूर-किसान व शेष मेहनतकश नागरिक आबादी ने
जिस आजादी का ख्वाब बुना था वह चकनाचूर हो गया। अपनी जिन्दगी के दुख:दर्दों को कम करने व जनवादी अधिकारों के लिये जब-जब
भी प्रतिरोध-संघर्ष-आन्दोलन किये तो इन
आन्दोलनों का निर्मम दमन किया गया। पूरे देश में स्थिति यहां तक पहुंची कि 75
तक आते-आते पूरे देश में पैदा हुए आर्थिक संकट
व इससे उपजे राजनीतिक संकट से निपटने के लिये इन्दिरा गांधी सरकार ने संविधान में
ही बने प्रावधानों का इस्तेमाल करते हुए ‘आपात काल’ की घोषणा करके ‘सीविल तानाशाही’ लागू कर दी । नयी आर्थिक नीतियां :
90 के दशक तक आते-आते पूंजीवादी विकास के लिये
जो संरक्षणवादी-नियन्त्रणवादी ढांचा खड़ा किया गया था वह पुन:
एक बढ़े संकट में फ़ंस गया।इस बार इस संकट से निपटने के लिये भिन्न
रास्ता अपनाया गया। जब कि इससे पहले संकटों में
भारतीय पूंजीपति वर्ग अर्थव्यवस्था को और नियन्त्रित करने की ओर बढ़्ता था
और ऐसा करके घरेलू बाज़ार पर अपना शिकंजा कसके वह अपनी पूंजी का विस्तार करता रह
सकता था लेकिन अब एक आर्थिक हैसियत व आत्मविश्वास को वह प्राप्त कर चुका था। अब
अपनी पूंजी का और ज्यादा विस्तार अपने घरेलू बाज़ार के दम पर व उसे अपने लिये
संरक्षित करते हुए नहीं कर सकता था।अब संरक्षणवादी-नियन्त्रणवादी
मॉडल की जरूरत इसे नहीं थी अब यह अपने पांव बाहर भी पसारने को लालायित था।
पूंजीपति वर्ग के विकास में अहम भूमिका
अदा करने के बाद यह मॉडल अब उसके विकास में बाधक बन गया था।अब वह इसे त्यागकर ‘मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था’ को अपनाने की राह पर चल
पड़ा जिसकी भुमिका 80 के दशक में ही बनने लगी थी।
इसलिये इस बार भिन्न रास्ता अपनाया गया। और इस बार के संकट को ‘ढा़ंचागत संकट’ कहकर इससे निजात पाने के लिये ‘ढा़ंचागत समायोजन’ का रास्ता चुना गया। प्रधानमंत्री नरसिहांराव के काल में वित्तमन्त्री मनमोहन सिहं के नेतृत्व
में ‘ढा़ंचागत समायोजन’ की ओर बढ़ा गया
। कॉंग्रेस सरकार ने बेहतर विकास,रोजगार के नये क्षेत्र
खुलने महंगाई कम होने के तर्क देकर नव उदारवादी नीतियों को देश में लागू करने की
ओर कदम बढ़ाये। कहा जाने लगा कि विकास का रास्ता विदेशी पूंजी के निवेश से होकर
जाता है। अब ‘नयी आर्थिक नीति’ के तहत ‘निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण’
की नीति को देश में लागू कर दिया गया।
इन नीतियों का सभी जनपक्षधर संगठनों ने विरोध किया। स्पस्टत: ये नीतियां छोटे-मझोले किसानों,श्रमिकों समेत आम मेहनतकश अवाम की जिन्दगी को और ज्यादा तबाही बर्बादी की ओर
धकेलकर पूंजीपति वर्ग को मालामाल करने का इन्तजाम था।
जबकि भा.ज.पा,ब.स.पा.,स.पा. समेत अन्य पूंजीवादी राजनीतिक पार्टियों ने इन नीतियों का विरोध अपने-अपने राजनीतिक आधार को बचाने के लिये किया।साथ ही खुद पूंजीपति वर्ग के अलग-अलग धड़ों में भी इन नीतियों को लेकर उहाऊपोह था।भा.ज.पा. के आडवाणी का ‘कम्प्यूटर चिप्स- यस, पोटाटो चिप्स-नो’ शायद सभी को याद हो। ये सभी पार्टियां पूंजापति वर्ग के अलग-अलग धड़ों की प्रतिनिधि हैं। सरकारी वामपंथी अभिजात मज़दूरों के प्रतिनिधि हैं ये इन नीतियों का विरोध करते हुए नेहरूवादी मॉडल की ओर वापस लौटने की वकालत करते हैं लेकिन ‘उत्पादक शक्तियों’ के विकास का तर्क देते हुए अपने गढ़ में ‘नयी आर्थिक नीतियों’ को इन्होंने जोर शोर से लागू किया। इन नीतियों के लागू होने का असर धीरे-धीरे आम जनता ने महसूसकिया।‘निजीकरण-उदारीकरण’ के इस दौर में अब सरकारी व सार्वजनिक उध्योगों के निजीकरण की ओर बढ़ा गया। निजीकरण की प्रक्रिया को अंजाम देने के लिये भांति-भांति के तरीके अपनाये गये यह आज भी जारी है।उदाहरणत: बिजली विभाग के पारेषण,वितरण व उत्पादन को खण्डित करके तीन अलग-अलग हिस्सों में बांटकर वितरण को निजी हाथों में कई शहरों में सौंपा जा चुका है उत्पादन में भी ढेरों निजी कम्पनियां लगी हुई है। परिवहन विभाग में अनुबन्ध पर गाड़ियां चलाना व इनमें संविदा पर चालक-परिचालकों की भर्ती यह निजी पूंजी के हवाले सब कुछ सौंप देने की कवायद के अलावा और कुछ नहीं है।हर विभाग में संविदा पर ठेके पर कर्मचारियों की भर्ती हो रही है संविदाकरण-ठेकाकरण अब आम बात हो गयी है। सार्वजनिक उध्योगों के निजीकरण के लिये तो भा.ज.पा. सरकार ने विनिवेश मंत्रालय की स्थापना तक कर दी थी। शिक्षा व स्वास्थ्य जैसे मदों व अन्य जनकल्याणकारी मदों में खर्च की जाने वाली रकम में कटौति की जा रही है। एक ओर श्रम के लचीलेपन के नाम पर एक दौर में संघर्षों के दम पर मजदूर हित में बने श्रम कानूनों को जो देश के मुट्ठी भर मजदूरों को ही हासिल थे अब उदारीकरण के नाम पर इन श्रम कानूनों को बदल देने की कोशिश की जाने लगी। द्वितीय श्रम आयोग गठित कर श्रम कानूनों व ट्रेड युनियन अधिकारों को छीने जाने की साजिश रची जाने लगी। अगस्त 2003 में सर्वोच्च न्यायालय ने तमिलनाडू में कर्मचारियों के हड़ताल के सम्बन्ध में फ़ैसला सुनाते हुए कहा कि कर्मचारियों को हड़ताल करने का अधिकार नहीं है। नयी आर्थिक नीतियों के इस दौर ने न्यायालय की बढ़्ती पूंजीपरस्ती को और उद्घाटित किया है। कृषि में लागत मूल्य बढ़ जाने, ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ तथा सरकारी खरीद प्रणाली को कमजोर करते जाने से छोटे-मझोले कृषकों की तबाही बढ़ी व लाखों किसान आत्महत्या को मजबूर हुए यह आज भी जारी है।‘सार्वजनिक वितरण प्रणाली’ को ध्वस्त करने की राह पर इस प्रक्रिया में बढ़ा गया। वहीं एक तरफ़ अनाज बफ़र स्टॉक के रूप में गोदामों में पड़े-पड़े सड़ जाता है तो दूसरी तरफ़ लोग गरीबी के चलते अनाज के अभाव में भुखमरी से दम तोड़ देते हैं। अनाज की सरकारी खरीद को कमजोर कर व आई.टी.सी, कारगिल जैसी देशी-विदेशी कम्पनियों को अनाज खरीदने का मौका दिया गया जिसे इनके द्वारा निर्यात कर दिया गया और फ़िर इसे ही महंगे दामों पर आयात कर अवाम को जमकर लूटा गया।यह सब कुछ वि.व्या.सं.{ W.T.O} से हुए समझौते के ही मुताबिक हुआ था। जरूरी वस्तुओं की सट्टेबाजारी व जमाखोरी पर प्रतिबन्ध लगाने वाले कानून ‘आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955' व `वायदा सौदा अधिनियम 1952' को भा.ज.पा. सरकार के दौर में ही खत्म कर दिया गया जिसके बाद इन जरूरी वस्तुओं के सट्टेबाजारी के लिये शेयर बाजार की तर्ज पर तीन कमोडिटी ऐक्सचेन्ज -मल्टी कमोडिटी ऐक्सचेन्ज, नेशनल मल्टी कमोडिटी ऐक्सचेन्ज व नेशनल कमोडिटी एण्ड डेरीवेटिव्ज ऐक्सचेन्ज लिमिटेड में 100 से ज्यादा खाध्य वस्तुओं पर सट्टेबाजारी चल रही है वर्ष 2003-04 में इन तीनों का कुल कारोबार 5 लाख 11 हजार करोड़ रुपये था जो अगले वर्ष 400% बढ़कर 21 लाख करोड़ रुपये हो गया। मेहनतकश अवाम की लूट किस कदर है इस तथ्य से समझा जा सकता है। इसके अलावा ‘विशेष आर्थिक क्षेत्र’ ‘विशेष निर्यात क्षेत्र’, एक्सप्रैस वे,बांध, न्यूक्लियर व अन्य प्रोजेक्टों के लिये लिये जमीन अधिग्रहण बढ़े स्तर पर किये जाने लगे। इसके विरोध में किसानों के तीखे संघर्ष हुए हालांकि अधिकांश का विरोध उचित कीमत मिलने के एवज में हुआ। पूरे देश में प्राकृतिक संसाधनों की लूट व दोहन की खुली छूट सरकार ने देशी-विदेशी पूंजीपतियों को दे रखी है। मध्य भारत में लूट की एक नयी गाथा लिखी जा रही है। इस पूरी ही प्रक्रिया में बढ़े पैमाने पर अवाम विस्थापन का दंश झेलने को मज़बूर है।न्यूक्लियर समझौते में तो भारत सरकार ने कुछ हद तक देश की सम्प्रभूता को कमजोर भी किया है। दूसरी ओर वैश्विक स्तर पर 2007 के अंत से अमेरिका में पैदा हुआ ‘हाउसिंग बूम’ का बुलबुला फ़ूट गया इस सब प्राइम संकट के चलते कई दिग्गज वित्तीय कम्पनियां ध्वस्त हो गयी यह संकट 2008 में युरोप में फ़ैल गया पूंजीवादी व्यवस्था गहरे संकट में धंसने लगी तब हमारे शासकों ने इससे अप्रभावित रहने के तमाम दावे किये जो कि तत्काल ही हवाई साबित हो गया हालांकि इसका असर यहां कम रहा तो सिर्फ़ वित्तीय संस्थानों पर पुराने नियन्त्रणवादी मॉडल के तहत कठोर नियन्त्रण के कारण। मंदी के इस संकट से निजात पाने के लिये व पूंजीपतियो को बचाने के लिये ‘मुनाफ़ा निजी-घाटा सामाजिक’ का नारा देकर अमेरिकी साम्राज्यवाद समेत दुनिया भर के शासकों ने हज़ारों खरब डॉलर का ‘बेल आउट पैकेज’ पूंजीपतियों को दिया।इसी तर्ज पर भारतीय शासकों ने भी लगभग तीन लाख करोड़ रुपये का पैकेज पूंजीपति वर्ग को दिया। जैसे ही दावे किये जाने लगे कि अब संकट से मुक्ति मिल गयी है वैसे ही तत्काल मंदी का संकट फ़िर सामने आ गया। अब संकट स्थानान्तरित होकर सरकार तक पहुंच गया था।अर्थव्यवस्था की साख गिरने की संभावना बढ़ने लगी। इसी महंगाई, बेरोजगारी की विकराल होती समस्या ने अरब मुल्कों में पूंजावादी तानाशाही वाली हुकुमतों को उखाड़ फ़ैंकने को तीखा संघर्ष किया। संघर्ष की इस लहर ने भारत समेत पूरी दुनिया के पूंजावादी शासकों के दिलों में खौफ़ पैदा कर दिया। इससे निपटने व बचने के लिये सभी अपने-अपने स्तर पर अपने मुल्कों में तैयारी करने लगे। मंदी के संकट से उबरने के लिये साम्राज्यवादी मुल्कों ‘ऑस्टियरिटी पैकेज’ {कटौती कार्यक्रम} लागू कर रहे हैं।संकट का सारा बोझ इस नारे के नाम पर मजदूर मेहनतकश नागरिकों पर डालकर उनके जिन्दगी को तबाही की ओर ढकेला जा रहा है। इस कार्यक्रम के विरोध में ग्रीस,स्पेन,पुर्तगाल, इटली समेत साम्राज्यवादी मुल्कों में अवाम सड़कों पर उमड़ पड़ी जो कि अभी जारी है। इटली व ग्रीस की संसद को भी इस दौर में किनारे कर दिया गया जब जनता द्वारा चुने हुए प्रधानमत्रिंयो को साम्राज्यवादी मुल्कों के दबाव में हटाकर पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने उन पसंदीदा व्यक्तियों को इस पद पर बिठा दिया गया जो ‘ऑस्टियरिटी पैकेज’ को लागू करने के नग्न समर्थक थे। ‘नयी आर्थिक नीति’ को पूरी तरह लागू करने का दबाव साम्राज्यवादी मुल्कों ने भारतीय शासकों पर भी बनाया। खुद भारतीय पूंजापति वर्ग भी इसे अपने पूंजी के विस्तार के लिये शिद्दत से महसूस कर रहे थे। भारतीय पूंजीवाद भी शासकों के लाख दावों के बावजूद मंदी के संकट की गिरफ़्त में था अत: नये आर्थिक सुधारों के दूसरे बढ़े निर्णयों को लागू करने की दिशा में शासकों को बढ़ना ही पड़ा । नयी आर्थिक नीतियों का दूसरा चरण: अन्ततः वर्ष 2012 के सितम्बर माह में मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यू.पी.ए. सरकार नये आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने की दिशा में बढ़ ही गयी। मल्टी ब्रान्ड रिटेल सेक्टर में 51 प्रतिशत तो सिंगल में 100% प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को मंजूरी देकर इसे लागू करने की अधिसूचना जारी कर दी| इसके साथ ही उड्डयन, पॉवर एक्सचेन्ज, प्रसारण क्षेत्र व बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश को बढ़ाने की मंजूरी दी गयी। एमएमटीसी, सेल, हिंदुस्तान कॉपर, ऑयल इंडिया और नाल्को सहित सात सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के विनिवेश का फैसला भी लिया गया तथा ‘नये पेंशन बिल’ को लागू कर रही है। दूसरी ओर तेल पूल घाटे व सब्सिडी के नाम पर एल.पी.जी. (गैस) व डीजल के दामों को पूरी तरह से नियन्त्रणमुक्त करने की राह पर चल चुकी है जबकि पेट्रोल को तो नियनत्रण मुक्त कर ही चुकी है इनकी कीमत काफ़ी बढ़ायी जा चुकी है ।जबकि केन्द्र व राज्य सरकारें दोनो ने ही पिछले वर्ष लगभग सवा दो लाख करोड़ रुपये इनसे कर के रूप में वसूला गयाऔर तेल कम्पनियों ने भी जम कर मुनाफ़ा कमाया है।
निश्चित तौर पर बीते दो दशकों
की ही तरह देश के मजदूर, छोटे-मंझोले
किसानों समेत अधिकांश मेहनतकश अवाम अब और तेजी से तबाही-बर्बादी
की ओर बढ़ेगी। पिछ्ले दो दशक इसके गवाह हैं। रिटेल सेक्टर में अनुमानतः 4 करोड़ खुदरा व्यापारियों को रोजगार मिला है इस क्षेत्र में बड़ी पूंजी के
आने से शापिंग माल खुलने से निश्चित तौर पर अधिकांश धीरे-धीरे
तबाह होकर सर्वहाराकरण की ओर बढ़ेंगे। ऐसा वालमार्ट, केरिफोर,
टेस्को जैसे विशाल मगरमच्छों के आने से ही नहीं बल्कि रिलायन्स,
भारती, आई.टी.सी. जैसे देशी मगरमच्छों के कारण भी होगा। छोटे
मगरमच्छ तो हर शहर में हैं ही साथ ही नेटवर्किंग मार्केटिंग, इन्टरनेट व टी.वी. पर आनलाइन
मार्केटिंग है जो कि खुदरा बाजार से बिचैलियों का सफाया करने में लगी ही हुई है।
दुनिया में जहां जहां भी वालमार्ट जैसे मगरमच्छ पहुंचे हैं वहां-वहां खुदरा व्यापारियों के सफ़ाये के तथ्य उनके दुख:दर्द
को बयां करते हैं इन शॉपिगं मॉल में काम करने वाले कर्मचारियों का शोषण अब खुलकर
सामने आने लगा है साथ ही यह तथ्य भी कि एक बार बाजार में एकाधिकार कायम हो जाने के
बाद मालों की कीमत छलांग भरने लगती है। जिस वित्तीय क्षेत्र पर सरकारी नियन्त्रण के चलते भारतीय अर्थव्यवस्था
तत्काल मंदी की जद में आने से तब एक हद तक बची रही थी अब उस पर नियन्त्रण हटने से
यह जल्दी-जल्दी ही बड़े व गहरे संकट में धंस जायेगी। दूसरी ओर
अपनी ज़िन्दगी को सुरक्षित करने के लिये जनता द्वारा बैंकों व बीमा में जमा की जाने
वाली रकम तब कब वित्तीय धनकुबेरों के हाथ पड़कर स्वाहा हो जायेगा कहा नहीं जा सकता।
यही हश्र सरकारी कर्मचारियों के पेन्शन के साथ होने की संभावना है। पिछले
तीन दशक इस बात के भी गवाह हैं कि पूंजीवादी कानूनों को तोड़-मरोड़कर
किये जाने वाले भ्रष्टाचार की ही बात भी की जाय तो भी देश में तुलनात्मक तौर पर ‘भ्रष्टाचार’ बहुत तेजी से बड़ा है।नये आर्थिक सुधारों
के दौर में भ्रष्टाचार के बड़े से बड़े तथ्य उजागर हुए हैं।पूंजीवादी व्यवस्था का हर
अंग इसमें गोते लगा रहा है। ‘आदर्श सोसायटी घोटाला’,‘टू जी घोटाला’, के.जी.बालकृष्णन चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इन्डिया का भ्रष्टाचार में लिप्त होना, ‘कॉमनवैल्थ घोटाला’, ‘कोल घोटाला’ वगैरह-वगैरह ढेरों उदाहरण हैं। इसी दौर में
भ्रष्टाचार के नाम पर इसके विरोध में साम्राज्यवादी पूंजी व भारतीय पूंजीपति वर्ग
के सहयोग से ही अन्ना-केजरीवाल टीम द्वारा आन्दोलन खड़ा किया
गया है जो फ़ासीवादी रुझान लिये हुए अपने जनलोकपाल बिल को लागू कराने के नाम पर
पूंजीवादी जनवाद को भी खत्म कर देने की ओर अग्रसर है। यह शासक वर्ग का ही हिस्सा
बनते हैं।इसलिये यह भ्रष्टाचार के स्रोत पूंजीवाद पर भी हमला नहीं करते। नयी आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद समाज में पूंजीवादी उपभोक्तावादी
संस्कृति बहुत तेजी से फ़ैली है। समाज में
खुदगर्जी, असंवेदनशीलता बढ़ी है। असुरक्षा व अपराध विशेषकर
महिलाओं के मामले में काफ़ी ज्यादा बढ़ा है। पूंजीवादी उपभोक्तावाद के साथ सामंती
नैतिकता व मूल्य मान्यताओं को खूब प्रचारित-प्रसारित किया जा
रहा है। जिसका शिकार महिलाएं व मेहनतकश दलित हो रहे हैं। जनांदोलन एवं दमन:
नयी आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद पिछले दो-तीन दशकों में समाज में असंतोष अपेक्षाकृत काफ़ी तेज होने लगा है। मज़दूर
वर्ग अपने बढ़ते शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ़, ट्रेड युनियन अधिकारों व श्रम कानूनों को लागू करवाने के लिये जुझारू
संघर्ष कर रहा है वहीं शासक वर्ग भी उतना ही दमनकारी होता जा रहा है। वह नये-नये हथकण्डे अपनाकर आन्दोलनों को कुचलने की कोशिश कर रहा है।2005 में गुड़गांव के होण्डा कम्पनी में मज़दूरों का निर्मम दमन हरियाणा की
हुड्डा सरकार द्वारा किया गया। यही अब पिछले वर्ष शानदार एतिहासिक संघर्ष मारूती
सुजुकी के मज़दूरों द्वारा लड़ा गया लेकिन पूंजीपति वर्ग साजिश रच कर इस वर्ष इसे
दमन व धुर्तता से खत्म कर देने की ओर बढ़ा इसके बावज़ूद मारूति सुज़ुकी के श्रमिकों
का आन्दोलन अभी जारी है।ऐसे ही अन्य ढेरों उदाहरण हैं। प्राकृतिक संसाधनों की लूट
की खुली छूट के चलते मध्यभारत देशी-विदेशी पूंजीपतियों का
चारागाह बना हुआ है। यहां सदियों से रह रहे आदीवासी इस प्रक्रिया में अपने जीवन
यापन के स्रोत के ध्वस्त होने व विस्थापन के खिलाफ़ संघर्षरत हैं लेकिन विकास
विरोधी ठहराकर यहां ऑपरेशन ग्रीन हण्ट के तहत एक लाख अर्धसैनिक बलों के संगीनों की
नोक पर इस प्रतिरोध को खत्म कर देने की ओर बढ़ रही है।बलात्कार, हत्याएं व फ़र्जी मुठभेड़ यहां आम बात है। जमीन अधिग्रहण के खिलाफ़ नन्दीग्राम,सींगूर से लेकर
भट्टा पारसोल व टप्पल तक हर जगह किसानों ने इसके खिलाफ़ भिन्न मांगों को रखते हुए
जबर्दस्त प्रतिरोध किया हर जगहों पर आन्दोलन का निर्मम दमन किया गया। लाठी-गोली-फ़र्जी मुकदमे की यही भाषा न्यूक्लियर प्रोजेक्ट
व संयन्त्रों के विरोध में चलने वाले संघर्षों के साथ भी दोहरायी गयी। कुडनकुलम
में तो आन्दोलन को खत्म करने के लिये लगभग 55000 लोगो पर
देशद्रोह के मुकदमे ठोक दिये गये। यही हश्र देश में चल रहे रोजगार, महंगाई सहित अन्य जनवादी संघर्षों के साथ होता है।उत्तर प्रदेश की राजधानी
लखनऊ में आज से लगभग 6 वर्ष पहले रोडवेज कर्मियों के निजीकरण विरोधी आन्दोलन का दमन किया गया तथा 12 वर्ष
पहले निजीकरण के खिलाफ़ विध्युत विबाग के कर्मचारियों के जुझारू आन्दोलन को कुचल
दिया गया। राज्यों की राजधानी में प्रशिक्षित बेरोजगारों के प्रदर्शनों पर अब
लाठियां चलाना आम बात हो गयी है शिक्षा मित्रों पर क्या तो देहरादून क्या लखनऊ
क्या अन्य जगहों पर, सब जगह लाठियां से उनका स्वागत किया गया
हैं। इस सबके बावज़ूद भारतीय शासक दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने के दावे
बेशर्मी से अभी भी कर ही रहे हैं यही सही भी है क्योंकि पूंजीवादी लोकतंत्र में
यही होता भी है कि सारे विशेषाधिकार तो
पूंजीपति वर्ग को होते हैं आम मेहनतकश नागरिकों के अधिकार तो उनको अमल में लाते ही
लाठी-गोली-फ़र्जी मुकदमे-जेल में तब्दिल हो जाते हैं। दमन के
और पुख्ता इन्तजाम शासकों द्वारा किये जा रहे हैं काले कानूनों को लागू करके,
इन्हें संशोधित करके व इन्हें और खतरनाक बनाकर यह किया जा रहा है
साथ ही साथ दमन तन्त्र को और मजबूत किया जा रहा है एन.सी.टी.सी. जैसी संस्था खड़ी करके,
बॉर्डर सिक्योरिटी बिल लाकर बी.एस.एफ़ को देश में कहीं भी घुसने व पुलिस अधिकार देने तथा पुलिस को और ज्यादा
अधिकार देकर पुलिस राज कायम करने की कोशिश कर यह सब किया जा रहा है भविष्य में
पैदा होने वाले भीषण जनप्रतिरोध के डर से यह किलेबन्दी की जा रही है। दमन की यह इबारत वैश्विक स्तर पर चल रहे प्रतिक्रियावाद व दमन को ही
दिखाता है। अभी हाल ही दक्षिण अफ़्रिका में खनन मज़दूरों की हड़ताल पर पुलिस ने
गोलियां चलाकर 34 मजदूरों की हत्या कर दी गयी थी इसके बाद इस
घटना पर घड़ियाली आंसू बहाते हुए दक्षिण अफ़्रिकी सरकार ने राष्ट्रीय शोक भी घोषित
कर दिया था। ग्रीस, स्पेन, पुर्तगाल से
लेकर अमेरिका तथा अरब मुल्कों में तो जनसंघर्षों का सैलाब व दमन साथ-साथ चल ही रहे हैं। संघर्ष का रास्ता : कुलमिलाकर
नयी आर्थिक नीतियों को लागू करने के बाद भारतीय समाज में तेजी से ध्रूवीकरण बढ़ रहा
हैएकतरफ़ सम्पन्नता,ऐश्वर्य सुख-सुविधाओं
का अम्बार है तो दूसरी तरफ़ है कंगाली, दरिद्रता व
अपमान।इसमें पहला शाइनिंग इन्डिया के नारे का उद्घोष करता है। इसकी तादाद मुट्ठी
भर है। विकास की इस
प्रक्रिया में छोटी पूंजी व छोटी सम्पत्ति बाजार के जरिये छिनकर बड़ी पूंजी व
सम्पत्ति में विलीन होती जा रही है व उनहें कंगाली की ओर धकेल रही है मज़दूरों की
पातों में भेज रही है। जबकि दूसरी ओर सम्पत्ति व पूंजी मुट्ठी भर हाथों में सिमटती
जा रही है पूंजीपति वर्ग को और मालामाल कर रही है। यही पूंजी की गति है अपने जन्म
से अब तक यह यही करते आ रही है इसीलिये पूंजी के बारे में यह कहा जाता है कि यह
सिर से पैर तक रक्त में सनी हुई है। इसके साथ दूसरी ओर यह पूंजी व सम्पत्ति के
केन्द्रीकरण को बढ़ाती जाती है व उत्पादन का समाजीकरण करती जाती है दूर-दूर फ़ैली आबादी व इसके अलगाव-जड़ता को खत्म करते जाती
है तथा समाजवाद के लिये पूर्वपीठिका तैयार करते जाती है। अब यही रिटेल क्षेत्र में भी होना है खुदरा व्यापारियों के अधिकांश हिस्से
की पूंजी व सम्पत्ति को बड़ी पूंजी धीरे-धीरे निगलते हुए
तबाही की ओर धकेलेगी वहीं यह उत्पादन व विपणन को और ज्यादा संगठित कर देगी। इस
प्रकार दुनिया के स्तर पर मालों के उत्पादन व
उसे उपभोक्ता तक पहुंचाने की गतिविधि को नियन्त्रित करना निर्देशित करना
बेहद आसान हो जायेगा। दूसरे रूप में कहा
जाय तो यह कि देश के भीतर नीतियों को तय करने में आम नागरिकों का कोई हस्तक्षेप
नहीं हैं अपनी जिन्दगी से जुड़े मुद्दों पर भी वो कोई फ़ैसला नहीं ले सकते ।मेहनतकश
नागरिकों को मिले बेहद सीमित अधिकारों के दम पर ही यह स्थापित करने की कोशिश की
जाती है यह जनता का शासन है। जिस संसद को देश की सर्वोच्च संस्था घोषित किया जाता
है और जिसके बारे में कहा जाता है कि वह जनता की आवाज को अभिव्यक्त करती है उसकि
हकीकत यह है कि उस संस्था में उध्योगपति विराजमान हैं आधे से ज्यादा सांसद तो
इसमें अरबों खरबों के मालिक हैं यही हाल विधान सभाओं के हैं। इन चुने हुए
प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार तक आम नागरिकों को नहीं है।ये जनता के
प्रतिनिधि होने का दावा करने वाले जनता से इतनी दूर रहते हैं कि जनता की इन तक
पहुंच चुनाव के अलावा अन्य मौकों असम्भव हो जाती है। न्यायपालिका व कार्यपालिका
में तो जनता का हस्तक्षेप हो नियन्त्रण हो इस पर तो बात करना भी जैसे गुनाह हो।
यही हाल ‘जनमत संग्रह’ का है किसी भी
बड़े मुद्दे पर फ़ैसला जनमत संग्रह से लिया जाय
और जिस मुद्दे पर जनमत संग्रह हो उसके सभी पहलुओं पर खुल कर अपनी राय रखने
का अधिकार हो ऐसा शासक चाहते ही नहीं। लेकिन अब खामोश रहने का वक्त नहीं है अब वह
दौर है जहां हमें कहना होगा व लड़ना होगा कि देश के आर्थिक व राजनीतिक भविष्य को
देश की दिशा तय करने वाले मुद्दे पर व आम अवाम से जुड़े सवालों के सन्दर्भ में नीति
बनाने से पहले ‘जनमत संग्रह’ करवाया
जाय। तथा जनता की भागेदारी बढ़ाने,हर स्तर पर जनता का
नियन्त्रण व हस्तक्षेप हो इस बात के लिये संघर्ष करने की जरूरत है। द्वारा केन्द्रीय कार्यकारिणी क्रान्तिकारी लोक अधिकार
संगठन date:
17-11-2012
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