Sunday, 20 May 2018

सेमिनार पेपर

                             सेमिनार पेपर
  
               मेहनतकशों ,दलितों, अल्पसंख्यकों व जनवादी ताकतों पर बढ़ते फासीवादी हमले
     
                आज देश का वह हर नागरिक जो भी न्याय, अमन व जनवाद की बात करता है; संवैधानिक अधिकारों की बात करता है ; वंचित ,शोषित व दमित नागरिकों , समूहों व वर्गों के पक्ष में आवाज उठाता है संघर्ष करता है ; सत्ता व सरकारों की नीतियों व नीयत पर सवाल दर सवाल खड़े करता है वह साफ साफ महसूस कर सकता है देख सकता है कि बीते 4 सालों में देश का राजनीतिक परिदृश्य काफी बदल गया है कि देश  जिस राजनीतिक दिशा की ओर बढ़ रहा है वह देश के मज़दूर मेहनतकश नागरिकों, वंचित व दबे कुचले समूहों के लिये आसन्न गंभीर खतरे की आहट है। यह गंभीर खतरा देश के पूंजीवादी लोकतंत्र से फासीवाद की ओर बढ़ने का है एक खूनी आतंकी तानाशाही की ओर बढ़ने का है। यह वही खतरा है जिसे बीसवीं सदी के तीसरे-चौथे दशक में विशेषकर यूरोप के मुल्कों ने झेला था जिसे आज हम नाज़ीवाद व फासीवाद से जानते हैं। देश में मौजूद इन फासीवादी ताकतों का मुख्य औजार 'कट्टर व उग्र हिंदुत्व' 'मुस्लिम विरोध', 'अंधराष्ट्रवाद'  व 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' है।
               जहां तक दमन का सवाल है ! ऐसा नहीं कि दमन पिछली सरकार या कांग्रेस के दौर में न हुआ हो!  कोई ऑपरेशन ग्रीन हंट को कैसे भूल सकता है ? 18 माह के इंदिरा गांधी के दौर के आपात काल को कैसे भुला सकता है ? आज़ाद भारत में एक ही दिन में 55 हज़ार लोगों पर मुकदमा दर्ज कर 8000 लोगों पर राजद्रोह का मुकदमा यू पी ए-2 के ही काल में लगा था। दमन के ऐसे ही अनगिनत उदाहरण भरे पड़े है लेकिन फ़िर भी कहना ही होगा कि 16 मई 2014 के बाद राजनीतिक दिशा व देश में माहौल बहुत तेजी से बदला है। पिछले समय विशेषकर 4 सालों की बात करें तो देश में मज़दूर वर्ग, मेहनतकशों, दलितों, अल्पसंख्यकों विशेषकर मुस्लिमों पर हमले बहुत तेजी से बढ़े हैं। एक ओर 90 के दशक की नवउदारवादी नीति (निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण) का हमला बहुत तेज गति से आगे बढ़ा है नोटबंदी व जी एस टी की मार से जनता का बहुत बड़ा हिस्सा अभी भी कसमसा रहा है तो दूसरी ओर अंधराष्ट्रवाद के उन्माद में "देशभक्ति" का पैमाना बदलकर विरोधियों को "देशद्रोही" घोषित कर हमले किये जा रहे हैं।
                  यदि घटनाओं की बात की जाय तो तस्वीर ज्यादा साफ हो जाएगी। गुजरात जो कि फासीवादी शक्तियों का गढ़ रहा है वहां 2016 में गौरक्षा के नाम पर हमले बढ़ गए। गाय को शुद्ध व पवित्र घोषित कर इसकी रक्षा का नारा भाजपा व संघ परिवार के साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का औजार है जिसके निशाने पर मुस्लिम हैं। चुनावी राजनीति में वोट के लिए 'हिन्दू राष्ट्र' के पैरोकारों, जातिव्यवस्था को आदर्श मानने वालों को अम्बेडकर प्रेम या दलित प्रेम का दिखावा करना पड़ता है लेकिन इनके हमले का निशाना दलित भी बनने ही थे। यह गुजरात के ऊना में जानवरों का चमड़ा निकालने वाले 4-5 दलितों के साथ बहुत बुरी तरह मारपीट करने व उनके बीच दहशत फैलाने के लिए मारपीट की वीडियो को प्रचारित करने के रूप में प्रकट हुआ। इस दौरान भाजपा सरकार बेशर्मी के साथ मार पीट करने वाले गौरक्षक दलों के साथ खड़ी रही।
                  ज्यादा दूर व अन्य घटनाओं की चर्चा ना भी करें और सहारनपुर के शबीरपुर में मेहनतकश दलितों पर हुए बर्बर व कातिलाना हमले को ही लें। मई 2017 में महाराणा प्रताप जयन्ती मनाने वाली राजपुताना सेना ने सुनियोजित तरीके से शबीरपुर गांव में तकरीबन 50 घरों में हथियारों के साथ हमला कर दिया जिसमें 8-9 दलितों को गंभीर चोटें आई। तकरीबन 50 घरों में आग लगा दी गई। इसके बाद मेहनतकश दलित नौजवानों ने प्रतिरोध दर्ज करते हुए न्याय के लिए उग्र संघर्ष किया तो इस संघर्ष का बर्बर दमन किया गया। कोई आंदोलन खड़ा न हो सके इसके लिए पुलिसिया व भगवा आतंक के दम पर फर्जी मुकदमे व गिरफ्तारियां कर खौफ व दहशत का माहौल कायम किया गया। इस संघर्ष की अगुवाई करने वाले भीम आर्मी के युवाओं में से एक चन्द्रशेखर को आज भी फर्जी मुकदमे लगाकर जेल में रखा गया है। योगी -मोदी की संघी सरकार का फासीवादी रुख इन्हें सबक सिखाने का है। यही हो भी रहा है। एस सी-एस टी एक्ट में कोर्ट द्वारा बदलाव कर इसे कमजोर करना भी परोक्ष तौर पर फ़ासीवादी आंदोलन के आगे बढ़ने का ही सूचक है इसके विरोध में 2 अप्रैल के भारत बंद व इसके बाद ख़ासकर भाजपा शासित राज्यों का रुख योगी की तर्ज पर प्रदर्शनकारियों को सबक सिखाने व इनमें दहशत कायम करने का ही है।
          एक ओर दलित तो दूसरी ओर मुस्लिम समुदाय के खिलाफ भी गौरक्षक दस्तों का आतंक इस दौरान बढ़ा। वैसे भी संघ के 'हिन्दू राष्ट्र' की फ़ासीवादी संकल्पना में अल्पसंख्यक दोयम दर्जे के हैं जिन्हें अधिकारहीनता की स्थिति में जीना होगा। इनके इस फ़ासीवादी मंसूबों के निशाने पर विशेषकर मुस्लिम शुरू से ही रहे हैं। केंद्र की सत्ता में बहुमत से पहुंचने के बाद स्पष्ट था कि मुस्लिमों पर हमले बढ़ते। अब उत्तर प्रदेश के दादरी में सुनियोजित तरीके से अखलाक की हत्या कर इनके बीच दहशत कायम की गयी। यहां भाजपा नेता की अगुवाई में लोगों को एकजुट किया गया। फ़िर अखलाक़ के घर में गौमांस होने की अफवाह फैलाकर अखलाक़ की हत्या कर दी गई। अब संविधान को व्यवहार में खत्म कर फासीवादी यहां अपनी जीत का जश्न मनाने के लिए फिर अगले घृणित कारनामों की ओर बढ़ गये।
          यूं तो संविधान में हर नागरिक को अपने संस्कृति व धर्म को मानने की आज़ादी है इसके हिसाब से खान पान व रहन सहन की आज़ादी है मगर संघ परिवार इसके खिलाफ बहुत सुनियोजित तरीके से अफवाह एवं फर्जी तथ्यों से बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय में मुस्लिमों के खिलाफ नफरत का बीजारोपण करता रहा है इसीलिए यह संभव हो सका कि एक तरफ गौमांस के नाम पर अख़लाक़ की हत्या होती है तो दूसरी ओर लम्पट फ़ासीवादी तत्व पहनावे के चलते भी मुस्लिमों को अपना निशाना बना देते हैं । एक तरफ़ राजस्थान में गौपालन कर दूध बेचने वाले मुस्लिम पहलू खान की हत्या कर दी जाती है तो दूसरी ओर राजस्थान में ही अवैध संबंधों में रुकावट बन जाने पर शम्भू लाल रेंगर द्वारा एक मज़दूर मुस्लिम अफराजुल की हत्या कर दी जाती है । इसी शम्भू लाल रेंगर को फासीवादियों ने रामनवमी में अपना स्थानीय हीरो बना दिया। यू पी की योगी सरकार ने इसी फासीवादी रुख के चलते अवैध स्लॉटर हाउस को बंद करने के नाम पर मेहनतकश मुस्लिमों पर परोक्ष तौर से हमला बोल दिया। यही स्थिति फर्जी एनकाउंटर के मसले पर भी है। साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को या सही कहा जाय तो फ़ासीवादी आंदोलन को नई ऊंचाई तक पहुंचाने के लिए 'तीन तलाक', 'राम मंदिर', धारा 370 जैसे मुद्दे भी लगातार ही फ़ज़ाओं में उछाले जाते रहे हैं। आलम यह है कि केरल के हादिया प्रकरण को "लव जिहाद" का मुद्दा बनाकर इसमें केंद्र की संघी सरकार ने एजेंसी एन आई ए को ही लगा दिया।
                     शिक्षा व संस्कृति को अपने फ़ासीवादी एजेंडे के हिसाब से ढालने के लिए संघ परिवार के हर जतन हो रहे हैं। इसलिए कॉलेज भी फासीवादियों से इस टकराहट का अखाड़ा बन रहे हैं। विश्विद्यालयों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों व शोधार्थियों पर मोदी सरकार का हमला बढ़चढ़कर हो रहा है। यह हमला मोदी, मोदी सरकार की नीतियों व संघ परिवार की आलोचना करने वालों को फ़ासीवादी ताकतों का जवाब है। हमले का यह सिलसिला चेन्नई के आई आई टी कॉलेज में 'अम्बेडकर-पेरियार' स्टडी सर्किल(ए पी एस सी) ग्रुप पर हमले के रूप में हुआ। इस ग्रुप को संघ के विद्यार्थी संगठन की शिकायत पर मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा जारी पत्र के आधार पर कॉलेज प्रशासन ने प्रतिबंधित कर दिया। इनका कसूर सिर्फ इतना था कि इन्होंने एक पर्चा जारी किया था जिसमें साम्प्रदायिकता व कॉरपोरेट घरानों के गठजोड़ पर हमला करते हुए मोदी सरकार को आम जनता के लिए खतरनाक बताया था। संघ परिवार व मोदी सरकार का दूसरा निशाना बना हैदराबाद यूनिवर्सिटी का अंबेडकर स्टूडेंट एसोसिएशन। इनके घृणित हथकण्डे ने इस एसोसिएशन से जुड़े छात्र रोहित वेमुला को आत्महत्या के लिए मजबूर कर दिया ।
                   जवाहर लाल नेहरू विश्विद्यालय के मामले में तो संघ परिवार ने लगातार ही अपने घृणित हमले जारी रखे। मीडिया, पुलिस व सरकारी मशीनरी का इनमें जमकर इस्तेमाल किया गया। फ़र्ज़ी वीडियो बनाकर अपने लोगों के जरिये फ़ासीवादियों ने जे एन यू को देश द्रोहियों का अड्डा घोषित कर दिया। कोर्ट में भी संघी वकीलों द्वारा पेशी पर ले जाये जा रहे जे एन यू छात्रों पर हमला किया गया। एफ़ टी टी आई के छात्रों पर किये गए हमले से हम रूबरू ही हैं। फासीवादियों के ये कारनामे इनके जनवादी व संवैधानिक अधिकारों पर खुले आम हमले थे। इस दौर में हरियाणा, इलाहाबाद कॉलेज में भी फासीवादी ताकतों ने हमला किया। मामला यही नहीं रुका। बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में छात्र-छात्राओं पर रात के अंधेरे में मोदी-योगी की संघी सरकार ने लाठी चार्ज करवा दिया। यहां छात्राओं ने छेड़खानी के विरोध में यूनिवर्सिटी के संघी वाइस चांसलर से मुलाकात कर अपनी मांगें उनके सम्मुख रखनी चाही थी लेकिन संघी मानसिकता के वाइस चांसलर ने मुलाकात से मना कर दिया व मांगो को कोई तवज्जो नहीं दी। इसके बजाय इन्हें सबक सिखाने के लिए दमन का रास्ता चुना गया। लाठीचार्ज के बाद 1200 छात्र-छात्राओं पर फर्जी मुकदमे दर्ज कर दिये गए। यह घटना मोदी-योगी की संघी सरकार के स्त्री विरोधी चरित्र को भी दिखलाता है। स्त्री-पुरुष की सामाजिक असमानता को भी धूर्त संघी प्राकृतिक ही बताते हैं।
                      संघ परिवार अपनी जहनियत में तार्किक व वैज्ञानिक चिंतन का भी विरोधी है।  खुद प्रधानमंत्री ने वैदिक जमाने में गणेश का हवाला देकर प्लास्टिक सर्जरी होने का दावा किया था। आम तौर पर आम अवाम को अतार्किक व मूढ़ बनाये रखना शासक वर्ग के हित में होता है। इसी बात को समझते हुए फ़ासीवादी इतिहास परिवर्तन की परियोजना पर तेजी से काम कर रहे हैं जिसका मकसद अपने इसी हिन्दू फ़ासीवादी एजेंडे को दीर्घकालिक तौर पर आगे बढ़ाना है। इसलिए प्रगतिशील व तर्कपरक चिन्तन पर जोर देने तथा अन्धविश्वास निर्मूलन के लिये काम करने वाले वाले डॉक्टर कलबुर्गी की हत्या कर दी गई। वहीं गोविंद पंसारे जो कि ट्रेड यूनियन संघर्ष के मोर्चे पर लगातार सक्रिय थे। गोविन्द पंसारे ने संघी फासीवादियों को शिवाजी के मसले पर बेनकाब करने के लिए किताब भी लिखी थी। इनकी हत्या भी एक रोज़ कर दी गयी। गौरी लंकेश जो कि संघी फासीवाद के खिलाफ लगातार अपने लेखन के जरिये हमले कर रही थी उन्हें भी यू पी के मुख्यमंत्री योगी की भाषा में "ठोक" दिया गया। खौफ का माहौल यूं बन गया कि तमिलनाडु के लेखक पेरुमाल मुरुगन को लेखक के रूप अपनी मौत की ही घोषणा करनी पड़ी। हिटलर के फासीवादी दस्ते इस ढंग से हत्या करते थे कि फिर लोगों के बीच खौफ व दहशत कायम हो जाये। यही तरीका फासिस्टों के भारतीय संस्करण का भी है।
                      देश में बढ़ती असहिष्णुता के खिलाफ पुरस्कार वापसी आंदोलन को "मज़ाक़" में तब्दील कर इन पर अपना फ़ासीवादी हमला फ़ासीवादियों ने निरंतर जारी रखा। किसानों के आंदोलनों का निर्मम दमन राजस्थान व मध्य प्रदेश में किया गया। पुलिस की गोली से कुछ किसान मारे भी गए। मज़दूर वर्ग के ट्रेड यूनियन आंदोलनों पर इनके हमले बदस्तूर जारी हैं। श्रम कानूनों व ट्रेड यूनियन एक्ट में बदलाव कर मज़दूर वर्ग पर बढ़ा हमला बोलने की तैयारी चल ही रही है।
                      कुलमिलाकर आज़ादी के बाद एक लंबे वक्त तक हाशिये पर पड़ा यह फ़ासीवादी आंदोलन आपात काल के दौर में इसके विरोध की आड़ में अपना विस्तार करता है फिर 80 के दशक के बाद नवउदारवादी नीतियों(निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण) के समानांतर इसका फैलाव होने लगता है। इन नीतियों को लागू करवाने के दौर में 'राम मंदिर' का आंदोलन खड़ा कर ये अपना विस्तार करते हैं। इसी के बाद पहले ये कुछ राज्यों में अपनी सरकार बनाने में सफल होते हैं फिर बाद में बाजपेयी की अगुवाई में एन डी ए की सरकार बनाने में कामयाब हो जाते हैं। फिर स्थितियां ऐसी बनती हैं कि 2014 आते आते ये बहुमत से सत्ता पर पहुंच जाते हैं। तब से चार साल गुजर चुके हैं। अब ये गुजरे चार साल देश में फ़ासीवादी आंदोलन के ज्यादा तेजी से निरंतर आगे बढ़ने के साल हैं इन चार सालों में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के जरिये आगे बढ़ रहा यह फ़ासीवादी आंदोलन आज उत्तराखण्ड के शांत माने जाने वाले पहाड़ी इलाकों से लेकर बंगाल,केरल तक फैल चुका है।
                     ये चार साल देश के पूंजीवादी संविधान के और ज्यादा कमजोर होते जाने के साल भी हैं साथ ही सीमित जनवादी व संवैधानिक अधिकारों की खुले आम धज्जियां उड़ाये जाने व इन्हें रौंदने के साल भी हैं। ये चार साल देश की सत्ता के बढ़ते केन्द्रीकरण, संसद में मंत्रीमंडल की भूमिका को बेहद कमजोर कर देने व जन मतों से नहीं चुनी जाने वाले प्रधानमंत्री कार्यालय के सर्वोच्च निकाय के बतौर सामने आने के साल हैं। न्यायालय, चुनाव आयोग व रिजर्व बैंक की स्थिति किसी से छुपी हुई नही है। न्यायालय के 4 जजों की प्रेस कॉन्फ्रेंस इनके न्यायपालिका में बढ़ते शिकंजे के विरोध की ही एक अभिव्यक्ति थी। अब देश की हर तरह की संवैधानिक संस्थाओं में फ़ासीवादी तत्त्वों की घुसपैठ हो चुकी है। पूंजीवादी लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहलाने वाला मीडिया इनके स्तुतिगान में लगा हुआ है साथ ही यह साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को आगे बढ़ाने का साधन बन चुका है जबकि इनका विरोध करने वाले पत्रकारों की आवाज़ खामोश कर दी जा रही है।
                     इस फ़ासीवादी आंदोलन के निशाने पर देश का मज़दूर वर्ग व देश के मेहनतकश दलित, मेहनतकश अल्पसंख्यक विशेषकर मुस्लिम हैं। इनके निशाने पर वह हर नागरिक है जो सरकार की नीतियों पर व नियत पर सवाल करता रहा है इनकी आलोचना करता है।
                    स्पष्ट है कि फ़ासीवादी ताकतों के सत्ता में बने रहने पर ये घृणित हथकंडे व हमले इनके बेनक़ाब होने के साथ साथ बहुत तेजी आगे बढ़ते जाएंगे। उत्तर प्रदेश में योगी की ताजपोशी के साथ साथ राम मंदिर रथ यात्रा इसी फ़ासीवादी आंदोलन को 2019 के लिए नई ऊंचाई पर पहुंचाने की ही चाहत है। जहां तक इन्हें परास्त करने का सवाल है यह ध्यान रखना ही होगा कि फ़ासीवादी ताकतों के सत्ता पर बने रहने को केवल मोदी-शाह, भाजपा या फिर संघ परिवार तक सीमित कर देने से कोई फासीवाद विरोधी आंदोलन विशेष सफलता हासिल नही कर सकता। यदि हम गौर करें तो तस्वीर ज्यादा साफ हो जाएगी। 2007-08 से ही वैश्विक अर्थव्यव्यथा आर्थिक संकट की चपेट में है। तब अमेरिका से शुरू हुए सब प्राइम संकट ने धीरे धीरे पूरी दुनिया को अपनी जद में ले लिया था। हज़ारों अरब डॉलर का बेल आउट पैकेज तब संकट के लिए जिम्मेदार वित्तीय संस्थाओं को किया गया। यही तरीका अन्य देशों के पूंजीवादी हुक्मरानों के लिए भी नज़ीर बन गया। भारत इस संकट से कुछ हद बचा रहा तो इसकी बड़ी वजह बैंकिंग व बीमा कंपनियों का सरकार के नियंत्रण में होना था। इस आर्थिक संकट के दौर में ही हमने ट्यूनीशिया से लेकर मिश्र में जन संघर्षों की लहरें देखी। यही वो दौर भी है जब अमेरिका से लेकर यूरोप में भी भांति भांति के आंदोलन खड़े हो गए। ऑक्युपाई वाल स्ट्रीट, अमेरिका के विस्कोसिन प्रांत में मज़दूर वर्ग का जुझारू संघर्ष, ब्रिटेन के छात्रों का जबरदस्त प्रदर्शन, चीली, ब्राज़ील, चीन, स्पेन,ग्रीस ,फ्रांस में जन संघर्ष । मिश्र के जन सैलाब में मज़दूर वर्ग अग्रिम कतारों में खड़ा था। दक्षिण अफ्रीका के प्लेटिनम खदानों के मज़दूरों का संघर्ष, चीन के मज़दूर वर्ग का जुझारू संघर्ष जिससे चीन के मज़दूर वर्ग ने कुछ वेतन वृद्धि करने में सफलता हासिल की। खुद भारत में मारुति सुज़ुकी के मज़दूरों का आंदोलन ऐतिहासिक बन गया। इसके अलावा भी मज़दूर वर्ग समेत देश में अन्य तबकों के भी संघर्ष हुए। भूमि अधिग्रहण के खिलाफ जुझारू संघर्ष देश में हुए। ये सभी संघर्ष अपनी बारी में पूंजी के आक्रामक होते जाने का जवाब थे।
                      यह संकट व संघर्ष तात्कालिक रूप में पिछली सदी के सत्तर के दशक से वैश्विक स्तर पर लागू की गयी नवउदारवादी नीतियों की ही अभिव्यक्ति थे। इन नीतियों ने मज़दूर मेहनतकशों की तबाही बढ़ाई है असमानता को बढ़ाया है। इन नीतियों को तब के दौर के वैश्विक आर्थिक ठहराव से निपटने के नाम पर पूंजी के मुनाफे को बढ़ाने के लिए लाया गया था। यह तब पूंजी के फिर से आक्रामक होने का दौर था। अब 2007-08 में वैश्विक पूंजीवादी आर्थिक संकट उपस्थित होने पर पूंजी का हमला ज्यादा तीव्र हो गया। अब एक दौर में समाजवादी दुनिया के दबाव में कल्याणकारी राज्यों के चलते जनता को व मज़दूर वर्ग को जो कुछ भी हासिल हुआ था अब उन पर तीखे हमले का दौर था। अब एक ओर पूंजीवादी शासकों ने "कटौती कार्यक्रम" के जरिये जनता पर आर्थिक रूप में हमला बोला तो दूसरी तरफ अपनी राजनीति में उसने दक्षिणपंथी फासीवादी ताकतों को आगे कर दिया। आज समूची दुनिया की यही स्थिति है। भारत भी इसी पूंजीवादी दुनिया का ही हिस्सा है यही स्थिति यहां भी है। देश के भीतर इस दौर में भारतीय एकाधिकारी पूंजी का कांग्रेस पर लगातार नई आर्थिक नीतियों को तेजी से लागू करने का दबाव था। कांग्रेस चाहते हुए ऐसा नहीं कर पा रही थी। यही वजह थी कि एकाधिकारी पूंजी के एक मालिक टाटा को कहना पड़ा कि कांग्रेस सरकार 'पालिसी पैरालीसिस' की शिकार है। अब कांग्रेस के 'राजनीतिक व नैतिक प्राधिकार' को ध्वस्त करने के लिए फ़ासीवादी 'अन्ना व केजरीवाल' कम्पनी का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन खड़ा कर दिया गया था। भ्रष्टाचार की इसी गंगोत्री में अब भाजपा व मोदी गोते लगा रहे हैं फिर भ्रष्ट विपक्षियों के भी कुछ पतित लोग इसमें नहाकर 'ईमानदार व पवित्र' हो जा रहे है।
                     खैर! अब एक ओर नई आर्थिक नीतियों को तेजी से आगे बढ़ाने तो दूसरी तरफ जनांदोलनों से बेदर्दी से निपटने की चाहत पूंजीपति वर्ग की थी । एकाधिकारी पूंजी के हिसाब से अब वह वक़्त क़रीब आ पहुंचा था जब कि एक वक्त तक पाले पोसे गये फासीवादी ताकतों की केंद्रीय सत्ता पर ताजपोशी हो। गुजरात मॉडल को व उसके नायक को खड़ा कर उसे भली भांति देख लेने के बाद 2014 में यह ताजपोशी भी सम्पन्न हो गई। इसलिए कहना होगा कि फासीवादी ताकतों  को सत्ता पर बिठाने का असली दारोमदार एकाधिकारी पूंजी के हाथ में है। 16 मई 2014 के बाद की स्थिति अब स्पष्ट है। अब एक ओर आर्थिक क्षेत्र में मज़दूर वर्ग के शोषण को अत्यधिक बढ़ाने के लिए श्रम कानूनों व ट्रेड यूनियन कानूनों पर हमले हो रहे हैं आम जन को मिलने वाली चंद सुविधाएं व सब्सिडी हर क्षेत्र में खत्म हो रही हैं। बैंकों के 8-10 लाख करोड़ रुपये के गैर निष्पादित परिसंपत्तियों (एन पी ए) को बट्टे खाते में डालने व 2 लाख करोड़ रुपये का बेल आउट करने के साथ ही अब 'बेल इन' की योजना भी बन रही है जिसमें बैंक के दिवालिया होने की स्थिति में इनमें जमा जमाकर्ताओं की पैसे को रोक लिया जाएगा। दूसरी ओर राजनीतिक हमले के रूप में अब तक का सबसे मजबूत फ़ासीवादी आंदोलन हमारे सामने है। यह एक ओर 'आधार' के जरिये निगरानी तंत्र खड़ा कर चुका है तो वहीं दूसरी ओर विरोधी वर्ग व तबकों के आंदोलन का धूर्तता से दमन कर रहा है ।
                   जहां तक फ़ासीवाद के सम्बन्ध में अतीत की बात है। बीसवीं सदी के तीसरे व चौथे दशक में जर्मनी, इटली, स्पेन, पुर्तगाल व हंगरी आदि में फ़ासीवादी सत्ताओं के उभार को हम जानते हैं। यह वह दौर है जब इस सदी के पहले दशक में मंदी व फिर पहला विश्व युद्ध हुआ था। इस विश्व युद्ध के दौर में ही साम्राज्यवादी रूस में क्रांतिकारी बदलाव हो गया था। तब समाजवादी रूस वज़ूद में आ गया था जो मज़दूर मेहनतकशों का अपना राज्य था। इस क्रांति की लहर यूरोप के अन्य मुल्कों को अपनी चपेट में लेने की ओर बढ़ गई थी। तब इटली में क्रांतिकारी लहर से निपटने के लिए प्रतिक्रियावादी वित्त पूंजीपतियों ने फ़ासीवादी मुसोलिनी व उसके फ़ासिस्ट दस्ते को सत्ता सौंप दी। यही स्थिति दूसरे विश्व युद्ध से पहले के 'महामंदी' के दौर में बन गयी जब जर्मनी के थाइसेन व क्रुप्स जैसे एकधिकारी वित्तपतियों ने नाजीवादी हिटलर व उसकी पार्टी को सत्ता पर पहुंचा दिया। इसके बाद फासीवाद ने हिंसा, उन्माद, खूनी आतंक की घृणित व बर्बर मिसालें क़ायम की थी। यह सोवियत रूस की मज़दूर सत्ता ही थी जिसने फ़ासीवाद को तब परास्त किया था जिसे तब परास्त किया जा चुका था आज उसका खतरा फिर से हमारे सामने है। 
                 आज वैश्विक मंदी के जमाने में एक ओर दुनिया में दक्षिण पंथी व फ़ासीवादी तत्वों के उभार दिख रहे हैं तो दूसरी ओर खुद हमारे देश में अब तक का सबसे मजबूत फासीवादी आंदोलन हमारे सामने है। अम्बानी,अडानी,टाटा आदि जैसी बड़ी एकाधिकारी पूंजी का हाथ अब मोदी-शाह, भाजपा व संघ परिवार की पीठ पर है। लंबे वक्त तक कांग्रेस ने इस पूंजी के हितों को आगे बढ़ाया है लेकिन आर्थिक संकट के दौर में एकाधिकारी पूंजी की बेचैनी व अधैर्य ने फ़ासीवादी ताकतों को सत्ता पर बिठा दिया। आज देश व दुनिया में कोई शक्तिशाली क्रांतिकारी आंदोलन व क्रांति का खतरा न होने के बावजूद यदि पूंजीपति वर्ग ने फ़ासीवादी ताकतों को सत्ता पर बिठा दिया है तो यह उनकी अपने लिए मज़बूत व सुरक्षित क़िलेबंदी इस बार पहले ही कर लेने की घृणित मंसूबों की ही अभिव्यक्ति है। फिलहाल नग्न फ़ासीवादी सत्ता न कायम करने के बावजूद शासकों की मंशा यही है कि फ़ासीवादी आंदोलन की मौजूदगी लगातार देश के भीतर बनी रहे। यह फ़ासीवादी आंदोलन अलग अलग मुद्दों के जरिये देश व्यापी होता जा रहा है।
                     फासीवाद कोई एक अलग राजनीतिक सामाजिक अर्थव्यवस्था नहीं है बल्कि यह पूंजीवादी शासन व्यवस्था का ही एक भिन्न रूप है पूंजीवादी लोकतंत्र के बरक्स यह प्रतिक्रियावादी एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग की खुली आतंकी तानाशाही है। यह आम पूंजीवादी तानाशाही की तुलना में मज़दूर मेहनतकशों व जनवादी ताकतों के लिए कई गुना ज्यादा घातक व खतरनाक है। यह फासीवादी आंदोलन जनवादी चेतना, जनवादी मूल्यों व परम्पराओं को कमजोर करता हुआ व इसका निषेध करता हुआ आगे बढ़ रहा है। निरंकुशता, आतंक व दमन को आगे बढ़ाता हुआ यह फासीवाद की दिशा में बढ़ रहा है। इसके कई मुंह है एक ओर यह एक व्यक्ति मोदी को "महामानव" के रूप में प्रस्तुत कर रहा है तो दूसरी ओर उग्र व अंधराष्ट्रवादी उन्माद खड़ा कर रहा है। यह 'लव जेहाद', 'तीन तलाक' 'गौ माता' ' इस्लामिक आतंकवाद' के नाम पर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को तेजी से आगे बढ़ा रहा है । फ़ासीवादी समाज के सबसे ज्यादा भ्रष्ट, निकृष्ट तत्व होते हैं जो लम्पट व पतित तत्वों को भी अपने साथ शामिल कर लेते हैं। चुनाव जीतने के लिए हर घृणित हथकंडे, फर्जी एनकाउंटर, झूठ-अफवाह व फर्जी आंकड़ों का गुब्बार, भ्रष्ट पतित तत्वों को अपने में शामिल कर इनके 'नैतिक' 'ईमानदार' होने के दावे ये वो चीजें हैं जो फासिस्टों के चरित्र को खोल कर रख देती हैं। गुजरात के चर्चित शोहराबबुद्दीन फेक एनकाउंटर व इस केस को देख रहे जज लोया की हत्या का मामला तो अब हमारे सामने ही है। इसलिये जो यह सोचते हैं कि चुनाव में जातिवादी या भांति भांति के समीकरण बनाकर या फिर कोई गठबंधन बनाकर फ़ासीवादी ताकतों को हराया जा सकता है तो वास्तव में यह फासीवाद को केवल पार्टी विशेष या व्यक्ति विशेष तक सीमित करना है इसलिये यह फ़ासीवादी ताकतों को परास्त नहीं कर सकता।
                      फ़ासीवादी आंदोलन का जवाब चुनावी जोड़-तोड़ नहीं हो सकता। हो सकता है कि चुनाव में फ़ासीवादी ताकतें हार जाएं लेकिन चूंकि एक फ़ासीवादी आंदोलन तब भी मौजूद रहेगा जैसे ही संकट की घड़ी आएगी एकाधिकारी पूंजी के मालिक फ़ासीवादी ताकतों को सत्ता पर बिठा ही देंगे। ऐसे करने के तमाम विकल्प उनके पास होते हैं। तब व्यक्ति दूसरा भी हो सकता है पार्टी भी दूसरी हो सकती है। कांग्रेस  इसी एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग की प्रतिनिधि है जिसकी अगुवाई इस वक़्त भाजपा कर रही है। इन हिन्दू फ़ासीवादी ताकतों को पालने पोसने में जहां पूंजीपति वर्ग की ही मुख्य भूमिका रही है वहीं पार्टी के रूप में कांग्रेस ने भी यही काम किया है। भाजपा के कट्टर व उग्र हिंदुत्व का जवाब कांग्रेस के पास क्या है? 'नरम हिंदुत्व'। यह 'नरम हिंदुत्व' अपनी बारी में 'उग्र हिदुत्व' में तब्दील होकर फ़ासीवादी भाजपा  व संघ परिवार को ही ताक़त देगा। क्षेत्रीय पार्टियों का सवाल जहां तक है जो कि फ़ासीवादी ताकतों से कुछ टकराहट में दिखते लगते हैं तो ये खुद भी उन्हीं नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को परवान चढ़ा रही हैं जिन्हें कि कांग्रेस या भाजपा। इन नीतियों को लागू करने में ये भी घोर दमनकारी हैं साथ ही इसी वज़ह से ये घोर अवसरवादी भी हैं। ये इन नीतियों में क्षेत्रीय पूंजीपतियों के हितों के हिसाब से सौदेबाजी करती हैं। मोदी विरोधी नीतीश व उनकी पार्टी महागठबंधन के नाव पर सवार होने के बाद अब मोदी व भाजपा की गोद में बैठे हुए हैं । इस जमीन से कैसे फासीवादी आंदोलन का विरोध हो सकता है।  सरकारी वामपंथियों के फसीवाद विरोध का जहां तक सवाल है इन्होंने फासीवाद को केवल मोदी, भाजपा व संघ तक सीमित कर दिया है। ये भी ख़ुद इन्ही नवउदारवादी नीतियों को आगे बढ़ा रही हैं। नंदीग्राम व सिंगुर इन्ही नीतियों की उपज थी। इस सोच व समझ के साथ फासीवादियों का मुकाबला नहीं किया जा सकता।
           फासीवादियों का विरोध उसी जमीन से हो सकता है जिस वजह या डर से इसे पाला पोसा जाता है व सत्ता पर बिठाया जाता है यानी मज़दूर मेहनतकशों का सशक्त क्रांतिकारी आंदोलन। इसलिए इस फासीवादी आंदोलन का जवाब भी केवल मज़दूर मेहनतकशों का क्रांतिकारी आंदोलन व इसके साथ साथ अलग अलग वर्गों व तबक़ों का व्यापक जुझारू फासीवाद विरोधी संयुक्त मोर्चा ही हो सकता है। इस दिशा की ओर बढ़ते हुए जनवाद, जनवादी व संवैधानिक अधिकारों पर होने वाले हर फासीवादी हमले का पुरजोर विरोध करते हुए फासीवाद विरोधी आंदोलन खड़ा करने की ओर बढ़ना होगा। हमें याद रखना होगा कि इतिहास का निर्माण जनता करती है। मज़दूर वर्ग व मेहनतकश अवाम उसकी पार्टियों की अगुवाई में बने मोर्चों ने अतीत में फासीवाद को ध्वस्त किया था। ये फ़ासीवाद विरोधी संघर्ष हमारी प्रेणा है व विरासत है। यह ध्यान रखना होगा कि फ़ासीवादी जैसे जैसे आगे बढ़ते हैं आम अवाम के हर हिस्से को अपने विरोध में भी करते जाते हैं साथ ही इनकी दिशा समाज व इतिहास  की गति को पीछे धकेलने की है जो निरथर्क है। यही इनकी असल कमजोरी है और हमारीताकत हमें मज़दूरों,छात्रों,दलितों,अल्पसंख्यकों,आदिवासियों, किसानों व महिलाओं हर तबके व वर्ग पर होने वाले फासीवादी हमले का पुरजोर विरोध करते हुए आगे बढ़ना होगा।
                         क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन

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