नगर निकाय चुनाव पर
1-11-18
नगर निकाय चुनाव बिल्कुल करीब हैं। कुर्सी के लिए रस्साकसी, जोड़-तोड़ जोर पर है। जिसे देखिए वो टिकट पाने को आतुर है बेचैन है। टिकट के लिए मारामारी चरम पर है। पार्टियों से टिकट न मिल पाने वाले बेचैन हैं सदमे में हैं। कल तक जिस पार्टी में थे उसे छोड़ कर, बगावत कर दूसरी पार्टी का दामन थाम रहे हैं। निर्दलीय बन जा रहे हैं। थुक्का फजीहत, गाली गलौज, दल बदलने, पैसा पानी की तरह बहाने का खेल लोकल स्तर पर अपने चरम पर है। जाहिर है जीतने के बाद इसका कई गुना कमाया जाएगा।
इस हंगामे में इन निकायों की 'आम जनता' कहां है ? 'आम जनता' के लिए इसमें क्या है ? छोटे दुकानदारों, खोखे फड़ वाले जिन्हें अतिक्रमण के नाम पर यहां उजाड़ दिया जाता है जिन गरीब मलीन बस्तियों को 'अवैध' कहकर यह निकाय उजाड़ देता है उनके लिए इस चुनाव में क्या है ? कुछ भी नहीं। हकीकत तो ये है कि ग्रामीण जनता के भारी विरोध के बावजूद नगर निगम बना दिये गए, नगर पालिकाएं बना दी गयी। यही होता है इस कथित 'लोकतंत्र' में। जहां लोक यानी जनता पर 'मर्जी' थोप दी जाती है। शासकों की मर्जी 'शासितों' पर थोप दी जाती है।
अक्सर ऐसा ही होता है। देश में 'चुनाव के मौके' ही केवल ऐसे 'मौके' होते हैं जब 'आम जनता' की बातें होती हैं जब पूंजीवादी नेता गलियों, मोहल्लों के चक्कर लगाते हैं जब जनता के लिए 'अच्छे दिन' लाने के वादे होते हैं। जिन नेताओं को जनता 'सांसद' 'विधायक' बनाती है वो फिर 'शासक' बन कर आम जनता को 'हैरान' 'परेशान' करते हैं, आम जनता के खिलाफ ही नीतियां बनाते है कानून बनाते हैं। ये कॉरपोरेट घरानों, पूंजीपतियों को मालामाल करते हैं खुद भी मालामाल होते हैं। यही हाल निकायों के भी हैं। जीतने वाले नेताओं के लिए तो यह 'ऊपर' तक पहुंचने की सीढ़ी है। 'सभासद' से होते हुए 'विधायक' 'सांसद' बनने की सीढ़ी!! 'अतिक्रमण' के नाम पर गरीब बस्तियों में बुलडोज़र चलवाने में ये भी आगे आगे होते हैं तब जनता 'माईबाप' नहीं 'अतिक्रमणकारी' होती है। इन निकायों के स्तर पर होने वाला खेल किसी से छुपा नहीं हैं। यहां गरीब मोहल्ले व पाश इलाकों के साथ होने वाले भेद भाव को हर कोई जानता है। साफ सफाई, नालियां, सड़क, स्ट्रीटलाइट व बीमारियों के समय कीटनाशकों का छिड़काव पाश इलाकों में समय समय पर होगा लेकिन गरीब बस्तियों व मोहल्लों की कौन सुध ले। इन गरीब इलाकों की तब इन्हें याद नहीं आती। आती है तो बस चुनाव के मौके पर!!
'आम जनता' चाहे वह कहीं की भी हो, किसी भी शहर की हो, किसी भी इलाके की हो उसके दुख दर्द एक से हैं उसकी मुसीबतें भी कमोबेश एक सी हैं उसकी इच्छाएं व मांगें भी लगभग एक सी हैं। 'आम जनता' के मुद्दे हैं - सुरक्षित सम्मानजनक रोज़गार, सूरसा की तरह बढ़ती महंगाई से मुक्ति, रहने के लिए आवास, सस्ती शिक्षा, सस्ता परिवहन, सस्ता व भरोसेमंद इलाज, बेटियों, महिलाओं के लिए अपराध व हिंसा से मुक्ति तथा सुरक्षित व शांति पूर्ण ज़िंदगी।
असल बात यही है कि नगर निकायों के चुनावों का इन मुद्दों से कोई सम्बन्ध ही नहीं है। इन मुद्दों पर ये नगर निकाय कुछ भी कर सकने की स्थिति में नहीं हैं। ये निकाय एक प्रकार से प्रशासनिक संस्थाएं हैं जो महज 'चुनी' हुई संस्था है। हालांकि अगर इसे अधिकार भी होता तब भी कुछ शायद ही हो पाता।
संसद के हाल तो सबको पता ही हैं। सभी सांसद ( चुने गए नेता) संसद में बैठते हैं। संसद नीतियों व कानूनों को बनाने वाली संस्था है। लेकिन इन 80 सालों में कभी भी ऐसी नीति या कानून नहीं बने कि सभी आम नागरिकों को सम्मानजनक रोज़गार देना अनिवार्य हो, सस्ती शिक्षा-सस्ता इलाज-सस्ता आवास व यात्रा की गारंटी हो। जो कुछ भी हुआ वह सब पूंजीपतियों के हिसाब से हुआ। यही आज का सच भी है।
अब आज हालात बहुत कठिन बन चुके हैं। आज तो जो कुछ भी अधिकार एक वक्त में जनता को संघर्षों से हासिल हुए थे वह भी छीने जाने का वक़्त है। सब्सिडी, थोड़ा सस्ता राशन, कुछ सरकारी शिक्षा व अस्पताल व कुछ सरकारी नौकरियां! ये सब भी अब खत्म होने की ओर है। रोजगार के नाम पर भोजनमाताएं, आंगनवाड़ी, आशा वर्कर हैं या फिर ठेके पर नौकरियां ! यहां न्यूनतम वेतनमान भी नहीं है। जो कुछ श्रम कानून बने थे वे भी खत्म किये जा रहे हैं। करोड़ो बेरोजगार हैं। लेकिन इनकी फिक्र कौन करे ?
5 साल में अक्सर 'नेता' बदल जाते हैं पार्टियां बदलती है सरकार बदलती है लेकिन आम जनता की समस्या बनी रहती है। यही नहीं परेशानी, दुःख-दर्द बढ़ते जाते हैं जबकि दूसरी ओर 'नेता' व पूंजीपति मालामाल होते जाते हैं। इसीलिए देश में एक ओर 10 टॉप पूंजीपतियों की पूंजी में भारी वृद्धि हुई है तो वहीं दूसरी ओर भुखमरी की शिकार आबादी में भी भारी वृद्धि होती है। लेकिन सरकार व राजनीतिक पार्टियों के लिए हिन्दू-मुस्लिम, मंदिर-मस्जिद जैसे मुद्दे ही बुनियादी मुद्दे हैं। यह सब जनता को तरह तरह से बांटने की साजिश के अलावा कुछ नहीं है।
इसकी असल वजह यही है कि यह पूंजीवादी समाज है। यह पूरा समाज पूंजी की जकड़न में है। इसने हर इंसान को असुरक्षित, अकेला और मानसिक तौर पर बीमार बना दिया है। यहां बड़ी बड़ी पूंजी के मालिक सब कुछ अपनी मुट्ठी में कर लेने को बेताब हैं। मुनाफे की इनकी घोर हवस ने समाज को गहरे संकट की ओर धकेल दिया है। इसलिए किसान, मज़दूर, बेरोजगार, छोटे-मझौले दुकानदार व आम महिलाएं सभी त्रस्त हैं हैरान-परेशान हैं।
मानवता ने जो कुछ भी बीते 100-200 सालों में हासिल किया, जो भी अधिकार हासिल किए थे अब पूंजी उसे भी निगलने की ओर बढ़ रही है। 'पूंजी के मालिक' अपनी पार्टी व सरकार के जरिये 'आतंकी तानाशाही' की ओर बढ़ रहे हैं। ये संविधान में हासिल जनवादी अधिकारों को संविधान बदले बिना खत्म कर रहे हैं। हर विरोध को 'देश द्रोह' कहकर कुचलना अब आम होता जा रहा है।
इसलिए अब जरूरत है अपने अधिकारों पर हो रहे हमलों के खिलाफ एकजुट होने की! शहीद भगत सिंह के बताए रास्ते की ओर बढ़ने की!! पूंजी के जकड़न से समाज को मुक्त कराने की !!! और समाजवादी समाज बनाने की ।
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