जम्मू कश्मीर का भारत में विलय तथ्यों के आईने में
डोमिनियन देश के रूप में भारत व पाकिस्तान को आज़ादी हासिल होते वक़्त भारत स्वतंत्रता अधिनयम में यह प्रावधान तय था कि जो रियासतें अलग रहना चाहती हैं वह अलग रह सकती हैं और जो अपना विलय भारत या पाकिस्तान जिस डोमिनियन स्टेट में करना चाहती है वह विलय कर सकती है। आज़ादी से पहले जम्मू कश्मीर कई रियासतों की तरह एक अलग रियासत थी। जम्मू कश्मीर के राजा तब हरी सिंह थे। अंग्रेजी हुकूमत के दौर में यहां भी प्रजा सभा ( विधान सभा) का गठन किया गया था तब केवल 10 % सम्पति वाले लोगों को ही वोट देने का अधिकार था जैसे कि बाकि भारत में था। जिसमें 33 चुने हुए प्रतिनिधि तथा 42 प्रतिनिधि नॉमिनेट होने थे।
जम्मू कश्मीर के राजा हरी सिंह व प्रधानमंत्री राम चन्द्र काक आज़ाद जम्मू - कश्मीर के पक्षधर थे वे भारत में विलय के पक्ष में नहीं थे। जबकि शेख अब्दुल्ला पाकिस्तान से विलय के धुर विरोधी थे वह राजशाही के भी खिलाफ थे एक लोकतांत्रिक तरीके से चुनकर बनाई जाने वाली सरकार के पक्षधर थे। भारत के साथ स्वायत्तता के साथ रहने के पक्षधर थे। 1930-32 में शेख अब्दुल्ला की अगुवाई में ऑल जम्मू कश्मीर मुस्लिम कान्फ्रेंस बनी जो 1939 में नेशनल कॉन्फ्रेंस हो गई। यह एक अलग धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के लिए आन्दोलन कर रही थी। इस आंदोलन में सभी धर्म व जाति के लोग थे। यह एक सशक्त आंदोलन था। पंडित सुदामा सिद्धा , प्रेम नाथ बजाज, सरदार बुध सिंह आदि ने नेशनल कॉन्फ्रेंस का राष्ट्रीय मांग पत्र का ड्राफ्ट तैयार किया। यह आंदोलन राजशाही के खिलाफ भी था । मई 1946 में शेख अब्दुल्ला की अगुवाई में नेशनल कांफ्रेंस ने 'कश्मीर छोड़ो ' का आंदोलन शुरू हो गया । यह आंदोलन राजशाही के खिलाफ भी था। राजशाही ने शेख अब्दुला समेत कइयों को गिरफ्तार कर लिया। फिर 29 सितम्बर 1947 को छोड़ा गया। इस रिहाई में भारत सरकार की भूमिका रही थी।
जब भारत व पाकिस्तान आज़ाद हो गये थे। जम्मू कश्मीर की स्थिति स्वतंत्र रियासत ( मुल्क ) की तरह थी। हरि सिंह ( जम्मू कश्मीर ) की पाकिस्तान के साथ स्टैंडस्टिल ( कुछ वक्त तक रुके रहने ) समझौता हुआ था। । मगर पाकिस्तान की कबायली सेना ने 22 अक्टूबर 1947 में जम्मू कश्मीर पर हमला कर दिया तब राजा हरी सिंह ने गवर्नर लॉर्ड माउंटबेटेन के लिए पत्र लिखकर आर्मी की मदद मांगी व विलय के दस्तावेज दिए। गवर्नर जनरल माउंटबेटेन ने विलय के दस्तावेज को स्वीकार कर लिया इस प्रकार 26 अक्टूबर 1947 को समझौता हुआ। आर्मी भेजने का तय हुआ। चूंकि शेख अब्दुल्ला धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक भारत के साथ रहने के पक्षधर थे । अब इस स्थिति में जबकि हरी सिंह ने भारत में विलय के लिए बात शुरू कर दी तब गवर्नर माउंटबेटेन ने राजा हरी सिंह को अंतरिम सरकार का गठन करने तथा शेख अब्दुल्ला को प्रधानमंत्री बनाने को कहा । माउंटबेटेन द्वारा कहा गया कि विलय की प्रक्रिया में रियासतों में किसी प्रकार के विवाद होने पर वहां की जनता द्वारा ही इस पर (विलय) फ़ैसला लिया जाएगा।
पाकिस्तानी हमले से निपटने के लिए शेख अब्दुल्ला की अगुवाई में आपातकालीन प्रशासन का गठन किया गया। शेख अबदुल्ला द्वारा एक मिलिशिया ( स्वयं सेवक सेना ) का गठन किया गया जिसने पाकिस्तानी की कबायली सेना से निपटना शुरू कर दिया। बाद में भारत की सेना भी यहां पहुंच गई।
17 मार्च 1948 को शेख अब्दुल्ला प्रधानमंत्री बने जबकि हरी सिंह के बेटे कर्ण सिंह को 'सदर -ए -रियासत ' बने। भारत व जम्मू कश्मीर के बीच समझौते में तय हुआ कि रक्षा, मुद्रा , संचार, विदेश नीति के मामले केंद्र की सरकार यानी भारत के पास रहेंगे, बाकी शेष मामले जम्मू कश्मीर की सरकार तय करेगी इसकी अपनी संविधान सभा होगी, इसका अलग झंडा व अलग प्रधानमंत्री होगा। संविधान सभा को ही बाकी सारे अधिकार होंगे। यह भी समझौता था कि जम्मू कश्मीर का वह हिस्सा जो पाकिस्तान ने कब्जा लिया था उसे भारत सरकार कश्मीर की सरकार को वापस दिलाएगी। 1951 में जम्मूकश्मीर में सार्विक मताधिकार के आधार पर संविधान सभा के लिए चुनाव हुए।
जम्मू कश्मीर के विलय की इस विशेष स्थिति के चलते अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जा दिया गया। अनु 370 उसी समझौते का परिणाम था जो कि जम्मू कश्मीर व भारत के बीच हुआ था। अनु. 370 में साफ दर्ज था कि राष्ट्रपति कोई भी आदेश संविधान सभा की सहमति के बाद कर सकते हैं। समझौते के हिसाब से शेख अब्दुल्ला को जम्मू कश्मीर का प्रधानमंत्री बनाया गया। आर एस एस धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के लिए शेख अब्दुल्ला द्वारा चलाये जा रहे आंदोलन का धुर विरोधी था तथा राजशाही के समर्थन में था इसलिए शुरुवात में यह जम्मू कश्मीर के स्वतंत्र देश के बतौर रहने के राजा हरी सिंह के फैसले का पक्षधर था भारत से विलय के पक्ष में नहीं था। मगर बाद में जब परिस्थितियां बदल गयी तब यह भारत में इसके पूर्ण विलय की बात करने लगा। इसने यहां नवम्बर 1947 में चुनाव में प्रजा परिषद नाम की पार्टी खड़ी करके चुनाव में भागीदारी करनी शुरू कर दी । प्रजा परिषद का 1963 में जनसंघ में विलय हो गया। इस दौर में यानी 1948 भारत सरकार इस मामले को संयुक्त राष्ट्र संघ में भी ले गई खुद नेहरू की ओर से इस मामले पर जनमत संग्रह का प्रस्ताव भी रखा गया क्योंकि उस समय उन्हें यह भारत के फेवर में पक्ष में जाता लग रहा था शेख अब्दुला ने संयुक्त राष्ट्र संघ में इस पक्ष में जोरदार दलील भी दी। पाकिस्तान ने तब इसका विरोध किया। बाद में भारत जनमत संग्रह से पीछे हट गया। 1951 के संविधान सभा के कश्मीर में हुए चुनावों को ही भारत सरकार जनमत संग्रह के रूप में प्रस्तुत कर रही थी।
1952 में जम्मू कश्मीर की अर्थव्यवस्था भारत के साथ पूरी तरह शेख अब्दुल्ला ने एकीकृत कर दी थी अब व्यापार व लोगो की आवाजाही पर जो पाबंदी थी भारत व कश्मीर के बीच वह हट गई। इस दौर में राजशाही खत्म कर दी गई । इस दौर में भारत सरकार पर आरोप लगे कि उसकी मंशा कुछ और ही थी कि वह इस समझौते को बेहद कमजोर या खत्म कर देना चाहती थी।
इन आरोपों के बीच ही अचानक 'कश्मीर षड्यंत्र' के फर्जी आरोप में 1953 में प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला सहित 22 लोगो को गिरफ्तार कर लिया गया व जेल में डाल दिया गया। आरोप यह लगाया गया कि शेख अब्दुल्ला आजाद कश्मीर के लिए पाकिस्तान के साथ मिलकर साजिश रच रहे है। 11 सालों तक शेख अब्दुल्ला को जेल में रखा गया। मिर्जा अफ़ज़ल बेग को 1954 के नवम्बर माह में रिहा कर दिया गया। जी एम हमदानी के साथ मिर्जा बेग ने 'जनमत संग्रह मंच' बनाया इसकी मांग सँयुक्त राष्ट्र संघ की निगरानी में जनमत संग्रह के जरिये जम्मू कश्मीर की जनता के आत्मनिर्णय के अधिकार ( जनता को अपने राज्य या देश की राजनीति आदि को तय करने का अधिकार ) की थी। इसका समर्थन 'कश्मीर राजनीतिक कान्फ्रेंस' 'कश्मीर जनतांत्रिक यूनियन ' तथा प्रजा सोशलिस्ट पार्टी' (जय प्रकाश नारायण व आचार्य नरेंद्र देव आदि की) ने भी किया।
दूसरी ओर शेख अब्दुल्ला आदि को तब जेल से छोड़ा गया जब वह और उनकी पार्टी ने एक प्रकार से समर्पण कर दिया। 1964 में इनकी रिहाई हुई और जिन फर्जी मुकदमों पर 1953 में इनकी गिरफ्तारी हुई थी उन्हीं को अप्रेल 1964 में रहस्यमय तरीके से भारत सरकार ने वापस ले लिया। इस बीच 1954 में राष्ट्रपति के आदेश से 35 A जोड़ा गया था कहा जाता है कि यह पहले से ही कश्मीर में भिन्न रूप में था। 1956 में संविधान सभा भंग कर दी गई इसने 1956 में संविधान (जम्मू कश्मीर का) बनाया तथा इसमें अब जम्मू कश्मीर को भारत का हिस्सा बताया गया। संयुक्त राष्ट्र संघ ने संविधान सभा के 1951 के चुनाव को जनमतसंग्रह का विकल्प मानने से इंकार कर दिया। 1957 में इसकी जगह विधान सभा बना दी गई। बाद के समय में सदर-ए-रियासत तथा प्रधानमंत्री का पद खत्म कर दिया गया। इसकी जगह राज्यपाल व मुख्यमंत्री हो गया। दूसरी ओर जम्मू कश्मीर की सरकार को वायदे के मुताबिक वह हिस्सा जिसे पाकिस्तान ने कब्जा लिया था कभी वापस नही दिलाया गया यह पाकिस्तान के पास है इसे पाक अधिकृत कश्मीर कहा जाता है।
यह आरोप है कि इसके बाद फिर भारत सरकार लगातार ही समझौते को और ज्यादा कमजोर करते गई। 1956-57 में जम्मू कश्मीर को भारत का हिस्सा घोषित कर दिया गया। बाद में राष्ट्रपति के आदेश से तथा विधान सभा को अपने हिसाब से ढालकर कई आदेशों के जरिये देश के तमाम कानून वहां लागू करा दिए गए ।1956 से 1994 के बीच राष्ट्रपति के 47 निर्देश जम्मू कश्मीर के संबंध में जारी हुए लगभग 97 में से 94 संघीय विषय केंद्र सरकार के जरिये वहां लागू हो गए जो कि संविधान के 395 अनुच्छेदों में से 260 अनुच्छेद समेट लेती थी । 1965-66 में अनु 356 व 357 को लागू कर दिया गया। ये तथ्य साफ दिखाते है कि भारत सरकार पर जम्मूकश्मीर को छल बल से अपने में मिला लेने के आरोप हवाई नहीं थे। दूसरी ओर नेशनल कॉन्फ्रेंस की अवसरवादी व कमजोर भूमिका के चलते तथा भारत सरकार के विलय के प्रति रुख के चलते अलग आज़ाद धर्मनिरपेक्ष जम्मू कश्मीरी राष्ट्र के लिए जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट की अगुवाई में एक संघर्ष खड़ा हो गया था। यह समूचे जम्मू कश्मीर यानी पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर को अपने दायरे में समेट लेता था । यह आंदोलन व्यापक होता गया। इसकी शुरुवात तो 65 से ही हो गई थी मगर यह संगठन 1977 में बना। यहीं से फिर इस आंदोलन को कमजोर करने के लिए आतंकवाद को पैदा करने पालने पोसने के आरोप भी सरकार पर लगे । भारत व पाकिस्तान दोनो की इसमें भूमिका होने के आरोप लगे। दोनो के अपने अपने निहित स्वार्थ थे। फिर आतंकवाद को खत्म करने के नाम पर भारी मात्रा में फौज की तैनाती वहां कर दी गई । चप्पे चप्पे पर फौजी जवान खड़े हो गए। इसे टाडा तथा पब्लिक सेफ्टी बिल व सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून के तहत दमन के लिए जो कुछ भी सम्भव हो वह करने की छूट दी गई । पिछले 45 सालों से जम्मू कश्मीर की अवाम संगीनों के साये में जी रही है । इनके जरिए सीधे सीधे केंद्र सरकार ही यहां शासन कर रही थी। 'विधान सभा भंग कर देना' 'राष्ट्रपति शासन लगा देना' यह सामान्य बन गया। दूसरी ओर जे के एल एफ तो कुछ सालों बाद बहुत कमजोर हो गया। मगर आतंकवाद व अलगाववाद बढ़ता गया। एक प्रतिक्रियावादी आंदोलन भी इस दौर में पैदा हो गया या पैदा कर दिया गया जो इस्लामिक कट्टरपंथी आंदोलन था यह जम्मू कश्मीर को पाकिस्तान में मिलाये जाने की वकालत करता था ।
साफ है कि कोई भी जम्मुकश्मीर के आत्मनिर्णय के अधिकार का पक्षधर नही था। जम्मू कश्मीर की अवाम क्या चाहती है उसकी इच्छा आकांक्षा क्या है इससे किसी को कोई सरोकार न था। दोनो ही देशों के शासक इसे निगलने को तैयार थे। दोनों के लिए मात्र यह जमीन का टुकड़ा था मात्र एक बाजार था, प्राकृतिक संसाधन था व इसका इनके लिए एक भूरणनीतिक महत्व था। इनके बीच इसी को लेकर तीखे अंतर्विरोध भी थे। इसी को "राष्टवाद" की चाशनी में लपेट कर परोसा जाता है। साम्प्रदायिक उन्माद का खेल खेला जाता है।
इस प्रकार देखा जाय तो जो समझौते जम्मू कश्मीर व भारत के बीच हुए थे। उन समझौते को बेहद कमजोर कर दिया गया। 370 के तहत जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दिया गया मगर संविधान में इसे अस्थायी उपबन्ध के बतौर रखा गया था। हालाकि अनु 370 को हटाने के लिए राष्ट्रपति का आदेश तथा कश्मीर की संविधान सभा की सहमति जरूरी थी। लेकिन संविधान सभा तो 1956 में ही भंग हो गई । अब मौजूदा दौर में मोदी शाह की सरकार ने राष्ट्रपति के जरिये एक गैजेट नोटिफिकेशन जारी करवाया और 370 को खत्म करने का आदेश कर दिया। फिर इस पर तीन बिल लाकर भाजपा ने राज्य सभा व लोक सभा में इसे पास करवा लिया। 370 का खत्म किया जाना खुलेआम प्रक्रिया का उल्लंघन था। जम्मू कश्मीर की संविधान सभा की सहमति के बिना यह फैसला नहीं लिया जा सकता था जो कि अब वज़ूद में है नहीं। यदि संविधान सभा को विधान सभा माना जाय तो भी इस वक़्त कश्मीर में राष्ट्रपति शासन था विधान सभा भंग थी। राज्यपाल तो चुना हुआ प्रतिनिधि होता नही वह केंद्र सरकार का प्रतिनिधि होता है उसकी सहमति के कोई मायने नही। इस प्रकार मोदी-शाह की सरकार ने जम्मू कश्मीर की अवाम को बिना विश्वास में लिए अपने फासीवादी अंदाज में संविधान सभा या विधान सभा के माध्यम से नहीं बल्कि भारी मात्रा में वहां फौज भेजकर सारे जनवादी अधिकार छीनकर, कर्फ़्यू जैसी स्थिति पैदा करके, एक प्रकार से जम्मू कश्मीर के नागरिकों व चुने हुए कई नेताओं को बंधक बनाकर राष्ट्रपति के आदेश को सीधे संसद में अपने बहुमत के जरिये पास करवाकर लागू करने की ओर बढ़ चुकी है यही नहीं इसके दो टुकड़े करके केंद्र शासित क्षेत्र में बदल देने का प्रावधान भी किया गया है। इस प्रकार शासक वर्ग ने जम्मू कश्मीर का भारत में पूरी तरह विलय करने की अपनी कुत्सित मंशा को 1948-52 से धीरे धीरे 70 सालों में मुकम्मल कर लिया। यह कहना ज्यादा सही होगा कि कांग्रेस ने 60 सालों में विशेष राज्य के दर्जे को इतना कमजोर कर दिया था कि मोदी शाह की भाजपा के लिए 370 को खत्म करना बेहद आसान हो गया। हालांकि कोर्ट में मामला गया है वह इसी आधार या तर्क पर है कि मोदी शाह सरकार की पूरी प्रक्रिया असंवैधानिक है क्योंकि इसमें विधान सभा से भी कोई सहमति नही हुई है। कोर्ट का रुख क्या होगा यह आने वाला वक़्त ही बताएगा। जो भी हो। यह ध्रुवीकरण के लिए खतरनाक हथियार का काम और ज्यादा करेगा। साथ ही कश्मीरी अवाम के कष्ट दुख दर्द कई गुना और बढ़ जाएंगे।
भाजपा व संघ परिवार के द्वारा ऐसे समय में जबकि अर्थव्यवस्था की मंदी की ओर बढ़ने, 45 साल में सबसे ज्यादा बेरोजगारी होने, उद्योगों की सेल में भारी गिरावट तथा बड़े पैमाने पर मज़दूरों की छटनी तथा विनिवेशीकरण व कर्मचारियों की छंटनी की खबर के बीच यह फासीवादी एजेंडा सचेतन चला गया कदम है। यह यहीं पर रुकने वाला नहीं है। यह अर्थव्यवस्था के संकट व जनसंघर्षों से निपटने का खतरनाक रास्ता है इस बात की संभावना है कि अमेरिकी साम्राज्यवादी तथा इजरायल के साथ और ज्यादा सटने व उनके समर्थन से यह दांव चला गया हो। इसमें चीन व पाकिस्तानी शासक भी इसे यूं नहीं जाने देंगे। अमेरिकी शासक इसके जरिये भारतीय शासकों को दबाव में लेने का काम करेंगे भले ही अभी वह समर्थक हों । इसी ढंग से रूसी साम्राज्यवादी भी। इसीलिए यह मुद्दा लंबे वक्त के लिए जनता को अंधराष्ट्रवादी उन्माद में धकेकने का जरिया बनेगा। शासक वर्ग के लिए यह बहुत फायदे की चीज है विशेषकर जब अर्थब्यवस्था मंदी की ओर बढ़ रही हो। यह तात्कालिक तौर पर जनता के संघर्षों को कमजोर करने का जरिया भी है। संघ परिवार इसके जरिये अपने 'एक देश- एक झंडा- एक विधान' को पूरा करके खुद को "राष्ट्रवादी' के बतौर प्रचारित करने में कामयाब है जो कि अन्धराष्ट्रवाद के सिवाय कुछ नहीं है। अब यह अपने चरम आतंकी तानाशाही (फासीवाद) कायम करने की ओर बढ़ेगा। फिर जो कश्मीर में हो रहा है वह देशव्यापी हो जाएगा जिसके निशाने पर मज़दूर मेहनतकश अवाम होगी।
जम्मू कश्मीर के राजा हरी सिंह व प्रधानमंत्री राम चन्द्र काक आज़ाद जम्मू - कश्मीर के पक्षधर थे वे भारत में विलय के पक्ष में नहीं थे। जबकि शेख अब्दुल्ला पाकिस्तान से विलय के धुर विरोधी थे वह राजशाही के भी खिलाफ थे एक लोकतांत्रिक तरीके से चुनकर बनाई जाने वाली सरकार के पक्षधर थे। भारत के साथ स्वायत्तता के साथ रहने के पक्षधर थे। 1930-32 में शेख अब्दुल्ला की अगुवाई में ऑल जम्मू कश्मीर मुस्लिम कान्फ्रेंस बनी जो 1939 में नेशनल कॉन्फ्रेंस हो गई। यह एक अलग धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के लिए आन्दोलन कर रही थी। इस आंदोलन में सभी धर्म व जाति के लोग थे। यह एक सशक्त आंदोलन था। पंडित सुदामा सिद्धा , प्रेम नाथ बजाज, सरदार बुध सिंह आदि ने नेशनल कॉन्फ्रेंस का राष्ट्रीय मांग पत्र का ड्राफ्ट तैयार किया। यह आंदोलन राजशाही के खिलाफ भी था । मई 1946 में शेख अब्दुल्ला की अगुवाई में नेशनल कांफ्रेंस ने 'कश्मीर छोड़ो ' का आंदोलन शुरू हो गया । यह आंदोलन राजशाही के खिलाफ भी था। राजशाही ने शेख अब्दुला समेत कइयों को गिरफ्तार कर लिया। फिर 29 सितम्बर 1947 को छोड़ा गया। इस रिहाई में भारत सरकार की भूमिका रही थी।
जब भारत व पाकिस्तान आज़ाद हो गये थे। जम्मू कश्मीर की स्थिति स्वतंत्र रियासत ( मुल्क ) की तरह थी। हरि सिंह ( जम्मू कश्मीर ) की पाकिस्तान के साथ स्टैंडस्टिल ( कुछ वक्त तक रुके रहने ) समझौता हुआ था। । मगर पाकिस्तान की कबायली सेना ने 22 अक्टूबर 1947 में जम्मू कश्मीर पर हमला कर दिया तब राजा हरी सिंह ने गवर्नर लॉर्ड माउंटबेटेन के लिए पत्र लिखकर आर्मी की मदद मांगी व विलय के दस्तावेज दिए। गवर्नर जनरल माउंटबेटेन ने विलय के दस्तावेज को स्वीकार कर लिया इस प्रकार 26 अक्टूबर 1947 को समझौता हुआ। आर्मी भेजने का तय हुआ। चूंकि शेख अब्दुल्ला धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक भारत के साथ रहने के पक्षधर थे । अब इस स्थिति में जबकि हरी सिंह ने भारत में विलय के लिए बात शुरू कर दी तब गवर्नर माउंटबेटेन ने राजा हरी सिंह को अंतरिम सरकार का गठन करने तथा शेख अब्दुल्ला को प्रधानमंत्री बनाने को कहा । माउंटबेटेन द्वारा कहा गया कि विलय की प्रक्रिया में रियासतों में किसी प्रकार के विवाद होने पर वहां की जनता द्वारा ही इस पर (विलय) फ़ैसला लिया जाएगा।
पाकिस्तानी हमले से निपटने के लिए शेख अब्दुल्ला की अगुवाई में आपातकालीन प्रशासन का गठन किया गया। शेख अबदुल्ला द्वारा एक मिलिशिया ( स्वयं सेवक सेना ) का गठन किया गया जिसने पाकिस्तानी की कबायली सेना से निपटना शुरू कर दिया। बाद में भारत की सेना भी यहां पहुंच गई।
17 मार्च 1948 को शेख अब्दुल्ला प्रधानमंत्री बने जबकि हरी सिंह के बेटे कर्ण सिंह को 'सदर -ए -रियासत ' बने। भारत व जम्मू कश्मीर के बीच समझौते में तय हुआ कि रक्षा, मुद्रा , संचार, विदेश नीति के मामले केंद्र की सरकार यानी भारत के पास रहेंगे, बाकी शेष मामले जम्मू कश्मीर की सरकार तय करेगी इसकी अपनी संविधान सभा होगी, इसका अलग झंडा व अलग प्रधानमंत्री होगा। संविधान सभा को ही बाकी सारे अधिकार होंगे। यह भी समझौता था कि जम्मू कश्मीर का वह हिस्सा जो पाकिस्तान ने कब्जा लिया था उसे भारत सरकार कश्मीर की सरकार को वापस दिलाएगी। 1951 में जम्मूकश्मीर में सार्विक मताधिकार के आधार पर संविधान सभा के लिए चुनाव हुए।
जम्मू कश्मीर के विलय की इस विशेष स्थिति के चलते अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जा दिया गया। अनु 370 उसी समझौते का परिणाम था जो कि जम्मू कश्मीर व भारत के बीच हुआ था। अनु. 370 में साफ दर्ज था कि राष्ट्रपति कोई भी आदेश संविधान सभा की सहमति के बाद कर सकते हैं। समझौते के हिसाब से शेख अब्दुल्ला को जम्मू कश्मीर का प्रधानमंत्री बनाया गया। आर एस एस धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के लिए शेख अब्दुल्ला द्वारा चलाये जा रहे आंदोलन का धुर विरोधी था तथा राजशाही के समर्थन में था इसलिए शुरुवात में यह जम्मू कश्मीर के स्वतंत्र देश के बतौर रहने के राजा हरी सिंह के फैसले का पक्षधर था भारत से विलय के पक्ष में नहीं था। मगर बाद में जब परिस्थितियां बदल गयी तब यह भारत में इसके पूर्ण विलय की बात करने लगा। इसने यहां नवम्बर 1947 में चुनाव में प्रजा परिषद नाम की पार्टी खड़ी करके चुनाव में भागीदारी करनी शुरू कर दी । प्रजा परिषद का 1963 में जनसंघ में विलय हो गया। इस दौर में यानी 1948 भारत सरकार इस मामले को संयुक्त राष्ट्र संघ में भी ले गई खुद नेहरू की ओर से इस मामले पर जनमत संग्रह का प्रस्ताव भी रखा गया क्योंकि उस समय उन्हें यह भारत के फेवर में पक्ष में जाता लग रहा था शेख अब्दुला ने संयुक्त राष्ट्र संघ में इस पक्ष में जोरदार दलील भी दी। पाकिस्तान ने तब इसका विरोध किया। बाद में भारत जनमत संग्रह से पीछे हट गया। 1951 के संविधान सभा के कश्मीर में हुए चुनावों को ही भारत सरकार जनमत संग्रह के रूप में प्रस्तुत कर रही थी।
1952 में जम्मू कश्मीर की अर्थव्यवस्था भारत के साथ पूरी तरह शेख अब्दुल्ला ने एकीकृत कर दी थी अब व्यापार व लोगो की आवाजाही पर जो पाबंदी थी भारत व कश्मीर के बीच वह हट गई। इस दौर में राजशाही खत्म कर दी गई । इस दौर में भारत सरकार पर आरोप लगे कि उसकी मंशा कुछ और ही थी कि वह इस समझौते को बेहद कमजोर या खत्म कर देना चाहती थी।
इन आरोपों के बीच ही अचानक 'कश्मीर षड्यंत्र' के फर्जी आरोप में 1953 में प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला सहित 22 लोगो को गिरफ्तार कर लिया गया व जेल में डाल दिया गया। आरोप यह लगाया गया कि शेख अब्दुल्ला आजाद कश्मीर के लिए पाकिस्तान के साथ मिलकर साजिश रच रहे है। 11 सालों तक शेख अब्दुल्ला को जेल में रखा गया। मिर्जा अफ़ज़ल बेग को 1954 के नवम्बर माह में रिहा कर दिया गया। जी एम हमदानी के साथ मिर्जा बेग ने 'जनमत संग्रह मंच' बनाया इसकी मांग सँयुक्त राष्ट्र संघ की निगरानी में जनमत संग्रह के जरिये जम्मू कश्मीर की जनता के आत्मनिर्णय के अधिकार ( जनता को अपने राज्य या देश की राजनीति आदि को तय करने का अधिकार ) की थी। इसका समर्थन 'कश्मीर राजनीतिक कान्फ्रेंस' 'कश्मीर जनतांत्रिक यूनियन ' तथा प्रजा सोशलिस्ट पार्टी' (जय प्रकाश नारायण व आचार्य नरेंद्र देव आदि की) ने भी किया।
दूसरी ओर शेख अब्दुल्ला आदि को तब जेल से छोड़ा गया जब वह और उनकी पार्टी ने एक प्रकार से समर्पण कर दिया। 1964 में इनकी रिहाई हुई और जिन फर्जी मुकदमों पर 1953 में इनकी गिरफ्तारी हुई थी उन्हीं को अप्रेल 1964 में रहस्यमय तरीके से भारत सरकार ने वापस ले लिया। इस बीच 1954 में राष्ट्रपति के आदेश से 35 A जोड़ा गया था कहा जाता है कि यह पहले से ही कश्मीर में भिन्न रूप में था। 1956 में संविधान सभा भंग कर दी गई इसने 1956 में संविधान (जम्मू कश्मीर का) बनाया तथा इसमें अब जम्मू कश्मीर को भारत का हिस्सा बताया गया। संयुक्त राष्ट्र संघ ने संविधान सभा के 1951 के चुनाव को जनमतसंग्रह का विकल्प मानने से इंकार कर दिया। 1957 में इसकी जगह विधान सभा बना दी गई। बाद के समय में सदर-ए-रियासत तथा प्रधानमंत्री का पद खत्म कर दिया गया। इसकी जगह राज्यपाल व मुख्यमंत्री हो गया। दूसरी ओर जम्मू कश्मीर की सरकार को वायदे के मुताबिक वह हिस्सा जिसे पाकिस्तान ने कब्जा लिया था कभी वापस नही दिलाया गया यह पाकिस्तान के पास है इसे पाक अधिकृत कश्मीर कहा जाता है।
यह आरोप है कि इसके बाद फिर भारत सरकार लगातार ही समझौते को और ज्यादा कमजोर करते गई। 1956-57 में जम्मू कश्मीर को भारत का हिस्सा घोषित कर दिया गया। बाद में राष्ट्रपति के आदेश से तथा विधान सभा को अपने हिसाब से ढालकर कई आदेशों के जरिये देश के तमाम कानून वहां लागू करा दिए गए ।1956 से 1994 के बीच राष्ट्रपति के 47 निर्देश जम्मू कश्मीर के संबंध में जारी हुए लगभग 97 में से 94 संघीय विषय केंद्र सरकार के जरिये वहां लागू हो गए जो कि संविधान के 395 अनुच्छेदों में से 260 अनुच्छेद समेट लेती थी । 1965-66 में अनु 356 व 357 को लागू कर दिया गया। ये तथ्य साफ दिखाते है कि भारत सरकार पर जम्मूकश्मीर को छल बल से अपने में मिला लेने के आरोप हवाई नहीं थे। दूसरी ओर नेशनल कॉन्फ्रेंस की अवसरवादी व कमजोर भूमिका के चलते तथा भारत सरकार के विलय के प्रति रुख के चलते अलग आज़ाद धर्मनिरपेक्ष जम्मू कश्मीरी राष्ट्र के लिए जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट की अगुवाई में एक संघर्ष खड़ा हो गया था। यह समूचे जम्मू कश्मीर यानी पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर को अपने दायरे में समेट लेता था । यह आंदोलन व्यापक होता गया। इसकी शुरुवात तो 65 से ही हो गई थी मगर यह संगठन 1977 में बना। यहीं से फिर इस आंदोलन को कमजोर करने के लिए आतंकवाद को पैदा करने पालने पोसने के आरोप भी सरकार पर लगे । भारत व पाकिस्तान दोनो की इसमें भूमिका होने के आरोप लगे। दोनो के अपने अपने निहित स्वार्थ थे। फिर आतंकवाद को खत्म करने के नाम पर भारी मात्रा में फौज की तैनाती वहां कर दी गई । चप्पे चप्पे पर फौजी जवान खड़े हो गए। इसे टाडा तथा पब्लिक सेफ्टी बिल व सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून के तहत दमन के लिए जो कुछ भी सम्भव हो वह करने की छूट दी गई । पिछले 45 सालों से जम्मू कश्मीर की अवाम संगीनों के साये में जी रही है । इनके जरिए सीधे सीधे केंद्र सरकार ही यहां शासन कर रही थी। 'विधान सभा भंग कर देना' 'राष्ट्रपति शासन लगा देना' यह सामान्य बन गया। दूसरी ओर जे के एल एफ तो कुछ सालों बाद बहुत कमजोर हो गया। मगर आतंकवाद व अलगाववाद बढ़ता गया। एक प्रतिक्रियावादी आंदोलन भी इस दौर में पैदा हो गया या पैदा कर दिया गया जो इस्लामिक कट्टरपंथी आंदोलन था यह जम्मू कश्मीर को पाकिस्तान में मिलाये जाने की वकालत करता था ।
साफ है कि कोई भी जम्मुकश्मीर के आत्मनिर्णय के अधिकार का पक्षधर नही था। जम्मू कश्मीर की अवाम क्या चाहती है उसकी इच्छा आकांक्षा क्या है इससे किसी को कोई सरोकार न था। दोनो ही देशों के शासक इसे निगलने को तैयार थे। दोनों के लिए मात्र यह जमीन का टुकड़ा था मात्र एक बाजार था, प्राकृतिक संसाधन था व इसका इनके लिए एक भूरणनीतिक महत्व था। इनके बीच इसी को लेकर तीखे अंतर्विरोध भी थे। इसी को "राष्टवाद" की चाशनी में लपेट कर परोसा जाता है। साम्प्रदायिक उन्माद का खेल खेला जाता है।
इस प्रकार देखा जाय तो जो समझौते जम्मू कश्मीर व भारत के बीच हुए थे। उन समझौते को बेहद कमजोर कर दिया गया। 370 के तहत जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दिया गया मगर संविधान में इसे अस्थायी उपबन्ध के बतौर रखा गया था। हालाकि अनु 370 को हटाने के लिए राष्ट्रपति का आदेश तथा कश्मीर की संविधान सभा की सहमति जरूरी थी। लेकिन संविधान सभा तो 1956 में ही भंग हो गई । अब मौजूदा दौर में मोदी शाह की सरकार ने राष्ट्रपति के जरिये एक गैजेट नोटिफिकेशन जारी करवाया और 370 को खत्म करने का आदेश कर दिया। फिर इस पर तीन बिल लाकर भाजपा ने राज्य सभा व लोक सभा में इसे पास करवा लिया। 370 का खत्म किया जाना खुलेआम प्रक्रिया का उल्लंघन था। जम्मू कश्मीर की संविधान सभा की सहमति के बिना यह फैसला नहीं लिया जा सकता था जो कि अब वज़ूद में है नहीं। यदि संविधान सभा को विधान सभा माना जाय तो भी इस वक़्त कश्मीर में राष्ट्रपति शासन था विधान सभा भंग थी। राज्यपाल तो चुना हुआ प्रतिनिधि होता नही वह केंद्र सरकार का प्रतिनिधि होता है उसकी सहमति के कोई मायने नही। इस प्रकार मोदी-शाह की सरकार ने जम्मू कश्मीर की अवाम को बिना विश्वास में लिए अपने फासीवादी अंदाज में संविधान सभा या विधान सभा के माध्यम से नहीं बल्कि भारी मात्रा में वहां फौज भेजकर सारे जनवादी अधिकार छीनकर, कर्फ़्यू जैसी स्थिति पैदा करके, एक प्रकार से जम्मू कश्मीर के नागरिकों व चुने हुए कई नेताओं को बंधक बनाकर राष्ट्रपति के आदेश को सीधे संसद में अपने बहुमत के जरिये पास करवाकर लागू करने की ओर बढ़ चुकी है यही नहीं इसके दो टुकड़े करके केंद्र शासित क्षेत्र में बदल देने का प्रावधान भी किया गया है। इस प्रकार शासक वर्ग ने जम्मू कश्मीर का भारत में पूरी तरह विलय करने की अपनी कुत्सित मंशा को 1948-52 से धीरे धीरे 70 सालों में मुकम्मल कर लिया। यह कहना ज्यादा सही होगा कि कांग्रेस ने 60 सालों में विशेष राज्य के दर्जे को इतना कमजोर कर दिया था कि मोदी शाह की भाजपा के लिए 370 को खत्म करना बेहद आसान हो गया। हालांकि कोर्ट में मामला गया है वह इसी आधार या तर्क पर है कि मोदी शाह सरकार की पूरी प्रक्रिया असंवैधानिक है क्योंकि इसमें विधान सभा से भी कोई सहमति नही हुई है। कोर्ट का रुख क्या होगा यह आने वाला वक़्त ही बताएगा। जो भी हो। यह ध्रुवीकरण के लिए खतरनाक हथियार का काम और ज्यादा करेगा। साथ ही कश्मीरी अवाम के कष्ट दुख दर्द कई गुना और बढ़ जाएंगे।
भाजपा व संघ परिवार के द्वारा ऐसे समय में जबकि अर्थव्यवस्था की मंदी की ओर बढ़ने, 45 साल में सबसे ज्यादा बेरोजगारी होने, उद्योगों की सेल में भारी गिरावट तथा बड़े पैमाने पर मज़दूरों की छटनी तथा विनिवेशीकरण व कर्मचारियों की छंटनी की खबर के बीच यह फासीवादी एजेंडा सचेतन चला गया कदम है। यह यहीं पर रुकने वाला नहीं है। यह अर्थव्यवस्था के संकट व जनसंघर्षों से निपटने का खतरनाक रास्ता है इस बात की संभावना है कि अमेरिकी साम्राज्यवादी तथा इजरायल के साथ और ज्यादा सटने व उनके समर्थन से यह दांव चला गया हो। इसमें चीन व पाकिस्तानी शासक भी इसे यूं नहीं जाने देंगे। अमेरिकी शासक इसके जरिये भारतीय शासकों को दबाव में लेने का काम करेंगे भले ही अभी वह समर्थक हों । इसी ढंग से रूसी साम्राज्यवादी भी। इसीलिए यह मुद्दा लंबे वक्त के लिए जनता को अंधराष्ट्रवादी उन्माद में धकेकने का जरिया बनेगा। शासक वर्ग के लिए यह बहुत फायदे की चीज है विशेषकर जब अर्थब्यवस्था मंदी की ओर बढ़ रही हो। यह तात्कालिक तौर पर जनता के संघर्षों को कमजोर करने का जरिया भी है। संघ परिवार इसके जरिये अपने 'एक देश- एक झंडा- एक विधान' को पूरा करके खुद को "राष्ट्रवादी' के बतौर प्रचारित करने में कामयाब है जो कि अन्धराष्ट्रवाद के सिवाय कुछ नहीं है। अब यह अपने चरम आतंकी तानाशाही (फासीवाद) कायम करने की ओर बढ़ेगा। फिर जो कश्मीर में हो रहा है वह देशव्यापी हो जाएगा जिसके निशाने पर मज़दूर मेहनतकश अवाम होगी।
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