फासीवादी हिदू राष्ट्र की ओर बढ़ते कदम
अंततः बाबरी मस्जिद वाली कथित विवादित जमीन का मालिकाना न्यायालय ने हिन्दू पक्ष को देने के सम्बन्ध में अपना फैसला सार्वजनिक किया। 9 नवम्बर का दिन इस प्रकार फ़ासीवादियों के आगे न्यायिक संस्था के समर्पण का ऐतिहासिक दिन भी बन गया। यह फैसला अप्रत्याशित नहीं था पिछले साल भर से न्यायिक संस्था के रुख से यह साफ होने लगा था कि फैसला तथ्यों, तर्कों व संवैधानिक प्रावधानों के आधार पर नहीं बल्कि यह आस्था के आधार पर होगा।
न्यायालय द्वारा यह माना गया कि बाबरी मस्जिद ध्वंस होना ग़ैरकानूनी था गलत था इसी प्रकार यह भी कि 1949 में मस्जिद परिसर में मूर्तियां रखना गलत था, यह भी कहा गया कि मस्जिद के नीचे कुछ तो था मगर वहां मंदिर नहीं था और मस्जिद 16 वी सदी से बनी हुई थी। यह कहा गया कि अयोध्या में राम के जन्म को सभी हिन्दू मानते हैं यहां उनकी आस्था है हालांकि कोर्ट आस्था से नहीं चलता। मगर फिर फैसला आस्था के आधार पर दे दिया गया जिसमें 2.77 एकड़ जमीन हिन्दू पक्ष को दे दी गई। कहा गया कि सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड जमीन पर अपना मालिकाना हक को साबित नहीं कर सका इसे साबित करने के लिए दो- तीन सदी पुराने सबूत मांगे गये। सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड द्वारा प्रस्तुत राजस्व अभिलेख व गेजेट को खारिज कर दिया गया। हिन्दू पक्ष पर जमीन स्वामित्व से सम्बंधित कोई भी सबूत की मांग नहीं की गई।
न्यायालय ने सरकार को मंदिर बनाने के सम्बन्ध में एक ट्रस्ट के गठन व इसमें निर्मोही अखाड़े को उचित प्रतिनिधित्व निर्देश दिया गया। मुस्लिम पक्ष के लिए 5 एकड़ जमीन अयोध्या में ही कहीं भी राज्य सरकार या केंद्र सरकार किसी भी द्वारा देने का निर्देश दिया गया। इस प्रकार सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड के पास एक दौर में जो 67 एकड़ जमीन थी उसके अधिकांश का अधिग्रहण सरकार द्वारा 1993 में कर लिया गया था इसके बाद 2.77 एकड़ जमीन में से मात्र एक तिहाई हिस्सा मुस्लिम पक्ष को देने का फैसला हुआ था अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने यह जमीन भी जो वक़्फ़ बोर्ड के पास थी जिसमें बाबरी मस्जिद थी पूरी तरह से छीन ली।
इस फैसले से पहले संघियों ने कोर्ट के फैसला जो कुछ भी हो उसे स्वीकार किये जाने की खोखली बातें की थी। यह उन्हें पहले से ही भान था कि फैसला लगभग इसी ढंग का होगा। इसीलिए संघपरिवार के लोग मुस्लिम समुदाय से संबंधित संगठनों, बुद्धिजीवियों के बीच जाकर इस पक्ष में सहमत कराने व अपने पक्ष में सहमत कराने में जुटे थे। अब फैसला आ जाने के बाद 'एकजुट होने' 'मिलजुलकर रहने', 'न किसी की जीत न किसी की हार होने' की पाखंडी, लफ़्फ़ाजीपूर्ण बातें कर रहे हैं। जबकि स्पष्टत: यह फ़ासीवादी ताकतों की जीत है। मौजूदा आर्थिक संकट के लिए तात्कालिक तौर पर जिम्मेदार व आम अवाम के जीवन को ज्यादा गहन संकट की ओर धकेलने वाली फ़ासीवादी ताकतें बाबरी मस्जिद जमीन के सम्बन्ध में मौजूदा फैसले से और ज्यादा ध्रुवीकरण करने की दिशा में कामयाब हुए हैं।
जहां तक विपक्षियों का सवाल है सभी खुद को बहुसंख्यक आबादी यानी हिन्दू आबादी के पक्षधर दिखाने के खेल में व्यस्त हैं कॉंग्रेस तो खुद ही वर्तमान स्थिति के लिए जिम्मेदार है। सपा, बसपा, आप आदि सभी फैसले का स्वागत कर रहे है। इममें से कुछ तो यह भी कह रहे है कि कोर्ट के फैसले ने संघ परिवार से उनका मुद्दा छीन लिया है। ऐसा होने की एक वजह यह भी है कि ये भी जनवादी नही बल्कि भाजपा की ही तरह भ्रष्ट है। इन सभी को नरम हिंदुत्व को साथ लेकर चलने से कोई परहेज नही रहा है। सुधारवादी वामपंथी पार्टियां भी इस मसले पर 'धर्मनिरपेक्ष' व सही स्थिति लेने से कतरा रही हैं।
कोर्ट का यह फैसला भले ही यह कहता है कि मस्जिद मंदिर तोड़ कर नहीं बनाई गई है। लेकिन इससे कोई विशेष फर्क नही पड़ता। क्योंकि फैसला संघियों के पक्ष में है इसे वह अपनी जीत के रूप में व हिंदुओं की जीत के रूप में दिखाने में कामयाब हैं। इनका यह घृणित मन्तव्य पूरा हुआ। हिंदुओं विशेषकर सवर्ण लोगों के दिमाग में लंबे वक्त से जो जहर संघ परिवार व इससे ग्रस्त मीडिया ने भरा है वह यह कि देश में कांग्रेस के दौर में सब कुछ मुस्लिमों के हिसाब से तय होता रहा है हिन्दू लोग सदियों से व कांग्रेस के दौर में उपेक्षित रहे है उत्पीड़ित रहे हैं।हिंदुओं के साथ भारी अन्याय हुआ है। इसे संघी शब्दावली में 'मुस्लिमों का तुष्टिकरण' कहा जाता है। इसलिए एक ऐसी घृणित व फासीवादी मनोदशा निर्मित कर दी गई है जिसका मकसद मुस्लिमों को उत्पीड़ित, अधिकारहीनता की स्थिति में धकेल देना है। हज सब्सिडी, तीन तलाक, एक देश में दो कानून, कश्मीर, बांलादेशी घुसपैठिये आदि आदि के जरिये यह बात जेहन में बिठाई गई है।
कुलमिलाकर ये फैसला अल्पसंख्यक आबादी को असुरक्षा व अलगाव की ओर धकेलने वाला है इस फैसले ने पूरे तंत्र पर इनके भरोसे को बेहद कमजोर कर दिया है। अभी तक एक उम्मीद की किरण कोर्ट से थी मगर यह भी अब खत्म हो गई है। इसीलिए कइयों को यही कहकर खुद को तसल्ली देनी पड़ी "तुम्हारा शहर, तुम्हीं कातिल, तुम्ही मुंसिफ, हमें यकीन था, कसूर हमारा ही होगा" !
यह फैसला केवल मुस्लिमों को दोयम दर्जे में धकेकने वाला नहीं है बल्कि देश की समग्र मज़दूर मेहनतकश आबादी के खिलाफ है यह इनके जनवादी व संवैधानिक अधिकारों को व्यवहार में खत्म करने की ओर जाता है। उन्हें भी दोयम दर्जे की ओर धकेलने वाला है।
न्यायालय द्वारा यह माना गया कि बाबरी मस्जिद ध्वंस होना ग़ैरकानूनी था गलत था इसी प्रकार यह भी कि 1949 में मस्जिद परिसर में मूर्तियां रखना गलत था, यह भी कहा गया कि मस्जिद के नीचे कुछ तो था मगर वहां मंदिर नहीं था और मस्जिद 16 वी सदी से बनी हुई थी। यह कहा गया कि अयोध्या में राम के जन्म को सभी हिन्दू मानते हैं यहां उनकी आस्था है हालांकि कोर्ट आस्था से नहीं चलता। मगर फिर फैसला आस्था के आधार पर दे दिया गया जिसमें 2.77 एकड़ जमीन हिन्दू पक्ष को दे दी गई। कहा गया कि सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड जमीन पर अपना मालिकाना हक को साबित नहीं कर सका इसे साबित करने के लिए दो- तीन सदी पुराने सबूत मांगे गये। सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड द्वारा प्रस्तुत राजस्व अभिलेख व गेजेट को खारिज कर दिया गया। हिन्दू पक्ष पर जमीन स्वामित्व से सम्बंधित कोई भी सबूत की मांग नहीं की गई।
न्यायालय ने सरकार को मंदिर बनाने के सम्बन्ध में एक ट्रस्ट के गठन व इसमें निर्मोही अखाड़े को उचित प्रतिनिधित्व निर्देश दिया गया। मुस्लिम पक्ष के लिए 5 एकड़ जमीन अयोध्या में ही कहीं भी राज्य सरकार या केंद्र सरकार किसी भी द्वारा देने का निर्देश दिया गया। इस प्रकार सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड के पास एक दौर में जो 67 एकड़ जमीन थी उसके अधिकांश का अधिग्रहण सरकार द्वारा 1993 में कर लिया गया था इसके बाद 2.77 एकड़ जमीन में से मात्र एक तिहाई हिस्सा मुस्लिम पक्ष को देने का फैसला हुआ था अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने यह जमीन भी जो वक़्फ़ बोर्ड के पास थी जिसमें बाबरी मस्जिद थी पूरी तरह से छीन ली।
इस फैसले से पहले संघियों ने कोर्ट के फैसला जो कुछ भी हो उसे स्वीकार किये जाने की खोखली बातें की थी। यह उन्हें पहले से ही भान था कि फैसला लगभग इसी ढंग का होगा। इसीलिए संघपरिवार के लोग मुस्लिम समुदाय से संबंधित संगठनों, बुद्धिजीवियों के बीच जाकर इस पक्ष में सहमत कराने व अपने पक्ष में सहमत कराने में जुटे थे। अब फैसला आ जाने के बाद 'एकजुट होने' 'मिलजुलकर रहने', 'न किसी की जीत न किसी की हार होने' की पाखंडी, लफ़्फ़ाजीपूर्ण बातें कर रहे हैं। जबकि स्पष्टत: यह फ़ासीवादी ताकतों की जीत है। मौजूदा आर्थिक संकट के लिए तात्कालिक तौर पर जिम्मेदार व आम अवाम के जीवन को ज्यादा गहन संकट की ओर धकेलने वाली फ़ासीवादी ताकतें बाबरी मस्जिद जमीन के सम्बन्ध में मौजूदा फैसले से और ज्यादा ध्रुवीकरण करने की दिशा में कामयाब हुए हैं।
जहां तक विपक्षियों का सवाल है सभी खुद को बहुसंख्यक आबादी यानी हिन्दू आबादी के पक्षधर दिखाने के खेल में व्यस्त हैं कॉंग्रेस तो खुद ही वर्तमान स्थिति के लिए जिम्मेदार है। सपा, बसपा, आप आदि सभी फैसले का स्वागत कर रहे है। इममें से कुछ तो यह भी कह रहे है कि कोर्ट के फैसले ने संघ परिवार से उनका मुद्दा छीन लिया है। ऐसा होने की एक वजह यह भी है कि ये भी जनवादी नही बल्कि भाजपा की ही तरह भ्रष्ट है। इन सभी को नरम हिंदुत्व को साथ लेकर चलने से कोई परहेज नही रहा है। सुधारवादी वामपंथी पार्टियां भी इस मसले पर 'धर्मनिरपेक्ष' व सही स्थिति लेने से कतरा रही हैं।
कोर्ट का यह फैसला भले ही यह कहता है कि मस्जिद मंदिर तोड़ कर नहीं बनाई गई है। लेकिन इससे कोई विशेष फर्क नही पड़ता। क्योंकि फैसला संघियों के पक्ष में है इसे वह अपनी जीत के रूप में व हिंदुओं की जीत के रूप में दिखाने में कामयाब हैं। इनका यह घृणित मन्तव्य पूरा हुआ। हिंदुओं विशेषकर सवर्ण लोगों के दिमाग में लंबे वक्त से जो जहर संघ परिवार व इससे ग्रस्त मीडिया ने भरा है वह यह कि देश में कांग्रेस के दौर में सब कुछ मुस्लिमों के हिसाब से तय होता रहा है हिन्दू लोग सदियों से व कांग्रेस के दौर में उपेक्षित रहे है उत्पीड़ित रहे हैं।हिंदुओं के साथ भारी अन्याय हुआ है। इसे संघी शब्दावली में 'मुस्लिमों का तुष्टिकरण' कहा जाता है। इसलिए एक ऐसी घृणित व फासीवादी मनोदशा निर्मित कर दी गई है जिसका मकसद मुस्लिमों को उत्पीड़ित, अधिकारहीनता की स्थिति में धकेल देना है। हज सब्सिडी, तीन तलाक, एक देश में दो कानून, कश्मीर, बांलादेशी घुसपैठिये आदि आदि के जरिये यह बात जेहन में बिठाई गई है।
कुलमिलाकर ये फैसला अल्पसंख्यक आबादी को असुरक्षा व अलगाव की ओर धकेलने वाला है इस फैसले ने पूरे तंत्र पर इनके भरोसे को बेहद कमजोर कर दिया है। अभी तक एक उम्मीद की किरण कोर्ट से थी मगर यह भी अब खत्म हो गई है। इसीलिए कइयों को यही कहकर खुद को तसल्ली देनी पड़ी "तुम्हारा शहर, तुम्हीं कातिल, तुम्ही मुंसिफ, हमें यकीन था, कसूर हमारा ही होगा" !
यह फैसला केवल मुस्लिमों को दोयम दर्जे में धकेकने वाला नहीं है बल्कि देश की समग्र मज़दूर मेहनतकश आबादी के खिलाफ है यह इनके जनवादी व संवैधानिक अधिकारों को व्यवहार में खत्म करने की ओर जाता है। उन्हें भी दोयम दर्जे की ओर धकेलने वाला है।
No comments:
Post a Comment