Wednesday, 5 December 2018

बुलन्दशहर और फासिस्ट आन्दोलन

    बुलन्दशहर और फासिस्ट आन्दोलन

       दिसम्बर माह की शुरुवात में उत्तर प्रदेश में फिर फासिस्टों ने अपनी रणनीति को आगे बढ़ाया। बुलंदशहर के स्याना क्षेत्र में बजरंग दल, बी जे पी युवा मोर्चा व विश्व हिंदू परिषद द्वारा इस आंदोलन को आगे बढ़ाने की बातें सामने आ चुकी हैं। अखबारों के मुताबिक स्याना क्षेत्र में गोवंश के अवशेष पाए जाने की खबर गांव वालों से बजरंग दल के जिला संयोजक को मिली। फिर ट्रक्टर  इसे ले जाकर सड़क जाम कर दी गई। यह भी बात सामने आई है कि गांव के कुछ लोग बात यही खत्म कर देना चाहते थे। इन अवशेषों को खत्म कर देन चाहते थे।
       सड़क जाम की स्थिति में ही इंसपेक्टर द्वारा समझाए जाने पर इस अवशेष को जमीन में गाड़ देने और शांत हो जाने पर सहमति बन गयी लेकिन तभी फिर फासिस्ट लम्पटों ने पथराव किया। और  गोलियां भी चलाई गई। पुलिस वाले भाग गए। इंसेक्टर डटे रहे । अंततः इनकी हत्याहो गई। यह भी ध्यान में रखने की जरूरत है कि अखलाक मसले पर यही इंस्पेक्टर सुबोध जांच अधिकारी थे। यह फासीवादियों के फेवर में नहीं थे।
       यह बात भी नजरअंदाज नही की जा सकती है कि इस दौरान मुस्लिम समुदाय का एक धार्मिक कार्यक्रम भी चल रहा था। इसी क्षेत्र से कुछ किमी दूर जैनपुर गांव के लोगों ने मुस्लिमों के स्वागत में मंदिर वगैरह इनके लिए खोल दिये थे और इनका आतिथ्य सत्कार कर रहे थे। ये साम्प्रदायिक सौहार्द की मिसाल कायम कर रहे थे। इस धार्मिक कार्यक्रम के लिए 15 लाख से ज्यादा मुस्लिम समुदाय के लोग यहाँ शिरकत कर रहे थे। यह साम्प्रदायिक सौहार्द किनके लिए खतरनाक है निश्चित तौर पर तात्कालिक तौर पर साम्प्रदायिक पार्टियों व संगठनों के लिए ! अंततः शासकों के लिए।
        संघी प्रवक्ता और भाजपा के मंत्री आदि अब इस कार्यक्रम के प्रति ऐसा माहौल तैयार कर रहे हैं ताकि इस कार्यक्रम को संदेह, आशंका किसी षडयंत्र रचे जाने के रूप में देखा जाय। इस ढंग से भी यह अपने घृणित फ़ासीवादी आंदोलन को आगे बढ़ा रही हैं। फासिस्टों के तर्क के हिसाब से चला जाय तो कुम्भ, कांवड़ और अन्य मौकों जो लाखों करोड़ों लोग एक जगह एकजुट होते हैं तो वे षडयंत्र रचते हैं। षडयंत्र रचकर दंगे भड़काने वाले इसी नज़र से आम लोगो को देखते हैं। उनकी अपनी नज़र  और दिमाग ही इतना घृणित है।
       सतही तौर पर मामला इतना ही दिखता है। हकीकत में यह देश में खुलेआम और षडयंत्रकारी से आगे बढ़ते फ़ासीवादी आंदोलन का सूचक है। पुलिस अधिकारियों का शुरुवात में बजरंग दल के बचाव में आना, योगी और भाजपा का प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर किंतु परन्तु वाले बयान इस षडयंत्र की ओर इशारा करने के लिए पर्याप्त है।
     फासिस्ट आंदोलन की एक आम विशेषता यह भी है फासिस्ट दस्तों के माध्यम से आतंक व दहशत का माहौल कायम करना। इस घटना के माध्यम से भी यही संदेश दिया गया है कि एक इंस्पेक्टर को निपटा सकते हैं तो आम जन की क्या औकात।
     इस मामले में दो एफ आई आर हुई है। एक में बजरंग दल, भजपा युवा मोर्चा क विश्व हिंदू परिषद केकार्यकर्ता समेत 87 लोग नामजद हैं। जबकि दूसरी एफ आई आर मुख्य आरोपी बजरंग दल के जिला संयोजक की ओर से है जो गौकशी करने वालों के खिलाफ है। इस शख्श ने पहले यह कहा था कि उसने गाय को काटते हुए कुछ लोगों को वहां देखा था। जबकि जिस स्थल पर गोवंशीय अवशेष पाए जाने का जिक्र है वहां के लोगों ने इससे इनका किया है साथ ही इसके कोई सबूत भी नही हैं। यही नहीं बाद में यह अपने इस गाय को काटे जाते देखने के आरोप से एक वीडियो के जरिये मुकर गया।
      तमाम अन्य मामलों विशेषकर जो मुस्लिमों से जुड़े हुए होते हैं उन पर मीडिया ट्रायल के माध्यम से बेगुनाह को अपराधी बना देने या आतंकवादी बना देने वाले अब कह रहे हैं कि सिट की जांच होने दीजिए। पता चल जाएगा कि इन्होंने ( आरोपियों) ने कुछ भी नहीं किया है। इन्हें पहले से ही पता होता है कि जांच एजंसियां इनके हाथों में है इन्ही के मुताबिक या तोड़ मरोड़कर फ़ैसला दबाव में करवाया जा सकता है।
अब तस्वीर साफ होते जा रही है कि जिस ढंग से पार्टी, सरकार व पुलिस के उच्च अधिकारी व्यवहार कर रहे हैं यह आरोपियों को बचाने की दिशा में ले जाएगा और गोकशी के मामले को केंद्र मानते हुए इसी को वजह बनाते हुए निर्दोषों को फंसाने की दिशा में बढ़ा जाएगा। ऐसा भी हो सकता है कि मामले को षडयंत्र में तब्दील कर इसे 'हिन्दू-मुस्लिम' के रूप में बदल दिया जाय। अब तथ्यों को झूठ में बदल देने का पूरा खेल जा रहा है। अभी भी बजरंग दल का जिला संयोजक गिरफ्तार नहीं है। जबकि अन्य मामलों में पुलिस का रुख, कुर्की करने, घर वालों को हिरासत में लेने व भयानक टॉर्चर करने का होता है।
      जो भी हो कुछ इनके अपने चिर परिचित अंदाज के अनुरूप ही होगा। फिलहाल ये जिस धार्मिक कार्यक्रम को निशाने पर ले रहे हैं यह घृणित, साम्प्रदायिक, नस्लवादी व्याख्या वाले तर्क फासिस्ट, दक्षिणपंथी राजनीतिज्ञ ही कर सकते हैं जो इसके जरिये अपने आका पूंजीपतियों की सेवा करते हैं। अमेरिकी साम्राज्यवादी और भारतीय फासिस्ट इस मामले में एक जुबान हो जाते हैं जबकि दोनों सऊदी अरब जैसे शेखशाहियों से  जुगलबंदी बढ़ाते हैं।

Wednesday, 28 November 2018

नगर निकाय चुनाव पर

                  नगर निकाय चुनाव पर 
                                                   1-11-18
     
        नगर निकाय चुनाव बिल्कुल करीब हैं। कुर्सी के लिए रस्साकसी, जोड़-तोड़ जोर पर है। जिसे देखिए वो टिकट पाने को आतुर है बेचैन है। टिकट के लिए मारामारी चरम पर है। पार्टियों से टिकट न मिल पाने वाले बेचैन हैं सदमे में हैं। कल तक जिस पार्टी में थे उसे छोड़ कर, बगावत कर दूसरी पार्टी का दामन थाम रहे हैं। निर्दलीय बन जा रहे हैं। थुक्का फजीहत, गाली गलौज, दल बदलने, पैसा पानी की तरह बहाने का खेल लोकल स्तर पर अपने चरम पर है। जाहिर है जीतने के बाद इसका कई गुना कमाया जाएगा।  
          इस हंगामे में इन निकायों की 'आम जनता' कहां है ? 'आम जनता' के लिए इसमें क्या है ? छोटे दुकानदारों, खोखे फड़ वाले जिन्हें अतिक्रमण के नाम पर यहां उजाड़ दिया जाता है जिन गरीब मलीन बस्तियों को 'अवैध' कहकर यह निकाय उजाड़ देता है उनके लिए इस चुनाव में क्या है ? कुछ भी नहीं। हकीकत तो ये है कि ग्रामीण जनता के भारी विरोध के बावजूद नगर निगम बना दिये गए, नगर पालिकाएं बना दी गयी। यही होता है इस कथित 'लोकतंत्र' में। जहां लोक यानी जनता पर 'मर्जी' थोप दी जाती है। शासकों की मर्जी 'शासितों' पर थोप दी जाती है।      
       अक्सर ऐसा ही होता है। देश में 'चुनाव के मौके' ही केवल ऐसे 'मौके' होते हैं जब 'आम जनता' की बातें होती हैं जब पूंजीवादी नेता गलियों, मोहल्लों के चक्कर लगाते हैं जब जनता के लिए 'अच्छे दिन' लाने के वादे होते हैं। जिन नेताओं को जनता 'सांसद' 'विधायक' बनाती है वो फिर 'शासक' बन कर आम जनता को 'हैरान' 'परेशान' करते हैं, आम जनता के खिलाफ ही नीतियां बनाते है कानून बनाते हैं। ये कॉरपोरेट घरानों, पूंजीपतियों को मालामाल करते हैं खुद भी मालामाल होते हैं। यही हाल निकायों के भी हैं। जीतने वाले नेताओं के लिए तो यह 'ऊपर' तक पहुंचने की सीढ़ी है। 'सभासद' से होते हुए 'विधायक' 'सांसद' बनने की सीढ़ी!! 'अतिक्रमण' के नाम पर गरीब बस्तियों में बुलडोज़र चलवाने में ये भी आगे आगे होते हैं तब जनता 'माईबाप' नहीं 'अतिक्रमणकारी' होती है। इन निकायों के स्तर पर होने वाला खेल किसी से छुपा नहीं हैं। यहां गरीब मोहल्ले व पाश इलाकों के साथ होने वाले भेद भाव को हर कोई जानता है। साफ सफाई, नालियां, सड़क, स्ट्रीटलाइट व बीमारियों के समय कीटनाशकों का छिड़काव पाश इलाकों में समय समय पर होगा लेकिन गरीब बस्तियों व मोहल्लों की कौन सुध ले। इन गरीब इलाकों की तब इन्हें याद नहीं आती। आती है तो बस चुनाव के मौके पर!! 
          'आम जनता' चाहे वह कहीं की भी हो, किसी भी शहर की हो, किसी भी इलाके की हो उसके दुख दर्द एक से हैं उसकी मुसीबतें भी कमोबेश एक सी हैं उसकी इच्छाएं व मांगें भी लगभग एक सी हैं। 'आम जनता' के मुद्दे हैं - सुरक्षित सम्मानजनक रोज़गार, सूरसा की तरह बढ़ती महंगाई से मुक्ति, रहने के लिए आवास, सस्ती शिक्षा, सस्ता परिवहन, सस्ता व भरोसेमंद इलाज, बेटियों, महिलाओं के लिए अपराध व हिंसा से मुक्ति तथा सुरक्षित व शांति पूर्ण ज़िंदगी।            
         असल बात यही है कि नगर निकायों के चुनावों का इन मुद्दों से कोई सम्बन्ध ही नहीं है। इन मुद्दों पर ये नगर निकाय कुछ भी कर सकने की स्थिति में नहीं हैं। ये निकाय एक प्रकार से प्रशासनिक संस्थाएं हैं जो महज 'चुनी' हुई संस्था है। हालांकि अगर इसे अधिकार भी होता तब भी कुछ शायद ही हो पाता।
        संसद के हाल तो सबको पता ही हैं। सभी सांसद ( चुने गए नेता) संसद में बैठते हैं। संसद नीतियों व कानूनों को बनाने वाली संस्था है। लेकिन इन 80 सालों में कभी भी ऐसी नीति या कानून नहीं बने कि सभी आम नागरिकों को सम्मानजनक रोज़गार देना अनिवार्य हो, सस्ती शिक्षा-सस्ता इलाज-सस्ता आवास व यात्रा की गारंटी हो। जो कुछ भी हुआ वह सब पूंजीपतियों के हिसाब से हुआ। यही आज का सच भी है। 
         अब आज हालात बहुत कठिन बन चुके हैं। आज तो जो कुछ भी अधिकार एक वक्त में जनता को संघर्षों से हासिल हुए थे वह भी छीने जाने का वक़्त है। सब्सिडी, थोड़ा सस्ता राशन, कुछ सरकारी शिक्षा व अस्पताल व कुछ सरकारी नौकरियां! ये सब भी अब खत्म होने की ओर है। रोजगार के नाम पर भोजनमाताएं, आंगनवाड़ी, आशा वर्कर हैं या फिर ठेके पर नौकरियां ! यहां न्यूनतम वेतनमान भी नहीं है। जो कुछ श्रम कानून बने थे वे भी खत्म किये जा रहे हैं। करोड़ो बेरोजगार हैं। लेकिन इनकी फिक्र कौन करे ?
       5 साल में अक्सर 'नेता' बदल जाते हैं पार्टियां बदलती है सरकार बदलती है लेकिन आम जनता की समस्या बनी रहती है। यही नहीं परेशानी, दुःख-दर्द बढ़ते जाते हैं जबकि दूसरी ओर 'नेता' व पूंजीपति मालामाल होते जाते हैं। इसीलिए देश में एक ओर 10 टॉप पूंजीपतियों की पूंजी में भारी वृद्धि हुई है तो वहीं दूसरी ओर भुखमरी की शिकार आबादी में भी भारी वृद्धि होती है। लेकिन सरकार व राजनीतिक पार्टियों के लिए हिन्दू-मुस्लिम, मंदिर-मस्जिद जैसे मुद्दे ही बुनियादी मुद्दे हैं। यह सब जनता को तरह तरह से बांटने की साजिश के अलावा कुछ नहीं है। 
      इसकी असल वजह यही है कि यह पूंजीवादी समाज है। यह पूरा समाज पूंजी की जकड़न में है। इसने हर इंसान को असुरक्षित, अकेला और मानसिक तौर पर बीमार बना दिया है। यहां बड़ी बड़ी पूंजी के मालिक सब कुछ अपनी मुट्ठी में कर लेने को बेताब हैं। मुनाफे की इनकी घोर हवस ने समाज को गहरे संकट की ओर धकेल दिया है। इसलिए किसान, मज़दूर, बेरोजगार, छोटे-मझौले दुकानदार व आम महिलाएं सभी त्रस्त हैं हैरान-परेशान हैं। 
       मानवता ने जो कुछ भी बीते 100-200 सालों में हासिल किया, जो भी अधिकार हासिल किए थे अब पूंजी उसे भी निगलने की ओर बढ़ रही है। 'पूंजी के मालिक' अपनी पार्टी व सरकार के जरिये 'आतंकी तानाशाही' की ओर बढ़ रहे हैं। ये संविधान में हासिल जनवादी अधिकारों को संविधान बदले बिना खत्म कर रहे हैं। हर विरोध को 'देश द्रोह' कहकर कुचलना अब आम होता जा रहा है।    
        इसलिए अब जरूरत है अपने अधिकारों पर हो रहे हमलों के खिलाफ एकजुट होने की! शहीद भगत सिंह के बताए रास्ते की ओर बढ़ने की!! पूंजी के जकड़न से समाज को मुक्त कराने की !!! और समाजवादी समाज बनाने की ।

Saturday, 20 October 2018

यह हादसा नहीं व्यवस्थाजनित हत्या है !

       यह हादसा नहीं व्यवस्थाजनित हत्या है !
 
     अमृतसर में जोड़ा रेल फाटक के पास दशहरा का पर्व मनाने के दौरान ट्रेक पर दौड़ती ट्रेन की चपेट में आने से 62 से ज्यादा लोग मारे गए और 150 से ज्यादा लोग घायल हो गए। यह आम मेहनतकश नागरिकों के लिए दुखद ख़बर है। यह हम सभी को क्षोभ से भर देने वाली व आक्रोशित कर देने वाली खबर भी है। बताया जा रहा है कि यहां पर भीड़ मैदान की क्षमता से काफी ज्यादा थी और लोग ट्रेक पर भी खड़े थे। एक तरफ वी वी आई पी लोगों के लिए मैदान में मंच सजा था यो वहीं दूसरी ओर आम जन ट्रेक के इर्द गिर्द खड़े ही जाने को मजबूर हुए। साथ ही रेलवे प्रशासन से किसी प्रकार की अनुमति न लेने की बात भी उजागर हुई है। इस प्रकार भयानक लापरवाही व अयोजनाबद्धता के चलते आम नागरिक मारे गये। लेकिन मुख्य अतिथि के बतौर यहां शामिल कांग्रेस नेत्री नवजोत कौर सिंह ट्रेन की चपेट में आये लोगो की मदद के लिए प्रबन्ध करने के बजाय वहां से गायब हो गईं।
      इसे हादसा घोषित कर सरकार व राजनीतिक पार्टियां अपने अपराध पर पर्दा डाल रही हैं। इस ढंग के "घोषित हादसे" साल दर साल अलग अलग मौक़ों पर धार्मिक आयोजनों के वक़्त होते रहे हैं। उत्तराखंड में 2014 में केदारनाथ से लेकर बिहार या फिर कहीं और लोग यूं ही मारे गए और घायल हुए।
       दरअसल धर्म, अंधविश्वास आदि की जकड़ में आम जन के होने के चलते ऐसी जगहों पर भारी तादाद पर लोग इकट्ठे हो जाते हैं और फ़िर भयानक अराजकता, अव्यवस्था, अयोजनाबद्धता व लापरवाही के चलते भगदड़ मचने या फिर मौजूदा घटना की तरह आम लोग मारे जाते हैं। शासक अपना ढोंग करके थोड़ा मुआवजा फैंककर अपने गुनाहों पर पर्दा डाल देते हैं वास्तव में ये इनके द्वारा की जाने वाली परोक्ष हत्याएं हैं। ये आम जन को धार्मिक व अंधविश्वास की जकड़बंदी में जकड़े रखने के तमाम जतन करते हैं। आम जन इस जकड़बंदी में फंस कर तमाम तरीकों से इसका शिकार होता है। यदि शासक जनता के प्रति बेहद संवेदनशील होते और धर्मनिरपेक्ष राज्य को व्यवहार में भी कायम किया गया होता साथ ही इन जकड़बन्दियों से मुक्ति के लिए वैज्ञानिक चेतना का व्यापक प्रचार प्रसार कर जनता की चेतना को उन्नत किया गया होता तो ये निर्दोष नागरिक जो यहां मारे गए वह ज़िंदा होते।

Monday, 15 October 2018

‘‘मी टू’’ अभियान व भा ज पा

              ‘‘मी टू’’ अभियान   व  भा ज पा
 
      पिछले कुछ वक़्त से देश में #मी टू अभियान ने उन चेहरों को बेनकाब करना शुरू कर दिया है जो अपने उजले चेहरे के पीछे पाखण्ड एवं स्त्री विरोधी कृत्य किये बैठे हैं। यह आंदोलन अमेरिका से अन्य मुल्कों होते हुए भारत पहुंच गया है। फ़िल्म इंडस्ट्री से लेकर पत्रकारिता, खेल जगत में फिलहाल वो महिलाएं जिन्होंने कभी अपने अतीत में यौन शोषण या उत्पीड़न को झेला है अब उन   घटनाओं व व्यक्तियों को सामने ला रही है जिन्होंने तब अपने पद , ताकत, शोहरत का इस्तेमाल अपनी मातहत पर किया। इस अभियान में नाना पाटेकर , आलोक नाथ से लेकर भाजपा के केंद्रीय मंत्री और एक दौर के प्रख्यात पत्रकार संपादक एम जे अकबर पर ऐसे गम्भीर यौन उत्पीड़न के आरोप लगे है।
       केंद्रीय मंत्री एम जे अकबर के खिलाफ तो अब तक 4-6 महिला पत्रकार ने ऐसे आरोप लगाए है। यह राजनीतिक पार्टियों के लिए ऐसा मुद्दा बन गया है जो न उगलते बन रहा है न निगलते। इस पर सामान्य वक्तव्य देने के अलावा विशिष्ट रूप में कोई  बात या कार्यवाही की बात नही की गई है।
      जहां तक मोदी सरकार का रुख है इस मुद्दे पर मोदी का 'चिरपरिचित मौन' बरकरार है। वैसे भी 'स्नूपगेट' के आरोपियों से ऐसे असुविधाजनक 'मुद्दों' पर वक्तव्य देने की उम्मीद नही की जा सकती। एक ऐसी पार्टी से तो वैसे भी कतई नही जो पितृसत्तात्मक मूल्यों में सनी हुई हो जिसे 'वैवाहिक बलात्कार' पर कार्यवाही का मसला भारतीय संस्कृति या हिदू विवाह संस्कार पर हमला दिखाई देता हो। इसीलिए एम जे अकबर ने  अपने पीछे मोदी सरकार का वरदहस्त के साथ '97' वकील की टीम के दम पर उस महिला पत्रकार पर कानूनी कार्यवाही के रूप में हमला बोल दिया है जिसने एक वक़्त के बाद कुछ कहने का साहस जुटाया था।
      खैर! जहां तक इस अभियान की बात है # मी टू’’ की यही बात खास है कि यह सत्ताधारी वर्ग की शासक वर्ग की ढंकी-छिपी सच्चाई को बाहर लाता है। यहां उत्पीड़क और उत्पीड़ित दोनों ही पूंजीपति वर्ग के सदस्य हैं। उत्पीड़क अपनी कुत्सित यौन इच्छाओं को पूरा करने के लिए किसी भी हद तक गिर सकता है। वह राष्ट्रपति होकर या किसी प्रभावशाली पद पर होकर एक स्त्री के मान, गरिमा, इच्छा किसी से भी खेल सकता है। और जिससे खेला जा रहा हो वह अपने को इसके लिए चाहे-अनचाहे पेश करती है चुप रहती है क्योंकि चुप रहने से उस वक्त लाभ है। उसके कैरियर को सहारा मिल सकता है। उसे सफलता मिल सकती है। दौलत, शौहरत, ग्लैमर के साथ सेलीब्रेटी बनने का मौका मिल सकता है। यह उस समय कैरियर के लिए किया जाने वाला अति आवश्यक समझौता (कम्प्रोमाइज) बन जाता है।हर कोई जानता है कि ऐसा होता है। जो कर रहा है वह तो मजे ले रहा है। जिसके साथ हो रहा है वह मानता है यह एक कम्प्रोमाइज है। एक वक्ती चीज है।
       दरअसल सड़ते-गलते पूंजीवादी समाज की यह एक ऐसी सच्चाई है जिसे हर सामान्य, हर मजदूर-मेहनतकश स्त्री अपने रोज के अनुभव से जानती है, वह है उसके साथ होने वाला यौन दुर्व्यवहार। यह यौन दुर्व्यवहार सामान्य छेड़छाड़, फब्तियां कसने से लेकर वीभत्स गैंग रेप से आगे हत्या तक जाता है।
     '#मी टू ' अभियान से इस बात का अंदाजा लगाया सकता है कि जब शासक वर्ग के स्तर पर महिलाओं की यह स्थिति हो तब आम मज़दूर मेहनतकश महिलाओं की स्थिति कैसी होगी।
      यहीं से इस आन्दोलन की सीमाएं भी उजागर हो जाती है यह व्यापकता में इस समस्या को नही देखता। यह लैंगिक अधिकारों की बराबरी की बात करते हुए सामाजिक बराबरी की दिशा में नही जा पाता। हालांकि इसमें सकारात्मक कहने को यह है कि ऐसे मामले उछलने से, महिलाओं का खुल कर अपनी बात कहने से एक हद तक ऐसी मानसिकता वाले लोगो पर कुछ लगाम तो लगती ही है।
      लेकिन दूसरी तरफ यह मसले को व्यक्तिवादी बना देता है यह पुरुष बनाम स्त्री के रूप में समस्या को देखता है। यह स्त्री विरोधी मानसिकता, पुरूष प्रधान मानसिकता को पैदा करती सामाजिक आर्थिक व्यवस्था को चिन्हित नही करता। इस रूप में यह आंदोलन संकीर्ण भी है। यह मात्र सुधार की चाहत रखने वाला सहुलियत वाला आंदोलन है। यह इस पूंजीवादी व्यवस्था को अपने निशाने पर कतई भी नही लेता जिसने अपनी गति में महिलाओं को यौन वस्तु में तब्दील कर दिया है। यह केवल कुछ कानूनी नुक्तों के दम पर इस प्रकार के उत्पीड़न पर लगाम लगाने की चाहत रखता है।




  
  

  

प्रवासियों के खिलाफ गुजरात में हिंसा


प्रवासियों के खिलाफ गुजरात में हिंसा
 
महाराष्ट्र की तर्ज पर  गुजरात में भी उत्तर भारतीयों पर विशेषकर बिहार व उत्तर प्रदेश के लोगो पर बड़ी तादाद में हमले किये गए हैं। हिंसा व नफरत के चलते गुजरात छोड़कर गृह प्रदेश में वापस आना पड़ रहा है। ये सिलसिला अभी रुका नही है।
इस हिंसा के पीछे ठाकोर सेना का हाथ बताया जा रहा है। यह भी कहा जा रहा है कि गुजरात के कांग्रेस विधायक अल्पेश ठाकोर इसके पीछे है। कांग्रेस का आरोप है कि इसके पीछे भा ज पा है उनके संगठन है। आरोप प्रत्यारोप का यह सिलसिला जारी है।
 मामले के केवल तात्कालिकता तक जोड़ कर  असल वजह को छुपा लिया जाता है। हमने देखा है कि उत्तर भारतीयों के प्रति खासकर यहां के कामगारों मज़दूरों के प्रति जो रोजगार की तलाश में अपने प्रांत से महाराष्ट्र में गए हैं उनके प्रति एक गहरी नफरत भरी राजनीति का प्रचार शिव सेना व बाद में महाराष्ट्र नव निर्माण सेना ने निरन्तर किया है। इनके द्वारा अलग अलग वक़्त पर इन उत्तर भारतीयों लोगों पर हमले किये जाते रहे हैं। इस हमले में इन्होंने स्थानीय आबादी को अपने संकीर्ण पूंजीवादी राजनीति के इर्द गिर्द लामबद्ध किया और हिंसा में उसे भागीदार बनाया है।यही स्थिति गुजरात के मामले में भी है। यही असम में हिंदी भाषी मज़दूरों के साथ हुई हिंसा में भी देखा जा सकता है।

संघ परिवार व भाजपा लंबे समय से अपनी साम्प्रदायिक राजनीति में अल्पसंख्यक विशेषकर मुस्लिमों के प्रति नफरत का जमकर प्रचार व आंदोलन किया है। इस काम में कांग्रेस भी बहुत पीछे नही रही है। शिव सेना को खड़ा करने में कांग्रेस की भूमिका रही है।
 दरअसल रोज़गार का संकट पूरे देश के पैमाने पर मौजूद है गुजरात भी इससे अछूता नहीं है। आरक्षण के लिए अभी कुछ साल पहले हार्दिक पटेल की अगुवाई में जो आन्दोलन हुआ वहां से भी इस संकट को समझा जा सकता है। 
हकीकत यही है कि पूंजीवाद अपनी गति में आम तौर पर बेरोजगार आबादी को बढ़ाता है इसमें एक छोर पर पूंजी तो दूसरे छोर पर कंगाली , बेरोजगारी का संचय होता जाता है। इस बेरोज़गारी का समाधान पूंजीवाद के रहते आम तौर पर सम्भव नहीं है। ऐसी स्थितियों में पूंजीवादी राजनीति एक समय में इस संकट का आभासी समाधान ही प्रस्तुत करती है। इसमें से एक आभासी समाधान यह भी है कि एक क्षेत्र , प्रांत या देश में बेरोजगारी के लिए दूसरे क्षेत्र, प्रांत के लोगों या या धर्म , नस्ल आदि के लोगों को बताया जाय। इस संकीर्ण, साम्प्रदायिक, विभाजनकारी राजनीति का परिणाम अपनी निरंतरता में नफरत व हिंसा को बढ़ाने वाला होता है। गुजरात में भी जो हिंसा हुई है उसके मूल में यही है। जहां तक सभी नागरिकों को सम्मानजनक रोज़गार उपलब्ध कराने का सवाल है यह केवल नियोजित व योजनाबद्ध समाजवादी अर्थव्यवस्था में ही सम्भव है। जहां पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के बुनियादी अंतर्विरोध को हल कर लिया जाता है।

Monday, 8 October 2018

पेट्रोल डीजल की बढ़ती कीमतें और निरन्तर कमजोर होता रुपया

  पेट्रोल डीजल की बढ़ती कीमतें और निरन्तर कमजोर होता रुपया
       
        पेट्रोल डीजल की कीमतें मोदी सरकार के जमाने में तुलनात्मक तौर पर बहुत तेजी से बढ़ती चले गई है और मौजूदा वक्त में यह पेट्रोल 90 तक डीजल 80 तक पहुंच चुका है।
         अब चुकीं एक ओर तीन राज्यों में जल्द ही चुनाव होने है और फर छः माह बाद लोक सभा के चुनाव होने हैं। दूसरी ओर शेयर मार्केट इस बीच लगातार संकट में है इस दबाव में 2.5 रुपये की कटौति की घोषणा तेल की कीमतों में के गई है। कुछ राज्यों के स्तर पर वैट कम करने के बाद तेल की कीमतों में 2.5 से लेकर 5 रुपये की कटौती की बातें की जा रही है।
         कोई कह सकता है कि मोदी सरकार ने जनता को राहत दी है लेकिन हकीकत क्या है ? हकीकत यह है कि मोदी सरकार ने 4 साल में अपनी सत्ता के दौरान औसतन  2.5 लाख करोड़ रुपये जनता से उगाहे हैं जबकि कुल 10 लाख करोड़ रुपए जनता से वसूले गए हैं। 2013-14 में यू पी ए के जमाने में 88,600 करोड़ रुपये वसूले गए थे जबकि इस बीच अंतराष्ट्रीय स्तर पर तेल की कीमतें 137 डालर प्रति बैरल हो गए थे। 2014-15 के मोदी काल के दौर में अंतर्राष्ट्रीय सिर पर तेल की कीमतों के 45 डालर प्रति बैरल हो जाने के बावजूद तेल की कीमतें बढ़ाई गई और 1.05 लाख करोड़ रुपये जनता से वसूले गए। और आज भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तेल ( क्रूड ओइल ) की कीमतें 70-80 के बीच बनी हुई हैं। सरकार की वसूली के इतर बात की जाए तो यही स्थिति तेल की मार्केटिंग व रिफाइनिंग कम्पनियों की भी बनती है। ये भी जमकर मुनाफा कूत रही हैं।
        एक आर टी आई के माध्यम से भी यह बात उजागर हुई है कि भारत कई देशों को तेल के निर्यात करता है और इस तेल को 40 रुपये से भी कम कीमत पर कई देशों को बेचा जा रहा है। यह हास्यास्पद ही है कि तेल आयातक देश के शासक अपने देश में उत्पादित तेल का निर्यात करते हैं या करने की अनुमति देते हैं।
           तेल की निरन्तर बढ़ती कीमतों के लिए मात्र अंतराष्ट्रीय बाजार को जिम्मेदार ठहराया जाता है । यू पी ए सरकार के बाद मोदी सरकार का भी यही तर्क था। टेक्स में नाममात्र की कटौती करके तेल की कीमतों में कटौति करने से यह बात साबित हो गई की सरकार का तर्क झूठा था। असल में तेल पर 80-90 % टैक्स लगने के बाद तेल की कीमतें दुगुनी से भी ज्यादा हो जाती हैं।
दरअसल 90 के दशक में देश के हुक्मरानों ने कल्याणकारी राज्य के मॉडल से पिंड छुड़ाकर खुली बाजार वाली अर्थव्यवस्था की ओर कदम बढ़ाए थे। 90 के दशक से पहले का कल्याणकारी राज्य जहां पूंजीपति वर्ग के हितों के अनुरूप था वहीं 'निजिकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण' के रूप में 90 के दशक में लागू होने वाली नीतियां भी इसी के हितों व तत्कालीन जरूरतों के अनुरूप था। इन्ही नीतियों के तहत कांग्रेस के जमाने में पेट्रोल डीजल की कीमतों को विनियंत्रित किये जाने व इसे बाजार से लिंक करने की ओर कदम बढ़ाए गये। कुछ सीमाएं रखी गई जैसे 50 पैसे से ज्यादा एक माह न बढ़ा पाने का। लेकिन मोदी सरकार ने आते ही इन सीमाओं को भी हटाकर इसे पूरी तरह बाजार से लिंक कर दिया। नतीजा आज सामने है।
         यही स्थिति रुपये की कीमत में डालर के सापेक्ष गिरावट के मसले पर है। 1965 में साम्रज्यवादी संस्था अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष से कर्ज लिया गया। इस कर्ज के एवज में रुपये का अवमूल्यन करना पड़ा । जो लगभग 4 रुपये का एक डालर था तब रुपये की कीमत गिराकर 7 रुपये से ज्यादा एक डालर के बराबर कर दिया गया। और फिर 90 के दशक में नई आर्थिक नीतियों को लागू करने के बाद भारतीय शासकों का साम्रज्यवादी मुल्कों से सीमित दूरी बरते जाने की नीति में भी बदलाव आया और साम्राज्यवादी मुल्कों से निकटता बढ़ते गई। इसी के साथ साथ डालर के सापेक्ष रुपये का की कीमत भी गिरते गई। साम्राज्यवादी सस्थाओं द्वारा इस तरह से मुद्रा की कीमत गिराकर किसी मुल्क को लूटा जाता है। इसके चलते आयात किसी देश के लिए महंगा व उस देश से होने वाला निर्यात सस्ता होता जाता है।
          मोदी सरकार ने सत्ता संभालते ही यू पी ए के दौर की ही नीतियों को तेजी से आगे बढ़ाना शुरू कर दिया था। आज स्थिति ज्यादा स्पष्ट है कि एकाधिकारी पूंजी के हितों में मोदी सरकार ने आम जनता की आर्थिक व सामाजिक स्थिति को पीछे धकेल दिया है ।



Monday, 17 September 2018

माओवादी लिंक व पी एम की हत्या की धमकी की फर्जी खबर के नाम पर गिरफ्तारियां

       माओवादी लिंक व पी एम की हत्या की    
    धमकी की फर्जी खबर के नाम पर गिरफ्तारियां

     




       देश में पिछले कुछ माह पहले गुजरात की तर्ज  पर मुख्य मीडिया पर खबर उछाली गई कि भीमाकोरेगांव आन्दोलन की अगुवाई करने वालों कुछ लोगों के लिंक माओवादियों से है और एक फर्जी पत्र के जरिये दावा किया गया कि माओवादी प्रधानमंती की हत्या की योजना बना रहे हैं। देश के अधिकांश लोगों ने इस पर भरोसा नहीं किया। कोई भी यह विश्वास नहीं कर सकता कि एक लिखित पत्र द्वारा इस ढंग की योजना को अंजाम दिए जाने वाले खबर सही है।  शासकों में जो माओवादियों के तौर तरीकों से भिज्ञ था वो  भी एक पत्र के आधार पर इस  उड़ाई गई खबर पर   भरोसा करने को तैयार नहीं था। सभी के लिए मोदी की गुजरात स्टाइल चिरपरिचित थी वह यह कि मोदी की लोकप्रियता के गिरते ग्राफ़ और मोदी की हत्या किए जाने की खबर साथ साथ चढ़ते थे। और फिर फर्जी एनकाउंटर का सिलसिला चल पड़ता था। 
       यही आज देश के स्तर पर है। अच्छे दिनों के ख्वाब का नारा  आम अवाम के लिए बुरे और दुखदायी दिनों में बदल चुका है। कथित गौरक्षको के दस्ते के हमले में कई मुस्लिमों व दलितों पर हमले हो चके हैं विरोध करने वाले जेलों में ठूंसे जा रहे है । इन स्थितियों में मोदी का ग्राफ लगातर गिरता जा रहा है। यह मोदी को सत्ता पर बिठाने वाले कॉरपोरेट घरानों के लिए चिंता का विषय है और खुद संघ से लेकर भाजपा के लिए। क्योंकि मोदी को महानायक के रूप में प्रोजेक्ट कर ही वो भी सत्ता पर पहुंचे है।  
      ऐसी स्थिति में जरूरी था कि इस ढंग की खबर उछली जाय कि उसकी आड़ में में कई निशाने सध जाएं।एक तरफ फासिस्टों का विरोध करने वाले जनपक्षधर लोगो को लपेटा जा सके, मोदी के गिरते ग्राफ को थाम कर मोदी पक्ष में सहानुभूति का माहौल खड़ा किया जाय साथ ही देश की जनता के हर हिस्से से वोट हासिल किए जा सकें और भीमा कोरेगांव के दलित आंदोलन को देशव्यापी होने से रोक दिया जाय। इसी मकसद से फिर 8 जनपक्षधर लोगों की गिरफ्तारी की गई। लेकिन शासक भूल जाते हैं कि उनकी अपनी ये सभी करतूतें जनता को उनके खिलाफ खड़ा करती है और जनता को उस दिशा में धकेलती हैं जहां शासकों का वज़ूद  मिटाया जा सके।

 
 

Tuesday, 7 August 2018

     असम में नागरिकता आंच पर भारतीयता 




  


      (बिज़नेस स्टैण्डर्ड का यह लेख एक हद तक संघ परिवार के मंतव्य व उनकी राजनीति को बेनकाब करता हुआ ) 
साभार ( business standard..शेखर गुप्ता | Aug 05, 2018)

    


      


        मैं आपको रवांडा का कोई किस्सा नहीं सुनाऊंगा। उसके बारे में विकीपीडिया पर काफी जानकारी मौजूद है। मुझे शायद आपको 35 वर्ष पुराने नेल्ली नरसंहार का किस्सा सुनाने की भी आवश्यकता नहीं है। वह भी अब हमारी राजनीतिक लोककथाओं का हिस्सा है। मैं आपको खोइराबाड़ी, गोहपुर और सिपाझार जैसी उन जगहों के बारे में बताऊंगा जिनके विषय में कम लोग जानते हैं। इन दिनों जब असम में राष्ट्रीय नागरिक पंजी (एनआरसी) को लेकर इतना राजनीतिक ध्रुवीकरण हो रहा है तो ब्रह्मïपुत्र के उत्तरी तट पर स्थित इन जगहों को याद करना जरूरी है।
      सन 1983 में ब्रह्मïपुत्र घाटी में हुई हत्याओं में करीब 7,000 लोग मारे गए थे। इनमें 3,000 से अधिक मुस्लिम थे जिन्हें 18 फरवरी की अलसुबह नेल्ली में कुछ ही घंटों में जान से मार दिया गया था। शेष हत्याएं जगह-जगह हुईं और इनमें भी अधिकांश मुस्लिम ही मारे गए। परंतु मैंने जिन तीन स्थानों का जिक्र किया है वहां मरने वाले भी हिंदू थे और मारने वाले भी हिंदू ही थे। अगर गुस्सा विदेशी नागरिकों (पढि़ए मुस्लिमों) के खिलाफ था तो हिंदू ही हिंदुओं को क्यों मार रहे थे? पूर्वोत्तर और असम की तमाम बातों की तरह यह भी एक जटिल किस्सा है जिसकी कई परत हैं। एक-एक करके बात करते हैं। हमलावर हिंदू, असमी बोलने वाले थे। उन्होंने बंगालियों की हत्या की। भाषायी और जातीय घृणा एकदम सांप्रदायिक नफरत की हद तक पहुंच रही थी। नेल्ली जैसी बंगाली मुस्लिमों की अधिक आबादी वाली जगहों पर कहानी आसान थी और असमी हिंदुओं ने बंगाली मुसलमानों की हत्या की। हर कोई एक दूसरे की जान के पीछे पड़ा था। भाजपा और सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर उस घातक मिश्रण को भडक़ा दिया है।40 लाख लोग एनआरसी के मसौदे में जगह बनाने में नाकामयाब रहे हैं। बतौर सरकार और पार्टी भाजपा की भाषा इस मामले में अलग-अलग है। गृहमंत्री राजनाथ सिंह का कहना है कि यह अंतरिम और पहला मसौदा है। अमित शाह संसद में उन्हें घुसपैठिया कह चुके हैं। अगर आप उन 40 लाख संभावित लोगों में होंगे तो आप इसे कैसे देखेंगे? आपको लगेगा कि आपको निशाना बनाया जा रहा है। पूर्व मुख्यमंत्री तथा भाजपा के कनिष्ठ सहयोगी दल असम गण परिषद के मुखिया पहले ही इससे असहमति जता चुके हैं।          
         संभावना यही है कि इन 40 लाख में से अंतिम सूची में 5 लाख नाम ही बचेंगे। पूरी प्रक्रिया में अनियमितता है जो टिकेगी नहीं। गौहाटी उच्च न्यायालय ने स्थानीय लोगों की उस मांग पर मुहर लगा दी है कि ग्राम पंचायत से मिले प्रमाणपत्रों को नागरिकता का प्रमाण नहीं माना जाएगा। अब आधार के आगमन के पहले से यहां रह रहे ये गरीब लोग कौन सा प्रमाण लाएंगे? राज्य सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में इसके खिलाफ अपील भी नहीं की। किसी और ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। सबसे बड़ी अदालत ने उच्च न्यायालय के आदेश पर मुहर तो नहीं लगाई और उच्च न्यायालय से कहा कि वह मानक तय करके बताए कि पंचायतों के किन प्रमाणपत्रों को मान्यता दी जाएगी। इसी भ्रम में सर्वोच्च न्यायालय ने एनआरसी की तैयारी को गति प्रदान की। इन प्रमाणपत्रों को लेकर अगर तार्किक सोच अपनाई गई तो कोई बाहरी व्यक्ति नहीं बचेगा। भाजपा ऐसा नहीं चाहती। न्यायालय ने सन 1985 के राजीव गांधी- आसू/एएजीएसपी शांति समझौते की भावना के अनुरूप काम किया। इसमें वादा किया गया था कि नागरिकता निर्धारण के वास्ते एनआरसी के लिए 25 मार्च, 1971 को कट ऑफ वर्ष माना जाएगा। इसका अर्थ यह था कि जो लोग उस तारीख से पहले भारत आ गए थे उन्हें भारतीय नागरिक माना जाएगा। यह बात इंदिरा गांधी और शेख मुजीबुर्रहमान के समझौते के अनुरूप थी जिसके तहत बांग्लादेश, भारत से अपने करीब एक करोड़ शरणार्थियों को वापस लेने को तैयार हो गया था। इनमें से करीब 80 फीसदी हिंदू थे। इंदिरा गांधी चाहती थीं कि हिंदू-मुस्लिम सभी शरणार्थी लौट जाएं।  
         सन 1985 में यानी आज से 33 वर्ष पहले जब राजीव गांधी ने असम में विद्रोहियों के साथ समझौता किया था तो एनआरसी को इसी आधार पर रखने का वादा किया था। तमाम वजहों से एनआरसी अब तक नहीं तैयार हो सका। इस बीच दो और पीढिय़ां बड़ी हो गईं। क्या अब आप उनको देश से बाहर भेज सकते हैं या उनकी नागरिकता समाप्त कर सकते हैं? भाजपा भी जानती है कि यह संभव नहीं है। अगर भाजपा का कोई व्यक्ति कहता है कि इसमें कोई राजनीति नहीं है तो उनसे पूछिए कि क्या उन्होंने अमित शाह का भाषण नहीं सुना? उन्हें इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने पूरी पारदर्शिता के साथ 2019 के चुनाव अभियान की शुरुआत कर दी। विकास के दावे अक्सर इसके वादे से कम लुभावने निकलते हैं। केंद्र में दूसरा कार्यकाल हासिल करने के लिए भाजपा राष्ट्रवाद के नाम पर धु्रवीकरण करेगी। असम में यह मसला तब तक सुलगता रहेगा। भाजपा लाखों लोगों को घुसपैठिया कहती रहेगी। देश में बांग्ला भाषी मुस्लिमों को तब तक इस चिप्पी के साथ जीना होगा। माना जा रहा है कि ‘धर्मनिरपेक्ष’ विपक्ष, वाम धड़े के बौद्धिक समर्थन के साथ मजबूरन इनके बचाव में उतरेगा। इससे माहौल यह बनाया जाएगा कि वे मुस्लिमों के समर्थक और राष्ट्र विरोधी हैं। कांग्रेस इस जाल को देख रही है लेकिन उसके पास इसका कोई जवाब नहीं है। अगर 2019 का चुनाव मुस्लिम समर्थक और मुस्लिम विरोधी के खांचे में बंटा तो भाजपा की जीत तय है। अमित शाह के लिए असम केवल देश भर में राष्ट्रवाद की भावना भडक़ाने का जरिया है। शाह और भाजपा अपनी चुनावी राजनीति को दूसरों से बेहतर समझते हैं। पर क्या उनको असम की समझ है? मैं आपको 35 वर्ष पीछे ले चलता हूं। मैं गुवाहाटी के नंदन होटल के छोटे से कमरे में रुका था। मुझसे मिलने जो चार लोग आए थे वे विनयशील और प्रभावी लोग थे। वे किंकर्तव्यविमूढ़ नजर आ रहे थे। उनके नेता थे के एस सुदर्शन, जो उस वक्त राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के बौद्धिक प्रमुख थे। बाद में वह सरसंघचालक बने। उनमें से दो बाद में आरएसएस में पूर्वोत्तर विशेषज्ञ बने और अब संघ और भाजपा सरकार में अहम पदों पर हैं। वह मुझसे यह जानने आए थे कि महीने की शुरुआत में हुए असम के दंगों में इतनी बड़ी तादाद में बंगाली हिंदू कैसे मारे गए? उनका सवाल था कि असम के लोग मुस्लिम घुसपैठियों और हिंदू शरणार्थियों में भेद क्यों नहीं कर पा रहे? सुदर्शन ने पूछा कि वे खोइराबाड़ी में इतने हिंदुओं को कैसे मार सकते हैं? मैंने उन्हें असम में हुए इस हत्याकांड के पीछे की जातीय और भाषायी जटिलता समझाई। सुदर्शन ने कहा कि किंतु हिंदू तो अरक्षित है? यह बातचीत सन 1984 में आई मेरी किताब असम: द वैली डिवाइडेड (पृष्ठ 121-122) में दर्ज है। उसके बाद आरएसएस ने असमी विद्रोहियों को नए सिरे से शिक्षित करने का अभियान चलाया। जैसा कि मैं लिख चुका हूं। गत विधानसभा चुनाव में मिली जीत उसी सफलता का पुरस्कार है। असम में भाजपा में अब आसू और अगप के तमाम पुराने लोग शामिल हैं। प्रदेश के मुख्यमंत्री और उनके सबसे ताकतवर सहयोगी भी उनमें से ही हैं। परंतु जैसा कि उन्होंने सन 1983 में अपनी युवावस्था में किया था, इस बार भी उन्हें एनआरसी के मामले में आरएसएस/भाजपा की शर्तों पर काम करना मुश्किल होगा: यानी बंगाली मुस्लिमों को निशाना बनाना और हिंदुओं को साथ लेना। भाजपा ने असम को 2019 के लिए अपना प्रमुख हथियार बनाना तय किया है। जैसा कि हमने नोटबंदी से देखा, शाह और मोदी बड़े जोखिम उठा सकते हैं। बहरहाल, राजनीतिक लाभ के लिए आर्थिक नुकसान झेलना एक बात है और असम में पुरानी आग भडक़ाना दूसरी बात। संभव है कि शांति बरकरार रहे लेकिन अगर ऐसा नहीं हुआ तो मामला फिर हिंदू बनाम मुस्लिम, असमी बनाम बंगाली, हिंदू या मुस्लिम, हिंदू बनाम हिंदू और मुस्लिम बनाम मुस्लिम का बन जाएगा।

पाकिस्तानी अवाम के लिए जैसे नवाज वैसे इमरान

        पाकिस्तानी अवाम के लिए जैसे नवाज वैसे इमरान
 (साभार - enagrik.com)


    
आतंकवादी हमलों और भारी खून-खराबे के बीच पाकिस्तान में आम चुनाव सम्पन्न हो गये। किसी भी पार्टी को केन्द्र में सरकार बनाने लायक आवश्यक सीटें नहीं मिलीं। इमरान खान की पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में जरूर उभरी है।

    इस चुनाव में नवाज शरीफ की पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग के खिलाफ आक्रोश की ज्यादा अभिव्यक्ति हुयी है। उसके वर्तमान प्रधानमंत्री शाहिद अब्बासी और भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश नवाज शरीफ के भाई शहबाज शरीफ चुनाव हार गये। यह चुनाव ऐसे वक्त में हो रहे थे जब नवाज भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण जेल में हैं।

    इमरान खान की पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर सामने आयी है परन्तु खुद इमरान खान अपनी जीत को लेकर कितने आश्वस्त थे, यह उनके पांच स्थानों से चुनाव लड़ने से स्पष्ट हो जाता है।

    आम चुनावों के प्रति पाकिस्तान की जनता के रुझान को इस बात से समझा जा सकता है कि लगभग आधे मतदाता चुनाव में मतदान करने ही नहीं आये। पाकिस्तान में 10.6 करोड़ मतदाता हैं तथा इस चुनाव में मतदान का अनुमान 50 से 55 फीसदी का है।

    लगभग आधे मतदाताओं का मत न डालना और उसमें इमरान खान की पार्टी का सरकार बनाने लायक आवश्यक सीट न मिल पाना दिखा देता है कि पाकिस्तान में बड़ी पार्टियों के खिलाफ कितना समर्थन है। उनके खिलाफ काफी आक्रोश है। पूर्व में सत्ता में रही पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी अब अपने वजूद के लिए लड़ रही है।

    नवाज शरीफ और आसिफ अली जरदारी (पीपीपी के नेता व पूर्व राष्ट्रपति) भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे हुए हैं। दोनों पार्टियों को कम सीटें मिलना इनके घटते जनाधार को दिखलाता है।

    पाकिस्तान में सेना का दखल जीवन के हर क्षेत्र में है। यह आम धारणा है कि पाकिस्तानी सेना प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष ढंग से इमरान खान की पार्टी की मदद इस चुनाव में कर रही थी। पाकिस्तानी सेना के इतिहास और उसके स्वयं के आर्थिक हितों को देखते हुए यह बात सही ही है। पाकिस्तान में यह धारणा मशहूर है कि वहां पर तीन ए (अल्लाह, आर्मी, अमेरिका) ही देश को चला रहे हैं।

    धार्मिक कट्टरपंथियों व तालिबानी मानसिकता के वर्चस्व, सेना तथा अमेरिकी साम्राज्यवाद के हस्तक्षेप के चलते ही पाकिस्तान में यह धारणा बनी है।

    पाकिस्तान की संसद में 342 सीटें हैं। इनमें से 272 पर भारत की तरह चुनाव होता है। शेष 70 सीटों में 60 सीटें महिलाओं के लिए तथा 10 सीटें धार्मिक अल्पसंख्यकों और जनजातीय समूहों के लिए आरक्षित होती हैं। इन सीटों पर प्रतिनिधित्व कम से कम पांच फीसदी मत पाने वाली पार्टियों में अनुपातिक प्रणाली के आधार पर होता है। भारत में पाकिस्तान के लोकतंत्र को गाली देने वाले संघी-भाजपाई मानसिकता के लोगों के लिए यह शायद कुछ सीख दे।

    पाकिस्तान अपने जन्म से अब तक सैन्य तानाशाही और संसदीय लोकतंत्र के दौर से गुजरता रहा है। परवेज मुशर्रफ की सैन्य तानाशाही के बाद से अब पिछले कुछ वर्षों से वहां एक के बाद एक नागरिक सरकारें आती रही हैं। इस मामले में पाकिस्तानी सेना किसी हद तक पर्दे के पीछे रही है। यहां यह बात गौर करने की है कि संसदीय लोकतंत्र पूंजीवादी तानाशाही का ही एक रूप है। यह पूंजीपति वर्ग के शासन को दीर्घजीवी बनाता है। संसदीय चुनाव में एक पार्टी की हार व दूसरे की जीत आम मजदूर-मेहनतकश में इस बात का भ्रम पैदा करती है कि अब कुछ ठीक होगा। परन्तु होता यह है कि पूंजीपति वर्ग की एक पार्टी या गुट के स्थान पर दूसरा गुट सत्ता में काबिज हो जाता है। जनता की दिक्कतें, आकांक्षायें सभी अपनी जगह पर रह जाती हैं। यही पाकिस्तान में हो रहा है।

    नवाज शरीफ की पार्टी के सत्ताच्युत होने और इमरान की पार्टी के सत्ता पर काबिज होने से पाकिस्तान के मजदूरों, किसानों के जीवन में कोई फर्क नहीं पड़ेगा। पूंजीपति वर्ग-नौकरशाहों-सेना का गठजोड़ उसके ऊपर सवारी गांठता रहेगा। जरूरत इस बात की है कि पाकिस्तान का मेहनतकश अवाम जल्द से जल्द इस बात को समझे और महसूस कर एक मुकम्मिल इंकलाब की तैयारी करे। पूंजीवादी निजाम की जगह समाजवादी निजाम कायम करे। 


Wednesday, 11 July 2018

भीड़ द्वारा हत्याएं और उसके समर्थक

         भीड़ द्वारा हत्याएं और उसके समर्थक                        
      
                                
      
             अब तक त्रिपुरा से लेकर महाराष्ट्र तक भीड़ 27 लोगों की हत्याएं कर चुकी हैं। अब ये सिलसिला आगे बढ़ता ही जा रहा है।  भाजपा के  बहुमत से सत्तासीन होने के बाद ये घटनाएं बहुत तेजी से बढ़ती ही जा रही हैं। स्थिति यह पैदा कर दी गई है कि कोई कभी भी इनका शिकार हो सकता है।
        दादरी में कुछ साल पहले अखलाक के घर से तलाशी लेने व गौमांस के आरोप में हत्या कर दी गई थी। उसके बाद यह संख्या अलग अलग मुद्दों के नाम से बढ़ती जा रही है। दादरी में हत्यारी भीड़ के कुछ लोगो  का भाजपाइयों से सीधे सम्बन्ध था। गौरक्षा के नाम पर हो रही हत्याओं व मारपीट के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर संघ परिवार व उसकी फ़ासीवादी राजनीति ही जिम्मेदार है।
         भाजपा के मंत्री जयंत सिंह द्वारा हत्यारी भीड़  का फूल मालाओं से स्वागत करना व मिठाई खिलाना दिखलाता है कि असल में इनको भाजपा का खुला समर्थन हासिल है।झारखंड के रामगढ़ में गौरक्षक दल की हत्यारी भीड़ ने एक 55 साल के मुस्लिम की हत्या कर दी थी। इन्ही में से 11 को कोर्ट ने सजा सुनाई थी अभी ये जमानत पर आए ही थे कि केंद्रीय मंत्री जयंत सिंह  इनका स्वागत करने वहां हाज़िर हो गए। इन 11 में बीजेपी के स्थानीय नेता नित्यानंद महतो, गौ-रक्षक समिति और बजरंग दल के कार्यकर्ता शामिल थे।भाजपाइयों के अन्य नेता भी कुछ अलग ढंग से इन्हें अपना समर्थन जाता चुके हैं।यह फ़ासीवादी ताकतों का इन्हें समर्थन ही है जो ऐसे फासिस्ट मनोवृत्ति वाली भीड़ को अगली हत्या या मारपीट की घटना को अंजाम देने के लिए प्रेरित करना है। और ये अपने कदम उस ओर बढ़ा लेते हैं।        
        विशिष्ट मामलों में भीड़ द्वारा नियम कानून से परे जो अपने नफरत व आक्रोश के हिसाब से अपराधी को दंडित करती है मार डालती है कि वजह यह भी होती है कि लंबे समय से अपराध अन्याय को झेलने  हो और लंबे समय तक अपराधियों को कोई सजा न मिलने के चलते पुलिस व न्याय तंत्र से विश्वास खत्म हो जाने के चलते और फिर प्रतिक्रिया में अपराधी को सबक सिखाने की मानसिकता बन जाने से ये हमले होते हैं। लेकिन ऐसा बहुत कम ही होता है।
         भीड़ द्वारा हत्याएं दुनिया में पहले भी हुई है। अमेरिका में  20 वीं सदी में भीड़ द्वारा हत्याओं को अन्जाम देने, फांसी पर लटका दिया जाता था। भीड़ द्वारा जो हत्याएं की जाती थी उनमें बड़ी संख्या में अफ्रीकी व अमेरिकी अश्वेत लोग होते थे।  हमारे देश में भी कमजोर गरीब मेहनतकश ही इनका शिकार हो रहे हैं विशेषकर मुस्लिम और दलित।
      मौजूदा वक्त में इंटरनेट के जरिये अफवाह फैलाकर फासिस्ट मनोवृत्ति वाले लॉगों को हत्या या किसी को सजा देने के लिए उकसाना व एक जगह पे एकजुट करना भी आसान हो गया है।
       मोबलिंचिंग की घटनाएं,  फासिस्ट संगठनों का फैलाव  व इनका सम्बन्ध भी पूंजीवाद के संकट के साथ बढ़ता है नौकरी का संकट, तबाह बर्बाद होना अपनी जड़ों से उखड़ कर अन्यत्र पहुंचने को विवश होना, पुराने सामाजिक मूल्य मान्याताओं व पारिवारिक सम्बन्धों का तेजी से तबाही अन्य सामाजिक संकट आदि का गहराना।
          शासक पूंजीपति वर्ग अपनी हितों के मद्देनज़र फासीवादियों को आगे बढ़ाता है। चूंकि ये फ़ासीवादी मनोवृत्ति वाली भीड़ यदि फासिस्टों से जुड़ी हुई नहीं हो तब भी ये फासिस्ट दस्तों की भूमिका आसानी से ग्रहण कर सकते हैं। यह फासीवादी जानते हैं। इसीलिए किसी भी प्रकार उनसे सम्बन्ध बनाये रखते हैं। इसीलिए जयंत सिंह से लेकर मोदी शाह तक सभी इन्हें ना नुकुर, आलोचना करते हुए समर्थन भी कर रहे हैं। हालांकि इनका एक बड़ा हिस्सा तो संघ परिवार की फ़ासीवादी राजनीति के तहत ही यह सब कर रहा है।
          इसलिए आज जरूरी है कि मोबलिंचिंग की हर घटना का सख्ती से विरोध किया जाए। साथ ही पूंजीवाद की फ़ासीवादी राजनीति को बेनकाब किया जाए। फ़ासीवादी कदमों का दृढ़ता से विरोध किया जाए।
         

Sunday, 24 June 2018

संवैधानिक तानशाही के 4 दशक बाद ....

    संवैधानिक तानशाही के 4 दशक बाद .... 
                              (  26 जून 1975 )


        जून 1975 के आपात काल के आतंक के दौर को  गुजरे हुए अब लगभग 4 दशक गुजर चुके है। आज के दौर की फ़ासीवादी सरकार खुद  को "लोकतंत्र के रक्षक" के रूप में प्रस्तुत कर रही है। वह इस संवैधानिक तानाशाही को इंदिरा गांधी की व्यक्तिगत आकांक्षा के चलते या फिर ज्यादा से ज्यादा कॉंग्रेस का लोकतंत्र पर हमले के रूप में प्रस्तुत कर रही है। यही कुछ हद तक अन्य पूंजीवादी उदार बुद्धिजीवी भी करते है। बस दोनों में ये फर्क है कि मोदी एंड कंपनी इस आड़ में फासीवाद की ओर बढ़ रही है फासीवाद कायम करना ही इनका मकसद है जबकि उदार पूंजीवादी बुद्धिजीवी लोकतंत्र को वर्ग निरपेक्ष व्यवस्था के रूप में प्रस्तुत करते हैं।
       26 जून को इंदिरा गांधी की सरकार ने देश में 'आपात काल' थोपा था।  'तानाशाही' संविधान अनुच्छेद 352 के जरिये ही कायम हुई थी। तब आम नागरिकों के सभी जनवादी व संवैधानिक अधिकारों को निलंबित कर दिया गया। लगभग सवा लाख लोगों को गिरफ्तार कर जेलों में ठूंस दिया गया। सरकारी आतंक पुलिस के जरिये कायम कर दिया गया।जन संघर्षों का भयानक दमन किया गया। जबरन नसबंदी अभियान चलाया गया तथा सौंदर्यीकरण के नाम पर 7 लाख गरीब मज़दूर मेहनतकशों को दिल्ली से बाहर गंदगी में खदेड़ दिया गया था।
       इस संवैधानिक तानाशाही के जरिये पूंजीवादी जनतंत्र जो कि पूंजीपति वर्ग की आम अवाम पर तानाशाही का छुपा रूप है जिसमें अवाम को सीमित अधिकार हासिल होते है वह नग्न होकर अपने वास्तविक स्वरूप में सामने आ गयी। यह संवैधानिक तानाशाही भी तब शासक पूंजीपति वर्ग द्वारा देशव्यापी जनसंघर्षों से निपटने का ही तरीका था। यह 'इंदिरा की सनक' का नतीजा नहीं बल्कि शांतिपूर्ण तरीके से अपने शोषण उत्पीड़न से अवाम के इनकार कर देने व सड़कों पर संघर्ष के लिए उमड़ आने का नतीजा था।  हक़ीक़त ये है कि पूंजीवादी विकास का जो रास्ता शासकों ने आज़ादी के चुना था वह संकट दर संकट आगे बढ़ता रहा। 65 में आई एम एफ से करार के रूप में कर्ज लेना व फिर डॉलर के सापेक्ष रुपये का भारी अवमूल्यन कर देना। 1973 तक आते आते देश में अनाज का संकट , डीजल-पेट्रोल की कीमतें आसमान छूने लगना, बेरोजगारी का भयावह हो जाना व  तनख्वाह देना बहुत मुश्किल  जाना। यही नही रेलवे के 21 दिन के ऐतिहासिक हड़ताल, पी ए सी की यूनिट का बगावत कर देना साथ नक्सलबाड़ी आंदोलन स्थिति इस हद तक गंभीर थी खाने पीने की चीजों के बहुत महंगे होने से कई जगह पर दंगे होने लगे। शासकों का दूसरा हिस्सा भी इस माहौल में 'इंदिरा गद्दी छोड़ो' का नारा दे रहा था। इन स्थितियों में शासक पूंजीपति वर्ग के लिए जरूरी हो गया कि इन सब पर सख्ती से लगाम लगाये। इंदिरा गांधी ने 26 जून को आंतरिक सुरक्षा का तर्क देकर 'मीसा' लगाकर  तानाशाही थोप दी ।
      कांग्रेस के इंदिरा गांधी के 'गरीबी हटाओ' की जगह 4 दशकों बाद आज "धर्म-संस्कृति और राष्ट्रवाद" का चोला पहनी हुई पार्टी भाजपा है नेता ' नरेंद्र मोदी' हैं जिनका नारा था "अच्छे दिन आएंगे"। अब खतरा तानाशाही का नहीं बल्कि फासीवाद यानी खूनी आतंकी तानाशाही का है।
        वैश्विक आर्थिक के संकट के इस दौर में पूरी दुनिया में जनविरोधी नवउदारवादी नीतियों को तेजी से आगे  बढ़ाने के साथ शासक पूंजीपति वर्ग अपनी राजनीति में भी घोर प्रतिक्रियावादी होता चला गया है वह दक्षिणपंथी या फ़ासीवादी ताकतों को आगे बढ़ा रहा है। यही हाल भारत में भी हैं । साल 2014 में ही देश एकाधिकारी पूंजीवादी घरानों ने मोदी व संघ परिवार को सत्ता पर बिठाया है। सत्ता में पहुंचने के बाद यह फ़ासीवादी आंदोलन लगातार  आगे  बढ़ रहा है।
       इन्होंने संविधान व जनवादी अधिकारों को व्यवहार में लगभग खोखला बना दिया है। खान-पान, रहन-सहन अपने पसंद-नापसंद के हिसाब से जीवन जीने के अधिकार  साथ ही 'आलोचना करने' 'सवाल उठाने' के अधिकार पर इन्होंने हर तरफ हमला बोला है। किसी के घर में घुसकर उसकी खाने-पीने की तलाशी लेने का मसला हो या विवाह का मसला हो इन्होंने इस पर भी 'भारतीय संस्कृति' व 'लव जिहाद' के नाम से हमला बोला है। अखलाक की हत्या व केरल का हदिया प्रकरण, तनुसेठ का पासपोर्ट मामला ये इसी की अभिव्यक्ति है।
       तानाशाही को तो आम जनता तो तत्काल महसूस कर सकती है व जन विरोधी सरकार को साफ साफ पहचान सकती है इसलिए इसके विरोध में संघर्ष कर सकती है। लेकिन फासीवाद तो आम जनता के ही बड़े हिस्से को फ़ासीवादी ताकतें द्वारा झूठ-लफ्फाजी के जाल में फंसाकर कायम होता हैं। इसलिए इसका विरोध बहुत कठिन व जटिल हो जाता हैं क्योंकि जिस जनता की बर्बादी व तबाही हो रही होती है उसका बड़ा हिस्सा "अच्छे दिनों" की उम्मीद में फासीवादियों के साथ खड़े हो जाता है। वर्तमान दौर का आम जनता के लिए बड़ा खतरा फासीवाद का है जो बिल्कुल हमारे निकट है। निश्चित तौर पर इसका जवाब फासीवाद विरोधी शक्तियों का सड़कों पर संघर्ष ही हो सकता है ।
     अतीत में इंदिरा की तानाशाही का जवाब आम जनता ने अपनी एकता व संघर्षों से दिया था । यही दुनिया में हुआ था जब हिटलर के फासीवाद को सोवियत रूस की क्रांतिकारी जनता  ने ध्वस्त कर दिया था । बढ़ते फ़ासीवादी खतरे का जवाब आज भी यही है। यानी मज़दूर मेहनतकश जनता की एकजुटता, समाजवाद के लिए संघर्ष, इसी के साथ फासीवाद विरोधी ताक़तों की एकजुटता। कोई मोदी व भाजपा विरोधी चुनावी मोर्चा इस फ़ासीवादी आंदोलन का जवाब नही हो सकता।
                 

     

    





Saturday, 2 June 2018

केंद्रीय सेमिनार व तुरिकोरिन प्रदर्शनकारियों की हत्या के विरोध में प्रस्ताव

 केंद्रीय सेमिनार व तुरिकोरिन प्रदर्शनकारियों की हत्या के विरोध में प्रस्ताव
 
      क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन (क्रालोस) का केन्द्रीय सेमिनार 27 मई के दिन बरेली में सम्पन्न हुआ।  सेमिनार का विषय- ‘‘मेहनतकशों, दलितों, अल्पसंख्यकों व जनवादी ताकतों पर बढ़ते फासीवादी हमले’’ था। इस सेमिनार में शामिल होने के लिए उ.प्र. तथा उत्तराखण्ड व पंजाब से लोग आए थे।
      सेमिनार का प्रारम्भ प्रगतिशील सांस्कृतिक मंच द्वारा प्रस्तुत क्रांतिकारी गीत ‘एक है उनकी एक है अपनी मुल्क में आवाजें दो’ से हुआ। केन्द्रीय सेमिनार में क्रालोस महासचिव भूपाल द्वारा सेमिनार पत्र प्रस्तुत किया गया जिसमें पिछले 4 वर्षों में दलितों पर हुए संघी हमलों, मुसलमानों पर हमलों, जनवादी चिंतकों पर हमलों का जिक्र किया गया। और बताया गया कि फासीवाद से लड़ने के नाम पर पूंजीवादी-संशोधनवादी दलों के चुनावी मोर्चे फासीवाद को चुनौती नहीं दे सकते। फासीवाद को चुनौती मजदूर वर्ग के नेतृत्व में सड़कों पर संघर्ष के जरिये ही दी जा सकती है।
       सेमिनार को संबोधित करते हुए बरेली काॅलेज के पूर्व प्राचार्य डा. सोमेश यादव ने मेहनतकश वर्ग, दलितों और महिलाओं पर हमले बढ़ने पर चिंता व्यक्त की और कहा कि जो लोग सरकार की नीतियों की आलोचना कर रहे हैं या जनता की आवाज उठा रहे हैं उनकी हत्याएं तक की जा रही हैं।
       पूर्वोत्तर रेलवे कार्मिक यूनियन (PRKU) के मण्डलीय अध्यक्ष राकेश मिश्रा ने कहा कि वर्तमान फासीवादी आंदोलन निजीकरण को तीव्र गति से लागू कर रहा है। आंकड़ों के माध्यम से देश में बढ़ती बेरोजगारी की तस्वीर रख राकेश मिश्रा ने बताया कि किस प्रकार फ़ासीवादी ताकतें इस मुद्दे को गायब कर धर्म के नाम के राजनीति कर रहे हैं।
      प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र की बदायूं इकाई सचिव एड. नफशां निगार ने महिलाओं पर बढ़ते अत्याचार-बलात्कार की प्रवृत्तियों पर इशारा करते हुए कहा कि फासीवादी संगठनों की महिलाओं को घर में कैद रखने की प्रवृत्ति और पितृसत्तात्मक मूल्य तथा उपभोक्तावादी मूल्य महिलाओं पर अत्याचार को बढ़ा रहे हैं। इसका प्रतिरोध करना होगा।
      परिवर्तनकामी छात्र संगठन (पछास) के केन्द्रीय अध्यक्ष कमलेश ने कहा कि शिक्षा व संस्कृति को अपने फासीवादी एजेंडे के हिसाब से ढालने का संघ परिवार हर जतन कर रहा है।। इसलिए विश्वविद्यालय तथा काॅलेज भी फासीवादियों से उस टकराहट का अखाड़ा बन रहे हैं। जेएनयू, एएमयू आदि इसके उदाहरण हैं। छात्रों की स्वतंत्र सोच व चिंतन तथा अभिव्यक्ति पर संघ तथा मोदी सरकार का यह सुनियोजित हमला कर रही है।
       BTUF के महामंत्री संजीव मेहरोत्रा ने सेमिनार को संबोधित करते हुए कहा कि आज श्रम कानूनों व ट्रेड यूनियन कानूनों पर हमले हो रहे हैं तो दूसरी ओर आम जन को मिलने वाली चंद सुविधाएं व सब्सिडी हर क्षेत्र में खत्म हो रही हैं। जनता का पैसा पूंजीपतियों को कर्जे के रूप में दिया गया, उसकी वसूली जनता से की जा रही है।
       क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन (क्रालोस) के केन्द्रीय अध्यक्ष पी.पी.आर्या ने सेमिनार के समापन सत्र पर बोलते हुए कहा कि फासीवादी जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं आम अवाम के हर हिस्से को अपने विरोध में करते जाते हैं। यही इनकी असल कमजोरी है और हमारी ताकत। हमें मजदूरों, छात्रों, दलितों, अल्पसंख्यकों, आदिवासियों, किसानों व महिलाओं के हर तबके व वर्ग पर होने वाले फासीवादी हमले का पुरजोर विरोध करते हुए आगे बढ़ना होगा।
       इसके अलावा सेमिनार में बरेली से प्रो. ताहिर बेग, उन्नाव से किसान संगठन के प्रतिनिधि, बरेली से सी पी एम के राजीव शांत व अन्य साथियों ने अपने विचार रखे।
    सेमिनार में तूतीकोरिन प्रदूषण के चलते अस्तित्व का खतरा पैदा हो जाने से वहां की स्थानीय जनता के स्टर्लाइट कम्पनी के खिलाफ प्रदर्शन पर तमिलनाडु राज्य सरकार द्वारा गोलियां चलाने व 13 निर्दोष लोगों की निर्मम हत्या के विरोध में एक प्रस्ताव पारित किया गया। साथ ही एक प्रस्ताव देश में बढ़ते फसीवादी हमलों के खिलाफ पारित किया गया।
       सेमिनार के समापन के बाद अंत में एक जुलूस फासीवाद विरोधी नारों के साथ चौकी चौराहे से कोतवाली अम्बेडकर पार्क तक निकाला गया।

Sunday, 20 May 2018

सेमिनार पेपर

                             सेमिनार पेपर
  
               मेहनतकशों ,दलितों, अल्पसंख्यकों व जनवादी ताकतों पर बढ़ते फासीवादी हमले
     
                आज देश का वह हर नागरिक जो भी न्याय, अमन व जनवाद की बात करता है; संवैधानिक अधिकारों की बात करता है ; वंचित ,शोषित व दमित नागरिकों , समूहों व वर्गों के पक्ष में आवाज उठाता है संघर्ष करता है ; सत्ता व सरकारों की नीतियों व नीयत पर सवाल दर सवाल खड़े करता है वह साफ साफ महसूस कर सकता है देख सकता है कि बीते 4 सालों में देश का राजनीतिक परिदृश्य काफी बदल गया है कि देश  जिस राजनीतिक दिशा की ओर बढ़ रहा है वह देश के मज़दूर मेहनतकश नागरिकों, वंचित व दबे कुचले समूहों के लिये आसन्न गंभीर खतरे की आहट है। यह गंभीर खतरा देश के पूंजीवादी लोकतंत्र से फासीवाद की ओर बढ़ने का है एक खूनी आतंकी तानाशाही की ओर बढ़ने का है। यह वही खतरा है जिसे बीसवीं सदी के तीसरे-चौथे दशक में विशेषकर यूरोप के मुल्कों ने झेला था जिसे आज हम नाज़ीवाद व फासीवाद से जानते हैं। देश में मौजूद इन फासीवादी ताकतों का मुख्य औजार 'कट्टर व उग्र हिंदुत्व' 'मुस्लिम विरोध', 'अंधराष्ट्रवाद'  व 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' है।
               जहां तक दमन का सवाल है ! ऐसा नहीं कि दमन पिछली सरकार या कांग्रेस के दौर में न हुआ हो!  कोई ऑपरेशन ग्रीन हंट को कैसे भूल सकता है ? 18 माह के इंदिरा गांधी के दौर के आपात काल को कैसे भुला सकता है ? आज़ाद भारत में एक ही दिन में 55 हज़ार लोगों पर मुकदमा दर्ज कर 8000 लोगों पर राजद्रोह का मुकदमा यू पी ए-2 के ही काल में लगा था। दमन के ऐसे ही अनगिनत उदाहरण भरे पड़े है लेकिन फ़िर भी कहना ही होगा कि 16 मई 2014 के बाद राजनीतिक दिशा व देश में माहौल बहुत तेजी से बदला है। पिछले समय विशेषकर 4 सालों की बात करें तो देश में मज़दूर वर्ग, मेहनतकशों, दलितों, अल्पसंख्यकों विशेषकर मुस्लिमों पर हमले बहुत तेजी से बढ़े हैं। एक ओर 90 के दशक की नवउदारवादी नीति (निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण) का हमला बहुत तेज गति से आगे बढ़ा है नोटबंदी व जी एस टी की मार से जनता का बहुत बड़ा हिस्सा अभी भी कसमसा रहा है तो दूसरी ओर अंधराष्ट्रवाद के उन्माद में "देशभक्ति" का पैमाना बदलकर विरोधियों को "देशद्रोही" घोषित कर हमले किये जा रहे हैं।
                  यदि घटनाओं की बात की जाय तो तस्वीर ज्यादा साफ हो जाएगी। गुजरात जो कि फासीवादी शक्तियों का गढ़ रहा है वहां 2016 में गौरक्षा के नाम पर हमले बढ़ गए। गाय को शुद्ध व पवित्र घोषित कर इसकी रक्षा का नारा भाजपा व संघ परिवार के साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का औजार है जिसके निशाने पर मुस्लिम हैं। चुनावी राजनीति में वोट के लिए 'हिन्दू राष्ट्र' के पैरोकारों, जातिव्यवस्था को आदर्श मानने वालों को अम्बेडकर प्रेम या दलित प्रेम का दिखावा करना पड़ता है लेकिन इनके हमले का निशाना दलित भी बनने ही थे। यह गुजरात के ऊना में जानवरों का चमड़ा निकालने वाले 4-5 दलितों के साथ बहुत बुरी तरह मारपीट करने व उनके बीच दहशत फैलाने के लिए मारपीट की वीडियो को प्रचारित करने के रूप में प्रकट हुआ। इस दौरान भाजपा सरकार बेशर्मी के साथ मार पीट करने वाले गौरक्षक दलों के साथ खड़ी रही।
                  ज्यादा दूर व अन्य घटनाओं की चर्चा ना भी करें और सहारनपुर के शबीरपुर में मेहनतकश दलितों पर हुए बर्बर व कातिलाना हमले को ही लें। मई 2017 में महाराणा प्रताप जयन्ती मनाने वाली राजपुताना सेना ने सुनियोजित तरीके से शबीरपुर गांव में तकरीबन 50 घरों में हथियारों के साथ हमला कर दिया जिसमें 8-9 दलितों को गंभीर चोटें आई। तकरीबन 50 घरों में आग लगा दी गई। इसके बाद मेहनतकश दलित नौजवानों ने प्रतिरोध दर्ज करते हुए न्याय के लिए उग्र संघर्ष किया तो इस संघर्ष का बर्बर दमन किया गया। कोई आंदोलन खड़ा न हो सके इसके लिए पुलिसिया व भगवा आतंक के दम पर फर्जी मुकदमे व गिरफ्तारियां कर खौफ व दहशत का माहौल कायम किया गया। इस संघर्ष की अगुवाई करने वाले भीम आर्मी के युवाओं में से एक चन्द्रशेखर को आज भी फर्जी मुकदमे लगाकर जेल में रखा गया है। योगी -मोदी की संघी सरकार का फासीवादी रुख इन्हें सबक सिखाने का है। यही हो भी रहा है। एस सी-एस टी एक्ट में कोर्ट द्वारा बदलाव कर इसे कमजोर करना भी परोक्ष तौर पर फ़ासीवादी आंदोलन के आगे बढ़ने का ही सूचक है इसके विरोध में 2 अप्रैल के भारत बंद व इसके बाद ख़ासकर भाजपा शासित राज्यों का रुख योगी की तर्ज पर प्रदर्शनकारियों को सबक सिखाने व इनमें दहशत कायम करने का ही है।
          एक ओर दलित तो दूसरी ओर मुस्लिम समुदाय के खिलाफ भी गौरक्षक दस्तों का आतंक इस दौरान बढ़ा। वैसे भी संघ के 'हिन्दू राष्ट्र' की फ़ासीवादी संकल्पना में अल्पसंख्यक दोयम दर्जे के हैं जिन्हें अधिकारहीनता की स्थिति में जीना होगा। इनके इस फ़ासीवादी मंसूबों के निशाने पर विशेषकर मुस्लिम शुरू से ही रहे हैं। केंद्र की सत्ता में बहुमत से पहुंचने के बाद स्पष्ट था कि मुस्लिमों पर हमले बढ़ते। अब उत्तर प्रदेश के दादरी में सुनियोजित तरीके से अखलाक की हत्या कर इनके बीच दहशत कायम की गयी। यहां भाजपा नेता की अगुवाई में लोगों को एकजुट किया गया। फ़िर अखलाक़ के घर में गौमांस होने की अफवाह फैलाकर अखलाक़ की हत्या कर दी गई। अब संविधान को व्यवहार में खत्म कर फासीवादी यहां अपनी जीत का जश्न मनाने के लिए फिर अगले घृणित कारनामों की ओर बढ़ गये।
          यूं तो संविधान में हर नागरिक को अपने संस्कृति व धर्म को मानने की आज़ादी है इसके हिसाब से खान पान व रहन सहन की आज़ादी है मगर संघ परिवार इसके खिलाफ बहुत सुनियोजित तरीके से अफवाह एवं फर्जी तथ्यों से बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय में मुस्लिमों के खिलाफ नफरत का बीजारोपण करता रहा है इसीलिए यह संभव हो सका कि एक तरफ गौमांस के नाम पर अख़लाक़ की हत्या होती है तो दूसरी ओर लम्पट फ़ासीवादी तत्व पहनावे के चलते भी मुस्लिमों को अपना निशाना बना देते हैं । एक तरफ़ राजस्थान में गौपालन कर दूध बेचने वाले मुस्लिम पहलू खान की हत्या कर दी जाती है तो दूसरी ओर राजस्थान में ही अवैध संबंधों में रुकावट बन जाने पर शम्भू लाल रेंगर द्वारा एक मज़दूर मुस्लिम अफराजुल की हत्या कर दी जाती है । इसी शम्भू लाल रेंगर को फासीवादियों ने रामनवमी में अपना स्थानीय हीरो बना दिया। यू पी की योगी सरकार ने इसी फासीवादी रुख के चलते अवैध स्लॉटर हाउस को बंद करने के नाम पर मेहनतकश मुस्लिमों पर परोक्ष तौर से हमला बोल दिया। यही स्थिति फर्जी एनकाउंटर के मसले पर भी है। साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को या सही कहा जाय तो फ़ासीवादी आंदोलन को नई ऊंचाई तक पहुंचाने के लिए 'तीन तलाक', 'राम मंदिर', धारा 370 जैसे मुद्दे भी लगातार ही फ़ज़ाओं में उछाले जाते रहे हैं। आलम यह है कि केरल के हादिया प्रकरण को "लव जिहाद" का मुद्दा बनाकर इसमें केंद्र की संघी सरकार ने एजेंसी एन आई ए को ही लगा दिया।
                     शिक्षा व संस्कृति को अपने फ़ासीवादी एजेंडे के हिसाब से ढालने के लिए संघ परिवार के हर जतन हो रहे हैं। इसलिए कॉलेज भी फासीवादियों से इस टकराहट का अखाड़ा बन रहे हैं। विश्विद्यालयों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों व शोधार्थियों पर मोदी सरकार का हमला बढ़चढ़कर हो रहा है। यह हमला मोदी, मोदी सरकार की नीतियों व संघ परिवार की आलोचना करने वालों को फ़ासीवादी ताकतों का जवाब है। हमले का यह सिलसिला चेन्नई के आई आई टी कॉलेज में 'अम्बेडकर-पेरियार' स्टडी सर्किल(ए पी एस सी) ग्रुप पर हमले के रूप में हुआ। इस ग्रुप को संघ के विद्यार्थी संगठन की शिकायत पर मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा जारी पत्र के आधार पर कॉलेज प्रशासन ने प्रतिबंधित कर दिया। इनका कसूर सिर्फ इतना था कि इन्होंने एक पर्चा जारी किया था जिसमें साम्प्रदायिकता व कॉरपोरेट घरानों के गठजोड़ पर हमला करते हुए मोदी सरकार को आम जनता के लिए खतरनाक बताया था। संघ परिवार व मोदी सरकार का दूसरा निशाना बना हैदराबाद यूनिवर्सिटी का अंबेडकर स्टूडेंट एसोसिएशन। इनके घृणित हथकण्डे ने इस एसोसिएशन से जुड़े छात्र रोहित वेमुला को आत्महत्या के लिए मजबूर कर दिया ।
                   जवाहर लाल नेहरू विश्विद्यालय के मामले में तो संघ परिवार ने लगातार ही अपने घृणित हमले जारी रखे। मीडिया, पुलिस व सरकारी मशीनरी का इनमें जमकर इस्तेमाल किया गया। फ़र्ज़ी वीडियो बनाकर अपने लोगों के जरिये फ़ासीवादियों ने जे एन यू को देश द्रोहियों का अड्डा घोषित कर दिया। कोर्ट में भी संघी वकीलों द्वारा पेशी पर ले जाये जा रहे जे एन यू छात्रों पर हमला किया गया। एफ़ टी टी आई के छात्रों पर किये गए हमले से हम रूबरू ही हैं। फासीवादियों के ये कारनामे इनके जनवादी व संवैधानिक अधिकारों पर खुले आम हमले थे। इस दौर में हरियाणा, इलाहाबाद कॉलेज में भी फासीवादी ताकतों ने हमला किया। मामला यही नहीं रुका। बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में छात्र-छात्राओं पर रात के अंधेरे में मोदी-योगी की संघी सरकार ने लाठी चार्ज करवा दिया। यहां छात्राओं ने छेड़खानी के विरोध में यूनिवर्सिटी के संघी वाइस चांसलर से मुलाकात कर अपनी मांगें उनके सम्मुख रखनी चाही थी लेकिन संघी मानसिकता के वाइस चांसलर ने मुलाकात से मना कर दिया व मांगो को कोई तवज्जो नहीं दी। इसके बजाय इन्हें सबक सिखाने के लिए दमन का रास्ता चुना गया। लाठीचार्ज के बाद 1200 छात्र-छात्राओं पर फर्जी मुकदमे दर्ज कर दिये गए। यह घटना मोदी-योगी की संघी सरकार के स्त्री विरोधी चरित्र को भी दिखलाता है। स्त्री-पुरुष की सामाजिक असमानता को भी धूर्त संघी प्राकृतिक ही बताते हैं।
                      संघ परिवार अपनी जहनियत में तार्किक व वैज्ञानिक चिंतन का भी विरोधी है।  खुद प्रधानमंत्री ने वैदिक जमाने में गणेश का हवाला देकर प्लास्टिक सर्जरी होने का दावा किया था। आम तौर पर आम अवाम को अतार्किक व मूढ़ बनाये रखना शासक वर्ग के हित में होता है। इसी बात को समझते हुए फ़ासीवादी इतिहास परिवर्तन की परियोजना पर तेजी से काम कर रहे हैं जिसका मकसद अपने इसी हिन्दू फ़ासीवादी एजेंडे को दीर्घकालिक तौर पर आगे बढ़ाना है। इसलिए प्रगतिशील व तर्कपरक चिन्तन पर जोर देने तथा अन्धविश्वास निर्मूलन के लिये काम करने वाले वाले डॉक्टर कलबुर्गी की हत्या कर दी गई। वहीं गोविंद पंसारे जो कि ट्रेड यूनियन संघर्ष के मोर्चे पर लगातार सक्रिय थे। गोविन्द पंसारे ने संघी फासीवादियों को शिवाजी के मसले पर बेनकाब करने के लिए किताब भी लिखी थी। इनकी हत्या भी एक रोज़ कर दी गयी। गौरी लंकेश जो कि संघी फासीवाद के खिलाफ लगातार अपने लेखन के जरिये हमले कर रही थी उन्हें भी यू पी के मुख्यमंत्री योगी की भाषा में "ठोक" दिया गया। खौफ का माहौल यूं बन गया कि तमिलनाडु के लेखक पेरुमाल मुरुगन को लेखक के रूप अपनी मौत की ही घोषणा करनी पड़ी। हिटलर के फासीवादी दस्ते इस ढंग से हत्या करते थे कि फिर लोगों के बीच खौफ व दहशत कायम हो जाये। यही तरीका फासिस्टों के भारतीय संस्करण का भी है।
                      देश में बढ़ती असहिष्णुता के खिलाफ पुरस्कार वापसी आंदोलन को "मज़ाक़" में तब्दील कर इन पर अपना फ़ासीवादी हमला फ़ासीवादियों ने निरंतर जारी रखा। किसानों के आंदोलनों का निर्मम दमन राजस्थान व मध्य प्रदेश में किया गया। पुलिस की गोली से कुछ किसान मारे भी गए। मज़दूर वर्ग के ट्रेड यूनियन आंदोलनों पर इनके हमले बदस्तूर जारी हैं। श्रम कानूनों व ट्रेड यूनियन एक्ट में बदलाव कर मज़दूर वर्ग पर बढ़ा हमला बोलने की तैयारी चल ही रही है।
                      कुलमिलाकर आज़ादी के बाद एक लंबे वक्त तक हाशिये पर पड़ा यह फ़ासीवादी आंदोलन आपात काल के दौर में इसके विरोध की आड़ में अपना विस्तार करता है फिर 80 के दशक के बाद नवउदारवादी नीतियों(निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण) के समानांतर इसका फैलाव होने लगता है। इन नीतियों को लागू करवाने के दौर में 'राम मंदिर' का आंदोलन खड़ा कर ये अपना विस्तार करते हैं। इसी के बाद पहले ये कुछ राज्यों में अपनी सरकार बनाने में सफल होते हैं फिर बाद में बाजपेयी की अगुवाई में एन डी ए की सरकार बनाने में कामयाब हो जाते हैं। फिर स्थितियां ऐसी बनती हैं कि 2014 आते आते ये बहुमत से सत्ता पर पहुंच जाते हैं। तब से चार साल गुजर चुके हैं। अब ये गुजरे चार साल देश में फ़ासीवादी आंदोलन के ज्यादा तेजी से निरंतर आगे बढ़ने के साल हैं इन चार सालों में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के जरिये आगे बढ़ रहा यह फ़ासीवादी आंदोलन आज उत्तराखण्ड के शांत माने जाने वाले पहाड़ी इलाकों से लेकर बंगाल,केरल तक फैल चुका है।
                     ये चार साल देश के पूंजीवादी संविधान के और ज्यादा कमजोर होते जाने के साल भी हैं साथ ही सीमित जनवादी व संवैधानिक अधिकारों की खुले आम धज्जियां उड़ाये जाने व इन्हें रौंदने के साल भी हैं। ये चार साल देश की सत्ता के बढ़ते केन्द्रीकरण, संसद में मंत्रीमंडल की भूमिका को बेहद कमजोर कर देने व जन मतों से नहीं चुनी जाने वाले प्रधानमंत्री कार्यालय के सर्वोच्च निकाय के बतौर सामने आने के साल हैं। न्यायालय, चुनाव आयोग व रिजर्व बैंक की स्थिति किसी से छुपी हुई नही है। न्यायालय के 4 जजों की प्रेस कॉन्फ्रेंस इनके न्यायपालिका में बढ़ते शिकंजे के विरोध की ही एक अभिव्यक्ति थी। अब देश की हर तरह की संवैधानिक संस्थाओं में फ़ासीवादी तत्त्वों की घुसपैठ हो चुकी है। पूंजीवादी लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहलाने वाला मीडिया इनके स्तुतिगान में लगा हुआ है साथ ही यह साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को आगे बढ़ाने का साधन बन चुका है जबकि इनका विरोध करने वाले पत्रकारों की आवाज़ खामोश कर दी जा रही है।
                     इस फ़ासीवादी आंदोलन के निशाने पर देश का मज़दूर वर्ग व देश के मेहनतकश दलित, मेहनतकश अल्पसंख्यक विशेषकर मुस्लिम हैं। इनके निशाने पर वह हर नागरिक है जो सरकार की नीतियों पर व नियत पर सवाल करता रहा है इनकी आलोचना करता है।
                    स्पष्ट है कि फ़ासीवादी ताकतों के सत्ता में बने रहने पर ये घृणित हथकंडे व हमले इनके बेनक़ाब होने के साथ साथ बहुत तेजी आगे बढ़ते जाएंगे। उत्तर प्रदेश में योगी की ताजपोशी के साथ साथ राम मंदिर रथ यात्रा इसी फ़ासीवादी आंदोलन को 2019 के लिए नई ऊंचाई पर पहुंचाने की ही चाहत है। जहां तक इन्हें परास्त करने का सवाल है यह ध्यान रखना ही होगा कि फ़ासीवादी ताकतों के सत्ता पर बने रहने को केवल मोदी-शाह, भाजपा या फिर संघ परिवार तक सीमित कर देने से कोई फासीवाद विरोधी आंदोलन विशेष सफलता हासिल नही कर सकता। यदि हम गौर करें तो तस्वीर ज्यादा साफ हो जाएगी। 2007-08 से ही वैश्विक अर्थव्यव्यथा आर्थिक संकट की चपेट में है। तब अमेरिका से शुरू हुए सब प्राइम संकट ने धीरे धीरे पूरी दुनिया को अपनी जद में ले लिया था। हज़ारों अरब डॉलर का बेल आउट पैकेज तब संकट के लिए जिम्मेदार वित्तीय संस्थाओं को किया गया। यही तरीका अन्य देशों के पूंजीवादी हुक्मरानों के लिए भी नज़ीर बन गया। भारत इस संकट से कुछ हद बचा रहा तो इसकी बड़ी वजह बैंकिंग व बीमा कंपनियों का सरकार के नियंत्रण में होना था। इस आर्थिक संकट के दौर में ही हमने ट्यूनीशिया से लेकर मिश्र में जन संघर्षों की लहरें देखी। यही वो दौर भी है जब अमेरिका से लेकर यूरोप में भी भांति भांति के आंदोलन खड़े हो गए। ऑक्युपाई वाल स्ट्रीट, अमेरिका के विस्कोसिन प्रांत में मज़दूर वर्ग का जुझारू संघर्ष, ब्रिटेन के छात्रों का जबरदस्त प्रदर्शन, चीली, ब्राज़ील, चीन, स्पेन,ग्रीस ,फ्रांस में जन संघर्ष । मिश्र के जन सैलाब में मज़दूर वर्ग अग्रिम कतारों में खड़ा था। दक्षिण अफ्रीका के प्लेटिनम खदानों के मज़दूरों का संघर्ष, चीन के मज़दूर वर्ग का जुझारू संघर्ष जिससे चीन के मज़दूर वर्ग ने कुछ वेतन वृद्धि करने में सफलता हासिल की। खुद भारत में मारुति सुज़ुकी के मज़दूरों का आंदोलन ऐतिहासिक बन गया। इसके अलावा भी मज़दूर वर्ग समेत देश में अन्य तबकों के भी संघर्ष हुए। भूमि अधिग्रहण के खिलाफ जुझारू संघर्ष देश में हुए। ये सभी संघर्ष अपनी बारी में पूंजी के आक्रामक होते जाने का जवाब थे।
                      यह संकट व संघर्ष तात्कालिक रूप में पिछली सदी के सत्तर के दशक से वैश्विक स्तर पर लागू की गयी नवउदारवादी नीतियों की ही अभिव्यक्ति थे। इन नीतियों ने मज़दूर मेहनतकशों की तबाही बढ़ाई है असमानता को बढ़ाया है। इन नीतियों को तब के दौर के वैश्विक आर्थिक ठहराव से निपटने के नाम पर पूंजी के मुनाफे को बढ़ाने के लिए लाया गया था। यह तब पूंजी के फिर से आक्रामक होने का दौर था। अब 2007-08 में वैश्विक पूंजीवादी आर्थिक संकट उपस्थित होने पर पूंजी का हमला ज्यादा तीव्र हो गया। अब एक दौर में समाजवादी दुनिया के दबाव में कल्याणकारी राज्यों के चलते जनता को व मज़दूर वर्ग को जो कुछ भी हासिल हुआ था अब उन पर तीखे हमले का दौर था। अब एक ओर पूंजीवादी शासकों ने "कटौती कार्यक्रम" के जरिये जनता पर आर्थिक रूप में हमला बोला तो दूसरी तरफ अपनी राजनीति में उसने दक्षिणपंथी फासीवादी ताकतों को आगे कर दिया। आज समूची दुनिया की यही स्थिति है। भारत भी इसी पूंजीवादी दुनिया का ही हिस्सा है यही स्थिति यहां भी है। देश के भीतर इस दौर में भारतीय एकाधिकारी पूंजी का कांग्रेस पर लगातार नई आर्थिक नीतियों को तेजी से लागू करने का दबाव था। कांग्रेस चाहते हुए ऐसा नहीं कर पा रही थी। यही वजह थी कि एकाधिकारी पूंजी के एक मालिक टाटा को कहना पड़ा कि कांग्रेस सरकार 'पालिसी पैरालीसिस' की शिकार है। अब कांग्रेस के 'राजनीतिक व नैतिक प्राधिकार' को ध्वस्त करने के लिए फ़ासीवादी 'अन्ना व केजरीवाल' कम्पनी का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन खड़ा कर दिया गया था। भ्रष्टाचार की इसी गंगोत्री में अब भाजपा व मोदी गोते लगा रहे हैं फिर भ्रष्ट विपक्षियों के भी कुछ पतित लोग इसमें नहाकर 'ईमानदार व पवित्र' हो जा रहे है।
                     खैर! अब एक ओर नई आर्थिक नीतियों को तेजी से आगे बढ़ाने तो दूसरी तरफ जनांदोलनों से बेदर्दी से निपटने की चाहत पूंजीपति वर्ग की थी । एकाधिकारी पूंजी के हिसाब से अब वह वक़्त क़रीब आ पहुंचा था जब कि एक वक्त तक पाले पोसे गये फासीवादी ताकतों की केंद्रीय सत्ता पर ताजपोशी हो। गुजरात मॉडल को व उसके नायक को खड़ा कर उसे भली भांति देख लेने के बाद 2014 में यह ताजपोशी भी सम्पन्न हो गई। इसलिए कहना होगा कि फासीवादी ताकतों  को सत्ता पर बिठाने का असली दारोमदार एकाधिकारी पूंजी के हाथ में है। 16 मई 2014 के बाद की स्थिति अब स्पष्ट है। अब एक ओर आर्थिक क्षेत्र में मज़दूर वर्ग के शोषण को अत्यधिक बढ़ाने के लिए श्रम कानूनों व ट्रेड यूनियन कानूनों पर हमले हो रहे हैं आम जन को मिलने वाली चंद सुविधाएं व सब्सिडी हर क्षेत्र में खत्म हो रही हैं। बैंकों के 8-10 लाख करोड़ रुपये के गैर निष्पादित परिसंपत्तियों (एन पी ए) को बट्टे खाते में डालने व 2 लाख करोड़ रुपये का बेल आउट करने के साथ ही अब 'बेल इन' की योजना भी बन रही है जिसमें बैंक के दिवालिया होने की स्थिति में इनमें जमा जमाकर्ताओं की पैसे को रोक लिया जाएगा। दूसरी ओर राजनीतिक हमले के रूप में अब तक का सबसे मजबूत फ़ासीवादी आंदोलन हमारे सामने है। यह एक ओर 'आधार' के जरिये निगरानी तंत्र खड़ा कर चुका है तो वहीं दूसरी ओर विरोधी वर्ग व तबकों के आंदोलन का धूर्तता से दमन कर रहा है ।
                   जहां तक फ़ासीवाद के सम्बन्ध में अतीत की बात है। बीसवीं सदी के तीसरे व चौथे दशक में जर्मनी, इटली, स्पेन, पुर्तगाल व हंगरी आदि में फ़ासीवादी सत्ताओं के उभार को हम जानते हैं। यह वह दौर है जब इस सदी के पहले दशक में मंदी व फिर पहला विश्व युद्ध हुआ था। इस विश्व युद्ध के दौर में ही साम्राज्यवादी रूस में क्रांतिकारी बदलाव हो गया था। तब समाजवादी रूस वज़ूद में आ गया था जो मज़दूर मेहनतकशों का अपना राज्य था। इस क्रांति की लहर यूरोप के अन्य मुल्कों को अपनी चपेट में लेने की ओर बढ़ गई थी। तब इटली में क्रांतिकारी लहर से निपटने के लिए प्रतिक्रियावादी वित्त पूंजीपतियों ने फ़ासीवादी मुसोलिनी व उसके फ़ासिस्ट दस्ते को सत्ता सौंप दी। यही स्थिति दूसरे विश्व युद्ध से पहले के 'महामंदी' के दौर में बन गयी जब जर्मनी के थाइसेन व क्रुप्स जैसे एकधिकारी वित्तपतियों ने नाजीवादी हिटलर व उसकी पार्टी को सत्ता पर पहुंचा दिया। इसके बाद फासीवाद ने हिंसा, उन्माद, खूनी आतंक की घृणित व बर्बर मिसालें क़ायम की थी। यह सोवियत रूस की मज़दूर सत्ता ही थी जिसने फ़ासीवाद को तब परास्त किया था जिसे तब परास्त किया जा चुका था आज उसका खतरा फिर से हमारे सामने है। 
                 आज वैश्विक मंदी के जमाने में एक ओर दुनिया में दक्षिण पंथी व फ़ासीवादी तत्वों के उभार दिख रहे हैं तो दूसरी ओर खुद हमारे देश में अब तक का सबसे मजबूत फासीवादी आंदोलन हमारे सामने है। अम्बानी,अडानी,टाटा आदि जैसी बड़ी एकाधिकारी पूंजी का हाथ अब मोदी-शाह, भाजपा व संघ परिवार की पीठ पर है। लंबे वक्त तक कांग्रेस ने इस पूंजी के हितों को आगे बढ़ाया है लेकिन आर्थिक संकट के दौर में एकाधिकारी पूंजी की बेचैनी व अधैर्य ने फ़ासीवादी ताकतों को सत्ता पर बिठा दिया। आज देश व दुनिया में कोई शक्तिशाली क्रांतिकारी आंदोलन व क्रांति का खतरा न होने के बावजूद यदि पूंजीपति वर्ग ने फ़ासीवादी ताकतों को सत्ता पर बिठा दिया है तो यह उनकी अपने लिए मज़बूत व सुरक्षित क़िलेबंदी इस बार पहले ही कर लेने की घृणित मंसूबों की ही अभिव्यक्ति है। फिलहाल नग्न फ़ासीवादी सत्ता न कायम करने के बावजूद शासकों की मंशा यही है कि फ़ासीवादी आंदोलन की मौजूदगी लगातार देश के भीतर बनी रहे। यह फ़ासीवादी आंदोलन अलग अलग मुद्दों के जरिये देश व्यापी होता जा रहा है।
                     फासीवाद कोई एक अलग राजनीतिक सामाजिक अर्थव्यवस्था नहीं है बल्कि यह पूंजीवादी शासन व्यवस्था का ही एक भिन्न रूप है पूंजीवादी लोकतंत्र के बरक्स यह प्रतिक्रियावादी एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग की खुली आतंकी तानाशाही है। यह आम पूंजीवादी तानाशाही की तुलना में मज़दूर मेहनतकशों व जनवादी ताकतों के लिए कई गुना ज्यादा घातक व खतरनाक है। यह फासीवादी आंदोलन जनवादी चेतना, जनवादी मूल्यों व परम्पराओं को कमजोर करता हुआ व इसका निषेध करता हुआ आगे बढ़ रहा है। निरंकुशता, आतंक व दमन को आगे बढ़ाता हुआ यह फासीवाद की दिशा में बढ़ रहा है। इसके कई मुंह है एक ओर यह एक व्यक्ति मोदी को "महामानव" के रूप में प्रस्तुत कर रहा है तो दूसरी ओर उग्र व अंधराष्ट्रवादी उन्माद खड़ा कर रहा है। यह 'लव जेहाद', 'तीन तलाक' 'गौ माता' ' इस्लामिक आतंकवाद' के नाम पर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को तेजी से आगे बढ़ा रहा है । फ़ासीवादी समाज के सबसे ज्यादा भ्रष्ट, निकृष्ट तत्व होते हैं जो लम्पट व पतित तत्वों को भी अपने साथ शामिल कर लेते हैं। चुनाव जीतने के लिए हर घृणित हथकंडे, फर्जी एनकाउंटर, झूठ-अफवाह व फर्जी आंकड़ों का गुब्बार, भ्रष्ट पतित तत्वों को अपने में शामिल कर इनके 'नैतिक' 'ईमानदार' होने के दावे ये वो चीजें हैं जो फासिस्टों के चरित्र को खोल कर रख देती हैं। गुजरात के चर्चित शोहराबबुद्दीन फेक एनकाउंटर व इस केस को देख रहे जज लोया की हत्या का मामला तो अब हमारे सामने ही है। इसलिये जो यह सोचते हैं कि चुनाव में जातिवादी या भांति भांति के समीकरण बनाकर या फिर कोई गठबंधन बनाकर फ़ासीवादी ताकतों को हराया जा सकता है तो वास्तव में यह फासीवाद को केवल पार्टी विशेष या व्यक्ति विशेष तक सीमित करना है इसलिये यह फ़ासीवादी ताकतों को परास्त नहीं कर सकता।
                      फ़ासीवादी आंदोलन का जवाब चुनावी जोड़-तोड़ नहीं हो सकता। हो सकता है कि चुनाव में फ़ासीवादी ताकतें हार जाएं लेकिन चूंकि एक फ़ासीवादी आंदोलन तब भी मौजूद रहेगा जैसे ही संकट की घड़ी आएगी एकाधिकारी पूंजी के मालिक फ़ासीवादी ताकतों को सत्ता पर बिठा ही देंगे। ऐसे करने के तमाम विकल्प उनके पास होते हैं। तब व्यक्ति दूसरा भी हो सकता है पार्टी भी दूसरी हो सकती है। कांग्रेस  इसी एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग की प्रतिनिधि है जिसकी अगुवाई इस वक़्त भाजपा कर रही है। इन हिन्दू फ़ासीवादी ताकतों को पालने पोसने में जहां पूंजीपति वर्ग की ही मुख्य भूमिका रही है वहीं पार्टी के रूप में कांग्रेस ने भी यही काम किया है। भाजपा के कट्टर व उग्र हिंदुत्व का जवाब कांग्रेस के पास क्या है? 'नरम हिंदुत्व'। यह 'नरम हिंदुत्व' अपनी बारी में 'उग्र हिदुत्व' में तब्दील होकर फ़ासीवादी भाजपा  व संघ परिवार को ही ताक़त देगा। क्षेत्रीय पार्टियों का सवाल जहां तक है जो कि फ़ासीवादी ताकतों से कुछ टकराहट में दिखते लगते हैं तो ये खुद भी उन्हीं नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को परवान चढ़ा रही हैं जिन्हें कि कांग्रेस या भाजपा। इन नीतियों को लागू करने में ये भी घोर दमनकारी हैं साथ ही इसी वज़ह से ये घोर अवसरवादी भी हैं। ये इन नीतियों में क्षेत्रीय पूंजीपतियों के हितों के हिसाब से सौदेबाजी करती हैं। मोदी विरोधी नीतीश व उनकी पार्टी महागठबंधन के नाव पर सवार होने के बाद अब मोदी व भाजपा की गोद में बैठे हुए हैं । इस जमीन से कैसे फासीवादी आंदोलन का विरोध हो सकता है।  सरकारी वामपंथियों के फसीवाद विरोध का जहां तक सवाल है इन्होंने फासीवाद को केवल मोदी, भाजपा व संघ तक सीमित कर दिया है। ये भी ख़ुद इन्ही नवउदारवादी नीतियों को आगे बढ़ा रही हैं। नंदीग्राम व सिंगुर इन्ही नीतियों की उपज थी। इस सोच व समझ के साथ फासीवादियों का मुकाबला नहीं किया जा सकता।
           फासीवादियों का विरोध उसी जमीन से हो सकता है जिस वजह या डर से इसे पाला पोसा जाता है व सत्ता पर बिठाया जाता है यानी मज़दूर मेहनतकशों का सशक्त क्रांतिकारी आंदोलन। इसलिए इस फासीवादी आंदोलन का जवाब भी केवल मज़दूर मेहनतकशों का क्रांतिकारी आंदोलन व इसके साथ साथ अलग अलग वर्गों व तबक़ों का व्यापक जुझारू फासीवाद विरोधी संयुक्त मोर्चा ही हो सकता है। इस दिशा की ओर बढ़ते हुए जनवाद, जनवादी व संवैधानिक अधिकारों पर होने वाले हर फासीवादी हमले का पुरजोर विरोध करते हुए फासीवाद विरोधी आंदोलन खड़ा करने की ओर बढ़ना होगा। हमें याद रखना होगा कि इतिहास का निर्माण जनता करती है। मज़दूर वर्ग व मेहनतकश अवाम उसकी पार्टियों की अगुवाई में बने मोर्चों ने अतीत में फासीवाद को ध्वस्त किया था। ये फ़ासीवाद विरोधी संघर्ष हमारी प्रेणा है व विरासत है। यह ध्यान रखना होगा कि फ़ासीवादी जैसे जैसे आगे बढ़ते हैं आम अवाम के हर हिस्से को अपने विरोध में भी करते जाते हैं साथ ही इनकी दिशा समाज व इतिहास  की गति को पीछे धकेलने की है जो निरथर्क है। यही इनकी असल कमजोरी है और हमारीताकत हमें मज़दूरों,छात्रों,दलितों,अल्पसंख्यकों,आदिवासियों, किसानों व महिलाओं हर तबके व वर्ग पर होने वाले फासीवादी हमले का पुरजोर विरोध करते हुए आगे बढ़ना होगा।
                         क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन

Saturday, 19 May 2018

कर्नाटक चुनाव, भाजपा, कांग्रेस और लोकतंत्र

    कर्नाटक चुनाव, भाजपा,  कांग्रेस और लोकतंत्र
             
        कर्नाटक चुनाव में पिछले चुनावों की ही तरह मोदी व शाह की जोड़ी ने बहुत कुछ दांव पे लगाया। सही कहा जाए तो इस चुनाव में मोदी-शाह की जोड़ी ने भ्रष्ट रेड्डी बंधु से हाथ मिलाया, भ्रष्ट येद्दयुरप्पा को मुख्य मंत्री का उम्मीदवार बनाया यही नहीं प्रधानमंत्री ने फिर ऐतिहासिक तथ्यों से मनमाना खिलवाड़ किया साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की हर कोशिश की और चुनाव प्रचार बन्द होने के बावजूद अंतिम दिन नेपाल से प्रचार करने का दांव भी चला। शाह ने 130 सीट जीतने का दावा भी किया। लेकिन इस सबके बावजूद भी बहुमत भाजपा को हासिल नहीं हुआ। वोट प्रतिशत के लिहाज से 36.2% के साथ पार्टी दूसरी नंबर पर थी तो सीट के हिसाब से 104 सीटों के साथ पहले नम्बर पर।
             जहां तक  कॉंग्रेस का सवाल है उसने भी बहुमत हासिल करने का दावा किया था हालांकि वोट प्रतिशत के लिहाज (38%) पहले नंबर पे रही तो सीटों के लिहाज से 78 सीटों के साथ दूसरे नंबर पर। कांग्रेस पार्टी कभी भी धर्मनिरपेक्ष नहीं रही नरम हिदुत्व की नीति पर वह चलती रही है। इस चुनाव में भारतीय फासीवादियों के उग्र हिंदुत्व के जवाब में गुजरात से आगे बढ़ते हए कांग्रेस नरम हिंदुत्व पर खुल कर खेलने लगी। वह मठों व मन्दिरों के चक्कर जमकर लगाने लगी। फ़ासीवादी ताकतों का जवाब कांग्रेस ऐसे ही दे सकती है इस नरम हिन्दुत्व की परिणति देर सबेर उग्र हिंदुत्व में ही होनी है।
            आज के जमाने में जब पूंजीवाद का वैश्विक संकट गहन हो रहा हो शासक वर्ग दुनिया भर में प्रतिक्रियावादी ताकतों व दक्षिणपंथी ताकतों का आगे कर रहा हो खुद मध्यमार्गी पार्टी इस दिशा में ढुलक रही हो तो फिर अपने देश में इस पर अचरज कैसा। कांग्रेस की दिशा भी अब यही है। इतना तो स्पष्ट है कि एकाधिकारी पूंजी अब अपनी इस पार्टी के पतन पर ब्रेक लगाने को उत्सुक है। उसकी यह उत्सुकता एक वक़्त के "पप्पू" की गंभीरता व खुद को प्रधानमंत्री के बतौर प्रोजेक्ट करने में दिखती है। यह चुनाव के बाद घटे घटनाक्रम में और भी ज्यादा साफ है कॉंग्रेस की भाजपा के मुंह से जीत छीन लेना यूं ही नही है।
           कर्नाटक चुनाव को 2019 के मोदी के लिटमस टेस्ट की तरह भी प्रस्तुत किया जा रहा था। इतना तो स्पष्ट है कि चुनाव दर चुनाव के आंकड़े दिखाते है कि मोदी की लोकप्रियता का ग्राफ या मोदी पर भरोसे का ग्राफ गिर रहा है लगभग 6%--10% की गिरावट है। कर्नाटक चुनाव में लोक सभा चुनाव की तुलना में लगभग 7%, की गिरावट है। अब कर्नाटक में सत्ता हाथ से जाने के बाद तय है कि साम्प्रदायिक उन्माद को अब और ज्यादा उग्र होकर आगे बढ़ाया जाएगा। सम्भावना इसकी ज्यादा है कि यह गुजरात की तर्ज पर हो राम मंदिर, अंधराष्ट्रवाद आदि के अलावा यह प्रधानमंत्री यानी मोदी के आतंकवादियों द्वारा मारे जाने की फर्जी खबरों की बाढ़ व गिरफ्तारियों के रूप में हो सकता है।
           खैर कर्नाटक में चुनाव के बाद जो स्थिति बनी जिसमें भाजपा किसी भी कीमत पर सरकार बनाने के लिए बेचैन थी और राज्यपाल ने 15 दिन का समय बहुमत सिद्ध करने के लिए दिया था। यह गुजरे जमाने के कांग्रेस की याद दिलाने वाला था। तब कांग्रेस अपने विरोधियों की प्रांतीय सरकारों को गिराया करती थी । "नैतिकता व शुचिता" की बातें करने वाली भाजपा अब कहने लगी कि "राजनीति भी संभावनाओं की कला है"।इसके लिए विधायकों की खरीद के लिए जमकर कोशिश की गई। दूसरी ओर कांग्रेस ने जे डी एस से अवसरवादी गठजोड़ कर उसके नेता को मुख्यमंत्री घोषित कर सत्ता से भाजपा को बाहर करने के लिए जमकर मोर्चा लिया। अंततः येद्दयुरप्पा को इस्तीफा देना पड़ा। वे विधायको को ख़रीदने में असफल रहे।
            कांग्रेस इस जीत को अब लोकतंत्र की जीत कह रही है उनका लोकतंत्र सही मायने में है भी यही यानी पूंजीवादी लोकतंत्र। इस लोकतंत्र में पूंजीपति वर्ग की पार्टियां बारी बारी से जनता के बीच से चुनकर आकर उन पर शासन करती है। आम अवाम के ऊपर कुछ बेहद सीमित अधिकारों के रूप में यह पूंजीवादी तानाशाही के अलावा और कुछ नही है। अब कर्नाटक में सरकार चाहे किसी भी पार्टी की बने जनता के जीवन में कोई बदलाव तो आने से रहा। जहां तक फ़ासीवादी ताकतों से लड़ने का सवाल है यह कांग्रेस की न तो मंशा है न ही वह ऐसा कर सकती है।

Saturday, 5 May 2018

सवाल दुनिया को बदलने का है ( कार्ल मार्क्स की 200वीं जयंती पर)

     सवाल दुनिया को बदलने का है ( कार्ल मार्क्स की 200वीं जयंती पर)
                                                       (  साभार : enagrik.com )

       आज भी पूंजीवादी व्यवस्था के घनघोर समर्थकों से लेकर आमजन तक से एक बात अक्सर सुनने को मिल जाती है जिसका सार यह होता है कि दुनिया में अमीर-गरीब, शोषक-शोषित हमेशा से रहे हैं और हमेशा रहेंगे। जहां आमजन अपने जीवन की हताशापूर्ण स्थितियों से इन नतीजों तक पहुंचे होते हैं वहीं पूंजीवादी व्यवस्था के पैरोकार अपनी व्यवस्था के बचाव में इस तरह के तर्क ईजाद कर रहे होते हैं। इनमें से ज्यादा पढ़े-लिखों के पास इस तरह के पुराने तर्कों का एक जखीरा मौजूद होता है।
         जब आमजन यह कहते हैं कि अमीर-गरीब, शोषक-शोषित, शासक-शासित हमेशा से मौजूद रहे हैं तो उनकी बात में एक आंशिक सच्चाई होती है। यह सच्चाई केवल उनके सीमित जीवन की सच्चाई नहीं है जिस दौरान दुनिया नहीं बदली। यह सच्चाई ज्यादा बड़ी है। यह सच है कि जब से दुनिया में वर्गीय समाज पैदा हुए हैं तब से हमेशा से अमीर-गरीब, शोषक-शोषित, शासक-शासित मौजूद रहे हैं। और इस बात को पांच हजार साल हो चुके हैं। मानव के ध
 रती पर कुल दो लाख साल के जीवन में पांच हजार साल ज्यादा नहीं हैं पर ये पांच हजार साल ही मानव सभ्यता के भी काल हैं। इसके पहले तो मानव आदिम कबीलाई समाज में रहता था -सभ्यता पूर्व के काल में। आज के मानव की ज्यादातर यादें तो इसी सभ्यता के काल की हैं।
           इस तरह सभ्यता के काल में मानव समाज एक जैसा रहा है -आमजन के हिसाब से आंसुओं के समुद्र में डूबा हुआ। ऐसा नहीं है कि इस काल में इस समुद्र से बाहर निकलने के लिए आमजन ने प्रयास नहीं किये, पर पाया यह गया कि प्रयास मूलतः असफल हो गये। ऐसे में यह घारणा पैदा होनी स्वाभाविक थी कि दुनिया नहीं बदल सकती। और यह जब आमजन की अपनी जिंदगी की हताशापूर्ण स्थितियों से मेल खा जाती हो तो यह घारणा एकदम पुख्ता हो जाती है।
           पर जैसा कि पहले कहा गया है कि यह एक आंशिक सच्चाई ही थी। ज्यादा बड़ी और ज्यादा व्यापक सच्चाई यह है कि दुनिया बदली है। ठीक इसीलिए यह आगे भी बदलेगी।          
           इस संबंघ में सबसे पहली बात तो यही है कि पांच-सात हजार साल पहले मानव समाज में एक आमूलचूल बदलाव हुआ था। इसी बदलाव के द्वारा पहले का आदिम समाज वर्गीय समाज में रूपांतरित हो गया। अब तक मानव समाज में यह सबसे बड़ा परिवर्तन रहा है।
           यहां यह रेखांकित करना होगा कि जब पांच-सात हजार साल पहले वर्गीय समाज पैदा होने की बात की जा रही है तो यह पूरी दुनिया के लिए नहीं है। यह भारत, चीन और यूनान जैसी चुंनिदा जगहों पर हुआ। अन्य जगहों पर मानव समाज कबीलाई बने रहे और बाद में अलग-अलग समयों पर वर्गीय समाजों में रूपांतरित हुए। यह प्रक्रिया आज भी जारी है -भारत जैसे देशों में भी।
           आदिम कबीलाई समाज का वर्गीय समाज में रूपांतरण एकदम मूलभूत था। कबीलाई समाज में न तो निजी सम्पत्ति थी और न तेरे-मेरे का भाव। सामूहिकता पूरे समाज की आत्मा थी, वैदिक भाषा में वह ‘ऋत’ थी। इसमें अमीर-गरीब, शोषक-शोषित, शासक-शासित नहीं थे। स्त्री-पुरुष के बीच भेद भी नहीं था। वर्गीय समाज इन सारे ही मामलों में ठीक उलटा था। इसमें निजी सम्पत्ति थी। तेरे-मेरे का भेद था। सामूहिकता के बदले निजी प्रघान था। कुछ लोग अति सम्पतिवान थे बाकी लोग सम्पतिविहीन या बहुत थोड़ी सम्पत्ति वाले थे। इसमें शोषण था, अन्याय-अत्याचार था। इसमें चोरी-डकैती, हत्या-बलात्कार और वेश्यावृत्ति थी जिनसे कबीलाई समाज एकदम अंजान था। कोई आश्चर्य नहीं कि ऋगवेद में ‘ऋत’ के हटकर चले जाने पर इतना विलाप किया गया है। यह भी कोई आश्चर्य नहीं कि इस भयंकर बदलाव ने भारत में बौद्ध घर्म जैसे घर्म को जन्म दिया। ईसाई घर्म की उत्पत्ति के पीछे भी ऐसी ही परिवर्तन की प्रक्रिया थी।
            मानव समाज में यह बदलाव कबीलाई समाज के लोगों के हिसाब से अत्यन्त क्रूर था। यह क्रूरता की दास्तान उपरोक्त घर्मों, मिथकों, पुराण कथाओं और लोक कथाओं से भरी पड़ी है। पर मानव समाज के हिसाब से यह क्रूर परिवर्तन एक प्रगतिशील कदम था। इसी के जरिये मानव समाज आदिम जीवन को छोड़कर सभ्यता में प्रवेश कर सका। इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो यही है कि जो समाज यह कदम नहीं उठा सके वे उसी आदिम अवस्था में जी रहे हैं। जबकि दूसरे मानव चांद-सितारों तक पहुंच रहे हैं।
             यह बहुत अजीब है कि मानव सभ्यता का यह इतना बड़ा प्रगतिशील कदम इतना ज्यादा क्रूर था। इतना ही नहीं, यह वह कदम भी था जिसने मानव को शेष प्रकृति से अलग करके उसे उसके खिलाफ खड़ा कर दिया। आदिम कबीलाई समाज का मनुष्य शेष प्रकृति का हिस्सा था। वह प्रकृति के एक हिस्से के तौर पर पैदा हुआ था और उसी रूप में बना हुआ था। अब वर्गीय समाज के मनुष्य के रूप में वह प्रकृति के खिलाफ खड़ा हो गया। उसकी सभ्यता का एक प्रमुख तत्व प्रकृति से विलगाव और उसके खिलाफ खड़े होने में था। सभ्यता के विकास के साथ यह तत्व प्रमुख होता गया और अब पूंजीवाद में तो प्राकृतिक विनाश के जरिये समूचे मानव अस्तित्व के लिए ही खतरा पैदा हो गया है। सभ्यता के विकास की इसी गति को देखते हुए रूसो ने कहा था कि सभ्य मानव की हर प्रगति साथ ही अवनति भी है।
              आदिम कबीलाई समाज के वर्गीय समाज में मूलभूत रूपांतरण के बाद ऐसा नहीं हैं कि बदलाव रुक गया। वास्तव में बदलाव हुआ है पर वह उतना मूलभूत नहीं है। इसीलिए सामान्य तौर पर देखने में बदलाव नजर नहीं आता। इसीलिए आमजन इस बदलाव को नजरंदाज कर देता है। जब वर्गीय समाजों में बदलाव के बावजूद निजी सम्पत्ति, अमीर-गरीब, शोषक-शोषित, शासक-शासित बने हुए हैं तो बदलावों का आंख से ओझल हो जाना समझ में आने वाली बात है।
              पर असल बात तो यह है कि बदलावों को हवा-पानी की तरह स्वीकार कर लिया गया है यानी जिंदगी का हिस्सा बन गयी हैं। चंद उदाहरण इसे स्पष्ट करेंगे। आज गुलामी तो क्या बंघुआ मजदूरी भी किसी को स्वीकार नहीं हो सकती। कहीं बंघुआ मजदूरी का मामला सामने आते ही हो-हल्ला मच जाता है। लेकिन एक जमाना था जब गुलामी एक स्वीकार्य आम चीज थी और दूसरे जमाने में बंधुआ मजदूरी आम बात। पहला गुलाम समाज में था दूसरा सामंती समाज में। आज पूंजीवाद में ये दोनों ही नितांत अस्वीकार्य हैं क्योंकि इसमें मजदूर स्वतंत्र होता है, कानून की नजर में मालिक के बराबर होता है। दूसरा उदाहरण लें। गौतम बुद्ध की हिम्मत हुई थी कि तब वे समाज में स्थापित हो रही वर्ण व्यवस्था को खारिज कर दें। उन्होंने अपने बौद्ध संघ में सभी वर्णों के लोगों को शामिल होने की इजाजत दी पर समाज में स्थापित हो रही वर्ण व्यवस्था को उन्होंने चुनौती नहीं दी। आज बहुत सारे दलित वर्ण व्यवस्था को चुनौती देने के लिए हिन्दू धर्म को छोड़कर बौद्ध घर्म में शामिल हो रहे हैं। आज आम दलित जन को भी वर्ण व्यवस्था स्वीकार नहीं है। तीसरा उदाहरण, आज शासन के लिए पूंजीवादी लोकतंत्र सामान्य बात मानी जाती है जबकि दो सौ साल पहले सारी दुनिया में राजाओं का ही शासन था। भारत में पुराने राजाओं-रजवाड़ों के वंशज चुनाव के जरिये ही सत्ता तक पहुंच पाते हैं। उनमें से किसी के द्वारा पुराने खानदानी अधिकार का दावा केवल मजाक का विषय ही बनेगा।
              बदलावों के बहुत सारे उदाहरण और दिये जा सकते हैं पर इतना स्पष्ट है कि वर्गीय समाजों की कुछ मूलभूत विशेषताओं के बने रहने के बावजूद इन समाजों में बहुत बदलाव हुए हैं। सबसे बड़े बदलाव तो समाज व्यवस्थाओं के बदलाव ही हैं। गुलाम समाज, सामंती समाज और पूंजीवादी समाज। यह सही है कि सारे ही समाजों में ये व्यवस्थाएं एक के बाद एक क्रमशः मिल जाती हैं। और आज तो इसमें दो राय नहीं कि सारी दुनिया में ही पूंजीवादी व्यवस्था हावी है।
             इन बदलावों को कई तरह से देखा जा सकता है। शोषित-उत्पीड़ित जन के हिसाब से देखें तो एक ओर जहां इनका शोषण बढ़ता गया है वहीं दूसरी ओर इनके खिलाफ क्रूरता कम होती गयी है और आजादी बढ़ती गयी है। गुलाम, भूदास और मजदूर में ये सबसे ज्यादा प्रत्यक्ष है। शासकों के हिसाब से देखें तो एक ओर उनकी दौलत और ताकत बढ़ती गयी है पर दूसरी ओर उनकी स्वेच्छाचारिता और निरंकुशता पर लगाम लगी है। पूंजीवादी लोकतंत्रों में शोषक पूंजीपति और शासक पूंजीपति-नेता सभी नियमों में बंघे हुए हैं। पूरे समाज के हिसाब से देखें तो विज्ञान, तकनीक और उत्पादकता का लगातार विकास होता गया है और समाज स्थानीय-विशेषीकृत होने के बदले ज्यादा व्यापक और संभाग होता गया है। पूंजीवाद में तो सारी दुनिया में ही मोटा-मोटी एक संस्कृति है।
               वर्गीय समाजों की इस आम गति के अलावा यदि पूंजीवादी समाज की गति को बारीकी से देखें तो स्वयं इसमें भी काफी बदलाव दिखते हैं। पिछले पांच सौ साल में ही नहीं बल्कि पिछले डेढ़ सौ साल पहले छोटी-छोटी पूंजीवादी कंपनियां और छोटे-छोटे पूंजीपति थे। इंग्लैण्ड जैसे एकाघ देशों को छोड़ दें तो खेती अब भी मुख्य पेशा थी। शासन अभी भी राजा ही कर रहे थे और पूंजीवादी लोकतंत्र पैदा ही हो रहा था। पूंजीवाद की नई दुनिया और सामंतवाद की पुरानी दुनिया आपस में गुत्तम-गुत्था थे तथा ज्यादातर समाजों में दूसरा ही हावी था। साथ में यह भी था कि नये विकसित हो रहे पूंजीवादी देश बाकी समाजों को अपना गुलाम बना रहे थे। भारत इंग्लैण्ड का गुलाम बन चुका था। आज डेढ़ सौ साल बाद दुनिया की तस्वीर एकदम अलग है।
              लब्बे-लुबाब यह कि यह सही नहीं है कि दुनिया जस की तस है। दुनिया लगातार बदलती रही है। यह बदलाव अलग-अलग स्तर का रहा है। यह मात्रात्मक भी रहा है और गुणात्मक भी। गुणात्मक बदलाव भी अलग-अलग तरह का रहा है। वर्गविहीन आदि के कबीलाई समाज से वर्गीय समाज में रूपांतरण एक तरह का था तो सामंती समाज से पूंजीवादी समाज में रूपांतरण (निजी सम्पत्ति की एक व्यवस्था से निजी सम्पत्ति की दूसरी व्यवस्था में रूपांतरण) दूसरी तरह का। स्वयं पूंजीवादी समाज में मुक्त प्रतियोगिता से एकाघिकारी पंूजीवाद में रूपांतरण एक अन्य तरह का गुणात्मक परिवर्तन था।
             कार्ल मार्क्स  ने जब कहा था कि दार्शनिकों ने अभी तक भांति-भांति के तरीके से केवल दुनिया की व्याख्या करने की कोशिश की है जबकि सवाल तो इसे बदलने का है तो दरअसल बदलाव की परियोजना में शामिल होकर ही वे यह बात कर रहे थे। उनके दर्शन और समूचे सिद्धांत का यही उद्देश्य था। सबसे पहले और सबसे बढ़कर वे क्रांतिकारी थे। यहीं से खड़े होकर उन्होंने प्रकृति और समाज में गति और परिवर्तन को देखा। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद और ऐतिहासिक भौतिकवाद प्रकृति और समाज की गति और परिवर्तन के आम सिद्धांत हैं।
              मार्क्स  ने केवल यह नहीं बताया कि गति और परिवर्तन समाज समेत प्रकृति का आम चरित्र है। कि बदलाव होता ही है कि बदलाव मात्रात्मक और गुणात्मक, क्रमिक और छलांग दोनों होता है कि क्रांतिकारी बदलाव समय-समय पर अनिवार्य हैं। उन्होंने यह भी बताया कि मानव अपने समाज का निर्माण खुद करता है पर उसे  दी गयी परिस्थितियों में। यानी मानव इतिहास की गति का परिणाम और उसका निष्पादक दोनों हैं। मानव समाज में जो भी परिवर्तन हुए हैं उनमें शोषकों और शोषितों, शासकों और शासितों की प्रमुख भूमिका रही है।
              आज जब पूंजीवादी समाज के पैरोकार चीख-चीख कर कह रहे हैं कि उनकी व्यवस्था का कोई विकल्प नहीं है तो वे प्रकारांतर से यही कह रहे हैं कि अब मानव समाज में कोई परिवर्तन नहीं होगा। अब गति और परिवर्तन के प्रकृति के सारे नियम निष्क्रिय हो जायेंगे। उनकी व्यवस्था शाश्वत रहेगी। वैसे यह कहना होगा कि पहले के सारे शासकों को भी यही गुमान था। राजा-महाराजा कभी नहीं सोच पाये कि एक समय आयेगा जब उनका शासन नहीं रहेगा।
              पूंजीवादी व्यवस्था के पैराकारों से अलग स्वयं पूंजीवादी समाज की सच्चाई ही यह चीख-चीख  कर कह रही है कि इस व्यवस्था को समाप्त किया जाये और मानवता को एक नये चरण में ले जाया जाये। आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक किसी भी पहलू से इस व्यवस्था के अब बने रहने का औचित्य नजर नहीं आता। अब यह व्यवस्था मानवता के लिए अकथनीय दुख, कष्ट और तबाही-बर्बादी का कारण बन गयी है। अब कोई भी तकनीक या उत्पादक प्रगति अपने साथ कई गुना तबाही ला रही है। इस व्यवस्था में आज कई कोणों से मानवता के भविष्य को खतरा पैदा हो गया है।
              आज ऐतिहासिक ही नहीं तात्कालिक तौर पर यह जरूरी हो गया है कि इस व्यवस्था को समाप्त कर नई व्यवस्था कायम की जाये। यह नई व्यवस्था कम्युनिज्म के अलावा और कुछ नहीं हो सकती। और इसमें मानवता को ले जाने का महती कार्यभार मजदूर वर्ग के ऊपर आन पड़ा है।

Wednesday, 4 April 2018

एस सी / एस टी एक्ट , 2 अप्रेल और सरकार

                  एस सी / एस टी एक्ट , 2 अप्रेल और सरकार
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          सर्वोच्च न्यायालय के दो जज यू यू ललित व ए के गोयल की बेंच ने एस सी-एस टी एक्ट में बदलाव कर दिया। बदलाव के पीछे तर्क कनविक्शन दर के कम होने व कानून के दुरुपयोग का दिया गया। अब फैसले के मुताबिक सरकारी कर्मचारी के खिलाफ़ गिरफ्तारी व मुकदमे से पहले उठाए नियुक्त करने वाले अधिकारी की अनुमति व अन्य मामलों में एस एस पी की अनुमति की जरूरत होगी।साथ ही अग्रिम जमानत भी अब मिल सकती है। इस फैसले के कुल नतीजे के बतौर एस सी /एस टी एक्ट भौथरा हो गया।
          देश में आज़ादी के बाद लगातार ही दलितों के प्रति छुआछूत व तमाम तरीके के मानसिक व शारीरिक उत्पीड़न सामाजिक बाहिष्कार व हत्याओं में अन्य कानूनी प्रावधानों का कोई विशेष फर्क न देखते हुए ही 1989 में एस सी-एस टी एक्ट बनाया गया था। जिसमें अपराध को संज्ञेय, गैरजमानती व असुलहनीय बनाया गया।
 आज जब देश में प्रतिक्रियावाद की आंधी चल रही हो तब यह कानून भी कैसे उन ताकतों को सहन हो सकता है जो अपनी जहनियत में जनवाद व प्रगतिशीलता के विरोधी है। जनवादी मूल्यों व जनवाद , संवैधानिक व जनवादी अधिकारों को कमज़ोर व इसका निषेध करना फ़ासीवादी शक्तियों व इस आंदोलन की खासियत है। कोई कह सकता है कि यह कदम एक फ़ासीवादी सरकार का नही बल्कि कोर्टमात्र के हैं। तब यह फ़ासीवादी आंदोलन को केवल पार्टी या व्यक्ति विशेष तक सीमित करना होगा । 
           आज देश की एकाधिकारी पूंजी की जरूरत है फ़ासीवादी आंदोलन को बनाये रखना व इसे मज़बूत करना। इसने तो बाकायदा इन्हें सत्ता तक पहुंचाया है। तब फिर ऐसे लोग या समूह भी जो इस फासीवादी मानसिकता से ग्रस्त है वह अपने अपने प्रभाव क्षेत्र में जनवाद विरोधी कदमों को ही आगे बढ़ाते हैं। फ़ासीवादी सरकार की अचेत या सचेत या परोक्ष जो भी भूमिका हो। न्यापालिका का यह फैसला तब है जबकि शबीरपुर, ऊना आदि जैसी कई सामूहिक अपराध की घटनाएं हो चुकी है। उससे पहले भी खैरलांजी, मिर्चपुर, बथानीटोला आदि आदि जैसे कई हत्याकांड हो चुके थे। लेकिन सवाल यह भी उठाना चाहिए कि क्यों ऐसे हत्याकांड एस सी-एस टी एक्ट के बावजूद होते रहे ? क्यो ऐसा संभव हुआ कि दलितों की दुहाई देने वाली बसपा के काल में दलित उत्पीड़न होता रहा ?2007 में सर्वजन हिताय का नारा देकर जब मयावती सत्ता में पहुंची थी तब उनकी सरकार ने भी एससी -एस टी को कमजोर किया था। जो लोग, या संगठन या फिर पार्टियां केवल कानून को पवित्र घोषित करने वाले व कानूनी पहलुओं पर जोर देने वालों को यह भी देखना होगा की शबीरपुर, ऊना व इससे पहले के तमाम (1989 के बाद ) दलितों आदिवासियों के खिलाफ़ सामुहिक अपराध को अंजाम देने वालों को क्या सजा हुई ? शबीरपुर तो ताजा मिसाल है !! पीड़ितों दलितों के पक्ष में आवाज उठाने वाले दलित समुदाय के नौजवान जेल में ठूंस दिए गए ! । 
         सवाल उठाया जाना चाहिए कि क्यों ऐसा हो रहा है कि दलितों के पक्ष की बात करने वाले कई दलित बुद्धिजीवी व दलित पार्टी अपने कंधों पर फासिस्टों को ढोये जा रहे है उनके चरणों में लोट-पोट हैं ? या फिर बहुजन हिताय की बात करने वाले सर्वजन हिताय की बात करने लगते हैं ? पूंजीवाद के इस सड़ते गलते दौर में "सत्ता में भागेदारी" का नारा देकर दलितों का ऊपर उठ चुका हिस्सा जो कि शासक वर्ग की श्रेणी में पहुंच चुका है उसके लिए एस सी - एस टी एक्ट में बदकाव का विरोध अपने वोट बैंक को अक्षुण्ण बनाये का जरिया भी है। 2 अप्रेल का प्रदर्शन इसी का नतीजा है। लेकिन फ़ासिस्ट सरकार का रुख 2 अप्रेल के प्रदर्शन का अपने अपने राज्यों में आंदोलन के हिंसक होने की आड़ में दमन किया गया जिसमें कुछ लोग मारे तो कई घायल हो गए। 2 अप्रेल के बाद पूरे आंदोलन से निपटने का तरीका वही है जो कि योगी सरकार का शब्बीर पुर मामले में रहा है। हज़ारों की तादाद में फर्जी मुकदमे दर्ज कर जेल में ठूंस कर खौफ व दहशत का माहौल कायम कर देना ताकि अगली बार प्रदर्शन का साहस न हो सके।
        जहां तक कानून को कमजोर करने के फैसले या प्रयासों का विरोध करने का सवाल है निश्चित तौर पर इस कानून को कमज़ोर करने के खिलाफ आवाज पुरजोर उठनी चाहिए लेकिन साथ ही वो लोग जो सही मायनों में जातिवाद व जातिवादी हिंसा उत्पीड़न व अन्याय को खत्म करना चाहते है उन्हें जातिवाद के दायरे से बाहर निकल कर वर्गीय दायरे में सोचना होगा। वर्गीय आधार पर संगठन व संघर्ष ही इसका सही व धारदार जवाब होगा।

चुनाव की आड़ में बिहार में नागरिकता परीक्षण (एन आर सी)

      चुनाव की आड़ में बिहार में नागरिकता परीक्षण (एन आर सी)       बिहार चुनाव में मोदी सरकार अपने फासीवादी एजेंडे को चुनाव आयोग के जरिए आगे...