Friday, 2 October 2020

हाथरस की पीड़ित मृतका को न्याय दो !अपराधियों को बचाने वाले दोषी पुलिसकर्मियों व अधिकारियों को बर्खास्त करो !

   14 सितंबर को हाथरस में दलित लड़की के साथ वीभत्स घटना हुई। यह बलात्कार और हिंसा की घटना थी। यह हत्या थी। 30 सितंबर को लड़की की मौत हो गई। इस मौत पर जब आक्रोश फैला तो योगी-मोदी सरकार से लेकर मीडिया इसे दबाने में लगा रहा। यही नहीं! विरोध करने वालों को जेलों में ठूंस दिया गया, अपराधियों को बचाने के हर संभव प्रयास किये गए। मुद्दे को भटकाने के लिए कुतर्क किये गए।
      16 दिसम्बर 2012 की घटना भी हम सभी को याद है। जब निर्भया हत्याकांड हुआ था। तब भी देश में जनता सड़कों पर थी, तब भी लाठीचार्ज हुआ था। तब सरकार कांग्रेस की थी। तब नया कानून भी बना। तमाम बातें भी हुई। मगर महिलाओं के खिलाफ अपराध नहीं रुके। कहा गया कि अपराधियों को फांसी देने से अपराध रुक जाएंगे। मगर अपराध रुके नहीं। बल्कि बढ़ते गए।
       14 सितंबर, हाथरस की वीभत्स घटना, महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराधों का ही प्रमाण है। जबकि इस बीच यू पी में और देश में महिलाओं के खिलाफ हिंसा और अपराध की घटना बढ़ती गई हैं।   अक्सर जैसा होता है वही हाथरस मामले में भी हो रहा है। ऊंची पहुंच वाले लोगों को बचाने के लिए एफ.आई.आर तोड़ी-मरोड़ी जाती हैं, साक्ष्य मिटाए जाते हैं, केस कमजोर कर दिया जाता है, पीड़ित पक्ष को डराया धमकाया जाता है। जो भी मामला बाकी बच जाता है वह फिर कोर्ट में केस को सालों-साल लटकाकर, पूरा हो जाता है। अपराधियों का फिर कुछ नहीं बिगड़ता।
      जब मामला गरीब, मेहनतकश दलितों या मुस्लिमों का होता है, तब तो सत्ता पर बैठे हुए घोर जातिवादी और फासीवादी शासकों के चलते, न्याय मिल पाना बिल्कुल ही असंभव हो जाता है। हाथरस की वीभत्स घटना ऐसा ही मामला है। पहले लड़की को गांव से ही गायब कर दिया गया। फिर ढूढंने पर लड़की बेहद घायल स्थिति में घरवालों को मिली। जब घर वाले रिपोर्ट लिखवाने थाने गए तो रिपोर्ट लिखने में आनाकानी हुई। लड़की को तत्काल किसी बड़े आधुनिक अस्पताल में पहुंचाने के बजाय इधर-उधर निचले स्तर के अस्पतालों में ही रखा गया। स्थिति गंभीर होने पर ही दिल्ली में एडमिट किया गया। जहां लड़की की मौत हो गई। इसके बाद भी शव घर वालों को नहीं दिया गया, पुलिस वालों ने शव को जला दिया। इस प्रकार दोबारा पोस्टमार्टम हो सके, इससे पहले ही साक्ष्य नष्ट करने का काम खुद पुलिस ने कर दिया। अपराधियों को बचाने का इतना बेशर्म व दुस्साहस भरा घृणित तरीका, ऐसे दौर में ही संभव है जब कि लम्पट फासीवादी शासक सत्ता पर बैठे हों। आज यही स्थिति है। हिटलर, मुसोलिनी का दौर हमने सुना था, पढ़ा था मगर आज हम खुद उस दौर में पहुंच रहे हैं। जो पीड़िता के पक्ष में न्याय की मांग कर रहे हैं  उल्टा उन्हीं को गिरफ्तार किया जा रहा है जेलों में डाला जा रहा है।
       आज तो न्याय के लिए आवाज उठाने की कोशिशों को ही खत्म कर दिया जा रहा है। संघर्षों को, आंदोलनों को 'अपराध करने' या 'षड्यन्त्र रचने' के रूप में पेश किया का रहा है। आज अपराधियों को खुलेआम बेशर्मी भरा संरक्षण हासिल है। कुलदीप सेंगर, चिन्मयानंद जैसों को कौन नहीं जानता।
       ये यौन हिंसा व अपराध, हमें बताते हैं कि समाज पतन की ओर है समाज सड़ गल रहा है। यह समाज पूंजीवादी समाज है। इस समाज के मालिक पूंजीपति हैं, संसाधन इनके हैं, पार्टियां इनकी हैं, मीडिया इनका है। ये अपने हिसाब से जनता को हांकते हैं। जनता की आवाज और मुद्दे इसीलिए यहां से गायब है। यहां महिलाओं को 'सेक्स यानी यौन वस्तु' में बदल दिया गया है। यह सब अश्लील फिल्मों व विज्ञापनों तथा इंटरनेट की घटिया यौन हिंसक साइटों के जरिये किया गया है। यह सब हमारे लंपट शासकों ने जानबूझकर किया है ताकि आम जनता इसी के नशे में डूब जाये और शासक पूंजीपतियों की लूट पाट, शोषण-उत्पीड़न का राज हमेशा-हमेशा के लिए चलता रहे।
    इसलिए अब जरूरत है महिलाओं के खिलाफ बढ़ते हर जुल्म के खिलाफ एकजुट हुआ जाय। लंपट फसीवादी शासकों के खिलाफ आवाज बुलंद की जाय ! महिलाओं को यौन वस्तु बनाने वाले समाज को बदलने के लिए एक हुआ जाय। समाजवादी समाज बनाने के लिए आगे बढ़ा जाय। जहां महिलाओं को बराबरी, सुरक्षा, रोजगार और सम्मान हासिल हो।
 
                     

Sunday, 2 August 2020

खामोश प्रतिरोध व भयानक यंत्रणा के बीच 5 अगस्त का शिलान्यास


        बीते साल जब अभी अर्थव्यवस्था के भीषण संकट को लेकर देश की मीडिया में हाहाकार मचा ही था कि तभी यकायक मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर की पुरानी स्थिति खत्म कर दी। अनुच्छेद 370 को खत्म कर दिया गया। पुनर्गठन बिल के जरिये राज्य को दो हिस्सों में बांट दिया गया। जम्मू-कश्मीर की आम जनता इस फैसले के खिलाफ अपना प्रतिरोध, अपनी पीड़ा न व्यक्त कर सके इसके सारे घृणित प्रबंध किए गए।  कश्मीर को संगीनों के साये में कैद कर दिया गया। देश से इस हिस्से का अलगाव कर कश्मीरी अवाम को हर संपर्क से काट दिया गया। इंटरनेट भी पूरी तरह बंद कर दिया गया।
    जनता के उग्रप्रतिरोध का वह सिलसिला जो छल-कपट व घोर दमन के बावजूद उतार चढ़ाव के साथ निरन्तर बना हुआ था वह इस बार खामोश प्रतिरोध में बदल गया। यह खामोशी व अलगाव अब और ज्यादा गहन हो गया है। कश्मीरी अवाम की दुख, तकलीफें और भयावह यंत्रणा इस गुजरे एक साल में बढ़ती गई है। ऐसा नहीं कि प्रदर्शन सड़कों पर नहीं हुए। मगर बुनियादी तौर पर प्रतिरोध में गहन खामोशी थी और आज भी है।
         जो दावे मोदी सरकार द्वारा किये गए थे कि यह कश्मीरी अवाम की बेहतरी के लिए है कि 370 व 35 ए ने कश्मीर के विकास को रोका हुआ है कश्मीर पिछड़ा हुआ है 370 के खत्म हो जाने से कश्मीर व कश्मीरी अवाम का विकास होगा कि आतंकवाद का सफाया हो जाएगा, ये दावे खोखले थे और गुजरे एक साल ने साबित किया कि सब कुछ इसके विपरीत ही हुआ है
         कश्मीर से बाहर भी इन्हें निशाना बनाया गया। सी.ए.ए. विरोधी प्रदर्शनकारियों में भी विशेष तौर पर इन्हीं को निशाना बनाया गया, इन्हें 'गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम' यू ए पी ए के तहत जेलों में ठूंस दिया गया। केंद्र सरकार से असंतोष जताने वाले व कश्मीरी अवाम के दुख तकलीफों को अपनी रिपोर्ट के जरिये दुनिया को बताने वाले ककश्मीरी पत्रकारों को ही यू ए पी ए के तहत जेलों में डाल दिया गया। कश्मीर की जनसांख्यिकी ( डेमोग्राफी ) बदलने की दिशा में कई कदम इस लौकडाऊन के काल में किये गए है।
         अब ठीक एक साल बाद 5 अगस्त को ही राम मंदिर का शिलान्यास की तिथि तय की गई है। पिछले साल 5 अगस्त को जम्मू-कश्मीर से 370 को खत्म करके अब इस साल 5 अगस्त को ही मंदिर शिलान्यास की तिथि घोषित करने का क्या मकसद है ? इसके जरिये क्या संदेश दिया जाना है ? इसका मकसद साफ है हिन्दू फासीवादी आंदोलन को समाज में निरंतर बरकरार रखना तथा इसे ज्यादा ऊंचाई की ओर ले जाना, नग्न आतंकी तानाशाही की दिशा में कदम और आगे बढ़ाना। इसका मूल मकसद है लौकडाऊन के चलते तबाह बर्बाद हो चुके आम अवाम को असन्तोष को डाइवर्ट करना तथा सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था के तबाह कर दिए जाने के चलते कोरोना संक्रमण के चलते असमय मारे जा रहे आम लोगों के असन्तोष, आक्रोश को ध्वस्त करना।
        इस 5 अगस्त के शिलान्यास  के जरिये अघोषित तौर पर हिन्दू राष्ट्र के गठन के प्रतीक के तौर पर हिन्दू बहुसंख्यक आबादी में संदेश देना भी है। इसका मतलब है अघोषित तौर पर देश को हिन्दू राष्ट्र बताना। धर्मनिरपेक्षता का जो औपचारिक आवरण है उसे उतार फैंकने के बहुत करीब हिन्दू फासीवादी पहुंच चुके हैं। व्यवहार में अघोषित तौर पर दोयम दर्जे की स्थिति में धकेल दिए गए अल्पसंख्यक मुस्लिम आबादी और ज्यादा अलगाव की ओर बढ़ेगी दूसरी ओर देश के बहुसंख्यक मज़दूर मेहनत कशों की बदहाली और ज्यादा तेज़ी से आगे बढ़ेगी।
       मगर इतिहास या समाज, शासकों के चाहने या उनके अपने मन मुताबिक करतूतों से ढल जाने वाला होता तो फिर समाज या इतिहास वैसा नहीं होता जैसा आज है। वहीं ठहरा रहता। यही मोदी सरकार के तमाम फासीवादी प्रयासों के बावजूद होगा। इतिहास और समाज निश्चित तौर पर आगे बढ़ेगा। तब इतिहास अपने दोहराव के बावजूद ठीक वैसा ही नहीं होगा जैसा 100 साल पहले हुआ था। जब हिटलर व मुसोलिनी तथा इनके संगठनों को ध्वस्त कर दिया गया था मगर फिर भी फासीवाद को पालने पोसने जमीन मौजूद रही थी।  अब समाज व इतिहास वहां खड़ा होगा जहां फासीवाद का समूल नाश कर दिया जाएगा

उत्तर प्रदेश विकास दुबे एनकाउंटर कांड का निहितार्थ

         
      एक बार फिर उत्तर प्रदेश फर्जी मुठभेड़ के चकते चर्चा में आ गया। यह फर्जी।मुठभेड़ भी प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी की ‘ठोक दो’ यानी ‘एनकाउंटर’ की नीति का नतीजा थी।  विकास दुबे के एनकाउंटर के मामले की  प्रशंसा व विरोध में मीडिया में बहस केंद्रित थी।
       विकास दुबे  पर 60 से ज्यादा संगीन अपराध के मुकदमे दर्ज थे, इसकी ‘हिरासत में हत्या' किये जाने की संभावना है।  विकास दुबे ने मध्य प्रदेश के उज्जैन के मंदिर से आत्मसमर्पण करने की बात मीडिया में गूंजी है। कहा जा रहा है इसके बाद उत्तर प्रदेश पुलिस, एस टी एफ उसे गाड़ी में लेकर आ रही थी। उत्तर प्रदेश में ही पहुंचकर रास्ते में ही कथित मुठभेड़ हुई। मगर इस एस टी एफ की कहानी पर कोई विश्वास करने को तैयार नहीं। वास्तव में यह मुठभेड़ नही हत्या है। 
       हकीकत क्या है? यह कि संगठित व कानूनी तौर-तरीके से गठित गिरोह ने असंगठित व गैरकानूनी कहे जाने वाले कथित अपराधी को तब ठिकाने लगा दिया जब वह अपनी मनमर्जी पर उतारू था या खुद को सबसे ऊपर समझने का भ्रम पाल बैठा था।
      पूंजीवादी समाज में इस तरह के कथित अपराध या अपराधियों का पैदा होना कोई अचरज की बात नहीं है गैर कानूनी करार दिए गए काम या अपराध जैसे स्मगलिंग, शराब व जमीन का अवैध कारोबार,  अवैध वसूली आदि-आदि इस समाज में लगातार चलते रहते हैं जिन्हें अंजाम देने वाले अपराधी ही होते हैं। 
         इस प्रकार के कथित अपराध व ऐसे कथित अपराधियों की पालक-पोषक व संरक्षक पुलिस, पूंजीवादी राजनेता या यह समूची व्यवस्था का पूरा ताना-बाना है। अपराध जगत से पूंजीवादी राजनीति में ढेरों लोगों का आना या फिर पूंजीवादी राजनीति में सक्रिय होकर यहां से फिर अपराध को अंजाम देना या गैरकानूनी कही जाने वाली चीजों को अंजाम देना, इसके ढेरों उदाहरण हैं। यही बात विकास दुबे के बारे में भी सच यही जो शुरुवात में भाजपा तो बाद में बसपा से जुड़ा रहा है।
 उत्तर प्रदेश में 2017 से दिसम्बर 2019 तक 5178 ‘एनकाउंटर’ पुलिस द्वारा किये गए जिसमें 103 की हत्या कर दी गई जबकि 1859 घायल हुए। देश में 2019 में 1731 नागरिकों की मौत हिरासत में हुई है। इसमें से 1606 न्यायिक हिरासत (मजिस्ट्रेट के आदेश पर जेल में भेजा जाना) में मारे गए जबकि 125 पुलिस हिरासत में। न्यायिक हिरासत में होने वाली मौतों की वजह प्राकृतिक या अप्राकृतिक बताई जाती है। यदि इसकी गहन जांच हो तो पता लगेगा कि इसमें से अधिकांश परोक्ष या प्रत्यक्ष हत्याएं ही थीं।
      उत्तर प्रदेश में बढ़ते एनकाउंटर की वजह से ही विपक्षी पार्टियों के कई नेता उत्तर प्रदेश को ‘एनकाउंटर प्रदेश’ भी कहते हैं। यह बात कुछ हद तक सही है। मगर ये अपने दौर को भूल जाते हैं।
        पी चिदंबरम के गृहमंत्रित्व काल को थोड़ा याद कीजिये। तब कांग्रेस की सरकार थी। उस जमाने में माओवादी नेताओं का एनकाउंटर आम बात हो चुकी थी। ये फर्जी एनकाउंटर ही होते थे। नागपुर में हुए हेम पांडे व माओवादी नेता आजाद के एनकाउंटर पर तो उस समय खूब हंगामा भी मचा था। तमिलनाडु, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र आदि में माओवाद के नाम पर फर्जी एनकाउंटर कर कई आदिवासियों की हत्या की जा चुकी हैं। इस संबंध में कई रिपोर्ट भी हैं।  
      जहां तक हिन्दू फासीवादी ताकतों के राज में होने वाले एनकाउंटर का सवाल है इसकी अन्य वजह भी हैं। जैसा कि फासीवादियों के बारे में कहा जाता है कि फासीवादी सबसे ज्यादा पतित, सबसे ज्यादा भ्रष्ट तत्व होते हैं। एक मायने में ये पूंजीवादी राज्य से इतर सबसे ज्यादा संगठित आपराधिक तत्व भी हैं। यही वजह है कि गुजरात से लेकर उत्तर प्रदेश तक ‘फर्जी एनकाउंटर’ को न केवल अंजाम दिया जाता है बल्कि इसे ग्लैमराइज या महिमामंडित भी किया जाता है। इसे इनकी नजर में या आम तौर पर परिभाषित अपराध को खत्म करने में सबसे बड़े ‘हथियार’ के रूप में प्रस्तुत व प्रचारित किया जाता है। चूंकि इनके द्वारा समाज में निरंतर यह प्रचारित किया गया है कि मुस्लिम अपराधी ही होते हैं। इस तरह आसानी से ये एनकाउंटर के जरिये भी अपनी फासीवादी ध्रुवीकरण की राजनीति को आगे बढ़ाते हैं
       फर्जी एनकाउंटर व पुलिस की क्रूरता, चूंकि साफ-साफ दिखाई देती रही है इसीलिए मौजूदा फर्जी एनकाउंटर पर हुई बहस, पुलिस की कार्य प्रणाली पर भी केंद्रित हुई। कहा जाता रहा है कि भारतीय पुलिस 1860-61 के कानून के तहत औपनिवेशिक काल में अंग्रेजों द्वारा भारतीयों पर राज कायम करने, इसे बरकरार रखने के मकसद से गठित की गई थी। चूंकि इसमें कोई भी विशेष सुधार आजादी के बाद भी नहीं हुए, पूरा तंत्र वैसे ही बना रहा इसीलिए आज भारतीय पुलिस का जो दमनकारी व क्रूर चेहरा दिखता है यह उसी     अतीत की देन है। यदि इसमें सुधार कर लिए जाते तो पुलिस मानवीय और जनतांत्रिक होती। इसमें फिर चर्चा करने वाले अलग-अलग आयोगों द्वारा पुलिस तंत्र व इसकी कार्यप्रणाली में सुधार हेतु सुझायी गयी संस्तुतियों की चर्चा करते हैं।    
     इस प्रकार की चर्चा में आंशिक सच्चाई  ही है। हकीकत यह है कि इस प्रकार की चर्चाएं असल मसले पर पर्दा डालने का ही काम करती हैं।
    हकीकत क्या है? यही कि पुलिस संस्था इस पूंजीवादी शासन-प्रशासन का एक महत्वपूर्ण अंग है कि पूंजीवाद में पूंजीपति वर्ग की ही सत्ता होती है, यही शासक है जो कि अल्पसंख्यक हैं जबकि बाकी बहुसंख्यक मजदूर-मेहनतकश जनता है जो इसमें शोषित उत्पीड़ित है।
      पुलिस तंत्र पूंजीपति वर्ग की सत्ता का ही एक दमनकारी औजार है जो कि आम जनता के न्यायपूर्ण व जनवादी प्रतिरोध को नियंत्रित करता है। ऐसा केवल पुलिस द्वारा होने वाले सामान्य दमन से लेकर बर्बर दमन के जरिये ही संभव होता है। इसी को कथित सभ्य जगत के लोग ‘लाॅ एंड आर्डर’ (कानून व्यवस्था) का मसला कहते हैं जिसे कथित शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए अनिवार्य माना जाता है।
       इसीलिए पुलिस तंत्र में होने वाले सुधारों का सीधा संबंध शासक पूंजीपति वर्ग से है। यही वजह थी कि आजाद भारत के उस दौर के शासकों ने नेहरू की अगुवाई में ब्रिटिश शासकों द्वारा खड़े किये गए दमनकारी औजार, पुलिस तंत्र को भी लगभग वैसे ही बने रहने दिया। इसमें जातिवादी, स्त्री विरोधी, सामंती मूल्य तथा साम्प्रदायिक मूल्य व चेतना को बने रहने दिया गया।
        आज के दौर में जबकि फासीवादी ताकतों को शासक पूंजीपति वर्ग द्वारा सीधे सत्ता पर बिठाया जा चुका हो तब ऐसे अंधेरे दौर में कोई भी सुधार नहीं होने वाला है बल्कि उलटा ही होना है। उत्तर प्रदेश, दिल्ली में सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों के निर्मम दमन तथा भीमाकोरेगांव मसले ने स्पष्ट कर दिया है कि पुलिस किस हद तक फासीवादियों के औजार की तरह काम कर रही है वस्तुतः यह आज की पूंजीपति वर्ग की जरूरत के अनुरूप ही हो रहा है।

Friday, 26 June 2020

'घोषित आपात काल' से 'अघोषित आपात काल' की ओर


       26 जून 1975 की सुबह-सुबह जब आम लोगों की आंख खुली तो उन्होंने पाया कि उनके मौलिक अधिकार निलंबित हो चुके हैं उनके इर्द-गिर्द पुलिस ही पुलिस है। चारों तरफ पुलिस का आतंक पसरा हुआ है। गिरफ्तारियां, धर पकड़ की अपुष्ट खबरें 'अफवाहों' के रूप में सुनने को मिल रही थी। अख़बार न छप सके इसलिए रात में ही बिजली काट दी गई थी। 21 माह तक आपात काल कायम रहा था।
       आज मोदी व मोदी सरकार के मंत्री कॉंग्रेस को घेरते हुए उसे इस आपात काल की याद दिलाते रहते हैं। कंग्रेस को लोकतंत्र का हत्यारा तो खुद को लोकतंत्र के रक्षक के बतौर प्रस्तुत करते हैं।
      इस तरह 'आपात काल' के विरोधी होने का दम भरते हुए 'अघोषित आपातकाल' सी स्थिति मोदी सरकार कायम के चुकी है।
       इस 'अघोषित आपात काल' सी स्थिति की खासियत यह है कि देश में बिना आपात काल' घोषित किये ही 'अधिकार', 'बराबरी' के लिए तथा 'अन्याय' व 'जुल्म' के विरोध में उठती हर 'आवाज' तथा 'संघर्ष' को कॉरपोरेट मीडिया, संगीन फर्जी मुकदमों, गिरफ्तारियों, संगीनों व काले दमनकारी कानूनों के तले रौंदा जा रहा है। यही मौजूदा दौर की हकीकत है। इसे ' पूंजीवादी संविधान' के जरिये नहीं बल्कि 'संविधान' को 'निष्प्रभावी' करके हासिल किया जा रहा है।
      यह आपात काल से कई गुना ज्यादा खतरनाक, मारक है। यह एक हद तक, 'आतंकी तानाशाही' सी स्थिति है। मोदी-शाह 'आपात काल' को गलियाते हुए भी 'अघोषित आपात काल सी स्थिति' को मजबूत करते जा रहे हैं। 2014 के बाद से ही निरंतर इस ओर बढ़ा गया है। मोदी 2.0 में तो खुलेआम हिन्दू फासीवादी एजेंडे को आगे बढ़ाया गया है।
    'अघोषित आपातकाल सी स्थिति' आंदोलन के रूप में है, यह 'फासीवादी आंदोलन' है, यह 'घोर जनविरोधी आंदोलन' है मगर इसके बावजूद, इसी जनता के एक हिस्से का 'समर्थन' इसे हासिल है। यह 'हिंदू फासीवादी आंदोलन' है। पूरे समाज में 'खेमेबंदी' इसी का लक्षण है। इसने इस व्यवस्था के 'कथित सभी अंगों' में 'घुसपैठ' कायम कर ली है। इसकी दिशा 'खुली आतंकी तानाशाही' यानी 'फासीवाद' कायम करने की ओर है।
   घोषित आपात काल 'संविधान' के जरिये कायम थी, यह 'आंदोलन' की शक्ल में नहीं आया। संविधान के अनुच्छेद 352 का इस्तेमाल कर 'सिविल तानाशाही' कायम की गई थी। जिस 'जनता' के खिलाफ यह 'लक्षित' था उसे मालूम था कि 'उनके अधिकार' 'निलंबित' किये जा चुके हैं जनता इसके खिलाफ थी। तब लोकतंत्र का नकाब ओढ़े हुई 'पूंजीपति वर्ग की तानाशाही' खुलकर सामने हाज़िर हो गई थी।
     'घोषित आपात काल' व' अघोषित आपात काल सी स्थिति' दोनों ही शासक पूंजीपति वर्ग की इच्छा का नतीजा है यह अपने-अपने वक़्त के 'आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक' संकट पर काबू पाने के तरीके हैं, उमड़ते जनांदोलनों पर काबू करने के तरीके हैं। फिर भी 'अघोषित आपात काल सी स्थिति' शासक पूंजीपति वर्ग के सबसे ज्यादा जन विरोधी, सबसे ज्यादा भ्रष्ट व पतित, सबसे ज्यादा अन्धराष्ट्रवादी व सम्राज्यवाद परस्त एकाधिकारी पूंजीपतियों की इच्छा, आकांछा का नतीजा है हालांकि अभी इसकी जरूरत 'खुली आतंकी तानाशाही' कायम कर देनी की नहीं है।

Saturday, 20 June 2020

क्रालोस कार्यकर्त्ता नसीम को डराने धमकाने का विरोध करो



     क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन की हल्द्वानी इकाई के कार्यकर्त्ता नसीम को केंद्र सरकार के निर्देश पर काम करने वाली आई बी (खुफिया विभाग) का आदमी बताते हुए दो लोगों ने नसीम को जबरन रास्ते पर रोककर उत्पीड़ित करने का काम किया। उनकी फोटो खींची तथा एक दुकान में कुछ लोगों के सामने डराने धमकाने की कार्यवाही की। जनवरी फरवरी माह में हल्द्वानी के वनभूलपूरा क्षेत्र में हज़ारों अल्पसंख्यक लोग सी ए ए, एन आर सी तथा एन पी आर के विरोध में सड़कों पर उमड़ पड़े थे। इस आंदोलन में क्रालोस के हल्द्वानी क्षेत्र के कार्यकर्त्ता भी इस दौरान गए थे।
      चूंकि मोदी-शाह की सरकार की जंग कोरोना से नहीं बल्कि सी ए ए प्रदर्शनकारियों से चल रही है इसीलिये दिल्ली में दिल्ली दंगों के नाम पर कई नौजवान छात्रों व छात्राओं को जो कि सी ए ए  विरोधी प्रदर्शनों में शामिल थे। उन्हें यू ए पी ए से लेकर तमाम संगीन मुकदमों में जेलों में ठूंसने की घृणित कारवाई को आगे बढ़ा रही है।
      हल्द्वानी में क्रालोस कार्यकर्त्ता को डराने धमकाने की यह कारवाई भी इसी की मिसाल है। क्रालोस मोदी सरकार की इस जनवादविरोधी घृणित कारवाई की तीखी भर्त्सना व निंदा करता है और मांग करता है कि इन डराने धमकाने व न्याय के लिए उठती इन आवाजों को कुचलने की घृणित कार्रवाइयों पर तत्काल रोक लगाए।

बढ़ते युद्धोन्माद व अन्धराष्ट्रवाद का विरोध जरूरी है


       भारत की सीमा पर गलवान घाटी में चीनी व भारतीय सैनिकों के बीच संघर्ष में तकरीबन 20 भारतीय सैनिकों के मारे गए हैं। इस घटना के बाद देश में अन्धराष्ट्रवादी उन्माद का शोर फिर चरम पर है। पिछले कई दिनों से चीनी व भारतीय शासकों के बीच लगातार अंतर्विरोध बढ़े है जिसकी परिणति के बतौर एक ओर सीमा पर तो दूसरी ओर देश के भीतर कॉरपोरेट मीडिया व संघी आई टी सेल द्वारा युद्धोन्माद व अन्धराष्ट्रवाद का माहौल बनाया गया।
    इस युद्धोन्माद व अन्धराष्ट्रवाद की कीमत मज़दूरों किसानों के बेटों को अपनी जान के रूप में सरहद पर चुकानी पड़ी है। यह बेहद दुःखद है। यह सीमा के इस व उस पार दोनों जगहों पर है।
    यह बेहद संगीन व दुखदायी स्थिति है कि एक तरफ देश के भीतर मजदूर मेहनतकश लोग, शासकों के घोर पूंजीपरस्त व घोर जनविरोधी होने के चलते मारे जा रहे हैं तो दूसरी तरफ उनके बेटे अन्धराष्ट्रवादी युद्धोन्माद में सरहदों पर मारे जाते हैं।
       अन्धराष्ट्रवादी युद्धोन्माद शासकों के लिए ऐसा मुद्दा है जहां पूँजीवादी शासक, चाहे वे उदारवादी हों या फिर फासीवादी, एक हो जाते हैं। मगर फासीवादी ताकतों के लिए तो यह कोर मुद्दा है। आज अन्धराष्ट्रवाद अमेरिका से लेकर दुनिया के अधिकांश मुल्कों में छाया हुआ है। इसके जरिये फासीवादी ताकतों को एकाधिकारी पूंजी आगे बढ़ा रही है।
     भारत जैसे मुल्कों के लिए अन्धराष्ट्रवाद व युद्धोन्माद के दो पहलू हैं एक तरफ कमजोर मुल्कों को सर्जीकल स्ट्राइक व घर में घुसकर मारने की धमकी देना तो दूसरी ओर अपने से ताकतवर पूँजीवादी मुल्कों के सामने दुम हिलाना, मालों के बाहिष्कार की खोखली धमकी देना।
      पड़ोसी मुल्कों के खिलाफ नफरत फैलाना, युद्ध के उकसावे की राजनीति, सैन्य महिमामंडन, छद्म युद्ध ! पूँजीवादी फासीवादी शासकों की यह अन्धराष्ट्रवादी राजनीति बहुसंख्यक नागरिकों के लिए बेहद खतरनाक है।  आम नागरिकों, मजदूर मेहनतकशों, निम्न मध्यम वर्ग व मध्यम वर्गीय लोगों, सभी के असन्तोष, संकट से ध्यान हटाने तथा इमके तमाम संघर्षों को ध्वस्त कर देने व डाइवर्ट कर देने में अन्धराष्ट्रवाद शासकों का बेहद मारक हथियार है।
      कोरोना महामारी ने संकट ग्रस्त पूंजीवाद के संकट को गहनतम कर दिया है जो विश्वअर्थव्यवस्था पहले ही संकट में थी व भारत की भी। वह धराशायी होने की ओर बढ़ी है। इस महामारी ने पूंजीवाद की सीमाओं को तीखे ढंग से उजागर किया है। इसने पूँजीवादी फासीवादी शासकों के नकाब लगे घृणित चेहरों को नंगा कर दिया है।
     इसलिये ऐसे दौर में अन्धराष्ट्रवाद व युद्धोन्माद जैसा माहौल बनाये रखना बेहद जरूरी हो जाता है।
        कोरोना जैसी महामारी या अन्य भीषण आपदा, ऐसे समाज में जिसकी बुनियाद शोषण पर टिकी हुई हो, जहां मुनाफा ही जीवन दर्शन हो, जहां पूंजी ही सब कुछ हो, जहां व्यक्ति व समाज के बीच दुश्मनाना द्वंद हो, जहां पूंजीपति-मजदूर, डॉक्टर-मरीज,वकील-क्लाइन्ट व अन्य रूप में दो परस्पर निरंतर विरोधी हितों में भयानक टकराहट हो ! पूंजीपति वर्ग ही समाज में हावी होता है। यहां समाज , सामाजिक हित नेपथ्य में चला जाता है व्यक्तिगत हित सर्वोपरी हो जाते हैं। यहां पूंजीपति वर्ग कहता है हर व्यक्ति अपने अपने लिए मेहनत करेगा तो समाज भी ऊपर उठ जाएगा, मगर ऐसा होता नहीं, पूंजीपतिवर्ग शेष समाज की तबाही बर्बादी की कीमत पर आगे बढ़ता जाता है ऐसे समाज में त्याग-समर्पण व बलिदान का भाव कहां से आये। जबकि भीषण आपदा व महामारी से निपटने में इन मूल्यों की भी सख्त दरकार होती है। यह पूँजीवाद की सीमा है। यह केवल समाजवाद में ही सम्भव है।
      पूंजीवाद बहुसंख्यक आम नागरिकों को आज के दौर में केवल और केवल तबाही बर्बादी दे सकता है। यह लूट खसोट के जरिये भी होता है यह सामाजिक व्यय में भारी कटौति व टेक्स की बढ़ोत्तरी के जरिये भी होता है तो यह अन्धराष्ट्रवाद व युद्धोन्माद के जरिये भी होता है। इसलिए बेहद जरूरी है कि इसका हर संभव विरोध किया जाय।

Monday, 15 June 2020

हत्या के विरोध में अमेरिकी जनता का जबरदस्त प्रतिरोध




      'अश्वेतों की जान मायने रखती है' ! तथा ' मैं सांस नहीं ले पा रहा हूँ'' ! इन्हीं नारों के साथ अमेरिका के कई शहरों में न्याय, अधिकार, समानता की आकांक्षा लिए हजारों लोग सड़कों पर 26 मई से प्रर्दशन को निकल पड़े हैं। यह सैलाब आगे बढ़ता जा रहा है। इसके दमन के लिए राष्ट्रीय गार्ड लगा दी गई है मगर संघर्ष फैल रहा है। ब्रिटेन व फ्रांस में भी इस संघर्ष के समर्थन में बड़ी रैलियां निकली है हिंसक प्रदर्शन हुए हैं। अब धूर्त अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प अमेरिका में मिलिट्री के द्वारा दमन की बातें भी करने लगे हैं।
      10 जून तक 200 शहरों में फैल चुका यह प्रदर्शन 46 वर्षीय अश्वेत (काले) जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या के विरोध में है। फ्लॉयड की हत्या श्वेत (गोरे) पुलिस कर्मी ने की। अमेरिका के मिनेसोटा राज्य में मिनियापोलिस शहर में यह घटना हुई थी। इसमें 4 पुलिसकर्मी शामिल थे। एक पुलिसकर्मी ने अपने घुटने से फ्लॉयड का गला दबाया और तब तक दबाता रहा जब तक कि उसकी मौत नहीं हो गई। इस दौरान ज्यार्ज कहता रहा 'मैं सांस नहीं ले पा रहा हूँ'। मगर इस आवाज को अनसुना कर दिया गया। बाकी पुलिसकर्मी इस दौरान सहयोगी की भूमिका में थे।
     इन्हीं 4 पुलिसकर्मियों की गिरफ्तारी के लिए आक्रोश सड़कों पर फुट पड़ा। इस आक्रोश में लंबे वक्त से नस्लवादी हिंसा व उत्पीड़न के खिलाफ गूंज है। इस उमड़ते प्रदर्शन में लॉकडाउन में लम्पट ट्रम्प की अगुवाई में अमेरिकी लम्पट शासकों के घृणित तौर तरीकों से उपजी हताशा-निराशा की गूंज भी है साथ ही साथ बेरोजगारी, असुरक्षित भविष्य और भुखमरी सी स्थिति के खिलाफ भी यह आवाज है।
      भारत में जो अल्पसंख्यक विरोधी घोर फासीवादी रुख, राजनीति तथा घृणित जातिवादी रुख के चलते आये दिन हिंसा की घटनाएं होती हैं भारतीय पुलिस का विशेषकर उत्तर भारत तथा गुजरात में, जो घोर मुस्लिम विरोधी तथा जातिवादी है । वही चीज अमेरिका में घृणित नस्लवादी फासीवादी राजनीति के रूप में दिखाई देता हैं। आज के दौर में इन घोर फासीवादी प्रवृत्तियों का हावी होना अपने अंतिम मूल्यांकन में यह मरणासन्न पूंजीवाद के भीषण संकट की निशानी है।
      फासीवादी नेता ट्रम्प ने अमेरिका में जन प्रतिरोध को कुचलने के लिए मिलिट्री लगाने की धमकी दी थी। तथा फासीवाद विरोधी मोर्चा 'एंटीफा' को आतंकवादी संगठन की श्रेणी में डालने की धमकी दी गई। एक शहर में मिलिट्री लगाई गई जबकि कई शहरों में 'पुलिस' के साथ राष्ट्रीय गार्ड लगाई गई। मगर दमन जितना बड़ा, प्रतिरोध उससे ज्यादा गति से आगे बढ़ा।
     इस व्यापक दमन में लगभग 10000 लोग गिरफ्तार किए जा चुके हैं। 13 लोगों की मौत हुई है। मगर संघर्ष और ज्यादा व्यापक अनुशासित भी हुआ है।
      यह प्रतिरोध अमेरिका के 27 राज्यों के 200 शहरों में फैल चुका है। इसमें अब मजदूर, नर्स भी शामिल हो चुके हैं। न केवल अमेरिका बल्कि यूरोप के कई मुल्कों में भी इस संघर्ष के समर्थन में बड़ी रैलियां निकली हैं।
      अमेरिकी साम्राज्यवादी शासक वर्ग का दूसरा धड़ा संघर्ष का दिखावे के लिए तथा इसे अपने पक्ष में ढालने के लिए समर्थन व प्रयास कर रहा है। हालांकि ट्रम्प के रुख ने मतभेद की स्थिति पैदा कर दी है।
       इस संघर्ष की काफी सीमाएं भी है आंदोलन संगठित नहीं है तथा यह किसी क्रांतिकारी संगठनों के नियंत्रण में नहीं है। एंटीफा भांति भांति के विचारों वाले संघटनों का एक व्यापक प्लेटफार्म है जो फासीवादी रुझानों, कार्रवाइयों के खिलाफ कड़ा प्रतिरोध करता है।
      जहां तक अमेरिकी समाज में नस्लीय भेद, नस्लवादी सोच का मसला है यह बेहद पुराना है। 16 वीं -17 वीं सदी में अमेरिकी महाद्वीप से सोने चांदी की तलाश ब्रिटेन, स्पेन, फ्रांस, पुर्तगाली शासकों में यहां इन्हें उपनिवेश बनाना शुरू कर दिया। अमेरिका के मूल निवासियों का एक ओर सफाया किया गया दूसरी ओर इन व्यापारिक साम्राज्यवादी देशों के बीच आपसी संघर्ष हुआ। उत्त्तरी अमेरिका के मुख्य हिस्सों पर ब्रिटेन का प्रभुत्व कायम हुआ। इसी दौर में अमेरिका में काम करवाने के लिए अफ्रीकी महाद्वीप से लाखों की तादाद में जहाजों में भर-भर कर काले (नीग्रो) लोगों को बंधक बनाकर, जबरन बेगारी हेतु अमेरिका ले जाया गया। यह आधुनिक 'दासता' का जमाना था। बड़ी तादाद में इन 'ग़ुलामों' 'दासों' का जो भोले-भाले इंसान थे, इनकी खरीद-फरोख्त का कारोबार विकसित हो गया था। इनसे खानों, खेतों व अन्य जगहों पर जबरन बेहद उत्पीड़नकारी ढंग से काम करवाया जाता था। काम के दौरान, भूख से, बीमारी से तथा जहाजों में भी लाखों की तादाद में, ये अश्वेत मारे गए।
     वास्तविकता में यह परोक्ष हत्याएं थी। 'यूरोपीय सभ्य समाज' के चेहरे के भीतर 'यह घृणित व अमानवीय' चेहरा था। यह भारत में 'भारतीय व कुत्तों' को प्रवेश नहीं के 'नस्लीय श्रेष्ठता' के रूप में दिखता था। इसी भयानक लूट-खसोट ने ब्रिटेन, फ़्रांस में पूंजीवाद के विकास को तेज़ी से आगे बढ़ाया था।
       इसी दौरान यानी 1776 में अमेरिकी क्रांति हुई। जिसका नारा 'स्वतंत्रता व समानता' का था। यह क्रांति ब्रिटिश शासकों तथा अमेरिका में बस चुके ब्रिटेन से ही प्रवासी हो चुके पूंजीपतियों, कारोबारियों तथा अन्य लोगों के बीच था।
      यह पूँजीवादी क्रांति भी लाखों गुलाम अश्वेतों के जीवन में कोई बदलाव नहीं लाई। इसके उलट दासता को संस्थागत के दिया गया।   
      अमेरिका ( ब्रिटिश उपनिवेश ) के उत्तर व दक्षिण हिस्से में फर्क था। उत्त्तरी हिस्से में तेज पूँजीवादी विकास था, उद्योग का तेज विस्तार हो रहा था, यहां ग़ुलामों की जरूरत नहीं थी, दासता यहां विकास के आगे रोड़ा थी। इसीलिए इस हिस्से में दास प्रथा कमजोर होते चली गयी जबकि दक्षिण हिस्सा,पिछड़ा व कृषि वाला था यहां दासों की खूब जरूरत थी। दक्षिणी हिस्से अपने ढंग से चलना चाहते थे। सत्ता के केन्द्रीकरण (संघ) उत्त्तरी हिस्से की चाहत थी। 19 वीं सदी के 60 के दशक में उत्त्तरी व दक्षिणी हिस्से के संघर्ष ने गृह युद्ध का रूप धारण किया। अब्राहम लिंकन की अगुवाई में अन्ततः दक्षिणी हिस्से के प्रतिरोध को दमन कर गृहयुद्ध को जीत लिया गया। इस प्रकार  वो संयुक्त राज्य अमेरिका वज़ूद में आया जिसमें लगभग 40 से ज्यादा राज्य (प्रांत) थे। यह गृह युद्ध दासों की मुक्ति के मकसद से नहीं था। अब दास प्रथा को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया।
    ऐसा नहीं कि इसके खिलाफ कोई प्रतिरोध न  हुआ  हो। 1811 में ही अश्वेत दासों द्वारा विद्रोह किया गया। तब 500 अश्वेत हथियारों से लैस होकर अंग्रेज शासकों के खिलाफ विद्रोह किया मगर यह कुचल दिया गया।
      अब इस विद्रोह के लगभग 50 साल बाद 'दास प्रथा' को गैरकानूनी घोषित किये जाने के बावजूद नस्लवादी भेदभाव, उत्पीड़न का खात्मा नहीं हुआ। 'शेयर क्रॉपर' व 'कन्विक्ट लिजिंग' के नाम से यह दूसरे रूप में जारी रही। हालांकि पहले की तुलना में यह कमजोर हो गयी। दासों का 90 फीसदी हिस्सा दक्षिणी हिस्से में था।
       1916 में 200 शेयर क्रॉपर (अश्वेत) की हत्या कर दी गई। यह श्वेत पुलिसकर्मियों द्वारा की गई थी। इसे इलेन नरसंहार कहा जाता है। इस वक़्त लाखों की तादाद में दक्षिणी हिस्से से उत्तर की ओर अश्वेतों का पलायन या विस्थापन हुआ था।
      सामाजिक राजनीतिक व आर्थिक हर स्तर पर यह नस्लीय भेदभाव, उत्पीड़न व हिंसा अलग अलग वक़्त पर फिर बाद में भी चलती रही। फासीवादी संगठन कु कलक्स क्लान (kkk)  व पुलिस इसमें सबसे आगे-आगे थी।
      1940 के दशक से सिविल राइट आंदोलनों ने जोर पकड़ा। जबकि इसी दौर में यानी पुनर्निर्माण व दूसरे युद्ध के बीच लगभग 5500 अश्वेतों (अफ्रीकी अमेरिकन) 'भीड़ हिंसा' में मारे गए थे।
      ब्लैक पैंथर तथा मार्टिन लूथर किंग जूनियर की अगुवाई में 'मांगें व आकांक्षाएं' के रूप में मागें सूत्रीत की गई व व्यापक संघर्ष हुआ। यह 1960-70 के दशक में चला। 1968 तक आते आते यह आज के 'में सांस नहीं ले पा रहा हूं' 'अश्वेत जिंदगी मायने रखती है' जैसे व्यापक आंदोलन की तरह देशव्यापी हो गया। लाखों लोगों ने इसमें शिरकत की। मार्टिन लूथर की हत्या कर दी गई। आंदोलन का दमन भी किया गया। 40 से ज्यादा लोग मारे गए। तीन-चार हज़ार लोग घायल हो गए। लगभग 27000 से ज्यादा लोग गिरफ्तार कर लिए गए।
       इस आंदोलन के दबाव में अश्वेतों के लिए आरक्षण की व्यवस्था अमेरिकी हुक्मरानों को करनी पड़ी। इसके बाद फ़िल्म इंडस्ट्री से लेकर, पुलिस, मिलिट्री व सभी जगहों पर अश्वेत लोग पहूंचे। इनका आत्मासातीकरण व्यवस्था में हुआ। यह वह दौर भी था जब पूँजीवादी अर्थव्यवस्था तेज़ी से आगे बढ़ रही थी। बाद में 70 के दशक में यह ठहराव ग्रस्त होने की ओर बढ़ी।
      बीते 50-60 सालों में अश्वेतों  के बीच भी ध्रुवीकरण बढ़ा। यह एक हद तक भारत में जातिवाद के खात्मे के लिए शासकों द्वारा की गई आरक्षण व अश्पृश्यता उन्मूलन कानून जैसी ही थी तथा खुद जातिवाद का शिकार रहे समूह के भीतर इसने ध्रुवीकरण को अंजाम दिया। आज दलितों की पार्टियां है मगर वह दलित उत्पीड़न हिंसा पर खामोश है। क्योंकि मसला अब जाति नहीं वर्ग का है। यही पूंजीवाद का असल विभाजन है। यही स्थिति मुस्लिमों के मसले पर भी है।
       यही चीज थोड़ा भिन्न रूप में अमेरिका में अश्वेतों के खिलाफ होती हिंसा व उत्पीड़न की है। इसीलिए अश्वेतों के बीच से वो लोग जो शासकों की जमात में पहुंच चुके हैं वो खामोश हैं या केवल सीमित विरोध है।
       पिछले 3 दशकों से जब से विश्व अर्थव्यवस्था संकट की ओर बढ़ी है व खुद अमेरिकी अर्थव्यवस्था भी। तब से अमेरिका के 7-8 प्रांतों में अश्वेतों व महिलाओं के लिए किये गए विशेष प्रावधानों को खत्म किया जा रहा है।
      अब 2007-08 से गहन संकट की ओर बढ़ चुकी विश्व अर्थव्यवस्था को 12 साल हो चुके हैं और अब कोरोना महामारी ने संकट को अप्रत्याशित रूप से कई गुना बढ़ा दिया है। अमेरिका में बेरोजगारी, महंगाई, गरीबों के लिए इलाज के अभाव या बेहद कमजोर होने ने स्थिति को विस्फोटक बनाया है। अश्वेत लोग इसके सबसे ज्यादा शिकार है। दूसरी ओर फासीवादी राजनीति के अमेरिकी समाज में तेज़ी से बढ़ने के चलते अश्वेत, एशियाई व अप्रवासी लोगो  पर हमले बढ़े हैं। गरीब अश्वेतों की स्थिति सबसे बदतर है। जेलों में सबसे ज्यादा यही हैं गरीब बस्तियों में अधिकांश यही हैं कोरोना का शिकार भी अधिकतर यही हैं। पुलिस की हिंसा का शिकार तो लंबे वक्त से होते रहे हैं।
       कोरोना महामारी का शिकार भी अधिकांश इन्हीं के बीच से गरीब हैं। महामारी से निपटने की स्थिति ने अधिकांश को भयानक असुरक्षा में डाल दिया है। ट्रम्प के रवैये ने स्वास्थ्यकर्मियों से लेकर मजदूरों को भी आक्रोशित किया है साथ ही शासक वर्ग के दूसरे धड़े भी बेचैन हैं।
इन भयानक संकटग्रस्त  स्थितियों में ही ज्यार्ज फ्लॉयड की हत्या ने चिंगारी का काम किया। इसने जंगल में आग की तरह फैलने का काम किया। इसमें अलग-अलग तरह के लोग शामिल हुए। यह संघर्ष फिलहाल उत्पीड़न, भेदभाव, असमानता के खिलाफ है। इसकी दिशा समाजवाद की ओर फिलहाल कतई नहीं है। इस दिशा में इसके बढ़ने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।



     

Saturday, 30 May 2020

दिल्ली हिंसा के नाम पर गिरफ्तार किये गए सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों को रिहा करो !
      
   
      मोदी सरकार बिल्कुल षड्यंत्रकारी तरीके अपने विरोधियों को निशाने पर ले रही है। दो साल पहले भीमा कोरेगांव की तर्ज़ पर ही सीएए, एनआरसी व एनपीआर विरोधी आंदोलनकारियों को गिरफ्तार किया जा रहा है।
       ऐसे वक़्त में जब एक तरफ कोरोना महामारी के खिलाफ 'जंग' का एलान किया गया है समस्त "देशवासियों" को एकजुट होकर इस 'जंग' में साथ होने का "आह्वान" किया गया तब "लॉकडाउन" की आड़ में मोदी सरकार सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों से निपट रही है।
        ऐसा लगने लगा है कि मोदी सरकार की 'जंग' कोरोना महामारी से नहीं बल्कि अपने विरोधियों को फंसाने व गिरफ्तार करके जेल में डालने की है। इस तरह जेल में डालकर पूरे समाज में दहशत व खौफ पैदा कर देना चाहती है ताकि कोई भी अधिकारों की बात ना करे, अन्याय व जुल्म के खिलाफ खड़ा न हो।
      मोदी सरकार ने दूसरे कार्यकाल में हिन्दू फासीवादी एजेंडों को खुलकर आगे बढ़ाया। अन्धराष्ट्रवादी, साम्प्रदायिक मुद्दों के जरिये मोदी सरकार ने गहन होते आर्थिक संकट से ध्यान हटाया तथा राजनीतिक ध्रुवीकरण को चरम की ओर ले बढ़े। कश्मीर मुद्दा, राम मंदिर, नागरिकता संशोधन कानून इसी की कड़ी हैं। एक-एक कार ये एजेंडे फैंके गए क्रमशः।
       नागरिकता संशोधन कानून, एन आर सी तथा एन पी आर ऐसा फासीवादी एजेंडा था और है जो देश के करोड़ों मजदूर मेहनतकशों को गैरनागरिक होने की श्रेणी में डाल देता, इन्हें अपने ही देश में घुसपैठिया या शरणार्थी बना देता। विशेष तौर पर यह मुस्लिमों के खिलाफ लक्षित था।
इसके खिलाफ प्रतिरोध तो होना ही था। देश भर में इसके खिलाफ आवाज उठी। हिंदू फासीवाद के खिलाफ इतना सशक्त प्रतिरोध पहली बार हुआ था। इस आंदोलन ने फासीवादी ताकतों को अपने कदम पीछे खींचने पर मजबूर कर दिया।
        सीएए, एनआरसी व एनपीआर के खिलाफ दिल्ली केंद्र बन गया था। शहीन बाग एक मॉडल बन चुका था। यहीं नहीं दिल्ली में कई जगह ऐसे ही शहीन बाग बन चुके थे। यहीं से फिर मोदी-शाह की सरकार ने साजिश रची। दिल्ली के दंगों का आयोजन किया गया। जिसमें कपिल शर्मा व अनुराग ठाकुर जैसे कुछ अन्य पर्दे के सामने थे जबकि पर्दे के पीछे पूरा संघी फासीवादी गिरोह। अन्ततः दिल्ली के प्रायोजित नरसंहार के आयोजकों ने 'दिल्ली हिंसा' के नाम पर उन्हीं को दंगे  के लिए आरोपी बनाना शुरू कर दिया जो दंगों के शिकार थे, जो सीएए  विरोधी प्रदर्शनों में शामिल थे या उसे लीड कर रहे थे। जे एन यू, जामिया , दिल्ली विश्वविद्यालय व अन्य कॉलेज के छात्रों की गिरफ्तारी की जा रही है। अभी तक 1300 लोगों की गिरफ्तारी की गई है। संगीन मुकदमे लगाए जा रहे हैं। यू ए पी ए, राजद्रोह या फिर कुछ और।
       27 वर्षीय सफूरा जगरर जो कि जामिया की शोध   विद्यार्थी हैं और गर्भवती है उन्हें यू ए पी ए यानी कथित आतंकवाद विरोधी कानून के तहत तिहाड़ जेल में ठूंस दिया गया। इसी प्रकार और भी हैं। कश्मीर से भी महिला पत्रकार समेत कुछ अन्य पर आतंकवाद विरोधी कानून के तहत मुकदमा ठोक दिया गया। दिल्ली में जामिया, जे एन यू व दिल्ली विश्वविद्यालय के उन छात्रों को निशाना बनाया जा रहा है जो सीएए विरोधी प्रदर्शन में शामिल थे। मीरान हैदर, उमर खालिद आदि ऐसे ही कई नाम हैं।  अधिकांश मुस्लिमों को निशाने पर लिया जा रहा है।
      अभी कुछ दिनों पहले दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज की छात्रा नताशा व देवांगना को भी दिल्ली हिंसा के नाम पर गिरफ्तार के लिया गया। बाद में जैसे ही इन्हें कोर्ट से जमानत मिली तत्काल ही दूसरे मुकदमे में पुलिस ने इन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया। नताशा पर अब यू ए पी ए का मुकदमा दर्ज कर देनी की बात सामने आ रही है।
      निश्चित तौर पर ऐसे वक्त में जब एक तरफ कोरोना से जंग के नाम पर लॉकडाउन किया गया हो, देश के नागरिकों से एकजुट होकर इससे लड़ने की अपील की गई हो, सोशल डिस्टेंसिग की बात की जा रही है तब ऐसे वक्त में मोदी सरकार का यह कृत्य घृणित, षड्यंत्रकारी व प्रतिशोधात्मक है यह घोर निंदनीय है। इन सभी को अविलंब रिहा किया जाय।   

Saturday, 23 May 2020

लॉकडाउन की आड़ में घोर निरंकुशता

लॉकडाउन की आड़ में घोर निरंकुशता

        लॉकडाउन की घोषणा के बाद ऐसा लगा जैसा मोदी सरकार को अपनी मन की मुराद मिल गयी हो। एक-एक करके सीएए एनपीआर विरोधी प्रदर्शन में शामिल लोगों को मोदी सरकार निशाने पर लेने लगी। विशेषकर यह खेल दिल्ली में सीधे सीधे गृह मंत्रालय के अधीन पुलिस के माध्यम से किया गया।
        दिल्ली में जिस दंगे के जरिये सीएए विरोधी प्रदर्शन को खत्म कर देने की साजिश रची गई थी, अब उसी की साजिश रचने का आरोप सीएए प्रदर्शनकारियों पर लगाये गए। कुछ लोगों पर गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम यानी यूएपीए के तहत मुकदमा दर्ज कर दिया गया। यह इत्तेफाक नहीं कि इसमें सभी मुस्लिम हैं। अधिकांश नौजवान है। कॉलेज में पढ़ने वाले हैं।
       इन्हीं में एक है सफूरा जगर, जिनकी उम्र है 27 साल। वह अभी गर्भवती है इसके बाबजूद उन्हें तिहाड़ जेल में डाल दिया गया। इसके अलावा और भी है जिन्हें यूएपीए के तहत गिरफ्तार कर लिया गया।
     सफूरा के खिलाफ हिन्दू फासीवादी तथा लम्पट मीडिया चरित्र हनन से लेकर भयानक दुष्प्रचार में लगा हुआ है।
      इसके अलावा आपदा प्रबंधन एक्ट तथा महामारी रोग अधिनियम के तहत लोगों के, जनपक्षधर लोगों के तथा पत्रकारों की आवाज को भी खामोश किया जा रहा है। उन पर राजद्रोह से लेकर संगीन मुकदमे दर्ज किए गए हैं। आम लोगो के दुख तकलीफों का पता पूरे समाज को पता लगे, सरकार का घोर जनविरोधी रुख तथा संवेदनहीनता समाज को पता लगे, यह सरकार नहीं चाहती।
     यहीं से फिर वह जो कोई भी सरकार को बेनकाब कर रहा है उसकी आवाज को बंद कर दिया जा रहा है। द वायर के संपादक, ठेका मजदूर कल्याण एसोसिएशन के अध्यक्ष, पछास के एक कार्यकर्त्ता तथा कई पत्रकार इसी दमन के शिकार हुए। बाकि आम अवाम तो लॉकडाउन के उल्लंघन में पिट रहीं है अपमानित हो रही है तथा मुकदमे झेल रही है।
   साफ तौर पर यह स्थिति दिखाती है कि मोदी सरकार व इनकी राज्य सरकारें लॉकडाउन का इस्तेमाल अपने विरोधियों से निपटने तथा निरंकुशता की ओर बढ़ने के रूप में कर रही है।
   


Sunday, 17 May 2020

कोरोना महामारी के दौर में काम के घंटो को 8 से 12 घंटे करने की ओर बढ़ते शासक

कोरोना महामारी के दौर में काम के घंटो को 8 से 12 घंटे करने की ओर बढ़ते शासक


        कोरोना महामारी के दौर ने मजदूर मेहनतकशों के सामने शासकों को नंगा कर दिया है।  लाखों की तादाद में प्रवासी मजदूर सड़कों पर है। वे भूखे प्यासे रोटी और सुरक्षा तथा अपनों की तलाश में अपने गांव की ओर पैदल जा रहे हैं। इसमें महिलाएं हैं, बच्चे हैं, पुरुष हैं तथा साथ में सामान की गठरी है। इन्हें सैकड़ों किमी की यात्रा करनी हैं। बस एक ही मंजिल है किसी भी तरह अपने गांव  पहुंचना है अपने लोगों के बीच पहुंचना है यदि मौत हो भी तो अपने लोगो के बीच। 
       एक तरफ मजदूरों का काफिला है तो दूसरी तरफ मूकदर्शक सरकार है जो इस दौर में भी उन पत्रकारों को जेल में ठूंसने में लगी हुई है जो हकीकत को सामने ला रहे हैं। सरकार को मजदूरों की मौत से , भूखे प्यासे दर दर भटकने से कोई फर्क नही पड़ता है। बस सरकार को बेनकाब होने की, अपनी इमेज की  चिंता है। सरकार को इस बात की चिंता है कि यदि प्रवासी मजदूर अपने घरों को चले गए तो पूंजीपतियों की पूंजी का क्या होगा जो कि उद्योग में लगे हुए है। इसलिए भरपूर कोशिश है कि मजदूरों को किसी भी तरह से अपने घर की ओर पलायन से रोका जाए। मजदूरों को मजबूर होकर सड़कों पर प्रदर्शन करने पड़े। लुधियाना, कठुआ, सूरत, अहमदाबाद समेत कई जगहों पर ऐसे प्रदर्शन हुए। यह हिंसक भी हुआ। संघर्ष अभी भी कहीं के कहीं हो ही रहे हैं।
     इस सबके चलते मोदी सरकार को पीछे हटना पड़ा। ट्रेन 'श्रमिक ट्रेन' के नाम से चलाने पड़े। मगर इसका हश्र वैसा ही होना था जैसा कि मजदूरों गरीब किसानों के संबंध में घोषित होने वाली योजनाओं का होता है। तमाम जटिलताएं पैदा की गई। यह कागजी कार्यवाही के नाम और हुआ। यात्रा का किराया भी भूखे प्यासेमजदूरों से ही वसूला गया।  बहुत कम ट्रेन चलाकर ही दावा किया गया कि लाखों मजदूर को उनके इलाके में पहुंचाया गया।। हकीकत क्या है ? 
       मजदूर आज भी सड़कों पर है। कई मजदूर भूखे प्यासे होने के चलते, सैकड़ों किमी की जानलेवा यात्रा के चलते या फिर बसों, ट्रक, ट्रेन के नीचे आकर जान गंवा चुके हैं। 
       लेकिन सरकार यहीं नहीं रुकी। हिन्दू फासीवादी सरकार ने कोरोना संकट की आड़ में बेशर्मी से मजदूरों और हमला बोल दिया। गुजरात, उत्तर प्रदेश, राजस्थान आदि कई राज्यों में बचे खुचे श्रम कानूनों पर भी जोरदार हमला बोल दिया गया। उत्तर प्रदेश सरकार ने श्रम कानूनों को 3 साल के लिए स्थगित करने का फैसला लिया। ऐतिहासिक तौर पर मजदूर वर्ग ने 8 घंटे काम के नारे को धरातल पर उतारने को जो कुर्बानियां दी थी , उस पर हमला बोला गया। लेकिन इतिहास, समाज व वक़्त कभी ठहरता नहीं है। मजदूर वर्ग व बाकी मेहनतकश जनता के संघर्ष फिर से सैलाब की तरह उमड़ेंगे।
    

      
     

















           
      
       
     
     

    
     






Thursday, 14 May 2020

कोरोना संक्रमण, फासीवादी शासक और आम अवाम

                     कोरोना संक्रमण,  फासीवादी शासक और आम अवाम

         दुनिया भर में कोरोना संक्रमण के तेज़ प्रसार ने शासकों को मजदूर मेहनतकश जनता के सामने बेनकाब किया है। अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, पाकिस्तान से लेकर भारत तक। अमेरिकी साम्राज्यवादी शासकों की स्थिति सांप-छछुंदर सी हो गई है। बड़बोला व लम्पट ट्रम्प बदहवासी में बके जा रहा है। हालत ये है कि आज अमेरिका कोरोना संक्रमितों की संख्या व इससे होने वाली मौतों की संख्या के मामले में शीर्ष पर है। कभी विश्व स्वास्थ्य संगठन के फंड को रोकना कभी चीन को इसके लिए जिम्मेदार ठहराना तो कभी कुछ बोलना ट्रम्प की बदहवासी को दिखाता है। एक तरफ उद्योग में काम करने वाले मज़दूर संक्रमण के खतरे के चलते हड़ताल की ओर बढ़ रहे हैं उद्योग काम को निरंतर किये जाने का दबाव बना रहा है। दूसरी तरफ स्वास्थ्यकर्मी भी निजी सुरक्षा उपकरणों तथा अन्य वजहों से हड़ताल पर जाने को विवश हैं। इसके अलावा भी बेरोजगार होते लोग, भुखमरी के शिकार होते लोग भी आक्रोशित हैं।
     ऐसा नहीं कि यह स्थिति केवल एक मुल्क की ही हो, यह अधिकांश जगह, अधिकांश देशों में किंतु-परंतु के साथ बनी हुई हैं। कुछ जगह तो अवाम लॉकडाउन के खिलाफ सड़कों पर भी उमड़ चुकी है। सड़कों पर उमड़ता यह आक्रोश-प्रदर्शन रोज़ी-रोटी के लिए ही है।
      अब जरा भारत को देखें ! यहां सड़कों पर आधा भारत है। जो गरीब असहाय है। मजदूर, बच्चों व महिलाओं समेत लाखों की तादाद में अपने गांव व घर की ओर लौट रहे हैं। मोदी सरकार ने इन खबरों को शुरुवात में डाइवर्ट करने में सफलता भी हासिल कर ली थी। तब्लीगी जमात को कोरोना प्रसार के लिए जिम्मेदार ठहराने का खेल टीवी चैनलों के माध्यम से रचा गया। मगर यह स्थिति ज्यादा वक्त तक नहीं बनी रह सकती थी। कुछ वक्त बाद फिर से मजदूरों की सड़कों पर अपने घरों की ओर जाने की ख़बर फिर से आम होने लगी। यही नहीं इस बार मज़दूरों का आक्रोश, प्रदर्शन व संघर्ष भी जगह जगह देखने को मिला। मज़दूरों, मजदूर महिलाओं व बच्चों के सैकड़ों किमी चलने की वीडियो भी फेसबुक और व्हाट्सएप पर घूमने लगी।
        विरोध स्वास्थकर्मियों द्वारा भी किया गया। सरकारी क्षेत्र के स्वास्थकर्मी निजी सुरक्षा उपकरणों की मांग को लेकर निरंतर दबाव बना रहे थे। मगर इसे भी सरकार में अनसुना किया। निजी क्षेत्र के कई डाक्टरों ने तो मरीजों को देखना ही बन्द कर दिया, इस डर से की कहीं खुद संक्रमित न हो जाएं।
   
       जबकि दूसरी तरफ मोदी सरकार, इसके स्वास्थ्य मंत्रालय के तमाम दावों के विपरीत कोरोना संक्रमितों की संख्या में बहुत तेज बढ़ोत्तरी होने लगी। पहले 50 प्रतिदिन से संख्या अब 4000 प्रतिदिन से ऊपर तक पहुंच गई है यानी 80 गुणा की वृद्धि हो चुकी है। मौतों का ही आंकड़ा 2 हजार से ऊपर पहुंच चुका है। इस सबके बावजूद अभी भी सरकार 'सामुदायिक संक्रमण' से इंकार करती रही है। 'सामुदायिक संक्रमण' के मापदंड की मनमानी व्याख्या की गई। साफ देखा जा सकता है कि हिन्दू फासीवादी सरकार की सारी योजना व गणना असफल साबित हुई है हालांकि कोई योजना जैसी चीज थी ही नहीं।
वहीं निरंतर व तेज़ रफ़्तार से बढ़ती संख्या के चलते खुद शासक पूंजीपति वर्ग का दूसरा धड़ा भी नाखुश है। अहंकार, तानाशाही व फासीवादी आचरण यहां भी हावी है। कहा जा रहा है कि इस स्थिति के चलते वैज्ञानिकों व प्रशासन में बैठे कई लोगो के बीच भी असन्तोष है, वैज्ञानिकों व महामारी विशेषज्ञों से सलाह मशवरा कतई नहीं होता।
 नरेन्द्र मोदी प्रशासन को सलाह देने के लिए भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद द्वारा एक राष्ट्रीय टास्क फोर्स गठित की गई मगर दूसरी बार लॉकडाउन बढ़ाने के बारे में टास्क फोर्स से परामर्श नहीं किया गया।
     स्थिति बेहद हास्यास्पद, मूर्खतापूर्ण व मनमानी भरी है यहां जरा भी जवाबदेही नहीं है। 24 अप्रैल को प्रेस कोंफ्रेंस केन्द्र सरकार की ओर से की गई। इसमें नीति आयोग के सदस्य द्वारा एक मॉडल प्रस्तुत किया गया और भविष्यवाणी कर दी गई कि 16 मई के बाद देश में कोरोना महामारी खत्म हो जाएगी, कि कोविड-19 के नए मामले आने बंद हो जाएंगे।
      आज स्थिति सबके सामने है। गोमूत्र व गोबर में बीमारियों का इलाज ढूढने वालों का यही हश्र होना था। मगर विडंबना यह है कि इसकी कीमत आम अवाम को ही चुकानी है और वही चुका भी रही है। एक तरफ गरीब, मज़दूर-मेहनतकश लोग हैं जो भूखे-प्यासे यात्रा के दौरान मौत का शिकार हो रहे है। अस्पतालों में भर्ती से इंकार कर देने के चलते सड़कों पर भी गरीब मज़दूर महिलाओं के बच्चे जनने की भी कई खबर आ रही हैं। औरंगाबाद में 16 मजदूरों के ट्रेन से कटने की घटना किसी को भी परेशान, दुखी व उद्वेलित करने वाली थी।
   
       मजदूरों के विरोध प्रदर्शन व अन्य वजहों से मज़दूरों को ट्रेन के जरिये उनके राज्य तक पहुचाने का फैसला केंद्रीय गृह मन्त्रालय द्वारा लिया गया। मगर इसका हश्र "सबका साथ-सबका विकास" की ही तरह होना था। न्यायालय से लेकर कई पूंजीवादी अखबारों व चैनलों की घोर व घृणित मज़दूर विरोधी सोच सामने आ गयी। इनके लिए मज़दूर सिर्फ मशीन के पुर्जे की तरह थे जिनका इंसान के रूप में कोई वज़ूद नहीं। ट्रेनें चली। मज़दूरों के एक हिस्से को ले भी गयी। किराया मज़दूरों से ही वसूला गया। लेकिन मज़दूर के एक छोटे हिस्से को ही उनके गृह राज्य तक पहुंचाया गया है। घोर क्रूरता, असंवेदनशीलता, अपमान व दमन को मजदूर वर्ग ने साफ साफ महसूस किया। सवाल सभी के लिए यहां भी बना कि किराए का पैंसा केंद्र सरकार खर्च क्यों नहीं कर रही है।
      सवाल बनता ही है कि पीएम केयर्स फंड, कर्मचारियों की तनख्वाह से कटौती तथा 1.6 अरब डॉलर विदेश से लेने के बावजूद यह भारी भरकम राशि कहां खर्च हो रही है इसका कोई हिसाब क्यो नहीं?
      आज खुद आम लोग सवाल कर रहे हैं कि जब कोरोना केस की संख्या बहुत कम थी तब अचानक लॉकडाउन कर दिया गया और जब अब संक्रमण रोज़ 4 हजार से ज्यादा बढ़ रहे हैं तब लॉकडाउन को खत्म करने की मनोदशा बनायी जा रही है। इसी ढंग की प्लानिंग की जा रही हैं ऐसा क्यों? अचानक से सीधे शराब की दुकानें खोलने का नतीजा सभी ने देखा।
      एक तरफ तो कई हज़ार लोगों को लॉकडाउन के उल्लंघन में लाठियां खानी पड़ी व मुकदमे झेलने पड़े, दूसरी तरफ शराब की दुकानों के बाहर इतनी लंबी कतारें लगी। यहां संक्रमण की चिंता सरकार के लिए नहीं थी। यहां तो राजस्व सामने था।
      मजदूरों की स्थिति हर संवेदनशील इंसान को झकझोरने वाली है इस वक़्त मज़दूर वर्ग व मेहनत कश जनता को राहत, इलाज, सहयोग व संवेदनशीलता की सख्त जरूरत थी व है मगर सब कुछ इसके विपरीत हो रहा है। अब हिंदू फासीवादी कार्यदिवस को 8 से 12 घंटे करने की ओर बढ़ चुके हैं। योगी सरकार तो श्रम कानूनों को 3 साल तक स्थगित कर देने के संबंध में अध्यादेश लाने पर विचार कर रही है।
      कुलमिलाकर आज इतिहास फिर उस बिंदु की ओर बढ़ रहा है जहां एक सदी पहले था। कोरोना संक्रमण ने पूंजीवादी अर्थव्यवस्था व समाज के अंतर्विरोधों को और ज्यादा तीखा कर दिया है। इन अंतर्विरोधों का समाधन पिछली सदी की ही तरह समाजवादी क्रांति से ही संभव है।
    
    
    






      
 

Friday, 1 May 2020

अंतराष्ट्रीय मजदूर दिवस जिंदाबाद

अंतराष्ट्रीय मजदूर दिवस जिंदाबाद

       ऐसे गंभीर व खतरनाक दौर में जब वैश्विक पैमाने पर कोरोना संक्रमण के प्रसार को रोकने की कोशिश में पूंजीवादी शासकों ने लॉकडाउन किया हुआ है तब मज़दूर वर्ग की समूची दुनिया में जो स्थिति बन चुकी है निश्चित तौर पर वह अंतराष्ट्रीय मज़दूर दिवस की महत्ता को और जोर व शिद्दत से सामने ले आती है।
     मई दिवस के शहीदों के संघर्ष की महत्ता आज कई गुना बढ़ गई है। 8 घंटे काम के नारे के संघर्ष के व फिर दुनिया में समाजवाद कायम होने के बाद इतिहास फिर उसी बिंदु की ओर बढ़ रहा है जहां सवा सौ साल पहले समाज था। समाजवाद आज किसी देश में नहीं है साथ ही 8 घंटे के कार्यदिवस सहित तमाम श्रम कानूनों व ट्रेड यूनियनों पर हमला निरंतर जारी है।
     निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों के जरिये एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग मज़दूर वर्ग पर पिछले कई दशकों से हमलावर है। 2007-08 के संकट के बाद से हमला और ज्यादा तीखा हुआ है। मगर संकट और ज्यादा बढ़ता गया है।
    यही स्थिति देश के भीतर भी है। अब दुनिया के पैमाने पर कोरोना संक्रमण के प्रसार में सबसे ज्यादा कष्ट, दुख, यंत्रणा मजदूर वर्ग को ही झेलने पड़ रहे हैं।
   देश में मोदी सरकार द्वारा किये गए अयोजनाबद्ध लॉकडाउन के चलते लाखों मजदूरों को सैकड़ों किमी दूर भूखे-प्यासे, सुरक्षा व रोटी की तलाश में अपने गांव की ओर लौटने को मजबूर हुए। मगर उनके लौटने की राह में भी तमाम बाधाएं खड़ी कर दी गई। मज़दूरों की मौतें भी हुई। मजदूरों को क्वेरेंटाइन के नाम पर यातना जैसे हालात में रखा गया।
     मजदूर वर्ग के सामने रोज़ी-रोटी, सुरक्षा और स्वास्थ्य का भयानक संकट सामने खड़ा है। भूखे प्यासे व बीमारी की स्थिति में पहुंच चुके मजदूरों के लिए तत्काल राहत की जरूरत थी। मगर सरकार द्वारा इसके उलट काम किया गया। काम के घंटे 8 से 12 करने की दिशा में सरकार कदम बढ़ा रही है ।
     बेहद खराब स्थिति के चलते ही भूखे प्यासे मजदूरों को अन्ततः कई जगहों पर प्रदर्शन भी करना पड़ा।
   इन स्थितियों ने एक ओर समाजवाद की सार्थकता व उसकी अनिवार्यता को फिर से सामने ला दिया है वहीं मजदूर वर्ग के अंतरष्ट्रीयतावाद को और ज्यादा गहनता से स्थापित किया है।
     मई दिवस के मौके पर 'मई दिवस' के, शिकागों के शहीदों को याद करते हुए, समाजवाद के मिशन को ध्यान में रखते हुए तत्काल मजदूरों के लिए राशन का प्रबंध किए जाने, निःशुल्क स्वास्थ्य परीक्षण व सुविधा की व्यवस्था, श्रम कानूनों व ट्रेड यूनियन कानूनों पर हो रहे हमलों के विरोध में संघर्ष करने की जरूरत है। साथ ही निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों के खिलाफ़ संघर्ष करते हुए समाजवाद की ओर बढ़ने की सख्त जरूरत है।

Wednesday, 22 April 2020

कोरोना संक्रमण फासीवादी एजेंडा तथा मज़दूर वर्ग

 कोरोना संक्रमण फासीवादी एजेंडा तथा मज़दूर वर्ग
 
     जनवरी माह के अंत में भारत में कोरोना संक्रमण का एक मामला सामने आया था। अब इस वायरस के संक्रमण का प्रसार देश के आधे जिलों में हो चुका है। अब 12 अप्रैल तक कोरोना वायरस के प्रसार के चलते लगभग 9 हज़ार से ज्यादा संक्रमित मामले उजागर हुए हैं जबकि 300 से ज्यादा मौत हुई हैं। यह स्थिति बहुत कम टेस्टिंग होने के बावजूद है। इन 9 हजार संक्रमित मामलों में से लगभग 2 हजार कोरोना संक्रमित मामले महाराष्ट्र से हैं जबकि 3 सौ मौतों में से लगभग 150 मामले महाराष्ट्र से हैं  यानी कुल संक्रमण का 20 प्रतिशत तथा कुल मौतों का लगभग 45 प्रतिशत मामले महाराष्ट्र से हैं। 
     महाराष्ट्र के मामले को इसीलिए ध्यान में रखने की जरूरत है, महाराष्ट्र के पुणे शहर में 9 मार्च को कोरोना संक्रमण का पहला मामला सामने आया था। यह पहला मामला दुबई से लौटे युगल थे। और फिरइनके संपर्क में आये तीन अन्य लोग भी कोरोना संक्रमित हो गए। 11 मार्च को मुंबई में भी पहले दो मामले कोरोना संक्रमण के सामने आये। ये मामले भी  पुणे के कोरोना संक्रमित युगल से संपर्क के थे। इसी दिन 11 मार्च को पुणे व नागपुर में कोरोना संक्रमण के तीन मामले सामने आए। ये तीनों अमेरिका की यात्रा से अभी लौटे थे। 14 मार्च को नागपुर में अमेरिका से लौटे कोरोना संक्रमित व्यक्ति की पत्नी व दोस्त भी इसके संपर्क में आने से कोरोना संक्रमित हो गए।
       इस बीच 13 मार्च को ही महाराष्ट्र सरकार ने कोरोना वायरस संक्रमण के प्रसार को महामारी घोषित कर दिया तथा मुंबई, पुणे सहित 6 शहरों में 'महामारी रोग एक्ट 1897' लागू कर दिया।
भारत में कोरोना संक्रमण का पहला केस 30 जनवरी को पता लगा। यह केरल में था। इसके बाद केरल में ही 3 फरवरी को तीन मामले कोरोना वायरस संक्रमण के और पता लगे। इन सभी का संबंध चीन के वुहान से था। सभी छात्र थे।
      फरवरी माह में सरकार के हिसाब से कोरोना संक्रमण के मामलों में कोई खास बढ़ोत्तरी नहीं हुई । फिर 4 मार्च को 22 मामले कोरोना संक्रमण के पता लगे। इनमें 14 इटली से आये पर्यटक भी थे।
     पंजाब में सिक्ख धर्म के उपदेशक जो कि जर्मनी व इटली से होकर आए थे, मार्च के माह में पंजाब पहुंचे और इसके बाद, वे होला मोहल्ला कार्यक्रम में भी पहुंचे, जिसमें 20 लाख लोगों के शामिल होने की बात की जा रही है। 17 मार्च को स्वास्थ्य खराब होने पर डॉक्टर को दिखाया गया, तो डॉक्टर ने भी इसे गंभीरता से नही लिया, 18 मार्च को इनकी मौत हो गई। 8 मार्च से 18 मार्च तक इनके संपर्क में अनगिनत लोग आए। नतीजा यह हुआ कि उक्त धर्म उपदेशक के परिवार के ही 21 लोग कोरोना वायरस से संक्रमित हो गए। इसके अलावा अन्य लोग भी संक्रमित हुए होंगे। इसके बाद इस इलाके में लगभग 2 माह के लिए पंजाब सरकार ने धारा 144 लागू कर दी। मगर स्वर्ण मंदिर तथा अन्य जगहों पर गुरुद्वारों के खुले रहने तथा लोगों के इकट्ठा होने पर कोई विशेष रोक नहीं लगी।
        ये तथ्य साफ साफ इस ओर इशारा करते हैं कि जर्मनी, इटली, अमेरिका, दुबई, फ्रांस, नीदरलैंड,  वुहान आदि से जो विदेशी या भारतीय भारत में आये थे, वे खुद भी कोरोना वायरस से संक्रमित थे तथा भारत में कोरोना वायरस के वाहक बने। कैबिनेट सचिव द्वारा बताया गया कि 18 जनवरी से 23 मार्च तक भारत के भीतर विदेश से 15 लाख लोगों का प्रवेश हुआ जबकि जांच इसकी तुलना में कम है। जबकि देश में 12 अप्रैल तक कुल जांच का आंकड़ा डेढ़ लाख के लगभग है।   इस बीच केंद्र की मोदी सरकार के लिए यह कोई गंभीर मामला नहीं था। जब यकायक कोरोना संक्रमण के मामलों ने गति पकड़ी तथा केरल, पंजाब, महाराष्ट्र , छत्तीसगढ़ व राजस्थान की सरकार इस मामले पर पहले सक्रिय हो गई तब केंद्र की मोदी सरकार को होश आया। वह तो नागरिकता संशोधन कानून, एन पी आर विरोधी संघर्ष को कुचलने में मशगूल थी या फिर मध्यप्रदेश में सरकार बनाने में।
      जब मोदी सरकार को होश आया तो आनन फानन में लॉकडाउन की घोषणा कर दी गई जबकि 25 मार्च को हवाई यात्राओं पर प्रतिबंध लगाया गया। इस अयोजनाबद्ध खामियाजा गरीब, मजदूर मेहनतकश आबादी को ही झेलना था। 25-26-27 मार्च के बीच लाखों मज़दूरों के सड़को पर अपने घरों की ओर भूखे प्यासे पैदल जाने की खबरें मीडिया की सुर्खियां बन गयी। भूखे प्यासे पैदल जाते मज़दूर पुरुष, महिलाएं छोटे-छोटे बच्चे सड़कों पर वायरल होते वीडियो में दिखाई देते थे। मजबूरन टीवी चैनलों में भी यह कवरेज बन गयी।
   इस स्थिति ने मोदी सरकार के घोर मज़दूर व गरीब विरोधी रुख को सामने ला दिया। मोदी सरकार ने तुरंत इन्हें फर्जी बताते हुए कोर्ट का रुख किया। कोर्ट से मांग की कि इस ढंग की "फर्जी खबरों" पर रोक लगाने का आदेश दे। मगर कोर्ट ने इससे इंकार कर दिया। यहीं से हिन्दू फासीवादी सरकार अपने घृणित एजेंडे पर आ गयी। अचानक ही 28 मार्च के आस-पास से टी वी चैनलों के जरिये निज़ाममुद्दीन मरकज के तकबिली जमात को निशाने पर ले लिया गया। इसे लगातर बहस व प्रचार का मुद्दा बनाया गया। अब तब्लीगी जमात को इस तरह प्रस्तुत किया जाने लगा मानो, ये कोरोना वायरस को किसी साजिश के तहत भारत में इधर उधर फैला रहे हों।
      हकीकत क्या थी ? तकरीबन सात-आठ सौ तब्लीकि जमात से जुड़े विदेशी भी मरकज में पहुंचे थे।  अन्य विदेश से भारत आ चुके अन्य विदेशियों या भारतीयों की तरह इनकी भी संभावना थी कि ये भी कोरोना संक्रमित होते। ये भी ठीक भारत सरकार, इसके गृह मंत्रालय व विदेश मंत्रालय की अनुमति से ही भारत आये थे।  ये उन 15 लाख विदेश से भारत में प्रवेश कर चुके लोगो में से , बाकी की ही तरह थे।
       दिल्ली में 12 से 15 मार्च के बीच इनका कार्यक्रम था। यह कार्यक्रम दिल्ली पुलिस व गृहमंत्रालय की निगरानी में था। इनकी जानकारी में था। मगर हुआ क्या ? 27-28 मार्च तक जब मोदी सरकार की आम अवाम के बीच किरकिरी होने लागी तो सचेत तौर पर 'तकबिली जमात' वाले मामले को टी वी चैनलों के जरिये साजिशन आगे बढ़ाया गया। फिर तो संघी अफवाह मशीनरी ने अपने नेटवर्क के जरिये मुसलमानों के खिलाफ घटिया दुष्प्रचार शुरू कर दिया। 'सब्जियों में थूकने' 'मोहल्लों में थूक कर कोरोना फैला कर भाग जाने' की, यह अफवाह खूब उछाली गई। यह दुष्प्रचार जारी है।
       इस प्रकार मोदी सरकार ने भरपूर कोशिश की है और कोरोना संक्रमण के प्रसार को भी अपने लिये 'धुव्रीकरण के हथियार' के रूप में बदल दिया है। इसने यह घृणित तर्क आम लोगों के दिमाग में बिठाने का काम किया है कि लॉकडाउन करने तथा लॉकडाउन के चलते आम हिन्दू लोगों को होने वाले दुख तकलीफों के तकबिली जमात यानी मुसलमान दोषी हैं। देश की एकाधिकारी पूंजी मोदी सरकार के साथ खड़ी है।
      सवाल यह है कि क्या वास्तव में मोदी सरकार या देश के शासक अपने इस घृणित मकसद में कामयाब हो पाएंगे ? क्या मजदूर वर्ग मोदी सरकार, गोदी मीडिया के दुष्प्रचार का शिकार हो जाएगा जैसा कि मध्यमवर्गीग हिन्दू है? क्या मजदूर वर्ग लॉकडाउन में उसके अपने साथ हुए घृणित व्यवहार को भूल सकता है ? हकीकत यही है कि कोरोना महामारी के दौर में देश में जिस ढंग से लॉकडाउन किया गया उसने मजदूर वर्ग को बहुत सीखा दिया है एक ही झटके में उसके सामने मालिक-मजदूर का तीखा अंतर्विरोध सामने आ गया, बहुत तेज़ गति से हालात ने उसे यह भी दिखाया व महसूस कराया है कि यहां सबसे पीड़ित, उत्पीड़ित तथा निचले पायदान पर वही है, परिस्थितियों ने तेज़ी से मज़दूर वर्ग के सामने उस भेदभावपूर्ण व अपमानजनक व्यवहार को बखूबी महसूस किया जो विदेश में फंसे सम्पन्न भारतीयों को लेने तो ऐरोप्लेन भेजने के रूप में दिखा जबकि मज़दूरों को सड़क पर दर दर भटकने, सैकड़ो किमी पैदल भूखे प्यासे चलने के लिए छोड़ दिया गया। मज़दूरों का गुजरात के सूरत में हुआ प्रदर्शन उसके इसी अचेत गुस्से की बानगी है। भविष्य जल्द ही दिखाएगा कि इस दौर ने मज़दूर वर्ग के अचेत तौर पर संगठित होने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है।








अयोजनाबद्ध लॉकडाउन और त्रस्त आम मेहनतकश अवाम

 अयोजनाबद्ध लॉकडाउन और त्रस्त आम मेहनतकश अवाम
        मोदी सरकार द्वारा 25 मार्च से 14 अप्रैल तक देश में लॉकडाउन घोषित कर दिया। जैसा कि पहले से ही स्पष्ट था कि यह लॉकडाउन का फैसला कुछ राज्य सरकार अपने-अपने स्तर पर ले चुकी थी। इसी के बाद मोदी सरकार द्वारा केंद्रीय स्तर पर लॉकडाउन का फैसला लिया गया।
       सभी ने देखा, 22 मार्च के एक दिन के 'जनता कर्फ्यू' का मोदी, भाजपा व मोदी भक्तों ने किस तरह जश्न के माहौल में बदल दिया था। तब, एक तरफ 'जनता कर्फ्यू' के जरिये लोगों को घरों में रहने व फिर शाम को 'थाली, ताली या घन्टी' बजाकर, उन लोगों को 'सम्मान' देने की बात की गई, जो डॉक्टर व नर्स मास्क, ग्लव्स व अन्य निजी सुरक्षा उपकरणों की घोर कमी की स्थिति में इस वक़्त इलाज कर रहे हैं जबकि दूसरी तरफ मोदी सरकार मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार गिरा चुकी थी तथा शपथ ग्रहण के जरिये संघी जश्न मना रहे थे।
      इस तथ्य को भी साफ तौर पर महसूस किया गया व देखा गया कि जब शासक जनता को घोर अवैज्ञानिकता, अतार्किकता तथा अंधविश्वास की ओर ले जाते हैं तो इसकी कीमत खुद शासकों को भी चुकानी होती है, जनता तो इसकी भारी कीमत चुकाती ही है।
     पहला तो यह, कि खुद लंबे वक्त तक हिंदू फासीवादी सरकार तमाम चेतावनियों के बावजूद भी 'कोरोना वायरस' के प्रसार तथा इसके प्रभाव से बेखबर थे व भयानक तौर पर लापरवाह थे। ये, बेखबर व लापरवाह ही नहीं रहे बल्कि इस दौरान ये अपने 'हिन्दू फासीवादी' एजेंडे को निरन्तर आगे बढ़ाने में लगे रहे। ये सीएए व एनपीआर के अपने घृणित एजेंडे को इस बीच लगातार आगे बढ़ाते रहे। दूसरा यह, कि 22 तारीख के 'जनता
कर्फ्यू' को "भक्तजनों" ने मोदी सरकार की   चाल मात्र समझी जिसके जरिये 'शहीनबाग' जैसे सीएए एनपीआर विरोधी प्रदर्शनों को कुचला जा सके, नतीजा यह रहा कि शाम 5 'थाली, ताली, घंटी' बजाने की मांग, जश्न में बदल गयी, लोग कई जगह पर लोग अपने घरों से बाहर निकल कर व एकजुट होकर जश्न मनाने लगे। स्थिति यह रही की पीलीभीत में तो अधिकारी ही जुलूस को नेतृत्व देते हुए दिखाई दे रहे थे। जबकि लखनऊ में भाजपाई नेता अपनी अय्याशियों के चलते पार्टियों के आयोजन में भी लगे। कोरोना संक्रमित गायिका की पार्टी इसका एक उदाहरण है।
        भारत में कोरोना का पहला मामला 30 जनवरी को पता लगा। इसके बाद 26 मार्च तक यह संख्या 700 पहुंच चुकी थी जबकि 16 की मौत हो चुकी थी। इस बीच विश्व स्वास्थ्य संगठन इसे वैश्विक महामारी घोषित कर चुका था। विपक्षी भी, इस बीच, सरकार को इस दिशा में ध्यान देने व इससे निपटने के लिए आगाह कर रहे थे। मगर मोदी सरकार तो अपनी फासीवादी धुन में थी। इस बीच मोदी सरकार क्या कर रही थी?
       मोदी सरकार इस बीच, अपने हिन्दू फासीवादी एजेंडे को परवान चढ़ाने में व्यस्त थे। दिल्ली चुनाव में इन्होंने 'शहीन बाग' के जरिये अपनी नफरत भरे साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के प्रचार को आगे बढ़ाने को सारे कृत्य किये। इसके बाद दिल्ली के दंगों का प्रायोजन किया गया। जिसमें सैकड़ों मुस्लिमों को विस्थापित होकर इधर उधर शरण लेनी पड़ी। लखनऊ में सीएए विरोधियों से निपटने के लिए 'प्रदर्शनकारियों' के नाम, पते व फ़ोटो दीवारों पर चस्पा कर दी गई। जबकि मोदी इस बीच 'किम छो ट्रम्प' के आयोजन में लगे रहे जिसमें हज़ारों लोग, अहमदाबाद में इकट्ठा हुए।
       यह स्पष्ट था, कि 'सार्स-कॉव-2' यानी कोरोना वायरस का केंद्र चीन था, यहीं से उसका प्रसार 'यातायात' के चलते संक्रमित व्यक्तियों से दुनिया भर में हो रहा था। इस स्थिति में जरूरी था, कि विदेशों से जो भी लोग भारत आ रहे थे, उनकी आवाजाही को सीमित कर देने तथा उनकी पर्याप्त जांच, निगरानी करने व पृथक कर देने की नीति पर अमल किया जाना चाहिये था साथ ही टेस्टिंग बड़े स्तर और होनी चाहिए थी।
   हुआ क्या? इस स्तर पर भयानक लापरवाही बरती गई। थर्मल स्क्रीनिंग की गई , मगर यह भी नाम की थी। नतीजा यह रहा कि बहुत बड़ी तादाद में लोग भारत के भीतर प्रवेश कर गए, अपने इलाके  व घर तक पहुंच गए। कनिका कपूर से लेकर ऐसे कई मामले हैं जो सामने आये हैं। यहीं नहीं, कोरोना टेस्टिंग को बहुत सीमित स्तर पर किया गया। जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन व वैज्ञानिकों का रुख साफ था कि टेस्टिंग बड़े स्तर पर की जानी चाहिए। मगर सरकार व उसका स्वास्थ्य मंत्रालय अपनी 'सीमित टेस्टिंग' की नीति पर चलता रहा। इसका नतीजा यही होना था कि संक्रमित लोगो की संख्या बहुत कम दिखाई देती।
     अब, जब मार्च के तीसरे सप्ताह से इसका प्रसार साफ दिखने लगा, तब मोदी सरकार जागी, आत्ममुग्ध मोदी अपनी धुन से बाहर निकले।  फिर पहले 'जनता कर्फ्यू' लागू हुआ। इसके तत्काल बाद, बिना किसी पूर्वतैयारी व योजना के लॉकडाउन की घोषणा कर दी गई।
   लॉकडाउन की स्थिति ये है कि आम जनता की, जो अपने जरूरत का सामान लाने बाजार जा रही है तो सड़कों पर उनकी ठुकाई हो जा रही है उस पर मुकदमे दर्ज हो रहे हैं मगर दूसरी तरफ  योगी आदित्यनाथ 70-80 लोगो  के  समूह में अयोध्या में मंदिर में पहुंच जाते हैं। यहां कुछ भी नहीं होता।
     इस अयोजनाबद्ध व यकायक हुए लॉकडाउन की घोषणा में साफ था कि मजदूर मेहनतकश जनता को ही ही इसकी भारी कीमत चुकानी होगी। भारत में कुल कामगार आबादी की 20 प्रतिशत आबादी प्रवासी श्रमिकों की हैं। विशेषकर बिहार, उत्तरप्रदेश आदि से अन्य राज्यों में दिहाड़ी कर ये मजदूर, इस लॉकडाउन की स्थिति में सैकड़ों किलोमीटर दूर अपने घरों  को पैदल जाते देखे जा सकते हैं। इनके सामने भुखमरी का संकट पैदा हो चुका है। इसीलिए कई, यह कहते हुए देखे जा सकते हैं कि इससे पहले उन्हें कोरोना मारे, भूख उन्हें पहले खत्म कर देगी। वहीं दूसरी ओर शहरों में स्लम बस्तियों
में रहने वाले लोग, रोज़ कमाने व खाने वाले लोगों के लिए भी यह लॉकडाउन भयानक विपदा साबित हो रहा है।
         देश में स्वास्थ्य सुविधाओं की दुर्गति को कौन है जो नहीं जानता, समझता। यहां डॉक्टरों, व नर्सों तक के लिए निजी सुरक्षा उपकरणों का भारी अभाव होने के चलते, खुद उनके सामने भी संक्रमित होने का खतरा मंडरा रहा है। वहीं जो लाखों लोग, इस बीच इधर-उधर हुए हैं इनमें संक्रमित कितने होंगे, कितने नहीं तथा गर संक्रमित हैं तो फिर कहां तक इसका प्रसार होता है यह कुछ वक्त बीतने पर ही साफ हो जायेगा। मोदी सरकार व उसके स्वास्थ्य मंत्रालय ने फिलहाल कुछ नमूनों के आधार पर ही ये कहा है कि कम्युनिटी प्रसार की संभावना नहीं लग रही है। मगर तस्वीर वक़्त के साथ साफ हो जाएगी।  निश्चित तौर पर जो स्थितियां पैदा हो चुकी हैं उस  सबके लिए हमारे शासक जिम्मेदार हैं, मौजूदा हिन्दू फासीवादी सरकार जिम्मेदार है।


Sunday, 22 March 2020

भगत सिंह शहादत दिवस पर


                  भगत सिंह शहादत दिवस पर
        
        इतिहास, आज कुछ बदले रूप में, फिर उसी मोड़ पर पंहुच रहा है, जहां 100 साल पहले था; जब 'आज़ादी' के नारे 'अपराध' थे, जब 'अधिकारों' की बातें करना 'जुर्म' था, ऐसे नारे लगाने वाले 'आतंकी' कहलाते थे; तब गुलामी के ख़िलाफ़ और आजादी के लिए लड़ते हुए आम जनता ने गोलियां खायीं थी, मुकदमे झेले थे, फांसी और कालापानी की सजा पाई थी। तब देश आजाद हुआ।
आज स्थितियां गुजर चुके जमाने की याद दिला रही है। आज फिर से 'आज़ादी' के नारे 'देश विरोधी' हो चुके हैं, 'अधिकारों' के लिए लड़ते छात्र, नौजवान, बेरोजगार, आदिवासी, मज़दूर, आम दलित और मुस्लिम 'टुकड़े-टुकड़े' गैंग कहे जा रहे हैं।'आज़ादी' 'अधिकार' 'समानता' व 'धर्मनिरपेक्षता' जैसे शब्दों के खिलाफ 'नफरत' पैदा कर दी गयी है ताकि आम जनता को 'फासीवादी गुलामी' की ओर आसानी से धकेला जा सके।
भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव तीनों ने उस दौर को देखा था, जब जलियावालाबाग हत्याकांड रचा गया था, जब रौलेट एक्ट जैसे काले कानून बने थे। जिसका मकसद जनता के संघर्ष को कुचल देना था। 'न वकील, न दलील, न अपील,' यही रौलेट एक्ट का मतलब था। इसमें किसी को भी केवल शक के आधार पर जेल में ठूंस दिया जाता था।
 अंग्रेज शासकों को भगत सिंह और राजगुरु, सुखदेव जैसे क्रांतिकारियों से बहुत खतरा था, इसलिए इन्हें 23 मार्च 1931 को फांसी दे दी गई।
 कोई कह सकता है, आज तो देश आजाद है, आज कोई विदेशी शासक नहीं है जो हम पर शासन करे। फिर आज इस सबकी क्या जरूरत? भगत सिंह के शब्दों में इसका जवाब यही है कि आज 'गोरे अंग्रेजों की जगह काले अंग्रेजों का राज है'। आज आम जनता के कंधों पर भारत के शासक पूंजीपतियों का जुआ है। आज भी भारत की यह आम जनता अमेरिका, रूस जैसे ताकतवर साम्राज्यवादी मुल्कों की लूट-खसोट की शिकार है। यह लूट-खसोट सीधे-सीधे नहीं होती बल्कि यह लूट-खसोट हमारे शासकों के दम पर ही होती है। दोनों अपनी औकात के हिसाब से लूट-खसोट करते हैं व हिस्सा-बांट करते हैं।       
        आज आज़ादी के 70 साल बाद आम जनता को क्या हासिल है? कहने को हम 'आजाद' हैं, मगर इतने आजाद हैं कि 'आजादी' के नारे लगते ही 'ठोक कर देंगे-आज़ादी' 'पेल के देंगे- आज़ादी' की धमकियां मिलने लगती हैं। कहने को तो हमें 'सरकार की गलत नीतियों' की आलोचना करने का भी अधिकार है ! सरकार से 'असहमत' होने का भी अधिकार है! हमें 'धरना', 'विरोध प्रदर्शन' करने व संगठन बनाने का भी अधिकार है मगर हकीकत क्या है?
       हकीकत यह है कि आज जो कोई भी 'मोदी सरकार' की आलोचना करे, उसे 'देशविरोधी' कहा जाता है, 'टुकड़े-टुकड़े गैंग' 'अरबन नक्सल', और भी ना जाने, क्या-क्या कहा जाता है।  स्थिति यह है कि कर्नाटक में 9-10 साल के कुछ बच्चों पर भी राजद्रोह (देशद्रोह) का मुकदमा दर्ज कर दिया जाता है, उन्हें पुलिस द्वारा टॉर्चर किया जाता है। इनका कसूर क्या था? बच्चों ने सी.ए.ए. की आलोचना वाला एक नाटक भर किया था।
       क्या यह सच नहीं है कि जब भी, बेरोजगार नौजवान सड़कों पर रोजगार के लिए आंदोलन करते हैं तो उन पर लाठियां बरसती हैं? कॉलेजों की भारी फीस बढ़ने के खिलाफ जब छात्र आंदोलन करते हैं तो उन पर रात के अंधेरे में संघी नकाबपोश गुंडे हमले करते हैं? क्या कर्मचारी, क्या मज़दूर, क्या किसान और क्या आम महिलाएं, सभी तो सड़कों पर आंदोलन करते वक़्त कूटे-पीटे और मारे जाते हैं।
         कोई कानून 'जनता' को तबाह-बर्बाद करने वाला है तो जनता क्या करे? क्या चुप बैठी रहे? क्या उस काले कानून का विरोध करना 'गुनाह' है? क्या इससे पहले, जनता ने काले कानूनों का विरोध नहीं किया था? क्या खुद भाजपा व संघ ने कांग्रेस सरकार में कानूनों का विरोध नहीं किया था? कांग्रेस सरकार का विरोध नहीं किया था? जो तब सही था, वह आज कैसे गलत है?
       आज समाज में चौतरफा संकट है। अर्थव्यवस्था गहरे संकट में है। बेरोजगारी की हालत बहुत बुरी है। बेरोजगार नौजवान सड़कों पर हैं। उधर फैक्ट्रियों-कारखानों से लाखों मज़दूरों से नौकरी छिन चुकी है। नई नौकरियों का अकाल पड़ा हुआ है। दुकानदारों से पूछिये तो पता लगेगा कि बिक्री बहुत कम हो गई है।
         6 साल पहले के दिन याद कीजिये! भाजपा और मोदी का क्या वायदा था? कहां तो 'अच्छे दिन आने वाले' थे, '15 लाख सबके खाते में' आने वाले थे, '2 करोड़ रोज़गार' हर साल मिलने वाले थे, 'महिलाओं पर अत्याचार' खत्म हो जाना था, मगर हुआ क्या? 1 लाख से ज्यादा सरकारी शिक्षक योगी राज में नौकरी से हटा दिए गए, इन्हें शिक्षा मित्र बना दिया गया। बी.एस.एन.एल के लाखों कर्मचारियों को जबरन रिटायर किया का रहा है। महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा जैसे अपराध और ज्यादा बढ़ ही नहीं गए बल्कि, भाजपा के चिन्मयानन्द, कुलदीप सेंगर, नित्यानंद जैसे अपराधियों को बचाने की हर कोशिश इन्होंने की।
           आज हालात क्या हैं? एक तरफ आम जनता की जीवन भर की जमा पूंजी जो बैंकों में है, उस पर 'बड़े-बड़े पूंजीपति' हाथ साफ कर रहे हैं। सरकार इसे बट्टा खाते में डाल रही है। बैंकों का लगभग 7 लाख करोड़ रुपये का कर्ज जो पूंजीपतियों ने बैंकों से लिया था, वह फंस चुका है। इसके चलते बैंक डूब रहे हैं। यस बैंक का 13 हज़ार करोड़ रुपये तो अनिल अंबानी पर ही फंसा हुआ है, ऐसे ही और भी बड़े खिलाड़ी है।
        संकट इतना गहरा है कि कर्ज, गरीबी व भुखमरी के चलते अब आये दिन आत्महत्या की खबर आने लगी है। आयात-निर्यात, मानव विकास सूचकांक, पूंजी निवेश, खपत हर चीज में लगातार गिरावट है।
 शासक पूंजीपति जानता है कि जब वह आम जनता की खुली लूट-खसोट करेगा, तो आम जनता का आंदोलन सड़कों पर उमड़ना तय है। जनता का संघर्ष शासकों के 'स्वर्ग' को भी खत्म कर सकता है। इस स्थिति में शासक पूंजीपति क्या करे?  ऐसे में वह 'हिन्दू-मुस्लिम' की राजनीति करने वाले को खुलकर आगे न लाते, तो और क्या करते ? पहले ये 'कांग्रेस' के जरिये खेलते थे मगर अब मोदी-शाह, भाजपा व संघ के जरिये यही चीज कर रहे हैं। 'हिंदू फासीवाद' यानी 'हिंन्दू राष्ट्र' शासक पूंजीपति की 'आतंकी तानाशाही' का ही दूसरा नाम है। इस 'हिन्दू फासीवादी' हमले के केंद्र में मुस्लिम है मगर इसके निशाने पर सभी धर्मों की मेहनतकश जनता है यही असल 'शिकार' है।
          यह 'हिन्दू राष्ट्र' एक हद तक कायम हो चुका है। इस 'हिन्दू राष्ट्र' में आम जनता के क्या हाल है? आम महिलाओं की क्या स्थिति हैं? आम दलितों, आम मुस्लिमों, मजदूरों, आम किसानों आदिवासियों, कर्मचारियों, बेरोजगारों व दुकानदारों की क्या स्थिति हैं? सभी की हालत और ज्यादा खराब हुई है। सभी इसमें हैरान हैं, परेशान हैं।
       अब यही चीज सी.ए.ए., एन.आर.सी. तथा एन.पी.आर. के जरिये होनी है। सी.ए.ए अपने मनपसंद मुल्कों से, मनपसंद धर्म के लोगो को ही नागरिकता देने की बात करता है। यह धार्मिक आधार पर बना हुआ है। यह आम मेहनतकश जनता को 'बांटता' है, 'लड़ाता' है और उनकी 'एकता' को खत्म कर देता है शासकों की लूट-बर्बरता को आगे बढ़ाता है। जबकि एन.पी.आर के जरिये ही एन.आर.सी. भी होनी है इसमें आम  नागरिक को 'संदेह' के आधार पर 'संदिग्थ नागरिक' बना देने का प्रावधान है तथा फिर उससे 'नागरिकता' का सबूत मांगने का कानूनी प्रावधान है। देर-सबेर आम नागरिक की व्यक्तिगत जानकारी जुटाकर एक ओर निगरानी का जाल बुना जाएगा तो दूसरी ओर उसे 'संदिग्ध नागरिक' बना देने की ओर बढ़ा जाएगा। यहां से फिर नागरिकता साबित न होने पर वह 'घुसपैठिया' या 'शरणार्थी' हो जाएगा।
       इसके विरोध में केवल मुस्लिम समुदाय के लोग ही नहीं बल्कि हिन्दू, सिक्ख, ईसाई सभी धर्म के मेहनतकश व जनपक्षधर लोग भी अलग-अलग जगहों पर सड़कों पर हैं। सरकार और उसका मीडिया इसे जानबूझकर मुस्लिमों का आंदोलन कहकर प्रचारित कर रहा है ताकि फासीवादी तानाशाही को आसानी से थोपा जा सके। यह संघर्ष असम, मेघालय, पंजाब दिल्ली से लेकर देश के अधिकांश राज्यों में है।
      यही नहीं, इस आंदोलन को कुचलने के लिए 'दंगे' तक करवा दिए गए। आंदोलनकारियों के पोस्टर 'अपराधियों' की तरह होर्डिंग पर लगवा दिए गए। कुलमिलाकर 70-80 लोग इस दौरान मारे गए हैं सैकड़ों घायल हुए है, हज़ारों पर मुकदमे दर्ज हुए हैं। दिल्ली में प्रायोजित दंगों के चलते भी आम जनता ने भयावह पीड़ा व विस्थापन झेला है। मगर जो दंगे के प्रायोजक है उन पर कोर्ट के आदेश के बावजूद 'मुकदमे' दर्ज नहीं होते बल्कि 'सुरक्षा' दी जाती है।   
      कोई ऐसे दौर को 'अंधेरा दौर' न कहे तो क्या कहे? इसे भयावह 'अघोषित आपात काल' न कहे तो क्या कहे? जहां 'नंगे राजा' को 'नंगा कहना' ही जुर्म हो।
     आइये, इस अंधेरे दौर में अंधेरों के ही गीत गाएं। अंधेरो के गीत गाते हुए ही मुक्ति के रास्ते की ओर बढ़ें। भविष्य जनता का है। भविष्य रोशनी का है। बहते पानी की धारा को थामकर, जो सोचते हैं कि वह हमेशा के लिए पानी के बहाव को थाम लेंगे, वे विज्ञान और समाज विकास के नियम के खिलाफ खड़े हैं। याद रखना होगा! जबरन रोक दिए गए इस पानी का बहाव, वक्त गुजरते ही फासीवादी शासकों समेत इनके जुल्म-सितम, शोषण-उत्पीड़न को भी सैलाब की तरह बहा ले जाएगा। आम जनता के संघर्ष 'पानी के बहाव' की ही तरह हैं।
       आज के ये घोर जनविरोधी फासीवादी शासक जनता पर हर तरीके से हमलावर हैं। हमें याद रखना होगा, यह आम जनता ही थी जिसने भारी कुर्बानियां देकर देश आजाद कराया था, जिसने अपने खून-पसीने से देश को सींचा है, देश का निर्माण किया हैं; यह आम जनता ही है जिसने हर अधिकार, हर चीज को संघर्षो से हासिल किया है। अब एक बार फिर आम जनता ही इतिहास का निर्माण करेगी। यह भगत सिंह के विचारों के दम पर संभव है।
         शहीद भगत सिंह के विचार व उनका कुर्बानी भरा जज्बा हमें इस शोषण-उत्पीड़न से मुक्ति की राह दिखाता हैं। 'समाजवादी भारत' ही जनता को पूंजी की फासीवादी गुलामी और जकड़न से मुक्ति दिला सकता है। 'समाजवादी भारत' ही भगत सिंह का मकसद था, सपना था।

Friday, 6 March 2020

"घुसपैठिया" व "शरणार्थी" बनाये जाने की साजिश

   "घुसपैठिया" व "शरणार्थी" बनाये जाने की साजिश

     जब से मोदी सरकार ने नागरिकता कानून में संशोधन किया तथा एन आर सी व एन पी आर की ओर कदम बढ़ाए तब से देश भर में इसके खिलाफ संघर्ष हो रहे हैं। इन संघर्षों को खत्म करने के लिए भाजपा सरकार ने हर तरह के घृणित काम किये हैं। दिल्ली की मौजूदा हालत मोदी सरकार की घृणित साजिश का ही नतीजा है।  जहां 45 से ज्यादा हिन्दू-मुस्लिम मार दिए गए हैं, कई घायल हैं।  जबकि इससे पहले सीएए, एनआरसी व एनपीआर विरोधी संघर्ष में असम व फिर यू पी में 25-30 लोग मारे गए हैं। सैकड़ों लोग घायल हुए हैं, हज़ारों लोगों पर संगीन मुकदमे दर्ज कर दिए हैं, हज़ारों लोग गिरफ्तार किए गये हैं।
      क्या सरकार द्वारा बनाये गए किसी कानून का विरोध करना 'देश का विरोध' करना होता है? जैसा कि मोदी सरकार व भाजपा के नेता कह व कर रहे हैं। क्या इन 70 सालों में इससे पहले सरकार के विरोध में सड़कों पर प्रदर्शन नहीं हुए थे ? हुए थे। क्या खुद भाजपा, मोदी-शाह ने कांग्रेस सरकार के खिलाफ प्रदर्शन नहीं किये थे? किये थे। क्या भाजपा, मोदी-शाह के कांग्रेस सरकार के खिलाफ किये गए प्रदर्शन से 'देश का विरोध' होता था? नहीं होता था। तब फिर आज मोदी सरकार के बनाये गए कानून का विरोध करना 'देश का विरोध' करना कैसे हो गया? क्या 'भाजपा, मोदी-शाह व संघ' ही 'देश' हैं?
        कोई कह सकता है कि नागरिकता संशोधन कानून से क्या दिक्कत है? यह तो नागरिकता देने का कानून है दरअसल यही सरकार व उसके मंत्री भी कह रहे हैं। बात यह है कि इसमें आधा सच है आधा झूठ। हकीकत यह है कि यह कानून अपनी 'मनमर्जी के धर्म' के कथित "अवैध प्रवासियों" को नागरिकता के लिए चुनता है, 'मनमर्जी के देश' चुनता है, तीन देशों के छः धर्म के "अवैध प्रवासियों" को नागरिकता के लिए चुनता है। अन्य धर्म के लोगों व अन्य देशों को छोड़ देता है यानी यहां नागरिकता नहीं देता है।  यह कानून कहता है कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान व बांग्लादेश से वे हिंदू, सिख , जैन, पारसी, इसाई व बौद्ध धर्म के लोग (अवैध प्रवासी) जो 31 दिसंबर 2014 से पहले भारत आ चुके हैं उन्हें भारत में नागरिकता दी जाएगी।
       कोई भी देख सकता है कि यह कानून कथित 'अवैध प्रवासियों' को धार्मिक आधार पर नागरिकता देने का प्रावधान करता है। यह देश के पूंजीवादी संविधान की धर्मनिरपेक्षता पर हमला है। यह 'बांटो, ध्यान भटकाओ और राज करो' की नीति के सिवाय और कुछ भी नहीं है। यह विदेशों में नौकरी कर रहे लाखों भारतीयों के जीवन को भी खतरे में डालता है।
      कोई कह सकता है कि इससे हमें क्या फर्क पड़ता है? इस कानून का, देश के भीतर रह रहे नागरिकों, चाहे वे हिन्दू हों या मुस्लिम, या फिर कोई और, उनसे कोई लेना-देना नहीं है। यही तर्क मोदी सरकार के हैं।
      हकीकत इसके उल्टा है। देश में कथित "घुसपैठिये" या "अवैध प्रवासी" है या नहीं, या हैं तो कितने हैं? इसकी पड़ताल कैसे होती है? दरअसल एन आर सी  के जरिये ही यह काम करने का दावा सरकार करती है। एन आर सी क्या है? यह देश के नागरिकों का रजिस्टर है। देश में एन आर सी 1951 में बनी थी। 1951 की जनगणना के जरिये ही एन आर सी बन गयी। तब संविधान के लागू होने के साथ ही आम तौर पर भारत में रह रहे हर व्यक्ति को नागरिक माना गया था।
        पहला नागरिकता कानून 1955 में बना। इसमें 'अवैध प्रवासियों' को नागरिकता देने का प्रावधान नहीं था। 'अवैध प्रवासी' सरकार के हिसाब से वे 'विदेशी' थे जो भारत में बिना दस्तावेज के या फर्जी दस्तावेज या दस्तावेज (वीजा) की अवधि समाप्त होने के बावजूद रह रहे हों। इन 'अवैध प्रवासियों' को 'विदेशी कानून-1948' तथा 'पासपोर्ट कानून-1920' के हिसाब से चिन्हित कर निर्वासित किये जाने का प्रावधान था।
        पड़ोसी मुल्क के वे लोग जो आपदा, युद्ध, हिंसा या उत्पीड़न के शिकार थे, चाहे वह किसी भी धर्म के हों, भारत में उन्हें शरण दी गई, इन्हें 'शरणार्थी' कहा जाता है। यूगांडा, श्रीलंका, पाकिस्तान, तिब्बत, वर्मा व बांग्लादेश आदि के उत्पीड़ित लोगों को भारत में शरण दी गई। इनमें से कुछ को नागरिकता भी दी गई। मगर इसमें धार्मिक आधार पर भेदभाव नहीं था।
       कोई कह सकता है कि एन पी आर का विरोध क्यों, ये तो 'जनसंख्या रजिस्टर' है ? या यह कि जब 2010 में कांग्रेस ने लागू किया, तब विरोध क्यों नहीं किया, आज भाजपा लागू कर रही हैं तो इसका विरोध क्यों?
       यहां भी कुतर्क कर असल बात पर पर्दा डाला जा रहा है। हकीकत यह है कि 2003 में बाजपेयी की अगुवाई वाली भाजपा सरकार ने भी 'नागरिकता कानून' में संशोधन किया था। इसमें राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर( एनपीआर) का प्रावधान किया। इसमें दर्ज है कि एन पी आर, एन आर सी की दिशा में पहला कदम है। एनपीआर के जरिये लगभग 21  निजी जानकारियां लोगों से पूछी जाएंगी, इस आधार पर एनआर सी तैयार होगी , राष्ट्रीय पहचान पत्र जारी किया जाएगा तथा किसी भी व्यक्ति द्वारा दी गई जानकारी पर संदेह होने पर उससे नागरिकता के दस्तावेज मांगे जाएंगे।
     साफ है कि एनपीआर ही एनआरसी भी है। एनपीआर के जरिये व्यक्ति को 'संदिग्ध नागरिकता' की श्रेणी में डाला जायेगा। फिर उससे नागरिकता के सबूत मांगे जाएंगे।  मामला फिर 'विदेशी ट्रिब्यूनल' में जायेगा। यहां भी नागरिकता साबित नहीं होने पर व्यक्ति "घुसपैठिया" या "शरणार्थी" कहलायेगा। यदि मुस्लिम है तो "घुसपैठिया",  हिन्दू या अन्य धर्म के हैं तो " शरणार्थी" । इस प्रकार अपने ही देश में करोड़ों लोग 'घुसपैठिया' व 'शरणार्थी' बना दिये जायेंगे। कथित 'घुसपैठिये' डिटेंशन केंद्र (एक प्रकार की जेल) में बंद कर दिए जाएंगे। जबकि कथित "शरणार्थी" इस सरकार के रहमों करम पर होंगे।
       याद रखिये! इस कथित "घुसपैठिया" या "शरणार्थी" की सूची में कोई अम्बानी, अडाणी, टाटा, बिड़ला जैसा पूंजीपति नहीं होगा; मोदी, शाह, भागवत, मनमोहन,अखिलेश, केजरीवाल, सोनिया आदि आदि जैसे लोग नहीं होंगे। ये हुक्मरां हैं, शासक हैं। 
     इस कथित "घुसपैठिया" या "शरणार्थी" की सूची में देश के मजदूर-मेहनतकश इंसान होंगे, इस देश के आम नागरिक होंगे। जो हर धर्म के होंगे, हर जाति के होंगे। तब एक नागरिक के रूप में हासिल अधिकार मसलन संपत्ति अर्जित करने, शिक्षा-स्वास्थ्य-रोज़गार के अधिकार, वोट देने, विरोध प्रदर्शन करने, असहमति जताने जैसे सभी अधिकार छिन जाएंगे।
      आज एनपीआर-एनआरसी व सीएए का विरोध इसलिए है कि असम के दुखदायी, यंत्रणादायी व भयानक डरावने अनुभव सामने हैं। तब ये मामले सामने नहीं थे। असम में 'दस्तावेज' होने के बावजूद लोग मामूली गलतियों से नागरिकता सूची से बाहर हो गए। जबकि गरीब मज़दूरों, अनपढ़ लोगों, महिलाओं के पास दस्तावेज ही नहीं थे। कई लोगों ने नाम, जाति, धर्म बदल लिए थे उनके लिए भी नागरिकता का सबूत जुटाना नामुमकिन था। कइयों के पास दस्तावेज जुटाने के लिए पैसे ही नहीं थे। अन्तत: 19 लाख लोग नागरिकता सूची से बाहर हो गए। कई लोगों की सदमे में मौत हो गई जबकि 29 लोग (हिन्दू-मुस्लिम) डिटेंशन केंद्र में मर चुके हैं।
     नागरिकता का मापदंड क्या होगा? आधार, पेन कार्ड, वोटर कार्ड, पासपोर्ट, राशनकार्ड से क्या नागरिकता साबित होती हैं? नहीं। अभी भी यह अस्पष्ट है। असम में एक व्यक्ति द्वारा 16 दस्तावेज नागरिकता साबित करने हेतु जमा किये गए जिसमें 1966 के भी दस्तावेज थे मगर 'विदेशी ट्रिब्यूनल' व असम हाईकोर्ट ने इनको मानने से इंकार कर दिया। सरकार ने इस विषय पर जानबूझकर चुप्पी साधी हुई है।
       एन पी आर का जनगणना से कोई लेना-देना नहीं है। जनगणना 'जनगणना कानून-1948' के तहत हर 10 साल में होती है इसमें आर्थिक-सामाजिक स्थिति से संबंधित सवाल पूछे जाते हैं।
      ऐसे वक्त में जब जनता को भारी राहत की जरूरत थी। बढ़ती महंगाई, लाखों मज़दूरों की छंटनी, कर्मचारियों पर छंटनी की लटकती तलवार, भारी बेरोजगारी, छोटे कारोबारियों-दुकानदारों की खस्ता हालत, महिलाओं के खिलाफ बढ़ती यौन हिंसा! इन सबसे जनता त्रस्त थी। छात्र, किसान,कर्मचारी, मज़दूर, महिलाएं-आदिवासी सभी संघर्ष के मैदान में थे। सब राहत चाह रहे थे। तब यह कानून लाया गया। एनपीआर व एनआरसी के विरोध के बावजूद सरकार पीछे हटने को तैयार नहीं है।
      तब फिर सवाल है कि मोदी सरकार इस "काले कानून व प्रावधान" यानी 'सीएए एनपीआर एनआरसी" को लागू कराने को दृढ़ क्यों है? दरअसल आज बड़ी-बड़ी पूंजी के मालिक जनता पर अपनी मनमर्जी थोप देना चाहते हैं। अपने मुनाफे को किसी भी कीमत बढ़ाते जाना चाहते हैं। इसलिये जनता को पूरी तरह निचोड़ देने को ये बेचैन हैं। मगर ये डरते हैं। जानते हैं कि यह भयानक लूट-खसोट जनता के गुस्से को देशव्यापी संघर्षों में बदल सकता है।  इसलिए एक वक्त बाद इन्होंने कांग्रेस को पीछे कर दिया। मोदी-शाह व भाजपा संघ को आगे कर दिया। अपनी मीडिया व पैसे के चमत्कार से इन्हें सत्ता तक पहुंचा दिया। अब इनकी तैयारी खुल कर खेलने की है। यहां यही "देश" हैं यही "राष्ट्र" है 'राष्ट्रवाद',  'देशभक्ति' भी इन्हीं से है। मोदी-शाह के हिन्दू फासीवादी एजेन्डा इन्हीं के लिए है। इनके जरिये शासक खौफ व दहशत कायम कर देना चाहते हैं। विरोध को कुचल देना चाहते हैं। आतंकी तानाशाही कायम कर देना चाहते हैं। इसके निशाने पर  मज़दूर मेहनतश जनता है आम नागरिक हैं। इस काले कानून के जरिये यह इसी साजिश को आगे बढ़ा रहे हैं।
      इसीलिए जरूरत है कि  मज़दूर मेहनतकश जनता को 'घुसपैठिया' 'शरणार्थी' बनाये जाने की साजिश का विरोध किया जाय। यही नहीं पूंजी के मालिकों व इनकी सरकार के हर फासीवादी एजेन्डे का पुरजोर विरोध किया जाय।

8 मार्च: अंतराष्ट्रीय महिला दिवस ज़िंदाबाद

       8 मार्च: अंतराष्ट्रीय महिला दिवस ज़िंदाबाद
 आज से लगभग 110 साल पहले, 1910 से 8 मार्च 'कामगार महिलाओं' के लिए बराबरी के अधिकार व संघर्ष का प्रतीक बन गया। 1917 में रूस में समाजवादी क्रांति हुई तो महिलाओं को वोट देने का अधिकार मिला। समाजवादी रूस में महिलाओं को शिक्षा, नौकरी  से लेकर हर जगह बराबरी के अधिकार हासिल हुए।
 
    आज हालात क्या हैं? हमारे समाज में आम महिलाओं की क्या स्थिति है? कामकाजी महिलाओं की क्या स्थिति है? आम महिलाओं के खिलाफ अपराधों की क्या स्थिति है?
    कोई भी आसानी से कह सकता है कि आम महिलाओं की, कामकाजी महिलाओं की स्थिति कुछ मायने में पहले से बेहतर हुई है तो कई मायनों में स्थिति खराब भी हुई है। यह आज पूरी दुनिया के लिए सच है।
      आज के दौर में आम महिलाओं के लिए सबसे बड़ा मुद्दा 'असुरक्षा' का है। रातें तो पहले ही महिलाओं के लिए खतरनाक मानी जाती थी, एक अघोषित 'कर्फ्यू' रात में महिलाओं पर लागू हो जाता था। मगर अब दिन भी खतरनाक हो गए हैं। महिलाएं घर की चारदीवारी के भीतर भी असुरक्षित हैं तथा बाहर भी। बात इतनी ही नहीं है, स्त्री चाहे वह बच्ची हो या 70-80 साल की, कोई भी सुरक्षित नहीं है।
यही नहीं, आज समाज में बढ़ती बेरोजगारी की एक वजह 'कामकाजी महिलाओं' को भी बताया जाता है। जबकि महिलाओं की बराबरी, समानता के अधिकार के लिए बेहद जरूरी है कि महिलाओं की 'सामाजिक उत्पादन' में भागीदारी अवश्य बने यानी वह नौकरी करें या रोज़गार करें आत्मनिर्भर बनें ।
      महिलाओं को दोयम दर्जे का मानने वाली सोच, आज भी बनी हुई है। एक तरफ सदियों पुरानी पुरुषप्रधान सोच कि महिला पैर की जूती है, महिलाएं पुरुषों के लिए हैं आज भी बनी हुई है। तो दूसरी तरफ आज इंटरनेट व फ़िल्म इंडस्ट्री ने महिलाओं को 'खाने-पीने व मौज की वस्तु' यानी 'यौन वस्तु' में बदल दिया है। ये दोनों सोच  मिलकर एक ऐसे 'खतरनाक पुरुष' को तैयार कर रही है जो उन्नाव, कठुवा, हैदराबाद, आगरा व पौड़ी जैसी घटनाओं को अंजाम देते हैं।
      लेकिन यही स्थिति शासक वर्ग की महिलाओं की नहीं है यानी सोनिया गांधी, निर्मला सीतारमण, मेनका गांधी, मायावती, ममता बनर्जी आदि की नहीं है। क्योंकि ये शासक हैं। आम महिलाएं, कामकाजी महिलाएं जो मेहनतकश जनता का हिस्सा हैं उन्हीं की यह स्थिति बनती हैं।
      आज देश में जब से नागरिकता संशोधन कानून आया है तथा देश में हर जगह एन पी आर होनी है तब ऐसे में भी सबसे ज्यादा खतरे की तलवार भी महिलाओं पर ही लटकी हुई है। आम तौर पर अधिकांश महिलाओं के पास ही दस्तावेज नहीं मिलेंगे जिससे साबित होता हो कि वह देश की नागरिक हैं। असम में यही स्थिति बनी थी।
      अभी दिल्ली में 'दंगे' प्रायोजित किये गए। इस प्रायोजित दंगे में सबसे ज्यादा किसे झेलना पड़ा? महिलाओं को ही। महिलाओं के साथ यौन हिंसा की गई। ऐसा हर दंगों में होता है, ऐसा हर संघर्षों में होता है कि निशाने पर महिलाएं ही होती हैं। अलग उत्तराखंड के लिए जब संघर्ष हुआ था तब 'रामपुर तिराह कांड' हुआ था जहां दिल्ली प्रदर्शन के लिए जा रही बसों को रोककर उत्तराखंड की महिलाओं के साथ यू.पी. पुलिस ने जमकर यौन हिंसा की थी, बलात्कार किये थे। सब जानते हैं कि यह सब सरकार के इशारे पर ही होता है। चाहे सरकार किसी की पार्टी हो।
      समाज में होने वाला हर अन्याय, हर उत्पीड़न आम तौर पर महिलाओं की स्थिति को कमजोर करता है उन्हें पीछे धकेलता है। इसी की उल्टी बात भी सच है कि महिलाओं के खिलाफ होने वाला हर अन्याय, हर हिंसा पूरे समाज को भी पीछे धकेल देती है।
     इसीलिये जरूरी है कि बराबरी, भाईचारे तथा अन्याय-उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष में मेहनतकश महिलाएं व मेहनतकश पुरुष मिलजुलकर, एकजुट होकर संघर्ष करें।
      आज देश में स्थिति बेहद गंभीर है। अर्थव्यवस्था भीषण संकट में है, बेरोजगारी 45 सालों में सबसे ज्यादा है। बैंक डूब रहे हैं इसी के साथ इनमें जनता की मेहनत की कमाई भी डूब रही हैं। कारोबारियों-दूकानदारों की स्थिति बहुत खराब है। लाखों की संख्या में मज़दूरों की नौकरियों से छंटनी हो चुकी है। अन्ततः इस सबका बुरा असर भी आम महिलाओं पर ही पड़ना है। दूसरी ओर इस संकट में भी देश के शीर्ष पूंजीपति अम्बानी,अडाणी, टाटा जैसे लोग मालामाल हो रहे हैं वहीं भाजपा सबसे अमीर पार्टी बन चुकी है।
ये शीर्ष पूंजीपति मोदी-शाह की अगुवाई में हिन्दू फासीवादी राजनीति के जरिये जनता के हर संघर्ष को कुचल रहे है। यही नहीं, इनके राज में महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा व बलात्कार करने वाले चिन्मयानन्द, कुलदीप सेंगर, नित्यानंद जैसे लोगों को खुलकर बचाने का काम भी हो रहा है।
      सही मायने में इनका 'हिन्दू राष्ट्र' महिलाओं को गुलामी की स्थिति में धकेलने वाला है। आज यह खतरा काफी बढ़ चुका है इसलिए आज आम  जरूरी है कि एकजुट होकर अपने अधिकारों के लिए संघर्ष किया जाय। यह भी जरूरी है कि जिस पूंजी ने, पूंजीवाद ने पूरे समाज को अपनी जकड़न में ले लिया है और समाज को अब भाजपा की फासीवादी राजनीति के जरिये बर्बरता की तरफ धकेल दिया है उस पूंजी पर काबू पाने के संघर्ष को तेज़ किया जाय, पूंजीवाद को खत्म कर समाजवादी समाज कायम करने की ओर बढ़ा जया।

Friday, 28 February 2020

नागरिकता(संशोधन) कानून, एन.आर.सी. व एन.पी.आर. पर


   नागरिकता(संशोधन) कानून, एन.आर.सी. व एन.पी.आर. पर
    मोदी सरकार ने नागरिकता कानून में संशोधन कर दिया। अब धर्म के आधार पर नागरिकता पड़ोसी मुल्क के पीड़ित अल्पसंख्यकों को दी जाएगी। यह केवल हिंदू, सिख जैन, पारसी, इसाई व बौद्ध धर्म के लोगों के लिए है।
       साफ है! कानून धर्म के आधार पर नागरिकता देने की बात करता है। यही नहीं ! सरकार के मंत्रियों ने बार-बार कहा कि एन आर सी पूरे देश में होगी। इसलिए संशोधित नागरिकता कानून व एन.आर.सी का चौतरफा विरोध हो रहा है। असम से लेकर दिल्ली व यू पी से लेकर पश्चिम बंगाल तक ।
      विरोध देशव्यापी है। सरकार ने जनसंघर्ष का बर्बर दमन किया। हजारों लोग गिरफ्तार हैं। इन पर संगीन मुकदमे दर्ज हुए हैं। 25-30 लोग मारे गए हैं। संघर्ष व दमनचक्र जारी हैं। जो प्रदर्शनकारी पीड़ित हैं। पुलिस की बर्बर हिंसा व जुल्म के शिकार हुए हैं। अब उन्हीं को बदनाम करने का, अपराधी बताने का अभियान शुरू हो चुका है। सरकार की बर्बर हिंसा, लम्पट तत्वों के हमलों व दमन चक्र पर खामोशी है। इसे जायज बताया जा रहा है। वक़्त बर्बर अंग्रेजी राज की याद दिला रहा है तब देश की आज़ादी के लिए लड़ने वालों को 'आतंकवादी' 'अपराधी' कहा जाता था।
         यह ऐसा वक़्त है जब जनता को भारी राहत की जरूरत थी। बढ़ती महंगाई, लाखों मज़दूरों की छंटनी, कर्मचारियों पर छंटनी की लटकती तलवार, भारी बेरोजगारी, छोटे कारोबारियों-दुकानदारों की खस्ता हालत, महिलाओं के खिलाफ बढ़ती यौन हिंसा! इन सबसे जनता त्रस्त थी। छात्र, किसान,कर्मचारी, मज़दूर, महिलाएं-आदिवासी सभी संघर्ष के मैदान में थे। सब राहत चाह रहे थे। मगर हुआ क्या ? राहत नही मिली। हमें मिला- 'नागरिकता कानून' ! विरोध करने पर बर्बर दमन! खौफ-दहशत कायम करने की भरपूर कोशिश !
    हकीकत यह है कि पड़ोसी मुल्क के अल्पसंख्यक पीड़ितों से इन्हें कोई हमदर्दी नहीं है। यह सिर्फ इनके फासीवादी एजेंडे का दांव है। वरना तो कानून सालों पुराना बना ही था कि पड़ोसी मुल्क में हिंसा, युद्ध से पीड़ित लोग भारत आ सकते हैं। शरण पा सकते हैं। कुछ सालों बाद नागरिक बन सकते हैं। यह धर्म के नाम पर लोगों को बांटता नहीं था।
         इन्हें बहुत डर लगता है! ये घबराते हैं!  यह कहने में कि जो हिन्दू हैं वे सबसे पहले इंसान है । वे मज़दूर हैं छात्र हैं कर्मचारी हैं मेहनतकश हैं। जो मुस्लिम है वे भी इंसान हैं वे भी मज़दूर हैं मेहनतकश हैं। ये जो मज़दूर मेहनतकश इंसान हैं। ये करोड़ों करोड़ हैं। ये करोड़ों करोड़ मज़दूर मेहनतकश एक हो गए तो फिर शासक कहां होंगे ? इनका खुद क्या होगा ? ये लोग यह जानते हैं समझते हैं।  इसीलिए ये तीन तलाक़, कश्मीर, राम मंदिर और फिर नागरिकता कानून लाते हैं।
    मोदी सरकार का यह कानून हिटलर की याद दिलाता है। हिटलर ने भी यहूदी विरोधी न्यूनबर्ग कानून बनाया था। फिर वहां जो कुछ भी हुआ। वह इतिहास में दर्ज है। इनका चाल चलन भी ऐसा ही है। पहले दूसरे धर्म के लोगों के खिलाफ सालों साल नफरत फैलाओ, अपने धर्म के लोगों को अपनी हिंसक भीड़ में बदल दो, इतिहास से छेड़छाड़ करो, उन्माद फैलाओ, इन्हें निशाना बनाओ, हमले करो फिर आतंकी तानाशाही कायम कर दो। आज यही देश में हो रहा है।
       यह अजीब है ! कि जिन्हें अपने देश की गरीब मेहनतकश जनता की कोई परवाह नहीं है। जो कर्मचारियों, छात्रों, किसानों, महिलाओं व मज़दूरों के आंदोलन का बर्बर दमन करते रहें हो। जिसमें अधिकांश हिंदू ही हैं। वे ही लोग पड़ोसी मुल्कों के पीड़ित हिन्दूओं से हमदर्दी जता रहे हैं !   
           एक तरफ देश में गहराता आर्थिक संकट है। मज़दूर मेहनतकशों की तबाही बर्बादी है। इसके खिलाफ उमड़ते आंदोलन हैं। दूसरी तरफ है इनका घृणित व घोर दमन ! जनता के जीवन की तबाही बर्बादी की कीमत पर अम्बानी-अदाणी जैसे कॉरपोरेट घरानों का लगातार बढ़ता मुनाफा। इस 'हमदर्दी' की मूल वजह यहीं हैं। इनकी 'चिंता' का असल रहस्य यहीं छुपा है। इन्हें सरेआम झूठ बोलने से भी गुरेज नहीं है।
        देश के मुखिया ने सरेआम तथ्यों से इंकार कर दिया। कहा कि एन.आर.सी की कोई चर्चा ही नहीं हुई। कि देश में कोई डिटेन्सन सेंटर (एक प्रकार की जेल) नहीं हैं। हकीकत क्या है ?  सरकार के मंत्री कई बार कह चुके हैं कि पहले नागरिकता कानून आएगा। फिर एन आर सी लागू होकर रहेगी। कि असम में 6 डिटेंसन सेंटर हैँ जहां हज़ार से ज्यादा लोग हैं जो खुद की नागरिकता साबित नही कर पाए।
       यह बात सही है कि अभी एन.आर.सी. केवल असम में हुआ है। देश में लागू नहीं हुआ है। मगर देर सबेर इसे लागू करने का इनका इरादा है। उमड़ते जनसंघर्षों से अभी इन्होंने कदम पीछे खींच लिए हैं। मगर अब इन्होंने एन.पी.आर. शुरू कर दिया है यह एन.आर.सी की ही दिशा में अगला कदम है।
     एन पी आर के जरिये व्यक्तिगत जानकारी घर-घर जाकर मांगी जाएगी। इन जानकारी पर संदेह जताकर आम नागरिक को पहले 'संदिग्थ नागरिक' की श्रेणी में डाल दिया जाएगा। फिर 'संदिग्थ' की श्रेणी में डाले गये व्यक्ति से नागरिकता के सबूत मांगे जाएंगे। मामला विदेशी ट्रिब्यूनल में जायेगा। नागरिकता के सबूत जुटाना बहुत मुश्किल हो जाएगा। अभी नागरिकता के मापदंड क्या होंगे? यह भी अस्पष्ट है। असम के कई मामले इस बात के गवाह हैं। यहां जो नागरिकता साबित नहीं कर पाएंगे वे अपने ही देश घुसपैठिया या शरणार्थी हो जाएंगे।
       असम में क्या हुआ था ? 6 साल में एन.आर. सी पूरी हुई। 19 लाख लोग अपने ही देश में घुसपैठिये हो गए, शरणार्थी बना दिये गये। इन 19 लाख में अधिकांश 'हिन्दू बंगाली' हैं। ऐसे में पश्चिम बंगाल के चुनाव भी एक वजह है कि तुरंत यह धर्म के नाम पर नागरिकता कानून लाया गया। ताकि चुनाव जीता जा सके। यदि यह देश भर में लागू होता है तो करोड़ो लोग नागरिकता से बाहर हो जाएंगे। क्योंकि आधार, वोटर कार्ड नागरिकता होने का सबूत नहीं है। सरकार कहती है कि ये तो कथित घुसपैठियों ने भी बनवा लिए हैं। 2-3 पीढी पुराने दस्तावेज खंगालने होंगे। तब तय मानिये ! करोड़ों लोग हिन्दू-मुस्लिम या अन्य खुद को नागरिक साबित नहीं कर पाएंगे। यह सब मज़दूर मेहनतकश जनता ही होगी। इस तरह अपने ही देश में लोग घुसपैठिये हो जायेंगे, शरणार्थी बना दिये जायेंगे। आज के शासकों की यही मंशा हैं यही इनका इरादा है।
          जिस जनता ने देश का निर्माण किया है। अपने खून पसीने से इसे सींचा है। आज़ादी के संघर्षों में अकूत कुर्बानियां दी हैं। संविधान में नागरिक होने के अधिकार को खून बहाकर हासिल किया है। उसी जनता पर 'घुसपैठिया' होने का संदेह किया जाता है। उसे बिना कहे 'अपराधी' मान लिया जाता है। फिर उनसे नागरिकता का 'सबूत' मांगा जाता है।
         दूसरी ओर पूंजी के मालिकों के लिए लाल कालीन बिछाई जाती हैं। पूंजी व पूंजी के मालिकों को देश के कोने-कोने में घुसपैठ करने की आज़ादी होती है। लूट खसोट मचाकर भाग जाने की खुली छूट होती है। कौन है जो अब भी भोपाल गैस कांड (1984) को नहीं जानता ! कि जब हज़ारों लोगों के हत्यारे अमेरिकी पूंजीपति एंडरसन को हमारे शासकों ने बाहर भगाने में पूरी मदद की थी।
       यदि देश में 'घुसपैठिये' हैं तो यह किसका दोष है? क्या जनता का ! क्या इसके लिए रोज़ी-रोटी-महंगाई-बीमारी से त्रस्त जनता को हैरान परेशान किया जायेगा ?  इस सबके लिए देश के शासक जिम्मेदार हैं। इनका शासन प्रशासन जिम्मेदार है।       
       आखिर ऐसा क्यों है ? कि रोज़ी- रोटी की तलाश में देश के एक कोने से दूसरे कोने जाने वाले मज़दूर मेहनतकशों को 'दुश्मन' बताया जाता है। 'घुसपैठिया' 'दीमक' कहा जाता है।  जरा याद कीजिये! भारत के लाखों मज़दूर मेहनकश दुबई, कुवैत से लेकर अमेरिका जैसे देशों में हैं ! क्या ये 'घुसपैठिये' हैं ? क्या ये 'दीमक' हैं ? नहीं ! इन्हें 'दीमक' 'घुसपैठिया' वही कह सकते हैं जिनकी आत्मा पूंजी की एजेंट हैं। जो बड़ी-बड़ी पूंजी के मालिकों के चरणों में लोट-पोट हैं। जिनकी ज़िंदगी लूट, शोषण, अन्याय पर ही टिकी है और इसे किसी भी कीमत पर बरकरार रखना चाहते हैं।
      आज बड़ी-बड़ी पूंजी के मालिक जनता पर अपनी मनमर्जी थोप देना चाहते हैं। अपने मुनाफे को किसी भी कीमत बढ़ाते जाना चाहते हैं। इसलिये जनता को पूरी तरह निचोड़ देने को ये बेचैन हैं। मगर ये डरते हैं। जानते हैं कि यह भयानक लूट-खसोट जनता के गुस्से को देशव्यापी संघर्षों में बदल सकता है।  इसलिए एक वक्त बाद इन्होंने कांग्रेस को पीछे कर दिया। मोदी-शाह व भाजपा संघ को आगे कर दिया। अपनी मीडिया व पैसे के चमत्कार से इन्हें सत्ता तक पहुंचा दिया। अब इनकी तैयारी खुल कर खेलने की है। यहां यही "देश" हैं यही "राष्ट्र" है 'राष्ट्रवाद',  'देशभक्ति' भी इन्हीं से है। मोदी-शाह के हिन्दू फासीवादी एजेन्डा इन्हीं के लिए है। इनके जरिये शासक खौफ व दहशत कायम कर देना चाहते हैं। विरोध को कुचल देना चाहते हैं। आतंकी तानाशाही कायम कर देना चाहते हैं। इसके निशाने पर पूरी मज़दूर मेहनतश जनता है।
जहां तक अन्य पूंजीपरस्त पार्टियों का सवाल है। कांग्रेस, सपा, बसपा ,आप जैसी पार्टियां भी भ्रष्ट हैं। जनविरोधी हैं। ये हमारी मददगार नहीं हो सकती। इनका विरोध प्रदर्शन अपना वोट बचाने के लिए है। वैसे भी कांग्रेस व भाजपा दोनों बड़े पूंजीवादी घरानों की हैं। 
      जरूरत है कि  मज़दूर मेहनतकश जनता को 'घुसपैठिया' 'शरणार्थी' बनाये जाने की साजिश का विरोध किया जाय। यही नहीं पूंजी के मालिकों व इनकी सरकार के हर फासीवादी एजेन्डे का पुरजोर विरोध किया जाय।

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